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सोमवार, 28 जनवरी 2013

वायु के तीन अवतार मान्य हैं-

पुराणों की मान्यतानुसार वायु देवता के औरस पुत्र श्रीहनुमान शिवजी के अवतार हैं, जो राम कार्य के निमित्त वानर योनि में अवतरित हुए।
श्रीमद्भागवत में भगवान श्रीकृष्ण ने उद्धवजीसे किम्पुरुषों(सेवकों) में स्वयं के हनुमान होने की बात स्वीकारी है।
मानस-पीयूष के अनुसार अगस्त्य-संहिता में उल्लिखित श्रीसीताजीकी अन्तरंग अष्ट-सखियों में से जानकीजी को श्रीराम से मिलवाने वाली सखी श्रीचारुशीला के रूप में श्रीहनुमानजी ही हैं।

वे आजन्म नैष्ठिक ब्रह्मचारी हैं। तेज, धैर्य, यश, दक्षता, शक्ति, विनय,नीति, पुरुषार्थ, पराक्रम और बुद्धि जैसे गुण उनमें नित्य विद्यमान हैं। बल अन्तक-काल के समान है, तभी कोई शत्रु सम्मुख टिक नहीं सकता। शरीर वज्र के समान सुदृढ (वज्रांगी) है और गति गरुड के समान तीव्र। वे सभी के लिए अजेय व सभी आयुधों से अवध्य हैं। भक्ति के आचार्य, संगीत-शास्त्र के प्रवर्तक, चारों वेद एवं छह वेदांग शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष) के मर्मज्ञ हैं। अष्टसिद्धि एवं नवनिधि के दाता हैं।

केवल त्रेतायुगही नहीं, द्वापर भी हनुमानजी की पराक्रम-गाथा से गौरवान्वित हैं। महाभारत में कथानक है कि हनुमान जी ने गन्धमादन पर्वत पर कदली-वनमें अस्वस्थतावश पूंछ फैलाकर मार्ग में स्वच्छंद पडे रहने का उपक्रम किया। भीम ने दोनों हाथों से पूंछ हटाने का असफल प्रयास किया। इस प्रकार बलगर्वित भीम का गर्व विगलित हुआ। अर्जुन की रथ-ध्वजा पर विराज कर युद्धकाल में बल प्रदान किया। आनन्द रामायण में वर्णन है कि अर्जुन द्वारा त्रेता में राम-सेतु निर्माण की आलोचना करते हुए अहंकारवश शर-सेतु निर्मित कर श्रेष्ठता सिद्ध करते समय हनुमानजी के पग धरते ही सेतु भंग होने से अर्जुन का अहंकार नष्ट हुआ।

वे दास्य-भक्ति के सर्वोच्च आदर्श हैं। सीता- अन्वेषण एवं लंका-दहन के अत्यंत दुष्कर कृत्य को सफलतापूर्वक सम्पन्न करके

सो सब तब प्रताप रघुराई।नाथ न कछुमोरी प्रभुताई॥

की दैन्यभावयुक्तस्वीकारोक्ति सहित प्रभु श्रीराम से

नाथ भगतिअति सुखदायनी।देहुकृपा करिअनपायनी॥

द्वारा मात्र निश्चल-भक्ति की याचना दास्यासक्तिका अनुपम उदाहरण है।

जनुश्रुतिहै कि हनुमानजी द्वारा अनवरत श्रीराम की सेवा के कारण वंचित भरत, लक्ष्मण व शत्रुघ्न द्वारा माता जानकी के सहयोग से प्रभु के शैया-त्याग से शयन-काल तक की सेवा-तालिका बनाई गई, जिसमें हनुमान का नाम न था। हनुमानजी के अनुरोध पर उनके लिए प्रभु श्रीराम को जम्हाई आने पर चुटकी बजाने की सेवा नियत हुई। तब प्रभु के मुखारविन्द को अपलक निहारते हुए भूख, प्यास व निद्रा का परित्याग कर प्रतिक्षण चुटकी ताने सेवा को तत्पर रहते। रात्रि में माता जानकी की आज्ञावश प्रभु से विलग होने पर उनके शयनागार के समीप उच्चस्थ छज्जे पर बैठकर प्रभु का नामोच्चारण करते हुए अनवरत चुटकी बजाने लगे। संकल्पबद्ध भगवान् श्रीराम को भी निरन्तर जम्हाई-पर जम्हाई आने लगीं और अन्तत:थकित हो मुख खुला रह गया। तब दु:खी परिजनों के मध्य वशिष्ठजी हनुमान को न पाकर उन्हें ढूंढकर वहां लाए। प्रभु के नेत्रों से अविरल अश्रु-प्रवाह और खुला मुखारविन्द देख दु:खित हनुमान की चुटकी बंद हो गई। तभी प्रभु की पूर्व स्थिति आते ही मर्म को जान सभी ने उन्हें पूर्ववत् प्रभु-सेवा सौंपी।
सभी वैष्णव-सम्प्रदायों में उनका समुचित सम्मान है। गौणीय-सम्प्रदायमें चैतन्य महाप्रभु के प्रमुख परिकर श्रीमुरारिगुप्त हनुमानजी के अवतार माने गए हैं। मध्वसम्प्रदाय में उन्हें हनु (परमज्ञान) का अधिकारी देवता मानते हैं। साथ ही वायु के तीन अवतार मान्य हैं-
त्रेतायुगमें श्रीहनुमान,
द्वापर में भीम
और कलियुग में श्रीमध्व।रामानन्द-
सम्प्रदाय में वे सम्प्रदायाचार्य, भगवान् के परिकर एवं नित्य-उपास्य के रूप में मान्य व पूजित हैं। वल्लभ-सम्प्रदाय में अष्टछापके भक्त-कवियों की वाणी भी श्रीहनुमद्गुणानुवादसे अलंकृत हैं। स्वयं महाप्रभु वल्लभाचार्यजी की निष्ठा दृष्टव्य है-

अंजनिगर्भसम्भूतकपीन्द्रसचिवोत्तम।
रामप्रियनमस्तुभ्यंहनुमन्रक्ष सर्वदा॥

आनन्द रामायण में उल्लिखित अष्ट चिरजीवियोंअश्वत्थामा,बलि, व्यास, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य,परशुराम और मार्कण्डेय) में हनुमान भी सम्मिलित हैं। भगवान् श्रीराम से उन्हें चिरंजीवित्वव कल्पान्त में सायुज्य मुक्ति का वर मिला है-

मारुते त्वंचिरंजीव ममाज्ञांमा मृषा कृथा।एवम्कल्पान्ते मम् सायुज्य प्राप्स्यसेनात्रसंशय:। (अध्यात्म रामायण)।
श्रीरामकथाके अनन्य रसिक श्रीहनुमानजीकथा-स्थल पर अदृश्य रूप अथवा छद्मवेषमें विद्यमान रहकर सतत् कथा- रसास्वादन में निमग्न रहते हैं। अप्रतिम रामभक्त श्रीहनुमानसर्वथा प्रणम्य हैं-

प्रनवउंपवनकुमारखल बन पावक ग्यानघन।
जासुहृदय आगार बसहिंराम सर चाप धर॥

माँ वैष्णवी एक हैं तो फिर उनकी यहां तीन पिण्डियों के रूप में क्यों पूजा होती है?

ज़िंदगी में वजूद कायम रखने के लिए संघर्ष की अहमियत धर्मग्रंथों में धर्म-अधर्म की लड़ाई से जुड़े प्रसंग ही नहीं, विज्ञान के सिद्धांत भी उजागर करते हैं। यह जद्दोजहद जीवन, मान-सम्मान या जीवन से जुड़े किसी भी विषय से जुड़ी हो सकती है और यह संघर्ष किसी भी तरह से हो, ताकत के बिना मुमकिन नहीं होता।

यही वजह है कि शक्ति, अस्तित्व का भी प्रतीक मानी गई है। धार्मिक नजरिए से यह शक्ति संसार की रचना, पालन व संहार रूप में प्रकट होने वाली मानी गई है। वहीं सनातन संस्कृति स्त्री में शक्ति का ही साक्षात् रूप देखती है, क्योंकि स्त्री के जरिए कुदरती व व्यावहारिक तौर पर यही सृजन व पालन शक्ति उजागर होती है। शक्ति की इसी अहमियत को जानकर ही धर्म परंपराओं में स्त्री स्वरूपा कई देवी शक्तियां पूजनीय है।

शक्ति पूजा में खासतौर पर महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती का विधान है, जो सिलसिलेवार शक्ति, ऐश्वर्य और ज्ञान की देवी मानी जाती है। मां वैष्णवी यानी वैष्णो देवी भी इन 3 देवियों का स्वरूप मानी जाती हैं।

भारत के जम्मू और कश्मीर सूबे में स्थित मां वैष्णव का धाम शक्ति आराधना का जाग्रत स्थल माना जाता है। यहां पर अन्य देवी मंदिरों की तरह देवी की साकार और श्रृंगारित प्रतिमा न होकर मां वैष्णवी के तीन पिण्डियों के सामूहिक शक्ति स्वरूप में दर्शन होते हैं। माता के दर्शन की एक झलक भी ज़िंदगी में मनचाहे बदलाव लाने वाली मानी जाती है। कई श्रद्धालुओं की जिज्ञासा होती है कि आखिर माँ वैष्णवी एक हैं तो फिर उनकी यहां तीन पिण्डियों के रूप में क्यों पूजा होती है? माता की इन्हीं तीन दिव्य पिण्डियों के धार्मिक, वैज्ञानिक और आध्यात्मिक पहलूओं के साथ मां वैष्णवी के रूप में तीनों देवियों दर्शन से जीवन में क्या बदलाव होते हैं -

धार्मिक पहलू -

धार्मिक मान्यता है कि माता वैष्णवी अधर्म और दुष्टों का नाश कर जगत कल्याण के लिए आज भी माँ वैष्णव धाम में वास करती है। माता की तीन पिण्डियों के संबंध में यह पुराण कथा है -

राक्षस महिषासुर की दुष्टता और आंतक से दुःखी इन्द्र सहित सभी देवता ब्रह्मा और शिव के साथ वैकुण्ठधाम में भगवान विष्णु के पास जाते हैं। देवताओं ने विष्णु भगवान से इस संकट से छुटकारा दिलाने की प्रार्थना की। भगवान विष्णु ने दिव्य-दृष्टि से जानकर बताया कि महिषासुर की मृत्यु केवल एक नारी के हाथों ही संभव है, देवताओं द्वारा नहीं।

इसके बाद देवताओं द्वारा स्तुति करने पर ब्रह्मा, विष्णु और शिव के सामूहिक तेज से एक नारी स्वरूप शक्ति की पैदा हुई। इस शक्ति में ब्रह्मा के अंश से महासरस्वती, विष्णु के अंश से महालक्ष्मी और शिव के अंश से महाकाली पैदा हुई। गुफा में तीन पिण्डियां इन तीन देवी रूपों का ही प्रतीक है। इनका सामूहिक स्वरुप ही मॉं वैष्णवी है। बाहरी रुप से अलग-अलग दिखाई देने पर भी इन तीन रूपों में कोई भेद नहीं है।

वैज्ञानिक पहलू -

कहा जाता है कि वैज्ञानिकों ने भी इन पिण्डियों के रहस्य को जानना चाहा। उनके द्वारा वैज्ञानिक निष्कर्षों में भी यह पाया कि गुफा में यह तीन पिण्डियां बिना आधार के स्थित है यानी दिव्य पिण्डियां बिना किसी सहारे के हवा में खड़ी हैं, जो अद्भुत है।

आध्यात्मिक पहलू -

आध्यात्मिक नजरिए से अलौकिक शक्ति का रूप ये तीन पिण्डियां इच्छाशक्ति, ज्ञान शक्ति और क्रियाशक्ति की प्रतीक है। इस पहलू को व्यावहारिक जीवन से जोड़े तो पाते है कि जीवन में इच्छा, विद्या और कर्म के अभाव में किसी कार्य में सफलता नहीं मिलती है। शाक्त ग्रंथों में भी आदिशक्ति वैष्णवी ने शक्ति के इन अवतारों का मुख्य उद्देश्य देवताओं की रक्षा, मानव-कल्याण, दानवों का नाश, भक्तों को निर्भय करना और धर्म की रक्षा बताया है।

माता वैष्णवी की चमत्कारिक पिण्डियों की भांति ही वैष्णव मां की पवित्र गुफा में बहने वाला जल भी रहस्य का विषय है। इस जल का स्त्रोत वैज्ञानिकों को भी नहीं मिला। यही वजह है कि माता के दरबार से धर्मावलंबी भक्तों का अटूट आस्था और विश्वास है। इस बहते जल को भी वह मां का आशीर्वाद और उसका सेवन समस्त पापों को नष्ट करने वाला मानते हैं।
व्यावहारिक तौर पर तीन शक्तियों की साधना से यही सूत्र जूड़े हैं कि तरक्की और सफलता के लिए सबल व दृढ़ संकल्पित होना जरूरी है। इसके लिए सबसे पहले विचारों को सही दिशा देना यानी नकारात्मकता, अवगुणों व मानसिक कलह से दूर होना जरूरी है। मां वैष्णवी की शक्तियों में महादुर्गा या महाकाली स्वरूप की पूजा के पीछे यही भाव है।

इसी तरह मां वैष्णवी की शक्तियों में महालक्ष्मी पावनता और महासरस्वती विवेक शक्ति की प्रतीक है, जो मन और तन को सशक्त बनाती है। ऐसी दशा ज्ञान, संस्कार आत्मविश्वास, सद्गुणों, कुशलता और दक्षता पाने के लिये मुनासिब होती है। इसके द्वारा कोई भी इंसान मनचाहा धन, वैभव बंटोरने के साथ ही सुखी और शांत जीवन की कामनाओं को सिद्ध कर सकता है।

आज के दौर में इन तीन शक्तियों की पूजा का संदेश यही है कि जीवन में निरोगी, चरित्रवान, आत्म-अनुशासित, कार्य-कुशल व दक्ष बनकर शक्ति संपन्न बने और कामयाबी की ऊंचाइयों को छूकर वजूद, साख और रुतबे को कायम रखें।

मकरध्वज व हनुमानजी का पहला मंदिर गुजरात के भेंटद्वारिका में स्थित है।

हिंदू धर्म को मानने वाले ये बात बहुत अच्छी तरह से जानते हैं कि भगवान श्रीराम के परमभक्त व भगवान शंकर के ग्यारवें रुद्र अवतार श्रीहनुमानजी बालब्रह्मचारी थे.

लेकिन बहुत ही कम लोग ये बात जानते हैं कि धर्म शास्त्रों में हनुमानजी के एक पुत्र का वर्णन भी मिलता है।
शास्त्रों में हनुमानजी के इस पुत्र का नाम मकरध्वज बताया गया है।
भारत में दो ऐसे मंदिर भी है जहां हनुमानजी की पूजा उनके पुत्र मकरध्वज के साथ की जाती है। इन मंदिरों की कई विशेषताएं हैं जो इसे खास बनाती हैं।
हनुमानजी के पुत्र मकरध्वज की उत्पत्ति की कथा व इन मंदिरों से जुड़ी खास बातें :
धर्म शास्त्रों के अनुसार जिस समय हनुमानजी सीता की खोज में लंका पहुंचे और मेघनाद द्वारा पकड़े जाने पर उन्हें रावण के दरबार में प्रस्तुत किया गया। तब रावण ने उनकी पूंछ में आग लगवा दी और हनुमान ने जलती हुई पूंछ से पूरी लंका जला दी। जलती हुई पूंछ की वजह से हनुमानजी को तीव्र वेदना हो रही थी जिसे शांत करने के लिए वे समुद्र के जल से अपनी पूंछ की अग्नि को शांत करने पहुंचे। उस समय उनके पसीने की एक बूंद पानी में टपकी जिसे एक मछली ने पी लिया था। उसी पसीने की बूंद से वह मछली गर्भवती हो गई और उससे उसे एक पुत्र उत्पन्न हुआ,

जिसका नाम पड़ा मकरध्वज। मकरध्वज भी हनुमानजी के समान ही महान पराक्रमी और तेजस्वी था उसे अहिरावण द्वारा पाताल लोक का द्वारपाल नियुक्त किया गया था। जब अहिरावण श्रीराम और लक्ष्मण को देवी के समक्ष बलि चढ़ाने के लिए अपनी माया के बल पर पाताल ले आया था तब श्रीराम और लक्ष्मण को मुक्त कराने के लिए हनुमान पाताल लोक पहुंचे और वहां उनकी भेंट मकरध्वज से हुई। तत्पश्चात मकरध्वज ने अपनी उत्पत्ति की कथा हनुमान को सुनाई। हनुमानजी ने अहिरावण का वध कर प्रभु श्रीराम और लक्ष्मण को मुक्त कराया और श्रीराम ने मकरध्वज को पाताल लोक का अधिपति नियुक्त करते हुए उसे धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी।
मकरध्वज व हनुमानजी का पहला मंदिर गुजरात के भेंटद्वारिका में स्थित है। यह स्थान मुख्य द्वारिका से दो किलो मीटर अंदर की ओर है।
इस मंदिर को दांडी हनुमान मंदिर के नाम से जाना जाता है। ऐसी मान्यता है कि यह वही स्थान है जहां पहली बार हनुमानजी अपने पुत्र मकरध्वज से मिले थे।
मंदिर के अंदर प्रवेश करते ही सामने हनुमान पुत्र मकरध्वज की प्रतिमा है, वहीं पास में हनुमानजी की प्रतिमा भी स्थापित है।
इन दोनों प्रतिमाओं की विशेषता यह है कि इन दोनों के हाथों कोई भी शस्त्र नहीं है और ये आनंदित मुद्रा में है।
राजस्थान के अजमेर से 50 किलोमीटर दूर जोधपुर मार्ग पर स्थित ब्यावर में हनुमानजी के पुत्र मकरध्वज का मंदिर स्थित है।
यहां मकरध्वज के साथ हनुमानजी की भी पूजा की जाती है। प्रत्येक मंगलवार व शनिवार को देश के अनेक भागों से श्रद्धालु यहां दर्शन करने के लिए आते हैं।
ब्यावर के विजयनगर-बलाड़ मार्ग के मध्य भूभाग पर स्थित यह प्रख्यात मंदिर त्रेतायुगीन संदर्भों से जुड़ा हुआ है।
यहां शारीरिक, मानसिक रोगों के अलावा ऊपरी बाधाओं से भी मुक्ति मिलती ही है साथ में मनोकामनाएं भी पूर्ण होती हैं।
संभवत: संपूर्ण भारत देश में ब्यावर का यह दूसरा अनूठा मंदिर है, जहां एक ही स्थान पर हनुमान और उनके पुत्र मकरध्वज अर्थात दोनों पिता-पुत्र की पूजा अर्चना की जाती है।
जनश्रुति है कि हनुमान के पुत्र होने के कारण भगवान श्रीराम ने मकरध्वज को पाताल से बुलाकर तीर्थराज पुष्कर के निकट नरवर से दिवेर तक के
प्रदेश का अधिपति बना दिया। श्रीराम ने मकरध्वज को यह वरदान दिया कि कलियुग में ये जाग्रत देव के रूप में भक्तों के संकटों का
निवारण करेंगे और उनकी मनोकामनाएं पूरी करेंगे। उसी के अनुसार जहां पूर्व में मकरध्वज का सिंहासन था, उस पावन स्थल पर मकरध्वज बालाजी के
विग्रह का प्राकट्य हुआ। उसी समय मेंहदीपुर से हनुमान बालाजी भी सविग्रह यहां पुत्र के साथ विराजमान हो गये। संभवत: संपूर्ण भारत देश में
ब्यावर का यह दूसरा अनूठा मंदिर है, जहां एक ही स्थान पर हनुमान और उनके पुत्र मकरध्वज अर्थात दोनों पिता-पुत्र की पूजा अर्चना की जाती है।
इसी स्थल पर प्राचीनकाल में नाथ संप्रदाय के गुरु गोरखनाथ ने दीर्घकाल तक तप किया था और यहां नाथ सिद्ध पीठ-ध्वज पंथ की स्थापना की थी।
वर्तमान मंदिर परिसर में स्थित महायोगी गोरखनाथ का धूणा भी बहुत सी रहस्यमयी शक्तियों से परिपूर्ण है।
जनश्रुति के अनुसार इस धूणे की 7 परिक्रमा लगाने से संकट निवारण होकर कामना की पूर्ति होती है। यहां वट वृक्ष के निकट नाथ वंशजों की बहुत सी समाधियां भी हैं।
मकरध्वज बालाजी धाम परिसर में घंटाकर्ण महावीर, भैरवनाथ, श्मशानेश्वर, प्रेतराज, समाधि नाथ महाराज की प्रतिमाएं भी प्रतिष्ठित हैं।
यहां शारीरिक, मानसिक रोगों के अलावा ऊपरी बाधाओं से भी मुक्ति मिलती ही है, साथ में मनोकामनाएं भी पूर्ण होती हैं। हजारों भक्त इनके चमत्कार से लाभान्वित हुए हैं।
यहां इतने साक्षात चमत्कार देखने को मिलते हैं, कि नास्तिक भी आस्तिक बन जाते हैं। यह स्थल हनुमान, मकरध्वज गोरखनाथ, महाकाल भैरव, घंटाकर्ण संबंधी समस्त उपासना एवं तंत्र-मंत्र साधना के लिए उपासकों, भक्तों, साधकों, तांत्रिकों का सर्वसिद्धि प्रदायक जाग्रत तीर्थ है।
मकरध्वज बालाजी के दर्शनों के लिए दूर-दूर से आये भक्तों का मेला तो प्रत्येक मंगलवार और शनिवार को लगता है परंतु चैत्र पूर्णिमा(हनुमान जयंती), आषाढ़ पूर्णिमा, भाद्रपद पूर्णिमा व मकरध्वज जयंती के दिन बाबा के इस तीर्थधाम का विशेष आकर्षण अपने भक्तों को अपनी ओर आकर्षित करता है।
ऐसे पावन अवसरों पर हजारों, लाखों की संख्या में भक्त पुरुष-नारी, बच्चे-बूढ़े भक्ति भाव से युक्त हो अपनी मनोकामना सिद्धि के लिए मकरध्वज बालाजी को नारियल, छत्र, ध्वजा, चोला-श्रंृगार, भोग-प्रसाद चढ़ाते हैं। मकरध्वज बालाजी धाम को चैरासी लाख योनियों के बंधन से मनुष्य को मुक्त कराने वाला महातीर्थ कहा गया है।

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