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रविवार, 21 सितंबर 2014

प्रश्न: क्या ईश्वर के दर्शन होते हैं..??

प्रश्न: क्या ईश्वर के दर्शन होते हैं..??

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उत्तर : अवश्य होते हैं पर वैसे नहीं जैसे आप इस समय सोच रहे हैं !
* ईश्वर स्वभाव से चेतन है और चेतन तत्त्व निराकार होता है इसलिए ईश्वर का दीदार, देखना या दर्शन करने का तात्पर्य होता है - उसकी सत्ता का ज्ञान होना, उसकी अनुभूति (feeling) होना! इसी feeling को दार्शनिक भाषा में 'ईश्वर साक्षात्कार' कहते हैं।
* "दृश्यन्ते ज्ञायन्ते याथातथ्यत आत्मपरमात्मनो बुद्धिन्द्रियादयोतिन्द्रियाः सूक्ष्मविषया येन तद दर्शनम् "||
अर्थात् जिससे आत्मा, परमात्मा, मन, बुद्धि, इन्द्रियों आदि सूक्ष्म विषयों का प्रत्यक्ष = ज्ञान होता है, उसको दर्शन कहते हैं। इसलिए कहते हैं कि ईश्वर को देखने के लिए ज्ञान-चक्षुओं की आवश्यकता होती है, चरम-चक्षुओं (भौतिक नेत्रों) की नहीं!।
* पदार्थ दो प्रकार के होते हैं - 1) जड़ और 2) चेतन। जड़ वास्तु ज्ञानरहित होती है और चेतन में ज्ञान होता है। प्रकृति तथा उससे बनी सृष्टि की प्रत्येक वास्तु जड़ होती है। परमात्मा और आत्मा दोनों चेतन हैं।
* चेतन (आत्मा) को ही चेतन (परमात्मा) की अनुभूति होती है। चेतनता अर्थात् ज्ञान।
* हमारे नेत्र जड़ होते है, देखने के साधन हैं और जो उनके द्वारा वस्तुओं को देखता है वह चेतन (जीवात्मा) होता है। जह वस्तुचेतन को नहीं देख सकती क्योंकि उसमें ज्ञान नहीं होता पर चेतन वास्तु (आत्मा और परमात्मा) जड़ और चेतन दोनों को देख सकती है।
* अतः ईश्वर का साक्षात्कार आत्मा ही कर सकता है शर्त यह है कि आत्मा और परमात्मा के बीच किसी भी प्रकार का मल, आवरण या विक्षेप न हो अर्थात् वह शुद्ध, पवित्र और निर्मल हो अर्थात् वह सुपात्र हो।
* ईश्वर की कृपा का पात्र (सुपात्र) बनाने के लिए मनुष्य को चाहिए कि वह अपने अमूल्य जीवान को वैदिक नियमों तथा आज्ञाओं के अनुसार बनाए, नियमित योगाभ्यास करे और अष्टांग योग के अनुसार समध्यावस्था को प्राप्त करे। समाध्यावास्था में ही ईश्वर के साक्षात्कार हो सकते हैं, अन्य कोई मार्ग नहीं है।
* इस स्थिति तक पहूँचने के लिए साधक को चाहिए कि वह सत्य का पालन करे और किसी भी परिस्थिति में असत्य का साथ न दे। जब तक जीवन में सत्य का आचरण नहीं होगा ईश्वर की प्राप्ति या उसके आनन्द का अनुभव (feeling) नामुमकिन है जिस की सब को सदा से तलाश रहती है।

वैज्ञानिक द्रष्टि से भी यज्ञ को समझना होगा

वैज्ञानिक द्रष्टि से भी यज्ञ को समझना होगा
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यह सर्वविदित है कि बढ़ते हुए वायुप्रदुषण से इस समय सारा वैज्ञानिक जगत विशेष चिंतित है। हमारे अनुभवी ऋषि मुनियों ने आदि सृष्टि् में ही यह बता दिया था कि वायु, जल, अन्नि आदि की शुद्धि के लिए एवं अंत:करण की शुद्धि के लिए अग्निबहोत्र बहुत सहायक होता है।
इतिहास पढ़ने से जानकारी मिलती है। वैदिक युग में घर-घर यज्ञ होते थे तब हमारा (आर्वावर्त) भारत वर्ष देश धन्य। धान्यु से परिपूर्ण था प्रत्येहक का अन्तव:करण पवित्र था। तब भारत विश्व का गुरु था। महाभारत काल के पश्चाधत् मत-मतान्तथरों के द्वारा धर्म अध्यात्मव के साथ कर्मकाण्डि सम्बकन्धी भ्राँतियाँ भी बहुत फैली वाम मार्गी लोग यज्ञ के लिए निरपराध प्राणियों को मारने लगे। कालान्तर में करुणा प्रधान हृदय वाले महात्मा बुद्ध जैन तीर्थकर भगवान महावीर आदि ने उन हिंसक यज्ञों का विरोध किया और हिंसक यज्ञों के होने से अनेक व्यवक्तियों के हृदय में अग्नि होत्र के प्रति अश्रद्धा उत्प न्नय हो गई जिसके परिणाम स्वनरुप यह सर्वकल्यािणकारी वैदिक परम्प रा प्राय: लुप्ती् सी हो गई। देवी देवताओं एवं यज्ञों के नाम पर हो रहा पशुवध, वेद उद्धारक-महर्षि दयानंदजी की कृपा से वैदिक विधानानुसार हिंसा रहित यज्ञ पुन: होने लगे।
अन्निेहोत्र से लेकर अश्वयमेघ पर्यन्तव जो कर्मकाण्ड है, उसमें चार प्रकार के द्रव्यों का होम करना होता है। 1. सुगन्ध गुण युक्त-जो कस्तुनरी केशर सुगन्धिडत गुलाब के फुल आदि। 2. मिष्टर गुण युक्ति-जो कि गुड़ या शक्करर आदि। 3. पुष्टितकारक गुण युक्त जो घृत और जौ, तिल आदि। 4. रोगनाशक गुणयुक्त-जो कि सोमलता, औषधि आदि। इन चारों का परस्पणर शोधन, संस्कामर और यथायोग्यर मिलाकर अग्नि में वेद ऋचाओं द्वारा युक्तिकपूर्वक जो होम किया जाता है। वह वायु और वृष्टिोजल की शुद्धि करने वाला होता है। इससे सब जगत को सुख होता है।
इसमें पूर्व मीमांसा धर्मशास्त्रा की भी सम्मुति है-एक तो द्रव्य , दूसरा संस्का र तीसरा उनका यथावत उपयोग करना-ये तीनों बात यज्ञ के कर्ता को अवश्यभ करनी चाहिए। सौ पूर्वोक्त सुगन्धापदि युक्त चार प्रकार के द्रव्योंय का अच्छीश प्रकार संस्का।र करके अग्निध में वेद ऋचाओं द्वारा होम करने से जगत का अत्यंात उपकार होता है। जैसे-दाल, और साग-सब्जीग आदि में सुगंध द्रव्य और देशी घी इन दोनों को चमचे में अग्निस में तपाकर उनमें छोंक देने से वे सुगन्धिहत हो जाते है। क्योंोकि उस सुगंध द्रव्यि और घी के अणुओं को ओर अधिक सुगन्धिसत करके दाल आदि पदार्थो को पुष्टि् और रुचि बढ़ाने वाले कर देते हैं।
वैसे ही यज्ञ से जो भाप उठता है वह भी वायु और वृष्टिं के जल को निर्दोष और सुगन्धिनत करके सब जगत को सुख करता है। इससे वह यज्ञ परोपकार के लिए ही होता है। अर्थात् जनता नाम जो मनुष्यों का समूह है उसी के सुख के लिए यज्ञ होता है। यह एतरेय ब्राह्मण का प्रमाण है। वेद में तो है ही लेकिन शतपथ ब्राह्मण का भी प्रमाण है। जो (होम) यज्ञ करने के द्रव्य अग्नित में डाले जाते हैं। उनसे धुआँ और भाप उत्पैन्नह होते है, क्यों्कि अग्नि का यही स्ववभाव है कि पदार्थो में प्रवेश करके उनको भिन्ना-भिन्नन कर देता है फिर वे हल्के् होके वायु के साथ ऊपर आकाश में चढ़ जाते हैं। उनमें जितना जल का अंश है वह भाप कहलाता है। और जो शुष्कय है वह पृथ्वीे का भाग है, इन दोनों के योग का नाम धूम है। जब वे परमाणु मेघ मंडल में वायु के आधार से रहते हैं फिर वे परस्प र मिलकर बादल होकर उनसे वृष्टिम, वृष्टिम से औषधि, औषधियों से अन्ने, अन्नप से धातु, और धातु से शरीर और शरीर से कर्म बनता है।
वैसे ही ईश्वनर ने मनुष्योंक को यज्ञ करने की आज्ञा वेद द्वारा दी है। इसलिए सबके उपकार करने वाले यज्ञ को नहीं करने से मनुष्योंष को दोष लगता है। जहाँ जितने मनुष्या आदि के समुदाय अधिक होते हैं वहाँ उतना ही दुर्गन्धो भी अधिक होता है। वह ईश्व र की सृष्टि से नहीं किन्तुा मनुष्यह आदि प्राणियों के निमित्त से ही उत्प न्नत होता है। क्योंमकि पशु व वस्तुं मनुष्यि अपने सुख के लिए इकट्ठा करता हैं। इससे उन पशुओं से भी जो अधिक दुर्गन्धत उत्प न्न होती सो मनुष्यों के ही सुख की इच्छा से होती है।
जब वायु और वृष्टिो जल को बिगाड़ने वाला सब दुर्गन्ध मनुष्योंउ के ही निमित्त से उत्प न्नु होता है तो उसका निवारण करना भी मनुष्यों को ही चाहिए जितने प्राणी देहधारी जगत में है उनमें से मनुष्यं ही उत्तम है, इससे वे ही उपकार और अनुपकार को जानने के योग्य है।
मनन नाम विचार का है, जिसके होने से ही मनुष्यक नाम होता है। अन्य्था नहीं क्यों कि ईश्व र ने मनुष्योंच के शरीर में परमाणु आदि के संयोग विशेष इस प्रकार रचे है। कि जिनसे उनको ज्ञान की उन्नाति होती है। इसी कारण से धर्म का अनुष्ठाेन और अधर्म का त्याेग करने को भी मनुष्यव ही योग्यक होते हैं अन्यी नहीं इससे सबके उपकार के लिए यज्ञ का अनुष्ठानन भी सभी मनुष्यों को करना उचित एवं अनिवार्य है।
सुगंध युक्त घी आदि पदार्थों को अन्यम द्रव्योंप में मिलकर अग्नि में डालने से उनका नाश नहीं होता है किन्तुत किसी भी पदार्थ का नाश नहीं होता केवल वियोग मात्र होता है। और यज्ञ में वेद मंत्र द्वारा दी हुई। आहूति में उस पदार्थ की शक्ति 100 गुना बढ़ जाती है। जैसे माईक में अग्निं होती है। जो अपनी आवाज को बुलंद कर देती है। एक व्योक्ति द्वारा मिर्ची खाने पर वह खुद सी सी करता रहेगा। पास ही बैठा व्यदक्ति पर उस मिर्ची का असर नहीं होता है। लेकिन जब वही मिर्ची अग्नि में डाल दी जाती है तब गली, मोहल्लाह के सभी लोग छींकने लग जाते है।
वैसे ही जो सुगंध आदि युक्त द्रव्यल अग्निक में डाला जाता है। उसके अणु अलग अलग होकर आकाश में रहते ही है। क्योंआकि किसी द्रव्यय का वस्तुहता से अभाव नहीं होता है।
इससे वह द्रव्यय दुर्गन्धक आदि दोषों का निवारण करने वाला अवश्यी होता है। फिर उससे वायु और वृष्टिर जल की शुद्धि के होने से हमारे घर का, हमारे परिवार का, हमारे गांव का, हमारे देश का और जगत का उपकार और सुख अवश्यो होता है।
यज्ञ से पर्यावरण शुद्ध होता है। वर्षा होती है और हमारा अंत:करण भी पवित्र होता है। यह विज्ञान द्वारा सिद्ध है इस कारण से यज्ञ केवल हिन्दूाओं के लिए ही नहीं किन्तुण विश्वत के प्रत्ये क मानव के लिए है। चाहे वह हिन्दूह, मुस्लिदम, सिख, ईसाई, जैन, यहुदी और पारसी आदि हो इसलिए सबके लिए यज्ञ सबके घरों में स्वैयं द्वारा करना अनिवार्य है।
इससे हमारा अन्तै-करण भी पवित्र होता है। और बुद्धि शुद्ध व निर्मल होती है। अत: हमारा अन्तए:करण और बुद्धि पवित्र होने से हमारे भाव, हमारे कर्म भी हमारे विचार भी अच्छेन होते है। जिससे हमें शांति और आनंद मिलता है। यह कार्य अन्य् किसी भी प्रकार से सिद्ध नहीं हो सकता है, क्योंमकि अतर पुष्पा्दि का सुगंध तो उसी दुर्गन्धि वायु में मिलकर रहता है। उसको छेदन करके बाहर नहीं निकाल सकता और ना ही वह ऊपर चढ़ सकता है। क्योंसकि उसमें हल्काकपन नहीं होता उसके उसी अवकाश में रहने से बाहार का शुद्ध वायु उस ठिकाने में जा भी नहीं सकता क्योंनकि खाली जगत के बिना दूसरे का प्रवेश नहीं हो सकता।
फिर दुर्गन्धयुक्त वायु को भेदनकर सुगंधीत वायु के रहने से रोगनाशदि फल भी नहीं होते है और जब अग्निं उस दुर्गन्धय युक्त वायु को वहां से हल्काह करके निकाल देता है। तब वहाँ शुद्ध वायु भी प्रवेश कर सकता है। इसी कारण यह फल यज्ञ से ही हो सकता है। अन्यस प्रकार से नहीं क्योंरकि जो होम के परमाणु युक्त वायु है। सो पूर्वस्थित और मनुष्यासदि सृष्टित को उत्तम सुख को प्राप्त करता है। वह हमारा अन्तु:करण पवित्र होता है। जो वायु सुगंध आदि द्रव्यट के परमाणुओं से युक्त या द्वारा आकाश में चढ़कर वृष्टि: जल को शुद्ध कर देता और उससे वृष्टि भी अधिक होती है। क्यों कि यज्ञ करने से नीचे गर्मी अधिक होने से जल भी ऊपर अधिक चढ़ता हैा शुद्ध जल और वायु के द्वारा अन्ना‍दि औषधि भी अत्यंेत शुद्ध होती है। ऐसे प्रतिदिन सुगंध के अधिक होने से जगत में नित्याप्रति अधिक-अधिक सुख बढ़ता है।
यह फल अग्नि् में यज्ञ करने के बिना दूसरे प्रकार से होना असंभव है। इससे स्वगयं द्वारा यज्ञ (होम) का करना प्रत्येकक घरों में, प्रत्येसक परिवार में प्रत्येंक ग्राम, में अनिवार्य है।
यज्ञ (होम) केवल वेद मंत्रों की ऋचाओं से ही किया जावे। क्यों कि ईश्वतर की प्रार्थना पूर्वक ही सब कर्मों का आरंभ करना होता है। सो वेद मंत्रों के उच्चामरण से यज्ञ में तो उसकी प्रार्थना सर्वत्र होती है। इसलिए सब उत्तम कर्म वेद मंत्रों से ही करना चाहिए

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