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शनिवार, 8 सितंबर 2012

मत डाल आग मे घी, शोला ये दहक जायेगा!

मत डाल आग मे घी, शोला ये दहक जायेगा!
खौल उठि छाति जिस दिन , जवालामुखि ये भडक जायेगा!!
दुम दबाकर , जान बचा कर फिर भाग्ता तु नजर आयेगा!
सुअर कि मौत मारेगा तुझे, कुते की तरह तुझे तड्पायेगा!!

शान्त ह शान्त इसे तु रह्ने दे
अमन से जि रहा ह अमन से इसे जिने दे
छोड अमन, तल्वार जिस दिन उठ जायेगी
तु तो क्या पर्छाइ भी तेरि कहिन नजर नही आएगी

कभी कश्मीर कभी यु.पी. कभि आसाम
लगा ले चाहे अपना तु जोर तमाम
ना कभी मिटा ह ना कभी मिटेगा
खवाब तेरा ये ख्वाब ही रह जायेगा

जब जाग उठेगा ये शेर हीन्दू दहाड अपनी तुझे ऐसी सुनायेगा
मा भारती की इस पावन धरा से नामो निशान तेरा मिट जायेगा…..
मत डाल आग मे घी, शोला ये दहक जायेगा
सुअर कि मौत मारेगा, तुझको, कुत्ते कि तरह तुझे तड्पायेगा..
मत डाल आग मे घी, शोला ये दहक जायेगा

जय हिन्द, जय हिन्दू, जय श्री राम........................................... .........

मंगलवार, 4 सितंबर 2012

~~अंगारक चतुर्थी' ~~



अंगारक चतुर्थी' की माहात्म्य कथा गणेश पुराण के उपासना खण्ड के 60वें अध्याय में वर्णित है। वह कथा अत्यंत संक्षेप में इस प्रकार है-

पृथ्वीदेवी ने महामुनि भरद्वाज के जपापुष्प तुल्य अरुण पुत्र का पालन किया। सात वर्ष के बाद उन्होंने उसे महर्षि के पास पहुँचा दिया। महर्षि ने अत्यंत प्रसन्न होकर अपने पुत्र का आलिंगन किया और उसका सविधि उपनयन कराकर उसे वेद-शास्त्रादि का अध्ययन कराया। फिर उन्होंने अपने प्रिय पुत्र को गणपति मंत्र देकर उसे गणेशजी को प्रसन्न करने के लिए आराधना करने की आज्ञा दी।

मुनि पुत्र ने अपने पिता के चरणों में प्रणाम किया और फिर पुण्यसलिता गंगाजी के तट पर जाकर वह परम प्रभु गणेशजी का ध्यान करते हुए भक्तिपूर्वक उनके मंत्र का जप करने लगा। वह बालक निराहार रहकर एक सहस्र वर्ष तक गणेशजी के ध्यान के साथ उनका मंत्र जपता रहा।

माघ कृष्ण चतुर्थी को चन्द्रोदय होने पर दिव्य वस्त्रधारी अष्टभुज चन्द्रभाल प्रसन्न होकर प्रकट हुए। उन्होंने अनेक शस्त्र धारण कर रखे थे। वे विविध अलंकारों से विभूषित अनेक सूर्यों से भी अधिक दीप्तिमान थे। भगवान गणेश के मंगलमय अद्भुत स्वरूप का दर्शन कर तपस्वी मुनिपुत्र ने प्रेम गद्गद कंठ से उनका स्तवन किया।

वरद प्रभु बोले- 'मुनिकुमार! मैं तुम्हारे धैर्यपूर्ण कठोर तप एवं स्तवन से पूर्ण प्रसन्न हूँ। तुम इच्छित वर माँगो। मैं उसे अवश्य पूर्ण करूंगा।'

प्रसन्न पृथ्वीपुत्र ने अत्यंत विनयपूर्वक निवेदन किया- प्रभो! आज आपके दुर्लभ दर्शन कर मैं कृतार्थ हो गया। मेरी माता पर्वतमालिनी पृथ्वी, मेरे पिता, मेरा तप, मेरे नेत्र, मेरी वाणी, मेरा जीवन और जन्म सभी सफल हुए। दयामय! मैं स्वर्ग में निवास कर देवताओं के साथ अमृतपान करना चाहता हूँ। मेरा नाम तीनों लोकों में कल्याण करने वाला 'मंगल' प्रख्यात हो।'

जय महाकाल

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