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मंगलवार, 10 अगस्त 2021

एकादशी के दिन किस अनाज को खाने तथा किस अनाज को वर्जित करने का प्रावधान है?

एकादशी के दिन किस अनाज को खाने तथा किस अनाज को वर्जित करने का प्रावधान है?

सनातन धर्म मे व्रत उपवास का महत्व

आध्यात्मिक रूप से माना जाता है कि व्रत का प्रभाव और उसका पूर्णरूप से लाभ प्राप्त होने पर मानसिक शुद्धि एवं सात्विक विचारों का उन्नयन होता है।
अतः सभी को शारीरिक क्षमता के अनुसार सप्ताह में एक दिन या एक पक्ष में एक दिन उपवास या व्रत अवश्य रखना चाहिए।

आदिकाल में देवर्षि नारद ने एक हजार साल तक एकादशी का निर्जल व्रत करके भगवान विष्णु की भक्ति प्राप्त की थी।



वैष्णव के लिए यह सर्वोत्तम व्रत है एकादशी के व्रत में भी कुछ विधान का पालन किया जाता है इसमे वर्जित और पारण योग्य खाद्य पदार्थों का विशेष महत्व है जो कि निम्लिखित हैं

एकादशी के व्रत में वर्जित खाद्य पदार्थ

एकदशी के व्रत में शरीर मे जल की मात्रा जितनी अल्प होगी उतना उत्तम माना जाता है,व्रत पूरा करने में उतनी ही अधिक सात्विकता रहेगी और इस से मन नियंत्रित होता है अतः वर्ष में एक निर्जला एकादशी भी होती है।

एकादशी के व्रतधारी व्यक्ति को गाजर, शलजम, गोभी, पालक, इत्यादि का सेवन नहीं करना चाहिए।

एकदशी के व्रत में बैगन का सेवन करने से सन्तान कष्ट प्राप्त करती हैं।

इसमे अन्न किसी भी प्रकार का जैसे चावल, जौ, दाल, चना, गेंहू राजमा , मसूर, उर्द , सेम इत्यादि पूर्णतया वर्जित है।(चावल और जौ के विषय मे एक कथा भी है)

चावल जौ या अन्न के विषय में वैज्ञानिक तथ्य ये भी है कि इनके उपापचय में जल अधिक चाहिए और एकदशी में जल अल्प पीना चाहिए तो इनका सेवन न करना श्रेयस्कर है।

चंद्रमा मन को अधिक चलायमान न कर पाएं, अतः चावल खाने वर्जित है।
चावल को हविष्य अन्न कहा गया है, अर्थात ये देवताओं का भोजन है अतः साधारण मनुष्य को इसका सेवन नही करना चाहिए।

भगवान विष्णु को तुलसीदल प्रिय है अतः एकादशी को कभी भी तुलसीदल का सेवन नही करना चाहिए,।

पान को विलासिता से जोड़कर देखा जाता है और इसे खाने से विचार दूषित हो जाते है अतः इसका सेवन भूलवश भी न करना चाहिए।

एकादशी के दिन मांस, मदिरा, प्याज, लहसुन जैसी तामसी चीजों का सेवन व्रतधारी और उसके परिवार को कदापि नही करना चाहिए।

इस दिन किसी दूसरे व्यक्ति द्वारा दिया गया अन्न भी ग्रहण नहीं करें, इससे पुण्य नष्ट हो जाते है।

एकादशी में ग्रहण योग्य खाध पदार्थ

सर्वप्रथम ये प्रयास करना चाहिए कि कुछ न खाया जाए परन्तु सभी की शारिरिक क्षमता उतनी नही होती ,अतः व्रत में कुछ पदार्थ का सेवन सम्पूर्ण दिवस में एक बार किया जा सकता है।

केला, आम, अंगूर, बादाम, पिस्ता इत्यादि अमृत फलों का सेवन करें।
दुग्ध का सेवन किया जा सकता है।

आलू ,शकरगन्दी, अरबी , कद्दू उबाल कर नमक डालकर ग्रहण कर सकते हैं

पौराणिक कथा

माता के क्रोध से रक्षा के लिए महर्षि मेधा ने देह छोड़ दी थी, उनके शरीर के भाग धरती के अंदर समा गए, कालांतर में वही भाग जौ और चावल के रुप में जमीन से पैदा हुए। कहा गया है कि जब महर्षि की देह भूमि में समाई, उस दिन एकादशी थी।
अतः प्राचीन काल से ही यह परंपरा शुरु हुई, कि एकादशी के दिन चावल और जौ से बने भोज्य पदार्थ नहीं खाए जाते हैं।

एकादशी के दिन चावल का सेवन महर्षि की देह के सेवन के बराबर माना गया है।

अंततः
पूजा में, व्रत या उपवास में या आध्यात्मिक क्रिया का फल लेने के लिए आप के भाव की महत्ता है यदि आपके भाव उत्तम है तो फल भी उत्तम प्राप्त होगा अन्यथा कोई फल न मिलेगा

भूत, प्रेत, निशाचर, यक्ष, जिन्न में क्या अंतर होता है?

भूत, प्रेत, निशाचर, यक्ष, जिन्न में क्या अंतर होता है?

इसका विस्तृत वर्णन गरुण पुराण में मिल जाता है परन्तु सभी गरुण पुराण नही पढ़ सकते है ये किसी की मृत्यु के पश्चात ही पढा जाता है,

हम सभी को ज्ञात है, जीवन न अतीत है और न भविष्य, वह सदा वर्तमान है।
जो वर्तमान में रहता है वही मोक्ष की प्रप्ति के लिए प्रयास कर सकता है।



तो उसके अनुसार किसी जीव की आत्मा को श्रेणीबद्ध किया गया है, इसमे भी पुरुष और स्त्री वर्ग की आत्मा के भिन्न नाम है।

पुरुषों में जो श्रेणियां है वो निम्नलिखित है:-

भूत
इसकी उत्तपत्ति भूतकाल शब्द से हुई है अर्थात जिसका कोई वर्तमान न हो, केवल अतीत ही हो वही भूत कहलाता है, अतीत में उलझी आत्मा भूत बन जाती है।

जो आत्मा ज्यादा स्मृतिवान या ध्यानी है, और उसे मृत्यु का ज्ञान होता है, वह भी भूत बन सकती है।

भूत अदृश्य होते हैं, इनका कोई शरीर नही होता अतः इन्हें सूक्ष्म शरीर भी कहा जा सकता है, इन्हें वायु या धुंध के समान अनुभव किया जा सकता है।
कुछ भूत स्वयं की शक्ति को जागृत कर सकते है किंतु सभी भूत स्वयं की शक्ति को प्रयोग नही कर सकते हैं।

कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी चतुर्दशी और अमावस्या को इनकी सक्रियता अधिक देखी जा सकती है।

ये मुख्यतः उस स्थल पर विचरण करते है जिसमे जीवनकाल में उनका कोई सम्बन्ध रहा हो, और ये प्रायः निर्जन स्थलों पर निवास करते हैं।

प्रेत
प्रेत योनि में अदृश्य और शक्तिशाली हो जाते हैं, ऐसा आवश्यक नही है की मृत्यु के पश्चात सभी प्रेत बन जाये और ये भी आवश्यक नही कि सभी शक्तिशाली होंगे।

प्रेतों स्पर्श करने की शक्ति होती है, तो में कुछ नही, जिसमे शक्ति होती है वह बड़े से बड़े वस्तुएं उठाकर फेंक सकता है

ऐसे प्रेत यदि नकारात्मक हैं, तो वो हानि भी पहुंचा सकते है, ये किसी देहधारी के मस्तिष्क को नियंत्रित कर सकते हैं।

कभी कभी वो किसी की देह को अपने प्रयोजन सिद्ध करने के लिए नियंत्रित कर लेते हैं ये बड़ी भयावह स्थिति होती है उस व्यक्ति का शरीर उस प्रेत का क्रीड़ास्थल बन जाता है।

ब्रह्मराक्षस
सनातन धर्म मे जिन्न का उल्लेख नही है अतः मुझे ब्रह्मराक्षस के विषय मे लिखना होगा।

उच्चकुल में जन्म ले कर जीवन मे दुष्कर्म करते है और स्वयं के ज्ञान का लाभ कुकर्म में लगाते हैं, अतः दण्डस्वरूप उन्हें मृत्यु पश्चत उस योनि को प्राप्त करते हैं।

इस योनि में बहुत शक्तिशाली होते है पीपल इनके प्रिय वृक्ष है और यदि किसी देह में आ जाये तो इनको निकालना कठिन है,

जिस व्यक्ति में ब्रह्मराक्षस आ जाते है वो बहुत शांत और अनुशासन में जीवन यापन करते है भोजन बहुत अधिक कर सकते है और एक ही अवस्था घन्टो तक रह सकते हैं।

इनका ज्ञान अप्रतिम होता है, इन्हें स्वयं के पूर्वजन्म स्मरण रहते है, वेद पुराण कंठस्थ रहते है।

निशाचर
धर्मग्रंथों में मान्य वे दुष्ट आत्माएँ जो धर्म विरोधी कार्य करती हैं तथा देवताओं, ऋषियों आदि की शत्रु हैं

ये रात्रि में विचरण कर के भोजन ढूंढते है।


यक्ष
प्राचीन काल में कुछ जातियों को रहस्यमयी शक्तियों के स्वामी होने के कारण ये विशेष माने जाते थे ये सभी मानवों से कुछ अलग थे,परन्तु ये सभी मानवों की किसी न किसी रूप में सहायता ही करते थे।

इनकी प्रमुख जातियां थीं देव,दैत्य,दानव, राक्षस,यक्ष,गंधर्व,अप्सराएं, पिशाच, किन्नर, वानर, रीछ, भल्ल, किरात, नाग आदि।



देवताओं के बाद दैवीय शक्तियों के विषय मे यक्ष का ही स्थान आता है।

यक्ष का शाब्दिक अर्थ होता है जादू की शक्ति ये एक अर्ध देवयोनि (नपुंसक लिंग) अर्ध देवता अर्ध कोई अन्य जाति है,जिसका उल्लेख ऋग्वेद में हुआ है।
'यच' सम्भवत: 'यक्ष' का ही एक प्राकृत रूप है, ये मानव के विरोधी नही थे वरन ; जो धनसम्पदा,पृथ्वी के भीतर स्थित निधियो एवम यज्ञ की रक्षा करते थे वे यक्ष कहलाये।

कुबेर उत्तर के दिक्पाल तथा स्वर्ग के कोषाध्यक्ष कहलाते हैं,अथर्ववेद में कुबेर की प्रजा को यक्ष कहा गया है।

यक्षिणी को शिव जी की दासियां भी कहा जाता है, यक्षिणियां सकारात्मक शक्तियां हैं तो पिशाचिनियां नकारात्मक।

बहुत व्यक्ति यक्षिणियों को भी किसी भूत-प्रेतनी के समान मानते हैं,जो कि सत्य नही ये तो साधना करने के पश्चात कई प्रकार की सिद्धियों का स्वामी बना देती हैं।

रामायण में महर्षि पुलस्त्य के पुत्र विश्रवा पुत्र रावण का सौतेला भाई कुबेर एक यक्ष था वो इलविला या इडविडा का पुत्र था, एवम रावण एक राक्षस ये कैकसी का पुत्र था, इसके विभीषण और कुम्भकर्ण भाई हुए।

महाभारत में भी युधिष्ठिर जी और उनके भाइयों के साथ यक्ष प्रश्न का एक प्रसंग आया है जिसमें सब भाइयों ने यक्ष की चेतावनी अनसुनी कर के जल पिया और अचेत हुए ततपश्चात युधिष्ठिर जी ने समस्त प्रश्नों के उत्तर दिए और अपने भाइयों को चेतन किया।



जिस तरह प्रमुख 33 देवता होते हैं, उसी तरह 64 यक्ष और यक्षिणियां भी होते हैं।

सभी के रहने के लिए विभिन्न लोक है जैसे देवताओं का देवलोक राक्षसो का पाताल लोक पितृ का पितृलोक इसी प्रकार यक्षलोक हमारे बहुत समीप है किसी सुपात्र को यदि सदगुरु मिल जाये तो थोड़े प्रयास ही इन्हें प्रसन्न किया जा सकता है,

इनकी सिद्धियां करने से जीवन मे बहुत कुछ प्राप्त किया जा सकता है ये साधना बहुत कठिन है और प्रत्येक व्यक्ति इन्हें नही कर सकता, इन में कुछ निम्न हैं।

सुर सुन्दरी यक्षिणी यह सिद्ध होने के बाद साधक को ऐश्वर्य, धन, संपत्ति आदि प्रदान करती है।

मनोहारिणी यक्षिणी ये सिद्ध होने पर साधक के व्यक्तित्व को ऐसा सम्मोहक बना देती है, कि हर व्यक्ति को सम्मोहित पाश में बंध जाता है।
 

कनकावती यक्षिणी सिद्ध करने पर साधक में तेजस्विता आ जाती है। यह साधक की हर मनोकामना को पूरा करने में सहायक होती है।

पद्मिनी यक्षिणी यह अपने साधक को आत्मविश्वास व स्थिरता प्रदान करती है और हमेशा उसे मानसिक बल प्रदान करती हुई उन्नति की ओर अग्रसर करती है।

नटी यक्षिणी
को विश्वामित्र ने भी सिद्ध किया था। यह अपने साधक की पूर्ण रूप से सुरक्षा करती है।
धन्यवाद
 

लेख के तत्व धार्मिक पुस्तकोँ से समझकर लिखे गए कुछ बिन्दु

स्त्रियों की श्रेणियां

इन सभी की उत्पति अपने पापों, व्यभिचार से, अकाल मृत्यु से या श्राद्ध न होने से होती है.

चुड़ैल
कोई प्रसूता, स्त्री या नवयुवती मरती है तो चुडैल बन जाती है।

देवी
कोई कुंवारी कन्या मरती है तो उसे देवी कहते हैं।

डायन या डाकिनी
जो स्त्री बुरे कर्मों वाली है उसे डायन या डाकिनी कहते हैं।

अंततः
जिस व्यक्ति ने जीवन मे बहुत हिंसा की है वह भूत या प्रेत बन कर भटकता रहता हैं।

अकालमृत्यु अर्थात आत्महत्या हत्या और दुर्घटना में मृत भी इस योनि को प्राप्त करते हैं।

अतृप्त इच्छाएं वाला व्यक्ति भी मृत होकर इस योनि को प्राप्त करते हैं।

भूत प्रेत में शरीर न होने से उन्हें कोई अस्त्र शस्त्र से कोई भय नही होता उनमें सुख या दुःख की भावना तो होती है।

अन्तःकरण में मन बुद्धि या चित्त संज्ञाशून्य माना जाता हैं, वही भावना प्रधान होगी जिस भावना में मृत्यु हुई है।

ये आत्मा के कर्म और गति पर निर्भर करता है बहुत से भूत या प्रेत योनि में न जाकर पुन: गर्भधारण कर मानव बन जाते हैं।

गाय को ही माता क्यों कहा जाता है, जबकि दूध तो भैंस, बकरी आदि भी देते हैं और इनका दूध भी मनुष्य पीता है?


गाय को ही माता क्यों कहा जाता है, जबकि दूध तो भैंस, बकरी आदि भी देते हैं और इनका दूध भी मनुष्य पीता है?

सर्वप्रथम आपको स्प्ष्ट कर दूँ अन्य पशु दुग्ध देते है और गौमाता "अमृत" देती हैं और उनके अमृत की तुलना पशुओ के दुग्ध से करने का दुःसाहस मुझसे न होगा ।


उन्हें प्राचीनकाल से ही माता का स्थान दिया गया है उसके मुख्य कारणों की संक्षिप्त वर्णन करना आवश्यक है।

गौमाता के विषय मे धार्मिक वर्णन
शास्त्रों के अनुसार, ब्रह्मा जी ने जब सृष्टि की रचना की थी तो सर्वप्रथम गौमात ही पृथ्वी पर आयी थी।
दोनो सींग के निचले भाग में भगवान विष्णु जी और भगवान ब्रह्मा जी और सींग के मध्य में भगवान शिवजी और ललाट में माता गौरी का वास माना जाता है नसिका में भगवान कार्तिकेय का वास है।

गौ पालन से सम्बंधित विभिन्न उपाधियां

ये सारी उपाधियां जहां व्यक्ति की आर्थिक संपन्नता की प्रतीक है, वहीं इस बात को भी स्पष्ट करती हैं कि प्राचीन काल में गायें हमारी अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार थी।
गोपाल:- जो सदैव घेरों में गौओं का पालन करते हैं, गौ से ही अपनी आजीविका चलाते हैं, उनको गोपाल कहा जाता था ।
नन्द :- जो सहायक ग्वालों के साथ नौ लक्ष् गौ का पालन करे।
उपनन्द :- पांच लक्ष् गौ को पाले वह उपनंद कहलाता है।
वृषभानु :- जो दस लक्ष् गौओं का पालन करे उसे वृषभानु कहा जाता है ।
वृषभानुवर:- जिसके घर में 50 लक्ष् गायें पाली जाएं उसे वृषभानुवर कहा जाता है।
नन्दराज :- जिसके घर में एक करोड़ गायों का संरक्षण हो उसे नंदराज कहते हैं।

गौमाता के विषय मे महत्वपूर्ण तथ्य

गौ की श्वासों के द्वारा किसी भी स्थल की नकारात्मक ऊर्जा को ग्रहण कर लेती हैं और वो जहां बैठती है वहां सम्पूर्ण वातावरण को सकारात्मक ऊर्जा से परिपूर्ण कर देती हैं।
सभी पशुओ में मात्र गाय ही ऐसा पशु है जो "मां" शब्द का उच्चारण करता है, अतः मां शब्द की उत्पत्ति भी गौवंश से हुई मानी जाती है।

गौ को माता मानने के मुख्य तथ्य

आयुर्वेद के अनुसार भी मातृदुग्ध के उपलब्ध न होने पर बालक के लिए गौदुग्ध सर्वोत्तम माना जाता है, इस दुग्ध के सेवन से बालक शांत प्रकृति का मनुष्य बनता है अतः गौ को माता का स्थान दिया जाता है।
प्राचीन काल में दुर्भिक्ष या अकाल पडना सामान्य सी बात थी, यदि किसी घर मे गौमाता होती तो वहाँ बालक जीवित रहते थे क्योंकि गौदुग्ध से उन्हें पोषित किया जाता था।
प्रत्येक भारतीय कभी न कभी किसी न किसी रूप में भोज्य पदार्थ और पोषण के लिए गौदुग्ध पर निर्भर रहा हैं अतः गौदुग्ध बहुत पवित्र माना जाता है क्योंकि ये मानव जीवन को पोषण देता हैं।

गौ से प्राप्त होने वाले पदार्थ
गौ से पंच गव्य की प्राप्ति होती है इनके गोबर से उपले बना कर ईंधन के रूप में प्रयुक्त होते हैं गोबर को मिट्टी के साथ मिला कर ग्राम के घरों की धरती पर लीप दिया जाता ताज गौमूत्र रोगाणुनाशक माना जाता है इसे अनेको औषधियों में उपयोग किया जाता है।
हवन के लिये धरती को शुद्ध करने के लिए गौबर और गोमूत्र का प्रयोग किया जाता है।
गौ दुग्ध उससे बना दधि और उससे प्राप्त नवनीत और उससे निकला गौघृत अत्यधिकः शुद्ध माना जाता है इस से हवन में आहुति भी दी जाती है, इन पदार्थों को पंचामृत के लिए मुख्यतः प्रयुक्त किया जाता है।

अंततः
गौ के पालन से दुर्बल भी हष्ट पुष्ट और श्रीहीन भी सुश्रीक, सुंदर, शोभायमान हो जाते हैं , गौ को मनुष्य अपना धन मानता था, अतः उसे गौधन भी कहा जाता था।
गौमाता शांति और धैर्य की मूर्ति मानी जाती हैं, वो तभी किसी पर सींग से आक्रमण करती है जब उनका बछड़ा कष्ट में आया समझेंगी या उन्हें अकारण कष्ट पहुँचाया जाए।
गौ में मनुष्य के भाव या कठिनाई को ज्ञात करने की क्षमता होती है वो उसके पालक के कष्ट में होने पर अश्रु भी बहाने लगती है।
गौ कभी भी बालको को कष्ट नही पहुँचाती है उसके सींग से कभी भी नवजात को कोई हानि नही होतीहै।
प्राचीन धर्मग्रन्थों में लिखा है कि जिस दिन गौ संसार से समाप्त हो जाएंगी उसी दिन सृष्टि का अंत हो जाएगा..आजकल गौ माता सरलता से नही मिलती तो क्या हमने सृष्टि के अंत की ओर अग्रसर है…


क्या देसी गाय के दूध और जर्सी गाय के दूध के बीच पौष्टिकता में कोई अंतर है?


भारतीय संस्कृति में गाय का बेहद उच्च स्थान है,इसे माता और कामधेनु कहा गया है, इसका दुग्ध बालको के लिए बहुत पौष्टिक , लाभदायक और बुद्धि के विकास में महत्वपूर्ण भी।
माता - अर्थात जीवन देने वाली और प्राणों की रक्षा करने वाली, जन्मदात्री माता के पश्चात बालक/ मनुष्य जिसका दूध पीकर जीवन का रक्षण करता है वह गाय होती है। देशी गाय के दूध में औषधीय गुण स्वतः होते हैं।

भारतीय गाय में क्या गुण होते हैं जो उसके दुग्ध का इतना महत्व होता है??

गाय करीब 3 से 4 लीटर दूध देती हैं, इन गायों को प्रजनन करने में 30 से 36 महीने लगते हैं, गाय सम्पूर्ण जीवनकाल में 10 से 12 बछड़ों को जन्म दे सकती है।
ये दुग्ध ए2 प्रकार का होता है।
इन के दूध में वसा, प्रोटीन और ( 148) कैलोरी की मात्रा अल्प होती है. जिस कारण से यह सुपाच्य है।
गाय के दूध में स्वर्ण तत्व होता है जो शरीर के लिए काफी शक्तिदायक और आसानी से पचने वाला होता है।
गाय की गर्दन के पास एक कूबड़ होती है जो ऊपर की ओर उठी और शिवलिंग के आकार जैसी होती है
इस कूबड़ में एक सूर्यकेतु नाड़ी होती है, यह सूर्य की किरणों से निकलने वाली ऊर्जा को सोखती रहती है, जिससे गाय के शरीर में स्वर्ण उत्पन्न होता रहता है।
भारतीय गायों के शरीर में एक सूर्य ग्रंथि पाई जाती है अतः यह उसके दुग्ध को बेहद गुणकारी और अमूल्य औषधी के रूप में बदल देती है
गाय का दूध भी हल्का पीला रंग लिए होता है, यह शरीर को सुदृढ़ करता है, आंतों की रक्षा करता है और मस्तिष्क भी तीव्र करता है।
अपने भार को नियंत्रित करने के लिए गाय का दुग्ध एक उत्तम विकल्प हैं।
जिन शिशुओं को जन्म के बाद से 15 दिन तक उनकी मां गाय का दूध पिलाती हैं उनमें रोग प्रतिरोधक क्षमता अधिक होती है।

जर्सी गाय कैसे अस्तित्व में आई???

एक यूरोप का उरूस नामक जंगली पशु था, जिसका कि यूरोपीय आखेट किया करते थे, चूंकि जंगली पशु होने के नाते शिकार करना कठिन होता था, इसलिए कई पशुओ के साथ इसका प्रजनन करवाया गया, अंत में देसी गाय के साथ प्रजनन के बाद जर्सी प्रजाति का विकास हुआ।

जर्सी गाय के मुख्य गुण

दो प्रमुख विदेशी नस्लें हैं, जर्सी और होल्स्टीन ये अधिक मात्रा में दुग्ध देती हैं।
जर्सी गाय लगभग 12 से 14 लीटर दूध देती हैं, प्रजनन में जर्सी गायों को 18 से 24 माह लगते है, ये अधिक बछड़ों को जन्म नहीं दे पाती है, अतः दूध की मात्रा ज्यादा होती है।
इनके दुग्ध ए1 प्रकार का होता है।
इसमें कैसोमोर्फीन नामक एक रसायन पाया जाता है, जो एक धीमा विष है
विश्व मे,जन्मोपरान्त बालको में जो ऑटिज़्म, बोध अक्षमता और टाइप1 मधुमेह जैसे रोग बढ रहे हैं , उन का स्पष्ट कारण ए1 दूध का बीसीएम7 पाया गया है.
समस्त शरीर के स्वजन्य रोग जैसे उच्च रक्त चाप , हृदय रोग तथा मधुमेह का प्रत्यक्ष सम्बंध बीसीएम 7 वाले ए1 दूध से स्थापित हो चुका है।
साथ ही वृद्धवस्था के मानसिक रोग भी बालपन में ए1 दूध का प्रभाव के रूप में भी देखे जा रहे हैं.

दुग्ध में पाए जाने वाले लाभदायक या हानिकारक प्रोटीन
दुग्ध में दो प्रकार का प्रोटीन होता है एक वेह प्रोटीन (whey protein) और दूसरा केसिन प्रोटीन (casein protein)। केसीन प्रोटीन भी दो रूपों में मिलता है अल्फा केसीन और बीटा केसीन।
आधुनिक युग मे 15 भिन्न भिन्न बीटा केसीन के विषय मे ज्ञात है, सर्वाधिक महत्वपूर्ण ए1 और ए2 हैं, बीटा केसीन A1 जिसे दोषपूर्ण प्रोटीन माना जाता है उसमें और A2 प्रोटीन में सिर्फ 1 अमीनो एसिड का फर्क है।
ए1 में 67वीं स्थान पर हिस्टीडीन नाम का अमीनो एसिड होता है, जबकि ए2 प्रोटीन में उसी स्थान पर प्रोलीन होता है,
ए1 बीटा केसिन पेट में पचकर एक नया प्रोटीन बना लेता जिसे बीटा केज़ोमोर्फिन कहते हैं, यही प्रोटीन A1 दूध से जुड़ी हुई बीमारियों का एक मुख्य कारक माना जाता है।

अंततः
अमृत और दूध में कोई तुलना करूँ ऐसी मेरी तुच्छ बुद्धि के द्वारा कठिन होगा, परन्तु उत्तर देना आवश्यक है जिस से सभी देशी गाय के दुग्ध की महत्ता से अवगत हो जाएं।
धन्यवाद

अगर जिंदगी में बहुत कष्ट हों तो करें ये उपाय । pandit sri pradeep m...

जीभ से किसी की चमड़ी को उसकी हड्डियों से अलग कर दे -बाघ

बाघ के बारे में रोमांचक तथ्य

मिलिए उस जानवर से, जिसकी जीभ इतनी सख्त और खुरदरी होती है, कि वह किसी की चमड़ी को उसकी हड्डियों तक अलग कर दे।

बाघ

बाघ की जीभ सैकड़ों छोटे, किन्तु नुकीले व पीछे-की-ओर मुड़े हुए उभारों से भरी होती है, जिन्हें पॉपीलय कहते हैं। यह पॉपीलय उनकी जीभ को उसका खुरदरी, रेतीली संरचना देते हैं और यह उनके शिकार के शरीर से पंख, फ़र और माँस को अलग करने में उनकी मदद करते हैं। यह जीभ एक दीवार से पेंट को अलग कर पाने में सक्षम होती है।

एक बाघ की भयभीत कर देने वाली गर्जना में, उसे सुनने वाले जानवर को "लकवा मार देने" की क्षमता है और इसमें वह इंसान भी शामिल हैं, जो उन्हें प्रशिक्षित करते हैं। उनकी इस विशिष्ट गर्जना का कारण उनकी मोटी और सुगठित वोकल-कॉर्डस हैं।

बाघों के शरीर पर फ़र होती है और डिज़ाइन के रूप में धारियां होती हैं। यह धारियां उनकी चमड़ी में गहराई तक होती हैं क्योंकि आप इन धारियों को उनकी फ़र को शेव करने के बाद भी देख सकते हैं।

किन्हीं भी दो बाघों के शरीर पर एक जैसी धारियां नहीं होतीं। बिलकुल इंसानों की उँगलियों के निशानों की तरह ही, उनके शरीर की धारियां प्रत्येक जीव में अलग तरह की होती हैं।


वे अद्भुत और खूबसूरत जीव हैं।

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