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बुधवार, 26 जनवरी 2022

42वें संशोधन के बाद संविधान के अनुच्छेद 25-31 का पूरा अर्थ हिन्दू-विरोधी कर डाला गया।

*🚩संविधान स्थापना दिवस पर जानना जरूरी है, समान नागरिक संहिता क्यों नहीं है?*
*26 जनवरी 2022*
azaadbharat.org

*🚩नवम्बर 1948 में संविधान सभा की बैठक में समान नागरिक संहिता को लागू किये जाने पर लम्बी बहस चली. बहस में इस्लामिक चिन्तक मोहम्मद इस्माईल, जेड एच लारी, बिहार के मुस्लिम सदस्य हुसैन इमाम, नजीरुद्दीन अहमद सहित अनेक मुस्लिम नेताओं ने भीमराव अम्बेडकर का विरोध किया था. इसके बाद हुए मतदान में डॉ० अम्बेडकर का समान नागरिक संहिता का प्रस्ताव विजयी हुआ और संविधान के अनुच्छेद 44 में समान नागरिक संहिता को लागू किये जाने सम्बन्धी विधान लाया गया।*

*🚩अनुच्छेद-44 (समान नागरिक संहिता), अनुच्छेद-312 (भारतीय न्यायिक सेवा परीक्षा), अनुच्छेद-351 (हिंदी का प्रचार) जैसे महत्वपूर्ण अनुच्छेद अभी तक पेंडिंग हैं। अनुच्छेद-51A (मौलिक कर्तव्य) को लोगों की इच्छा पर छोड़ दिया गया है।*
*इसके बाद भी मुसलमानों के दबाव में समान नागरिक संहिता को लागू करने का विचार दफना दिया गया. मुस्लिम तुष्टिकरण बढ़ता गया और समान नागरिक संहिता की राह संकीर्ण होती गई. इसी विरोध और कट्टरता के चलते सन 1972 में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का जन्म हुआ. तबसे यह समान नागरिक संहिता का विरोध करते हुए शरीयत को संविधान और कानून से ऊपर बताता-मानता है।*

*🚩कुछ समय से देश में समान नागरिक संहिता की चर्चा बार-बार हो रही है, लेकिन वह आगे नहीं बढ़ पा रही है। इसी तरह हिंदू मंदिरों को सरकारी कब्जे से मुक्त कराने की मांग भी अनसुनी बनी हुई है। छोटे-मोटे संगठन और एक्टिविस्ट धर्मांतरण के विरुद्ध कानून बनाने की भी मांग कर रहे हैं। भोजन उद्योग में हलाल मांस का दबाव बढ़ाने की संगठित गतिवधियों के विरुद्ध भी असंतोष बढ़ा है। शिक्षा अधिकार कानून में हिंदू-विरोधी पक्षपात पर भी काफी उद्वेलन है। आखिर इन मांगों पर सत्ताधारियों का क्या रुख है?*

*🚩भारतीय संविधान आदर्श नहीं है। संविधान के मुख्य निर्माता डॉ. अंबेदकर ने ही दो बार, वह भी संसद में, पूरी जिम्मेदारी से कहा था कि वे “इस संविधान को जला देना चाहते” हैं। प्रथम अवसर पर (2 सितंबर 1953) उन्होंने कहा कि, ‘‘मैं इस संविधान को पसंद नहीं करता। यह किसी के काम का नहीं।’’ दूसरे अवसर पर (19 मार्च 1955) उन्होंने कहा, ‘‘जो मंदिर बनाया गया, उसपर देवताओं के बजाए राक्षसों ने कब्जा कर लिया।’’*

*🚩उसी संविधान की आज डॉ. अंबेदकर का नाम ले-लेकर आडंबरपूर्ण पूजा करवाना हास्यास्पद है। वैसे भी, संविधान राजनीतिक तंत्र चलाने का दस्तावेज है। देश उससे बहुत ऊँची वस्तु है। संविधान में बदलाव होते रहते हैं। यहाँ तो इसे मनमाने बदला गया है। जैसे, 42वें संशोधन (1976) द्वारा संविधान की प्रस्तावना में ‘सोशलिस्ट’ व ‘सेक्यूलर’ जोड़कर बुनियादी रूप से विकृत किया गया। तब से यह केवल समाजवाद और सेक्यूलरवाद मानने वालों का संविधान है। ऐसी मतवादी तानाशाही थोपकर भिन्न विचार वाले नक्कू बना दिए गए। इसलिए तब से वामपंथी, इस्लामी और इस्लामपरस्त ही ‘संवैधानिक मूल्यों’ की अधिक दुहाई देते हैं। उन्हें मालूम है कि वे क्या बोल रहे हैं!*

*🚩समान नागरिक संहिता की चाह तो मूल संविधान में ही थी, लेकिन शासकों ने शुरू से इसे उपेक्षित किया। कई बार सुप्रीम कोर्ट के पूछने पर भी कार्रवाई नहीं की। समान संहिता की मांग हिंदू मुद्दा नहीं, बल्कि सेक्युलर मांग है। यह मांग तो सेक्युलरवादियों को करनी चाहिए। धर्मांतरण रोकना भी कानूनी प्रतिबंध का विषय नहीं। धर्मांतरण कराने में मिशनरी रणनीति और कटिबद्धता ऐसी है कि चीन जैसा कठोर शासन भी महज कानून से इसे रोकने में विफल रहा है। धर्मांतरण रोकने के आसान रास्ते की आस छोड़नी चाहिए। इसका उपाय शिक्षा और वैचारिक युद्ध में है। उससे कतरा कर संगठित धर्मांतरणकारियों से पार पाना असंभव है।*

*🚩कुछ लोग जब-तब हिंदू राष्ट्र की बातें किया करते हैं, जबकि यथार्थवादी मांग यह होती कि हिंदुओं को दूसरे समुदायों जैसे बराबर अधिकार मिलें। दुर्भाग्यवश अधिकांश लोगों को इसकी चेतना नहीं। हालिया समय में संविधान के अनुच्छेद 25 से 31 की हिंदू-विरोधी व्याख्या स्थापित कर दी गई है। कई शैक्षिक, सांस्कृतिक, सामाजिक अधिकारों पर केवल गैर-हिंदुओं यानी अल्पसंख्यकों का एकाधिकार बना दिया गया है।*

*सरकार हिंदू शिक्षा संस्थान और मंदिरों पर मनचाहा हस्तक्षेप करती है और अपनी शर्तें लादती है। वह ऐसा गैर-हिंदू संस्थाओं पर नहीं करती। इसी तरह अल्पसंख्यकों को संवैधानिक उपचार पाने का दोहरा अधिकार है, जो हिंदुओं को नहीं है। हिंदू केवल नागरिक रूप में न्यायालय से कुछ मांग सकते हैं, जबकि अन्य नागरिक और अल्पसंख्यक, दोनों रूपों में संवैधानिक अधिकार रखते हैं। ऐसा अंधेर दुनिया के किसी लोकतंत्र में नहीं कि अल्पसंख्यक को ऐसे विशेषाधिकार हों जो अन्य को न मिलें।*

*🚩'सोशलिज्म’ और ‘सेक्यूलरिज्म’ की धारणाओं से हमारे संविधान निर्माता बखूबी परिचित थे। उन्होंने सोच-समझ कर, बल्कि सेक्यूलरिज्म पर विचार करके, इसे संविधान में कोई जगह नहीं दी। अतः 1976-78 ई. में कांग्रेस, कम्युनिस्ट और जनता पार्टी जिसमें जनसंघ (भाजपा का पूर्वरूप) शामिल था, सबने संविधान को भयंकर विकृत कर दिया। यहाँ वामपंथी-इस्लामी दबदबे का रास्ता साफ किया।*

*🚩नोट करें कि जब संविधान बना ही था, तब भी डॉ. अंबेदकर ने इसे गैर-सेक्यूलर, यानी धार्मिक भेद-भावकारी बताया था। इसीलिए आगे सभी के लिए ‘समान नागरिक संहिता’ बनाने की बात संविधान में लिखी गई थी।*

*लेकिन यह संविधान एक अधिक गंभीर तरह से हिन्दुओं के विरुद्ध पक्षपात ही नहीं करता, बल्कि इसने हिन्दुओं को विशेष खतरे में डालने का बाकायदा प्रबंध किया। संविधान में धार्मिक स्वतंत्रता वाली धारा 25 में ‘प्रोपेगेशन ऑफ रिलीजन’, यानी अपना रिलीजन फैलाने का अधिकार भी दिया गया है, किन्तु ‘धर्म-रक्षा’ का अधिकार नहीं दिया! याद रहे, केवल क्रिश्चियनिटी और इस्लाम ही दूसरों को धर्मांतरित कराने का ‘धर्म-प्रचार’ करते हैं। संविधान सभा में भी ‘प्रोपेगेशन’ का क्रिश्चियन, इस्लामी अर्थ ही लिया गया था। जब इस नुक्ते पर बहस हो रही थी तो कहा गया कि इसे ‘क्रिश्चियन मित्रों’ का ध्यान रखते हुए स्वीकार कर लें, क्योंकि कई कांग्रेस नेता ‘प्रोपेगेशन’ वाला नुक्ता हटाना चाहते थे।*

*बाद में भी, इस पर स्वयं प्रधानमंत्री नेहरू ने मुख्यमंत्रियों को पत्र (17 अक्तूबर 1952) लिख कर साफ किया, “वी परमिट, बाई अवर कंस्टीच्यूशन, नॉट ओनली फ्रीडम ऑफ कांशेंस एंड बिलीफ बट आलसो प्रोजेलाइटिज्म।” यानी, धर्मांतरण कराना, जो केवल क्रिश्चियन और मुस्लिम कराते हैं। भारत में यह मुख्यतः हिन्दुओं का धर्मांतरण है, यह भी सभी नेता जानते थे। किन हथकंडों और प्रपंचों से धर्मांतरण कराया जाता है, यह भी वे बखूबी जानते थे!*

*अतः संविधान में हिन्दुओं को धर्म-रक्षा का अधिकार नहीं देना हिन्दुओं पर दोहरी चोट है! क्रिश्चियन मिशनरियों द्वारा हिन्दू का धर्मांतरण कराना ‘मौलिक अधिकार’है, किन्तु ऐसे घोषित शिकारियों से हिन्दू अपनी धर्म-रक्षा कर सकें, इसका उन्हें कोई सामान्य अधिकार भी नहीं दिया गया। बेचारे अन्य कारण देकर या अवैध तरीकों से ही अपनी धर्म-रक्षा कर सकते हैं, जैसे- धोखा-धड़ी की गुहार लगाकर, रो-गाकर, या जिसे अवैध कहकर उन्हें दंडित किया जाएगा! झारखंड में ऐसे मुकदमे चल रहे हैं, जिसमें धोखे या जोर-जबरदस्ती धर्मांतरण कराने वाले मिशनरी, तबलीगी तो छुट्टा घूमते हैं, किन्तु उन‌का विरोध करने वाले हिन्दुओं को कोर्ट से जमानत भी नहीं मिलती! फिर भी, यहाँ हिन्दुओं को ही ‘सांप्रदायिक’, ‘असहिष्णु’, ‘बहुसंख्यकवादी’, आदि कह-कह कर लांछित किया जाता है।*
shorturl.at/knpqK

*🚩वस्तुतः 42वें संशोधन के बाद संविधान के अनुच्छेद 25-31 का पूरा अर्थ हिन्दू-विरोधी कर डाला गया। तब से देश में दो प्रकार के नागरिक हैं: (1) अल्पसंख्यक, (2) गैर-अल्पसंख्यक। एक को डबल अधिकार, दूसरे को केवल सिंगल जो पहले वाले को भी है। इस प्रकार, एक विशेषाधिकार-संपन्न अल्पसंख्यक, तथा बाकी हीन गैर-अल्पसंख्यक ही सही संज्ञा है। इस थोपी गई हीनता के कारण ही कई हिन्दू संप्रदाय अपने को हिन्दुओं से अलग, और इसलिए अल्पसंख्यक कहलाने का प्रयास करते रहे हैं। इसके लिए उन्हें ही लांछित करने वाले संघ-भाजपाई अपने गिहरबान में झाँक कर देखें कि संविधान में ‘सेक्यूलर’ जोड़कर और खुद को गर्व से ‘सच्चा सेक्यूलर’ कहकर वास्तव में उन्होंने क्या विध्वंस किया है! उन्होंने हिन्दुओं को संवैधानिक रूप से हीन नागरिक बना देने में सक्रिय सहयोग किया। और अब उनके महान अबोध नेता इसी संविधान की जबरन पूजा करवा कर हिन्दुओं के जले पर नमक छिड़क रहे हैं!*

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सभी भारतवासियों को गणतंत्र दिवस की हार्दिक बधाई

*आज गणतंत्र दिवस है, 
इसकी आप सभी को बधाई व शुभकामनाये, 
आइये हम भी अपने जीवन मे एक सविधान लागु करे कि हम हमें प्राप्त मनुष्य देहि का हेतुक हर हाल मे प्राप्त करें, हम हमेशा स्वस्थ, व्यस्त व मस्त रहेंगे ताकि परिवार, समाज व देश भी हमेशा आर्थिक, मानसिक व शारीरिक रूप से स्वस्थ व मजबूत रहे, 
हम हमारी सनातन संस्कृति, संस्कार व मूल्यों के प्रति समर्पित रहेंगे!
अखंड भारतवर्ष, हिन्द, हिंदी, हिन्दू व हिंदुस्तान का भगवा विश्व मे लहराये इसके प्रति प्रयासरत व समर्पित रहेंगे!* 
 *❤ कैलाश चंद्र लढा ❤* सांवरिया
जोधपुर
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सोमवार, 24 जनवरी 2022

सुभाष बाबू का अन्त कैसे, कब और कहाँ हुआ, यह रहस्य ही है।

23 जनवरी 1897 जन्म-तिथि

नेताजी #सुभाषचन्द्र_बोस एवं #पराक्रम_दिवस
स्वतन्त्रता आन्दोलन के दिनों में जिनकी एक पुकार पर हजारों महिलाओं ने अपने कीमती गहने अर्पित कर दिये, जिनके आह्नान पर हजारों युवक और युवतियाँ आजाद हिन्द फौज में भर्ती हो गये, उन नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का जन्म उड़ीसा की राजधानी कटक के एक मध्यमवर्गीय परिवार में 23 जनवरी, 1897 को हुआ था।

सुभाष के अंग्रेजभक्त पिता रायबहादुर जानकीनाथ चाहते थे कि वह अंग्रेजी आचार-विचार और शिक्षा को अपनाएँ। विदेश में जाकर पढ़ें तथा आई.सी.एस. बनकर अपने कुल का नाम रोशन करें; पर सुभाष की माता श्रीमती प्रभावती हिन्दुत्व और देश से प्रेम करने वाली महिला थीं। वे उन्हें 1857 के संग्राम तथा विवेकानन्द जैसे महापुरुषों की कहानियाँ सुनाती थीं। इससे सुभाष के मन में भी देश के लिए कुछ करने की भावना प्रबल हो उठी।

सुभाष ने कटक और कोलकाता से विभिन्न परीक्षाएँ उत्तीर्ण कीं। फिर पिताजी के आग्रह पर वे आई.सी.एस की पढ़ाई करने के लिए इंग्लैंड चले गये। अपनी योग्यता और परिश्रम से उन्होंने लिखित परीक्षा में पूरे विश्वविद्यालय में चतुर्थ स्थान प्राप्त किया; पर उनके मन में ब्रिटिश शासन की सेवा करने की इच्छा नहीं थी। वे अध्यापक या पत्रकार बनना चाहते थे। बंगाल के स्वतन्त्रता सेनानी देशबन्धु चितरंजन दास से उनका पत्र-व्यवहार होता रहता था। उनके आग्रह पर वे भारत आकर कांग्रेस में शामिल हो गये।

कांग्रेस में उन दिनों गांधी जी और नेहरू की तूती बोल रही थी। उनके निर्देश पर सुभाष बाबू ने अनेक आन्दोलनों में भाग लिया और 12 बार जेल-यात्रा की। 1938 में गुजरात के हरिपुरा में हुए राष्ट्रीय अधिवेशन में वे कांग्रेस के अध्यक्ष बनाये गये; पर फिर उनके गांधी जी से कुछ मतभेद हो गये। गांधी जी चाहते थे कि प्रेम और अहिंसा से आजादी का आन्दोलन चलाया जाये; पर सुभाष बाबू उग्र साधनों को अपनाना चाहते थे। कांग्रेस के अधिकांश लोग सुभाष बाबू का समर्थन करते थे। युवक वर्ग तो उनका दीवाना ही था।

सुभाष बाबू ने अगले साल मध्य प्रदेश के त्रिपुरी में हुए अधिवेशन में फिर से अध्यक्ष बनना चाहा; पर गांधी जी ने पट्टाभि सीतारमैया को खड़ा कर दिया। सुभाष बाबू भारी बहुमत से चुनाव जीत गये। इससे गांधी जी के दिल को बहुत चोट लगी। आगे चलकर सुभाष बाबू ने जो भी कार्यक्रम हाथ में लेना चाहा, गांधी जी और नेहरू के गुट ने उसमें सहयोग नहीं दिया। इससे खिन्न होकर सुभाष बाबू ने अध्यक्ष पद के साथ ही कांग्रेस भी छोड़ दी। 

अब उन्होंने ‘फारवर्ड ब्लाक’ की स्थापना की। कुछ ही समय में कांग्रेस की चमक इसके आगे फीकी पड़ गयी। इस पर अंग्रेज शासन ने सुभाष बाबू को पहले जेल में और फिर घर में नजरबन्द कर दिया; पर सुभाष बाबू वहाँ से निकल भागे। उन दिनों द्वितीय विश्व युद्ध के बादल मंडरा रहे थे। सुभाष बाबू ने अंग्रेजों के विरोधी देशों के सहयोग से भारत की स्वतन्त्रता का प्रयास किया। उन्होंने आजाद हिन्द फौज के सेनापति पद से जय हिन्द, चलो दिल्ली तथा तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा का नारा दिया; पर दुर्भाग्य से उनका यह प्रयास सफल नहीं हो पाया।

सुभाष बाबू का अन्त कैसे, कब और कहाँ हुआ, यह रहस्य ही है। कहा जाता है कि 18 अगस्त, 1945 को जापान में हुई एक विमान दुर्घटना में उनका देहान्त हो गया। यद्यपि अधिकांश तथ्य इसे झूठ सिद्ध करते हैं; पर उनकी मृत्यु के रहस्य से पूरा पर्दा उठना अभी बाकी है।

वामपंथियों ने सुभाषचंद्र बोस को भी नहीं छोड़ा, किया 'गाली-गलौच' वाली भाषा का इस्तेमाल

वामपंथियों ने सुभाषचंद्र बोस को भी नहीं छोड़ा, किया 'गाली-गलौच' वाली भाषा का इस्तेमाल

*23 जनवरी 2022*
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*🚩लगभग आरंभ से ही कम्युनिस्टों को अपनी वैज्ञानिक विचारधारा और प्रगतिशील दृष्टि का घोर अहंकार रहा है लेकिन अनोखी बात यह है कि इतिहास व भविष्य ही नहीं, ठीक वर्तमान यानी आंखों के सामने की घटना-परिघटना पर भी उनके मूल्यांकन, टीका-टिप्पणी, नीति, प्रस्ताव आदि प्राय: मूढ़ता की पराकाष्ठा साबित होते रहे हैं। यह न तो एक बार की घटना है, न एक देश की। सारी दुनिया में कम्युनिस्टों का यही रिकॉर्ड है। इसके निहितार्थ समझने से पहले नेताजी सुभाष चंद्र बोस के कम्युनिस्ट मूल्यांकन को उदाहरण के लिए देखें।*

*🚩1940 में कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा प्रकाशित अंग्रेजी पुस्तिका 'बेनकाब दल व राजनीति' में नेताजी को 'अंधा मसीहा' कहा गया। फिर उनके कामों को कहा गया- 'सिद्धांतहीन अवसरवाद", जिसकी मिसाल मिलनी कठिन है। यह सब तो नरम मूल्यांकन था। धीरे-धीरे नेताजी के प्रति कम्युनिस्ट शब्दावली हिंसक और गाली-गलौज से भरती गई। जैसे, 'काला गिरोह', 'गद्दार बोस', 'दुश्मन के जरखरीद एजेंट', 'तोजो (जापानी तानाशाह) और हिटलर के अगुआ दस्ते', 'राजनीतिक कीड़े', 'सड़ा हुआ अंग जिसे काटकर फेंकना है', आदि। ये सब विशेषण सुभाष बोस और उनकी सेना आई. एन. ए (इंडियन नेशनल आर्मी) के लिए थे। तब कम्युनिस्ट मुखपत्रों, पत्रिकाओं में नेताजी के कई कार्टून छपे थे, जिससे कम्युनिस्टों की घोर अंधविश्वासी मानसिकता की झलक मिलती है (उनपर सधी नजर रखने वाले इतिहासकार स्व. सीताराम गोयल के सौजन्य से वे कार्टून उपलब्ध हैं)। अधिकांश कार्टूनों में सुभाष बाबू को 'जापानी, जर्मन फासिस्टों के कुत्ते या बिल्ली' जैसा दिखाया गया है, जिससे उसका मालिक जैसे चाहे खेलता है।*
*एक कार्टून में बोस को तोजो का मुखौटा, तो अन्य में भारतवासियों पर जापानी बम गिराने वाला दिखाया गया है। एक में बोस को 'गांधीजी की बकरी छीनने वाला' दिखाया गया। एक कार्टून में तोजो एक गधे के गले में रस्सी डाले सवारी कर रहा है, उस गधे का मुंह बोस जैसा बना था तो दूसरे में बोस को 'तोजो का पालतू क्षुद्र बौना' दिखाया।*

*🚩कम्युनिस्ट अखबार पीपुल्स डेली (10 जनवरी 1943) में तब कम्युनिस्ट पार्टी के सर्वोच्च नेता रणदिवे ने अपने लेख में बोस को 'जापानी साम्राज्यवाद का गुंडा' तथा उनकी सेना को 'भारतीय भूमि पर लूट, डाका, विध्वंस मचाने वाला भड़ैत' बताया। लेकिन रोचक बात यह है कि यह सब कहने के बाद, समय बदलते ही, जब आई. एन. ए. की लोकप्रियता देशभर में बढ़ने लगी, तो कम्युनिस्टों ने उसके बंदी सिपाहियों के पक्ष में लफ्फाजी शुरू कर दी!*

*🚩उपर्युक्त इतिहास के संदर्भ में स्मरण रखने की पहली बात है कि यह सब न अपवाद था, न अनायास। दूसरी बात, जो बुद्धि अपने सामने हो रही घटना, व्यक्तित्व का ऐसा मूढ़ मूल्याकंन करती रही, वह दूसरे लोगों, घटनाओं, सत्ताओं का मूल्यांकन भी वैसे ही करती है यानी जड़-विश्वासयुक्त, घोर मतिहीन। सभी मूल्यांकनों का स्रोत एक बनी-बनाई विचारधारा में अंधविश्वास ही था और है, जो तथ्यों को यथावत देखने की बजाए एक और खास एक ही तरह से देखने को मजबूर करता था। यह बंदी मानसिकता देश और समाज के लिए कितनी घातक रही है, हमें इसे ठीक से समझना चाहिए। तीसरी बात यह है कि नेताजी सुभाष, जय प्रकाश नारायण, गांधीजी आदि के अपमानजनक और जड़मति मूल्यांकनों की क्षमा मांग लेने के बाद भी इस देश में कम्युनिस्ट वही काम बार-बार करते रहे हैं। उनकी देश-समाज-विरोधी प्रवृत्ति नहीं बदली है।* 

*🚩आज भी अयोध्या, कश्मीर, गोधरा, इस्लामी आतंकवाद आदि गंभीर मुद्दों तथा अटलबिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी या नरेन्द्र मोदी जैसे शीर्ष नेताओं के मूल्यांकन और तद्नुरूप कम्युनिस्ट अभियान चलाने में ठीक उसी मूढ़ता और देशघाती जिद की अक्षुण्ण परंपरा है। यह काम कम्युनिस्ट पार्टियों के साथ-साथ तमाम मार्क्सवादी प्रोफेसर, लेखक, पत्रकार, बुद्धिजीवी भी करते रहे हैं। चूंकि ये लोग कम्युनिस्ट पार्टी से सीधे जुड़े हुए नहीं हैं तथा बड़े-बड़े अकादमिक या मीडिया पदों पर रहे हैं, इससे इनका वास्तविक चरित्र पहचानने में गलती नहीं करनी चाहिए।*

*🚩इस प्रकार, नेताजी व आई. एन. ए. को 'तोजो का कुत्ता' और राष्ट्रीय स्वयंयेवक संघ को 'तालिबान, अलकायदा सा आतंकवादी' बताने में एक सी भयंकर मूढ़ता और हानिकारक क्षमता है, यह हमें देखना, समझना चाहिए। कभी भगवाकरण, तो कभी असहिष्णुता के बहाने चल रहे अभियान उसी घातक अंधविश्वास व हिन्दू-विरोध से परिचालित हैं। इससे देश-समाज बंटता है, जो कम्युनिस्ट 1947 में एक बार सफलतापूर्वक करवा चुके हैं। आज भी प्रगतिशील, सेक्युलर, लिबरल आदि विशेषणों की आड़ में वही भारत-विरोधी और हिन्दू-द्वेषी राजनीति थोपी जाती है क्योंकि घटनाओं, स्थितियों, व्यक्तियों, समुदायों की माप-तौल के पैमाने, बाट, इंच-टेप वही हैं।*

*🚩लंबे नेहरूवादी-कम्युनिस्ट गठजोड़ के कारण वही पैमाने हमारे बुद्धिजीवियों की मानसिकता में अनायास जमा दिए गए हैं। इससे जो हानि होती है, उससे युवाओं को पूरी तरह अवगत होना चाहिए। नेताजी के कम्युनिस्ट मूल्यांकन का यही जरूरी सबक है।*
*लेखक : डॉ. शंकर शरण*

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शनिवार, 22 जनवरी 2022

कॉन्वेंट स्कूलों का काला सच जानें, अपने बच्चों को मरने से बचाएं

*🚩 कॉन्वेंट स्कूलों का काला सच जानें, अपने बच्चों को मरने से बचाएं*
*21 जनवरी 2022*
azaadbharat.org

*🚩भारत में जितने भी मिशनरी स्कूल मैकाले की शिक्षा पद्धति से चल रहे हैं, उन स्कूलों में बच्चे न तो तिलक और न ही मेंहदी लगा सकते हैं, हिन्दू त्यौहार नहीं मना सकते और यहां तक कि हिंदी भी नहीं बोल सकते- मतलब कि बच्चो को कोई स्वतंत्रता नहीं है। ऊपर से धर्मपरिवर्तन करने का दबाव बनाया जाता है।*

*🚩तमिलनाडु के तंजावुर में सेक्रेड हार्ट हायर सेकेंडरी स्कूल, तिरुकट्टुपाली में कक्षा 12वीं में पढ़ने वाली एम लावण्या नाम की एक छात्रा ने आत्महत्या कर ली। दरअसल लावण्या पर स्कूल के अधिकारियों ने ईसाई धर्म में परिवर्तित होने का दवाब डाला। लावण्या ने इससे इनकार कर दिया, जिसके बाद स्कूल के अधिकारियों ने उसे प्रताड़ित करना शुरू कर दिया। इस प्रताड़ना से तंग आकर छात्रा ने खुदकुशी कर ली। बताया जा रहा है कि अधिकारियों की तरफ से उसे कहा गया कि अगर वह स्कूल में अपनी पढ़ाई जारी रखना चाहती है तो उसे ईसाई धर्म अपनाना होगा।*

*🚩लावण्या पिछले पाँच वर्षों से सेंट माइकल गर्ल्स हॉस्टल में रह रही थी। यह हॉस्टल उसके स्कूल के पास ही है। सरकारी सहायता प्राप्त ईसाई मिशनरी स्कूल उसपर ईसाई धर्म अपनाने का दबाव बना रहा था। हालाँकि लावण्या अपना धर्म नहीं छोड़ने पर अड़ी थी और उसने धर्म परिवर्तन करने से इनकार कर दिया।*

*लावण्या के विरोध से नाराज स्कूल प्रशासन ने पोंगल समारोह के लिए उसकी छुट्टी का आवेदन रद्द कर दिया। लावण्या छुट्टियों में अपने घर जाना चाहती थी, लेकिन उसे स्कूल के शौचालयों की सफाई, खाना पकाने और बर्तन धोने जैसे काम करने के लिए मजबूर किया गया। कथित तौर पर प्रताड़ना से परेशान लावण्या ने अपनी जीवन लीला समाप्त करने के लिए स्कूल के बगीचे में इस्तेमाल किए गए कीटनाशकों का सेवन कर लिया।*

*9 जनवरी की रात को लावण्या को बेचैनी और लगातार उल्टी होने के बाद स्थानीय क्लिनिक ले जाया गया। हॉस्टल के वार्डन ने उसके माता-पिता को बुलाया और उसे घर ले जाने के लिए कहा। इसके बाद लावण्या को तंजौर के सरकारी मेडिकल कॉलेज अस्पताल में भर्ती कराया गया। उसका इलाज आईसीयू में चल रहा था, उसके लगभग 85 फीसदी फेफड़े में जहर पहुँच चुका था और लावण्या ने 19 जनवरी, 2022 को अस्पताल में अंतिम साँस ली।*

*🚩सोशल मीडिया पर एक वीडियो वायरल हो रहा है। इसमें लावण्या बेहोशी की हालत में अपने साथ हुए टॉर्चर के बारे में बताती है। मूल रूप से यह वीडियो तमिल में है, जिसका अनुवाद 'द कम्यून' ने किया है। इसके मुताबिक वीडियो में कहा गया है, “मेरा नाम लावण्या है। उन्होंने (स्कूल प्रशासन ने) मेरे माता-पिता से मेरी उपस्थिति में पूछा था कि क्या वे मुझे ईसाई धर्म में परिवर्तित कर सकते हैं और आगे की पढ़ाई के लिए मदद कर सकते हैं। चूँकि मैंने नहीं माना, वे मुझे डाँटते रहे।” लावण्या ने इस दौरान राचेल मैरी का भी नाम लिया जिसने कथित तौर पर उसे प्रताड़ित किया था।*

*🚩लावण्या के परिजन 17 जनवरी को तिरुकट्टुपल्ली पुलिस थाने के सामने जमा हो गए और स्कूल के खिलाफ कार्रवाई की माँग को लेकर प्रदर्शन किया। उन्होंने आरोप लगाया कि हॉस्टल वार्डन सगयामरी ने उसे धर्म परिवर्तन के लिए मजबूर किया था इसलिए लावण्या ने कीटनाशकों का सेवन किया था।*

*🚩घटना का संज्ञान लेते हुए, विश्व हिंदू परिषद, हिंदू मुन्नानी और राजनीतिक संगठन इंदु मक्कल काची जैसे हिंदू संगठनों ने लावण्या को न्याय दिलाने और हिंदुओं के धर्मांतरण के खिलाफ आवाज उठाई है। विहिप के प्रदेश प्रवक्ता अरुमुगा कानी ने कहा कि विश्व हिंदू परिषद तब तक चैन से नहीं बैठेगी जब तक लावण्या को न्याय नहीं मिल जाता। पहले कदम के तौर पर विहिप ने 19 जनवरी को तंजावुर जिला सचिव मुथुवेल के नेतृत्व में भूख हड़ताल किया। उन्होंने कहा, “हमें यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि ऐसी घटनाएँ दोबारा न हों। तब तक हम विरोध करेंगे।”*

*🚩इंदु मक्कल काची के संस्थापक अर्जुन संपत ने ट्विटर पर लावण्या के निधन की सूचना दी की और स्कूल प्रशासन पर गंभीर सवाल उठाए।*

*🚩गौरतलब है कि इसी तरह की घटना 2019 में त्रिपुरा में हुई थी जब ईसाई धर्म में जबरन धर्मांतरण का विरोध करने के लिए एक हॉस्टल वार्डन द्वारा बेरहमी से प्रताड़ित किए जाने के बाद एक 15 वर्षीय छात्र की मौत हो गई थी। इसके अलावा तमिलनाडु में, मुस्लिम संगठनों द्वारा हिंदुओं के जबरन धर्मांतरण को रोकने के प्रयास में एक कार्यकर्ता की बेरहमी से हत्या कर दी गई थी।*

*🚩भारत में आजकल बच्चों को कॉन्वेंट स्कूल में पढ़ाने का प्रचलन बहुत चल रहा है; सभी का कहना है कि बच्चों को कॉन्वेंट स्कूल में भेजो, लेकिन वास्तव में उनके माता-पिता कॉन्वेंट स्कूल का सच नहीं जानते है इसलिए अपने बच्चों को भेजते हैं। कान्वेंट स्कूलों के मामले में एक बात तो साफ तौर पर कही जा सकती है कि "दूर के ढोल सुहावने"।*

*सभी हिन्दू अभिभावकों से नम्र निवेदन है कि कॉन्वेंट स्कूल में छात्रों पर पड़ने वाले गलत संस्कारों तथा उनके साथ हो रही प्रताड़ना को देखते हुए अपने बच्चों को वहां नहीं भेजना चाहिए। इसके वनिस्पत वैदिक गुरुकुलों में अपने बच्चों को भेजना चाहिए।*

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