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मंगलवार, 23 अक्तूबर 2012

राम की शक्तिपूजा

राम की शक्तिपूजा
जब श्रीराम की सेना के सम्मुख रावण खडा था तो रावण की मायावी शक्ति के आगे राम की सेना टिक नहीं पायी । वानर सेना मारे डर के तितर-बितर भागने लगी । हजारों वानर सैनिक रावण के घातक प्रहार से मारे गये । सूर्यास्त के समय जब दोनों की सेना अपने-अपने शिविरों में लौटे, तब विजय के दंभ के कारण चलते हुए राक्षस अपने भारी पगों से पृथ्वी को कंपा रहे थे । उनके विजय हर्ष के कोलाहल से जैसे सारा आकाश गूँज रहा था । इसके विपरीत वानर-सेना के मन में घोर निराशा थी । अपनी सेना के मुख-मंडल पर व्याप्त निरुत्साह को देखकर राम का हृदय व्याकुल हो गया । उन्हें लगने लगा कि रावण की शक्ति और पराक्रम के बल के आगे अपनी सेना टिक नहीं पायेगी और सीता को रावण की कैद से छुडाना असंभव है । इस चिंता में डूबे श्रीराम के शिथिल चरण-चिन्हों को देखती वानर-सेना अपने शिविर की ओर बिखरी-सी चल रही थी । मुरझाकर झुक जानेवाले कमलों के समान मुँह लटकाये लक्ष्मण के पीछे सारी वानर-सेना चल रही थी । उनके आगे अपने माखन जैसे कोमल पग टेकते राम चल रहे थे । उनके धनुष की डोरी इस समय ढीली पड रही थी । तरकश को धारण करनेवाला कमरबंध भी एकदम ढीला-ढाला हो गया था । राम इस समय ऐसे प्रतीत हो रहे थे जैसे किसी कठिन पर्वत पर रात्रि का अंधकार उतर आया हो ।
वे सब लोग चलते हुए पहाड की चोटी पर बसे अपने शिविर में पहुँचे । सुग्रीव, विभीषण, जांबवान आदि वानर; विशेष दलों के सेनापति; हनुमान, अंगद, नल, नील, गवाक्ष आदि अपनी सेनाओं को विश्राम शिविरों में लौटाकर अगली सुबह होनेवाले युद्ध के लिए विचार-विमर्श करने हेतु बडे ही मंद कदमों से अर्थात पराजय की चिंता में डूबे हुए वहाँ पहुँचे ।
रघुकुल भूषण श्रीराम एक श्वेत पत्थर के आसन पर बैठ गए । उसी क्षण स्वभाव से चतुर हनुमान उनके हाथ-पांव धोने के लिए स्वच्छ पानी ले आए । बाकी के सभी वीर योद्धा संध्याकालीन पूजा-पाठ आदि करने के लिए पास वाले सरोवर के किनारे चले गये । अपने संध्या-पूजा से शीघ्र निवृत्त होकर जब वे सभी वापस लौटे, तो राम की आज्ञा को तत्परता से सुनने के लिए सभी लोग उन्हें घेरकर बैठ गए । लक्ष्मण राम के पीछे बैठे थे । मित्र-भाव से विभीषण और स्वभाव से धैर्यवान, जाम्बवन्त भी उनके समीप ही बैठे थे । राम के एक तरफ सुग्रीव थे और चरण-कमलों के पास महावीर हनुमान विराजमान थे । बाकी सभी सेनानायक अपने-अपने उचित और योग्य स्थानों पर बैठकर रात के नीले कमल के विकास और शोभा को भी जीत लेनेवाले श्याम-मुख को देख रहे हैं । इधर राम के मन में हार-जीत का संशय भाव रह-रहकर उद्वेलित हो रहा था । राम का जो हृदय शत्रुओं का नाश करते समय आज-तक कभी भी थका या भयभीत नहीं हुआ था, राम का जो हृदय अकेलेपन में भी कभी विचलित नहीं हुआ था, वही इस समय रावण से युद्ध करने के लिए व्याकुल होकर भी, प्रस्तुत रह कर भी बार-बार अपनी असमर्थता और पराजय को स्वीकार कर रहा था । श्री राम के चेहरे में उमटी इस चिन्ता की रेखा को देखकर जाम्बवन्त ने इसका कारण पूछा । तब श्रीराम ने कहा, ” रावण के पास मायावी शक्ति है और युद्धकला में वह निपुण है । जिस तरह उसने हमारी सेना का संहार किया उससे तो ऐसा लगता है कि उसपर विजय प्राप्त करना असम्भव है । हमारी सेना में उसके मायावी शक्ति का कोई तोड नहीं है ।”
राम की बातें सुनने के बाद वृद्ध जाम्बवन्त ने राम को महाशक्ति की आराधना करने की सलाह दी और कहा कि, ” हे राम ! यदि रावण शक्ति के प्रभाव से हमें डरा सकता है तो निश्चय ही आप महाशक्ति की पूर्ण सिद्धि प्राप्त करके उसे नष्ट कर पाने में समर्थं होंगे । अतः आप भी शक्ति की नव्य कल्पना करके उसकी पूजा करो । आपके साधना की सिद्धि जब तक प्राप्त नहीं हो पाती, तब तक युद्ध करना छोड दीजिए । तब तक विशाल सेना के नेता बनकर लक्ष्मण जी सबके बीच में रहेंगे, हनुमान, अंगद, नल-नील और स्वयं मैं भी उनके साथ रहूँगा । इसके अतिरिक्त जहाँ कहीं भी हमारी सेना के लिए भय का कोई कारण उपस्थित होगा; वहाँ सुग्रीव, विभीषण आदि अन्य पहुँच कर सहायता करेंगे ।’जाम्बवन्त की सलाह सुनकर सभा खिल गई।”
जाम्बवन्त के परामर्शानुसार श्रीराम ने हनुमानजी को १०८ सहस्त्रदल कमल लाने का आदेश दिया । हनुमानजी ने वैसा ही किया । सारी वानर सेना देवी आराधना के लिए आवश्यक साधन जुटाने तथा उसकी व्यवस्था करने में व्यस्त हो गये । सभी के मन में माँ दुर्गा के दर्शन की अपार लालसा थी । आठ दिन प्रभु श्रीराम युद्ध के मैदान से दूर माँ भगवती की पूजा में लीन हो गए । राम द्वारा महाशक्ति की आराधना के पाँच दिन क्रम से बीत गए । उनका मन भी उसी क्रम से विभिन्न साधना-चक्रों को पार करते हुए ऊपर ही ऊपर उठता गया । प्रत्येक मंत्रोच्चार के साथ एक कमल महाशक्ति को वे अर्पित कर देते । इस प्रकार वे अपनी साधनाहित किया जानेवाला मंत्र-जाप और स्तोत्र पाठ पूरा कर रहे थे । राम की साधना का जब आठवाँ दिन आया तो ऐसा लगने लगा जैसे उन्होंने सारे ब्रम्हांड को जीत लिया । यह देखकर देवता भी स्तब्ध-से होकर रह गए। परिणामस्वरूप राम के जीवन की समस्त कठिन परिस्थितियों के परिणाम नष्ट हो करके रह गए । अब पूजा का एक ही कमल महाशक्ति को अर्पित करने के लिए बाकी रह गया था । राम का मन सहस्रार देवी दुर्गा को भी पार कर जाने के लिए निरंतर देख रहा था । रात का दूसरा पहर बीत रहा था । तभी देवी दुर्गा गुप्त रूप से वहाँ स्वयं प्रकट हो गई और उन्होंने पात्र में रखे एक शेष कमल पुष्प को उठा लिया । देवी-साधना का अंतिम जाप करते हुए, राम ने जैसे ही अंतिम नील कमल लेने के लिए अपना हाथ बढाया, उनके हाथ कुछ भी न लगा । परिणामस्वरूप उनका साधना में स्थिर मन घबराहट के कारण चंचल हो उठा । वे अपनी निर्मल आँखें खोलकर ध्यान की स्थिति त्याग वास्तविक संसार में आए और देखा कि पूजा का पात्र रिक्त पडा है। यह जाप की पूर्णता का समय था, आसन को छोडने का अर्थ साधना को भंग करना था । अतः राम के दोनों नयन निराशा के आँसुओं से एक बार फिर भर गए ।
अपने जीवन को धिक्कारते हुए, राम कहने लगे,- ” मेरे इस जीवन को धिक्कार है जो कि प्रत्येक कदम पर अनेक प्रकार के विरोध ही पाता आ रहा है । उन साधनों को भी धिक्कार है कि जिनकी खोज में यह जीवन सदा ही भटकता रहा। हाय जानकी ! अब साधना पूरी न हो पाने की स्थिति में प्रिय जानकी का उद्धार संभव नहीं हो सकेगा ।” इसके अतिरिक्त राम का एक और मन भी था, जो कभी थकता न था और न ही अनुत्साह का अनुभव ही किया करता था । जो न तो दीनता प्रकट करना जानता था और न विपत्तियों के आगे कभी झुकना ही जानता था । राम का वह स्थिर मन माया के समस्त आवरणों को पार कर बडी तेज गति से बुद्धि के दुर्ग तक जा पहुँचा । अर्थात्‌ इस निराशाजनक स्थिति में भी राम ने बुद्धि-बल का आश्रय नहीं छोडा था । राम की अतीत की स्मृतियाँ जाग उठीं । उनमें विशेष भाव पाकर उनका मन प्रसन्न हो गया । ‘ बस, अब यही उपाय है ‘, राम ने बादलों की गंभीर गर्जना के स्वर में स्वयं से कहा- ” मेरी माता तुझे सदा ही कमलनयन कहकर पुकारा करती थीं । इस दृष्टि से मेरी आँख के रूप में दो नीले कमल अभी भी बाकी हैं । अतः हे माँ दुर्गे ! अपनी आँख रूपी एक कमल देकर मैं अपना यह मंत्र या स्तोत्र-पाठ करता हूँ।” ऐसा कहकर राम ने अपने तरकश की तरफ देखा, जिसमें एक ब्रह्म बाण झलक रहा था । राम ने लक-लक करते उस लंबे फल वाले बाण को अपने हाथ में ले लिया । अस्त्र अर्थात्‌ बाण को बाएँ हाथ में लेकर राम ने दाएँ हाथ से अपनी दायाँ नेत्र पकडा । वे उस नयन को कमल के स्थान पर अर्पित करने के लिए तैयार हो गए । जिस समय अपना नेत्र बेंधने का राम का पक्का निश्चय हो गया, सारा ब्रह्मांड भय से काँप उठा । उसी क्षण बडी शीघ्र गति से देवी दुर्गा भी प्रकट हो गई।”
महाशक्ति दुर्गा ने यह कहते हुए राम का हाथ थाम लिया कि धन्य हो । धैर्यपूर्वक साधना करनेवाले राम, तुम्हारा धर्म भी धन्य-धन्य है । तब राम ने पलकें उठाकर सामने देखा- अपने परमोज्ज्वल और तेजस्वी रूप में साक्षात्‌ दुर्गा देवी खडी थीं । उनका स्वरूप साकार ज्योति के समान था । दस हाथों में अनेक प्रकार के शस्त्रास्त्र सजे हुए थे । मुख पर मंद मुस्कान झिलमिला रही थी । उस मुस्कान को देखकर सारे संसार की शोभा जैसे लज्जित होकर रह जाती थी । उसके दाईं ओर लक्ष्मी और बायीं ओर युद्ध की वेश-भूषा में सजे हुए देव-सेनापति कार्तिकेय जी थे । मस्तक पर स्वयं भगवान शिव विराजमान थे । देवी के इस अद्‌भुत रूप को निहार मंद स्वरों में वंदना करते हुए राम प्रणाम करने के लिए उनके चरण-कमलों में झुक गए।
अपने सामने नतमस्तक राम को देखकर देवी ने आशीर्वाद और वरदान देते हुए कहा – ” हे नवीन पुरुषोत्तम राम ! निश्चय ही तुम्हारी जय होगी।” इतना कहकर वह महाशक्ति राम में विलीन हो गई । उन्हीं में अंतर्हित होकर रह गई ।
माँ के आशीर्वाद से ही राम की सेना में महाशक्ति का अविर्भाव हुआ और श्रीराम ने रावण का वध करके माता जानकी को उसके चंगुल से मुक्त किया । हमारे देश में प्रभु श्रीराम के इस समर्पित भक्ति के आदर्श को धारण करने वालों का अभाव दिखता है । भले ही आज माँ की पूजा में बडे-बडे देवियों की मूर्ति की स्थापना की जाती है, बडे-बडे पेंडाल लगाए जाते हैं परंतु माँ तो राम के भक्ति से ही प्रगट होती है । राम का आदर्श लिए बिना शक्ति की आराधना अधुरी है । शक्ति को धारण करने के लिए रामवत हृदय की आवश्यकता है । आइए, इस नवरात्री पर्व के इस पावन अवसर पर हम शक्ति साधना के व्रत को समाज में जागृत करने का संकल्प लें,…पर शुरुवात तो स्वयं से ही करनी होगी ।
!! जय मां शक्ति….जय श्री राम…जय हनुमान !!

एक दिन एक कुत्ता श्रीराम के दरबार में आया और उसने प्रभु से शिकायत की –

एक दिन एक कुत्ता श्रीराम के दरबार में आया और उसने प्रभु से शिकायत की – “राजन, कितने दुख की बात है कि जिस राज्य की कीर्ति चहुंओर रामराज्य के रूप में फैली हुई है वहीं लोग हिंसा और अन्याय का सहारा लेते हैं. मैं आपके महल के पास ही एक गली में लेटा हुआ था जब एक साधू आया और उसने मुझे पत्थर मारकर घायल कर दिया. देखिए मेरे सिर पर लगे घाव से अभी भी रक्त बह रहा है. वह साधू अभी भी गली में ही होगा. कृपया मेरे साथ न्याय कीजिए और अन्यायी को उसके दुष्कर्म का दंड दीजिए.”

श्रीराम के आदेश पर साधु को दरबार में लिवा लाया गया. साधू ने कहा – “यह कुत्ता गली में पूरा मार्ग रोककर लेटा हुआ था. मैंने इसे उठाने के लिए आवाज़ें दीं और ताली बजाई लेकिन यह नहीं उठा. मुझे गली के पार जाना था इसलिए मैंने इसे एक पत्थर मारकर भगा दिया.”

श्रीराम ने साधु से कहा – “एक साधू होने के नाते तो तुम्हें किंचित भी हिंसा नहीं करनी चाहिए थी. तुमने गंभीर अपराध किया है और इसके लिए दंड के भागी हो.” श्रीराम ने साधू को दंड देने के विषय पर दरबारियों से चर्चा की. दरबारियों ने एकमत होकर निर्णय लिया – “चूंकि इस बुद्धिमान कुत्ते ने यह वाद प्रस्तुत किया है अतएव दंड के विषय पर भी इसका मत ले लिया जाए.”


कुत्ते ने कहा – “राजन, इस नगरी से पचास योजन दूर एक अत्यंत समृद्ध और संपन्न मठ है जिसके महंत की दो वर्ष पूर्व मृत्यु हो चुकी है. कृपया इस साधू को उस मठ का महंत नियुक्त कर दें.”


श्रीराम और सभी दरबारियों को ऐसा विचित्र दंड सुनकर बड़ी हैरानी हुई. उन्होंने कुत्ते से ऐसा दंड सुनाने का कारण पूछा.


कुत्ते ने कहा – “मैं ही दो वर्ष पूर्व उस मठ का महंत था. ऐसा कोई सुख, प्रमाद, या दुर्गुण नहीं है जो मैंने वहां रहते हुए नहीं भोगा हो. इसी कारण इस जन्म में मैं कुत्ता बनकर पैदा हुआ हूं. अब शायद आप मेरे दंड का भेद जान गए होंगे.”

बात मुगल काल की है, नवरात्र में विंध्यवासिनी देवी के मंदिर में मेला लगा हुआ था.


बात मुगल काल की है, नवरात्र में विंध्यवासिनी देवी के मंदिर में मेला लगा हुआ था. चारों ओर चहल-पहल थी, दूर-दूर से लोग भगवती के दर्शन करने चले आ रहे थे, एक चौदह वर्षीय बालक ने अपने जूते उतारे हाथ पैर धोए और एक डालिया लेकर देवी की पूजा के लिए पुष्प चुनने वाटिका जा पहुँचा. उसके साथ उसके हमउम्र दूसरे बालक भी थे. पुष्प चुनते हुए वे कुछ दूर निकल गए, इतने हीं में वहाँ कुछ मुगल सैनिक घोड़े पर चढ़ कर आए, पास आकर वे घोड़े से उतर पड़े और पूछने लगे- “ विन्ध्यवासिनी का मंदिर किधर है ? “

बालक ने पूछा- “ क्यों, क्या तुम्हें भी देवी की पूजा करनी है ? “

मुगल सरदार ने कहा- “ छिः हम तो मंदिर को तोड़ने आए हैं. “

बालक ने फूलों की डालिया दूसरे बालक को पकड़ायी और गरज उठा- “मुँह संभाल कर बोल. ऐसी बात कही तो जीभ खींच लूँगा.”

सरदार हँसा और बोला- “ तू भला क्या कर सकता है ? तेरी देवी भी......?” लेकिन बेचारे का वाक्य भी पूरा नहीं हुआ कि उस साहसी बालक की तलवार उसकी छाती में होकर पीछे तक निकल गई थी. एक युद्ध छिड़ गया उस पुष्प वाटिका में. जिन बालकों के पास तलवारें नहीं थी, वे वे तलवारें लेने गए.

मंदिर में इस युद्ध का समाचार पहुँचा, लोगों ने कवच पहने और तलवारें सम्हाली, किन्तु उन्होंने देखा कि वह वीर बालक हाथ में फूल की डालिया लिए हँसते हुए चला आ रहा है. इसके वस्त्र रक्त से लाल हो गए हैं, अकेले उसने मुगल सैनिकों को भूमि पर सुला दिया था. इस वीर बालक का नाम छत्रसाल था. आज भगवती विन्ध्यवासिनी अपने सच्चे पुजारी के शौर्य- पुष्प को पाकर प्रसन्न हो गईं थीं

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