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बुधवार, 6 मार्च 2013

नैना देवी मंदिर, हिमाचल प्रदेश

नैना देवी मंदिर, हिमाचल प्रदेश
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नैना देवी मंदिर हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर जिले में है। यह शिवालिक पर्वत श्रेणी की पहाड़ियो पर स्थित एक भव्य मंदिर है। यह देवी के 51 शक्ति पीठों में शामिल है। नैना देवी हिंदूओं के पवित्र तीर्थ स्थलों में से एक है। यह स्थान नैशनल हाईवे न. 21 से जुड़ा हुआ है। इस स्थान तक पर्यटक अपने निजी वाहनो से भी जा सकते है। मंदिर तक जाने के लिए उड़्डनखटोले, पालकी आदि की भी व्यवस्था है। यह समुद्र तल से 11000 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। मान्यता है कि इस स्थान पर देवी सती के नेत्र गिरे थे। मंदिर में पीपल का पेड़ मुख्य आकषर्ण का केन्द्र है जो कि अनेको शताब्दी पुराना है। मंदिर के मुख्य द्वार के दाई ओर भगवान गणेश और हनुमान कि मूर्ति है। मुख्य द्वार के पार करने के पश्चात आपको दो शेर की प्रतिमाएं दिखाई देगी। शेर माता का वाहन माना जाता है। मंदिर के र्गभ ग्रह में मुख्य तीन मूर्तियां है। दाई तरफ माता काली की, मध्य में नैना देवी की और बाई ओर भगवान गणेश की प्रतिमा है। पास ही में पवित्र जल का तालाब है जो मंदिर से कुछ ही दूरी पर स्थित है। मंदिर के समीप ही में एक गुफा है जिसे नैना देवी गुफा के नाम से जाना जाता है। पहले मंदिर तक पहुंचने के लिए 1.25 कि.मी. की पैदल यात्रा कि जाती थी परन्तु अब मंदिर प्रशासन द्वारा मंदिर तक पहुंचने के लिए उड़्डलखटोले का प्रबंध किया गया है।

देवी की उत्पत्ति कथा
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दुर्गा सप्तशती और देवी महात्यमय के अनुसार देवताओं और असुरों के बीच में सौ वर्षों तक युद्ध चला था। इस युद्ध में असुरो की सेना विजयी हुई। असुरो का राजा महिषासुर स्वर्ग का राजा बन गया और देवता सामान्य मनुष्यों कि भांति धरती पर विचलण करने लगे। तब पराजित देवता ब्रहमा जी को आगे कर के उस स्थान पर गये जहां शिवजी, भगवान विष्णु के पास गए। सारी कथा कह सुनाई। यह सुनकर भगवान विष्णु, शिवजी ने बड़ा क्रोध किया उस क्रोध से विष्णु, शिवजी के शरीर से एक एक तेज उत्पन्न हुआ। भगवान शंकर के तेज से उस देवी का मुख, विष्णु के तेज से उस देवी की वायें, ब्रहमा के तेज से चरण तथा यमराज के तेज से बाल, इन्द्र के तेज से कटि प्रदेश तथा अन्य देवता के तेज से उस देवी का शरीर बना। फिर हिमालय ने सिंह, भगवान विष्णु ने कमल, इंद्र ने घंटा तथा समुद्र ने कभी न मैली होने वाली माला प्रदान की। तभी सभी देवताओं ने देवी की आराधना की ताकि देवी प्रसन्न हो और उनके कष्टो का निवारण हो सके। और हुआ भी ऐसा ही। देवी ने प्रसन्न होकर देवताओं को वरदान दे दिया और कहा मै तुम्हारी रक्षा अवश्य करूंगी। इसी के फलस्वरूप देवी ने महिषासुर के साथ युद्ध प्रारंभ कर दिया। जिसमें देवी कि विजय हुई और तभी से देवी का नाम महिषासुर मर्दनी पड़ गया।

पौराणिक सती कथा के अनुसार

नैना देवी मंदिर शक्ति पीठ मंदिरों मे से एक है। पूरे भारतवर्ष मे कुल 51 शक्तिपीठ है। जिन सभी की उत्पत्ति कथा एक ही है। यह सभी मंदिर शिव और शक्ति से जुड़े हुऐ है। धार्मिक ग्रंधो के अनुसार इन सभी स्थलो पर देवी के अंग गिरे थे। शिव के ससुर राजा दक्ष ने यज्ञ का आयोजन किया जिसमे उन्होंने शिव और सती को आमंत्रित नही किया क्योंकि वह शिव को अपने बराबर का नही समझते थे। यह बात सती को काफी बुरी लगी और वह बिना बुलाए यज्ञ में पहुंच गयी। यज्ञ स्‍थल पर शिव का काफी अपमान किया गया जिसे सती सहन न कर सकी और वह हवन कुण्ड में कुद गयीं। जब भगवान शंकर को यह बात पता चली तो वह आये और सती के शरीर को हवन कुण्ड से निकाल कर तांडव करने लगे। जिस कारण सारे ब्रह्माण्ड में हाहाकार मच गया। पूरे ब्रह्माण्ड को इस संकट से बचाने के लिए भगवान विष्णु ने सती के शरीर को अपने सुदर्शन चक्र से 51 भागो में बांट दिया जो अंग जहां पर गिरा वह शक्ति पीठ बन गया। मान्यता है कि नैना देवी मे माता सती नयन गिरे थे।

नैना देवी मंदिर के प्रमुख त्योहार

नैना देवी मंदिर में नवरात्रि का त्योहार बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। वर्ष में आने वाली दोनो नवरात्रि, चैत्र मास और अश्‍िवन मास के नवरात्रि में यहां पर विशाल मेले का आयोजन किया जाता है। देश के कोने-कोने से श्रद्धालु यहां आकर माता नैना देवी की कृपा प्राप्त करते है। माता को भोग के रूप में छप्पन प्रकार कि वस्तुओं का भोग लगाया जाता है। श्रावण अष्टमी को यहा पर भव्य व आकषर्क मेले का आयोजन किया जाता है। नवरात्रि में आने वाले श्रद्धालुओं कि संख्या दोगुनि हो जाती है। बाकि अन्य त्योहार भी यहां पर काफी धूमधाम से मनाये जाते है।

आवागमन

वायु मार्ग
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हवाई जहाज से जाने वाले पर्यटक चंडीगढ विमानक्षेत्र तक वायु मार्ग से जा सकते है। इसके बाद बस या कार की सुविधा ले सकते है। दूसरा नजदीकी हवाई अड्डा'अमृतसर विमानक्षेत्र में है।

रेल मार्ग कायम नैना देवी जाने के लिए पर्यटक चंडीगढ और पालमपुर तक रेल सुविधा ले सकते है। इसके पश्चात बस, कार व अन्य वाहनो से मंदिर तक पहुंचा जा सकता है। चंडीगढ देश के सभी प्रमुख शहरो से सड़क मार्ग से जुड़ा हुआ है।


सड़क मार्ग
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नैनादेवी दिल्ली से 350 कि.मी. कि दूरी पर स्थित है। दिल्ली से करनाल, चण्डीगढ, रोपड़ होते हुए पर्यटक नैना देवी पहुंच सकते है। सड़क मार्ग सभी सुविधाओ से युक्त है। रास्ते मे काफी सारे होटल है जहां पर विश्राम किया जा सकता है। सड़के पक्की बनी हुई है।

मंगलवार, 5 मार्च 2013

Welcome to the 'Stock Market'

एक बार एक आदमी ने गांव वालों से
कहा की वो 100 रु .में एक बन्दर खरीदेगा , ये
सुनकर सभी गांववाले नजदीकी जंगल की और
दौड़ पड़े और वहां से बन्दर पकड़ पकड़ कर 100
रु .में उस आदमी को बेचने लगे .......

कुछ दिन बाद ये सिलसिला कम हो गया और
लोगों की इस बात में दिलचस्पी कम
हो गयी .......

फिर उस आदमी ने कहा की वो एक एक बन्दर के
लिए 200 रु .देगा , ये सुनकर लोग फिर बन्दर
पकड़ने में लग गये , लेकिन कुछ दिन बाद
मामला फिर ठंडा हो गया ....

अब उस आदमी ने कहा की वो बंदरों के लिए 500
रु . देगा ,लेकिन क्यूंकि उसे शहर जाना था उसने
इस काम के लिए एक असिस्टेंट नियुक्त कर
दिया ........

500 रु .सुनकर गांववाले बदहवास हो गए ,लेकिन
पहले ही लगभग सारे बन्दर पकडे जा चुके थे
इसलिए उन्हें कोई हाथ नही लगा ...... तब उस
आदमी का असिस्टेंट उनसे आकर कहता है .....

" आप लोग चाहें तो सर के पिंजरे में से 350 -350
रु . में बन्दर खरीद सकते हैं , जब सर आ जाएँ
तो 500 -500 में बेच
दीजियेगा "...गांववालों को ये प्रस्ताव
भा गया और उन्होंने सारे बन्दर 350 -350 रु .में
खरीद लिए .....

अगले दिन न वहां कोई असिस्टेंट था और न
ही कोई सर .......बस बन्दर ही बन्दर

Welcome to the 'Stock Market'

सोमवार, 4 मार्च 2013

अपने चमत्कारों व वरदानों के लिए प्रसिद्ध हैं खाटू के श्यामबाबा

अपने चमत्कारों व वरदानों के लिए प्रसिद्ध हैं खाटू के श्यामबाबा
कैसे बने महाबली बर्बरिक खाटू के श्याम
हमारे देश में बहुत से ऐसे धार्मिक स्थल हैं जो अपने चमत्कारों व वरदानों के लिए प्रसिद्ध हैं। उन्हीं मंदिरों में से एक है राजस्थान का प्रसिद्ध खाटू श्याम मंदिर। इस मंदिर में भीम के पौत्र और घटोत्कच के पुत्र बर्बरीक की श्याम यानी कृष्ण के रूप में पूजा की जाती है। इस मंदिर के लिए कहा जाता है कि जो भी इस मंदिर में जाता है उन्हें श्यामबाबा का नित नया रूप देखने को मिलता है। कई लोगों को तो इस विग्रह में कई बदलाव भी नजर आते है। कभी मोटा तो कभी दुबला। कभी हंसता हुआ तो कभी ऐसा तेज भरा कि नजरें भी नहीं टिक पातीं। श्यामबाबा का धड़ से अलग शीश और धनुष पर तीन वाण की छवि वाली मूर्ति यहां स्थापित की गईं। कहते हैं कि मन्दिर की स्थापना महाभारत युद्ध की समाप्ति के बाद स्वयं भगवान कृष्ण ने अपने हाथों की थी।

बालक बर्बरीक यानी श्यामबाबा के बारे में मान्यता है कि पांडवों में महाबली भीम को अज्ञातवास के दौरान हिडिम्बा के भाई को मारने पर हिडिंबा ने भीम से प्रणय निवेदन किया और उससे महाबलि घटोत्कच का जन्म हुआ। घटोत्कच के जन्म होते ही भीम हिडिंबा को छोड़ कर चले गये और हिडिम्बा ने बहुत बाद में घटोत्कच को बताया कि तेरे पिता महाबलि भीमसेन हैं जो पांच पांडव में से एक हैं। घटोत्कच जन्म से ही भीम की तरह महान बलशाली, विशालकाय और माता हिडिम्बा की तरह मायावी शक्तियों से युक्त था जिसने बाद में युद्ध के दौरान पांडवों का साथ दिया और वीरगति प्राप्त की। घटोत्कच का एक पुत्र था बर्बरीक, जो शक्तिबल के अलावा शिवभक्ति में भी अगाध आस्थावान रहा। प्रसन्न होकर शिवजी ने उसको तीन अमोघवाण दिए जिससे वह तीनों लोकों में प्रयोग करके अजेय योद्धा बन सकता था। लेकिन उसके यह अमोघवाण और सूर्य भगवान का दिया धनुष आज उसके सिरोभाग के साथ महज एक प्रतीकमूर्ति बनकर रह गया। युद्ध के दौरान वासुदेव कृष्ण ने कुछ ऐसी लीला रची कि बर्बरीक को अपना सिर दान करना पड़ा और वह कृष्ण के श्यामरूप में युद्धस्थल के पास खाटू में अमर हो गये और यही श्याम बाबा उस महाभारत के धर्मयुद्ध के चश्मदीद गवाह बने..
  बालक बर्बरीक यानी श्यामबाबा के बारे में मान्यता है कि यह बाल्यकाल से ही बहुत वीर और महान योद्धा थे। उन्होंने भगवान शिव को प्रसन्न करके उनसे तीन अभेद्य वाण प्राप्त किए थे। इसी कारण इन्हें तीन वाणधारी नाम भी प्राप्त हुआ। स्वयं अग्निदेव ने उनसे प्रसन्न होकर उन्हें ऐसा धनुष प्रदान किया था, जिससे वह तीनों लोकों में विजय प्राप्त करने का सामर्थ्य रखते थे। जब महाभारत का युद्ध शुरू हुआ तो बर्बरीक ने भी माता के सामने इस युद्ध में जाने की इच्छा प्रकट की। उन्होंने माता से पूछा-  इस युद्ध में मैं किसका साथ दूं? माता ने सोचा कौरवों के साथ तो उनकी विशाल सेना, स्वयं भीष्म पितामह, गुरु द्रोण, कृपाचार्य, अंगराज कर्ण जैसे महारथी हैं। इनके सामने पांडव अवश्य ही हार जाएंगे। ऐसा सोच माता बालक बर्बरीक से बोलीं- पुत्र, जो हार रहा हो तुम उसी का सहारा बनना। बालक बर्बरीक ने माता को वचन दिया कि वह ऐसा ही करेंगे। अब वह अपने लीले (नीले) घोड़े पर सवार हो युद्ध भूमि की ओर प्रस्थान कर गए।

अंतर्यामी, सर्वव्यापी भगवान श्रीकृष्ण युद्ध का अंत जानते थे। इसीलिए उन्होंने सोचा कि अगर कौरवों को हारता देखकर बर्बरीक कौरवों का साथ देने लगा तो पांडवों की हार निश्चित है। इसलिए लीलाधर भगवान श्रीकृष्ण ने ब्राह्मण का वेश धारण कर चालाकी से बालक बर्बरीक का शीश दान में मांग लिया। बालक बर्बरीक सोच में पड़ गया कि कोई ब्राह्मण मेरा शीश क्यों मांगेगा? ऐसा सोच उन्होंने ब्राह्मण से उनके शीशदान के बदले सम्पूर्ण युद्ध देखने की इच्छा प्रकट की। भगवान बोले- ऐसा ही होगा। ऐसा सुन बालक बर्बरीक ने अपने आराध्य देवी-देवताओं का वन्दन किया। माता को नमन किया और फिर कमर से कटार खींचकर एक ही वार में अपने शीश को धड़ से अलग कर श्रीकृष्ण को दान कर डाला। श्रीकृष्ण ने तेजी से उनके शीश को अपने हाथ में उठा लिया एवं अमृत से सींचकर अमर करते हुए युद्ध भूमि के समीप ही सबसे ऊंची पहाड़ी पर एक पेड़ की शाखा पर सुशोभित कर दिया, जहां से बर्बरीक सम्पूर्ण युद्ध देख सकते थे।

महाभारत का युद्ध शुरू हुआ। बर्बरीक मौन हो सब देखते रहे। युद्ध की समाप्ति पर कौरवों का अंत हुआ और पांडव विजयी हुए। सभी आत्मप्रशंसा में लग गए कि उन्हीं के कारण विजय प्राप्त हुई है। आखिरकार निर्णय के लिए सभी श्रीकृष्ण के पास गये। भगवान श्रीकृष्ण बोले- मैं तो स्वयं व्यस्त था। इसीलिए मैं किसी का पराक्रम नहीं देख सका। ऐसा करते हैं हम सभी भीम के पौत्र बर्बरीक के पास चलते हैं। वहीं से सही निर्णय मिल सकेगा। बर्बरीक के शीशदान की कहानी अब तक पांडवों को मालूम नहीं हुई थी। बर्बरीक के पास पहुंच कर भगवान श्रीकृष्ण ने उनसे पांडवों के पराक्रम के बारें में जानना चाहा। बर्बरीक के शीश ने उत्तर दिया - भगवन युद्ध में तो चारों ओर आपका सुदर्शन नाच रहा था और जगदम्बा खप्पर भर-भर लहू का पान कर रहीं थीं। मुझे तो ये पांडव लोग विशेष पराक्रम दिखाते कहीं भी नजर नहीं आए सिवाय मेरे दादा भीम के जिन्होंने कुछ ही देर में दुर्योधन का लहू निकाला और दुषासन के हाथ उखाड़ डाले। बर्बरीक के उत्तर को सुन सभी महारथियों की नजरें नीचे झुक गईं। तब श्रीकृष्ण ने बर्बरीक का सभी से परिचय कराया कि यही वीर घटोत्कच का पुत्र और भीम का पोता है, जिसको शिवजी ने तीन अचूक मार करने वाले वाण दिये और अग्निदेव ने अजेय धनुष दिया है। उसी समय श्रीकृष्ण ने बर्बरीक पर प्रसन्न होकर उन्हें अपना नाम श्याम दिया तथा अपनी सोलह कलाएं दीं।
 अपनी शक्तियां प्रदान करते हुए भगवान श्रीकृष्ण बोले- बर्बरीक धरती पर तुम से बड़ा दानी ना तो कोई हुआ है और ना ही होगा। मां को दिए वचन के अनुसार... तुम इस पृथ्वी पर हारे का सहारा बनोगे। कल्याण की भावना से जो लोग तुम्हारे दरबार में तुमसे जो भी मांगेंगे उन्हें वह अवश्य मिलेगा। तुम्हारे दर पर सभी की इच्छाएं पूर्ण होंगी ऐसा मेरा वरदान और शक्ति तुम्हारे पास चारों युगों में रहेंगी। तुम्हारे मन्दिर स्थल पर बारह महीने श्रद्धालुओं और भक्तों का मेला लगा रहेगा।

कैसे पहुंचे खाटू श्याम जी मन्दिर तक

हर साल फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को राजस्थान में खाटू श्याम जी के मंदिर में दो दिन के बहुत बड़े मेले का आयोजन किया जाता है, जिसमें देश-विदेश से भी श्रद्धालु श्याम भक्त शामिल होते हैं। इस दौरान हारे का सहारा... है श्याम हमारा... प्रचलित भजन चारों तरफ गूंजता है। इस साल यह मेला २०-२४ मार्च तक रहेगा|

यह प्रसिद्ध खाटू श्याम मंदिर जयपुर से उत्तर दिशा में वाया रींगस से होकर 80 किलोमीटर दूर पड़ता है। दिल्ली, अहमदाबाद, जयपुर आदि से आने वाले यात्रियों को सर्वप्रथम इसी रींगस से होकर जाना पड़ता है। रींगस से ही सभी श्रद्धालु भक्तजन खाटू श्याम मंदिर के लिए जीप, बस या पैदल प्रस्थान करते हैं। खाटू में श्यामजी का छोटा सा मन्दिर है लेकिन उसकी मान्यता राजस्थान के अन्य धार्मिक स्थलों से कम नही है। मन्दिर के आसपास की साफ-सफाई और रखरखाव की व्यवस्था बहुत अच्छी नहीं है हालांकि मन्दिर से पहले कई धार्मिक ट्रस्टों के गेस्ट हाउस और धर्मशाला आदि बन चुके हैं लेकिन मन्दिर की साफ-सफाई श्यामकृपा पर ही चल रही है।


प्रस्तुति

श्रीमती सोनू लढा (जोधपुर)
"साँवरिया" चेरिटेबल ट्रस्ट
www.sanwariya.webs.com
www.sanwariyaa.blogspot.com

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