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मंगलवार, 24 मई 2011

भगवान की पूजा में महत्व सोने-चांदी के गहनों का नहीं, भावना का होता है।

भगवान श्रीकृष्ण की पत्नी सत्यभामा के मन में एक दिन एक विचित्र विचार
आया। उन्होंने तय किया कि वह भगवान श्रीकृष्ण को अपने गहनों से तौलेंगी।
श्रीकृष्ण ने जब यह बात सुनी तो बस मुस्कुराए, बोले कुछ नहीं। सत्यभामा
ने भगवान को तराजू के पलडे़ पर बिठा दिया। दूसरे पलड़े पर वह अपने गहने रखने लगीं।
भला सत्यभामा के पास गहनों की क्या कमी थी। लेकिन श्रीकृष्ण का पलड़ा
लगातार भारी ही रहा। अपने सारे गहने रखने के बाद भी भगवान का पलड़ा नहीं उठा तो वह हारकर बैठ गईं। तभी रुक्मिणी आ गईं। सत्यभामा ने उन्हें सारी बात बताई। रुक्मिणी तुरंत पूजा का सामान उठा लाईं। उन्होंने भगवान की पूजा की। जिस पात्र में भगवान का चरणोदक था, उसे उठाकर उन्होंने गहनों वाले पलड़ों पर रख दिया।
देखते ही देखते भगवान का पलड़ा हल्का पड़ गया। ढेर सारे गहनों से जो बात नहीं बनी, वह चरणोदक के छोटे-से पात्र से बन गई। सत्यभामा यह सब आश्चर्य से देखती रहीं। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसा कैसे हुआ। तभी वहां नारद मुनि आ पहुंचे। उन्होंने समझाया, 'भगवान की पूजा में महत्व सोने-चांदी के गहनों का नहीं, भावना का होता है। रुक्मिणी की भक्ति और प्रेम की भावना भगवान के चरणोदक में समा गई। भक्ति और प्रेम से भारी दुनिया में कोई वस्तु नहीं है। भगवान की पूजा भक्ति-भाव से की जाती है, सोने-चांदी से नहीं। पूजा करने का ठीक ढंग भगवान से मिला देता है।' सत्यभामा उनकी बात समझ गईं।

संकटग्रस्त व्यक्ति की सहायता करना श्रेष्ठ कार्य है। (श्रेष्ठता के 3 सवाल)

एक राजा जिस साधु-संत से मिलता, उनसे तीन प्रश्न पूछता। पहला- कौन व्यक्ति श्रेष्ठ है? दूसरा- कौन सा समय श्रेष्ठ है? और तीसरा- कौन सा कार्य श्रेष्ठ है? सब लोग उन प्रश्नों के अलग-अलग उत्तर देते, किंतु राजा को उनके जवाब से संतुष्टि नहीं होती थी। एक दिन वह शिकार करने जंगल में गया। इस दौरान वह थक गया, उसे भूख-प्यास सताने लगी। भटकते हुए वह एक आश्रम में पहुंचा। उस समय आश्रम में रहने वाले संत आश्रम के फूल-पौधों को पानी दे रहे थे। राजा को देख उन्होंने अपना काम फौरन रोक दिया। वह राजा को आदर के साथ अंदर ले आए। फिर उन्होंने राजा को खाने के लिए मीठे फल दिए। तभी एक व्यक्ति अपने साथ एक घायल युवक को लेकर आश्रम में आया। उसके घावों से खून बह रहा था। संत तुरंत उसकी सेवा में जुट गए। संत की सेवा से युवक को बहुत आराम मिला। राजा ने जाने से पहले उस संत से भी वही प्रश्न पूछे। संत ने कहा, 'आप के तीनों प्रश्नों का उत्तर तो मैंने अपने व्यवहार से अभी-अभी दे दिया है।'राजा कुछ समझ नहीं पाया। उसने निवेदन किया, 'महाराज, मैं कुछ समझा नहीं। स्पष्ट रूप से बताने की कृपा करें।' संत ने राजा को समझाते हुए कहा, 'राजन्, जिस समय आप आश्रम में आए मैं पौधों को पानी दे रहा था। वह मेरा धर्म है। लेकिन आश्रम में अतिथि के रूप में आने पर आपका आदर सत्कार करना मेरा प्रधान कर्त्तव्य था। आप अतिथि के रूप में मेरे लिए श्रेष्ठ व्यक्ति थे। पर इसी बीच आश्रम में घायल व्यक्ति आ गया। उस समय उस संकटग्रस्त व्यक्ति की पीड़ा का निवारण करना भी मेरा कर्त्तव्य था, मैंने उसकी सेवा की और उसे राहत पहुंचाई। संकटग्रस्त व्यक्ति की सहायता करना श्रेष्ठ कार्य है। इसी तरह हमारे पास आने वालों के आदर सत्कार करने का, उनकी सेवा-सहायता करने का समय ही श्रेष्ठ है।' राजा संतुष्ट हो गया।

जीने का अधिकार (सुवचन) एवं कुछ महत्वपूर्ण बातें

एक बार राजा अजातशत्रु एक साथ कई मुसीबतों से घिर गए। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि इन आपदाओं को कैसे दूर किया जाए। वह दिन-रात इसी चिंता में डूबे रहते। तभी एक दिन उनकी मुलाकात एक वाममार्गी तांत्रिक से हुई। उन्होंने उस तांत्रिक को अपनी आपदाओं के बारे में बताया।

तांत्रिक ने राजा से कहा कि उन्हें संकट से मुक्ति तभी मिल सकती है जब वह पशुओं की बलि चढ़ाएं। अजातशत्रु ने उस तांत्रिक की बात पर विश्वास कर लिया और बलि देने की योजना बना ली। एक विशेष अनुष्ठान का आयोजन किया गया। बलि के लिए एक भैंसे को मैदान में बांधकर खड़ा कर दिया गया।

वधिक हाथ में तलवार थामे संकेत की प्रतीक्षा कर रहा था। तभी संयोगवश गौतम बुद्ध वहां से गुजरे। उन्होंने मूक पशु को मृत्यु की प्रतीक्षा करते देखा
तो उनका हृदय करुणा से भर गया। उन्होंने राजा अजातशत्रु को एक तिनका देते हुए कहा, 'राजन्, इस तिनके को तोड़कर दिखाइए।' बुद्ध के ऐसा कहते ही राजा ने तिनके के दो टुकड़े कर दिए। तिनके के टुकड़े होने पर बुद्ध राजा से बोले, 'अब इन टुकड़ों को जोड़ दीजिए।'

बुद्ध का यह आदेश सुनकर अजातशत्रु हैरान होकर उनसे बोले, 'भगवन् टूटे
तिनके कैसे जोड़े जा सकते हैं?' अजातशत्रु का जवाब सुनकर बुद्ध ने कहा,
'राजन् जिस प्रकार आप तिनका तोड़ तो सकते हैं जोड़ नहीं सकते, उसी प्रकार निरीह प्राणी का जीवन लेने के बाद आप उसे जीवित नहीं कर सकते। निरीह प्राणी की हत्या से आपदाएं कम होने के बजाय बढ़ती ही हैं। आपकी तरह इस पशु को भी तो जीने का अधिकार है। समस्याएं कम करने के लिए अपनी बुद्धि और साहस का प्रयोग कीजिए, निरीह प्राणियों का वध मत कीजिए।'

बुद्ध की बात सुनकर अजातशत्रु लज्जित हो गए। उन्होंने उसी समय पशु-बलि बंद करने का आदेश जारी कर दिया।

आत्मसंयम से शक्ति विकास

15 वर्ष का एक नटखट किशोर था। वह बड़ा ही शैतान था। बात-बात पर गुस्सा हो जाना, झगड़ पड़ना यह उसकी आदत ही थी। एक बार वह अपने मित्रों के साथ एक बारात में गया। वहाँ भोजन बनाने में कुछ देर हो गयी उसे सख्त भूख लग रही थी। जी मसोलकर वह बैठा हुआ था पर अंदर तो गुस्से का गुबार उठ रहा था। वह भूख से तिलमिलाया और स्वागत कर्ताओं पर बरस पड़ाः "इतनी देर हो गयी, अभी तक तुम्हारा भोजन ही तैयार नहीं हुआ है !" उस ओर भी था कोई सवा सेर, बोलाः "भीख माँगना तो तुम्हारा काम है ही, गाँव में से माँगकर खा लो। यहाँ ज्यादा धाँस मत दिखाओ।" उस किशोर को और गुस्सा आया। बात कहा सुनी से हाथापाई तक पहुँची और किशोर की अच्छी मरम्मत हुई। पिट-पिटकर वह अपने गाँव लौट आया। उसके कपड़ों की हालत और रूआँसा चेहरा देखकर उसके पिताजी सारी बात समझ गये, बाकी की जानकारी साथ गये लोगों ने दे दी।
पिता जी ने उसे सांत्वना देकर भोजन कराया और आराम करने भेज दिया। वह दो घंटे बाद सोकर उठा तो शांत था। पिता जी ने प्यार से बुलाकर कहाः "बेटा ! तुम अपने अंदर झाँककर देखो कि अपराध किसका है ? तुम हरेक से लड़ते झगड़ते रहते हो। कोई भी व्यक्ति तुमसे प्रसन्न नहीं है। बात-बात में तुम उत्तेजित हो जाते हो। अपनी प्रकृति के अनुसार अवश्य तुम्हारी वहाँ भी किसी छोटी सी बात पर अनबन हो गयी होगी।"
वह किशोर बुद्धिमान तो था। वह उद्विग्न नहीं हुआ। उसे अपनी गलती पर
ग्लानि हो रही थी। वह नम्रतापूर्वक प्रार्थना करते हुए बोलाः
"पिता जी ! कृपा करके इसका कोई उपाय बताइये ताकि मैं भी आपकी तरह शांत हो जाऊँ।" पिता जी ने कहाः "बेटा ! तुम चैतन्यस्वरूप हो। शांति तो तुम्हारा जन्मसिद्ध अधिकार है। मनुष्य जब अपने आत्मस्वरूप को भूल जाता है तो बाह्य व आंतरिक कारणों के वशीभूत होकर अपना संतुलन खो बैठता है। बुद्धिमान मनुष्य कैसी भी परिस्थिति में सम रहता है। छोटे व्यक्ति छोटी-छोटी बातों पर खिन्न हो जाते हैं, चिढ़ जाते हैं और आवेश में आकर गलत कदम उठा लेते हैं।
ध्यायतो विषयन्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।
विषयों का चिंतन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है,
आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है।
इसलिए तुम अपनी इच्छाओं को नियंत्रण में रखो। इच्छा की पूर्ति न होने पर क्रोध आता है। यदि तुम न पूरी होने वाली कामनाओं से बच सकते हो तो तुम शांत रहोगे।
गीता का यह श्लोक उस बालक के हृदय पर मानो हमेशा हमेशा के लिए अंकित हो गया। उसने इसका गहन चिंतन-मनन किया। उसे जीवन का अनमोल सूत्र हाथ लग गया था। उसने उसे अपने जीवन में उतारा और अभ्यास किया। अब उसका क्रोधी स्वभाव शांत हो गया था। वह एक अच्छा बालक बन चुका था। एक-एक करके वह अपनी कमियों को खोज-खोज कर निकालता गया। भगवदध्यान और जप से उसकी दैवी शक्तियों का
विकास हुआ और वही बालक आगे चलकर अवंतिका क्षेत्र में महात्मा शांतिगिरी नाम से प्रसिद्ध हुआ।
(श्रीमद् भगवद गीताः 2.62)
स्रोतः लोक कल्याण सेतु, अप्रैल 2010, पृष्ठ 6,13, अंक 145

धोखे से भी जिसके मुख से भगवान का नाम निकलता है

धोखे से भी जिसके मुख से भगवान का नाम निकलता है वह आदमी भी आदर के योग्य है। जो प्रेम से भगवान का चिन्तन, ध्यान करता है, भगवतत्त्व का विचार करता है उसके आदर का तो कहना ही क्या ? उसके साधन-भजन को अगर सत्संग का संपुट मिल जाय तो वह जरूर हरिद्वार पहुँच सकता है। हरिद्वार यानी हरि का द्वार। वह गंगा किनारे वाला हरि द्वार नहीं, जहाँ से तुम चलते हो वहीं हरि का द्वार हो। संसार में घूम फिरकर जब ठीक से अपने आप में गोता लगाओगे, आत्म-स्वरूप में गति करोगे तब पता चलोगे कि हरिद्वार तुमसे दूर नहीं, हरि तुमसे दूर नहीं और तुम हरि से दूर नहीं।

वो थे न मुझसे दूर न मैं उनसे दूर था।

आता न था नजर तो नजर का कसूर था।।

अज्ञान की नजर हटती है। ज्ञान की नजर निखरते निखरते जीव ब्रह्ममय हो जाता है। जीवो ब्रह्मैव नापरः। यह अनुभव हो जाता है।

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