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बुधवार, 23 जून 2021

राजस्थान का इतिहास गर्व से लबरेज और यहाँ का जीवन सबसे शुद्ध हैं..!

राजस्थानी लोगों को छोड़कर शेष दुनिया को लगता है कि राजस्थान में पानी नहीं है और यहाँ खून सस्ता व पानी महँगा हैं...
जबकि यहाँ सबसे शुद्धता वाला पानी जमीन में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है।

राजस्थान के लोगों को पूरे विश्व में सबसे बड़े कंजूस कृपण समझा जाता है...
जबकि पूरे भारत के 95% बड़े उद्योगपति राजस्थान के हैं, राममंदिर के लिए सबसे ज्यादा धन राजस्थान से मिला है... 
राममंदिर निर्माण में उपयोग होने वाला पत्थर भी राजस्थान का ही है..!

राजस्थान के लोगों के बारे में दुनिया समझती है ये प्याज और मिर्च के साथ रोटी खाने वाले लोग हैं...
जबकि पूरे विश्व मे सर्वोत्तम और सबसे शुद्ध भोजन परम्परा राजस्थान की हैं... 
पूरे विश्व मे सबसे ज्यादा देशी घी की खपत राजस्थान में होती हैं,
यहाँ का बाजरा विश्व के सबसे पौष्टिक अनाज का खिताब लिये हुए है..!

राजस्थानी लोगों को छोड़कर शेष दुनिया को लगता है कि राजस्थान के लोग छप्पर और झौपड़ियों में रहते हैं इन्हें पक्के मकानों की जानकारी कम हैं...
जबकि यहाँ के किले,इमारतें और उन पर अद्भुत नक्काशी विश्व में दूसरी जगह कहीं नही हैं... 
यहाँ अजेय किले और हवेलियाँ हजारों वर्ष पुरानी हैं...
मकराना का मार्बल,जोधपुर व जैसलमेर का पत्थर अपनी अनूठी खूबसूरती के कारण विश्व प्रसिद्ध हैं !
राजस्थान में चीन की दीवार जैसी ही दूसरी उससे मजबूत दीवार भी है जिसे दुनिया में पहचान नहीं मिली..!

राजस्थानी लोगों को छोड़कर शेष दुनिया को लगता है कि राजस्थान में कुछ भी नहीं... 
जबकि यहाँ पेट्रोलियम का अथाह भंडार मिला है... गैसों का अथाह भंडार मिला है... 
यहाँ कोयले का अथाह भंडार मिला है..!

अकेले राजस्थान में यहाँ की औरतों के पास का सोना इक्ठ्ठा किया जाए तो शेष भारत की औरतों से ज्यादा सोना होगा।
सबसे ज्यादा सोने की बिक्री भी राजस्थान के जोधपुर में होती हैं !

राजस्थान के जलवायु के बारे में दुनिया समझती है यहाँ बंजर भूमि और रेतीले टीले हैं जहाँ आँधियाँ चलती रहती है...
जबकि राजस्थान में कई झीलें ,झरने और अरावली पर्वतमाला के साथ रणथम्भौर पर्वतीय शिखर हैं जो विश्व के टॉप टूरिज्म पैलेस हैं, 
इसके अलावा राजस्थान में झीलों से निकला नमक शेष भारत में 80% नमक की आपूर्ति करता है जो 100%शुद्ध प्राकृतिक नमक हैं,

इसके अलावा भी बहुत सारी ऐसी बातें हैं जिन्हें दुनिया नहीं जानती और यह सब बॉलीवुड की वजह से राजस्थान का नकारात्मक चरित्र गढ़ा गया जिसे दुनियाभर में सच समझा गया..!

राजस्थान में बहन को प्यार से 'बाईसा' कहा जाता है,
यहाँ चार बाईसा हुई जिन्हें हर राजस्थानी बाईसा कहकर ही सम्बोधित करते हैं...
मीरां बाई, करमा बाई, सुगना बाई, नानी बाई और  मीरां ने ईश्वर को प्रेम भक्ति से ऐसा वशीभूत किया कि ईश्वर को आना पड़ा...!
करमा बाई ने निष्ठा भक्ति से ईश्वर को ऐसा अभिभूत किया कि ईश्वर को करमा के हाथ से खाना पड़ा...।
सुगना बाई ने राजस्थान की पीहर और ससुराल परम्परा का ऐसा अनूठा स्त्रीत्व भक्ति पालन किया कि ईश्वर को उनका उद्गार सुनना पड़ा
और नानी बाई ने ईश्वर की ऐसी विश्वास भक्ति की की ईश्वर को उनके घर आना पड़ा। 
ये सब इसी युग में वर्तमान में हुआ जिनकी भक्ति आस्था और निष्ठा को राजस्थान के हर मंच से गाया जाता है...
नारी भक्ति का ऐसा उदाहरण शेष विश्व में और कहीं नही।

यहाँ राजस्थान की बलुई मिट्टी पूनम की रात में कुंदन की तरह चमककर स्वर्ण का आभास कराती हैं... 
इन्ही पहाड़ो की वजह से इसे 'मरुधरा' कहा जाता है..!
राजस्थान का इतिहास गर्व से लबरेज और यहाँ का जीवन सबसे शुद्ध हैं..!
कण कण वंदनीय और गाँव- गाँव एक इतिहास में दर्ज कहानियों पर खड़ा है..!✍️आनंद के चर्मोत्कर्ष पर *🙏🙏*

कुत्ता 🐶पालने वाले हिन्दू, हिन्दुत्व की निम्न बातों को ध्यान में रखते हुए कुत्तों से दूर रहें

*कुत्ता 🐶पालने वाले हिन्दू,  हिन्दुत्व की निम्न बातों को ध्यान में रखते हुए कुत्तों से दूर रहें* 
*1. जिसके घर में कुत्ता🐕 होता है  उसके यहाँ देवता हविष्य (भोजन) ग्रहण नहीं करते ।*

2. यदि कुत्ता घर में हो और किसी का देहांत हो जाए तो देवताओं तक पहुँचने वाली वस्तुएं देवता स्वीकार नहीं करते, अत: यह मुक्ति में बाधा हो सकता है ।

3. कुत्ते के छू जाने पर द्विजों के यज्ञोपवीत खंडित हो जाते हैं, अत: धर्मानुसार कुत्ता पालने वालों के यहाँ ब्राह्मणों को नहीं जाना चाहिए ।

4. कुत्ते के सूंघने मात्र से प्रायश्चित्त का विधान है, कुत्ता यदि हमें सूंघ ले तो हम अपवित्र हो जाते हैं ।

5. कुत्ता किसी भी वर्ण के यहाँ पालने का विधान नहीं है, कुत्ता प्रतिलोमाज वर्ण संकरों (अत्यंत नीच जाति जो कुत्ते का मांस तक खाती है) के यहाँ ही पलने योग्य है ।

6. और तो और अन्य वर्ण यदि कुत्ता पालते हैं तो वे भी उसी नीचता को प्राप्त हो जाते हैं।

7. कुत्ते की दृष्टि जिस भोजन पर पड़ जाती है वह भोजन खाने योग्य नहीं रह जाता। और यही कारण है कि जहाँ कुत्ता पला हो वहाँ  जाना  नहीं चाहिए ।

उपरोक्त सभी बातें शास्त्रीय हैं, अन्यथा ना लें,ये कपोल कल्पित बातें नहीं है।

*इस विषय पर कुतर्क करने वाला व्यक्ति यह भी स्मरण रखे कि...
         
*कुत्ते के साथ व्यवहार के कारण तो युधिष्ठिर को भी स्वर्ग के बाहर ही रोक दिया गया था।

घर मे कुत्ता पालने का शास्त्रीय शंका समाधान!!!!!!

महाभारत में महाप्रस्थानिक/स्वर्गारोहण पर्व का अंतिम अध्याय,
इंद्र ,धर्मराज और युधिष्ठिर संवाद में इस बात का उल्लेख है।

जब युधिष्ठिर ने पूछा कि मेरे साथ साथ यंहा तक आने वाले इस कुत्ते को मैं अपने साथ स्वर्ग क्यो नही ले जा सकता, तब इंद्र ने कहा।         

इंद्र उवाच!!!!!!!
           ⬇️
हे राजन कुत्ता पालने वाले के लिए स्वर्ग में स्थान नही है ! ऐसे व्यक्तियों का स्वर्ग में प्रवेश वर्जित है। कुत्ते से पालित घर मे किये गए यज्ञ,और पुण्य कर्म के फल को क्रोधवश नामक राक्षस उसका हरण कर लेते है और तो और उस घर के व्यक्ति जो कोई दान, पुण्य, स्वाध्याय, हवन और कुवा बावड़ी इत्यादि बनाने के जो भी पुण्य फल इकट्ठा होता है, वह सब घर में कुत्ते की उपस्थित और उसकी दृष्टि पड़ने मात्र से निष्फल हो जाता है ।

 इसलिए कुत्ते का घर मेपालना निषिद्ध और वर्जित है।

  कुत्ते का संरक्षण होना चाहिए ,उसे भोजन देना चाहिए, घर की रोज की एक रोटी पे कुत्ते का अधिकार है! इस पशु को कभी प्रताड़ित नहीं करना चाहिए और दूर से ही इसकी सेवा करनी चाहिए परंतु घर के बाहर, घर के अंदर नहीं।
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार अवारा कुत्तों को दूध रोटी डालने से राहु,केतु शांत होते हैं व जातक की परेशानी दूर होती है!
 यह शास्त्र मत है।

अतिथि और गाय,घर के अंदर
कुत्ता, कौवा, चींटी घर के बाहर, ही फलदाई होते हैं।

यह लेख शास्त्र और धर्मावलंबियों के लिए है। आधुनिक विचारधारा के लोग इससे सहमत या असहमत होने के लिए बाध्य नहीं है। इसलिए उन लोगो से अनुरोध है कि इस पोस्ट पे फालतू की कमेंट न करने की कृपा करें।
                
गाय, बूढ़े मातापिता,क्रमशः दिल, घर, शहर से निकलते हुए।गौशालाओं व वृध्दाश्रम मे पहुंच गए,और कुत्ते,घर के बाहर से घर, सोफे, बिस्तर से होते हुए दिल मे पहुंच गए,यही सांस्कृतिक पतन हैं।

साभार संकलन -
सनातन सेवा समिति!

तिरुपति बालाजी को गोविंदा क्यों कहते है

तिरुपति बालाजी को गोविंदा क्यों कहते है

यह एक अत्यंत रोचक घटना है
माँ महालक्ष्मी की खोज में भगवान विष्णु जब भूलोक पर आए, तब यह सुंदर घटना घटी। भूलोक में प्रवेश करते ही उन्हें भूख एवं प्यास मानवीय गुण प्राप्त हुए।

भगवान श्रीनिवास ऋषि अगस्त्य के आश्रम में गए और बोले, "मुनिवर मैं एक विशिष्ट मुहिम से भूलोक पर (पृथ्वी) पर आया हूँ और कलयुग का अंत होने तक यहीं रहूंगा। मुझे गाय का दूध अत्यंत पसंद है। और और मुझे अन्न के रूप में उसकी आवश्यकता है। मैं जानता हूँ कि आपके पास एक बड़ी गौशाला है, उसमें अनेक गाएँ हैं, मुझे आप एक गाय दे सकते हैं क्या?"

ऋषि अगस्त्य हँसे और कहने लगे, "स्वामी मुझे पता है कि आप श्रीनिवास के मानव स्वरूप में, श्रीविष्णु हैं। मुझे अत्यंत आनंद है कि इस विश्व के निर्माता और शासक स्वयं मेरे आश्रम में आए हैं। मुझे यह भी पता है की आपने मेरी भक्ति की परीक्षा लेने के लिए यह मार्ग अपनाया है। फिर भी स्वामी, मेरी एक शर्त है कि मेरी गौशाला की पवित्र गाय केवल ऐसे व्यक्ति को मिलनी चाहिए जो उसकी पत्नी संग यहाँ आए। मुझे आप को उपहार स्वरूप गाय देना अच्छा लगेगा, परंतु जब आप मेरे आश्रम में देवी लक्ष्मी संग आइएगा और गौदान देने के लिए पूछेंगे, तभी मैं ऐसा कर पाऊँगा।"

भगवान श्रीनिवास हँसे और बोले ठीक है मुनिवर, "तुम्हें जो चाहिए वह मैं करूँगा," ऐसा कहकर वे वापस चले गए।

बाद में भगवान श्रीनिवास ने देवी पद्मावती से विवाह किया।

विवाह के कुछ दिन पश्चात भगवान श्रीनिवास पत्नी दिव्य पत्नी पद्मावती के साथ ऋषि अगस्त्य महामुनि के आश्रम में आए पर उस वक्त ऋषि आश्रम में नहीं थे।

भगवान श्रीनिवासन से उनके शिष्यों ने पूछा, "आप कौन हैं और हम आपके लिए क्या कर सकते हैं?"

प्रभु ने उत्तर दिया, "मेरा नाम श्रीनिवासन है और यह मेरी पत्नी पद्मावती है। आपके आचार्य को मैंने मेरी रोज की आवश्यकता के लिए एक गाय दान करने के लिए कहा था परंतु उन्होंने कहा था कि पत्नी के साथ आकर दान मांगेंगे तभी मैं गाय दान दूंगा। यह आपके आचार्य की शर्त थी इसीलिए मैं अब पत्नी संग आया हूँ।"

शिष्यों ने विनम्रता से कहा, "हमारे आचार्य आश्रम में नहीं है इसीलिए कृपया आप गाय लेने के लिए बाद में आइये।"

श्रीनिवासन हंँसे और कहने लगे, "मैं आपकी बात से सहमत हूंँ, परंतु मैं संपूर्ण जगत का सर्वोच्च शासक हूंँ, इसीलिए आप सभी शिष्यगण मुझ पर विश्वास रख सकते हैं और मुझे एक गाय दे सकते हैं, मैं फिर से नहीं आ सकता।"

शिष्यों ने कहा, "निश्चित रूप से आप धरती के शासक हैं बल्कि यह संपूर्ण विश्व भी आपका ही है परंतु हमारे दिव्य आचार्य हमारे लिए सर्वोच्च हैं और उनकी आज्ञा के बिना हम कोई भी काम नहीं कर सकते।"

धीरे-धीरे हंसते हुए भगवान कहने लगे, "आपके आचार्य का आदर करता हूँ। कृपया वापस आने पर आचार्य को बताइए कि मैं सपत्नीक आया था।" ऐसा कहकर भगवान श्रीनिवासन तिरुमाला की दिशा में जाने लगे।

कुछ मिनटों में ऋषि अगस्त्य आश्रम में वापस आए, और जब उन्हें इस बात का पता लगा तो वे अत्यंत निराश हुए और इस प्रकार कथन किया, "श्रीमन नारायण स्वयं माँ लक्ष्मी के संग मेरे आश्रम में आए थे। दुर्भाग्यवश मेैं आश्रम में नहीं था, यह तो बड़ा अनर्थ हुआ। फिर भी कोई बात नहीं प्रभु को जो गाय चाहिए थी वह तो देना ही चाहिए।"

ऋषि तुरंत गौशाला में दाखिल हुए और एक पवित्र गाय लेकर भगवान श्रीनिवास और देवी पद्मावती की दिशा में भागते हुए निकले। थोड़ी दूरी पर श्रीनिवास एवं पत्नी पद्मावती उन्हें नजर आए।

उनके पीछे भागते हुए ऋषि तेलुगु भाषा में पुकारने लगे, "स्वामी (देवा) गोवु (गाय) इंदा (ले जाओ), स्वामी, गोवु इंदा... स्वामी, गोवु इंदा... स्वामी, गोवु इंदा... स्वामी, गोवु इंदा... (स्वामी गाय ले जाइए)..।"

कई बार पुकारने के पश्चात भी भगवान ने नहीं देखा, इधर मुनि ने अपनी गति बढ़ाई और स्वामी ने पुकारे हुए शब्दों को सुनना शुरू किया।

भगवान की लीला उन शब्दों का रूपांतर क्या हो गया। स्वामी गोविंदा, स्वामी गोविंदा, स्वामी गोविंदा, गोविंदा गोविंदा गोविंदा!!

ऋषि के बार बार पुकारने के पश्चात भगवान श्रीनिवास वेंकटेश्वर एवं देवी पद्मावती वापिस मुड़े और ऋषि से पवित्र गाय स्वीकार की ।

प्रभु बोले, "मुनिवर तुमने ज्ञात अथवा अज्ञात अवस्था में मेरे सबसे प्रिय नाम गोविंदा को 108 बार बोल दिया है। कलयुग के अंत तक पवित्र सप्त पहाड़ियों पर मूर्ति के रूप में भूलोक पर रहूँगा और मुझे मेरे सभी भक्त "गोविंदा" नाम से पुकारेंगे। भक्त पहाड़ी पर चढ़ते हुए अथवा मंदिर में मेरे सामने मुझे गोविंदा नाम से पुकारेंगे। मुनिराज कृपया ध्यान दीजिए, हर समय मुझे इस नाम से पुकारे जाते वक्त आपको भी स्मरण किया जाएगा क्योंकि इस प्रेम भरे नाम का कारण आप हैं। यदि किसी भी कारणवश कोई भक्त मंदिर में आने में असमर्थ रहेगा और मेरे गोविंदा नाम का स्मरण करेगा। तब उसकी सारी आवश्यकता मैं पूरी करूँगा। सात पहाड़ियों पर चढ़ते हुए जो गोविंदा नाम को पुकारेगा उन सभी श्रद्धालुओं को मैं मोक्ष दूंगा।"

*गोविंदा हरि गोविन्दा वेंकटरमणा गोविंदा, श्रीनिवासा गोविन्दा वेंकटरमणा गोविन्दा!!*

*चलने वाले पैरों में कितना फर्क है‚ एक आगे तो एक पीछे‚*

*पर न तो आगे वाले कोʺअभिमान‘ है और ना पीछे वाले को ʺअपमान‘*।

*क्योंकि उन्हें पता होता है कि पलभर में ये बदलने वाला होता है। इसी को जिन्दगी कहते हैं*।......

सोमवार, 21 जून 2021

जोधपुर में महेश नवमी महोत्सव 2021 में कई आकर्षक कार्यक्रम ऑनलाइन एवं ऑफलाइन किए गये

जय महेश , 
आप सभी महानुभवों को महेश नवमी की हार्दिक बधाई व अनंत शुभकामनाएं..💐🙏🏻

महेश नवमी के पावन उत्सव पर सम्पूर्ण भारत में युवा साथियों द्वारा कई  आकर्षक कार्यक्रम किए गए 

*महेश नवमी महोत्सव 2021*


:- भगवान महेश की पुजा- अर्चना एवं अभिषेक

:- भगवान महेश को भोग लगाकर महेश भोग (महाप्रसाद) का सम्पूर्ण माहेश्वरी समाज में वितरण 

एवं कोरोना से बचाव के लिए समाज के संपूर्ण परिवारों में मास्क का वितरण  
इसके अलावा महेश नवमी सप्ताह में माहेश्वरी समाज द्वारा विभिन्न प्रकार के कार्यक्रम जिसमे  रंगोली प्रतियोगिता (महेश नवमी पर अपने घर आंगन में), पौधारोपण के साथ सेल्फी, रक्तदान शिविर, कोविड टीकाकरण जागरूकता एवं टीकाकरण शिविर में सहयोग, एक शाम भगवान महेश के नाम , योग प्रशिक्षण शिविर,  स्वास्थ्य, कोविड, संस्कार एवं व्यापार संबंधित ऑनलाइन वेबिनार कार्यक्रम, गणित/विज्ञान/धार्मिक प्रश्नोत्तरी एवं प्रतियोगिता ऑनलाइन, ऑनलाइन तंबोला निशुल्क , ऑनलाइन शतरंज प्रतियोगिता,  निबंध प्रतियोगिता ऑनलाइन, गीता श्लोक संबंधित कार्यक्रम, भगवान महेश के ऊपर कोई भी गीत-भजन-गाने की प्रतियोगिता आदि का आयोजन सफलतापूर्वक किया गया 
इसी कड़ी में एक छोटा सा प्रयास *जोधपुर जिला माहेश्वरी युवा संगठन* के साथ मिलकर *पश्चिमी राजस्थान प्रादेशिक माहेश्वरी युवा संगठन* द्वारा भी किया गया जिसमें जोधपुर क़े लगभग सभी *माहेश्वरी परिवारों* तक युवा साथियों द्वारा महेश नवमी के पावन पर्व पर कोरोना महामारी को देखते हुए इसके बचाव हेतु 5000*मास्क* का वितरण किया गया ! 
मास्क के साथ मात्र 2 दिनो में जोधपुर के लगभग 170 युवा साथियों के सहयोग से हमारे आराध्य देव भगवान महेश के भोग लगा  *1151 किलो महाप्रसाद( महेश भोग )* का वितरण भी समाज के 4600 परिवारों तक घर घर जाकर पहुँचाने का प्रयास किया गया एवं उन्हें युवा संगठन के कार्यो से अवगत करवाया गया । 


चुकी सम्पूर्ण पश्चिमी राजस्थान प्रदेश मे जोधपुर महानगर सबसे बड़ा इलाक़ा है इसलिए *प्रथम चरण* में जोधपुर जिला माहेश्वरी युवा संगठन के सहयोग से प्रादेशिक माहेश्वरी युवा संगठन द्वारा यहाँ के सभी परिवारों तक पहुँचने के लिए ये कार्य किया गया ताकी हर घर तक युवा संगठन पहुँच सके ओर समाज हित के क़ार्य कर सके । 

अगले चरण में किसी ओर रूप के साथ सम्पूर्ण प्रदेश के माहेश्वरी परिवारों तक पहुँचने के लिए संगठन द्वारा कार्य किया जाएगा । 

उसके लिए सभी युवा साथियों का दिल से धन्यवाद । 
साभार  *दिनेश राठी* अध्यक्ष
एवं समस्त *पश्चिमी राजस्थान प्रादेशिक माहेश्वरी युवा संगठन*


जानिए कलयुग क्या है?

मित्रो आज हम आपको कलयुग के गुण और अवगुण बतायेंगे, रामचरितमानस के उत्तरकांड में गोस्वामी तुलसीदास जी ने कलयुग का बहुत सटीक वर्णन किया है, लेकिन इससे पहले जानिए कलयुग क्या है?

कलयुग क्या है ? 

कलयुग का सीधा सा अर्थ है कलह। जहाँ भी कलह है वहां पर कलयुग है। जब भगवान श्री कृष्ण जी अपनी लीला करके अपने लोक में चले गए थे उसी समय से द्वापर युग खत्म हो गया था और कलयुग का आगमन हो गया है।

कलयुग कितने साल का है। हमारे शास्त्रों में बताया गया है की कलयुग 4,32,000 वर्ष तक रहेगा। जिसकी गणना इस प्रकार की गई है।

पुराण के मुताबिक मानव का एक वर्ष देवताओं के एक अहोरात्र यानी दिन-रात के बराबर है। जिसमें उत्तरायण दिन व दक्षिणायन रात मानी जाती है। दरअसल, एक सूर्य संक्रान्ति से दूसरी सूर्य संक्रान्ति की अवधि सौर मास कहलाती है। मानव गणना के ऐसे 12 सौर मासों का 1 सौर वर्ष ही देवताओं का एक अहोरात्र होता है। ऐसे ही 30 अहोरात्र, देवताओं के एक माह और 12 मास एक दिव्य वर्ष कहलाता है।

देवताओं के इन दिव्य वर्षो के आधार पर चार युगों की मानव सौर वर्षों में अवधि इस तरह है,

सतयुग 4800 (दिव्य वर्ष) 17,28,000 (सौर वर्ष)
त्रेतायुग 3600 (दिव्य वर्ष) 12,96,100 (सौर वर्ष)
द्वापरयुग 2400 (दिव्य वर्ष) 8,64,000 (सौर वर्ष)
कलियुग 1200 (दिव्य वर्ष) 4,32,000 (सौर वर्ष)

उस समय घोर कलयुग आएगा जिस समय माँ गंगा और गोवर्धन पर्वत लुप्त हो जायेंगे। क्योंकि इन दोनों को श्राप है। पढ़िए इस कलयुग में क्या-क्या घटित होगा।

 कलयुग के अवगुण और लक्षण,,,,

श्री तुलसीदासकृत रामचरतिमानस में इसका वर्णन आया है। काकभुशुण्डि जी गरुड़ जी को बता रहे हैं कलयुग के लक्षण और प्रभाव-

नर-नारी पापपरायण (पापों में लिप्त) रहेंगें॥ कलियुग के पापों ने सब धर्मों को ग्रस लिया, सद्ग्रंथ लुप्त हो गए, दम्भियों ने अपनी बुद्धि से कल्पना कर-करके बहुत से पंथ प्रकट कर दिए॥ सभी लोग मोह के वश हो गए, शुभ कर्मों को लोभ ने हड़प लिया।

कलियुग में न वर्णधर्म रहता है, न चारों आश्रम रहते हैं। सब पुरुष-स्त्री वेद के विरोध में लगे रहते हैं। ब्राह्मण वेदों के बेचने वाले और राजा प्रजा को खा डालने वाले होते हैं। वेद की आज्ञा कोई नहीं मानता॥ जिसको जो अच्छा लग जाए, वही मार्ग है। जो डींग मारता है, वही पंडित है। जो मिथ्या आरंभ करता (आडंबर रचता) है और जो दंभ में रत है, उसी को सब कोई संत कहते हैं॥

जो (जिस किसी प्रकार से) दूसरे का धन हरण कर ले, वही बुद्धिमान है। जो दंभ करता है, वही बड़ा आचारी है। जो झूठ बोलता है और हँसी-दिल्लगी करना जानता है, कलियुग में वही गुणवान कहा जाता है॥

जो आचारहीन है और वेदमार्ग को छोड़े हुए है, कलियुग में वही ज्ञानी और वही वैराग्यवान् है। जिसके बड़े-बड़े नख और लंबी-लंबी जटाएँ हैं, वही कलियुग में प्रसिद्ध तपस्वी है॥

जो अमंगल वेष और अमंगल भूषण धारण करते हैं और भक्ष्य-भक्ष्य (खाने योग्य और न खाने योग्य) सब कुछ खा लेते हैं वे ही योगी हैं, वे ही सिद्ध हैं और वे ही मनुष्य कलियुग में पूज्य हैं॥

जिनके आचरण दूसरों का अपकार (अहित) करने वाले हैं, उन्हीं का बड़ा गौरव होता है और वे ही सम्मान के योग्य होते हैं। जो मन, वचन और कर्म से लबार (झूठ बकने वाले) हैं, वे ही कलियुग में वक्ता माने जाते हैं॥

सभी मनुष्य स्त्रियों के विशेष वश में हैं और बाजीगर के बंदर की तरह (उनके नचाए) नाचते हैं। ब्राह्मणों को शूद्र ज्ञानोपदेश करते हैं और गले में जनेऊ डालकर कुत्सित दान लेते हैं॥

सभी पुरुष काम और लोभ में तत्पर और क्रोधी होते हैं। देवता, ब्राह्मण, वेद और संतों के विरोधी होते हैं। अभागिनी स्त्रियाँ गुणों के धाम सुंदर पति को छोड़कर पर पुरुष का सेवन करती हैं॥

सुहागिनी स्त्रियाँ तो आभूषणों से रहित होती हैं, पर विधवाओं के नित्य नए श्रृंगार होते हैं।

शिष्य और गुरु में बहरे और अंधे का सा हिसाब होता है। एक (शिष्य) गुरु के उपदेश को सुनता नहीं, एक (गुरु) देखता नहीं (उसे ज्ञानदृष्टि) प्राप्त नहीं है)॥

जो गुरु शिष्य का धन हरण करता है, पर शोक नहीं हरण करता, वह घोर नरक में पड़ता है। माता-पिता बालकों को बुलाकर वही धर्म सिखलाते हैं, जिससे पेट भरे॥

स्त्री-पुरुष ब्रह्मज्ञान के सिवा दूसरी बात नहीं करते, पर वे लोभवश कौड़ियों (बहुत थोड़े लाभ) के लिए ब्राह्मण और गुरु की हत्या कर डालते हैं॥

शूद्र ब्राह्मणों से विवाद करते हैं (और कहते हैं) कि हम क्या तुमसे कुछ कम हैं? जो ब्रह्म को जानता है वही श्रेष्ठ ब्राह्मण है। (ऐसा कहकर) वे उन्हें डाँटकर आँखें दिखलाते हैं॥

संत जन बताते हैं की यहाँ शुद्र का मतलब किसी जाति से नहीं बल्कि नीच आचरण करने वाले से है। और ब्राह्मण का अर्थ जो मन कर्म वचन से किसी का बुरा नही करता और जीव मात्र में परमात्मा का दर्शन करके उसकी(परमात्मा) भक्ति करता है।

जो पराई स्त्री में आसक्त, कपट करने में चतुर और मोह, द्रोह और ममता में लिपटे हुए हैं, वे ही मनुष्य अभेदवादी (ब्रह्म और जीव को एक बताने वाले) ज्ञानी हैं। मैंने उस कलियुग का यह चरित्र देखा॥

वे स्वयं तो नष्ट हुए ही रहते हैं, जो कहीं सन्मार्ग का प्रतिपालन करते हैं, उनको भी वे नष्ट कर देते हैं। जो तर्क करके वेद की निंदा करते हैं, वे लोग कल्प-कल्पभर एक-एक नरक में पड़े रहते हैं॥

तेली, कुम्हार, चाण्डाल, भील, कोल और कलवार आदि जो वर्ण में नीचे हैं, स्त्री के मरने पर अथवा घर की संपत्ति नष्ट हो जाने पर सिर मुँड़ाकर संन्यासी हो जाते हैं॥

वे अपने को ब्राह्मणों से पुजवाते हैं और अपने ही हाथों दोनों लोक नष्ट करते हैं। ब्राह्मण अपढ़, लोभी, कामी, आचारहीन, मूर्ख और नीची जाति की व्यभिचारिणी स्त्रियों के स्वामी होते हैं॥

शूद्र नाना प्रकार के जप, तप और व्रत करते हैं तथा ऊँचे आसन (व्यास गद्दी) पर बैठकर पुराण कहते हैं। सब मनुष्य मनमाना आचरण करते हैं। अपार अनीति का वर्णन नहीं किया जा सकता॥

कलियुग में सब लोग वर्णसंकर और मर्यादा से च्युत हो गए। वे पाप करते हैं और (उनके फलस्वरूप) दुःख, भय, रोग, शोक और (प्रिय वस्तु का) वियोग पाते हैं॥

वेद सम्मत तथा वैराग्य और ज्ञान से युक्त जो हरिभक्ति का मार्ग है, मोहवश मनुष्य उस पर नहीं चलते और अनेकों नए-नए पंथों की कल्पना करते हैं॥

संन्यासी बहुत धन लगाकर घर सजाते हैं। उनमें वैराग्य नहीं रहा, उसे विषयों ने हर लिया। तपस्वी धनवान हो गए और गृहस्थ दरिद्र। हे तात! कलियुग की लीला कुछ कही नहीं जाती॥

कुलवती और सती स्त्री को पुरुष घर से निकाल देते हैं और अच्छी चाल को छोड़कर घर में दासी को ला रखते हैं। पुत्र अपने माता-पिता को तभी तक मानते हैं, जब तक स्त्री का मुँह नहीं दिखाई पड़ता॥

जब से ससुराल प्यारी लगने लगी, तब से कुटुम्बी शत्रु रूप हो गए। राजा लोग पाप परायण हो गए, उनमें धर्म नहीं रहा। वे प्रजा को नित्य ही (बिना अपराध) दंड देकर उसकी विडंबना (दुर्दशा) किया करते हैं॥

धनी लोग मलिन (नीच जाति के) होने पर भी कुलीन माने जाते हैं। द्विज का चिह्न जनेऊ मात्र रह गया और नंगे बदन रहना तपस्वी का। जो वेदों और पुराणों को नहीं मानते, कलियुग में वे ही हरिभक्त और सच्चे संत कहलाते हैं॥

कवियों के तो झुंड हो गए, पर दुनिया में उदार (कवियों का आश्रयदाता) सुनाई नहीं पड़ता। गुण में दोष लगाने वाले बहुत हैं, पर गुणी कोई भी नहीं। कलियुग में बार-बार अकाल पड़ते हैं। अन्न के बिना सब लोग दुःखी होकर मरते हैं॥

कलियुग में कपट, हठ (दुराग्रह), दम्भ, द्वेष, पाखंड, मान, मोह और काम आदि (अर्थात् काम, क्रोध और लोभ) और मद ब्रह्माण्डभर में व्याप्त हो गए (छा गए)॥

मनुष्य जप, तप, यज्ञ, व्रत और दान आदि धर्म तामसी भाव से करने लगे। देवता (इंद्र) पृथ्वी पर जल नहीं बरसाते और बोया हुआ अन्न उगता नहीं॥

स्त्रियों के बाल ही भूषण हैं (उनके शरीर पर कोई आभूषण नहीं रह गया) और उनको भूख बहुत लगती है (अर्थात् वे सदा अतृप्त ही रहती हैं)। वे धनहीन और बहुत प्रकार की ममता होने के कारण दुःखी रहती हैं। वे मूर्ख सुख चाहती हैं, पर धर्म में उनका प्रेम नहीं है। बुद्धि थोड़ी है और कठोर है, उनमें कोमलता नहीं है॥

मनुष्य रोगों से पीड़ित हैं, भोग (सुख) कहीं नहीं है। बिना ही कारण अभिमान और विरोध करते हैं। दस-पाँच वर्ष का थोड़ा सा जीवन है, परंतु घमंड ऐसा है मानो कल्पांत (प्रलय) होने पर भी उनका नाश नहीं होगा॥

कलिकाल ने मनुष्य को बेहाल (अस्त-व्यस्त) कर डाला। कोई बहिन-बेटी का भी विचार नहीं करता। (लोगों में) न संतोष है, न विवेक है और न शीतलता है। जाति, कुजाति सभी लोग भीख माँगने वाले हो गए॥

ईर्षा (डाह), कडुवे वचन और लालच भरपूर हो रहे हैं, समता चली गई। सब लोग वियोग और विशेष शोक से मरे पड़े हैं। वर्णाश्रम धर्म के आचरण नष्ट हो गए॥

इंद्रियों का दमन, दान, दया और समझदारी किसी में नहीं रही। मूर्खता और दूसरों को ठगना, यह बहुत अधिक बढ़ गया। स्त्री-पुरुष सभी शरीर के ही पालन-पोषण में लगे रहते हैं। जो पराई निंदा करने वाले हैं, जगत् में वे ही फैले हैं॥  

कलिकाल पाप और अवगुणों का घर है, किंतु कलियुग में एक गुण भी बड़ा है कि उसमें बिना ही परिश्रम भवबंधन से छुटकारा मिल जाता है॥ सुनु ब्यालारि काल कलि मल अवगुन आगार। गुनउ बहुत कलिजुग कर बिनु प्रयास निस्तार॥

कलियुग केवल नाम अधारा , सुमिर सुमिर नर उतरहि पारा : कलयुग में केवल भगवान का नाम ही भवसागर से पार उतरने का साधन है केवल भगवान का नाम सुमिरन से इस भवसागर से पार पाया जा सकता है।

कृतजुग त्रेताँ द्वापर पूजा मख अरु जोग। जो गति होइ सो कलि हरि नाम ते पावहिं लोग॥ सत्ययुग, त्रेता और द्वापर में जो गति पूजा, यज्ञ और योग से प्राप्त होती है, वही गति कलियुग में लोग केवल भगवान्‌ के नाम से पा जाते हैं॥

सत्ययुग में सब योगी और विज्ञानी होते हैं। हरि का ध्यान करके सब प्राणी भवसागर से तर जाते हैं। त्रेता में मनुष्य अनेक प्रकार के यज्ञ करते हैं और सब कर्मों को प्रभु को समर्पण करके भवसागर से पार हो जाते हैं॥ द्वापर में श्री रघुनाथजी के चरणों की पूजा करके मनुष्य संसार से तर जाते हैं, दूसरा कोई उपाय नहीं है और कलियुग में तो केवल श्री हरि की गुणगाथाओं का गान करने से ही मनुष्य भवसागर की थाह पा जाते हैं॥ कलिजुग केवल हरि गुन गाहा। गावत नर पावहिं भव थाहा॥

कलियुग में न तो योग और यज्ञ है और न ज्ञान ही है। श्री रामजी का गुणगान ही एकमात्र आधार है। अतएव सारे भरोसे त्यागकर जो श्री रामजी को भजता है और प्रेमसहित उनके गुणसमूहों को गाता है, वही भवसागर से तर जाता है, इसमें कुछ भी संदेह नहीं।

 कलियुग का एक पवित्र प्रताप (महिमा) है कि मानसिक पुण्य तो होते हैं, पर (मानसिक) पाप नहीं होते॥

कलिजुग सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास। गाइ राम गुन गन बिमल भव तर बिनहिं प्रयास॥

यदि मनुष्य विश्वास करे, तो कलियुग के समान दूसरा युग नहीं है, (क्योंकि) इस युग में श्री रामजी के निर्मल गुणसमूहों को गा-गाकर मनुष्य बिना ही परिश्रम संसार (रूपी समुद्र) से तर जाता है॥

शुद्ध सत्त्वगुण, समता, विज्ञान और मन का प्रसन्न होना, इसे सत्ययुग का प्रभाव जानें॥

सत्त्वगुण अधिक हो, कुछ रजोगुण हो, कर्मों में प्रीति हो, सब प्रकार से सुख हो, यह त्रेता का धर्म है।

रजोगुण बहुत हो, सत्त्वगुण बहुत ही थोड़ा हो, कुछ तमोगुण हो, मन में हर्ष और भय हो, यह द्वापर का धर्म है॥

तमोगुण बहुत हो, रजोगुण थोड़ा हो, चारों ओर वैर-विरोध हो, यह कलियुग का प्रभाव है।

जिसका श्री रघुनाथजी के चरणों में अत्यंत प्रेम है, उसको कालधर्म (युगधर्म) नहीं व्यापते।

एहिं कलिकाल न साधन दूजा। जोग जग्य जप तप ब्रत पूजा॥ 
रामहि सुमिरिअ गाइअ रामहि। संतत सुनिअ राम गुन ग्रामहि॥

तुलसीदासजी कहते हैं- इस कलिकाल में योग, यज्ञ, जप, तप, व्रत और पूजन आदि कोई दूसरा साधन नहीं है। बस, श्री रामजी का ही स्मरण करना, श्री रामजी का ही गुण गाना और निरंतर श्री रामजी के ही गुणसमूहों को सुनना चाहिए॥

नामु राम को कलपतरु कलि कल्यान निवासु। कलियुग में राम का नाम कल्पतरु (मन चाहा पदार्थ देने वाला) और कल्याण का निवास (मुक्ति का घर) है।

और इसके बाद कह दिया केवल कलियुग की ही बात नहीं है, चारों युगों में, तीनों काल में और तीनों लोकों में नाम को जपकर जीव शोकरहित हुए हैं।

राम नाम कलि अभिमत दाता। हित परलोक लोक पितु माता॥ कलियुग में यह राम नाम मनोवांछित फल देने वाला है, परलोक का परम हितैषी और इस लोक का माता-पिता है (अर्थात परलोक में भगवान का परमधाम देता है और इस लोक में माता-पिता के समान सब प्रकार से पालन और रक्षण करता है।)

कलियुग में न कर्म है, न भक्ति है और न ज्ञान ही है, राम नाम ही एक आधार है। नहिं कलि करम न भगति बिबेकू। राम नाम अवलंबन एकू॥

भायँ कुभायँ अनख आलस हूँ। नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ॥

अच्छे भाव (प्रेम) से, बुरे भाव (बैर) से, क्रोध से या आलस्य से, किसी तरह से भी नाम जपने से दसों दिशाओं में कल्याण होता है।

इसलिए सब चिंता, भय छोड़कर, मन क्रम और वाणी से भगवान का नाम जपिए और सत्कर्म कीजिये।

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