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बुधवार, 21 नवंबर 2012

कार्तिक माह की शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को "गोपाष्टमी"

आज गोपाष्टमी पर सभी को हार्दिक शुभकामनाए::
 
कार्तिक माह की शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को "गोपाष्टमी" के नाम जाना जाता है. इस वर्ष यह पर्वआज 21 नवम्बर 2012,बुधवार के दिन मनाया जाएगा. यह पर्व ब्रज प्रदेशका मुख्य त्यौहार है. जो गौओं का पालते हैं वह सब भी इस पर्व को मनाते हैं.
गोपाष्टमी पर्व विधि
इस दिन प्रात: काल उठकर नित्य कर्म से निवृत हो स्नान आदि करते हैं. प्रात: काल में ही गौओं को भी स्नान आदि कराया जाता है. इस दिन बछडे़ सहित गाय की पूजा करने का विधान है. प्रात:काल में ही धूप-दीप, गंध, पुष्प, अक्षत, रोली, गुड़, जलेबी, वस्त्र तथा जल से गाय का पूजन किया जाता है और आरती उतारी जाती है. इस दिन कई व्यक्ति ग्वालों को भी उपहार आदि देकर उनका भी पूजन करते हैं. इस दिन गायों को सजाया जाता है. इसके बाद गाय को गो ग्रास देते हैं और गाय की परिक्रमा करते हैं. परिक्रमा करने के बाद गायों के साथ कुछ दूरी तक चलना चाहिए.
संध्या समय में जब गाय घर वापिस आती हैं तब उनका पंचोपचार से पूजनकिया जाता है. गाय को साष्टांग प्रणाम किया जाता है. पूजन करने के बाद गाय के चरणों की मि
ट्टी को माथे से लगाया जाता है. ऎसा करने से व्यक्ति को चिर सौभाग्य की प्राप्ति होती है. इसके बाद गायोंको खाने की वस्तुएं दी जाती है.
गोपाष्टमी का महत्व
प्राचीन मान्यताओं के अनुसार कार्तिक माह की शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से सप्तमी तिथि तक भगवान श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अपनी सबसे छोटी अंगुली पर धारण किया था. आठवें दिन हारकर अहंकारी इन्द्र को श्रीकृष्ण की शरण में आना पडा़ था. इसी दिन अष्टमी के दिन वह भगवान कृष्ण से क्षमा मांगते हैं. उसी दिन से कार्तिक शुक्ल पक्ष की अष्टमी को गोपाष्टमी का यह त्यौहार मनाया जाता है. एक मान्यतानुसार इसी दिनभगवान कृष्ण को गाय चराने के लिए वन में भेजा गया था.
भारत के अधिकतर सभी भागों में यह पर्व मनाया जाता है. विशेष रुप से गोशालाओं में यह पर्व बहुत महत्व रखता है. बहुत से दानी व्यक्ति इस दिन गोशालाओं में दान-दक्षिणा देते हैं. इस दिन सुबह से ही गायोंको सजाया जाता है. उसके बाद मेहंदी के थापे तथा हल्दी अथवा रौली से पूजन किया जाता है.
गोपाष्टमी मनाने का कारण
गौ अथवा गाय भारतीय संस्कृति का प्राण मानी जाती हैं. इन्हें बहुतही पवित्र तथा पूज्यनीय माना जाता है. हिन्दु धर्म में यह पवित्र नदियों, पवित्र ग्रंथों आदि की तरह पूज्य माना गया है. शास्त्रों के अनुसार गाय समस्त प्राणियों की माता है. इसलिए आर्यसंस्कृति में पनपे सभी सम्प्रदायके लोग उपासना तथा कर्मकाण्ड की पद्धति अलग होने पर भी गाय के प्रति आदर भाव रखते हैं. गाय को दिव्य गुणों की स्वामिनी माना गया है और पृथ्वी पर यह साक्षात देवी के समान है.
गोपाष्टमी को ब्रज संस्कृति का एक प्रमुख उत्सव माना जाता है. भगवान कृष्ण का "गोविन्द" नाम भी गायों की रक्षा करने के कारण पडा़था. क्योंकि भगवान कृष्ण ने गायोंतथा ग्वालों की रक्षा के लिए सात दिन तक गोवर्धन पर्वत को अपनी छोटी अंगुली पर उठाकर रखा था. आठवें दिन इन्द्र अपना अहं त्यागकर भगवान कृष्ण की शरण में आया था. उसके बाद कामधेनु ने भगवान कृष्ण का अभिषेक किया और उसी दिन से इन्हें गोविन्द के नामसे पुकारा जाने लगा. इसी दिन से अष्टमी के दिन गोपाष्टमी का पर्व मनाया जाने लगा.

सोमवार, 19 नवंबर 2012

घर में तुलसी का पौधा अवश्य लगाएं।

घर में तुलसी का पौधा अवश्य लगाएं। इससे परिवार में प्रेम बढ़ता है। तुलसी के पत्तों के नियमित सेवन से कई रोगों से मुक्ति मिलती है।
• ईशान कोण (उत्तर-पूर्व) को हमेशा साफ-सुथरा रखें ताकि सूर्य की जीवनदायिनी किरणें घर में
प्रवेश कर सकें।
• भोजन बनाते समय गृहिणी का हमेशा मुख पूर्व की ओर होना चाहिए। इससे भोजन सुपाच्य और स्वादिष्ट बनता है। साथ ही पूर्व की ओर मुख करके भोजन करने से व्यक्ति की पाचन शक्ति में वृद्धि होती है।
• जो बच्चे में पढ़ने में कमजोर हैं, उन्हें पूर्व की ओर मुख करके अध्ययन करना चाहिए। इससे उन्हें लाभ होगा।
• जिन कन्याओं के विवाह में विलम्ब हो रहा है, उन्हें वायव्य कोण (उत्तर-पश्चिम) के कमरे में रहना चाहिए। इससे उनका विवाह अच्छे और समृद्ध परिवार में होगा।
• रात को सोते वक्त व्यक्ति का सिर हमेशा दक्षिण दिशा में होना चाहिए। कभी भी उत्तर दिशा की ओर सिर करके नहीं सोना चाहिए। इससे अनिद्रा रोग होने की संभावना होती है साथ ही व्यक्ति की पाचन शक्ति पर विपरीत असर पड़ता है।
• घर में कभी-कभी नमक के पानी से पोंछा लगाना चाहिए। इससे नकारात्मक ऊर्जा नष्ट होती है।
• घर से निकलते समय माता-पिता को विधिवत (झुककर) प्रणाम करना चाहिए। इससे बृहस्पति और बुध ठीक होते हैं। इससे व्यक्ति के जटिल से जटिल काम बन जाते हैं।
• घर का प्रवेश द्वार एकदम स्वच्छ होना चाहिए। प्रवेश द्वार जितना स्वच्छ होगा घर में लक्ष्मी आने की संभावना उतनी ही बढ़ जाती है।
• प्रवेश द्वार के आगे स्वस्तिक, ॐ, शुभ-लाभ जैसे मांगलिक चिह्नों को उपयोग अवश्य करें।
• प्रवेश द्वार पर कभी ‍भी बिना सोचे-समझे गणेशजी न लगाएं। दक्षिण या उत्तरमुखी घर के द्वार पर ही गणेशजी लगाएं।
• विवाह पत्रिका कभी भूलकर भी न फाड़े क्योंकि इससे व्यक्ति को गुरु और मंगल का दोष लग जाता है।
• घर में देवी-देवताओं की ज्यादा तस्वीरें न रखें और शयन कक्ष में तो बिलकुल भी नहीं।
• शयन कक्ष में टेलीविजन कदापि न रखें क्योंकि इससे शारीरिक क्षमताओं पर विपरीत असर पड़ता

अहंकार का नाश



यह कथा उस समय की है जब लंका जाने के लिए भगवान श्रीराम ने सेतु निर्माण के पूर्व समुद्र तट पर शिवलिंग स्थापित किया था। वहाँ हनुमानजी को स्वयं पर अभिमान हो गया तब भगवान राम ने उनके अहम का नाश किया। यह कथा इस प्रकार है-

जब समुद्र पर सेतुबंधन का कार्य हो रहा था तब भगवान राम ने वहाँ गणेशजी और नौ ग्रहों की स्थापना के पश्चात शिवलिंग स्थापित करने का विचार किया। उन्होंने शुभ मुहूर्त में शिवलिंग लाने के लिए हनुमानजी को काशी भेजा। हनुमानजी पवन वेग से काशी जा पहुँचे। उन्हें देख भोलेनाथ बोले- “पवनपुत्र!” दक्षिण में शिवलिंग की स्थापना करके भगवान राम मेरी ही इच्छा पूर्ण कर रहे हैं क्योंकि महर्षि अगस्त्य विन्ध्याचल पर्वत को झुकाकर वहाँ प्रस्थान तो कर गए लेकिन वे मेरी प्रतीक्षा में हैं। इसलिए मुझे भी वहाँ जाना था। तुम शीघ्र ही मेरे प्रतीक को वहाँ ले जाओ। यह बात सुनकर हनुमान गर्व से फूल गए और सोचने लगे कि केवल वे ही यह कार्य शीघ्र-अतिशीघ्र कर सकते हैं।

यहाँ हनुमानजी को अभिमान हुआ और वहाँ भगवान राम ने उनके मन के भाव को जान लिया। भक्त के कल्याण के लिए भगवान सदैव तत्पर रहते हैं। हनुमान भी अहंकार के पाश में बंध गए थे। अतः भगवान राम ने उन पर कृपा करने का निश्चय कर उसी समय वारनराज सुग्रीव को बुलवाया और कहा-“हे कपिश्रेष्ठ! शुभ मुहूर्त समाप्त होने वाला है और अभी तक हनुमान नहीं पहुँचे। इसलिए मैं बालू का शिवलिंग बनाकर उसे यहाँ स्थापित कर देता हूँ।”

तत्पश्चात उन्होंने सभी ऋषि-मुनियों से आज्ञा प्राप्त करके पूजा-अर्चनादि की और बालू का शिवलिंग स्थापित कर दिया। ऋषि-मुनियों को दक्षिणा देने के लिए श्रीराम ने कौस्तुम मणि का स्मरण किया तो वह मणि उनके समक्ष उपस्थित हो गई। भगवान श्रीराम ने उसे गले में धारण किया। मणि के प्रभाव से देखते-ही-देखते वहाँ दान-दक्षिणा के लिए धन, अन्न, वस्त्र आदि एकत्रित हो गए। उन्होंने ऋषि-मुनियों को भेंटें दीं। फिर ऋषि-मुनि वहाँ से चले गए।

मार्ग में हनुमानजी से उनकी भेंट हुई। हनुमानजी ने पूछा कि वे कहाँ से पधार रहे हैं? उन्होंने सारी घटना बता दी। यह सुनकर हनुमानजी को क्रोध आ गया। वे पलक झपकते ही श्रीराम के समक्ष उपस्थिति हुए और रुष्ट स्वर में बोले-“भगवन! यदि आपको बालू का ही शिवलिंग स्थापित करना था तो मुझे काशी किसलिए भेजा था? आपने मेरा और मेरे भक्तिभाव का उपहास किया है।”

श्रीराम मुस्कराते हुए बोले-“पवनपुत्र! शुभ मुहूर्त समाप्त हो रहा था, इसलिए मैंने बालू का शिवलिंग स्थापित कर दिया। मैं तुम्हारा परिश्रम व्यर्थ नहीं जाने दूँगा। मैंने जो शिवलिंग स्थापित किया है तुम उसे उखाड़ दो, मैं तुम्हारे लाए हुए शिवलिंग को यहाँ स्थापित कर देता हूँ।” हनुमान प्रसन्न होकर बोले-“ठीक है भगवन! मैं अभी इस शिविलंग को उखाड़ फेंकता हूँ।”

उन्होंने शिवलिंग को उखाड़ने का प्रयास किया, लेकिन पूरी शक्ति लगाकर भी वे उसे हिला तक न सके। तब उन्होंने उसे अपनी पूंछ से लपेटा और उखाड़ने का प्रयास किया। किंतु वह नहीं उखड़ा। अब हनुमान को स्वयं पर पश्चात्ताप होने लगा। उनका अहंकार चूर हो गया था और वे श्रीराम के चरणों में गिरकर क्षमा माँगने लगे।

इस प्रकार हनुमान ने अहम का नाश हुआ। श्रीराम ने जहाँ बालू का शिवलिंग स्थापित किया था उसके उत्तर दिशा की ओर हनुमान द्वारा लाए शिवलिंग को स्थापित करते हुए कहा कि ‘इस शिवलिंग की पूजा-अर्चना करने के बाद मेरे द्वारा स्थापित शिवलिंग की पूजा करने पर ही भक्तजन पुण्य प्राप्त करेंगे।’ यह शिवलिंग आज भी रामेश्वरम में स्थापित है और भारत का एक प्रसिद्ध तीर्थ है।

यह कथा उस समय की है जब लंका जाने के लिए भगवान श्रीराम ने सेतु निर्माण के पूर्व समुद्र तट पर शिवलिंग स्थापित किया था। वहाँ हनुमानजी को स्वयं पर अभिमान हो गया तब भगवान राम ने उनके अहम का नाश किया। यह कथा इस प्रकार है-

जब समुद्र पर सेतुबंधन का कार्य हो रहा था तब भगवान राम ने वहाँ गणेशजी और नौ ग्रहों की स्थापना के पश्चात शिवलिंग स्थापित करने का विचार किया। उन्होंने शुभ मुहूर्त में शिवलिंग लाने के लिए हनुमानजी को काशी भेजा। हनुमानजी पवन वेग से काशी जा पहुँचे। उन्हें देख भोलेनाथ बोले- “पवनपुत्र!” दक्षिण में शिवलिंग की स्थापना करके भगवान राम मेरी ही इच्छा पूर्ण कर रहे हैं क्योंकि महर्षि अगस्त्य विन्ध्याचल पर्वत को झुकाकर वहाँ प्रस्थान तो कर गए लेकिन वे मेरी प्रतीक्षा में हैं। इसलिए मुझे भी वहाँ जाना था। तुम शीघ्र ही मेरे प्रतीक को वहाँ ले जाओ। यह बात सुनकर हनुमान गर्व से फूल गए और सोचने लगे कि केवल वे ही यह कार्य शीघ्र-अतिशीघ्र कर सकते हैं।

यहाँ हनुमानजी को अभिमान हुआ और वहाँ भगवान राम ने उनके मन के भाव को जान लिया। भक्त के कल्याण के लिए भगवान सदैव तत्पर रहते हैं। हनुमान भी अहंकार के पाश में बंध गए थे। अतः भगवान राम ने उन पर कृपा करने का निश्चय कर उसी समय वारनराज सुग्रीव को बुलवाया और कहा-“हे कपिश्रेष्ठ! शुभ मुहूर्त समाप्त होने वाला है और अभी तक हनुमान नहीं पहुँचे। इसलिए मैं बालू का शिवलिंग बनाकर उसे यहाँ स्थापित कर देता हूँ।”

तत्पश्चात उन्होंने सभी ऋषि-मुनियों से आज्ञा प्राप्त करके पूजा-अर्चनादि की और बालू का शिवलिंग स्थापित कर दिया। ऋषि-मुनियों को दक्षिणा देने के लिए श्रीराम ने कौस्तुम मणि का स्मरण किया तो वह मणि उनके समक्ष उपस्थित हो गई। भगवान श्रीराम ने उसे गले में धारण किया। मणि के प्रभाव से देखते-ही-देखते वहाँ दान-दक्षिणा के लिए धन, अन्न, वस्त्र आदि एकत्रित हो गए। उन्होंने ऋषि-मुनियों को भेंटें दीं। फिर ऋषि-मुनि वहाँ से चले गए।

मार्ग में हनुमानजी से उनकी भेंट हुई। हनुमानजी ने पूछा कि वे कहाँ से पधार रहे हैं? उन्होंने सारी घटना बता दी। यह सुनकर हनुमानजी को क्रोध आ गया। वे पलक झपकते ही श्रीराम के समक्ष उपस्थिति हुए और रुष्ट स्वर में बोले-“भगवन! यदि आपको बालू का ही शिवलिंग स्थापित करना था तो मुझे काशी किसलिए भेजा था? आपने मेरा और मेरे भक्तिभाव का उपहास किया है।”

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