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मंगलवार, 10 अगस्त 2021

क्षत्रियो शूद्रों ब्राह्मणो वैश्यों में किसी भी जाति का अपमान करना, वेदों का अपमान करना है

क्षत्रियो शूद्रों ब्राह्मणो वैश्यों में किसी भी जाति का अपमान करना, वेदों का अपमान करना है ।।



वह क्षत्रिय जिनकी 18 साल से ऊपर की नस्ल ही एक समय जिंदा रहनी बन्द हो गयी ।। देश के लिए इतने सिर कटाएँ । कहावते तक बन गयी ..

" बारह बरस कुकुर जियें, तेरह लो जियें सियार

बरस अठारह क्षत्रिय जीवें, ज़्यादा जीवें तो धिक्कार "

अर्थात देश के लिए सिर कटाने को जो अपनी शान समझते हो, उस जाति का अपमान करना, क्या वेदों और मानवता का अपमान करना नही है ??

काशी में जब सल्तनत काल शुरू हो गया था । तो ब्राह्मणो में अपने घर मे ही गुरुकुल खोल लिए थे । चोरी छुपे बच्चो को पढ़ाया करते थे । वेदों जो जब जलाया गया, तो ब्राह्मणो ने वेदों को कण्ठस्थ कर लिया ।।
एक बार तो घर मे गुरुकुल जलाने के आरोप में एक ब्राह्मण को दिल्ली के सुल्तान ने उनकी लकड़ी की मूर्ति के साथ ही जलाकर मार डाला । ब्राह्मण के सामने शर्त रखी गयी, की इस्लाम स्वीकार कर, या इस्लाम की पशुता में जलने को तैयार हो जा । ब्राह्मण ने कहा, भस्म होना स्वीकार है, मेरी राख भी मुस्लमान नही हो सकती । ऐसे धर्मभक्त जाति का अपमान करना, वेदों तथा मानवता का अपमान करना नही है ??
ब्राह्मणो के कारण ही आज वेद सुरक्षित है ।

वैश्यों ओर राजाओ की अनबन किस बात पर होती थी, क्या आप जानते है ..??
मंदिर बनाने को लेकर, दान करने को लेकर,
राजा कहता था, मंदिर का खर्च मेरा,
सेठ राजा से नाराज होता था, की आप राजा है तो क्या अपनी मनमर्जी करेंगे ?
इस मंदिर में तो धन वैश्यों का लगेगा,
यही बात दान दक्षिणा के समय लागू होती थी ।।

यह एक शतरंज के खेल की तरह था, जिसमे कभी राजा जीतता, तो कभी बनिया ।
बणियो की बनाई लाखो धर्मशालायें करोड़ो हिंदुओ को सुख दे रही है ??

क्या ऐसे धर्मभक्तो का अपमान करना, राष्ट्र वेद मानवता का अपमान करना नही है ??

आज हम जितने भी प्राचीन मंदिर आदि देखते है, यह किसने बनवाये ?

कौन था इंजीनियर ?

अगर वह इंजीनियर/ मजदूर/कारीगर देश से प्यार नही करता,

तो क्या इतने सुंदर मंदिर बन पाते,

इन्ही मंदिरो , कलाकृतियों के कारण ही तो हम सीना चौड़ा करके घूमते है । याद रहे, शुद्र सनातन धर्म की नींव है, अगर नींव ढह गई, तो कुछ शेष नही बचेगा । शुद्र रक्षा ही सनातन धर्म की रक्षा है ।।

ऐसे शूद्रों का अपमान करना, क्या वेदों का अपमान करना नही ह

मृत्यु के चौदह प्रकार

श्री रामचरित मानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने मृत्यु को मरण ही नहीं माना अपितु जीवित व्यक्ति में जीवन रहते हुए भी वह तब मृत हो जाता है जब उसके अन्दर यह भाव उत्पन्न हो जाता है जिस भाव, स्वभाव का वर्णन अंगद के द्वारा रावण को समझाया जाता है। जय हो रामचरित मानस की। जय हो सनातन धर्म की।। जय हो मर्यादा पुरुषोत्तम राम की।। जय रामलला हनुमान की*

*राम और रावण का युद्ध चल रहा था, तब अंगद रावण को बोले- तू तो मरा हुआ है, तुझे मारने से क्या फायदा?*

*रावण बोला– मैं जीवित हूँ, मरा हुआ कैसे?*

अंगद बोले सिर्फ साँस लेने वालों को जीवित नहीं कहते- साँस तो लुहार का भाता भी लेता है.तब अंगद ने 14 प्रकार की मृत्यु बतलाई.

अंगद द्वारा रावण को बतलाई गई, ये बातें आज के दौर में भी लागू होती है

यदि किसी व्यक्ति में इन 14 दुर्गुणों में से एक दुर्गुण भी आ जाता है तो वह मृतक समान हो जाता है !

लंका काण्ड में यह प्रसंग अत्यंत सारगर्भक और शिक्षणीय :

कौल कामबस कृपिन विमूढ़ा !

अतिदरिद्र अजसि अतिबूढ़ा !!

सदारोगबस संतत क्रोधी !

विष्णु विमूख श्रुति संत विरोधी !

तनुपोषक निंदक अघखानी !

जिवत शव सम चौदह प्रानी !!

1) कामवश:-जो व्यक्ति अत्यन्त भोगी हो, कामवासना में लिप्त रहता हो, जो संसार के भोगों में उलझा हुआ हो, वह मृत समान है; जिसके मन की इच्छाएं कभी खत्म नहीं होती और जो प्राणी सिर्फ अपनी इच्छाओं के अधीन होकर ही जीता है, वह मृत समान है; वह अध्यात्म का सेवन नहीं करता है, सदैव वासना में लीन रहता है !!

2) वाम मार्गी:-जो व्यक्ति पूरी दुनिया से उल्टा चले, जो संसार की हर बात के पीछे नकारात्मकता खोजता हो; नियमों, परंपराओं और लोक व्यवहार के खिलाफ चलता हो, वह वाम मार्गी कहलाता है; ऐसे काम करने वाले लोग मृत समान माने गए हैं !!

3) कंजूस:-अति कंजूस व्यक्ति भी मरा हुआ होता है; जो व्यक्ति धर्म के कार्य करने में, आर्थिक रूप से किसी कल्याण कार्य में हिस्सा लेने में हिचकता हो, दान करने से बचता हो, ऐसा आदमी भी मृत समान ही है !!

4) अति दरिद्र:-गरीबी सबसे बड़ा श्राप है; जो व्यक्ति धन, आत्म-विश्वास, सम्मान और साहस से हीन हो, वो भी मृत ही है; अत्यन्त दरिद्र भी मरा हुआ है, दरिद्र व्यक्ति को दुत्कारना नहीं चाहिए, क्योंकि वह पहले ही मरा हुआ होता है, गरीब लोगों की मदद करनी चाहिए !!

5) विमूढ़:-अत्यन्त मूढ़ यानी मूर्ख व्यक्ति भी मरा हुआ होता है; जिसके पास विवेक, बुद्धि नहीं हो, जो खुद निर्णय ना ले सके यानि हर काम को समझने या निर्णय को लेने में किसी अन्य पर आश्रित हो, ऐसा व्यक्ति भी जीवित होते हुए मृत के समान ही है, मूढ़ अध्यात्म को समझता नहीं है !!

6) अजसि:-जिस व्यक्ति को संसार में बदनामी मिली हुई है, वह भी मरा हुआ है; जो घर, परिवार, कुटुंब, समाज, नगर या राष्ट्र, किसी भी ईकाई में सम्मान नहीं पाता है, वह व्यक्ति मृत समान ही होता है !!

7) सदा रोगवश:-जो व्यक्ति निरंतर रोगी रहता है, वह भी मरा हुआ है; स्वस्थ शरीर के अभाव में मन विचलित रहता है, नकारात्मकता हावी हो जाती है, व्यक्ति मृत्यु की कामना में लग जाता है, जीवित होते हुए भी रोगी व्यक्ति जीवन के आनंद से वंचित रह जाता है !!

8) अति बूढ़ा:-अत्यन्त वृद्ध व्यक्ति भी मृत समान होता है, क्योंकि वह अन्य लोगों पर आश्रित हो जाता है; शरीर और बुद्धि, दोनों असक्षम हो जाते हैं, ऐसे में कई बार स्वयं वह और उसके परिजन ही उसकी मृत्यु की कामना करने लगते हैं, ताकि उसे इन कष्टों से मुक्ति मिल सके !

9) सतत क्रोधी:-24 घंटे क्रोध में रहने वाला व्यक्ति भी मृत समान ही है; हर छोटी-बड़ी बात पर क्रोध करना, ऐसे लोगों का काम होता है, क्रोध के कारण मन और बुद्धि दोनों ही उसके नियंत्रण से बाहर होते हैं, जिस व्यक्ति का अपने मन और बुद्धि पर नियंत्रण न हो, वह जीवित होकर भी जीवित नहीं माना जाता है; पूर्व जन्म के संस्कार लेकर यह जीव क्रोधी होता है, क्रोधी अनेक जीवों का घात करता है और नरक गामी होता है !!*

10) अघ खानी:-जो व्यक्ति पाप कर्मों से अर्जित धन से अपना और परिवार का पालन-पोषण करता है, वह व्यक्ति भी मृत समान ही है; उसके साथ रहने वाले लोग भी उसी के समान हो जाते हैं, हमेशा मेहनत और ईमानदारी से कमाई करके ही धन प्राप्त करना चाहिए, पाप की कमाई पाप में ही जाती है और पाप की कमाई से नीच गोत्र, निगोद की प्राप्ति होती है !!

11) तनु पोषक:-ऐसा व्यक्ति जो पूरी तरह से आत्म संतुष्टि और खुद के स्वार्थों के लिए ही जीता है, संसार के किसी अन्य प्राणी के लिए उसके मन में कोई संवेदना ना हो, तो ऐसा व्यक्ति भी मृतक समान ही है; जो लोग खाने-पीने में, वाहनों में स्थान के लिए, हर बात में सिर्फ यही सोचते हैं कि सारी चीजें पहले हमें ही मिल जाएं, बाकि किसी अन्य को मिले ना मिले, वे मृत समान होते हैं, ऐसे लोग समाज और राष्ट्र के लिए अनुपयोगी होते हैं; शरीर को अपना मानकर उसमें रत रहना मूर्खता है क्योंकि यह शरीर विनाशी है, नष्ट होने वाला है !!

12) निंदक:-अकारण निंदा करने वाला व्यक्ति भी मरा हुआ होता है; जिसे दूसरों में सिर्फ कमियाँ ही नज़र आती हैं, जो व्यक्ति किसी के अच्छे काम की भी आलोचना करने से नहीं चूकता है, ऐसा व्यक्ति जो किसी के पास भी बैठे, तो सिर्फ किसी ना किसी की बुराई ही करें, वह इंसान मृत समान होता है, परनिंदा करने से नीच गोत्र का बन्ध होता है !!

13) परमात्म विमुख:-जो व्यक्ति परमात्मा का विरोधी है, वह भी मृत समान है; जो व्यक्ति ये सोच लेता है कि कोई परमतत्व है ही नहीं; हम जो करते हैं, वही होता है, संसार हम ही चला रहे हैं, जो परमशक्ति में आस्था नहीं रखता है, ऐसा व्यक्ति भी मृत माना जाता है !!

14) श्रुति, संत विरोधी:-जो संत, ग्रंथ, पुराण का विरोधी है, वह भी मृत समान होता है; श्रुत और सन्त ब्रेक का काम करते हैं, अगर गाड़ी में ब्रेक ना हो तो वह कहीं भी गिरकर एक्सीडेंट हो सकता है; वैसे ही समाज को सन्त के जैसे ब्रेक की जरूरत है नहीं तो समाज में अनाचार फैलेगा !

।। 🌹🌹जै श्री राधे राधे जी ।

गोबर गणेश मुहावरे का मतलब

ऐसा प्रतीत होता है सनातन धर्म को अधिकाधिक जानने की आवश्यकता है क्योंकि इसी प्रकार ये क्रम चलता रहा तो सभी एकसाथ इस धर्म के विषय मे अनर्गल प्रलाप करते रहेंगे, सहिष्णु होने का अर्थ सभी कुछ सहन करना नही है ,

आपको इस मुहावरे को नकारत्मक अर्थ अधिक प्रिय लगता है क्योंकि इसमें सनातन धर्म का अपमान दॄष्टिगत होता है, परन्तु आज आपको इसका वास्तविक अर्थ ज्ञात होने का समय आ गया है।

  • गोबर गणेश मुहावरे का संदर्भ पुराणों से जुड़ा है,

प्रथम कथा के अनुसार

  • देवों-दानवों में हुए अमृतमंथन के दौरान नंदा, सुभद्रा, सुरभि, सुशीला और बहुला पांच कामधेनुएं भी निकली थीं। देवों को दानवों के संत्रास से मुक्ति दिलाने के लिए आदिशक्ति दुर्गा ने सुरभि गाय के गोबर से गणेशजी की रचना की। उन्हें शक्तियां प्रदान कर स्वयं का वाहन सिंह प्रदान किया, गोबर से गणेश की रचना एक महान उद्धेश्य के निमित हुई, देवी दुर्गा ने अपनी शक्तियों का संचार कर उसे समर्थ बनाया। गणेशजी ने दानवों का संहार किया और गणनायक या गणपति की उपाधि प्राप्त की।

द्वितीय कथा के अनुसार

  • हमारे धर्म ग्रंथों के अनुसार, महर्षि वेद व्यास ने महाभारत की रचना की है उसके वर्णन को लिपिबद्ध करना उनके वश का नहीं था। अतः उन्हें एक लेखक की आवश्यकता थी जो उनके कथन और विचारों को बिना बाधित किए लेखन कार्य करता रहे. क्योंकि बाधा आने पर विचारों की सतत प्रक्रिया प्रभावित हो सकती थी. अतः उन्होंने श्री गणेश जी की आराधना की और गणपति जी से महाभारत लिपिबद्ध करने की प्रार्थना की, गणेश जी ने कहा कि मैं महाभारत लिख तो दूंगा। आपको अनवरत कथा बताते रहना होगा, यदि आपकी कथा रुकी तो मेरी लेखनी तो रुकेगी ही साथ ही मैं लेखन का कार्य भी छोड़ दूंगा, आपकी कथा पूर्ण हो या अपूर्ण। व्यासजी ने इसे मान लिया और गणेशजी से अनुरोध किया कि वे भी मात्र अर्थपूर्ण और सत्य बातें, समझ कर लिखें। इसके पीछे उनकी धारणा यह थी कि महाभारत और गीता सनातन धर्म के सबसे प्रामाणिक पाठ के रूप में स्थापित हो  गणपति जी ने सहमति दी और दिन-रात लेखन कार्य प्रारम्भ हुआ और इस कारण गणेश जी को थकान तो होनी ही थी, परन्तु उन्हें जल पीना भी वर्जित था। अतः गणपति जी के शरीर का तापमान बढ़े नहीं, इसलिए वेदव्यास ने उनके शरीर पर गोबर और मिट्टी का लेप किया और भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को गणेश जी की पूजा की। मिट्टी का लेप सूखने पर गणेश जी के शरीर में अकड़न आ गई, इसी कारण गणेश जी का एक नाम पर्थिव गणेश भी पड़ा। ऐसा माना जाता है कि व्यासजी जो भी श्लोक बोलते थे, गणेशजी उसे शीघ्रतापूर्वक लिख लेते थे। अतः व्यासजी ने गणेशजी की गति को मंद करने के लिए सरल श्लोकों के पश्चात एक कठिन श्लोक बोलते थे। महाभारत का लेखन कार्य गणेश चतुर्थी को आरम्भ हुआ और अनन्त चतुर्दशी को सम्पन्न हुआ था। उस दिन गणेश जी के शरीर के तापमान को अल्प करने के लिए और उनके लेप को हटाने के लिए जल अर्पण किया । समीप के एक जलकुंड में उन्हें बैठाया अतः उस दिन से गणेश विसर्जन का आरम्भ माना जाता है।

गोबर गणेश के प्रचलित नकारत्मक अर्थ

  • गोबरगणेश मुहावरे में यह संदर्भ दॄष्टिगत नही हो पाता है परन्तु नकारत्मक अर्थवत्ता पूर्णतया दिख रही है।
  • लौकिक अर्थों में किसी व्यक्ति को गोबरगणेश कहने के पीछे यही आशय है कि वह मूर्ख है और पौराणिक गोबरगणेश की तरह उसमें अलौकिक क्षमता नहीं हैं, वह निरा मिट्टी का माधौ है।
  • कुछ मूर्ख देसी गौ के गोबर में उभरी रेखाओं में नजर आती विभिन्न आकृतियों में भी गणेश का रूपाकार देखते हुए गोबरगणेश को इससे जोड़ते हैं।
  • धन्यवाद

सनातन (हिंदू धर्म) धार्मिक ग्रंथ जैसे वेद, पुराण, शास्त्र, उपनिषद इत्यादि पवित्र ग्रंथ के नाम और इनकी संख्या

बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न पूछा अपने। इस प्रश्न की आवश्यकता इसलिए भी अधिक है क्योंकि आज का समाज अपने गौरवपूर्ण इतिहास को भूलता जा रहा है। इसीलिए सबसे पहले तो आपके इस प्रश्न के लिए आपका धन्यवाद। इस उत्तर के लिए बहुत शोध करना पड़ा है, अतः यदि अच्छा लगे तो औरो के साथ भी साझा करें। अब आइये इसके विषय में जान लेते हैं:

हिन्दू धर्मग्रंथ मुख्यतः दो भागों में बटें हैं - श्रुति एवं स्मृति। इस उत्तर में इन दोनों के विस्तार में नही जाऊंगा, संक्षेप में श्रुति में केवल वेद आते हैं और जो श्रुति में नही है, अर्थात वेदों के अतिरिक्त सब कुछ, वो स्मृति में आते हैं।

श्रुतियाँ:

  1. ऋग्वेद - 10 मंडल, 10552 श्लोक
  2. सामवेद - 6 अध्याय, 1875 श्लोक
  3. यजुर्वेद - 40 अध्याय, 1975 श्लोक
  4. अथर्ववेद - 20 कांड, 5977 श्लोक

स्मृतियाँ:

  1. मूल स्मृतियाँ - कुल 18 हैं पर और भी स्मृतियाँ बाद में जोड़ी गयी जिनमें मनुस्मृति सबसे प्रसिद्ध है। मूल स्मृतियाँ हैं:
    1. वशिष्ठ स्मृति
    2. अत्रि स्मृति
    3. औषनस स्मृति
    4. हरिता स्मृति
    5. विष्णु स्मृति
    6. अंगिरा स्मृति
    7. यम स्मृति
    8. आपस्तम्ब स्मृति
    9. सम्वर्त स्मृति
    10. कात्यायन स्मृति
    11. बृहस्पति स्मृति
    12. व्यास स्मृति
    13. पराशर स्मृति
    14. शंख स्मृति
    15. लिखित स्मृति
    16. दक्ष स्मृति
    17. गौतम स्मृति
    18. शातातप स्मृति
  2. रामायण - 6 कांड, 24000 श्लोक, इसके अतिरिक्त अलग से उत्तर रामायण (उत्तर कांड नही) जो वास्तव में काकभुशुण्डि और गरुड़ संवाद है। महर्षि वशिष्ठ ने भी रामायण लिखा था, कुछ लोग उसे योगवासिष्ठ कहते हैं। महाबली हनुमान ने भी हनुमद रामायण लिखी थी जिसे उन्होंने स्वयं समुद्र में डुबा दिया। इसके अतिरिक्त वाल्मीकि रामायण के कई अनुवाद हैं, कुछ प्रमुख हैं:
    1. रामचरितमानस (अवधी) - 7 कांड, 10902 दोहे
    2. अध्यात्म रामायण (संस्कृत) - 7 खंड, 4500 श्लोक
    3. आनंद रामायण (संस्कृत) - 7 कांड
    4. अद्भुत रामायण (संस्कृत) - 27 सर्ग
    5. कम्ब रामायण (तमिल) - 6 कांड, 123 अध्याय, 12000 श्लोक
    6. रंगनाथ रामायण (तेलुगु) - 17290 द्विपद
    7. भावार्थ रामायण (मराठी)
    8. जगमोहन रामायण (उड़िया)
    9. रामचंद्र चरित्र पुराण (कन्नड़)
    10. कृतिवास रामायण (बंगाली)
  3. महाभारत - 18 पर्व, 100000 श्लोक। इसके भी कई अन्य संस्करण हैं।
    1. श्रीमद्भगवद्गीता - महाभारत का ही एक भाग, 18 अध्याय, 700 श्लोक
    2. ऋषि अष्टावक्र द्वारा लिखा गया अष्टावक्र गीता भी बहुत प्रसिद्ध है।
  4. महापुराण - महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित। ये कुल 18 हैं जिनमें कुल 409500 श्लोक हैं, ये भी अधूरे हैं क्योंकि अधिकतर लुप्त हो चुके हैं:
    1. ब्रह्म पुराण - 10000 श्लोक
    2. पद्म पुराण - 55000 श्लोक
    3. विष्णु पुराण - 23000 श्लोक
    4. शिव पुराण - 24000 श्लोक
    5. भागवत पुराण - 18000 श्लोक
    6. नारद पुराण - 25000 श्लोक
    7. मार्कण्डेय पुराण - 9000 श्लोक
    8. अग्नि पुराण - 15400 श्लोक
    9. भविष्य पुराण - 14500 श्लोक
    10. ब्रह्मवैवर्त पुराण - 18000 श्लोक
    11. लिंग पुराण - 11000 श्लोक
    12. वाराह पुराण - 24000 श्लोक
    13. स्कन्द पुराण - 81100 श्लोक
    14. वामन पुराण - 10000 श्लोक
    15. कूर्म पुराण - 17000 श्लोक
    16. मत्स्य पुराण - 14000 श्लोक
    17. गरुड़ पुराण - 19000 श्लोक
    18. ब्रह्मांड पुराण - 12000 श्लोक
  5. उप पुराण - वेदव्यास एवं अन्य ऋषियों द्वारा लिखा गया। ये भी मूल रूप से 18 हैं किंतु बाद में कुछ और भी जोड़े गए। मुख्य 18 उप पुराण हैं:
    1. आदि पुराण - लेखक सनत्कुमार
    2. नृसिंह पुराण - लेखक वेदव्यास
    3. नंदी पुराण - लेखक कार्तिकेय
    4. शिवधर्म पुराण - लेखक वेदव्यास
    5. आश्चर्य पुराण - लेखक महर्षि दुर्वासा
    6. नारदीय पुराण - लेखक देवर्षि नारद
    7. कपिल पुराण - लेखक कपिल मुनि
    8. मानव पुराण - लेखक देवर्षि नारद
    9. उष्णासा पुराण - लेखक ऋषि उष्णस
    10. ब्रह्मांड पुराण - लेखक वेदव्यास
    11. वरुण पुराण - लेखक वरुण देव
    12. कालिका पुराण - लेखक वेदव्यास
    13. माहेश्वर पुराण - लेखक कार्तिकेय
    14. साम्ब पुराण - लेखक सूर्यदेव
    15. सौर पुराण - लेखक सूर्यदेव
    16. पराशर पुराण - लेखक महर्षि पराशर
    17. मरीचि पुराण - लेखक महर्षि मरीचि
    18. भार्गव पुराण - लेखक महर्षि भृगु
  6. उप वेद
    1. आयुर्वेद
    2. धनुर्वेद
    3. गन्धर्ववेद
    4. शास्त्रार्थ
  7. संहिता - मूल 18 संहितायें हैं, किन्तु कुछ अन्य संहिताओं का भी वर्णन आता है। मुख्य संहिता है - भृगु, चक्र, देव, गर्ग, घेरन्द्र, कश्यप, शिव, वृहद, सुश्रुत, याज्ञवल्क इत्यादि।
  8. आरण्यक - ये मूल रूप से 10 हैं किंतु अन्य भी माने जाते हैं।
  9. ब्राह्मण - हर वेद से जुड़े कई ब्राह्मण (ग्रंथ) हैं। इसके अतिरिक्त 40 से अधिक ब्राह्मण ऐसे हैं जो अब लुप्त हो चुके हैं। कुछ मुख्य उपलब्ध ब्राह्मण हैं:
    1. ऋग्वेद में प्रमुख ब्राह्मण हैं - ऐत्रेय, कौशिक, सांख्य
    2. सामवेद में प्रमुख ब्राह्मण हैं - पंचविश, ताण्ड्य, सद्विष, संविधान, द्वैत, संहितोपनिषद, आर्षेय, वंश, जैमनिय, चंडयोग, मंत्र
    3. यजुर्वेद में प्रमुख ब्राह्मण हैं - शतपथ (शुक्ल), तैत्रेय (कृष्ण)
    4. अथर्ववेद में वैसे तो कई बरखमं हैं किंतु गोपथ सबसे प्रसिद्ध है।
  10. उपनिषद - ऐसी मान्यता है कि इनकी संख्या 300 से भी अधिक थी किन्तु अब केवल 108 ही उपलब्ध हैं, शेष लुप्त हो चुके हैं। इन्हें भी वेदों के ही अंतर्गत बांटा गया है।
  11. सांख्य - कई हैं किंतु कुल 7 माने जाते हैं।
  12. अगम - कई हैं किन्तु मुख्यतः 3 भागों में बातें हैं:
    1. शिव अगम - कुल 28
    2. शाक्त अगम - कुल 77
    3. वैष्णव अगम - कुल 108
  13. दर्शन - कई हैं किंतु मुख्य 6 माने जाते हैं:
    1. न्याय दर्शन
    2. वैशेषिका दर्शन
    3. सांख्य दर्शन
    4. योग दर्शन
    5. मीमांसा दर्शन
    6. वेदांत दर्शन
  14. योग - अत्यंत वृहद, महर्षि वशिष्ठ एवं पतंजलि योग प्रसिद्ध हकन। इसके अतिरिक्त भी कई हैं।
  15. धर्म शास्त्र - कई हैं
  16. धर्म सूत्र - कई हैं
  17. रहस्य शास्त्र - कई हैं
  18. वास्तु शास्त्र - बहुत वृहद
  19. शिल्प शास्त्र - कई हैं
  20. कर्म कांड - अनेकानेक हैं
  21. तंत्र - मुख्य 77 माने जाते हैं
  22. मंत्र - असंख्य

इसके अतिरिक्त भी अनेकानेक ग्रंथ हैं जिसके तो नाम भी लोगों को पता नही है। इन सभी ग्रंथों का एक साथ मिलना तो लगभग असंभव है किंतु फिर भी "गीताप्रेस" में पता करें। अधिकतर तो शुद्ध रूप में वहाँ मिल ही जाएंगे।

इस उत्तर को लिखने में बहुत अधिक शोध और श्रम लगा है। यदि पसंद आया हो तो औरों के साथ भी साझा करें।
जय माँ सरस्वती।
🙏🚩

चित्र स्रोत: गूगल

एकादशी के दिन किस अनाज को खाने तथा किस अनाज को वर्जित करने का प्रावधान है?

एकादशी के दिन किस अनाज को खाने तथा किस अनाज को वर्जित करने का प्रावधान है?

सनातन धर्म मे व्रत उपवास का महत्व

आध्यात्मिक रूप से माना जाता है कि व्रत का प्रभाव और उसका पूर्णरूप से लाभ प्राप्त होने पर मानसिक शुद्धि एवं सात्विक विचारों का उन्नयन होता है।
अतः सभी को शारीरिक क्षमता के अनुसार सप्ताह में एक दिन या एक पक्ष में एक दिन उपवास या व्रत अवश्य रखना चाहिए।

आदिकाल में देवर्षि नारद ने एक हजार साल तक एकादशी का निर्जल व्रत करके भगवान विष्णु की भक्ति प्राप्त की थी।



वैष्णव के लिए यह सर्वोत्तम व्रत है एकादशी के व्रत में भी कुछ विधान का पालन किया जाता है इसमे वर्जित और पारण योग्य खाद्य पदार्थों का विशेष महत्व है जो कि निम्लिखित हैं

एकादशी के व्रत में वर्जित खाद्य पदार्थ

एकदशी के व्रत में शरीर मे जल की मात्रा जितनी अल्प होगी उतना उत्तम माना जाता है,व्रत पूरा करने में उतनी ही अधिक सात्विकता रहेगी और इस से मन नियंत्रित होता है अतः वर्ष में एक निर्जला एकादशी भी होती है।

एकादशी के व्रतधारी व्यक्ति को गाजर, शलजम, गोभी, पालक, इत्यादि का सेवन नहीं करना चाहिए।

एकदशी के व्रत में बैगन का सेवन करने से सन्तान कष्ट प्राप्त करती हैं।

इसमे अन्न किसी भी प्रकार का जैसे चावल, जौ, दाल, चना, गेंहू राजमा , मसूर, उर्द , सेम इत्यादि पूर्णतया वर्जित है।(चावल और जौ के विषय मे एक कथा भी है)

चावल जौ या अन्न के विषय में वैज्ञानिक तथ्य ये भी है कि इनके उपापचय में जल अधिक चाहिए और एकदशी में जल अल्प पीना चाहिए तो इनका सेवन न करना श्रेयस्कर है।

चंद्रमा मन को अधिक चलायमान न कर पाएं, अतः चावल खाने वर्जित है।
चावल को हविष्य अन्न कहा गया है, अर्थात ये देवताओं का भोजन है अतः साधारण मनुष्य को इसका सेवन नही करना चाहिए।

भगवान विष्णु को तुलसीदल प्रिय है अतः एकादशी को कभी भी तुलसीदल का सेवन नही करना चाहिए,।

पान को विलासिता से जोड़कर देखा जाता है और इसे खाने से विचार दूषित हो जाते है अतः इसका सेवन भूलवश भी न करना चाहिए।

एकादशी के दिन मांस, मदिरा, प्याज, लहसुन जैसी तामसी चीजों का सेवन व्रतधारी और उसके परिवार को कदापि नही करना चाहिए।

इस दिन किसी दूसरे व्यक्ति द्वारा दिया गया अन्न भी ग्रहण नहीं करें, इससे पुण्य नष्ट हो जाते है।

एकादशी में ग्रहण योग्य खाध पदार्थ

सर्वप्रथम ये प्रयास करना चाहिए कि कुछ न खाया जाए परन्तु सभी की शारिरिक क्षमता उतनी नही होती ,अतः व्रत में कुछ पदार्थ का सेवन सम्पूर्ण दिवस में एक बार किया जा सकता है।

केला, आम, अंगूर, बादाम, पिस्ता इत्यादि अमृत फलों का सेवन करें।
दुग्ध का सेवन किया जा सकता है।

आलू ,शकरगन्दी, अरबी , कद्दू उबाल कर नमक डालकर ग्रहण कर सकते हैं

पौराणिक कथा

माता के क्रोध से रक्षा के लिए महर्षि मेधा ने देह छोड़ दी थी, उनके शरीर के भाग धरती के अंदर समा गए, कालांतर में वही भाग जौ और चावल के रुप में जमीन से पैदा हुए। कहा गया है कि जब महर्षि की देह भूमि में समाई, उस दिन एकादशी थी।
अतः प्राचीन काल से ही यह परंपरा शुरु हुई, कि एकादशी के दिन चावल और जौ से बने भोज्य पदार्थ नहीं खाए जाते हैं।

एकादशी के दिन चावल का सेवन महर्षि की देह के सेवन के बराबर माना गया है।

अंततः
पूजा में, व्रत या उपवास में या आध्यात्मिक क्रिया का फल लेने के लिए आप के भाव की महत्ता है यदि आपके भाव उत्तम है तो फल भी उत्तम प्राप्त होगा अन्यथा कोई फल न मिलेगा

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