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सोमवार, 5 अक्तूबर 2020

भगवान् किसको मिलते है ?


भगवान् किसको मिलते है ?


निर्मल मन जन सो मोहि पावा।
मोहि कपट छल छिद्र न भावा॥

जो मनुष्य निर्मल मन का होता है, वही मुझे पाता है। मुझे कपट और छल-छिद्र नहीं सुहाते।


वृंदावन में एक भक्त रहते थे जो स्वाभाव से बहुत ही भोले थे । उनमे छल ,कपट ,चालाकी बिलकुल नहीं थी । बचपन से ही वे भक्त जी वृंदावन में रहते थे , श्री कृष्ण स्वरुप में उनकी अनन्य निष्ठा थी और वे भगवान् को अपना सखा मानते थे । बहुत शुद्ध आत्मा वाले थे , जो मन में आता है वही भगवान से बोल देते है ।वो भक्त कभी वृंदावन से बहार गए नहीं थी ।एक दीन भोले भक्त जी को कुछ लोग जगन्नाथ पुरी में भगवान् के दर्शन करने लग गए । पुराने दिनों में बहुत भीड़ नहीं होती थी अतः वे सब लोग जगन्नाथ भगवान् के बहुत पास दर्शन करने गए । भोले भक्त जी ने जगन्नाथ जी का स्वरुप कभी देखा नहीं था , उसे अटपटा लगा ।

उसने पूछा – ये कौनसे भगवान् है ? ऐसे डरावने क्यों लग रहे है ? सब पण्डा पूजारी लोग कहने लगे – ये भगवान् श्री कृष्ण ही है , प्रेम भाव में इनकी ऐसी दशा हो गयी है । जैसे ही उसने सुना – वो जोर जोर से रोने लग गया और ऊपर जहां भगवान् विराजमान है वहाँ जाकर चढ़ गया । सब पण्डा पुजारी देखकर भागे और उससे कहने लगे की निचे उतरो परंतु वह निचे नहीं उतरा । उसने भगवान् को आलिंगन देकर कहा – अरे कन्हैया ! ये क्या हालात बना र खी है तूने ? ये चेहरा कैसे फूल गया है तेरा , तेरे पेट की क्या हालात होंगयी है । यहां तेरे खाने पिने का ध्यान नहीं रखा जाता क्या ? मैं प्रर्थना करता हूं ,तू मेरे साथ अपने ब्रिज में वापस चल । मै दूध, दही ,मखान खिलाकर तुझे बढ़िया पहले जैसा बना दूंगा ,सब ठीक हो जायेगा तू चल ।

पण्डा पुजारी उन भक्त जी को निचे उतारने का प्रयास करने लगे , कुछ तो निचे से पीटने भी लगे परंतु वह रो रो कर बार बार यही कह रहा था की कन्हैया , तू मेरे साथ ब्रज में चल , मै तेरा अच्छी तरह ख्याल करूँगा । तेरी ऐसी हालात मुझसे देखी नहीं जा रही । अब वहाँ गड़बड़ मच गयी तो भगवान् ने अपने माधुर्य श्रीकृष्ण रूप के उसे दर्शन करवाये और कहा – भक्तो के प्रेम में बंध कर मैंने कई अलग अलग रूप धारण किये है , तुम चिंता मत करो । जो जिस रूप में मुझे प्रेम करता है मेरा दर्शन उसे उसी रूप में होता है , मै तो सर्वत्र विराजमान हूँ । उसे जगन्नाथ जी ने समझा बुझाकर आलिंगन वरदान किया और आशीर्वाद देकर वृंदावन वापस भेज दिया । इस लीला से स्पष्ट है की जिसमे छल कपट नहीं है ,जो शुद्ध हृदय वाला भोला भक्त है उसे भगवान् सहज मिल जाते है ।

मेवाड़ वीर राणा पुंजा भील की जन्म जयंती पर विशेष 05 Oct 2020


राणा पुंजा भील की जन्म जयंती पर विशेष
05 Oct 2020
*मेवाड़ वीर राणा पूंजा भील-एक समग्र परिचय*

विश्व की सबसे प्राचीन अरावली पर्वत श्रृंखला में वाकल, सोम व साबरमती नदियों के उद्गम स्थलों के संधीय भोमट के पठार  में जन्मा भारतीय संस्कृति का एक जनजाति रक्षक-राणा पूंजा भील ने महाराणा प्रताप के साथ मिलकर  क्षात्रधर्मी पथ का राष्ट्र व संस्कृति सेवा के रूप में अपने धर्म का वरण किया। पंडित नरेंद्र मिश्र के शब्दों में- *संकट में धरती पुत्रों का माता ने जब आह्वान किया।* *तब एकलव्य की निष्ठा से पूजा ने शर-संधान किया ।।*

आत्मविश्वास और स्वाभिमान के धनी भील जनजातियों के इस नायक ने वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप का मित्र, संकटमोचक वह आत्मिक सहयोगी की भूमिकाओं का निर्वहन करते हुए ऐतिहासिक गौरव का सम्मान प्राप्त किया है।

आरंभिक जीवन- राणा पूंजा भील का जन्म 5 अक्टूबर को भीलों की होलकी (सोलंकी) गोत्र में पिता खेता दूल्हा और माता केहरी के पुत्र के रूप में हुआ। यह सपूत मात्र 13 वर्ष की आयु में मेवाड़ की मेरपुर रियासत की गद्दी पर आसीन हुआ जो आधुनिक गुजरात राज्य की सीमा पर स्थित भील व गरासिया बाहुल्य क्षेत्र है। दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र में संगठनात्मक शक्ति, स्वामीभक्ति, राष्ट्र के प्रति प्रतिबद्धता, प्रतिभा और कर्तव्य के प्रति समर्पण को देखते हुए महाराणा उदय सिंह ने उन्हें *राणा* की उपाधि से सम्मानित किया।

भोमट का राजा- मेवाड़ की पश्चिम भाग में स्थित दुर्गम पहाड़ी रियासत के कम वय में भूमिया सरदार के रूप में कवियों का निर्वहन करते हुए राणा पूंजा ने जनजातियों को एक सेना के रूप में संगठित, प्रशिक्षित और प्रतिबद्ध किया जो सर्वधर्म, संस्कृति और राष्ट्र की रक्षा के लिए विरोचित गुणों से सुसज्जित किया । क्षेत्र की भौगोलिक एकाकीपन को एक प्राकृतिक किले के रूप में विकसित किया। किसी भी संकट के समय रक्षा के निमित्त क्षेत्र के सभी प्रवेश वाले मार्गों को नियंत्रण में लिया।

राजनीतिक परिवेश-11-12वीं सदी में इस्लामिक आक्रमणों के कारण भारतवर्ष की उत्तर पश्चिमी सीमा पर राजनीतिक स्थिरता आ गई थी। दिल्ली पर आरंभ में सल्तनत और बाद में मुगलों के कब्जे के कारण दक्षिणी भारत के अभियानों का मार्ग राजस्थान से गुजरता था। इस कारण राजस्थान के अधिकांश राजपूत शासकों को अपने आश्रय में लेकर मुगल बादशाह अकबर मेवाड़ पर कब्जा जमाने की कोशिश कर रहा था। इस कठिन समय में राणा पूंजा अपनी भील सेना के साथ महाराणा प्रताप की साथ कंधे से कंधा मिलाकर एक अथक-अंतहीन संघर्ष के लिए खड़े थे।

उपलब्धियां- मेवाड़ की कमान अपने हाथ में लेने के साथ ही कठिन राजनीतिक परिवेश में महाराणा प्रताप ने धर्म, संस्कृति और राष्ट्र की रक्षा के लिए अनवर अनवरत संघर्ष का मार्ग चुना। इस दौरान उनके राज्याभिषेक में राणा पूंजा भील अपने वीर सैनिकों सहित कुंभलगढ़ में उपस्थित रहे। मुगलों के संभावित आक्रमण को देखते हुए आगे की रणनीति के लिए राणा पूंजा ने अपने उपयोगी सुझाव दिए एवं चेन्नई कार्यों की तैयारी से संबंधित उत्तरदायित्व अपने कंधों पर उठाने का संकल्प लिया। सन् 1576 में हल्दीघाटी के युद्ध में भील पदातियों के साथ राणा पूंजा ने तीर-कमान, छोटी तलवारों और गोफन जैसे परंपरागत हथियारों के साथ युद्ध स्थल के दाएं ओर का मोर्चा संभालते हुए दुश्मन के छक्के छुड़ा दिए। इस युद्ध के बाद की क्रमिक घटनाओं में भील सेना द्वारा आविष्कृत छापामार प्रणाली से आक्रमण करते हुए मुगल सेना को भील सैनिकों ने खूब छकाया । रक्त तलाई की लड़ाई में यह छापामार प्रणाली के बहुत अनुकूल परिणाम रहे। युद्ध काल में हल्दीघाटी के पास मुहाने की पहाड़ी पर महाराणा प्रताप की रक्षा करने का जिम्मा भी इस सेना ने उठाया। एक निश्चित रणनीति के स्थान पर दुर्गम पहाड़ियों में गतिशीलता के साथ आक्रमण करना और पीछे हट जाने की रणनीति ने मेवाड़ी सरदार की शान बढ़ाई। महाराणा प्रताप की राजतिलक स्थली गोगुंदा कस्बे की सुरक्षा और यहां आई मुगल सेना को आक्रामक ढंग से घेरकर सबको चकित कर दिया था। भोमट के क्षेत्र में मुगल सेना के संभावित आक्रमण को देखते हुए सभी दिशाओं में नाकाबंदी का कार्य भील सेना ने संभाला था। संकट के समय में राजकोष की सुरक्षा के साथ ही राज परिवार की स्त्रियोंऔर बच्चों की जिम्मेदारी भील सेना को दिया जाना, इस बात का अमिट साक्ष्य है कि मेवाड़ का राजपरिवार जनजातियों के निष्ठावान गुणों का कितना विश्वास करता था। इस संदर्भ में दुर्गम स्थान पर आपात राजधानी के रूप में आवरगढ़ किले की योजना, निर्माण, सुरक्षा और आपात प्रबंध की पूरी व्यवस्था राणा पूंजा की भील सेना द्वारा की गई।

ऐतिहासिक महत्व- जो दृढ़ राखे धर्म को ताहि राखे करतार...की नीति पर चलने वाले महाराणा प्रताप ने जब धर्म, संस्कृति और राष्ट्र की रक्षा का जो प्रण लिया तब एक स्वाभाविक राष्ट्र आराधना के निमित्त भीलों ने राणा पूंजा के नेतृत्व में मुगलों की विस्तारवादी नीति के विरुद्ध स्वयं को एक अभेद्य जीवंत प्राचीर के रूप में खड़ा कर दिया। छापामार युद्ध प्रणाली द्वारा हल्दीघाटी के युद्ध के उपरांत संकट काल में संचार, कोष और राज परिवार के सदस्यों को सुरक्षा प्रदान करते हुए सबसे महत्व के कार्य किए। मेवाड़ की जनजातियों ने सैनिक व संस्कृति रक्षक के रूप में अपने स्वाभाविक कर्तव्यों द्वारा अपूर्व योगदान दिया जिसके परिणामस्वरूप जग प्रसिद्ध मेवाड़ी संस्कृति में 'राणी जायो, भीली जायो-भाई भाई' का भाव आज भी लोगों की जुबान पर है। राणा पूंजा भील ने अपनी  सेना के साथ वीरोचित कार्यों को मेवाड़ के राज्य चिन्ह को भी जीवंत कर दिया जिसमें एक ओर महाराणा और दूसरी ओर भील सैनिक, सरदार रूप में, प्रदर्शित किया गया है। यह गाथा इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में लिखने योग्य एवं जनमानस के पटल पर अंकित है कि आन बान शान की रक्षा के लिए जनजातियां सदा ही अपने स्वाभाविक क्षात्र धर्म का निर्वहन करते हुए जन इतिहास को युगों युगों के लिए अविस्मरणीय करती है।

राणा पूंजा भील-गीत दोहा-- बेरी उबो थरथर कापे सुन राणा री हुणकार । तीर कामड़ी गोपण लेकिन उबा भील वीर सरदार ।।

गीत.. राणा थारी आण रे मां बांधी भीला पाल रे । राणा थारी आण रे मां बांधी भीला पाल रे। आयो रे बेरिया रो अब, आयो रे बेरिया रो अब काल रे मेवाड़ी राणा थारे पाछे उबी भीला टोल रे। थारे पाछे उबी भीला टोल रे। नील गगन सूं आओ रणधीरा-2 भीला ने आसिस दीजो रणधीरा।। जय एकलिंग गढ़ जय एकलिंग गढ़ बोर रे मेवाड़ी राणा थारे पाछे उबी भीला टोल रे। थारे पाछे उबी भीला टोल रे।।

तीर कबाण राणा थारी रे तलवारा-2 बल पे रिजो रे राणा बैरिया ने ललकारा बैरी कोई खोले पट ना बैरी कोई खोले पट ना पाट रे थारे पाछे उबी भीला टोल रे। थारे पाछे उबी पूंजा टोल रे।।

अंगरखी पगरखी नी चावे खणदण रे-2 हिवड़ा सू प्यारी माणे राणा थारी आण रे। लड़ाला-मरांला लड़ाला-मरांला पण खा चण बोर रे । थारे पाछे उबी भीला टोल रे। थारे पाछे उबी पूंजा टोल रे।।

मानवता से जो पूर्ण हो, वही मनुष्य कहलाता है। बिन मानवता के मानव भी,पशु तुल्य रह जाता है।


🙏मानवता से जो पूर्ण हो, वही मनुष्य कहलाता है।
 
     बिन मानवता के मानव भी,पशु तुल्य रह जाता है।      

एक ब्राह्मण यात्रा करते-करते किसी नगर से गुजरा बड़े-बड़े महल एवं अट्टालिकाओं को देखकर ब्राह्मण भिक्षा माँगने गया किन्तु किसी ने भी उसे दो मुट्ठी अऩ्न नहीं दिया आखिर दोपहर हो गयी ब्राह्मण दुःखी होकर अपने भाग्य को कोसता हुआ जा रहा थाः “कैसा मेरा दुर्भाग्य है  इतने बड़े नगर में मुझे खाने के लिए दो मुट्ठी अन्न तक न मिला ? रोटी बना कर खाने के लिए दो मुट्ठी आटा तक न मिला ?

इतने में एक सिद्ध संत की निगाह उस पर पड़ी उन्होंने ब्राह्मण की बड़बड़ाहट सुन ली वे बड़े पहुँचे हुए संत थे उन्होंने कहाः

“ब्राह्मण  तुम मनुष्य से भिक्षा माँगो, पशु क्या जानें भिक्षा देना ?”

ब्राह्मण दंग रह गया और कहने लगाः “हे महात्मन्  आप क्या कह रहे हैं ? बड़ी-बड़ी अट्टालिकाओं में रहने वाले मनुष्यों से ही मैंने भिक्षा माँगी है”

संतः “नहीं ब्राह्मण मनुष्य शरीर में दिखने वाले वे लोग भीतर से मनुष्य नहीं हैं अभी भी वे पिछले जन्म के हिसाब ही जी रहे हैं कोई शेर की योनी से आया है तो कोई कुत्ते   की योनी से आया है, कोई हिरण की से आया है तो कोई गाय या भैंस की योनी से आया है उन की आकृति मानव-शरीर की जरूर है किन्तु अभी तक उन में मनुष्यत्व निखरा नहीं है और जब तक मनुष्यत्व नहीं निखरता, तब तक दूसरे मनुष्य की पीड़ा का पता नहीं चलता. ‘दूसरे में भी मेरा ही दिलबर  है’ यह ज्ञान नहीं होता तुम ने मनुष्यों से नहीं, पशुओं से भिक्षा माँगी है”

सिद्धपुरुष तो दूरदृष्टि के धनी होते हैं उन्होंने कहाः “देख ब्राह्मण मैं तुझे यह चश्मा देता हूँ इस चश्मे को पहन कर जा और कोई भी मनुष्य दिखे, उस से भिक्षा माँग फिर देख, क्या होता है”

ब्राह्मण जहाँ पहले गया था, वहीं पुनः गया योगसिद्ध कला वाला चश्मा पहनकर गौर से देखाः ‘ओहोऽऽऽऽ…. वाकई कोई कुत्ता है कोई बिल्ली है.  तो कोई बघेरा है आकृति तो मनुष्य की है लेकिन संस्कार पशुओं के हैं मनुष्य होने पर भी मनुष्यत्व के संस्कार नहीं हैं’ घूमते-घूमते वह ब्राह्मण थोड़ा सा आगे गया तो देखा कि एक मोची जूते सिल रहा है ब्राह्मण ने उसे गौर से देखा तो उस में मनुष्यत्व का निखार पाया।

ब्राह्मण ने उस के पास जाकर कहाः “भाई तेरा धंधा तो बहुत हल्का है औऱ मैं हूँ ब्राह्मण रीति रिवाज एवं कर्मकाण्ड को बड़ी चुस्ती से पालता हूँ मुझे बड़ी भूख लगी है लेकिन तेरे हाथ का नहीं खाऊँगा फिर भी मैं तुझसे माँगता हूँ क्योंकि मुझे तुझमें मनुष्यत्व दिखा है”

उस मोची की आँखों से टप-टप आँसू बरसने लगे वह बोलाः “हे प्रभु  आप भूखे हैं ? हे मेरे रब  आप भूखे हैं ? इतनी देर आप कहाँ थे ?”

यह कहकर मोची उठा एवं जूते सिलकर टका, आना-दो आना  जो इकट्ठे किये थे, उस चिल्लर ( रेज़गारी ) को लेकर हलवाई की दुकान पर पहुँचा और बोलाः “हे हलवाई  मेरे इन भूखे भगवान की सेवा कर लो ये चिल्लर यहाँ रखता हूँ जो कुछ भी सब्जी-पराँठे-पूरी आदि दे सकते हो, वह इन्हें दे दो मैं अभी जाता हूँ”

यह कहकर मोची भागा घर जाकर अपने हाथ से बनाई हुई एक जोड़ी जूती ले आया एवं चौराहे पर उसे बेचने के लिए खड़ा हो गया।

उस राज्य का राजा जूतियों का बड़ा शौकीन था उस दिन भी उस ने कई तरह की जूतियाँ पहनीं किंतु किसी की बनावट उसे पसंद नहीं आयी तो किसी का नाप नहीं आया दो-पाँच बार प्रयत्न करने पर भी राजा को कोई पसंद नहीं आयी तो मंत्री से क्रुद्ध होकर बोलाः “अगर इस बार ढंग की जूती लाया तो जूती वाले को इनाम दूँगा और ठीक नहीं लाया तो मंत्री के बच्चे तेरी खबर ले लूँगा”

दैव योग से मंत्री की नज़र इस मोची के रूप में खड़े असली मानव पर पड़ गयी जिस में मानवता खिली थी, जिस की आँखों में कुछ प्रेम के भाव थे, चित्त में दया-करूणा थी,  ब्राह्मण के संग का थोड़ा रंग लगा था मंत्री ने मोची से जूती ले ली एवं राजा के पास ले गया राजा को वह जूती एकदम ‘फिट’ आ गयी, मानो वह जूती राजा के नाप की ही बनी थी राजा ने कहाः “ऐसी जूती तो मैंने पहली बार ही पहन रहा हूँ किस मोची ने बनाई है यह जूती ?”

मंत्री बोला  “हुजूर  यह मोची बाहर ही खड़ा है”

मोची को बुलाया गया उस को देखकर राजा की भी मानवता थोड़ी खिली राजा ने कहाः “जूती के तो पाँच रूपये होते हैं किन्तु यह पाँच रूपयों वाली नहीं, पाँच सौ रूपयों वाली जूती है जूती बनाने वाले को पाँच सौ और जूती के पाँच सौ, कुल एक हजार रूपये इसको दे दो”

मोची बोलाः “राजा साहिब तनिक ठहरिये यह जूती मेरी नहीं है, जिसकी है उसे मैं अभी ले आता हूँ”

मोची जाकर विनयपूर्वक ब्राह्मण को राजा के पास ले आया एवं राजा से बोलाः “राजा साहब  यह जूती इन्हीं की है”

राजा को आश्चर्य हुआ वह बोलाः “यह तो ब्राह्मण है इस की जूती कैसे ?”

राजा ने ब्राह्मण से पूछा तो ब्राह्मण ने कहा मैं तो ब्राह्मण हूँ यात्रा करने निकला हूँ”

राजाः “मोची जूती तो तुम बेच रहे थे इस ब्राह्मण ने जूती कब खरीदी और बेची ?”

मोची ने कहाः “राजन्  मैंने मन में ही संकल्प कर लिया था कि जूती की जो रकम आयेगी वह इन ब्राह्मणदेव की होगी जब रकम इन की है तो मैं इन रूपयों को कैसे ले सकता हूँ ? इसीलिए मैं इन्हें ले आया हूँ न जाने किसी जन्म में मैंने दान करने का संकल्प किया होगा और मुकर गया होऊँगा तभी तो यह मोची का चोला मिला है अब भी यदि मुकर जाऊँ तो तो न जाने मेरी कैसी दुर्गति हो ? इसीलिए राजन्  ये रूपये मेरे नहीं हुए मेरे मन में आ गया था कि इस जूती की रकम इनके लिए होगी फिर पाँच रूपये मिलते तो भी इनके होते और एक हजार मिल रहे हैं तो भी इनके ही हैं हो सकता है मेरा मन बेईमान हो जाता इसीलिए मैंने रूपयों को नहीं छुआ और असली अधिकारी को ले आया”

राजा ने आश्चर्य चकित होकर ब्राह्मण से पूछाः “ब्राह्मण मोची से तुम्हारा परिचय कैसे हुआ ?”

ब्राह्मण ने सारी आप बीती सुनाते हुए सिद्ध पुरुष के चश्मे वाली  आप के राज्य में पशुओं के दीदार तो बहुत हुए लेकिन मनुष्यत्व का विकास इस मोची में ही नज़र आया”

राजा ने कौतूहलवश कहाः “लाओ, वह चश्मा जरा हम भी देखें”

राजा ने चश्मा लगाकर देखा तो दरबारी वगैरह में उसे भी कोई सियार दिखा तो कोई हिरण, कोई बंदर दिखा तो कोई रीछ राजा दंग रह गया कि यह तो पशुओं का दरबार भरा पड़ा है  उसे हुआ कि ये सब पशु हैं तो मैं कौन हूँ ? उस ने आईना मँगवाया एवं उसमें अपना चेहरा देखा तो शेर  उस के आश्चर्य की सीमा न रही ‘ ये सारे जंगल के प्राणी और मैं जंगल का राजा शेर यहाँ भी इनका राजा बना बैठा हूँ ’ राजा ने कहाः “ब्राह्मणदेव योगी महाराज का यह चश्मा तो बड़ा गज़ब का है  वे योगी महाराज कहाँ होंगे ?”

ब्राह्मणः “वे तो कहीं चले गये ऐसे महापुरुष कभी-कभी ही और बड़ी कठिनाई से मिलते हैं”

श्रद्धावान ही ऐसे महापुरुषों से लाभ उठा पाते हैं, बाकी तो जो मनुष्य के चोले में पशु के समान हैं वे महापुरुष के निकट रहकर भी अपनी पशुता नहीं छोड़ पाते

ब्राह्मण ने आगे कहाः ‘राजन्  अब तो बिना चश्मे के भी मनुष्यत्व को परखा जा सकता है व्यक्ति के व्यवहार को देखकर ही पता चल सकता है कि वह किस योनि से आया है एक मेहनत करे और दूसरा उस पर हक जताये तो समझ लो कि वह सर्प योनि से आया है क्योंकि बिल खोदने की मेहनत तो चूहा करता है लेकिन सर्प उस को मारकर बिल पर अपना अधिकार जमा बैठता है”

अब इस चश्मे के बिना भी विवेक का चश्मा काम कर सकता है और दूसरे को देखें उसकी अपेक्षा स्वयं को ही देखें कि हम सर्पयोनि से आये हैं कि शेर की योनि से आये हैं या सचमुच में हम में मनुष्यता खिली है ? यदि पशुता बाकी है तो वह भी मनुष्यता में बदल सकती है कैसे ?

तुलसीदाज जी ने कहा हैः

बिगड़ी जनम अनेक की सुधरे अब और आजु

तुलसी होई राम को रामभजि तजि कुसमाजु

कुसंस्कारों को छोड़ दें… बस अपने कुसंस्कार आप निकालेंगे तो ही निकलेंगे अपने भीतर छिपे हुए पशुत्व को आप निकालेंगे तो ही निकलेगा यह भी तब संभव होगा जब आप अपने समय की कीमत समझेंगे मनुष्यत्व आये तो एक-एक पल को सार्थक किये बिना आप चुप नहीं बैठेंगे पशु अपना समय ऐसे ही गँवाता है पशुत्व के संस्कार पड़े रहेंगे तो आपका समय बिगड़ेगा अतः पशुत्व के संस्कारों को आप निकालिये एवं मनुष्यत्व के संस्कारों को उभारिये फिर सिद्धपुरुष का चश्मा नहीं, वरन् अपने विवेक का चश्मा ही कार्य करेगा।

मानवता से जो पूर्ण हो, वही मनुष्य कहलाता है।

बिन मानवता के मानव भी, पशुतुल्य रह  जाता है।
             🙏❤️🙏❤️🙏❤️🙏

रविवार, 4 अक्तूबर 2020

जब तक तुम साथ नही दोगी तब तक किसी लड़के की कोई औकात नही हैं कि वो तुम्हे किसी होटल के रूम तक ले जा सके


प्यार में ये सब कहाँ तक सही है...????

लड़के ने नम्बर मांगा आप ने दे दिया... 
लड़के ने तस्वीर मांगी आप ने दे दी...
लड़के ने वीडियो कॉल के लिए कहा आप ने कर ली...
लड़के ने दुपट्टा हटाने को कहा आप ने हटा दिया...
लड़के ने कुछ देखने की ख्वाहिश की आप ने पूरी कर दी...
लड़के ने मिलने को कहा आप माँ बाप को धोखा देकर आशिक़ से मिलने पहुंच गयीं...

लड़के ने बाग में बैठ कर आप की तारीफ़ करते हुए आपको सरसब्ज़ बाग दिखाए आपने देख लिये...
फिर जूस कार्नर पर जूस पीते वक़्त लड़के ने हाथ लगाया, इशारे किये, मगर कोई बात नहीं अब नया ज़माना है यह सब तो चलता ही है...
फिर लड़के ने होटल में कमरा लेने की बात की, आप ने शर्माते हुए इंकार कर दिया, कि शादी से पहले यह सब अच्छा तो नहीं लगता न...
फिर दो तीन बार कहने पर आप तैयार हो गयीं होटल के कमरे में जाने के लिए...

आप दोनों ने मिल कर खूब एंजॉय किया...
अंडरस्टेंडिंग के नाम पर दुल्हा दुल्हन बन गए बस बच्चा पैदा न हो इस पर ध्यान दिया...
फिर एक दिन झगड़ा हुआ और सब खत्म क्योंकि हराम रिश्तों का अंजाम कुछ ऐसा ही होता है...

लेकिन लेकिन...
यहां सरासर मर्द गलत नहीं है, वह भेड़िया है, वह मुजरिम है, वह सबकुछ है...
क्योंकि आप ने तो तस्वीर नहीं दी थी वह जबर्दस्ती आपके मोबाइल में घुस कर ले गया था...
आप ने तो अपना नम्बर नहीं दिया वह लड़का खुद आप के मोबाइल से नम्बर ले गया था...
आप ने तो वीडियो कॉल नहीं की वह लड़का खुद आप के घर पहुंच गया था आपको लाइव देखने...
जूस कार्नर पर भी जबरदस्ती ले गया था गन प्वाइंट पर...
होटल के कमरे तक भी वह आपको जबर्दस्ती आपके घर से ले गया था...

तो मुजरिम तो सिर्फ लड़का है आप तो बिल्कुल भी नहीं...
बच्ची हैं आप कोई चार साल की?
आपको समझ नहीं आती?

यह कचरे में पड़ी लाशें देख कर भी आपको अक़्ल नहीं आती?
यह बिना सर के मिलने वाले धड़ आपकी अक़्ल पर कोई चोट नहीं देते?
यह सोशल मीडिया पर आए दिन ज़्यादती के बढ़ती हुई घटना आपको कुछ नहीं बताती?
जूस कार्नर पर जाना, अपनी नंगी तस्वीर किसी गैर आदमी या लड़के को देना...
आपको नहीं पता था कि एक होटल के कमरे में या चारदीवारी में जिस्मों की प्यास बुझाई जाती है, 
सब पता था आपको, सब पता है आपको...
होटल के कमरे में मुहब्बत के अफसाने नहीं लिखे जाते,वहां कोई इबादत नही होती है

फिर शिकायत होती है के चार लड़कों ने ग्रुप रेप कर दिया... 
क्या लगता है वह आपका जो आपकी इज्ज़त का ख्याल रखे जो खुद आपको इसी मकसद के लिए लेकर जा रहा है?

अपनी सीमा में रहेंगी तो आपको कोई नुकसान नहीं पहुंचा सकता...
जिस्म के भूखो से दूर ही रहे लड़का हो या लड़की जब तक तुम साथ नही दोगी तब तक किसी लड़के की कोई औकात नही हैं कि वो तुम्हे किसी होटल के रूम तक ले जा सके।
🙏🙏🙏

https://vicharkranti24.blogspot.com/2020/10/blog-post_4.html

स्वार्थ का मतलब होता है, केवल अपने लाभ की बात सोचना, दूसरों के लाभ और भले की बात नहीं सोचना


*निस्वार्थ भाव से दान*

एक गांव पहाड़ों के बीच में बसा हुआ था। वहाँ का ठाकुर बहुत ही परोपकारी व्यक्ति था। उसके पूर्व जन्मों की सजा उस को मिली थी उस की पत्नी इस दुनिया में नहीं रही।  उसका एक बेटा था जो इस जगत को देख नहीं सकता था पर ठाकुर को उस परमात्मा पर विश्वास था कि प्रभु की कृपा से एक दिन उस का बेटा सही हो जायेगा। वह इस सोचकर पुण्य दान करता था कि कभी ना कभी तो प्रभु की कृपा होगी ही।

ऐसे ही करते कुछ साल बीत गये अब ठाकुर को चिंता होने लगी कि मेरे मरने के बाद मेरे बेटे का क्या होगा उस की चिंता दिन पर दिन खाई जा रही थी।

तभी स्वर्ग लोक मे नारद जी नारायण-नारायण बोलते हुए ब्रह्मा जी के पास जाते है और बोलते है: प्रभु ये क्या? आप कितने निर्दयी है, आप उस मानव की सहायता क्यों नहीं करते वह रोज पुण्य दान करता है।

फिर भी आप उस कष्ट दे रहे हो आप बड़े स्वार्थी हो आप को उस का दुख नहीं दिखता क्या?

तब ब्रह्मा मुस्कराए और बोले: इसमें मेरा क्या स्वार्थ है नारद मुनि?

तब नारद मुनि शिवजी के पास जाते है और वही बात शिवजी से भी करते है तब उन की बात सुनकर शिवजी हंसते लगते है और बोलते है: इंसान स्वार्थी है।

ये बात सुनकर उन्हें और गुस्सा आगया और वे वहाँ से विष्णु जी पास आए और अपनी बात बताई तब विष्णु जी बोले: जिस दिन ठाकुर निस्वार्थ पुण्य करेगा मैं उस दिन उस की परेशानी को खत्म कर दूँगा।

नारद जी बोले: प्रभु! वह रोज पूजा पाठ करता है दान करता है फिर भी आप कहते हो ये स्वार्थ है, तो इस प्रकार तो जगत में सभी स्वार्थी हैं।

तब विष्णु जी बोले: हाँ!
नारद जी बोलते है:  तो  क्या ठाकुर की परेशानी का कोई हल नहीं, उसका दान-पुण्य सब बेकार है?

विष्णु जी कहते है: जब ठाकुर निस्वार्थ काम करेगा तब सब अपने आप सही हो जायेगा।

प्रभु नारद से बोले: तुम धरती लोक पर जाओ और खुद ठाकुर की परीक्षा लो।

नारद जी धरती पर जाते है वह एक बच्चे का रूप ले लेते हैं, भूखा-नंगा सा रूप लेके ठाकुर के गाँव में पहुँच जाते है।

एक दिन ठाकुर मन्दिर जा रहे थे तभी रास्ते में उनकी नजर उस बच्चे पर पड़ी उन्होंने उस बच्चे से पूछा: बेटा कहाँ से आए हो और तुम्हारे माँ-बाप कहाँ है?

तब बच्चा बोलता है: बाबूजी! भूख लगी है कुछ दो खाने को।

ठाकुर को उस बच्चे की हालत पर तरस आता है और वह पूजा के लिए जो प्रसाद बनाया था उसे दे देते हैं। बिना पूजा किए घर लौट जाते हैं, उस बालक को भी घर ले आते हैं और उसे अपने साथ हवेली मे रहने देते हैं।

अब ठाकुर उस बालक को अपने बेटे जैसा पालने लगा इस तरह कही वर्ष बीत गए। एक दिन रात मे नारद जी ठाकुर के सामने प्रकट हुए।

बोले: ठाकुर! मैं तुम्हारी सेवा से खुश हुआ कोई एक वरदान मागो।

ठाकुर के आंखो मे आंसू आ जाते हैं और बोलता है: मै कितना स्वार्थी था। प्रभु आप नहीं जानते जिस दिन आप मुझे भूखे मिले थे सिर्फ उस दिन मेरे मन मे कोई स्वार्थ नहीं था उसी रात को मेरे बेटे की आंखो में रोशनी आ गई थी।  मैंने ये बात किसी को नहीं बताई आज भी मेरा बेटा उसी हालत मे अपने कमरे मे है।  बस मैं तो बिना स्वार्थ के आप की सेवा कर रहा था।

यह जान कर नारद बड़े हैरत मै पड गए कि आखिर ये चमत्कार किस ने किया फिर भी नारद बोले – आप मुझसे कोई वरदान मागो।

तब ठाकुर बोलता है: प्रभु! मुझे कुछ नहीं चाहिए बस आप ने मेरे घर को रोशन कर दिया है।

नारद जी वहाँ से विदा लेकर स्वर्ग लोक  आते हैं। विष्णु, शिव और ब्रह्मा जी को एक साथ देख कर हैरत में पड़ जाते हैं।  और बोलते है: प्रभु! आप ने मुझे जिस दिन धरती पर जाने को बोला उसी दिन आपने ठाकुर की इच्छा पूरी कर दी, क्या उस दिन वह स्वार्थी नहीं था।

तब विष्णु जी बोले: उस दिन जब तुम ठाकुर के पास भूखे गए थे, तब ठाकुर ने बिना स्वार्थ तुमको भोजन करवाया ये पुण्य से कम नहीं था। मै यही चाहता हूँ कि बिना स्वार्थ कोई किसी की मदद करे।

तब शिव जी बोलते है: हे मुनि! आपको तो उसी दिन उस वरदान दे देना चाहिए था जब उसने आप को भोजन करवाया था लेकिन आप ने तो वर्षों लगा दिए, क्या आप स्वार्थ से परिचित नहीं थे?

नारद मुनि बोलते है: प्रभु! आपकी माया से मै अपरिचित हूँ आप ने मुझे बोला ठाकुर की परीक्षा लो पर आप तो मेरी भी परीक्षा ले रहे थे।

तब ब्रह्मा जी बोलते है: स्वार्थ का मतलब होता है, केवल अपने लाभ की बात सोचना, दूसरों के लाभ और भले की बात नहीं सोचना, सही मायने मे वही स्वार्थी है।
             *जय जय सियाराम*

           🇳🇪जयंतु भारतीय⛳⛳⛳

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