यह ब्लॉग खोजें

मंगलवार, 12 फ़रवरी 2019

अति विकसित मानव शरीर की अद्भुत रचना

अति विकसित मानव शरीर की अद्भुत रचना
।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

पहली मान्यता यह थी कि मनुष्य का विकास अमीबा से हुआ है। अमीबा एक कोशीय जन्तु है जो जल में रहता है और उसमें प्राणधारी के सभी गुण पाये जाते हैं। अमीबा को काँच की स्लाइड पर रखकर सूक्ष्मदर्शी की सहायता से ही अच्छी तरह देखा और उसके गुणों का पता चलाया जा सकता है।

अमीबा की प्रजनन क्रिया बड़ी विचित्र है, उसकी कोशिका जो प्रोटोप्लाज्मा की थैली होती है और उँगलियों की तरह अनेक दिशाओं में निकलती रहती है, जब कोई उँगली काफी आगे निकल जाती है तो वही प्रोटोप्लाज्म निकलकर एक नया अमीबा बन जाता है। इसकी ओर विद्युत आवेश या गर्मी रखी जाये तो वह तुरन्त पीछे हटकर अपनी रक्षा करता है। कोई खाद्य पदार्थ रखा जाये तो वह दो उँगलियों की तरह चिमटी-सी बनाकर उसे ग्रहण कर लेता है और उसे इस तरह रस में बदल लेता है कि नया प्रोटोप्लाज्मा तैयार कर ले, इस तरह उसे शक्ति मिलती है। अन्य जीवों की तरह वह उत्सर्जन भी करता है। पेट के मल को वह पानी में छोड़ता रहता है। अमीबा अपनी संतति को एक से दो, दो से चार और चार से आठ के क्रम में निरन्तर बढ़ता रहता है। इसी अमीबा में बाद में जीवन-विकास का सिद्धान्त (थ्योरी आफ इवोल्यूशन) माना गया और यह कहा गया कि एक कोशीय जीव ने ही अन्त में बहु-कोशीय जीव के रूप में अपने आपको परिणत किया।

किन्तु जब मनुष्य शरीर के कोशों (सेल्स) का अध्ययन किया गया तो जीवन विकास की अनेक नई बातें सामने आई और विज्ञान यह मानने लगा कि अमीबा मनुष्य की विकास शृंखला का मूल घटक नहीं हो सकता। यदि ऐसा होता तो मनुष्य शरीर के सूक्ष्म कोश जो स्वयं भी प्रोटोप्लाज्म से बना होता है, निकालकर एक स्वतन्त्र जीव बना दिया जाना सम्भव होता, जबकि नये बालक का जन्म गर्भाधान की विलक्षण प्रक्रिया से सम्पन्न होता है।

अर्थात मनुष्य शरीर अमीवा की तरहा विभाजन पद्धति से नही एक अलग ही प्रक्रिया से वनता है ।

19 वीं और 20 वीं शताब्दी में इस सम्बन्ध में व्यापक खोजें हुई। पर वे सब अपनी-अपनी तरह से एकांगी हल ही प्रस्तुत करती हैं। वैज्ञानिक चेतना के अत्यन्त सूक्ष्म स्वरूप का अध्ययन तो कर सके हैं, किन्तु उसका विश्व-व्यापी शक्ति के साथ कोई सामंजस्य नहीं बिठा सके। यदि मनुष्य अमीबा, अमीबा से मछली, मछली से सुअर, सुअर से बन्दर, बन्दर से गोरिल्ला और गोरिल्ला से वर्तमान मनुष्य रूप में आया होता तो विकास की इस गति को आगे बढ़ते जाना चाहिये था और उस मूल प्रक्रिया को भी चलते रहना चाहिये था और हमें लाखों वर्ष मनुष्य योनि से आगे बढ़कर किसी और प्रकार की शरीर स्थिति में बदल जाना चाहिये था, हम इतनी लम्बी अवधि तक मनुष्य ही क्यों बने रहते? किन्तु उल्टा हो यह रहा है कि धरती में जितने भी जीवित प्रणी हैं, उनकी शक्तियाँ घटती जा रही हैं, मनुष्य की शारीरिक शक्तियाँ भी धीरे-धीरे घटती जा रही हैं।(जैसे कुछ अंग का लुप्त होना, मस्तिष्क  के कार्यअ क्षमता ह्रास)
विकास अपेक्षा जीव विनाश की दिशा में चल रहे हैं। इसलिये विकास की थ्योरी गले नहीं उतरती।

चेतना को रसायन की देन कहा जाता तो उसे लैबोरेटरी में बना लिया गया होता और अब जो कम्प्यूटर तैयार किये जाते हैं, उनके स्थान पर मनुष्य शरीर तैयार करने वाले कारखाने चल रहे होते। मनुष्य शरीर में जो भावना-विज्ञान छुपा हुआ है, उससे स्पष्ट ही है कि मनुष्य की उत्पत्ति भी उतनी ही रहस्यपूर्ण है, जितनी उसकी आन्तरिक शक्तियाँ। भौतिक शरीर तैयार हो भी जाये तो उसमें भावनायें कैसे डाली जायें?

अब हम अपने प्राचीन दर्शन की ओर लौटते हैं, जिसमें परमात्मा की इच्छा से अण्ड का निर्माण, अण्ड से अनेक अवयवों का विकास और उसमें देवताओं की परआत्मा की प्रतिष्ठा हुई। सूर्य और चन्द्रमा आदि का वर्तमान स्वरूप कुछ भी हो पर उनका निर्माण एकाएक हुआ है। विकास या विघटन स्थूल और सूक्ष्म दोनों में चलता है, किन्तु उनका आदि - आविर्भाव किसी पराशक्ति का ही महान् चमत्कार हो सकता है, इस बात को अब शरीर विज्ञान के पण्डित भी मानने लगे हैं। ओकाल्ट एनाटामी के प्रसिद्ध विद्वान् ‘एलानलियो’ ने उपरोक्त भारतीय दर्शन को इन शब्दों में प्रमाणित किया है- “ यदि हम इतने बुद्धिमान् होते कि विश्व-व्यवस्था को अच्छी तरह समझ लेते तो वह देखते कि सूर्य-चन्द्रमा एवं अन्य ग्रहों का शरीर के समस्त अवयवों एवं उनके कार्यों पर कितना हस्तक्षेप है।”

“ दो मस्तिष्क प्रणाली एवं उनका आत्मिक उत्थान से सम्बन्ध” नामक पुस्तक के रचयिता डॉ. कोरिन हेलिन (दि भरस एण्ड कूँ नार्थ-स्ट्रीट द्वारा प्रकाशित) ने शरीर की जटिल प्रक्रियाओं को विस्तृत अध्ययन करने के बाद यह लिखा कि-यह बड़े आश्चर्य की बात है कि सारी की सारी प्राकृतिक कला और ज्ञान नक्षत्रों द्वारा मनुष्य समाज को मिला है। सारे बुद्धिजीवी प्राणी नक्षत्रों के ही शिष्य है।” आकास्ट एनाटामी यह मानती है कि मनुष्य के दो शरीर हैं, एक पंच-तत्वों से बना हुआ है स्थूल। दूसरा सूक्ष्म है जो नक्षत्रों से (नक्षत्रों का अर्थ स्पष्टतया उन देव शक्तियों से ही है, जिनका वर्णन ऐतरेय उपनिषद् में किया है।) है।

हमारे शरीर का स्थूल भाग जो दृश्य (विजिवल) और स्पृश्य (टचेबुल) है, पृथ्वी से बना है, यह कितने आश्चर्य की बात है कि अन्य लोकों में यथा चन्द्रमा-सूर्य बुध-बृहस्पति आदि में जो ठोस तत्त्व है, वह पृथ्वी की देन है, पृथ्वी भी अपने अणुओं को उसी प्रकार बिखेरती रहती है, जिस प्रकार सूर्य और चन्द्रमा आदि बिखेरते रहते हैं। तात्पर्य यह कि जिस प्रकार अपनी-अपनी शक्ति धाराओं द्वारा नक्षत्रों ने पृथ्वी को आच्छादित कर रखा है, पृथ्वी भी सभी नक्षत्रों पर छाई हुई है। सब अन्योऽन्याश्रित हैं।

इस जटिल प्रक्रिया को मनुष्य शरीर में दो मस्तिष्क प्रणाली को समझ कर अनुभव किया जा सकता है। मस्तिष्क कोष दो पर्तों का बना होता है, सफेद एवं भूरा तत्त्व। सफेद तत्त्व नसें बनाता है और भूरा नसों में ग्रन्थियाँ (गैम्लियन)। गैग्लियन में न्यूक्लियस वाली नसें पाई जाती हैं जो प्रोटोप्लाज्मा के भीतर तक धँसी होती हैं और फास्फोरस तत्त्व वाली होती हैं। फास्फोरस अग्नि तत्त्व है और वह जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। शरीर में अग्नि की मन्दता ही अपच, अजीर्णता, कान्तिहीनता, दुर्बलता और रोगों का कारण होती है, अग्नि न हो तो मनुष्य निर्बल और कमजोर पड़ जाये। यह अग्नि तत्त्व सूर्य नक्षत्र (सोलर) का अदृश्य भाग ही है। फास्फोरस तत्त्व शरीर में आहार प्रक्रिया पर उतना आधारित नहीं है, जितना कि मस्तिष्क की उत्थान प्रक्रिया से। भौतिक विज्ञान अभी केवल स्थूल संरचना को देखती है, एक दिन भौतिक विज्ञान और मैटाफिजिक्स समझ सकेगी कि ब्रह्माण्ड व्यापी ऊर्जा शारीरिक तत्त्वों में कैसे बदलती है और उसे शक्ति के साथ ही बुद्धि, मेधा, प्रज्ञा प्रधान करती है।

एक आम का वृक्ष लगायें उसे पर्याप्त खाद और पानी दें, किन्तु उस पर सूर्य का प्रकाश न पड़े तो सर्वप्रथम तो उसका बचना और बढ़ना ही असम्भव है, किन्तु वैज्ञानिकों की यह थ्योरी मान लें कि प्रकाश सीधा ही नहीं रुकावट (रेजिस्टैनस) को घेरकर भी पहुँचता है तो भी उस वृक्ष में फूल और मीठे फल उपलब्ध नहीं किये जो सकेंगे, क्योंकि खटाई, मिठाई, रंग यह सब सूर्य की रश्मियों के ही ग्रहण (आर्ब्जब) किये जाते हैं, तात्पर्य यह कि पृथ्वी में पाया जाने वाला आस्वाद भाग भी उसका अपना नहीं है। वह सब कुछ ब्रह्माण्ड में कहीं गैस के रूप में विद्यमान् है और यदि उस विज्ञान को कोई सीधे-सीधे समझ लें तो वह मनुष्य किसी भी स्थान पर किसी भी क्षण मन चाहे कितना भी तत्त्व या पदार्थ अपने लिये आकर्षित कर सकता है।

आर्य ग्रन्थों में गौ नाम सूर्य प्राण का है। उससे मिलकर यह पृथ्वी प्राण आस्वाद योग्य रस बनाता है। इसलिये जो भी आस्वाद वस्तुयें हैं, जब उन पर सूर्य का सीधा हस्तक्षेप है, तब मनुष्य शरीर का तो कहना ही क्या? हम तो सूर्य के बिना चल फिर भी नहीं सकते।

भिन्न-भिन्न तत्त्व (एलिमेन्ट्स) जलने पर अलग-अलग प्रकार का प्रकाश उत्सर्ज करते हैं, ये प्रकाश साधारणतया आँखों से देखने पर एक से प्रतीत हो सकते हैं, परन्तु इन प्रकाशों को विक्षेपण (डिस्पर्शन) करके यदि इनका वर्ण क्रम अध्ययन (त्रिकोण प्रिज़्म पर किरण फेंक कर पर्दे पर विक्षेपित प्रकाश अलग-अलग वर्णों में दिखाई दे जाता है।) किया जाये तो पता चलता है कि प्रत्येक प्रकार के प्रकाश के वर्णाश्रम में अन्तर होगा जो दूसरे प्रकार के प्रकाश में नहीं होगा। उदाहरणार्थ सोडियम से पीला, पोटैशियम से लाल-लाल और कैल्शियम से लाल-लाल नारंगी, पीला, हरा-हरा इस प्रकार का वर्णाश्रम बनता है।

इन विशेषताओं का अध्ययन करके बिना तत्त्व का ज्ञान हुये बिना यह बताया जा सकता है कि प्रकाश कौन से तत्त्व से आ रहा है, इतना ही नहीं बल्कि एक से अधिक तत्त्वों के मिश्रण को जलाकर और मिश्रित प्रकाश के वर्णाश्रम (स्पेक्ट्रम) का अध्ययन करके यह बता सकना सम्भव है कि मिश्रण में कौन-कौन से तत्त्व विद्यमान् हैं, भिन्न-भिन्न विशेषताओं से प्रत्येक भिन्न-तत्त्व को पहचान सकना सम्भव हो गया है।

अब इस विश्लेषण का दूसरी तरह से अध्ययन करें तो हम निश्चित ही इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि प्रकाश जिस तरह पदार्थों की ज्वलन शक्ति है, उसी प्रकार उसमें स्थूल पदार्थों का परिवर्तन यह एक चक्र है और इसी सिद्धान्त पर शरीर में स्थूल और चेतन दोनों तत्त्व एक बिन्दु पर बैठ जाते हैं, स्थूल को हम पदार्थ रूप में देखें तो चेतना प्रकाश ही होगी और प्रकाश चूँकि मिट्टी ( पृथ्वी) के अणु की देन नहीं और वह भिन्न-भिन्न प्रकृति का होता है, इसलिये वह भिन्न प्रकृतियाँ निःसन्देह आकाश के भिन्न-भिन्न नक्षत्रों ( देवताओं) के प्राण या प्रकाश प्रवाह कहे जायेंगे। तभी आकाश स्थित देवताओं की शरीर में विद्यमानता सिद्ध होगी।

शरीर में हाथ-पाँव रक्त, माँस-मज्जा को स्थूल पदार्थों की रासायनिक क्रिया कह सकते हैं, मन-बुद्धि प्राण, इच्छा, ज्ञान इन सूक्ष्म गुणों को पदार्थ नहीं कह सकते, जबकि मनुष्य का जीवन इन्हीं से सधा हुआ है, मनुष्य जिस दिन मर जाता है, लाश बनी रहती है तो भी वह गति नहीं कर सकता। गति और क्रियाशीलता प्रकाश का गुण है, भले ही वह किसी भी आकृति और प्रकृति का क्यों न हो? यदि अन्न से ही मन-प्राण बुद्धि, चित्त, अहंकार का निर्माण होता है तो वह उसके स्थूल द्रव्य न होकर ‘न्यूक्लियाई’ ही होंगे और वह ‘न्यूक्लियाई’ आच्छादित आकाश के किसी नक्षत्र द्वारा आकर्षित शक्ति कण ही हो सकते हैं यह शरीर में पहुँच कर अपना-अपना स्थान ग्रहण करते है, मन को चन्द्रमा की तेजस शक्ति कहते हैं-चन्द्रमा  प्रकार वनस्पति और वनस्पति ही मन का निर्माण करती है। यह वह निष्कर्ष है जिन्हें वैज्ञानिक जान चुके हैं अन्य देवताओं की स्थिति शरीर में कहाँ और किस प्रकार है, यह तब पता चलेगा जब विज्ञान का प्रवेश मस्तिष्क से फैलने वाले नाड़ी जाल और उनके भीतर की रहस्यमय प्रक्रिया में होगा। अभी तक भी जितना समझा जा सका है, वह अति गम्भीर और भारतीय दर्शन की ही पुष्टि करने वाला है।

मस्तिष्क का अध्ययन करने वाले डाक्टर और वैज्ञानिक यह मानते है कि शरीर में दो प्रकार की नसों का जाल बिछा हुआ है-(1) सैम्पैथेटिक नसें-यह शरीरगत भाग की नसें हैं। उनसे पाचन क्रिया चलती है, खाद्य से शक्ति-चूषण और रक्त परिभ्रमण का कार्य भी यही नसें करती है। ग्रन्थियों से होने वाले स्राव को यह नसें ही नियंत्रित करती हैं। शरीर की टूट-फूट को जोड़ना और मलमूत्र बाहर निकालने में इन नसों का ही योग दान रहता है जब मस्तिष्क की सुषुम्ना प्रणाली की नसें विश्राम करती हैं, तब यही सैम्पैथेटिक प्रणाली टूट-फूट जोड़ती, माँस और अन्य शरीर कोशों में जो क्षति हुई होती है, उसे सुधारती रहती है। नसों की यह जटिलता मनुष्य शरीर में ही है, पशुओं के शरीर में कम ही है  ईस लिये मनुष्य सबसे ज्यादा वुद्धिमान जीव कहे जाते है।

इन नसों के मूल स्रोत और शक्ति का पता लगाते हुए शरीर शास्त्री जब मस्तिष्क में पहुँचे तो उन्होंने पाया कि नसें मात्र इच्छा प्रवाह हैं और आगे चलकर वह जटिल और स्थूल रूप ले लेती हैं, इसलिये शरीर शास्त्रियों को एक वर्ग मनोविज्ञान का हिमायती हो गया और यह मानने एवं कहने लगा कि मनुष्य अपनी इच्छाओं को स्वस्थ, पवित्र एवं सृजनात्मक( प्रेम दया श्रद्धा)बनाकर अपने स्वास्थ्य को स्थिर रख सकता है। अधोगामी विचारों और कुप्रवृत्तियों( लोभ ईर्षा हिंसा) से अपने आपको बचाकर अपना स्वास्थ्य भी बचाये रख सकता है।

मनोविज्ञान का यह सिद्धान्त जितना विकसित हुआ उतनी ही महत्त्वपूर्ण मन और मानवीय चेतना गुणों सम्बन्धी बातें सामने आई। शरीर विज्ञानी अब यह भी मानते हैं कि इच्छा शक्ति धाराओं और रंगों के रूप में मस्तिष्क प्रणाली के कोषों में बहता देखा जो सकता है।

नसों का एक बड़ा झुण्ड हृदय के निकट से फूटता है। भावनाओं का, मन का, इसी स्थान से सम्बन्ध है, इसलिये मानवीय इच्छाओं, अनुभूतियों और शरीर विज्ञान सभी दृष्टि से इनका मूल्य महत्व बढ़ जाता है, इनके व्यापक और सूक्ष्म अध्ययन की आवश्यकता भी उतनी ही अधिक है।

शरीर, हृदय या मन के कष्ट मस्तिष्क को प्रभावित करते हैं, इसलिये जब तक मस्तिष्क की शक्तियों का पता नहीं चलता, तब तक इच्छाएँ और भावनायें भी मनुष्य को सुख और आत्मिक शांति प्रदान नहीं कर सकती। अब वैज्ञानिक यह मानने लगे हैं कि मस्तिष्क आध्यात्मिक ब्रह्माण्ड से प्रभावित है और जीवन सुधार के लिये उसका जानकारी नितान्त आवश्यक है।

मस्तिष्क के इस भाव को अवचेतन मन कहते है और वह जिन नसों से शेष शरीर के साथ सम्बन्ध स्थापित करता है उन्हें सैरी ब्रोस्पाइनस कहते है। यह जिन कोषों से बना है, यह रेशों के पुरकुन्ज ही जान पड़ते हैं, वही शरीर की तनमात्रायें ग्रहण करते है और सुषुम्ना प्रवाह से लेकर रीढ़ की हड्डी के सारे भाग में छाये रहते हैं। हृदय स्थित मन से यह सम्बन्ध स्थापित कर उसे शक्ति देते हैं, यदि मन को विकसित कर दिया जाय और सुषुम्ना प्रवाह में निवास करने वाली इन शक्ति धाराओं को ऊर्ध्वगामी बना लिया जाये तो मनुष्य आकाश-स्थित अदृश्य शक्तियों की महत्त्वपूर्ण और आश्चर्यजनक जानकारियाँ और रहस्य प्राप्त कर सकता है। देवताओं का सम्बन्ध भी सेरी ब्रोस्पाइनल प्रणाली से, इसे ही विहित ‘द्वार कह सकते है’( ब्रह्म रंध्र )।

उसकी विस्तृत जानकारी नहीं हो पा रहे अभी पर यदि विज्ञान किसी तरह इसे नियन्त्रित कर सका तो ब्रह्माण्ड ज्ञान अत्यन्त सुलभ हो जाने की सम्भावनायें हैं।

रविवार, 10 फ़रवरी 2019

बसन्त पंचमी 10 फरवरी विशेष

बसन्त पंचमी 10 फरवरी विशेष
〰️〰️🔸〰️〰️🔸〰️〰️🔸〰️〰️
बसंत पंचमी की तिथि पूजा विधि, शुभ मुहूर्त व महत्व
〰️〰️🔸〰️〰️🔸〰️〰️🔸〰️〰️🔸〰️〰️🔸〰️〰️
बसंत पंचमी भारतीय संस्कृति में एक बहुत ही हर्षोल्लास के साथ मनाया जाने वाला त्यौहार है जिसमे हमारी परम्परा, भौगौलिक परिवर्तन , सामाजिक कार्य तथा आध्यात्मिक पक्ष सभी का सम्मिश्रण है, हिन्दू पंचांग के अनुसार माघ मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को बसंत पंचमी का त्यौहार मनाया जाता है वास्तव में भारतीय गणना के अनुसार वर्ष भर में पड़ने वाली छः ऋतुओं (बसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत, शिशिर) में बसंत को ऋतुराज अर्थात सभी ऋतुओं का राजा माना गया है और बसंत पंचमी के दिन को बसंत ऋतु का आगमन माना जाता है इसलिए बसंत पंचमी ऋतू परिवर्तन का दिन भी है जिस दिन से प्राकृतिक सौन्दर्य निखारना शुरू हो जाता है पेड़ों पर नयी पत्तिया कोपले और कालिया खिलना शुरू हो जाती हैं पूरी प्रकृति एक नवीन ऊर्जा से भर उठती है।

बसंत पंचमी को विशेष रूप से सरस्वती जयंती के रूप में मनाया जाता है यह माता सरस्वती का प्राकट्योत्सव है इसलिए इस दिन विशेष रूप से माता सरस्वती की पूजा उपासना कर उनसे विद्या बुद्धि प्राप्ति की कामना की जाती है इसी लिए विद्यार्थियों के लिए बसंत पंचमी का त्यौहार बहुत विशेष होता है।

बसंत पंचमी का त्यौहार बहुत ऊर्जामय ढंग से और विभिन्न प्रकार से पूरे भारत वर्ष में मनाया जाता है इस दिन पीले वस्त्र पहनने और खिचड़ी बनाने और बाटने की प्रथा भी प्रचलित है तो इस दिन बसंत ऋतु के आगमन होने से आकास में रंगीन पतंगे उड़ने की परम्परा भी बहुत दीर्घकाल से प्रचलन में है।

बसंत पंचमी के दिन का एक और विशेष महत्व भी है बसंत पंचमी को मुहूर्त शास्त्र के अनुसार एक स्वयं सिद्ध मुहूर्त और अनसूज साया भी माना गया है अर्थात इस दिन कोई भी शुभ मंगल कार्य करने के लिए पंचांग शुद्धि की आवश्यकता नहीं होती इस दिन नींव पूजन, गृह प्रवेश, वाहन खरीदना, व्यापार आरम्भ करना, सगाई और विवाह आदि मंगल कार्य किये जा सकते है।

माता सरस्वती को ज्ञान, सँगीत, कला, विज्ञान और शिल्प-कला की देवी माना जाता है।

भक्त लोग, ज्ञान प्राप्ति और सुस्ती, आलस्य एवं अज्ञानता से छुटकारा पाने के लिये, आज के दिन देवी सरस्वती की उपासना करते हैं। कुछ प्रदेशों में आज के दिन शिशुओं को पहला अक्षर लिखना सिखाया जाता है। दूसरे शब्दों में वसन्त पञ्चमी का दिन विद्या आरम्भ करने के लिये काफी शुभ माना जाता है इसीलिये माता-पिता आज के दिन शिशु को माता सरस्वती के आशीर्वाद के साथ विद्या आरम्भ कराते हैं। सभी विद्यालयों में आज के दिन सुबह के समय माता सरस्वती की पूजा की जाती है।

वसन्त पञ्चमी का दिन हिन्दु कैलेण्डर में पञ्चमी तिथि को मनाया जाता है। जिस दिन पञ्चमी तिथि सूर्योदय और दोपहर के बीच में व्याप्त रहती है उस दिन को सरस्वती पूजा के लिये उपयुक्त माना जाता है। हिन्दु कैलेण्डर में सूर्योदय और दोपहर के मध्य के समय को पूर्वाह्न के नाम से जाना जाता है।

ज्योतिष विद्या में पारन्गत व्यक्तियों के अनुसार वसन्त पञ्चमी का दिन सभी शुभ कार्यो के लिये उपयुक्त माना जाता है। इसी कारण से वसन्त पञ्चमी का दिन अबूझ मुहूर्त के नाम से प्रसिद्ध है और नवीन कार्यों की शुरुआत के लिये उत्तम माना जाता है।

वसन्त पञ्चमी के दिन किसी भी समय सरस्वती पूजा की जा सकती है परन्तु पूर्वाह्न का समय पूजा के लिये श्रेष्ठ माना जाता है। सभी विद्यालयों और शिक्षा केन्द्रों में पूर्वाह्न के समय ही सरस्वती पूजा कर माता सरस्वती का आशीर्वाद ग्रहण किया जाता है।

नीचे सरस्वती पूजा का जो मुहूर्त दिया गया है उस समय पञ्चमी तिथि और पूर्वाह्न दोनों ही व्याप्त होते हैं। इसीलिये वसन्त पञ्चमी के दिन सरस्वती पूजा इसी समय के दौरान करना श्रेष्ठ है।

सरस्वती, बसंतपंचमी पूजा
〰️〰️🔸〰️〰️🔸〰️〰️
1. प्रात:काल स्नाना करके पीले वस्त्र धारण करें।

2. मां सरस्वती की प्रतिमा को सामने रखें तत्पश्चात कलश स्थापित कर प्रथम पूज्य गणेश जी का पंचोपचार विधि पूजन उपरांत सरस्वती का ध्यान करें

ध्यान मंत्र
〰️🔸〰️
या कुन्देन्दु तुषारहार धवला या शुभ्रवस्त्रावृता।
या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना ।।
या ब्रह्माच्युतशंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता।
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा ।।
शुक्लां ब्रह्मविचारसारपरमांद्यां जगद्व्यापनीं ।
वीणा-पुस्तक-धारिणीमभयदां जाड्यांधकारपहाम्।।
हस्ते स्फाटिक मालिकां विदधतीं पद्मासने संस्थिताम् ।
वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम्।।2।।

3. मां की पूजा करते समय सबसे पहले उन्हें आचमन व स्नान कराएं।
4. माता का श्रंगार कराएं ।
5. माता श्वेत वस्त्र धारण करती हैं इसलिए उन्हें श्वेत वस्त्र पहनाएं।
6. प्रसाद के रुप में खीर अथवा दुध से बनी मिठाईयों का भोग लगाएं।
7. श्वेत फूल माता को अर्पण करें।
8. तत्पश्चात नवग्रह की विधिवत पूजा करें।

बसंत पंचमी पर मां सरस्वती की पूजा के साथ सरस्वती चालीसा पढ़ना और कुछ मंत्रों का जाप आपकी बुद्धि प्रखर करता है। अपनी सुविधानुसार आप ये मंत्र 11, 21 या 108 बार जाप कर सकते हैं।

निम्न मंत्र या इनमें किसी भी एक मंत्र का यथा सामर्थ्य जाप करें
〰️〰️🔸〰️〰️🔸〰️〰️🔸〰️〰️🔸〰️〰️🔸〰️〰️
1. सरस्वती महाभागे विद्ये कमललोचने
विद्यारूपा विशालाक्षि विद्यां देहि नमोस्तुते॥

2. या देवी सर्वभूतेषू, मां सरस्वती रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।

3. ऐं ह्रीं श्रीं वाग्वादिनी सरस्वती देवी मम जिव्हायां।
सर्व विद्यां देही दापय-दापय स्वाहा।।

4. एकादशाक्षर सरस्वती मंत्र
ॐ ह्रीं ऐं ह्रीं सरस्वत्यै नमः।

5. वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि।
मंगलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणी विनायकौ।।

6. सरस्वत्यै नमो नित्यं भद्रकाल्यै नमो नम:।
वेद वेदान्त वेदांग विद्यास्थानेभ्य एव च।।
सरस्वति महाभागे विद्ये कमललोचने।
विद्यारूपे विशालाक्षी विद्यां देहि नमोस्तुते।।

7. प्रथम भारती नाम, द्वितीय च सरस्वती
तृतीय शारदा देवी, चतुर्थ हंसवाहिनी
पंचमम् जगतीख्याता, षष्ठम् वागीश्वरी तथा
सप्तमम् कुमुदीप्रोक्ता, अष्ठमम् ब्रह्मचारिणी
नवम् बुद्धिमाता च दशमम् वरदायिनी
एकादशम् चंद्रकांतिदाशां भुवनेशवरी
द्वादशेतानि नामानि त्रिसंध्य य: पठेनर:
जिह्वाग्रे वसते नित्यमं
ब्रह्मरूपा सरस्वती सरस्वती महाभागे
विद्येकमललोचने विद्यारूपा विशालाक्षि
विद्या देहि नमोस्तुते”

8. स्मरण शक्ति बढ़ाने के लिए।

जेहि पर कृपा करहिं जन जानि।
कवि उर अजिर नचावहिं वानी॥
मोरि सुधारहिं सो सब भांति।
जासु कृपा नहिं कृपा अघाति॥

9. गुरु गृह पढ़न गए रघुराई।
अलप काल विद्या सब पाई॥

माँ सरस्वती चालीसा
〰️〰️🔸🔸〰️〰️
दोहा
〰️🔸〰️
जनक जननि पदम दुरज, निजब मस्तक पर धारि।
बन्दौं मातु सरस्वती, बुद्धि बल दे दातारि।।
पूर्ण जगत में व्याप्त तव, महिमा अमित अनंतु।
दुष्टजनों के पाप को, मातु तुही अब हन्तु।।

चौपाई
〰️🔸〰️
जय श्रीसकल बुद्धि बलरासी।जय सर्वज्ञ अमर अविनाशी।।
जय जय जय वीणाकर धारी।करती सदा सुहंस सवारी।।
रूप चतुर्भुज धारी माता।सकल विश्व अन्दर विख्याता।।
जग में पाप बुद्धि जब होती।तबही धर्म की फीकी ज्योति।।
तबहि मातु का निज अवतारा।पाप हीन करती महितारा।।
बाल्मीकि  जी  था  हत्यारा।तव   प्रसाद   जानै   संसारा।।
रामचरित जो रचे बनाई । आदि कवि की पदवी पाई।।
कालीदास जो भये विख्याता । तेरी कृपा दृष्टि से माता।।
तुलसी सूर आदि विद्वाना । भये जो और ज्ञानी नाना।।
तिन्ह न और रहेउ अवलम्बा । केवल कृपा आपकी अम्बा।।
करहु कृपा सोई मातु भवानी।दुखित दीन निज दासहि जानी।।
पुत्र  करई  अपराध  बहूता । तेहि  न  धरई  चित  माता।।
राखु लाज जननि अब मेरी।विनय करऊ भांति बहुतेरी।।
मैं अनाथ तेरी अवलंबा । कृपा करउ जय जय जगदंबा।।
मधुकैटभ जो अति बलवाना । बाहुयुद्ध विष्णु से ठाना।।
समर हजार पांच में घोरा।फिर भी मुख उनसे नहीं मोरा।।
मातु सहाय कीन्ह तेहि काला।बुद्धि विपरीत भई खलहाला।।
तेहि ते मृत्यु भई खल केरी । पुरवहु मातु मनोरथ मेरी।।
चण्ड मुण्ड जो थे विख्याता । क्षण महु संहारे उन माता।।
रक्त बीज से समरथ पापी । सुर मुनि हृदय धरा सब कांपी।।
काटेउ सिर जिम कदली खम्बा।बार बार बिनवऊं जगदंबा।।
जगप्रसिद्ध जो शुंभ निशुंभा।क्षण में बांधे ताहि तूं अम्बा।।
भरत-मातु बुद्धि फेरेऊ जाई । रामचन्द्र बनवास कराई।।
एहि विधि रावन वध तू कीन्हा।सुर नर मुनि सबको सुख दीन्हा।।
को समरथ तव यश गुण गाना।निगम अनादि अनंत बखाना।।
विष्णु रूद्र जस कहिन मारी।जिनकी हो तुम रक्षाकारी।।
रक्त दन्तिका और शताक्षी।नाम अपार है दानव भक्षी।।
दुर्गम काज धरा पर कीन्हा।दुर्गा नाम सकल जग लीन्हा।।
दुर्ग आदि हरनी तू माता । कृपा करहु जब जब सुखदाता।।
नृप  कोपित को मारन चाहे । कानन  में घेरे  मृग  नाहै।।
सागर मध्य पोत के भंजे । अति तूफान नहिं कोऊ संगे।।
भूत प्रेत बाधा या दु:ख में।हो दरिद्र अथवा संकट में।।
नाम जपे मंगल सब होई।संशय इसमें करई न कोई।।
पुत्रहीन जो आतुर भाई । सबै छांड़ि पूजें एहि भाई।।
करै पाठ नित यह चालीसा । होय पुत्र सुन्दर गुण ईसा।।
धूपादिक नैवेद्य चढ़ावै।संकट रहित अवश्य हो जावै।।
भक्ति मातु की करैं हमेशा।निकट न आवै ताहि कलेशा।।
बंदी  पाठ  करें  सत  बारा । बंदी  पाश  दूर  हो  सारा।।
रामसागर बांधि हेतु भवानी।कीजे कृपा दास निज जानी।।

दोहा
〰️🔸〰️
मातु सूर्य कान्ति तव, अंधकार मम रूप।
डूबन से रक्षा कार्हु परूं न मैं भव कूप।।
बलबुद्धि विद्या देहु मोहि, सुनहु सरस्वती मातु।
रामसागर अधम को आश्रय तू ही दे दातु।।

माँ सरस्वती वंदना
〰️〰️🔸🔸〰️〰️
वर दे, वीणावादिनि वर दे !
प्रिय स्वतंत्र-रव अमृत-मंत्र नव
        भारत में भर दे !

काट अंध-उर के बंधन-स्तर
बहा जननि, ज्योतिर्मय निर्झर;
कलुष-भेद-तम हर प्रकाश भर
        जगमग जग कर दे !

नव गति, नव लय, ताल-छंद नव
नवल कंठ, नव जलद-मन्द्ररव;
नव नभ के नव विहग-वृंद को
        नव पर, नव स्वर दे !

वर दे, वीणावादिनि वर दे।

कुछ क्षेत्रों में देवी की पूजा कर प्रतिमा को विसर्जित भी किया जाता है। विद्यार्थी मां सरस्वती की पूजा कर गरीब बच्चों में कलम व पुस्तकों का दान करें। संगीत से जुड़े व्यक्ति अपने साज पर तिलक लगा कर मां की आराधना करें व मां को बांसुरी भेंट करें।

पूजा समय
〰️🔸〰️
पंचमी तिथि अारंभ👉  9/फरवरी/2019 को 12.25 बजे से

पंचमी तिथि समाप्त👉 10/फरवरी/2019 को 14.08 बजे तक

सरस्वती पूजा का मुहूर्त सुबह 07:07 बजे से मध्यान 12:35 तक का है और इस मुहूर्त की अवधि 5 घंटे 27 मिनट तक रहेगी दोपहर तक इस पूजन को क‍िया जा सकता है। बसंत पंचमी के पूरे दिन आप अपने किसी भी नए कार्य का आरम्भ कर सकते हैं ये एक स्वयं सिद्ध और श्रेष्ठ मुहूर्त होता है।

सरस्वती स्तोत्रम्
〰️〰️🔸〰️〰️🔸〰️〰️
श्वेतपद्मासना देवि श्वेतपुष्पोपशोभिता।

श्वेताम्बरधरा नित्या श्वेतगन्धानुलेपना॥

श्वेताक्षी शुक्लवस्रा च श्वेतचन्दन चर्चिता।

वरदा सिद्धगन्धर्वैर्ऋषिभिः स्तुत्यते सदा॥ 

स्तोत्रेणानेन तां देवीं जगद्धात्रीं सरस्वतीम्।

ये स्तुवन्ति त्रिकालेषु सर्वविद्दां लभन्ति ते॥

या देवी स्तूत्यते नित्यं ब्रह्मेन्द्रसुरकिन्नरैः।

सा ममेवास्तु जिव्हाग्रे पद्महस्ता सरस्वती॥
॥इति श्रीसरस्वतीस्तोत्रं संपूर्णम्॥

बसन्त पंचमी कथा
〰️〰️🔸🔸〰️〰️
सृष्टि के प्रारंभिक काल में भगवान विष्णु की आज्ञा से ब्रह्मा ने जीवों, खासतौर पर मनुष्य योनि की रचना की। अपनी सर्जना से वे संतुष्ट नहीं थे। उन्हें लगता था कि कुछ कमी रह गई है जिसके कारण चारों ओर मौन छाया रहता है। विष्णु से अनुमति लेकर ब्रह्मा ने अपने कमण्डल से जल छिड़का, पृथ्वी पर जलकण बिखरते ही उसमें कंपन होने लगा। इसके बाद वृक्षों के बीच से एक अद्भुत शक्ति का प्राकट्य हुआ। यह प्राकट्य एक चतुर्भुजी सुंदर स्त्री का था जिसके एक हाथ में वीणा तथा दूसरा हाथ वर मुद्रा में था। अन्य दोनों हाथों में पुस्तक एवं माला थी। ब्रह्मा ने देवी से वीणा बजाने का अनुरोध किया। जैसे ही देवी ने वीणा का मधुरनाद किया, संसार के समस्त जीव-जन्तुओं को वाणी प्राप्त हो गई। जलधारा में कोलाहल व्याप्त हो गया। पवन चलने से सरसराहट होने लगी। तब ब्रह्मा ने उस देवी को वाणी की देवी सरस्वती कहा। सरस्वती को बागीश्वरी, भगवती, शारदा, वीणावादनी और वाग्देवी सहित अनेक नामों से पूजा जाता है। ये विद्या और बुद्धि प्रदाता हैं। संगीत की उत्पत्ति करने के कारण ये संगीत की देवी भी हैं। बसन्त पंचमी के दिन को इनके जन्मोत्सव के रूप में भी मनाते हैं। ऋग्वेद में भगवती सरस्वती का वर्णन करते हुए कहा गया है-

प्रणो देवी सरस्वती वाजेभिर्वजिनीवती धीनामणित्रयवतु।

अर्थात ये परम चेतना हैं। सरस्वती के रूप में ये हमारी बुद्धि, प्रज्ञा तथा मनोवृत्तियों की संरक्षिका हैं। हममें जो आचार और मेधा है उसका आधार भगवती सरस्वती ही हैं। इनकी समृद्धि और स्वरूप का वैभव अद्भुत है। पुराणों के अनुसार श्रीकृष्ण ने सरस्वती से ख़ुश होकर उन्हें वरदान दिया था कि वसंत पंचमी के दिन तुम्हारी भी आराधना की जाएगी और यूं भारत के कई हिस्सों में वसंत पंचमी के दिन विद्या की देवी सरस्वती की भी पूजा होने लगी जो कि आज तक जारी है।

function disabled

Old Post from Sanwariya