भारतवर्ष
में गुरुकुलों की व्यवस्था बहुत दिनों तक जारी रही। राज्य अपना यह कर्तव्य
समझता था कि गुरुओं और गुरुकुलों के भरण पोषण की सारी व्यवस्था करें।
वरतंतु के शिष्य कौत्स ने अत्यंत गरीब होते हुए भी उनसे कुछ दक्षिणा लेने
का जब आग्रह किया तो गुरु ने क्रुद्ध होकर एक असंभव राशि चौदह करोड़ स्वर्ण
मुद्राएँ-माँग दीं। कौत्स ने राजा रघु से वह धनराशि पाना अपना अधिकार समझा
और यज्ञ में सब कुछ दान दे देनेवाले उस
अकिंचन राजा ने उस ब्राह्मण बालक की माँग पूरी करने के लिए कुबेर पर आक्रमण
करने की ठानी। रघुवंश की इस कथा में अतिमानवीय पुट चाहे भले हों,
शिक्षासंबंधी राजकर्तव्यों का यह पूर्णरूपेण द्योतक है। पालि साहित्य में
ऐसी अनेक चर्चाएँ मिलती हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि प्रसेनजित जैसे राजाओं
ने उन वेदनिष्णात ब्राह्मणों को अनेक गाँव दान में दिए थे, जो वैदिक
शिक्षा के वितरण के लिए गुरुकुल चलाते। यह परंपरा प्राय: अधिकांश शासकों ने
आगे जारी रखी और दक्षिण भारत के ब्राह्मणों को दान में दिये गए ग्रामों
में चलने वाले गुरुकुलों और उनमें पढ़ाई जानेवाली विद्याओं के अनेक
अभिलेखों में वर्णन मिलते हैं। गुरुकुलों के ही विकसित रूप तक्षशिला,
नालंदा, विक्रमशिला और वलभी के विश्वविद्यालय थे। जातकों, ह्वनेसांग के
यात्राविवरण तथा अन्य अनेक संदर्भों से ज्ञात होता है कि उन
विश्वविद्यालयों में दूर दूर से विद्यार्थी वहाँ के विश्वविख्यात अध्यापकों
से पढ़ने आते थे। वाराणसी अत्यंत प्राचीन काल से शिक्षा का मुख्य केंद्र
थी और अभी हाल तक उसमें सैकड़ों गुरुकुल, पाठशालाएँ रही हैं और उनके भरण
पोषण के लिए अन्नक्षेत्र चलते रहे। यही अवस्था बंगाल और नासिक तथा दक्षिण
भारत के अनेक नगरों में रही। 19वीं शताब्दी में प्रारंभ होनेवाले भारतीय
राष्ट्रीय और सांस्कृतिक पुनर्जागरण के युग में प्राचीन गुरु कुलों की
परंपरा पर अनेक गुरुकुल स्थापित किए गए और राष्ट्रभावना के प्रसार में उनका
महत्वपूर्ण योग रहा। यद्यपि आधुनिक अवस्थाओं में प्राचीन गुरुकुलों की
व्यवस्था को यथावत पुन: प्रतिष्ठित तो नहीं किया जा सकता, तथापि उनके
आदर्शों को यथावश्यक परिवर्तन के साथ अवश्य अपनाया जा सकता है।
गुरुकुल इसका शाब्दिक अर्थ है गुरु का परिवार अथवा गुरु का वंश परंतु यह सदियों से भारतवर्ष मे शिक्षासंस्था के अर्थ में व्यवहृत होता रहा है। गुरुकुलों के इतिहास में इस देश की शिक्षाव्यवस्था और ज्ञानविज्ञान की रक्षा का इतिहास समाहित है। भारतीय संस्कृति के विकास में चार पुरुषार्थों, चार वर्णो और चार आश्रमों की मान्यताएँ तो अपने उद्देश्यों की सिद्धि के लिए अन्योन्याश्रित थी ही, गुरुकुल भी उनकी सफलता में बहुत बड़े साधक थे। यज्ञ और संस्कारों द्वारा ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य बालक 6,8 अथवा 11 वर्ष की अवस्थाओं में गुरुकुलों में ले जाए जाते थे (यज्ञोपवीत, उपनयन अथवा उपवीत) और गुरु के पास बैठकर ब्रह्मचारी के रुप में शिक्षा प्राप्त करते थे। गुरु उनके मानस और बौद्धिक संस्कारों को पूर्ण करता हुआ उन्हें सभी शास्त्रों एवं उपयोगी विद्याओं की शिक्षा देता तथ! अंत में दीक्षा देकर उन्हें विवाह कर गृहस्थाश्रम के विविध कर्तव्यों का पालन करने के लिए वापस भेजता। यह दीक्षित और समावर्तित स्नातक ही पूर्ण नागरिक होता और समाज के विभिन्न उत्तरदायित्वों का वहन करता हुआ त्रिवर्ग की प्राप्ति का उपाय करता। स्पष्ट है, भारतीय सभ्यता और संस्कृति के विकास में गुरुकुलों का महत्वपूर्ण योग था।
गुरुकुल इसका शाब्दिक अर्थ है गुरु का परिवार अथवा गुरु का वंश परंतु यह सदियों से भारतवर्ष मे शिक्षासंस्था के अर्थ में व्यवहृत होता रहा है। गुरुकुलों के इतिहास में इस देश की शिक्षाव्यवस्था और ज्ञानविज्ञान की रक्षा का इतिहास समाहित है। भारतीय संस्कृति के विकास में चार पुरुषार्थों, चार वर्णो और चार आश्रमों की मान्यताएँ तो अपने उद्देश्यों की सिद्धि के लिए अन्योन्याश्रित थी ही, गुरुकुल भी उनकी सफलता में बहुत बड़े साधक थे। यज्ञ और संस्कारों द्वारा ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य बालक 6,8 अथवा 11 वर्ष की अवस्थाओं में गुरुकुलों में ले जाए जाते थे (यज्ञोपवीत, उपनयन अथवा उपवीत) और गुरु के पास बैठकर ब्रह्मचारी के रुप में शिक्षा प्राप्त करते थे। गुरु उनके मानस और बौद्धिक संस्कारों को पूर्ण करता हुआ उन्हें सभी शास्त्रों एवं उपयोगी विद्याओं की शिक्षा देता तथ! अंत में दीक्षा देकर उन्हें विवाह कर गृहस्थाश्रम के विविध कर्तव्यों का पालन करने के लिए वापस भेजता। यह दीक्षित और समावर्तित स्नातक ही पूर्ण नागरिक होता और समाज के विभिन्न उत्तरदायित्वों का वहन करता हुआ त्रिवर्ग की प्राप्ति का उपाय करता। स्पष्ट है, भारतीय सभ्यता और संस्कृति के विकास में गुरुकुलों का महत्वपूर्ण योग था।