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मंगलवार, 22 सितंबर 2020

डरपोक अकबर ने 7 फ़ीट 8 इंची बहलोल खान को भेजा था महाराणा प्रताप का सर लाने

डरपोक अकबर ने 7 फ़ीट 8 इंची बहलोल खान को भेजा था महाराणा प्रताप का सर लाने, कभी नहीं हारा था बहलोल --------

मुगली अकबर का सबसे खतरनाक वाला एक सेना नायक हुआ . . . नाम - बहलोल खां . . . . कहा जाता है कि हाथी जैसा बदन था इसका . . . और ताक़त का जोर इतना कि नसें फटने को होती थीं . . . ज़ालिम इतना कि तीन दिन के बालक को भी गला रेत-रेत के मार देता था . . . . बशर्ते वो हिन्दू का हो . . . . . एक भी लड़ाई कभी हारा नहीं था अपने पूरे करियर में ये बहलोल खां ॥

काफी लम्बा था, 7 फुट 8 इंच का कद
कहा जाता है की घोडा उसने सामने छोटा लगता था ॥ बहुत चौड़ा और ताकतवर था बहलोल खां, अकबर को बहलोल खां पर खूब नाज था, लूटी हुई औरतों में से बहुत सी बहलोल खां को दे दी जाती थी ॥

फिर हल्दीघाटी का युद्ध हुआ, अकबर और महाराणा प्रताप की सेनाएं आमने सामने थी, अकबर महाराणा प्रताप से बहुत डरता था इसलिए वो खुद इस युद्ध से दूर रहा ॥

अब इसी बहलोल खां को अकबर ने भिड़ा दिया हिन्दू-वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप से . . . . . लड़ाई पूरे जोर पर और मुगलई गंद खा-खा के ताक़त का पहाड़ बने बहलोल खां का आमना-सामना हो गया अपने प्रताप से ॥

अफीम के ख़ुमार में डूबी हुई सुर्ख नशेड़ी आँखों से भगवा अग्नि की लपट सी प्रदीप्त रण के मद में डूबी आँखें टकराईं और जबरदस्त भिडंत शुरू. . . कुछ देर तक तो राणा यूँ ही मज़ाक सा खेलते रहे मुगलिया बिलाव के साथ . . . .
और फिर गुस्से में आ के अपनी तलवार से एक ही वार में घोड़े सहित . . हाथी सरीखे उस नर का पूरा धड़ बिलकुल सीधी लकीर में चीर दिया . . . ऐसा फाड़ा कि बहलोल खां का आधा शरीर इस तरफ और आधा उस तरफ गिरा ॥
ऐसे-ऐसे युद्ध-रत्न उगले हैं सदियों से भगवा चुनरी ओढ़े रण में तांडव रचने वाली मां भारती ने . . . . .

जय महाराणा प्रताप की
जय माँ भारती ....
फिर भी अकबर महान पढ़ाया हरामखोर वामपंथीयो ने
इतिहास बदलना होगा, पाठयक्रम मे अब बदलाव चाहिए ll
हर हर महादेव 🙏

बहुत ही कम इस प्रकार के संदेश वाट्सएप पर आते हैं

*(बहुत ही कम इस प्रकार के संदेश वाट्सएप पर आते हैं।)*

वासु भाई और वीणा बेन, दोनों यात्रा की तैयारी कर रहे थे। 3 दिन का अवकाश था। वे पेशे से चिकित्सक थे लंबा अवकाश नहीं ले सकते थे । परंतु जब भी दो-तीन दिन का अवकाश मिलता ,छोटी यात्रा पर कहीं चले जाते हैं ।
        आज उनका इंदौर उज्जैन जाने का विचार था, दोनों साथ-साथ मेडिकल कॉलेज में पढ़ते थे ।वहीं पर प्रेम अंकुरित हुआ ,और बढ़ते बढ़ते वृक्ष बना। । दोनों ने परिवार की स्वीकृति से विवाह किया, 2 साल हो गए ,संतान कोई थी नहीं, इसलिए यात्रा का आनंद लेते रहते थे ।

        विवाह के बाद दोनों ने अपना निजी अस्पताल खोलने का फैसला किया, बैंक से लोन लिया। वीणा  बेन    स्त्री रोग विशेषज्ञ और वासु भाई    डाक्टर आफ मेडिसिन थे। इसलिए दोनों की कुशलता के कारण अस्पताल अच्छा चल निकला था ।
         आज इंदौर जाने का  कार्यक्रम बनाया था । जब  मेडिकल कॉलेज में पढ़ते थे  पप्पू भाई ने  इंदौर के बारे में बहुत सुना था नई नई वस्तु है खाने के शौकीन थे इंदौर के सराफा बाजार और 56 दुकान  पर मिलने वाली मिठाईयां नमकीन उन्होंने उनके बारे में सुना था साथ ही  महाकाल के दर्शन करने की इच्छा थी इसलिए उन्होंने  इस बार  इंदौर उज्जैन  की यात्रा करने का  विचार किया था।
      यात्रा पर रवाना हुए ,आकाश में बादल घुमड़ रहे थे । मध्य प्रदेश की सीमा लगभग 200 किलोमीटर दूर थी । बारिश होने लगी थी।
म,प्र,  सीमा से  40 किलोमीटर पहले छोटा शहर  पार  करने में समय लगा। कीचड़ और भारी यातायात में बड़ी कठिनाई से दोनों ने रास्ता पार किया।
      भोजन तो मध्यप्रदेश में जाकर करने का विचार था परंतु चाय का समय हो गया था, उस छोटे शहर से 4 - 5 किलोमीटर आगे निकले ।सड़क के किनारे एक छोटा सा मकान दिखाई दिया ।जिसके आगे वेफर्स के पैकेट लटक रहे थे। उन्होंने विचार किया कि यह कोई होटल है वासु भाई ने वहां पर गाड़ी रोकी, दुकान पर गए , कोई नहीं था। आवाज लगाई , अंदर से एक महिला  निकल कर के आई। 
उसने पूछा क्या चाहिए ,भाई  ।
       वासु  भाई ने दो पैकेट वेफर्स  के लिए ,और कहा  बेन   दो कप चाय बना देना। थोड़ी जल्दी बना देना , हमको दूर जाना है  । 
 पैकेट लेकर के गाड़ी में गए। वीणा  बेन और दोनों ने पैकेट के वैफर्स  का नाश्ता किया ।
 चाय अभी तक  आई नहीं थी ।
         दोनों निकल कर के दुकान में रखी हुई कुर्सियों पर बैठे ।वासु भाई ने फिर आवाज लगाई ।
        थोड़ी देर में वह महिला अंदर से आयी ।
बोली भाई बाड़े में तुलसी लेने गई थी , तुलसी के पत्ते लेने में देर हो गई ,अब चाय बन रही है ।
थोड़ी देर बाद एक प्लेट में दो मेले से कप ले करके वह गरमा गरम चाय लाई। 
      मेले कप को देखकर वासु भाई एकदम से अपसेट  हो गए ,और कुछ बोलना चाहते थे ।
परंतु वीणाबेन ने हाथ पकड़कर उनको रोक दिया  ।
          चाय के कप उठाए उसमें से अदरक और तुलसी की सुगंध निकल रही थी, दोनों ने चाय का एक सिप  लिया ऐसी स्वादिष्ट और सुगंधित चाय जीवन में पहली बार उन्होंने पी ।उनके मन की हिचकिचाहट दूर हो गई ।
उन्होंने महिला को चाय पीने के बाद पूछा कितने पैसे  
महिला ने कहा  बीस रुपये 
वासु भाई ने सो का नोट दिया ।
        महिला ने कहा कि भाई छुट्टा नहीं है ।
₹20 छुट्टा दे दो, वासुभाई ने बीस रु  का नोट दिया। महिला ने सो का नोट वापस किया। 
चाय के पैसे नहीं लिए ।
अरे चाय के पैसे  क्यों नहीं लिए ।
जवाब मिला ,हम चाय नहीं बेंचते हैं।  यह होटल नहीं है  ।
फिर आपने चाय क्यों बना दी ।
           अतिथि आए ,आपने चाय मांगी ,हमारे पास दूध भी नहीं था पर यह बच्चे के लिए दूध रखा था ,परंतु आपको मना कैसे करते ।
 इसलिए इसके दूध की चाय बना दी ।
अभी बच्चे को क्या पिलाओगे ।
एक दिन दूध नहीं पिएगा तो मर नहीं जाएगा। इसके पापा बीमार हैं  वह  शहर जा करके दूध ले आते ,पर उनको कल से बुखार है ।आज अगर ठीक  हो  जाएगा तो कल सुबह जाकर दूध  ले आएंगे। 
         वासु भाई  उसकी बात सुनकर  सन्न  रह गये। इस महिला ने होटल ना होते हुए भी अपने बच्चे के दूध से चाय बना दी और वह भी  केवल इसलिए कि मैंने कहा था ,अतिथि रूप में आकर के  ।
 संस्कार और सभ्यता में महिला मुझसे बहुत आगे हैं ।
        उन्होंने कहा कि हम दोनों डॉक्टर हैं, आपके पति कहां हैं बताएं,
हमको महिला भीतर ले गई  । अंदर गरीबी  पसरी  हुई थी । एक खटिया पर सज्जन सोए हुए थे  बहुत दुबले पतले थे ।
         वासु भाई ने जाकर उनका मस्तक संभाला,माथा और हाथ गर्म हो रहे थे ,और कांप  रहे थे  वासु  भाई वापस गाड़ी में , गए दवाई का अपना बैग लेकर के आए । उनको दो-तीन टेबलेट निकालकर के दी, खिलाई  ।
फिर कहा कि इन गोलियों से इनका रोग ठीक नहीं होगा ।
          मैं पीछे शहर में जा कर के  इंजेक्शन और इनके लिए बोतल ले आता हूं ।वीणा बेन को उन्होंने मरीज के पास बैठने का कहा ।
 गाड़ी लेकर के गए ,आधे घंटे में शहर से बोतल ,इंजेक्शन ,ले कर के आए और साथ में दूध की थैलीयां  भी लेकरआये। 
          मरीज को इंजेक्शन लगाया ,बोतल चढ़ाई ,और जब तक बोतल लगी दोनों वहीं ही बैठे रहे ।
एक बार और तुलसी और अदरक की चाय बनी ।
दोनों ने  चाय पी और उसकी तारीफ की। 
      जब मरीज 2 घंटे में थोड़े ठीक हुए,  तब वह दोनों  वहां से आगे बढ़े। 
 3 दिन इंदौर उज्जैन में रहकर , जब लौटे तो उनके बच्चे के लिए बहुत सारे खिलौने ,और दूध की थैली लेकर के आए ।
           वापस उस दुकान के सामने रुके ,महिला को आवाज लगाई , तो  दोनों  बाहर निकल कर  उनको देख कर बहुत  खुश  हो गये। 
उन्होंने कहा कि आप की दवाई से दूसरे दिन  ही बिल्कुल स्वस्थ हो गया ।
वासु भाई ने बच्चे को खिलोने दिए  ।दूध के पैकेट दिए  ।
फिर से चाय बनी ,बातचीत हुई ,अपनापन स्थापित हुआ। वासु भाई ने अपना एड्रेस कार्ड  दिया  ।कहा, जब भी आओ जरूर मिले ,और दोनों वहां से अपने शहर की ओर ,लौट गये 

            शहर पहुंचकर वासु भाई ने उस महिला की बात याद रखी। फिर  एक फैसला लिया। 
         अपने अस्पताल में रिसेप्शन पर बैठे हुए व्यक्ति से कहा कि ,अब आगे से आप जो भी मरीज आयें, केवल उसका नाम लिखेंगे ,फीस नहीं लेंगे, फीस मैं खुद लूंगा। 
      और जब मरीज आते तो  अगर वह गरीब मरीज होते तो उन्होंने उनसे फीस  लेना बंद कर दिया ।
केवल संपन्न मरीज  देखते  तो ही उनसे फीस लेते ।
             धीरे धीरे शहर में उनकी प्रसिद्धि फैलने लगी दूसरे डाक्टरों ने सुना। उन्हें लगा कि इस कारण से हमारी प्रैक्टिस कम पड़ेगी ,और लोग हमारी निंदा करेंगे,उन्होंने एसोसिएशन के अध्यक्ष से कहा  ।
 एसोसिएशन के अध्यक्ष डॉ वासु भाई से मिलने आए ,उन्होंने कहा कि आप ऐसा क्यों कर रहे हो ।
           तब वासु भाई ने  जो जवाब दिया उसको सुनकर उनका मन भी उद्वेलित हो गए ।
वासु भाई ने कहा मेरे जीवन में हर परीक्षा में मेरिट में पहली पोजीशन पर आता रहा । एमबीबीएस में भी ,एमडी में भी गोल्ड मेडलिस्ट बना ,परंतु सभ्यता संस्कार और अतिथि सेवा में वह गांव की महिला जो बहुत गरीब है ,वह मुझसे आगे निकल गयी। 
 तो मैं अब पीछे कैसे रहूं ।
इसलिए मैं अतिथि सेवा में मानव सेवा में भी गोल्ड मेडलिस्ट बनूंगा । इसलिए मैंने यह सेवा प्रारंभ की ।
             और मैं यह कहता हूं कि हमारा व्यवसाय मानव सेवा का है। सारे चिकित्सकों से भी मेरी अपील है कि वह सेवा भावना से काम करें ।गरीबों की निशुल्क सेवा करें ,उपचार करें । यह व्यवसाय धन कमाने का नहीं ।
परमात्मा ने मानव सेवा का अवसर प्रदान किया है ,
               एसोसिएशन के अध्यक्ष ने वासु भाई को प्रणाम किया और धन्यवाद देकर उन्होंने कहा कि मैं भी आगे से ऐसी ही भावना रखकर के चिकित्सकिय  सेवा करुंगा।

*कभी कभार ऐसी पोस्ट भी वाट्सएप पर आ जाती हैं।*

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जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी

*जाकी रही भावना जैसी*, *प्रभु मूरत देखी तिन तैसी …*…

जो हमारे दिमाग में चल रहा होता है, जैसी अच्छी बुरी भावना उस वस्तु या व्यक्ति विशेष के प्रति रखते हैं, उसी दृष्टि से हम आस पास का आंकलन करते हैं और अपनी बात को सबके सामने रखते हैं।

*जो जैसा देखना चाहता है*, *पूर्वाग्रहों से ग्रस्त होकर देखता है …*…

निम्नलिखित कहानी से स्पष्ट हो जाएगाः-

*प्रसंग 1–* एक बार एक कवि हलवाई की दुकान पहुंचे, जलेबी और दही ली और वहीं खाने बैठ गये, इतने में एक कौआ कहीं से आया और दही की परात में चोंच मारकर उड़ चला।

हलवाई को बड़ा गुस्सा आया उसने पत्थर उठाया और कौए को दे मारा, कौए की किस्मत खराब, पत्थर सीधे उसे लगा और वो मर गया।

ये घटना देख कवि हृदय जगा, वो जलेबी खाने के बाद पानी पीने पहुंचे तो उन्होंने एक कोयले के टुकड़े से वहां एक पंक्ति लिख दी *…*…

*काग दही पर जान गँवायो* दही में चोंच मारने के कारण कौए को अपनी जान गंवानी पड़ी।

*प्रसंग 2–* तभी वहां एक लेखपाल महोदय जो कागजों में हेराफेरी की वजह से निलम्बित हो गये थे, पानी पीने आए, कवि की लिखी पंक्तियों पर जब उनकी नजर पड़ी तो अनायास ही उनके मुंह से निकल पड़ा, कितनी सही बात लिखी है, क्योंकि उन्होंने उसे कुछ इस तरह पढ़ा *…*…

*कागद ही पर जान गंवायो* लेखपाल महोदय के दिमाग में उनके कागज चल रहे थे, अतः उन्हें काग दही कागद ही पढ़ने में आए।

*प्रसंग 3–* तभी एक मजनू टाईप लड़का पिटा-पिटाया सा वहां पानी पीने आया, उसे भी लगा कितनी सच्ची बात लिखी है काश उसे ये पहले पता होती, क्योंकि उसने उसे कुछ यूं पढ़ा था *…*…

*का गदही पर जान गंवायो* उस मजनूँ ने लड़की के कारण मार खाई, कष्ट होने पर लड़के को लड़की गदही जैसी लगने लगी, उसने दु:खी होकर इस पंक्ति को वैसे पढ़ा।

शायद इसीलिए तुलसीदास जी ने बहुत पहले ही लिख दिया था *…*…

*जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी* हम वह नहीं देखते जो सच में होता है, हम वह देखते हैं जो हम देखना चाहते हैं।
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वृंदावन रज का चमत्कार

"वृंदावन रज का चमत्कार"* 

         श्री वृंदावन में एक विरक्त संत रहते थे जिनका नाम था पूज्य श्री सेवादास जी महाराज। श्री सेवादास जी महाराज ने अपने जीवन मे किसी भी वस्तु का संग्रह नही किया। एक लंगोटी, कमंडल, माला और श्री शालिग्राम जी इतना ही साथ रखते थे। एक छोटी सी कुटिया बना रखी थी जिसमे एक बड़ा ही सुंदर संदूक रखा हुआ था। संत जी बहुत कम ही कुटिया के भीतर बैठकर भजन करते थे, अपना अधिकतम समय वृक्ष के नीचे भजन मे व्यतीत करते थे। यदि कोई संत आ जाये तो कुटिया के भीतर उनका आसान लगा देते थे। एक समय वहाँ एक बदमाश व्यक्ति आया और उसकी दृष्टि कुटिया के भीतर रखी उस सुंदर संदुक पर पडी। उसने सोचा कि अवश्य ही महात्मा को कोई खजाना प्राप्त हुआ होगा जिसे यहाँ छुपा रखा है। महात्मा को धन का क्या काम ? मौका पाते ही इसे चुरा लूँगा ।
          एक दिन बाबाजी कुटिया के पीछे भजन कर रहे थे। अवसर पाकर उस चोर ने कुटिया के भीतर प्रवेश किया और संदुक को तोड़ मरोड़ कर खोला। उस संदुक के भीतर एक और छोटी संदुक रखी थी। चोर ने उस संदुक को भी खोला तब देखा कि उसके भीतर भी एक और छोटी संदुक रखी है। ऐसा करते-करते उसे कई संदुक प्राप्त हुए और अंत मे एक छोटी संदुक उसे प्राप्त हुई। उसने वह संदुक खोली और देखकर बड़ा दु:खी हो गया। उसमे केवल मिट्टी रखी थी। अत्यंत दु:ख में भरकर वह कुटिया के बाहर निकल ही रहा था की उस समय श्री सेवादास जी वहाँ पर आ गए। श्री सेवादास जी ने चोर से कहा- तुम इतने दुखी क्यों हो ? चोर ने कहा- इनती सुंदर संदुक मे कोई क्या मिट्टी भरकर रखता है ? बड़े अजीब महात्मा हो।
          श्री सेवादास जी बोले- अत्यंतर श्रेष्ठ मूल्यवान वस्तु को संदुक मे ही रखना तो उचित है। चोर बोला- ये मिट्टी कौन सी मूल्यवान वस्तु है ? बाबा बोले- ये कोई साधारण मिट्टी नही है, यह तो पवित्र श्री वृंदावन रज है। यहाँ की रज के प्रताप से अनेक संतो ने भगवान् श्री कृष्ण को प्राप्त किया है। यह रज प्राप्त करने के लिए देवता भी ललचाते हैं। यहाँ की रज को श्रीकृष्ण के चरणकमलों का स्पर्श प्राप्त है। श्रीकृष्ण ने तो इस रज को अपनी श्रीमुख में रखा है। चोर को बाबा की बात कुछ अधिक समझ नही आयी और वह कुटिया से बाहर जाने लगा। बाबा ने कहा- सुनो ! इतना कष्ट करके खाली हाथ जा रहे हो, मेहनत का फल भी तो तुम्हें मिलना चाहिए। चोर ने कहा- क्यों हँसी मजाक करते हैं, आप के पास देने के लिए है भी क्या ?
          श्री सेवादास जी कहने लगे- मेरे पास तो देने के लिए कुछ है नही परंतु इस ब्रज रज में सब कुछ प्रदान करने की सामर्थ्य है। चोर बोला- मिट्टी किसी को भला क्या दे सकती है ? विश्वास हो तो यह रज स्वयं प्रभु से मिला सकती है। चोरी करना तो तुम्हारा काम धंदा है और महात्मा के यहाँ से खाली हाथ जाएगा तो यह भी ठीक नहीं। जाते-जाते यह प्रसाद लेकर जा। इतना कहकर श्री सेवादास जी ने थोड़ी से ब्रज रज लेकर उसे चोर के माथे पर लगा दिया। माथे पर रज का स्पर्श होते ही वह चोर भाव में भरकर भगवान् के पवित्र नामों का उच्चारण करने लगा- श्रीराधा कृष्ण, केशव, गोविंद-गोविंद। उसका हृदय निर्मल हो गया और वह महात्मा के चरणों मे गिर गया। महात्मा ने उसे हरिनाम जप और संत सेवा का उपदेश दिया देकर उसका जीवन कृष्णमय बना दिया।
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भारत की जीडीपी 1725 तक पूरे विश्व की लगभग 24% थी

!!! GDP !!!

जब हमारी जीडीपी 10वीं सदी तक विश्व की  40% थी, हमारे मंदिर स्वर्ण भंडारों से भरे हुए थे, देश सोने की चिड़िया कहलाती थी, उस समय रेगिस्तान से आए मजहबी बर्बर वहशी लुटेरों ने हमारी मंदिरें तोड़ी, उनके स्वर्ण भंडार लूट कर ले गए। उन वहशी दरिंदों ने महिलाओं और लड़कियों को लूटा और घसीटते हुए अफगानिस्तान ले गए जहां उन्हें दो-दो दिनारों मे  गुलामों की तरह बेचा। जब कभी आपकी व्यक्तिगत जीडीपी हाई हो और पर्यटन का इरादा हो तो अफगानिस्तान के शहर गजनी जरूर घूमने आइए जहां एक स्तम्भ के नीचे लिखी एक इबारत "दुखतरे मीनार निलामे दो दीनार" आपको तत्कालीन  40%जीडीपी को मुंह चिढ़ाती मिलेग,

जब भारत की जीडीपी 1725 तक पूरे विश्व की लगभग 24% थी उस समय चंद जहाजों पर बैठकर सुदूर यूरोप से आए कुछ व्यापारियों ने हमारे देश पर कब्जा कर लिया और हम देखते रह गए। 1857 के बाद ब्रिटिश सरकार ने जीडीपी के प्रोडक्शन हाउस हथकरघा उद्योग स्वरोजगार करने वालों टैक्स पर टैक्स लगाकर उनसे 45ट्रीलियन डालर  टैक्स को लूट कर उन्होंने हमारे देश के टुकड़े टुकड़े किए, बेतहाशा जुल्म ढाए और अत्याचार की सारी सीमाएं लांघ डाली। और जब ये यूरोपियन विदेशी 1947 में देश से गए तब भारत की जीडीपी विश्व की कुल जीडीपी का मात्र 2% के बराबर रह गई थी।

जीडीपी हमारी खुशहाली का एक कारक हो सकता है लेकिन यह खुशहाली कितने दिन रहेगी इसकी सुरक्षा जीडीपी नहीं दे सकता। बहुत दिन नहीं हुए जब ढाका के मलमल के व्यापारी अपनी संपन्नता और विलासिता के लिए मशहूर थे। मगर उनकी ये संपन्नता और खुशहाली, उनकी व्यक्तिगत जीडीपी मात्र कुछ ही दिनों में विस्थापित होकर भारत के शरणार्थी शिविरों में रहने को मजबूर हो गया। यही हाल पाकिस्तान मैं बसे हिंदू, सिख और सिंधी व्यवसायियों का हुआ। करांची एक समय पश्चिम भारत और अभी का पाकिस्तान का सबसे संपन्न वर्ग दिल्ली की सड़कों आधे अधूरे परिवार के साथ शरणार्थी बनकर भटक रहा था। उनकी संपन्नता कि गवाही देते खबरें यदा-कदा आज भी आती हैं जब पता चलता है कि उनकी पुरानी हवेलियां तोड़ी जाती हैं तो उनसे सोने के सिक्के और सोने की मूर्तियां निकलती है। अपने ही देश  मैं एक वक्त कश्मीर में कश्मीरी पंडितों के बड़े-बड़े सेब के बागान थे अपने आलीशान जिंदगी जी रहे थे व्यक्तिगत तौर पर उनकी जीडीपी देश के अन्य लोगों से बहुत हाई थी लेकिन उन्हें भी जम्मू और दिल्ली की सड़कों पर शरणार्थी बनकर भटकने के लिए मजबूर होना पड़ा।

बहुत पीछे ना भी जाए तो वर्तमान में ही पश्चिम के विकसित और बहुत ऊंची जीडीपी वाले सारे राष्ट्र एक-एक कर धराशाई होते जा रहे हैं। स्वीडन का उदाहरण सब के सामने है, यही हाल यूरोप के कई देशों  में है,विश्व के सबसे  ऊंची जीडीपी वाले अमेरिका मे हाल का अश्वेत आंदोलन और वामिस्लाम प्रायोजित दंगे इसी जीडीपी के खोखलेपन को उजागर करता है।

गिरती जीडीपी की विधवा विलाप के बीच ये तथ्य दिलचस्प है कि जब हमारी जीडीपी हाई थी तब चीन मील दर मील हमारी जमीन कब्जा करता जा रहा था और आज जब जीडीपी माइनस बताई जा रही है तब हम चीन से अपनी छीनी हुई जमीन वापस ले रहे हैं।

सुनो,, GDP की धर कर चाट लेना...

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