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रविवार, 22 नवंबर 2020

गोपाष्टमी महोत्सव क्यों मनाया जाता है

*🚩गोपाष्टमी पर्व क्यों मनाया जाता है?, उस दिन हमें क्या करना चाहिए?*

*🚩 वर्ष में जिस दिन गायों की पूजा-अर्चना आदि की जाती है वह दिन भारत में ‘गोपाष्टमी’ के नाम से जाना जाता है । इस साल गोपाष्टमी 22 नवम्बर को मनाई जाएगी।*

*🚩गोपाष्टमी का इतिहास:-*

*🚩गोपाष्टमी महोत्सव गोवर्धन पर्वत से जुड़ा उत्सव है । गोवर्धन पर्वत को द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण ने कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से लेकर सप्तमी तक गाय व सभी गोप-गोपियों की रक्षा के लिए अपनी एक अंगुली पर धारण किया था । गोवर्धन पर्वत को धारण करते समय गोप-गोपिकाओं ने अपनी-अपनी लाठियों का भी टेका दे रखा था, जिसका उन्हें अहंकार हो गया कि हम लोगों ने ही गोवर्धन को धारण किया है । उनके अहं को दूर करने के लिए भगवान ने अपनी अंगुली थोड़ी तिरछी की तो पर्वत नीचे आने लगा । तब सभी ने एक साथ शरणागति की पुकार लगायी और भगवान ने पर्वत को फिर से थाम लिया ।*

*🚩उधर देवराज इन्द्र को भी अहंकार था कि मेरे प्रलयकारी मेघों की प्रचंड बौछारों को मानव श्रीकृष्ण नहीं झेल पायेंगे परंतु जब लगातार सात दिन तक प्रलयकारी वर्षा के बाद भी श्रीकृष्ण अडिग रहे, तब आठवें दिन इन्द्र की आँखें खुली और उनका अहंकार दूर हुआ । तब वे भगवान श्रीकृष्ण की शरण में आए और क्षमा मांगकर उनकी स्तुति की । कामधेनु ने भगवान का अभिषेक किया और उसी दिन से भगवान का एक नाम ‘गोविंद’ पड़ा । वह कार्तिक शुक्ल अष्टमी का दिन था । उस दिन से गोपाष्टमी का उत्सव मनाया जाने लगा, जो अब तक चला आ रहा है ।*

*🚩कैसे मनायें गोपाष्टमी पर्व ?*

*🚩इस साल 22 नवम्बर को गोपाष्टमी है उस दिन गायों को स्नान कराएं । तिलक करके पूजन करें व गोग्रास दें । गायों को अनुकूल हो ऐसे खाद्य पदार्थ खिलाएं, सात परिक्रमा व प्रार्थना करें तथा गाय की चरणरज सिर पर लगाएं । इससे मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं एवं सौभाग्य की वृद्धि होती है ।*

*🚩गोपाष्टमी के दिन सायंकाल गायें चरकर जब वापस आयें तो उस समय भी उनका आतिथ्य, अभिवादन और पंचोपचार-पूजन करके उन्हें कुछ खिलायें और उनकी चरणरज को मस्तक पर धारण करें, इससे सौभाग्य की वृद्धि होती है ।*

*🚩भारतवर्ष में गोपाष्टमी का उत्सव बड़े उल्लास से मनाया जाता है । विशेषकर गौशालाओं तथा पिंजरापोलों के लिए यह बड़े महत्त्व का उत्सव है । इस दिन गौशालाओं में एक मेला जैसा लग जाता है । गौ कीर्तन-यात्राएँ निकाली जाती हैं । यह घर-घर व गाँव-गाँव में मनाया जानेवाला उत्सव है । इस दिन गाँव-गाँव में भंडारे किये जाते हैं ।*

*🚩विश्व के लिए वरदानरूप : गोपालन*

*🚩देशी गाय का दूध, दही, घी, गोबर व गोमूत्र सम्पूर्ण मानव-जाति के लिए वरदानरूप हैं । दूध स्मरणशक्तिवर्धक, स्फूर्तिवर्धक, विटामिन्स और रोगप्रतिकारक शक्ति से भरपूर है । घी ओज-तेज प्रदान करता है । इसी प्रकार गोमूत्र कफ व वायु के रोग, पेट व यकृत (लीवर) आदि के रोग, जोड़ों के दर्द, गठिया, चर्मरोग आदि सभी रोगों के लिए एक उत्तम औषधि है । गाय के गोबर में कृमिनाशक शक्ति है । जिस घर में गोबर का लेपन होता है वहाँ हानिकारक जीवाणु प्रवेश नहीं कर सकते । पंचामृत व पंचगव्य का प्रयोग करके असाध्य रोगों से बचा जा सकता है । ये हमारे पाप-ताप भी दूर करते हैं । गाय से बहुमूल्य गोरोचन की प्राप्ति होती है ।*

*🚩देशी गाय के दर्शन एवं स्पर्श से पवित्रता आती है, पापो का नाश होता है । गोधूलि (गाय की चरणरज) का तिलक करने से भाग्य की रेखाएँ बदल जाती हैं । ‘स्कंद पुराण’ में गौ-माता में सर्व तीर्थों और सभी देवताओं का निवास बताया गया है ।*

*🚩गायों को घास देने वाले का कल्याण होता है । स्वकल्याण चाहनेवाले गृहस्थों को गौ-सेवा अवश्य करनी चाहिए क्योंकि गौ-सेवा में लगे हुए पुरुष को धन-सम्पत्ति, आरोग्य, संतान तथा मनुष्य-जीवन को सुखकर बनानेवाले सम्पूर्ण साधन सहज ही प्राप्त हो जाते हैं ।*

*🚩विशेष : ये सभी लाभ देशी गाय से ही प्राप्त होते हैं, जर्सी व होल्सटीन से नहीं ।*
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लक्ष्मी की बहिन दरिद्रा की कथा

*लक्ष्मी की बहिन दरिद्रा की कथा
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मां लक्ष्मी के परिवार में उनकी एक बड़ी बहन भी है जिसका नाम है- दरिद्रा। इस संबंध में एक पौराणिक कथा है कि इन दोनों बहनों के पास रहने का कोई निश्चित स्थान नहीं था इसलिये एक बार माँ लक्ष्मी और उनकी बड़ी बहन दरिद्रा श्री विष्णु के पास गई और उनसे बोली, जगत के पालनहार कृपया हमें रहने का स्थान दो? पीपल को विष्णु भगवान से वरदान प्राप्त था कि जो व्यक्ति शनिवार को पीपल की पूजा करेगा, उसके घर का ऐश्वर्य कभी नष्ट नहीं होगा अतः श्री विष्णु ने कहा, आप दोनों पीपल के वृक्ष पर वास करो। इस तरह वे दोनों बहनें पीपल के वृक्ष में रहने लगी। जब विष्णु भगवान ने माँ लक्ष्मी से विवाह करना चाहा तो लक्ष्मी माता ने इंकार कर दिया क्योंकि उनकी बड़ी बहन दरिद्रा का विवाह नहीं हुआ था। उनके विवाह के उपरांत ही वह श्री विष्णु से विवाह कर सकती थी। अत: उन्होंने दरिद्रा से पूछा, वो कैसा वर पाना चाहती हैं। तो वह बोली कि, वह ऐसा पति चाहती हैं जो कभी पूजा-पाठ न करे व उसे ऐसे स्थान पर रखे जहां कोई भी पूजा-पाठ न करता हो। श्री विष्णु ने उनके लिए ऋषि नामक वर चुना और दोनों विवाह सूत्र में बंध गए।
अब दरिद्रा की शर्तानुसार उन दोनों को ऐसे स्थान पर वास करना था जहां कोई भी धर्म कार्य न होता हो। ऋषि उसके लिए उसका मन भावन स्थान ढूंढने निकल पड़े लेकिन उन्हें कहीं पर भी ऐसा स्थान न मिला। दरिद्रा उनके इंतजार में विलाप करने लगी। श्री विष्णु ने पुन: लक्ष्मी के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा तो लक्ष्मी जी बोली, जब तक मेरी बहन की गृहस्थी नहीं बसती मैं विवाह नहीं करूंगी। धरती पर ऐसा कोई स्थान नहीं है। जहां कोई धर्म कार्य न होता हो। उन्होंने अपने निवास स्थान पीपल को रविवार के लिए दरिद्रा व उसके पति को दे दिया। अत: हर रविवार पीपल के नीचे देवताओं का वास न होकर दरिद्रा का वास होता है। अत: इस दिन पीपल की पूजा वर्जित मानी जाती है। पीपल को विष्णु भगवान से वरदान प्राप्त है कि जो व्यक्ति शनिवार को पीपल की पूजा करेगा, उस पर लक्ष्मी की अपार कृपा रहेगी और उसके घर का ऐश्वर्य कभी नष्ट नहीं होगा। इसी लोक विश्वास के आधार पर लोग पीपल के वृक्ष को काटने से आज भी डरते हैं, लेकिन यह भी बताया गया है कि यदि पीपल के वृक्ष को काटना बहुत जरूरी हो तो उसे रविवार को ही काटा जा सकता है।

*विशेष ,,,,,,, मेरे मतानुसार "कालाधन " जो अनैतिक अथवा भ्रष्ट " तरीकों से कमाया जाता है वह लक्ष्मी जी की बहन दरिद्रा ही है ! जो क्रय शक्ति लक्ष्मी जी की है वही दरिद्रा की है ! अंतर केवल है की नेक कमाई उसी तरह फलती फूलती है जिस प्रकार कमल की अनेक पंखुड़िआ खिलने लगाती है ! मेरे अनुभव में ये कमल की पंखुड़िआ अनेक आय के स्रोतों का उत्पन्न होना है जो नेक कमाई से ही संभव है ! दूसरी तरफ काला धन अनेक आपदाओं व् विपदाओं को उत्पन्न करने वाला होता है ! यह प्रकृति से तामसिक होने के कारण अज्ञान एवं मनोविकारों ( विषय एवं वासनाओं ) को उत्पन्न करने वाला है ! अंत में दुर्लभ मनुष्य योनि के सत्व गुणों को नष्ट कर देता है ! ज्ञान का प्रकाश शनैः शनैः समाप्त होने लगता है ! आपदा एवं विपदाए सही मोके की इंतज़ार में रहती है ! मनुष्य मूढ़ बुद्धि होने लगता है और अंत में सबकुछ यहीं छोड़ कर चला जाता है ! जबकि लक्ष्मी वान "पुण्य " की कमाई करता है और साथ ले जाता है !
अतः " देवी दारिद्रा को लक्ष्मी समझने की भूल ना करे !"

लक्ष्मी का वास परोपकारी के घर में स्थाई है !

अनैतिक एवं भ्रष्ट तरीकों से धन कमाने वाले मूढ़ प्राणी अपने घर में लक्ष्मी जी को आमंत्रित करने के स्थान पर दरिद्रा को आमंत्रित करते है जिससे कोई भी धार्मिक अनुष्ठान एवं परोपकार के कार्य संभव नहीं है या वे निष्फल और औपचारिकता मात्र होते है !

गुरुवार, 12 नवंबर 2020

धनतेरस पर वास्तु के 10 टिप्स, जानिए किस द्वार पर दीपक में क्या डालें

*🌹धनतेरस पर वास्तु के 10 टिप्स, जानिए किस द्वार पर दीपक में क्या डालें🌹*
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*⭕आपका घर या मकान किस दिशा में है और उसका मुख्य द्वार किस दिशा में है यह जानकर आप क्या खरीदे और द्वार पर कौनसा दीपक जलाएं इसके लिए आप जानिए सामान्य वास्तु टिप्स जिससे आपका धनतेरस पर लाभ मिल सकता है। निम्नलिखित टिप्स मान्यता पर आधारित हैं।*
 
*🚩1.* यदि आपके घर का मुख्‍य द्वार आग्नेय कोण में है तो आप चांदी का सामान जरूर खरीदें। क्षमता है तो हीरा भी खरीद सकते हैं और फिर द्वार पर दीपक जलाएं तो उसमें कौड़ी जरूर डालें।
 
*🚩2.* यदि आपके घर का मुख्य द्वार दक्षिण दिशा में है तो सोने या तांबे से बना सामान खरीदें। मुख्य द्वार पर दीपक जलाएं तो उसमें राईं अवश्य डालें।

*🚩3.* यदि आपके घर का मुख्‍य द्वार नैऋत्य दिशा में है तो चांदी या तांबे से बनी वस्तु खरीदें और द्वार पर दीपक जलाएं तो उसमें लौंग जरूर डालें।

*🚩4.* यदि आपके घर का मुख्‍य द्वार पश्चिम दिशा में है तो आप चांदी की वस्तुएं खरीदें और घर के मुख्य द्वार पर दीपक जलाएं तो उनमें एक किशमिश जरूर डालें।
 
*🚩5.* यदि आपके घर का मुख्‍य द्वार वायव्य कोण की दिशा में है तो चांदी या मोती खरीदें और दीपक में थोड़ी मिश्री जरूर डालें।
 
*🚩6.* यदि आपके घर का मुख्‍य द्वार उत्तर दिशा में है तो सोना खरीदें, पीतल खरीदें या लक्ष्मी-नारायण की तस्वीर जरूर खरीदें और अपने मुख्य द्वार पर जब दीपक जलाएं तो उनमें एक इलायची जरूर डालें।

*🚩7.* यदि आपके घर का मुख्‍य द्वार ईशान दिशा में है तो सोना, पीतल खरीदें या लक्ष्मी-गणेश की प्रतिमा जरूर खरीदें और जब भी मुख्‍य द्वार पर दीपक जलाएं तो उनमें एक चुटकी हल्दी जरूर डाल दें।
 
*🚩8.* यदि आपके घर का मुख्‍य द्वार पूर्व दिशा में है तो आपको सोना या तांबा खरीदना चाहिए और मुख्य द्वार पर दीपक जलाएं तो उनमें थोड़ा कुमुकुम जरूर डाल दें।
 
*🚩9.* इसके अलावा इस दिन नवीन झाडू एवं सूपड़ा खरीदकर उनका पूजन करें। यथाशक्ति तांबे, पीतल, चांदी के गृह-उपयोगी नवीन बर्तन व आभूषण क्रय करें। शुभ मुहूर्त में अपने व्यावसायिक प्रतिष्ठान में नई गादी बिछाएं अथवा पुरानी गादी को ही साफ कर पुनः स्थापित करें। पश्चात नवीन वस्त्र बिछाएं। 
 
*🚩10.* इसके अलावा मंदिर, गौशाला, नदी के घाट, कुओं, तालाब, बगीचों में भी दीपक लगाएं। तेरस के सायंकाल किसी पात्र में तिल के तेल से युक्त दीपक प्रज्वलित करें। सायंकाल पश्चात तेरह दीपक प्रज्वलित कर तिजोरी में कुबेर का पूजन करें।
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बुधवार, 11 नवंबर 2020

रमा एकादशी व्रत 11 नवंबर 2020, बुधवार को

🌷रमा एकादशी व्रत🌷
 रमा एकादशी व्रत 11 नवंबर 2020, बुधवार को रखें🙏

 रमा एकादशी कार्तिक माह की एकादशी है, जिसका महत्व अधिक माना जाता हैं। यह एकादशी कार्तिक कृष्ण पक्ष की एकादशी हैं। जैसे कार्तिक माह का महत्व होता है, वैसे ही इस ग्यारस का महत्व भी अधिक माना जाता हैं।

क्यों कहते हैं इसे रमा एकादशी
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कार्तिक का महीना भगवान विष्णु को समर्पित होता है। हालांकि भगवान विष्णु इस समय शयन कर रहे होते हैं और कार्तिक शुक्ल एकादशी को ही वे चार मास बाद जागते हैं। लेकिन कृष्ण पक्ष में जितने भी त्यौहार आते हैं उनका संबंध किसी न किसी तरीके से माता लक्ष्मी से भी होता है। दिवाली पर तो विशेष रूप से लक्ष्मी पूजन तक किया जाता है। इसलिये माता लक्ष्मी की आराधना कार्तिक कृष्ण एकादशी से ही उनके उपवास से आरंभ हो जाती है। माता लक्ष्मी का एक अन्य नाम रमा भी होता है इसलिये इस एकादशी को 'रमा एकादशी' भी कहा जाता है। 

पौराणिक ग्रंथों के अनुसार जब युद्धिष्ठर ने भगवान श्री कृष्ण से कार्तिक मास की कृष्ण एकादशी के बारे में पूछा तो भगवन ने उन्हें बताया कि इस एकादशी को रमा एकादशी कहा जाता है। इसका व्रत करने से जीवन में सुख समृद्धि और अंत में बैकुंठ की प्राप्ति होती है।

रमा एकादशी व्रत कथा:

धर्मराज युधिष्ठिर कहने लगे कि हे भगवान! कार्तिक कृष्ण एकादशी का क्या नाम है? इसकी विधि क्या है? इसके करने से क्या फल मिलता है। सो आप विस्तारपूर्वक बताइए। भगवान श्रीकृष्ण बोले कि कार्तिक कृष्ण पक्ष की एकादशी का नाम रमा है। यह बड़े-बड़े पापों का नाश करने वाली है। इसका माहात्म्य मैं तुमसे कहता हूँ, ध्यानपूर्वक सुनो।

हे राजन! प्राचीनकाल में मुचुकुंद नाम का एक राजा था। उसकी इंद्र के साथ मित्रता थी और साथ ही यम, कुबेर, वरुण और विभीषण भी उसके मित्र थे। यह राजा बड़ा धर्मात्मा, विष्णुभक्त और न्याय के साथ राज करता था। उस राजा की एक कन्या थी, जिसका नाम चंद्रभागा था। उस कन्या का विवाह चंद्रसेन के पुत्र शोभन के साथ हुआ था। एक समय वह शोभन ससुराल आया। उन्हीं दिनों जल्दी ही पुण्यदायिनी एकादशी (रमा) भी आने वाली थी।

जब व्रत का दिन समीप आ गया तो चंद्रभागा के मन में अत्यंत सोच उत्पन्न हुआ कि मेरे पति अत्यंत दुर्बल हैं और मेरे पिता की आज्ञा अति कठोर है। दशमी को राजा ने ढोल बजवाकर सारे राज्य में यह घोषणा करवा दी कि एकादशी को भोजन नहीं करना चाहिए। ढोल की घोषणा सुनते ही शोभन को अत्यंत चिंता हुई औ अपनी पत्नी से कहा कि हे प्रिये! अब क्या करना चाहिए, मैं किसी प्रकार भी भूख सहन नहीं कर सकूँगा। ऐसा उपाय बतलाओ कि जिससे मेरे प्राण बच सकें, अन्यथा मेरे प्राण अवश्य चले जाएँगे।

चंद्रभागा कहने लगी कि हे स्वामी! मेरे पिता के राज में एकादशी के दिन कोई भी भोजन नहीं करता। हाथी, घोड़ा, ऊँट, बिल्ली, गौ आदि भी तृण, अन्न, जल आदि ग्रहण नहीं कर सकते, फिर मनुष्य का तो कहना ही क्या है। यदि आप भोजन करना चाहते हैं तो किसी दूसरे स्थान पर चले जाइए, क्योंकि यदि आप यहीं रहना चाहते हैं तो आपको अवश्य व्रत करना पड़ेगा। ऐसा सुनकर शोभन कहने लगा कि हे प्रिये! मैं अवश्य व्रत करूँगा, जो भाग्य में होगा, वह देखा जाएगा।

इस प्रकार से विचार कर शोभन ने व्रत रख लिया और वह भूख व प्यास से अत्यंत पीडि़त होने लगा। जब सूर्य नारायण अस्त हो गए और रात्रि को जागरण का समय आया जो वैष्णवों को अत्यंत हर्ष देने वाला था, परंतु शोभन के लिए अत्यंत दु:खदायी हुआ। प्रात:काल होते शोभन के प्राण निकल गए। तब राजा ने सुगंधित काष्ठ से उसका दाह संस्कार करवाया। परंतु चंद्रभागा ने अपने पिता की आज्ञा से अपने शरीर को दग्ध नहीं किया और शोभन की अंत्येष्टि क्रिया के बाद अपने पिता के घर में ही रहने लगी।

रमा एकादशी के प्रभाव से शोभन को मंदराचल पर्वत पर धन-धान्य से युक्त तथा शत्रुओं से रहित एक सुंदर देवपुर प्राप्त हुआ। वह अत्यंत सुंदर रत्न और वैदुर्यमणि जटित स्वर्ण के खंभों पर निर्मित अनेक प्रकार की स्फटिक मणियों से सुशोभित भवन में बहुमूल्य वस्त्राभूषणों तथा छत्र व चँवर से विभूषित, गंधर्व और अप्सराअओं से युक्त सिंहासन पर आरूढ़ ऐसा शोभायमान होता था मानो दूसरा इंद्र विराजमान हो।

एक समय मुचुकुंद नगर में रहने वाले एक सोम शर्मा नामक ब्राह्मण तीर्थयात्रा करता हुआ घूमता-घूमता उधर जा निकला और उसने शोभन को पहचान कर कि यह तो राजा का जमाई शोभन है, उसके निकट गया। शोभन भी उसे पहचान कर अपने आसन से उठकर उसके पास आया और प्रणामादि करके कुशल प्रश्न किया। ब्राह्मण ने कहा कि राजा मुचुकुंद और आपकी पत्नी कुशल से हैं। नगर में भी सब प्रकार से कुशल हैं, परंतु हे राजन! हमें आश्चर्य हो रहा है। आप अपना वृत्तांत कहिए कि ऐसा सुंदर नगर जो न कभी देखा, न सुना, आपको कैसे प्राप्त हुआ।

तब शोभन बोला कि कार्तिक कृष्ण की रमा एकादशी का व्रत करने से मुझे यह नगर प्राप्त हुआ, परंतु यह अस्थिर है। यह स्थिर हो जाए ऐसा उपाय कीजिए। ब्राह्मण कहने लगा कि हे राजन! यह स्थिर क्यों नहीं है और कैसे स्थिर हो सकता है आप बताइए, फिर मैं अवश्यमेव वह उपाय करूँगा। मेरी इस बात को आप मिथ्या न समझिए। शोभन ने कहा कि मैंने इस व्रत को श्रद्धारहित होकर किया है। अत: यह सब कुछ अस्थिर है। यदि आप मुचुकुंद की कन्या चंद्रभागा को यह सब वृत्तांत कहें तो यह स्थिर हो सकता है।

ऐसा सुनकर उस श्रेष्ठ ब्राह्मण ने अपने नगर लौटकर चंद्रभागा से सब वृत्तांत कह सुनाया। ब्राह्मण के वचन सुनकर चंद्रभागा बड़ी प्रसन्नता से ब्राह्मण से कहने लगी कि हे ब्राह्मण! ये सब बातें आपने प्रत्यक्ष देखी हैं या स्वप्न की बातें कर रहे हैं। ब्राह्मण कहने लगा कि हे पुत्री! मैंने महावन में तुम्हारे पति को प्रत्यक्ष देखा है। साथ ही किसी से विजय न हो ऐसा देवताओं के नगर के समान उनका नगर भी देखा है। उन्होंने यह भी कहा कि यह स्थिर नहीं है। जिस प्रकार वह स्थिर रह सके सो उपाय करना चाहिए।

चंद्रभागा कहने लगी हे विप्र! तुम मुझे वहाँ ले चलो, मुझे पतिदेव के दर्शन की तीव्र लालसा है। मैं अपने किए हुए पुण्य से उस नगर को स्थिर बना दूँगी। आप ऐसा कार्य कीजिए जिससे उनका हमारा संयोग हो क्योंकि वियोगी को मिला देना महान पु्ण्य है। सोम शर्मा यह बात सुनकर चंद्रभागा को लेकर मंदराचल पर्वत के समीप वामदेव ऋषि के आश्रम पर गया। वामदेवजी ने सारी बात सुनकर वेद मंत्रों के उच्चारण से चंद्रभागा का अभिषेक कर दिया। तब ऋषि के मंत्र के प्रभाव और एकादशी के व्रत से चंद्रभागा का शरीर दिव्य हो गया और वह दिव्य गति को प्राप्त हुई।

इसके बाद बड़ी प्रसन्नता के साथ अपने पति के निकट गई। अपनी प्रिय पत्नी को आते देखकर शोभन अति प्रसन्न हुआ। और उसे बुलाकर अपनी बाईं तरफ बिठा लिया। चंद्रभागा कहने लगी कि हे प्राणनाथ! आप मेरे पुण्य को ग्रहण कीजिए। अपने पिता के घर जब मैं आठ वर्ष की थी तब से विधिपूर्वक एकादशी के व्रत को श्रद्धापूर्वक करती आ रही हूँ। इस पुण्य के प्रताप से आपका यह नगर स्थिर हो जाएगा तथा समस्त कर्मों से युक्त होकर प्रलय के अंत तक रहेगा। इस प्रकार चंद्रभागा ने दिव्य आभू‍षणों और वस्त्रों से सुसज्जित होकर अपने पति के साथ आनंदपूर्वक रहने लगी।

हे राजन! यह मैंने रमा एकादशी का माहात्म्य कहा है, जो मनुष्य इस व्रत को करते हैं, उनके ब्रह्महत्यादि समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष दोनों की एका‍दशियाँ समान हैं, इनमें कोई भेदभाव नहीं है। दोनों समान फल देती हैं। जो मनुष्य इस माहात्म्य को पढ़ते अथवा सुनते हैं, वे समस्त पापों से छूटकर विष्णुलोक को प्राप्त होता हैं। इति शुभम्। == उद्देश्य ==कार्तिक मास में तो प्रात: सूर्योदय से पूर्व उठने, स्नान करने और दानादि करने का विधान है। इसी कारण प्रात: उठकर केवल स्नान करने मात्र से ही मनुष्य को जहां कई हजार यज्ञ करने का फल मिलता है, वहीं इस मास में किए गए किसी भी व्रत का पुण्यफल हजारों गुणा अधिक है। 

रमा एकादशी व्रत में भगवान विष्णु के पूर्णावतार भगवान जी के केशव रूप की विधिवत धूप, दीप, नैवेद्य, पुष्प एवं मौसम के फलों से पूजा की जाती है।

व्रत में एक समय फलाहार करना चाहिए तथा अपना अधिक से अधिक समय प्रभु भक्ति एवं हरिनाम संकीर्तन में बिताना चाहिए। शास्त्रों में विष्णुप्रिया तुलसी की महिमा अधिक है इसलिए व्रत में तुलसी पूजन करना और तुलसी की परिक्रमा करना अति उत्तम है। ऐसा करने वाले भक्तों पर प्रभु अपार कृपा करते हैं जिससे उनकी सभी मनोकामनाएं सहज ही पूरी हो जाती हैं।

वैसे तो किसी भी व्रत में श्रद्धा और आस्था का होना अति आवश्यक है परंतु भगवान सदा ही अपने भक्तों के पापों का नाश करने वाले हैं इसलिए कोई भी भक्त यदि अनायास ही कोई शुभ कर्म करता है तो प्रभु उससे भी प्रसन्न होकर उसके किए पापों से उसे मुक्त करके उसका उद्धार कर देते हैं। जो भक्त प्रभु की भक्ति श्रद्धा और आस्था के साथ करते हैं उनके सभी कष्टों का निवारण प्रभु अवश्य करते हैं क्योंकि इस दिन किए गए पुण्य कर्म में श्रद्धा, भक्ति एवं आस्था से ही मनुष्य को स्थिर पुण्य फल की प्राप्ति हो सकेगी।

🙏ओम नमो नारायणाय 🙏
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बुधवार, 28 अक्तूबर 2020

मार्च 1679 ई0 की बात है, ठाकुर सुजान सिंह अपनी शादी की बारात लेकर जा रहे थे

#रोंगटे खड़े कर देने वाली घटना "" 
7 मार्च 1679 ई0 की बात है, ठाकुर सुजान सिंह अपनी शादी की बारात लेकर जा रहे थे, 22 वर्ष के सुजान सिंह किसी देवता की तरह लग रहे थे, 
ऐसा लग रहा था मानो देवता अपनी बारात लेकर जा रहे हों 

उन्होंने अपने दुल्हन का मुख भी नहीं देखा था, शाम हो चुकी थी इसलिए रात्रि विश्राम के लिए "छापोली" में पड़ाव डाल दिये । कुछ ही क्षणों में उन्हें गायों में लगे घुंघरुओं की आवाजें सुनाई देने लगी, आवाजें स्पष्ट नहीं थीं, फिर भी वे सुनने का प्रयास कर रहे थे, मानो वो आवाजें उनसे कुछ कह रही थी । 

सुजान सिंह ने अपने लोगों से कहा, शायद ये चरवाहों की आवाज है जरा सुनो वे क्या कहना चाहते हैं । 
गुप्तचरों ने सूचना दी कि युवराज ये लोग कह रहे है कि कोई फौज "देवड़े" पर आई है। वे चौंक पड़े । कैसी फौज, किसकी फौज, किस मंदिर पे आयी है ? 

जवाब आया "युवराज ये औरंगजेब की बहुत ही विशाल सेना है, जिसका सेनापति दराबखान है, जो खंडेला के बाहर पड़ाव डाल रखी है । 
कल खंडेला स्थित श्रीकृष्ण मंदिर को तोड़ दिया जाएगा । निर्णय हो चुका था,

 एक ही पल में सब कुछ बदल गया । शादी के खुशनुमा चहरे अचानक सख्त हो चुके थे, कोमल शरीर वज्र के समान कठोर हो चुका था । 
जो बाराती थे, वे सेना में तब्दील हो चुके थे, वे अपने सेना के लोगों से विचार विमर्श करने लगे । तब उनको पता चला कि उनके साथ सिर्फ 70 सेना थी ।
 तब वे रात्रि के समय में बिना एक पल गंवाए उन्होंने पास के गांव से कुछ आदमी इकठ्ठे कर लिए । 
करीब 500 घुड़सवार अब उनके पास हो चुके थे, 

अचानक उन्हें अपनी पत्नी की याद आयी, जिसका मुख भी वे नहीं देख पाए थे, जो डोली में बैठी हुई थी । क्या बीतेगी उसपे, जिसने अपनी लाल जोड़े भी ठीक से नहीं देखी हो । 

वे तरह तरह के विचारों में खोए हुए थे, तभी उनके कानों में अपनी माँ को दिए वचन याद आये, जिसमें उन्होंने राजपूती धर्म को ना छोड़ने का वचन दिया था, उनकी पत्नी भी सारी बातों को समझ चुकी थी, डोली के तरफ उनकी नजर गयी, उनकी पत्नी महँदी वाली हाथों को निकालकर इशारा कर रही थी । मुख पे प्रसन्नता के भाव थे, वो एक सच्ची क्षत्राणी के कर्तब्य निभा रही थी, मानो वो खुद तलवार लेकर दुश्मन पे टूट पड़ना चाहती थी, परंतु ऐसा नहीं हो सकता था । 
सुजान सिंह ने डोली के पास जाकर डोली को और अपनी पत्नी को प्रणाम किये और कहारों और नाई को डोली सुरक्षित अपने राज्य भेज देने का आदेश दे दिया और खुद खंडेला को घेरकर उसकी चौकसी करने लगे । 

लोग कहते हैं कि मानो खुद कृष्ण उस मंदिर की चौकसी कर रहे थे, उनका मुखड़ा भी श्रीकृष्ण की ही तरह चमक रहा था।
8 मार्च 1679 को दराबखान की सेना आमने सामने आ चुकी थी, महाकाल भक्त सुजान सिंह ने अपने इष्टदेव को याद किये और हर हर महादेव के जयघोष के साथ 10 हजार की मुगल सेना के साथ सुजान सिंह के 500 लोगो के बीच घनघोर युद्ध आरम्भ हो गया । 

सुजान सिंह ने दराबखान को मारने के लिए उसकी ओर लपके और 40 मुगल सेना को मौत के घाट उतार दिए । ऐसे पराक्रम को देखकर दराबखान पीछे हटने में ही भलाई समझी, लेकिन ठाकुर सुजान सिंह रुकनेवाले नहीं थे ।
 जो भी उनके सामने आ रहा था वो मारा जा रहा था । सुजान सिंह साक्षात मृत्यु का रूप धारण करके युद्ध कर रहे थे । ऐसा लग रहा था मानो खुद महाकाल ही युद्ध कर रहे हों । 
इस बीच कुछ लोगों की नजर सुजान सिंह पे पड़ी, 
लेकिन ये क्या सुजान सिंह के शरीर में सिर तो है ही नहीं... 
😭😭😭😭😭😭
लोगों को घोर आश्चर्य हुआ, लेकिन उनके अपने लोगों को ये समझते देर नहीं लगी कि सुजान सिंह तो कब के मोक्ष को प्राप्त कर चुके हैं । 
ये जो युद्ध कर रहे हैं, वे सुजान सिंह के इष्टदेव हैं । सबों ने मन ही मन अपना शीश झुककर इष्टदेव को प्रणाम किये । 

अब दराबखान मारा जा चुका था, मुगल सेना भाग रही थी, लेकिन ये क्या, सुजान सिंह घोड़े पे सवार बिना सिर के ही मुगलों का संहार कर रहे थे । 
उस युद्धभूमि में मृत्यु का ऐसा तांडव हुआ, जिसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मुगलों की 7 हजार सेना अकेले सुजान सिंह के हाथों मारी जा चुकी थी । जब मुगल की बची खुची सेना पूर्ण रूप से भाग गई, तब सुजान सिंह जो सिर्फ शरीर मात्र थे, मंदिर का रुख किये । 

इतिहासकार कहते हैं कि देखनेवालों को सुजान के शरीर से दिव्य प्रकाश का तेज निकल रहा था, एक अजीब विश्मित करनेवाला प्रकाश निकल रहा था, जिसमें सूर्य की रोशनी भी मन्द पड़ रही थी ।

 ये देखकर उनके अपने लोग भी घबरा गए थे और सबों ने एक साथ श्रीकृष्ण की स्तुति करने लगे, घोड़े से नीचे उतरने के बाद सुजान सिंह का शरीर मंदिर के प्रतिमा के सामने जाकर लुढ़क गया और एक शूरवीर योद्धा का अंत हो गया ।

🚩🚩🙏🙏माँ भारती के इस शूरवीर योद्धा को कोटि-कोटि नमन 🚩🚩🙏🙏

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