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मंगलवार, 24 मई 2011

मन नहीं लगे तब भी बैठकर जप करो,

किसी सेठ के पास एक नौकर गया। सेठ ने पूछाः "रोज के कितने रुपये लेते हो?"

नौकरः "बाबू जी ! वैसे तो आठ रूपये लेता हूँ। फिर आप जो दे दें।"

सेठः "ठीक है, आठ रुपये दूँगा। अभी तो बैठो। फिर जो काम होगा, वह बताऊँगा।"

सेठ जी किसी दूसरे काम में लग गये। उस नये नौकर को काम बताने का मौका नहीं मिल पाया। जब शाम हुई तब नौकर ने कहाः "सेठ जी! लाइये मेरी मजदूरी।"

सेठः "मैंने काम तो कुछ दिया ही नहीं, फिर मजदूरी किस बात की?"

नौकरः "बाबू जी ! आपने भले ही कोई काम नहीं बताया किन्तु मैं बैठा तो आपके लिए ही रहा।"

सेठ ने उसे पैसे दे दिये।



जब साधारण मनुष्य के लिए खाली-खाली बैठे रहने पर भी वह मजदूरी दे देता है तो परमात्मा के लिए खाली बैठे भी रहोगे तो वह भी तुम्हें दे ही देगा। 'मन नहीं लगता.... क्या करें?' नहीं, मन नहीं लगे तब भी बैठकर जप करो, स्मरण करो। बैठोगे तो उसके लिए ही न? फिर वह स्वयं ही चिंता करेगा।

विकारो से बचने हेतु संकल्प-साधना

विषय-विकार साँप के विष से भी अधिक भयानक है, इन्हें छोटा नहीं समझना चाहिए | सैकड़ो लीटर दूध में विष की एक बूंद डालोगे तो परिणाम क्या मिलेगा? पूरा सैकड़ो लीटर दूध व्यर्थ हो जायेगा|
साँप तो कटेगा तभी विष चढ़ पायेगा किन्तु विषय-विकार का केवल चिंतन ही मन को भ्रष्ट कर देता है | अशुद्ध वचन सुनने से मन मलिन हो जाता है |
अत: किसी भी विकार को कम मत समझो | विकारो से सदैव सौ कोस दूर रहो | भ्रमर में कितनी शक्ति होती है कि वह लकड़ी को भी छेद देता है, परन्तु बेचारा फूल की सुगंध पर मोहित होकर पराधीन होके अपने को नष्ट कर देता है | हाथी स्पर्श के वशीभूत होकर स्वयं को गड्ढे में डाल देता है | मछली स्वाद के कारण कांटे में फँस जाती है | पतंगा रूप के वशीभूत होकर अपने को दिये पर जला देता है | इन सबमे सिर्फ एक-एक विषय का आकर्षण होता है फिर भी ऐसे दुर्गति को प्राप्त होते है, जबकि मनुष्य के पास तो पाँच इन्द्रियों के दोष है | यदि वह सावधान नहीं रहेगा तो तुम अनुमान लगा सकते हो की उसका क्या हाल होगा !
अली पतंग मृग मीन गज, एक एक रस आंच|
तुलसी तिनकी कौन गति जिनको व्यापे पाँच ||
अत: भैया मेरे ! सावधान रहे | जिस-जिस इन्द्रियों का आकर्षण है उस-उस आकर्षण से बचने का संकल्प करे | गहरा स्वास ले और प्रणव (ॐकार) का जप करे | मानसिक बल बढ़ाते जाये | जितनी बार हो सके बलपूर्वक उच्चारण करे, फिर उतनी ही देर मौन रहकर जप करे | 'आज उस विकार में फिर से नहीं फँसूँगा या एक सप्ताह तक अथवा एक माह तक नहीं फँसूँगा...' ऐसा संकल्प करे | फिर से गहरा श्वास ले और 'हरि ॐ ॐ ॐ...हरि ॐ ॐ ॐ...' ऐसा उच्चारण करे|

ढाई अक्षर प्रेम का

ढाई अक्षर प्रेम का......
एक बार चैतन्य महाप्रभु को विद्वानों ने घेर लिया। पूछने लगेः
"आप न्यायशास्त्र के बड़े विद्वान हो, वेदान्त के अच्छे ज्ञाता हो। हम समझ नहीं पाते कि इतने बड़े भारी विद्वान होने पर भी आप 'हरि बोल.... हरि बोल....' करके सड़कों पर नाचते हो, बालकों जैसी चेष्टा करते हो, हँसते हो, खेलते हो, कूदते हो !"
चैतन्य महाप्रभु ने जवाब दियाः "बड़ा भारी विद्वान होकर मुझे बड़ा भारी अहं हो गया था। बड़ा धनवान होने का भी अहं है और बड़ा विद्वान होने का भी अहं है। यह अहं ईश्वर से दूर रखता है। इस अहं को मिटाने के लिए मैं सोचता हूँ कि मैं कुछ नहीं हूँ......मेरा कुछ नहीं है। जो कुछ है सो तू है और तेरा है। ऐसा स्मरण करते-करते, हरि को प्यार करते-करते मैं जब नाचता हूँ, कीर्तन करता हूँ तो मेरा 'मैं' खो जाता है और उसका मैं हो जाता है।
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ईशकृपा बिन गुरु नहीं, गुरु बिना नहीं ज्ञान।
ज्ञान बिना आत्मा नहीं, गावहिं वेद पुरान।।

मौन का असर

 मौन का असर है।
एक गांव में सास और बहू रहती थी। उन दोनों के बीच अक्सर लडाई-झगडा होता रहता था। सास बहू को खूब खरी-खोटी सुनाती थी। पलटकर बहू भी सास को एक सवाल के सात जवाब देती थी।
एक दिन गांव में एक संत आए। बहू ने संत से निवेदन किया-गुरूदेव, मुझे ऐसा मंत्र दीजिए या ऐसा उपाय बताइए कि मेरी सास की बोलती बंद हो जाए। जवाब में संत ने कहा बेटी, यह मंत्र ले जाओ। जब तुम्हारी सास तुमसे गाली-गलौज करे, तो इस मंत्र को एक कागज पर लिखना और दांतो के बीच कसकर भींच लेना।
दूसरे दिन जब सास ने बहू के साथ गाली-गलौज किया, तो बहू ने संत के कहे अनुसार मंत्र लिखे कागज को दांतों के बीच भींच लिया। ऐसी स्थिति में बहू ने सास की बात को कोई जवाब नहीं दिया। यह सिलसिला दो-तीन दिन चलता रहा।
एक दिन सास के बडे प्रेमपूर्वक बहू से कहा-अब मैं तुमसे कभी नहीं लडूंगी
क्योंकि अब तुमने मेरी गाली के बदले गाली देना बंद कर दिया।
बहू ने सोचा- मंत्र का असर हो गया है और सासूजी ने हथियार डाल दिए है।
दूसरी दिन बहू ने जाकर संत से निवेदन किया-गुरूजी आपका मंत्र काम कर गया।
संत ने कहा यह मंत्र का असर नही, मौन का असर है।

भगवान की पूजा में महत्व सोने-चांदी के गहनों का नहीं, भावना का होता है।

भगवान श्रीकृष्ण की पत्नी सत्यभामा के मन में एक दिन एक विचित्र विचार
आया। उन्होंने तय किया कि वह भगवान श्रीकृष्ण को अपने गहनों से तौलेंगी।
श्रीकृष्ण ने जब यह बात सुनी तो बस मुस्कुराए, बोले कुछ नहीं। सत्यभामा
ने भगवान को तराजू के पलडे़ पर बिठा दिया। दूसरे पलड़े पर वह अपने गहने रखने लगीं।
भला सत्यभामा के पास गहनों की क्या कमी थी। लेकिन श्रीकृष्ण का पलड़ा
लगातार भारी ही रहा। अपने सारे गहने रखने के बाद भी भगवान का पलड़ा नहीं उठा तो वह हारकर बैठ गईं। तभी रुक्मिणी आ गईं। सत्यभामा ने उन्हें सारी बात बताई। रुक्मिणी तुरंत पूजा का सामान उठा लाईं। उन्होंने भगवान की पूजा की। जिस पात्र में भगवान का चरणोदक था, उसे उठाकर उन्होंने गहनों वाले पलड़ों पर रख दिया।
देखते ही देखते भगवान का पलड़ा हल्का पड़ गया। ढेर सारे गहनों से जो बात नहीं बनी, वह चरणोदक के छोटे-से पात्र से बन गई। सत्यभामा यह सब आश्चर्य से देखती रहीं। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसा कैसे हुआ। तभी वहां नारद मुनि आ पहुंचे। उन्होंने समझाया, 'भगवान की पूजा में महत्व सोने-चांदी के गहनों का नहीं, भावना का होता है। रुक्मिणी की भक्ति और प्रेम की भावना भगवान के चरणोदक में समा गई। भक्ति और प्रेम से भारी दुनिया में कोई वस्तु नहीं है। भगवान की पूजा भक्ति-भाव से की जाती है, सोने-चांदी से नहीं। पूजा करने का ठीक ढंग भगवान से मिला देता है।' सत्यभामा उनकी बात समझ गईं।

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