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रविवार, 27 नवंबर 2011

खाटू श्यामजी ( जिला-सीकर, राजस्थान )

श्री कृष्ण ने छलपूर्वक बर्बरीक से शीश का दान लिया !

श्री कृष्ण समस्या पर गंभीर मंथन करके उस निर्णय पर पहुँच गए जो आखिरी निर्णय होता है ! शायद कोई भी उस समय कृष्ण की जगह होता तो इस के सिवाय कोई चारा नही होता ! बर्बरीक, वो योद्धा अपने शिविर में रात्री में बैठा है ! अचानक दस्तक हुई ! उसने द्वार खोला ! सामने एक ब्राह्मण खडा था ! उसने ब्राह्मण का स्वागत करके आसन दिया ! और आने का कारण पूछा ! ब्राह्मण ने कहा - मुझे आपसे दान पाने की इच्छा है वीरश्रेष्ठ !
बर्बरीक ने कहा - मांगो ब्राह्मण ! क्या चाहिए ?

ब्राह्मण बोला - आपको वचनबद्ध होना पडेगा ! तभी मांग सकता हूँ !बर्बरीक ने एक क्षण सोचा और बिना समय गंवाए कहा - ब्राहमण देवता , आप आदेश करिए ! मैं आपकी इच्छा अवश्य पूर्ण करूंगा ! ब्राह्मण रूपी कृष्ण ने कहा - हे वीर श्रेष्ठ मुझे आपका शीश चाहिए !
वो योद्धा जैसे आसमान से गिरा हो ! उसने बड़ी मुश्किल से अपने आप को सम्भाला और तुंरत उसे अपनी भूल समझ आ गई की ये ब्राह्मण नही बल्कि कृष्ण है ! वो पहचान गया था !
योद्धा बर्बरीक बोला - श्री कृष्ण मैं आपको जान गया था ! जब आपने सर का दान माँगा ! अगर कोई ब्राह्मण होता तो कुछ गायें या कुछ गाँव दान में मांगता ! एक ब्राह्मण को मेरे सर से क्या लेना ? लेकिन आपसे वचन बद्ध हूँ आपकी इच्छा अवश्य पूरी करूंगा ! परन्तु मेरी ये प्रबलतम इच्छा थी की काश महाभारत का युद्ध देख पाता ! और उसने अपना सर काटने की तैयारी करना शुरू करदी !
तब भगवान् श्री कृष्ण ने कहा - हे वीर श्रेष्ठ आपकी ये इच्छा मैं पूर्ण करूंगा ! मैं आपके शीश को इस पीपल की सबसे उंची शाखा पर रख देता हूँ ! और आपको वो दिव्य दृष्टी प्राप्त है जिससे आप ये युद्ध पूरा आराम से देख पायेंगे ! उस योद्धा बर्बरीक ने अपना शीश काटकर श्री कृष्ण को दे दिया ! और श्री कृष्ण ने उसको वृक्ष की चोटी पर रखवा दिया ! सबने आराम की साँस ली ! चलो एक आफत से छुटकारा मिला ! नही तो कैसा महाभारत होता ? ये आपने अंदाज लगा ही लिया होगा ?
इस घटना के बाद महाभारत का युद्ध खत्म हुवा ! यों तो खुशी मनाने लायक किसी के पास कुछ बचा नही था ! अन्दर से सब जानते ही थे ! किसी का कुछ भी साबुत नही बचा था ! जो भी बचे थे सबके सब आधे अधूरे ही थे !किसी का बाप नही तो किसी का बेटा नही ! पीछे सिर्फ़ युद्ध की विभीषिका ही बची थी ! इसके बावजूद भी पांडव खेमे में जश्न का माहौल था ! सब अपनी २ डींग हांकने में मस्त थे ! धर्मराज महाराज युद्धिष्ठर को ये गुमान था की ये युद्ध उनके भाले की नोंक पर जीता गया ! शायद वो सोचते थे की अगर उनका भाला नही होता तो ये युद्ध नही जीता जा सकता था !
अर्जुन को ये गुमान था की बिना गांडीव के जीतने की कल्पना तो दूर इस युद्ध में टिक ही नही सकते थे ! वो भी लम्बी २ छोड़ने में लगे हुए थे ! और भीम दादा का तो क्या कहना ? उन्होंने और भी लम्बी छोड़ते हुए कहा की अगर मेरी गदा नही होती तो क्या दुर्योधन को मारा जा सकता था ! और दुर्योधन के जीते जी क्या विजयी होना सम्भव था ? सारे ही उपस्थित लोग अपनी २ आत्मसंतुष्टी में मग्न थे !
अब बात श्री कृष्ण की सहन शक्ति के बाहर हो गयी ! तो उन्होंने कहा - भाई लोगो ! आप आपस में क्यूँ ये सब झगडा खडा कर रहे हो ? मुझे मालुम था की जो भी जीतेगा वो इसी तरह की बातें करेगा ! अब मुझे याद आया की वो जो महान धनुर्धर बर्बरीक था ! उसने ये सारा युद्ध देखा है ! और तुम जाकर उससे ही क्यूँ नही पूछ लेते की कौन सा योद्धा है जिसने ये युद्ध जिताया है ? सबको बात जम गयी और सब उस वृक्ष के नीचे इक्कठ्ठा हो गए ! अब श्री कृष्ण ने पूछा -
हे परम श्रेष्ठ धनुर्धर ! आपने यह पूरा युद्ध निष्पक्ष हो कर देखा है ! और मैं आपसे यह पूछना चाहता हूँ की इस धर्म युद्ध को किसने जीता ? कृपा पूर्वक आप अपना निष्पक्ष मत देने की कृपा करे ! क्यूंकि यहाँ सभी वीरों में कुछ भ्रांतियां उत्पन्न हो गई हैं !
अब बर्बरीक ने बोलना शुरू किया - हे श्री कृष्ण आप कौन से धर्मयुद्ध की बात कर रहे हैं ? कहाँ हुवा था धर्म युद्ध ? अब उस वीर बर्बरीक ने धर्मराज युद्धिष्ठर की तरफ़ इशारा करके पूछा - क्या जब इन धर्मराज ने गुरु द्रोणाचार्य की ह्त्या झूँठ बोल कर करवायी ? हाँ मैं जानबूझकर ह्त्या शब्द का इस्तेमाल कर रहा हूँ ! उनको युद्ध में नही मारा गया बल्कि उस ब्राह्मण की षडयंत्र पूर्वक ह्त्या की गई थी ! तो क्या आप समझ रहे हैं वो धर्मयुद्ध था ? और अब धर्मराज और अर्जुन जमीन की तरफ़ देख रहे थे !
और जब दुर्योधन को सूर्यास्त के बाद भी आपने उकसा कर तालाब से बाहर आने को बाध्य किया ? और हद तो तब हो गई जब गदा युद्ध में वर्जित दुर्योधन की जंघा पर प्रहार आपने ख़ुद करवाया भीम द्वारा ? ये क्या धर्म युद्ध था ? इस तरह उस वीर ने एक एक करके सारे वीरो की पोल पट्टी खोल कर रख दी ! उस निडर योद्धा ने तो कृष्ण को भी नही बख्शा !
अब अंत में उसने कहा - हे श्री कृष्ण अब आपको और सच्ची बात बताऊँ ? मैंने जो इस युद्ध में देखा वो यह था की इस पुरे युद्ध में ये धर्मराज, अर्जुन , भीम, नकुल और सहदेव तो क्या ? कोई भी योद्धा नही था ! यहाँ तो सिर्फ़ आपका यानी कृष्ण का चक्र चल रहा था ! और योद्धा जो आपस में लड़ते दिखाई दे रहे थे परन्तु असल में वो आपके चक्र से कट कट गिर रहे थे और उनके गिरते हुए सरो के पीछे मैंने द्रौपदी को अपने खुले बालों से घूमते हुए देखा ! और वो अपने खप्पर में रक्त भर भर कर उस रक्त का पान कर रही थी ! बस इसके सिवाय और कुछ भी मैंने नही देखा ! बल्कि और कुछ वहाँ था ही नही ! अब तो वहाँ सनाट्टा छा गया ! और द्रौपदी इस तरह देख रही थी जैसे उसका जन्म लेने का हेतु पूरा हो गया हो !

अब श्री कृष्ण ने कहा - हे वीर शिरोमणी बर्बरीक ! आपने जिस निष्ठा और साहस से सत्य बोला है ! उससे मैं बहुत प्रशन्न हूँ ! मेरे द्वारा इस लक्ष्य प्राप्ति में आपका भी अनायास ही बड़ा योगदान है ! आप अगर अपनी प्रतिज्ञा से मुकर गए होते तो ये लक्ष्य प्राप्त करना बड़ा मुश्किल था ! मैं आपको खुश होकर ये वरदान देता हूँ की आप कलयुग में मेरे श्याम नाम से पूजे जायेंगे ! और उस समय आप लोगो का कल्याण करेंगे ! और उनके दुःख क्लेश दूर करेंगे ! ऐसा कह कर श्री कृष्ण ने उस शीश को खाटू नामक ग्राम में स्थापित कर दिया ! ये जगह आज लाखो भक्तो और श्रद्धालुओं की आस्था का स्थान है ! यहाँ आज हर माह की सुदी १२ को मेला लगता है ! और फाल्गुन शुदी १२ को तो यहाँ लाखो लाखो अनुयायी सारी दुनिया से आते हैं ! आस्था और भक्ति का वो मंजर देखने लायक होता है जब लोग कोलकाता, मुंबई, मद्रास जैसी सुदूर जगहों से पैदल ही यात्रा कर के यहाँ पहुंचते हैं ! यह जगह आज खाटू श्यामजी ( जिला-सीकर, राजस्थान ) के नाम से प्रसिद्द है ! जयपुर के अत्यधिक नजदीक है ! जहाँ से रींगस होते हुए आप आसानी से वहाँ पहुँच सकते हैं !


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लक्ष्मी प्राप्ति के लिए गणेश स्तोत्र



ॐ नमो विघ्नराजाय सर्वसौख्याप्रदयिने। द्रष्टारिष्टविनाशाय पराय परमात्मने ॥
लम्बोदरं महावीर्य नाग्यग्योपशोभितम। अर्ध्चन्द्रधरम देव विघ्न व्यूह विनाशनम॥
ॐ ह्रां, ह्रीं, ह्रूं ह्रे ह्रौं ह्रं : हेरम्बाय नमो नमः। सर्व्सिद्धिप्रदोसि त्वं सिद्धिबुद्धि प्रदो भव ॥
चिन्तितार्थ्प्रदस्तव हि, सततं मोदकप्रिय : । सिंदुरारून वस्त्रेस्च पूजितो वरदायकः ॥
इदं गणपति स्तोत्रं यः पठेद भक्तिमान नरः । तस्य देहं च गेहं च स्वयं लक्ष्मिर्ण मुंचति ॥

इस स्तोत्र का दीपावली की रात्रि में १०८ बार पाठ कर सिद्ध कर ले, तत्पश्चात प्रत्येक दिन प्रातः काल इस स्तोत्र का पाठ करे। इस स्तोत्र का पाठ करने से घर में धन धान्य की वृद्धि होती है।


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ईश्वर की खोज


एक सन्यासी नदी के किनारे ध्यानमग्न था। एक युवक ने उससे कहा – “गुरुदेव, मैं आपका शिष्य बनना चाहता हूँ”।

सन्यासी ने पूछा – “क्यों?”

युवक ने एक पल के लिए सोचा, फ़िर वह बोला – “क्योंकि मैं ईश्वर को पाना चाहता हूँ”।

सन्यासी ने उछलकर उसे गिरेबान से पकड़ लिया और उसका सर नदी में डुबो दिया। युवक स्वयं को बचाने के लिए छटपटाता रहा पर सन्यासी की पकड़ बहुत मज़बूत थी। कुछ देर उसका सर पानी में डुबाये रखने के बाद सन्यासी ने उसे छोड़ दिया। युवक ने पानी से सर बाहर निकाल लिया। वह खांसते-खांसते किसी तरह अपनी साँस पर काबू पा सका। जब वह कुछ सामान्य हुआ तो सन्यासी ने उससे पूछा – “मुझे बताओ कि जब तुम्हारा सर पानी के भीतर था तब तुम्हें किस चीज़ की सबसे ज्यादा ज़रूरत महसूस हो रही थी?”

युवक ने कहा – “हवा”।

“अच्छा” – सन्यासी ने कहा – “अब तुम अपने घर जाओ और तभी वापस आना जब तुम्हें ईश्वर की भी उतनी ही ज़रूरत महसूस हो”।


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~~सच की राह~~



यह उस समय की बात है जब महादेव गोविंद रानाडे बालक थे। एक दिन वह घर में अकेले थे। उनका मन नहीं लग रहा था। वह बाहर बरामदे में खड़े-खड़े सोच रहे थे कि क्या करें। तभी उन्हें ख्याल आया कि कोई ऐसा खेल खेलना चाहिए जो अकेले खेला जा सके। उन्होंने सोचा क्यों न चौपड़ ही खेल लूं। उन्होंने मकान के एक खंभे को अपना साथी बनाया।

खंभे के लिए अपना दायां हाथ व अपने लिए बायां हाथ निश्चित किया। फिर उन्होंने खेलना आरंभ किया। पहले दाएं हाथ से पासा फेंका। यह था खंभे का दांव। फिर बाएं हाथ से पासा फेंका। यह दांव उनका अपना था। थोड़ी ही देर में रानाडे हार गए। रानाडे को पता नहीं था कि उनका खेल सामने सड़क पर खड़े कुछ लोग देख रहे थे।

उन्होंने पूछा, 'क्यों भैया, तुम खंभे से हार गए?' इस पर रानाडे बोले, 'क्या करूं? बाएं हाथ से पासा फेंकने की आदत नहीं है। खंभे का दाहिना हाथ था, सो वह जीत गया।' जब उनसे यह पूछा गया कि उन्होंने दायां हाथ अपने लिए और बायां हाथ खंभे के लिए क्यों नहीं रखा, तो रानाडे बोले, 'हार गया तो क्या हुआ। कोई मुझे बेईमान तो नहीं कह सकता न। अपने लिए दायां हाथ रखता और बेजान खंभे के लिए बायां, तो बेईमान कहलाता। बेचारे खंभे के साथ अन्याय हो जाता। अन्याय करना तो बहुत ही बुरा होता है।' रानाडे की बात सुनकर लोग भौंचक रह गए। सच के प्रति रानाडे की यह भावना आजीवन बनी रही।



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