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शनिवार, 29 सितंबर 2012

कैसे करें श्राद्ध....... Shyam Sunder Chandak

श्राद्ध पक्ष 29.09.2012 से 16.10.2012 तक, पितरों को प्रसन्न करने का उत्सव.......


श्राद्धकर्म पितरों की संतुष्टि के लिए किया जाता है, जो लगभग सभी हिन्दु लोग करते हैं । आश्विन मास का कृष्ण पक्ष पितरों को तृप्त करने का समय है इसलिए इसे पितृपक्ष कहते हैं। पंद्रह दिन के इस पक्ष में लोग अपने पितरों को जल देते हैं तथा उनकी मृत्युतिथि पर श्राद्ध करते हैं। कुछ लोग ऐसे होते हैं जिन्हें अपने परिजनों की मृत्यु की तिथि ज्ञात नहीं होती इस समस्या के समधान के लिए पितृपक्ष में कुछ विशेष तिथियां भी नियत की गई हैं जिस दिन श्राद्ध करने से हमारे समस्त पितृजनों की आत्मा को शांति मिलती है।

श्राद्ध के लाभ :-
श्राद्ध करने वाला व्यक्ति पापों से मुक्त हो परमगति को प्राप्त करता है। श्राद्ध से संतुष्ट होकर पित्तरगण श्राद्ध करने वालों को दीर्घायु,धन, सुख और मोक्ष प्रदान करते हैं।

श्राद्ध ना करने से हानि.......
ब्रह्मपुराण के अनुसार श्राद्ध न करने से पित्तर गणों को दुख तो होता ही है, साथ ही श्राद्ध न करने वालों को कष्ट का सामना करना पड़ता है।

कैसे करें श्राद्ध.......
श्राद्ध दो प्रकार के होते हैं पिंड दान और ब्राह्मण भोजन। मृत्यु के बाद जो लोग देव लोक या पितृ लोक पहुंचते हैं वे मंत्रों के द्वारा बुलाए जाने पर श्राद्ध के स्थान पर आकर ब्राह्मण के माध्यम से भोजन करते हैं। ऐसा मनु महाराज ने लिखा है क्योंकि पितृ पक्ष में ब्राह्मण भोजन का ही महत्व है, इसलिए लोग पिंड दान नहीं करते।

ध्यान योग्य.......
पितृ पक्ष में संकल्प पूर्वक ब्राह्मण भोजन कराना चाहिए। यदि ब्राह्मण भोजन न करा सकें तो भोजन का सामान ब्राह्मण को भेंट करने से भी संकल्प हो जाता है। कुश और काले तिल से संकल्प करें। इसके अलावा गाय, कुत्ता, कोआ, चींटी और देवताओं के लिए भोजन का भाग निकालकर खुले में रख दें। भोजन कराते समय चुप रहें।

भोजन में इनका प्रयोग करें :- दूध, गंगा जल, शहद, टसर का कपड़ा, तुलसी, सफेद फूल।

इनका प्रयोग न करें :- कदंब, केवड़ा, मौलसिरी या लाल तथा काले रंग के फूल और बेल पत्र श्राद्ध में वर्जित हैं। उड़द, मसूर, अरहर की दाल, गाजर, गोल लौकी, बैंगन, शलजम, हींग, प्याज, लहसुन, काला नमक, काला जीरा, सिंघाड़ा, जामुन, पीली सरसों आदि भी वर्जित हैं। लोहा और मिट्टी के बर्तन तथा केले के पत्तों का प्रयोग न करें। विष्णु पुराण के अनुसार श्राद्ध करने वाला ब्राह्मण भी दूसरे के यहां भोजन न करे। जिस दिन श्राद्ध करें उसे दिन दातुन और पान न खाएं। श्राद्ध का महत्वपूर्ण समय: प्रात: 11.26 से 12.24 बजे तक है।

भाद्रपद मास की पूर्णिमा (इस बार 29 सितंबर, शनिवार) से श्राद्ध पक्ष का प्रारंभ होता है जो सोलह दिन तक चलता है और अश्विन मास शुक्ल पक्ष की एकम (इस बार 16 अक्टूबर, मंगलवार) को समाप्त होता है। इन दिनों में हम अपने पितरों को याद करते हैं और विभिन्न प्रकार का धार्मिक कार्य कर उनकी आत्मा की शांति के लिए भगवान से प्रार्थना करते हैं। विभिन्न श्राद्ध स्थलों पर इन दिनों में श्राद्ध करने वालों की भीड़ उमड़ती है। हिंदू धर्म में श्राद्ध पक्ष का महत्व किसी त्योहार से कम नहीं है क्योंकि यही वह अवसर होता है जब पितर भी हमें आशीर्वाद देने के लिए आतुर होते हैं।

नाना-नानी का श्राद्ध, आश्विन शुक्लपक्ष एकम को.......
इस दिन पर (आश्विन शुक्लपक्ष एकम), एक व्यक्ति के पूर्वजों जो परिवार के मातृ पक्ष से संबंधित के लिए भी श्राद्ध संस्कार प्रदर्शन कर सकते हैं l इसे मातामह श्राद्ध या नान श्राद्ध भी कहतें हैं, जो इस बार 16.10.2012 को होगा l यह तिथि नाना-नानी के श्राद्ध के लिए उत्तम मानी गई है। यदि नाना-नानी के परिवार में कोई श्राद्ध करने वाला न हो और उनकी मृत्युतिथि भी ज्ञात न हो तो इस तिथि को श्राद्ध करने से उनकी आत्मा को शांति मिलती है। इससे घर में सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है।
 
 
 
 
 
 
Shyam Sunder Chandak

शनिदेव :-

शनिदेव :-
'शनैश्चर की शरीर-कान्ति इन्द्रलीलमणि के समान है। इनके सिर पर स्वर्णमुकुट गले में माला तथा शरीर पर नीले रंग के वस्त्र सुशोभित हैं। ये गिद्ध पर सवार रहते हैं। हाथों में क्रमश: धनुष, बाण, त्रिशूल और वरमुद्रा धारण करते हैं।'
शनिदेव का जन्म ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या के दिन हुआ था। सूर्य के अन्य पुत्रों की अपेक्षा शनि शुरू से ही विपरीत स्वभाव के थे। शनि जयंती 12 जून को मनाई जाती है। शनि भगवान सूर्य तथा छाया (संवर्णा) के पुत्र है। ये क्रूर ग्रह माने जाते हैं। इनकी दृष्टि में जो क्रूरता है, वह इनकी पत्नी के शाप के कारण है।
शनिधाम कोकिलावन के महंत प्रेमदास महाराज के अनुसार जब शनिदेव का जन्म हुआ तो उनकी दृष्टि पिता पर पड़ते ही सूर्य को कुष्ठ रोग हो गया। धीरे-धीरे शनिदेव का पिता से मतभेद होने लगा। सूर्य चाहते थे कि शनि अच्छा कार्य करे मगर उन्हें हमेशा निराश होना पड़ा। संतानों के योग्य होने पर सूर्य ने प्रत्येक संतान के लिए अलग-अलग लोक की व्यवस्था की। मगर शनिदेव अपने लोक से संतुष्ट नहीं हुए। उसी समय शनि ने समस्त लोकों पर आक्रमण की योजना बना डाली।
ब्रह्म पुराण में इनकी कथा इस प्रकार आयी है- बचपन से ही शनि देवता भगवान श्रीकृष्ण के परम भक्त थे। वे श्रीकृष्ण के अनुराग में निमग्न रहा करते थे। वयस्क होने पर इनके पिता ने चित्ररथ की कन्या से इनका विवाह कर दिया। इनकी पत्नी सती साध्वी और परम तेजस्विनी थी। एक रात वह ऋतु स्नान करके पुत्र प्राप्ति की इच्छा से इनके पास पहुँची, पर यह श्रीकृष्ण के ध्यान में निमग्न थे। इन्हें बाह्य संसार की सुधि ही नहीं थी। पत्नी प्रतीक्षा करके थक गयी। उसका ऋतुकाल निष्फल हो गया। इसलिये उसने क्रुद्ध होकर शनिदेव को शाप दे दिया कि आज से जिसे तुम देख लोगे, वह नष्ट हो जायगा। ध्यान टूटने पर शनिदेव ने अपनी पत्नी को मनाया। पत्नी को भी अपनी भूल पर पश्चात्ताप हुआ, किन्तु शाप के प्रतिकार की शक्ति उसमें न थी, तभी से शनि देवता अपना सिर नीचा करके रहने लगे। क्योंकि यह नहीं चाहते थे कि इनके द्वारा किसी का अनिष्ट हो।
शनि के अधिदेवता:-
शनि के अधिदेवता प्रजापति ब्रह्मा और प्रत्यधिदेवता यम हैं। इनका वर्ण कृष्ण, वाहन गिद्ध तथा रथ लोहे का बना हुआ है। यह एक-एक राशि में तीस-तीस महीने तक रहते हैं। यह मकर और कुम्भ राशि के स्वामी हैं तथा इनकी महादशा 19 वर्ष की होती है।
ज्योतिषशास्त्र के अनुसार :-
ज्योतिषशास्त्र के अनुसार शनि ग्रह यदि कहीं रोहिणी-शकट भेदन कर दे तो पृथ्वी पर बारह वर्ष घोर दुर्भिक्ष पड़ जाये और प्राणियों का बचना ही कठिन हो जाय। शनि ग्रह जब आनेवाला था, तब ज्योतिषियों ने महाराज दशरथ से बताया कि यदि शनि का योग आ जायगा तो प्रजा अन्न-जल के बिना तड़प-तड़पकर मर जाएगी। प्रजा को इस कष्ट से बचाने के लिये महाराज दशरथ अपने रथ पर सवार होकर नक्षत्र मण्डल में पहुँचे। पहले तो महाराज दशरथ ने शनि देवता को नित्य की भाँति प्रणाम किया और बाद में क्षत्रिय-धर्म के अनुसार उनसे युद्ध करते हुए उन पर संहारास्त्र का संधान किया। शनि देवता महाराज की कर्तव्यनिष्ठा से परम प्रसन्न हुए और उनसे वर माँगने के लिये कहा। महाराज दशरथ ने वर माँगा कि जब तक सूर्य, नक्षत्र आदि विद्यमान हैं, तब तक आप शकट भेदन न करें। शनिदेव ने उन्हें वर देकर संतुष्ट कर दिया।
शिव द्वारा दंडित:-सूर्य के कहने पर भगवान शिव ने शनि को बहुत समझाया, मगर वह नहीं माने। उनकी मनमानी पर भगवान शिव ने शनि को दंडित करने का निश्चय किया और दोनों में घनघोर युद्ध हुआ। भगवान शिव के प्रहार से शनिदेव अचेत हो गए, तब सूर्य का पुत्र मोह जगा और उन्होंने शिव से पुत्र के जीवन की प्रार्थना की। तत्पश्चात शिव ने शनि को दंडाधिकारी बना दिया।

दंडाधिकारी:-शनि न्यायाधीश की भाँति जीवों को दंड देकर भगवान शिव का सहयोग करने लगे। एक बार पिप्पलाद मुनि की बाल्यावस्था में ही उनके पिता का देहावसान हो गया। बड़े होने पर उनको ज्ञात हुआ कि उनकी पिता की मृत्यु का कारण शनि है तो उन्होंने शनि पर ब्रहमदंड का संधान किया। उनके प्रहार सहने में असमर्थ शनि भागने लगे। विकलांग होकर शनि भगवान शिव से प्रार्थना करने लगे। भगवान शिव ने प्रकट होकर पिप्लाद मुनि को बोध कराया कि शनि तो केवल सृष्टि नियमों का पालन करते हैं। यह जानकर पिप्लाद ने शनि को क्षमा कर दिया।
कहा जाता है कि:---
शनिदेव के कारण गणेश जी का सिर छेदन हुआ।
शनिदेव के कारण राम को वनवास हुआ था।
रावण का संहार शनिदेव के कारण हुआ था।
शनिदेव के कारण पांडवों को राज्य से भटकना पड़ा।
शनि के क्रोध के कारण विक्रमादित्य जैसे राजा को कष्ट झेलना पड़ा।
शनिदेव के कारण राजा हरिश्चंद्र को दर-दर की ठोकरें खानी पड़ी।
राजा नल और उनकी रानी दमयंती को जीवन में कई कष्टों का सामना करना पड़ा था।
शान्ति के उपाय:-
इनकी शान्ति के लिये मृत्युंजय जप, नीलम-धारण तथा ब्राह्मण को तिल, उड़द, भैंस, लोहा, तेल, काला वस्त्र, नीलम, काली गौ, जूता, कस्तूरी और सुवर्ण का दान देना चाहिये।
जप का वैदिक मन्त्र
इनके जप का वैदिक मन्त्र- ॐ शं नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये। शं योरभि स्त्रवन्तु न:॥',
पौराणिक मन्त्र
पौराणिक मन्त्र-
'नीलांजनसमाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम्।
छायामार्तण्डसम्भूतं तं नमामी शनैश्चरम्॥'
बीज मन्त्र
बीज मन्त्र - 'ॐ प्रां प्रीं प्रौं स: शनैश्चराय नम:।', तथा
सामान्य मन्त्र
सामान्य मन्त्र - 'ॐ शं शनैश्चराय नम:' है। इनमें से किसी एक का श्रद्धानुसार नित्य एक निश्चित संख्या में जप करना चाहिये। जप का समय सन्ध्या काल तथा कुल संख्या 23000 होनी चाहिये।..

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