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रविवार, 9 दिसंबर 2012

गेहूं के जवारे : पृथ्वी की संजीवनी बूटी

गेहूं के जवारे : पृथ्वी की संजीवनी बूटी


प्रकृति ने हमें अनेक अनमोल नियामतें दी हैं। गेहूं के जवारे उनमें से ही प्रकृति की एक अनमोल देन है। अनेक आहार शास्त्रियों ने इसे संजीवनी बूटी भी कहा है, क्योंकि ऐसा कोई रोग नहीं, जिसमें इसका सेवन लाभ नहीं देता हो। यदि किसी रोग से रोगी निराश है तो वह इसका सेवन कर श्रेष्ठ स्वास्थ्य पा सकता है।

गेहूं के जवारों में अनेक अनमोल पोषक तत्व व रोग निवारक गुण पाए जाते हैं, जिससे इसे आहार नहीं वरन्‌ अमृत का दर्जा भी दिया जा सकता है। जवारों में सबसे प्रमुख तत्व क्लोरोफिल पाया जाता है। प्रसिद्ध आहार शास्त्री डॉ. बशर के अनुसार क्लोरोफिल (गेहूंके जवारों में पाया जाने वाला प्रमुख तत्व) को केंद्रित सूर्य शक्ति कहा है।

गेहूं के जवारे रक्त व रक्त संचार संबंधी रोगों, रक्त की कमी, उच्च रक्तचाप, सर्दी, अस्थमा, ब्रोंकाइटिस, स्थायी सर्दी, साइनस, पाचन संबंधी रोग, पेट में छाले, कैंसर, आंतों की सूजन, दांत संबंधी समस्याओं, दांत का हिलना, मसूड़ों से खून आना, चर्म रोग, एक्जिमा, किडनी संबंधी रोग, सेक्स संबंधी रोग, शीघ्रपतन, कान के रोग, थायराइड ग्रंथि के रोग व अनेक ऐसे रोग जिनसे रोगी निराश हो गया, उनके लिए गेहूं के जवारे अनमोल औषधि हैं। इसलिए कोई भी रोग हो तो वर्तमान में चल रही चिकित्सा पद्धति के साथ-साथ इसका प्रयोग कर आशातीत लाभ प्राप्त किया जा सकता है।

हिमोग्लोबिन रक्त में पाया जाने वाला एक प्रमुख घटक है। हिमोग्लोबिन में हेमिन नामक तत्व पाया जाता है। रासायनिक रूप से हिमोग्लोबिन व हेमिन में काफी समानता है। हिमोग्लोबिन व हेमिन में कार्बन, ऑक्सीजन, हाइड्रोजन व नाइट्रोजन के अणुओं की संख्या व उनकी आपस में संरचना भी करीब-करीब एक जैसी होती है। हिमोग्लोबिन व हेमिन की संरचना में केवल एक ही अंतर होता है कि क्लोरोफिल के परमाणु केंद्र में मैग्नेशियम, जबकि हेमिन के परमाणु केंद्र में लोहा स्थित होता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि हिमोग्लोबिन व क्लोरोफिल में काफी समानता है और इसीलिए गेहूं के जवारों को हरा रक्त कहना भी कोई अतिशयोक्ति नहीं है।

गेहूं के जवारों में रोग निरोधक व रोग निवारक शक्ति पाई जाती है। कई आहार शास्त्री इसे रक्त बनाने वाला प्राकृतिक परमाणु कहते हैं। गेहूं के जवारों की प्रकृति क्षारीय होती है, इसीलिए ये पाचन संस्थान व रक्त द्वारा आसानी से अधिशोषित हो जाते हैं। यदि कोई रोगी व्यक्ति वर्तमान में चल रही चिकित्सा के साथ-साथ गेहूं के जवारों का प्रयोग करता है तो उसे रोग से मुक्ति में मदद मिलती है और वह बरसों पुराने रोग से मुक्ति पा जाता है।

यहां एक रोग से ही मुक्ति नहीं मिलती है वरन अनेक रोगों से भी मुक्ति मिलती है, साथ ही यदि कोई स्वस्थ व्यक्ति इसका सेवन करता है तो उसकी जीवनशक्ति में अपार वृद्धि होती है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि गेहूं के जवारे से रोगी तो स्वस्थ होता ही है किंतु सामान्य स्वास्थ्य वाला व्यक्ति भी अपार शक्ति पाता है। इसका नियमित सेवन करने से शरीर में थकान तो आती ही नहीं है।

यदि किसी असाध्य रोग से पीड़ित व्यक्ति को गेहूं के जवारों का प्रयोग कराना है तो उसकी वर्तमान में चल रही चिकित्सा को बिना बंद किए भी गेहूं के जवारों का सेवन कराया जा सकता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि कोई चिकित्सा पद्धति गेहूं के जवारों के प्रयोग में आड़े नहीं आती है, क्योंकि गेहूं के जवारे औषधि ही नहीं वरन श्रेष्ठ आहार भी है।

औषधीय गुणों वाले पौधे

औषधीय गुणों वाले पौधे 


चिरौंजी लीजिए, कच्चे दूध के संग ।
सोते समय लगाइए, निखरे मुँह का रंग॥
या
सरसों तेल पकाइए, दूध आक (मदार) डाल ।
मालिश करिए छान कर, खुश्क खाज का काल॥


इस तरह के घरेलू नुस्खे बताने वाले और इन घरेलू नुस्खों में इस्तेमाल होने वाली जड़ी-बूटियाँ अब बीते दिनों की बात होती जा रही हैं। ये जड़ी-बूटियाँ अब विलुप्त होने की कगार पर है। 'हंसराज', 'कामराज', 'हरजोड़', 'वच', 'आंबा हल्दी', 'चित्रक' और 'कलिहारी' सरीखी औषधीय गुणों वाले तमाम पौधे गायब हो चुके हैं। 1859 में लखनऊ में औषधीय पौधों की एक हजार प्रजातियाँ पाई जाती थीं जो अब घटकर 400 रह गई हैं।

'वच' की जड़ का इस्तेमाल गुर्दा रोग के लिए होता है जबकि 'हंसराज' साँप का विष उतारने में काम आता है । 'कामराज' का प्रयोग मुँह के छाले और डायरिया की रोकथाम के साथ शक्तिवर्धक के रूप में होता है। 'चित्रक' का सेवन क्षय मरीजों को कराया जाता है। बुखार के इलाज में कारगर गोमती के किनारे मिलने वाली 'कलिहारी' खत्म हो गई है।

उत्तर प्रदेश में औषधीय गुणों वाले पौधों की संख्या पाँच सौ से भी ऊपर है जो बीमारी से निजात दिलाते हैं। बावजूद इसके विलुप्त हो रहे इन औषधीय गुणों वाले पौधों में से पचास तो ऐसे हैं जिन्हें बचाना नितांत जरूरी है। इसमें गोरखपुर के कैंप्यिरगंज इलाके में पाई जाने वाली 'दुधई', 'दूधिया' या 'दुद्धी' नाम से लोकप्रिय वह पौधा है जो कमर के दर्द या कमर में चिलक समा जाने के समय इस्तेमाल होता है।



इसी इलाके में पाई जाने वाली 'चकवार्ड' भी शायद अब नहीं दिखाई दे जिसका प्रयोग फोड़े-फुंसियों के इलाज में किया जाता है । खाँसी, दमा और प्रसूति रोगों में इस्तेमाल किया जाने वाला 'अडूसा', जिसे स्थानीय इलाके में रूसा और बासा के नाम से जाना जाता है, के साथ ही साथ, बुखार, हैजा, दाँत और पेट दर्द में लाभदायक 'तिमुरू' भी खत्म होने के कगार पर हैं । गेहूँ के खेतों में स्वतः उगने वाला 'बथुआ' भी दुर्लभ हो गया है।

उदर रोग और बुखार में इस्तेमाल की जाने वाली 'सर्पगंधा' जिसे 'धवल वरुवा' और 'चंद मखा' के नाम से जाना जाता है, वह भी दिखना बंद हो गया है। मैदानी इलाकों में पाया जाने वाला फोड़े-फुंसी के इलाज में कारगर 'पत्थरचटा' और 'बड़ी चड़ीद' भी विलुप्त प्रजातियों में शुमार हो गया है

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