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शनिवार, 13 नवंबर 2021

राजस्थान के नाथद्वारा में भगवान शिव की 351 फीट की मूर्ति बनाई

पोस्ट दो भागों में है... पढ़ना है तो दोनों पढ़ें अन्यथा इग्नोर करें...

राजस्थान के नाथद्वारा में भगवान शिव की 351 फीट की मूर्ति बनाई जा रही है. इस मूर्ति का कार्य लगभग अंतिम चरण में है. यह दुनिया की अब तक की सबसे ऊंची शिव प्रतिमा होगी.
पिछले करीब 4 सालों से मूर्ति के निर्माण का कार्य चल रहा है. अब तक लगभग 90 प्रतिशत काम पूरा किया जा चुका है. भगवान शिव की ध्यान करती मूर्ति पर लाइटिंग का कार्य किया जा रहा है. लिहाजा मूर्ति को 20 किमी दूर से ही देखा जा सकेगा.

प्रतिमास्थल का नाम तत्पदम् उपवन रखा गया है. जिसके 44 हजार स्क्वायर फीट में गार्डन बन कर तैयार हो गए हैं. 52 हजार स्क्वायर फीट में तीन हर्बल गार्डन होंगे. जिनमें विभिन प्रकार की जड़ी-बूटियों के पेड़ पौधे लगाए जा रहे हैं.

मिराज ग्रुप की ओर से नगर के गणेश टेकरी पर बनने वाली शिव प्रतिमा के लिए 110 फीट ऊंचा आधार बनाया गया है. जिस पर कैलाश पर्वत व पर्वत मालाओ जैसा 3D कलर किया गया है. मूर्ति की कुल लंबाई 351 फीट होगी. 

शिव प्रतिमा के काम में अत्याधुनिक तकनीक का इस्तेमाल किया जा रहा है. पिछले दिनों ही पूर्व क्रिकेटर कपिल देव ने प्रतिमा का अवलोकन किया था. कपिल देव की कंपनी की ओर से ही मूर्ति पर लाइटिंग का कार्य किया जा रहा है.

प्रतिमा के निर्माण के लिए सरकार से 25 बीघा जमीन 99 वर्ष की लीज पर ली गई है. प्रतिमा स्थल पर उपवन में आध्यात्म, मनोरंजन, प्रकृति, पर्यटन आदि का ध्यान रखा है. हाइवे की ओर से रहे मुख्य गेट पर 7 मीटर ऊंची शिवलिंग की प्रतिमा लगाई गई है. 

गेट के एक तरफ टिकट कक्ष बनाया गया है. मेन गेट से अंदर जाने पर ग्लास हाऊस, नर्सरी, कैफेटेरिया, कॉटेज, ओपन थियेटर, म्यूजिकल लाइटिंग फाउंटेन, रिसेप्शन प्लाजा बन कर लगभग तैयार हो चुके हैं.बरसात धूप से बचाने के लिए इस पर जिंक की कोटिंग कर कॉपर कलर किया गया है. जो 20 साल तक फीका नहीं पड़ेगा. 

मूर्ति के अंदर बारह तल बनाये गए है, जिनपर विभिन प्रकार के वर्चुअल शो और प्रदर्शनी लगाई जाएंगी. मूर्ति के अंदर 4 लिफ्ट लगाई गई है. जिनमें से 2 लिफ्ट में एक बार में 29-29 श्रद्धालु 110 फीट तक और दूसरी लिफ्ट में 13-13 श्रद्धालु 280 फीट तक एक साथ आ जा सकेंगे. 

यहां श्रद्धालुओं के लिए चार लिफ्ट लगाई गई है. इसके अलावा तीन सीढ़ियां हैं, ताकि हर रोज हजारों लोग इसके दर्शन कर सके. इसके अलावा अंदर पानी के 55 हजार लीटर के दो वाटरफॉल बनाए हैं. जिसमें एक वाटरफॉल से शिवजी का अभिषेक होगा. दूसरा पानी आग बुझाने के लिए इस्तेमाल होगा.

ऊंचाई पर होने के कारण हवा के वेग और भूकम्प के अधिकतम दबाव को ध्यान में रख कर निर्माण किया गया है. 250 किमी रफ्तार में हवा चलने के दौरान भी प्रतिमा पर कोई दबाव नहीं पड़ेगा. भूकंप हवा के वेग सहित सुरक्षा का ध्यान रखा गया है.

20 किमी दूर से दिखेगी झलक

पर्यटक 280 फीट की ऊंचाई तक जाकर यहां का नजारा देख सकेंगे. निर्माण स्थल से करीब 20 किमी की दूरी पर स्थित कांकरोली फ्लाईओवर से भी यह दिखाई देती है. इसमें रोशनी का विशेष प्रबंध किया गए है. जसके कारण रात को भी दूर से ही इसकी झलक दिखाई देगी. इसके लिए कपिल देव की कंपनी की ओर से अमेरिका से भी सामान मंगवाया गया है.

पहाड़ी क्षेत्र पर निर्माण से पूर्व इस स्थान की गहन जांच की गई थी. इसके लिए ऑस्ट्रेलिया की एक कंपनी के विशेषज्ञों की मदद ली गई थी. उन्होंने यहां हवाओं की गति और तमाम भौगोलिक परिस्थितियों का अध्ययन किया और उसके बाद निर्माण प्रारंभ हुआ था. अब लोगों को इसका निर्माण कार्य पूरा होने का इंतजार है.

यह है मूर्ति की खासियत

3000 टन स्टील,30 हजार टन प्रतिमा का वजन,315 फीट होगी त्रिशूल की लंबाई,16 फीट ऊंचा होगा जूड़ा,60 फीट लंबा होगा महादेव का चेहरा,275 फीट की ऊंचाई पर गर्दन,160 फीट की ऊंचाई पर कंधा,175 फीट की ऊंचाई पर महादेव का कमरबंद,150 फीट पंजे से घुटने तक की ऊंचाई,65 फीट लंबा पंजा .

प्रतिमा को स्टील रॉड के मॉड्यूल की सहायता से बनाया गया है. स्टील से हर एक फीट पर सरिए की मदद से ढांचा तैयार कर इसमें कंक्रीट भरी गई. इस पर तांबा चढ़ाया गया. पूर्व में सिडनी में विंड टनल में गुणवत्ता की जांच की गई थी. प्रतिमा की सुरक्षा गुणवत्ता की जांच सिडनी में की गई. इसके लिए एक मीटर का मॉडल बना कर उसे विंग टनल में टेस्टिंग किया गया था. ऊंचाई पर होने के कारण हवा के वेग और भूकंप के अधिकतम दबाव को ध्यान में रखते हुए 250 साल में आने वाले भूकंप की अधिकतम क्षमता, हवा के वेग सहित सुरक्षा को ध्यान में रखकर निर्माण किया गया है.

वाह-वाह.. क्या बात है ? ऐसा लग रहा है न तो 
अब इसका दूसरा भाग पढ़िए.
आपके लिए विशेष रूप से
हिन्दुओं को धर्म शिक्षण न देने का परिणाम स्पष्ट दिख रहा है ! श्री ऋगवैदिय पूर्वाम्नाय गोवर्धनमठ पुरीपीठ के वर्तमान १४५ वें श्रीमज्जगद्गुरू शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वतीजी महाराज ने कहा है कि शास्त्रों के अनुसार, कलयुग में भगवान की मूर्ति मनुष्याकार ही होनी चाहिए ! बड़ी मूर्ति शास्त्र विरुद्ध है । यदि बड़ी मूर्ति बनाई तो प्राणप्रतिष्ठा भी करनी होगी और प्राणप्रतिष्ठा के बाद उस मूर्ति में प्राण आएंगे तो उसे भोग भी उस प्रमाण में ही लगाना होगा । यदि नहीं लगाया तो  अनिष्ट भले न हो, कल्याण तो नहीं होगा । (उन्होंने तो ये कहा है कि मूर्ति स्थापित करने वालों को ही खा जाएगी) बात सच है या झूठ ? इसका निर्णय कुछ वर्षों में हो जाएगा...अभी किसी भी टिप्पणी का उत्तर देने को बाध्य नहीं हूँ... यदि कोई ज्ञानी हिन्दू यह कहता है कि यह प्रतिमा (मूर्ति नहीं) केवल सजावट के लिए लगाई है तो उन्हें बता दें कि हमारे भगवान सजावट की वस्तु नहीं हैं, जो उन्हें कथित महात्माओं की तरह चौराहों पर खड़ा कर दें ! वे पूजनीय हैं, उनका मन्दिर होना चाहिए, जिसका गर्भगृह हो और उसपर शिखर और ध्वज भी हो ! और उनका नित्य षोडशोपचार अथवा न्यूनतम पंचोपचार पूजन तो होना ही चाहिए । अब आप ही निर्णय करें कि कौनसा मत सही है🙏🙏

गुरुवार, 11 नवंबर 2021

अरारोट पाउडर क्या होता है?

दक्षिण अमेरिकी अरावक लोगों ने इस पौधे के प्रकंद से कॉर्नस्टार्च का इस्तेमाल घावों से जहर निकालने के लिए किया था जो कि जहरीले तीरों से घाव में चला जाता था। इसका नाम Arrow Root है इस पोदे की जड़ अदरक जा अरबी जैसी गांठ होती है। उस से इस का आटा बनाया जाता है अरारोट का उपयोग अक्सर नाजुक सॉस, पुडिंग और आइसिंग के लिए किया जाता है जिन्हें पकाने की अनुमति नहीं होती है। गर्म सॉस आदि में डालने से पहले अरारोट के आटे को ठंडे तरल में मिलाना चाहिए।
अन्य व्यावसायिक रूप से उपलब्ध स्टार्च उत्पादों के विपरीत जैसे आलू स्टार्च या कॉर्न स्टार्च, जो गाढ़े सॉस को दूधिया बना देता है, अरारोट का आटा सॉस का रंग और उनकी की मूल स्पष्टता को बरकरार रखता है। रस (जेली बनाना)। अरारोट भोजन या अरारोट बिल्कुल गंधहीन और स्वादहीन होता है। यह गेहूं के आटे से लगभग दोगुना गाढ़ा होता है।

गर्दन पर जमी मैल को कैसे हटा सकते हैं?

 


कुछ लोगों की गर्दन पर इतनी मैल जम जाती है कि वह काली -काली दिखाई देती है।वे इसे उतारने की काफी कोशिश करते हैं ।लेकिन फिर भी वह नहीं उतरती है।परंतु कुछ उपाय करके इस मैल को हटाया जा सकता है। इसके अलावा बगल के नीचे वाले हिस्से में और भी कई जगह पर स्किन काली-काली हो जाती है।

आइए जानते हैं कि कैसे इस मैल को साफ किया जा सकता है-

मुल्तानी मिट्टी का लेप लगाकर-

गर्दन पर मुल्तानी मिट्टी में दही और नींबू मिलाकर उसका पेस्ट बनाकर कुछ देर लगाने से भी उस मैल को हटाया जा सकता है।

नींबू और शहद का लेप लगाकर-

नींबू में शहद मिलाकर गर्दन पर लगा कर कुछ देर के लिए छोड़ दें।थोड़ी देर बाद इसे गर्म पानी से धो ले।

बेसन ,नींबू और दही का पेस्ट -

बेसन में थोड़ी सी दही और नींबू मिलाकर पेस्ट बनाकर लगाने से भी गर्दन की मैल को हटाया जा सकता है।

कपड़े पर साबुन लगाकर -

किसी कपड़े पर साबुन लगाकर गर्दन को अच्छी तरह से साफ कर लें।इससे भी काफी मैल दूर हो जाती है।

अगर आप लोगों को मेरी यह जानकारी अच्छी लगी हो तो कृपया मुझे अपवोट करना ना भूलें।

धन्यवाद।

गोपाष्टमी पर्व की कथा, गोपाष्टमी पूजा विधि


 गोपाष्टमी
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भारत में गाय माता के समान है। यहाँ माना जाता है कि सभी देवी, देवता गौ माता के अंदर समाहित रहते है। तो उनकी पूजा करने से सभी का फल मिलता है।

गोपाष्टमी पर्व एवम उपवास इस दिन भगवान कृष्ण एवम गौ माता की पूजा की जाती हैं। हिन्दू धर्म में गाय का स्थान माता के तुल्य माना जाता है, पुराणों ने भी इस बात की पुष्टि की है।भगवान श्री कृष्ण एवम भाई बलराम दोनों का ही बचपन गौकुल में बीता था, जो कि ग्वालो की नगरी थी। ग्वाल जो गाय पालक कहलाते हैं। कृष्ण एवम बलराम को भी गाय की सेवा, रक्षा आदि का प्रशिक्षण दिया गया था। गोपाष्टमी के एक दिन पूर्व इन दोनों ने गाय पालन का पूरा ज्ञान हासिल कर लिया था।
 
 गोपाष्टमी पूजा विधि
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यह पूजा एवम उपवास कार्तिक शुक्ल पक्ष की अष्टमी के दिन होता हैं, इस दिन गौ माता की पूजा की जाती हैं। कहते हैं इस दिन तक श्री कृष्ण एवं बलराम ने गाय पालन की सभी शिक्षा ले कर, एक अच्छे ग्वाला बन गए थे। वर्ष 2021 में गोपाष्टमी 11 नवंबर  को मनाई जायेगी।

अष्टमी तिथि शुरू    22 नवंबर को 07:04 बजे से
अष्टमी तिथि समाप्त    23 नवंबर को 09:40 बजे तक

गोपाष्टमी पर्व का महत्व
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हिन्दू संस्कृति में गाय का विशेष स्थान हैं। माँ का दर्जा दिया जाता हैं क्यूंकि जैसे एक माँ का ह्रदय कोमल होता हैं, वैसा ही गाय माता का होता हैं। जैसे एक माँ अपने बच्चो को हर स्थिती में सुख देती हैं, वैसे ही गाय भी मनुष्य जाति को लाभ प्रदान करती हैं। गाय का दूध, गाय का घी, दही, छांछ यहाँ तक की मूत्र भी मनुष्य जाति के स्वास्थ्य के लिए लाभदायक हैं। इसे कर्तव्य माना जाता हैं कि गाय की सुरक्षा एवम पालन किया जाये। गोपाष्टमी हमें इसी बात का संकेत देती हैं कि पुरातन युग में जब स्वयं श्री कृष्ण ने गौ माता की सेवा की थी, तो हम तो कलयुगी मनुष्य हैं। यह त्यौहार हमें बताता हैं कि हम सभी अपने पालन के लिये गाय पर निर्भर करते हैं इसलिए वो हमारे लिए पूज्यनीय हैं। सभी जीव जंतु वातावरण को संतुलित रखने के लिए उत्तरदायी हैं, इस प्रकार सभी एक दुसरे के ऋणी हैं और यह उत्सव हमें इसी बात का संदेश देता हैं।

गोपाष्टमी कैसे शुरू हुई उसके पीछे एक पौराणिक कथा हैं। किस प्रकार भगवान कृष्ण ने अपनी बाल लीलाओं में गौ माता की सेवा की उसका वर्णन भी इस कथा में हैं।

गोपाष्टमी पर्व की कथा
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कथा 1
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जब कृष्ण भगवान ने अपने जीवन के छठे वर्ष में कदम रखा। तब वे अपनी मैया यशोदा से जिद्द करने लगे कि वे अब बड़े हो गये हैं और बछड़े को चराने के बजाय वे गैया चराना चाहते हैं। उनके हठ के आगे मैया को हार माननी पड़ी और मैया ने उन्हें अपने पिता नन्द बाबा के पास इसकी आज्ञा लेने भेज दिया। भगवान कृष्ण ने नन्द बाबा के सामने जिद्द रख दी, कि अब वे गैया ही चरायेंगे। नन्द बाबा ने गैया चराने के लिए पंडित महाराज को मुहूर्त निकालने कह दिया। पंडित बाबू ने पूरा पंचाग देख लिया और बड़े अचरज में आकर कहा कि अभी इसी समय के आलावा कोई शेष मुहूर्त नही हैं अगले बरस तक। शायद भगवान की इच्छा के आगे कोई मुहूर्त क्या था। वह दिन गोपाष्टमी का था। जब श्री कृष्ण ने गैया पालन शुरू किया। उस दिन माता ने अपने कान्हा को बहुत सुन्दर तैयार किया। मौर मुकुट लगाया, पैरों में घुंघरू पहनाये और सुंदर सी पादुका पहनने दी लेकिन कान्हा ने वे पादुकायें नहीं पहनी। उन्होंने मैया से कहा अगर तुम इन सभी गैया को चरण पादुका पैरों में बांधोगी, तब ही मैं यह पहनूंगा। मैया ये देख भावुक हो जाती हैं और कृष्ण बिना पैरों में कुछ पहने अपनी गैया को चारण के लिए ले जाते।

इस प्रकार कार्तिक शुक्ल पक्ष के दिन से गोपाष्टमी मनाई जाती हैं। भगवान कृष्ण के जीवन में गौ का महत्व बहुत अधिक था। गौ सेवा के कारण ही इंद्र ने उनका नाम गोविंद रखा था। इन्होने गाय के महत्व को सभी के सामने रखा। स्वयं भगवान ने गौ माता की सेवा की।

कथा 2
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कहा जाता है कृष्ण जी ने अपनी सबसे छोटी ऊँगली से गोबर्धन पर्वत को उठा लिया था, जिसके बाद से उस दिन गोबर्धन पूजा की जाती है। ब्रज में इंद्र का प्रकोप इस तरह बरसा की लगातार बारिश होती रही, जिससे बचाने के लिए कृष्ण ने जी 7 दिनन तक पर्वत को अपनी एक ऊँगली में उठाये रखा था। गोपाष्टमी के दिन ही भगवान् इंद्र ने अपनी हार स्वीकार की थी, जिसके बाद श्रीकृष्ण ने गोबर्धन पर्वत नीचे रखा था।

 कथा 3
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गोपाष्टमी ने जुड़ी एक बात और ये है कि राधा भी गाय को चराने के लिए वन में जाना चाहती थी, लेकिन लड़की होने की वजह से उन्हें इस बात के लिए कोई हाँ नहीं करता था। जिसके बाद राधा को एक तरकीब सूझी, उन्होंने ग्वाला जैसे कपड़े पहने और वन में श्रीकृष्ण के साथ गाय चराने चली गई।

कृष्ण जी के हर मंदिर में इस दिन विशेष आयोजन होते है। वृन्दावन, मथुरा, नाथद्वारा में कई दिनों पहले से इसकी तैयारी होती है। नाथद्वारा में 100 से भी अधिक गाय और उनके ग्वाले मंदिर में जाकर पूजा करते है। गायों को बहुत सुंदर ढंग से सजाया जाता है।

  गोपाष्टमी पूजा विधि
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इस दिन गाय की पूजा की जाती हैं। सुबह जल्दी उठकर स्नान करके गाय के चरण स्पर्श किये जाते हैं।
गोपाष्टमी की पूजा पुरे रीती रिवाज से पंडित के द्वारा कराई जाती है।
सुबह ही गाय और उसके बछड़े को नहलाकर तैयार किया जाता है। उसका श्रृंगार किया जाता हैं, पैरों में घुंघरू बांधे जाते हैं,अन्य आभूषण पहनायें जाते हैं।
गाय माता की परिक्रमा भी की जाती हैं। सुबह गायों की परिक्रमा कर उन्हें चराने बाहर ले जाते है।
इस दिन ग्वालों को भी दान दिया जाता हैं। कई लोग इन्हें नये कपड़े दे कर तिलक लगाते हैं।
शाम को जब गाय घर लौटती है, तब फिर उनकी पूजा की जाती है, उन्हें अच्छा भोजन दिया जाता है। खासतौर पर इस दिन गाय को हरा चारा खिलाया जाता हैं।
जिनके घरों में गाय नहीं होती है वे लोग गौ शाला जाकर गाय की पूजा करते है, उन्हें गंगा जल, फूल चढाते है, दिया जलाकर गुड़ खिलाते है।
औरतें कृष जी की भी पूजा करती है, गाय को तिलक लगाती है। इस दिन भजन किये जाते हैं। कृष्ण पूजा भी की जाती हैं।
गाय को हरा मटर एवं गुड़ खिलाया जाता है।
कुछ लोग गौशाला में खाना और अन्य समान का दान भी करते है।
इस दिन स्कॉन टेम्पल को खूब सजाया जाता हैं। उसमे नाच गाना और भव्य जश्न होता हैं।
गौ माता का हिन्दू संस्कृति में अधिक महत्व हैं। पुराणों में गाय के पूजन, उसकी रक्षा, पालन,पोषण को मनुष्य का कर्तव्य माना गया हैं। हम सभी को गौ माता की सेवा करना चाहिये, क्यूंकि वह भी हमें एक माँ  की तरह ही पालन करती हैं।

गोपाष्टमी के आगमन की बधाई- कार्तिक शुक्लपक्ष-७/८- दिनांक- ११-११-२१


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🐂अपनी पांच वर्ष की छोटी सी आयु में श्रीकॄष्ण ने माता यशोदा और नंदबावा से ह्ठ करके आज्ञा ली कि अब वे अपने ओर सखा ग्वाल बालो के साथ गाय चराने के लिये वन में जाय! कार्तिक शुक्ल- सप्तमि/ अष्टमी के शुभ दिन बहोत आनंद और मंगलगान सहित सारी तैयारीयां के साथ आपने गायों को आगे करके-ग्वाल बालों ओर दाउभैया को संग ले के गाय चराने जाने का प्रारंभ किया

प्रथम गोचारन चले कन्हाई!

🍁  एक व्रजवासी ग्वाला के परिधान में, फेंट में शींग रखे हुये, केश में मयुर पिच्छ धारण किये, ओर भी अधिक सुंदर दिखते थे...सबका मन हरण करते, मधुरी सी मुरली बजाते, अपने नयनो कों इधर उधर नचाते, उछलते कुदते, अपने सखाके कंधे पर अपना हस्त धरके, चित्तहरनी मुस्कान के साथ जब वे व्रजतें वनमें पधारते हते तब सब व्रजवासीयां अपना सब काम जैसे के तैसे छोडके मारग में आकर खडे हो जाते थे...सबको अपनी चंचल चितवन से तनिक आनंदित करते, गायो को हंकारते हुये खेल खेल में ही वन में प्रवेश कर जाते. पूरा दिन अपने आश्रित गायो को, पशुओ को एक वन में से दुसरे वन में, यमुना किनारे, गिरि गोवर्धन पर, तरहटी में ले जाते जहां वे सब कोमल कोमल घास चरते और शीतल मीठा जल पीते.

🐂 शाम को जब घर आने का समय होता तब आप कदंब वृक्ष पर चढ कर सारी गौए को जो तृण के लोभवश श्रीकृष्ण से बहोत दूर चली गई है उनको प्रीति से उनके नाम कभी मुरली में ले कर तो कभी आवाज दे दे कर बुलाते...अरी धोरी, धुमर, कारी, काजर, गांग, पीहर!

🐂 क्वचित आह्वयति प्रीत्या गो गोपाल मनोज्ञया!

🐂 जब श्रीकृष्ण के मुखसे प्रीतिपूर्वक पुकारा हुआ अपना नाम सुनती तब वे सारी की सारी बहोत वेग से, अपना पूंछ उंचा करके मानों दो ही पग हो ऐसे कुदती हुई आ जाती और श्रीकृष्ण के सन्मुख खडी हो कर ऐसे देखती मानों उनका स्वरूपामृत अपने नेत्र रूपी दोनों से भर भरकर पी रही हो! सबके सबकी दृष्टि केवल श्रीकृष्ण के मुखारविंद पर ही गडी रहती!

🐂 बाद में जब उनको बहोत प्रेम से, पुचकारते हुये श्रीकृष्ण व्रज की और ले चलते तबकी शोभा का वर्णन आवनी के बहोत सारे पदो में अष्टछाप आदि भक्त कवियों नें किया है.

🐂आगे गाय, पाछे गाय, इत गाय, उत गाय...
गोविंदा को गायनमें बसिवो ही भावे...
💧गायन सों व्रज छायो, वैकुंठ बिसरायो,
गायन के हेत कर गिरि लै उठावे....
गायन के संग धावे,
गायन में सचु पावे, गायन की खुर रेणु अंग लपटावे...

🐂 छीतस्वामी गिरिधारि, विठ्ठलेश वपुधारी, ग्वारिया को भेख धरे गायन में आवे...🐂🐂🐂🐂🐂🐂🐂🐂🐂🐂

🐂 चारों ओर से गायों से घिरे हुये, गायों के चलने से उडती रज से मुख ओर केशसों भरे हुये, वन की विचित्र धातु से मंडित श्रीअंग और पुष्प-पिच्छों से अपने को सजाये हुये जब श्रीकृष्ण अपने ग्वालबालो के साथ व्रज में प्रवेश करते थे तब व्रज में बहोत लम्बे काल से उनकी प्रतिक्षा करने वाले भक्तो के नेत्रों का उत्सव हो जाता! सबका सन्मान ग्रहण करते और सबको मान देते हुये आप नंदभवन में पधारते जहां श्री यशोदा जी, रोहिणी जी और व्रजभक्त आपके ओवारना लेते. आरती उतारते.

शाम को आप मैया सों कहते है,

🐂"मैया मैं कैसी गाय चराई?
बुझ देख बलभद्र ददासों कैसी मैं टेर बुलाई! "

🐂और 'मैया मैं कलसों गाय चरावन नहिं जाउंगो. और सब ग्वालबाल मुझे ही कहते है, गाय को घेर के वापस लाने के लिये, और मेरे छोटे छोटे पांव एक वन से दुसरे वन में दौडने से बहोत दुःख रहे है, तु बलदाउं भैया से पूछ जो मैं सच न बोलतो हौं तो!"
और ... जब यशोदाजी आपको कुछ रात्रि के भोजन के लिये मनाती है तो आप बहोत थके हुये से माता को बिनती करते है...

🐂 अब मोहि सोवन देरी माय!
गायन के संग फिरत बनबन मेरे पांय पिराय!
आज सांझ ही तें नींद मेरे नयन पेठी आय,
खुलत नांहिन पलक मेरी खायो कछुअ न जाय।
कर कलेउ प्रात जेहों फेर चरावन गाय,
परमानंद प्रभुकी जननी लेत कंठ लपटाय।

🐂 ऐसी प्रभु की विविध लीलामेंसे गौचारण लीला की माधुरी भी अनोखी है...सबको गाय बनने की मन में तीव्र इच्छा जगाने वाले उस गोपाल को कोटी कोटी दंडवत प्रणाम के साथ फिर से सबको बधाई हो!
🐂🐂🐂🐂🐂🐂🐂🐂

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