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शनिवार, 10 नवंबर 2012

क्या इस मिट्टी के चूल्हे को हम भूल सकते हैं?

“चूल्हा जलना” मुहावरा मानव सभ्यता के साथ जुड़ा है। कहावत है “घर-घर में माटी का चूल्हा” सहस्त्राब्दियां बीत गयी, चूल्हे को जलते, अब चूल्हा नहीं रहा। उसके अवशेष ही बाकी हैं, इस मुहावरे को बदलने की जरुरत है। ये वही चूल्हा है जिसने मानव के प्राण बचाए, संस्कृतियों एव सभ्यता को बचाया, चूल्हा जलाकर मानव सभ्य कहलाया। उसने अग्नि को वश में किया। प्रतिकूल अग्नि विनाश करती थी उसे अनुकूल बनाकर उपयोगी बनाया। वर्तमान-भूत-भविष्य सभी में चूल्हे का स्थान माननीय है। कैसी विडम्बना है अब चूल्हे को अपने अस्तित्व की रक्षा करने के लिए जद-ओ-जहद करनी पड़ रही है। क्या इस मिट्टी के चूल्हे को हम भूल सकते हैं?

रात को ही माँ चूल्हे को लीप-पोत कर सोती थी और भोर में ही चूल्हा जल जाता था। पानी गर्म करने से लेकर भोजन तैयार होने तक चूल्हा जलता ही रहता था। गांव में किसी बदनसीब का ही घर होता था जिसके कवेलुओं या छप्पर से धूंवा नहीं निकलता था। लोग जान जाते थे किसके घर में आज चूल्हा नहीं जला है और कौन भूखा सोने की तैयारी में है। किसके बच्चे भूख से विलाप कर रहे होगें। चूल्हा घर की सारी खबर गाँव तक पहुंचा देता था। कोई उस घर की मदद कर देता था तो उसका चूल्हा जल जाता था। मनुष्य से अधिक चूल्हे को भूख असहनीय हो जाती थी। वह अपने प्राण होम कर घर मालिक की जान बचाता था।

आज भी माँ सुबह उठती है और चूल्हा जला देती है। चूल्हे पर खाना तैयार भले ही न हो लेकिन गर्म पानी तो हो जाता है। चूल्हे की भूभल (गर्म राख) में सेके हुए बैंगन के भरते का आनंद और कहीं नहीं मिल सकता। इसमें सेंके हुए आलू, शकरकंद, बिल्वफ़ल (बेल) के स्वाद के तो क्या कहने। अब तो गुजरे जमाने की याद हो गयी है। चूल्हे पर मिट्टी के तवे पर बनी हुई रोटियों की सोंधी खुश्बू रह-रह कर याद आती है। गाँव में किसी के यहाँ उत्सव होता था तो घर के चूल्हे को ही न्योता जाता था। जिसे चुलिया नेवता कहते थे।गुजरे जमाने की जैसी यादें मुझे आ रही हैं, शायद चूल्हा भी गुजरे जमाने को याद करके तड़फ़ता होगा। जब उसका जलवा कायम था।

चूल्हे का जलना उसके इंधन पर कायम है। गाँव में आज भी चूल्हा जलाने के लिए इंधन की व्यवस्था करनी पड़ती है। चूल्हा इसलिए जलता था कि घर में बहुत सारे पेड़ हैं, वातावरण साफ़ सुथरा होता था, हरियाली रहती थी और सूखी हुई शाखाएं उसके इंधन के काम आ जाती थी, आज भी आती हैं। जलावन की लकड़ियों के लिए रुपए खर्च नहीं करने पड़ते। पेड़ों की शाखाएं काटी भी न जाएं तो भी वह वर्ष भर के चूल्हा जलाने के लायक लकड़ियाँ उपलब्ध करा ही देती हैं। चूल्हे का अस्तित्व बचा रहता है। सुबह-शाम उसकी लिपाई हो जाती है और साप्ताहिक मरम्मत भी।

चूल्हे का निर्माण आसान काम नहीं है। कोयले की सिगड़ी के साथ चूल्हे का निर्माण कोई विशेषज्ञ महिला ही करती है। उसे सुंदर मांडने से सजाया भी जाता है। घर में चूल्हे स्थान महत्वपूर्ण है और इससे महत्वपूर्ण है “पूरा घर एक ही चूल्हे पे भोजन करता है”। चूल्हे ने परिवार का विघटन नहीं होने दिया। नया चूल्हा रखना बहुत कठिन होता है परिवार को तोड़ कर। घर में दूसरा चूल्हा रखने से पहले लाख बार सोचना पड़ता है क्योंकि उसके साथ बहुत कुछ बंट जाता है। विश्वास के साथ आत्मा, कुल देवता, पीतर और भगवान भी। इसलिए बड़े बूढे कहते थे-अपना-अपना धंधा बांट लो लेकिन चूल्हे को एक रहने दो। संयुक्त परिवार में दो कमाने वालों के सहारे एक निखट्टू के परिवार का निर्वहन भी यही चूल्हा कर देता था।

जब भी चूल्हे की ओर देखता हूँ तो मन में एक कसक जन्म लेती है। टीस सी उठती है। कभी इसी चूल्हे पे परिवार के 40 लोग आश्रित थे। आए-गए अतिथियों का भरपूर मान मनुहार होता था। गाँव में शहर में इज्जत और धाक कायम थी। क्योंकि सारा घर का सामान थोक में ही आता था। जब भी किसी दुकान पर चले जाते थे तो मोटा आसामी देखकर दुकानदार का चेहरा खिल उठता था। शहरों में लोग लाखों करोड़ों रुपए कमाते हैं, उनके यहाँ चूल्हा नहीं जलता। गाँव में 100 रुपए रोज कमाने वाले के यहाँ भी चूल्हा जलता है।

इसका मतलब यह नहीं है कि शहरों में खाना नहीं बनता। गैस या बिजली हीटर चलता है खाना बनाने के लिए। अब एक चूल्हे के 10 गैस सिलेंडर हो गए हैं। कई चूल्हा प्रेमियों के ड्राईग रुम में चूल्हे का माडल शोभा दे रहा है। उन्हे लगता है कि चूल्हे के माडल से वे अपने गाँव की संस्कृति से जुड़े हैं। अपनी धरती से जुड़े हैं। गैस ने माटी के चूल्हों को अपनों से दूर कर दिया। अब उसकी जड़ों मठा डाल रही है। चूल्हा बंटने के साथ लोगों के मन भी बंट गए। दूर की राम-राम भी खत्म हो गयी है। चूल्हे ने जिस परिवार को बांध रखा था वह अब खंड-खंड हो गया। कोने में पड़ा हुआ चूल्हा अपनी बेबसी पर सिसक रहा है

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