यह ब्लॉग खोजें

सोमवार, 7 फ़रवरी 2022

सांप की मौसी किसे कहा जाता है ?

 

सांप की मौसी किसे कहा जाता है ?

हमारे यहां कभी-कभी एक छिपकली जैसा लेकिन वह चलता साँप जैसा जीव दिखाई देता है उसे यहाँ हमारी स्थानीय भाषा में 'सांप की मौसी' और 'बामनी' कहते हैं।

(चित्र :- हाथों में दस्ताना पहनकर पकड़ी हुई बामनी हालाँकि यह ख़तरनाक नहीं है।)

इसका रंग सांप जैसा चमकीला होता है। इसके काटने से जहर नहीं फैलता है।

बचपन में रेत में खेलते वक़्त निकला करती थी। हम तब किसी भी तरह इसकी पूछ को छु लेना चाहते थे। कहते है इसे छूना सौभाग्यशाली होता है।

चलते-चलते इसके बारे में थोड़ा सा और जान लेते है-

वैज्ञानिक नाम :- Eutropis Carinata

सामान्य नाम :- Keeled Indian Mabuya (स्किंक)

  • जहरीली नही।
  • अधिकतम लंबाई 15 cm
  • पूछ को अलग कर सकती है। Regenerative Tail
  • कीड़े इत्यादि खाकर इको सिस्टम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
  • स्किंक तमाम प्रकार के पर्यावासों में रहते हैं।
  • छिपकली जैसी शक्ल-सूरत, आकार-प्रकार। लेकिन, चमकदार त्वचा और देखने में गोरी-चिट्टी और साफ-सुथरी। शायद इसी के चलते इसे बभनी कहा जाता होगा।

स्किंक जहरीले नहीं होते हैं। उन्हें देखकर डरन की जरूरत नहीं है। कुछ लोग सरीसृपों (रेप्टाइल) या रेंगने वाले जीवों से घृणा करते हैं। अक्सर ही इन्हें सांप के साथ जोड़कर देखा जाता है, इसलिए लोग इन्हें जहरीला भी समझते हैं। इन्हें देखकर घृणा करने की भी जरूरत नहीं है।

बदलाव :- आज घर पर फिर से दिखाई दी यह देखिए-

  • भोजपुरी में इसे लोटनी कहते हैं।
  • छत्तीसगढ़ी में बिजगुरीया
  • सादरी में गछई कहते हैं।
  • हमारे बचपन मे इसे नुकसान पहुचाने की सख्त मनाही थी,दादी कहती थीं ये अपने माँ की इकलौती औलाद होते हैं।
  • इसे भोलेनाथ के कुँडल मानते हैं। कहते थे इसे छूने से पैसे मिलते है।

ये भी ईकोसिस्टम में अपनी भूमिका अदा कर रहे हैं। उससे कहीं ज्यादा, जितना होमो सेपियंस अदा कर रहे हैं।

बच्चों को फोन से दूर रखना तो ख़ासा मुश्किल काम है

 बच्चे और धर्म

सम्मलेन “साइबर क्राइम” पर था और चूँकि ऑनलाइन गालीगलौच से अक्सर कम उम्र के या सोशल मीडिया पर नए आये लोगों के अवसाद में जाने की घटनाएँ होती रहती हैं, इसलिए वहाँ एक मनोवैज्ञानिक भी मौजूद थे। महिलाओं में से एक ने प्रश्न किया कि मोबाइल और सोशल मीडिया बच्चों के लिए घातक है, ये तो समझ में आता है, मगर बच्चों को फोन से दूर रखना तो ख़ासा मुश्किल काम है। वो तो मौका पाते ही फोन झपट लेते हैं और न देने पर रोना-धोना बंद करवाना भी काफी मुश्किल होता है! जवाब में मनोवैज्ञानिक ने प्रतिप्रश्न किया, अगर मैं आपके घर ऐसे वक्त आऊं जब आप कोई काम न कर रही हों, तो आप क्या करती मिलेंगी? क्या आप अपने मोबाइल फ़ोन में कोई वीडियो देख रही होंगी, या खाली समय में व्हाट्सएप्प वगैरह पर चैटिंग कर रही होंगी?



जब कई महिलाओं का जवाब हाँ में आया तो मनोवैज्ञानिक ने अपनी आगे की बात रखी। बच्चे वही सीखते हैं जो वो बड़ों को करते देखते हैं। इससे पिछली पीढ़ी में संभवतः कई लोग शाम में टीवी शो देखते पाए जाते थे तो अगली पीढ़ी यानी हम लोगों ने बचपन में वो सीख लिया। फिर अब जब वही टीवी शो वगैरह मोबाइल पर भी आने लगे तो हमारी पीढ़ी अपने खाली समय का काफी हिस्सा फोन पर बिताने लगी। किताबें पढ़ना, सिलाई-बुनाई, चित्रकारी जैसे शौक को अब उतना समय नहीं दिया जाता। बच्चे जो भी बड़ों को करते देखते हैं, वो उसी की नक़ल करके सीखते हैं। ऐसे में वो लगातार सभी को मोबाइल फ़ोन में व्यस्त देखने लगे, तो बाहर खेलने जाना, चित्रकारी या पढ़ने जैसी चीज़ें वो सीखेंगे कहाँ से?




इसी को थोड़ा आगे ले आकर आप ये सोचिये कि क्या आपको कोई भजन, पूरा न सही कोई एक दो वाक्य ही, याद हैं? जो याद हैं, क्या वो वही नहीं हैं जो आपके घर में कोई रिश्तेदार, संभवतः दादी-नानी जैसे कोई लोग गुनगुनाया करते थे? पूजा-पाठ जैसे तरीके भी आपने अपने परिवार के लोगों को जैसे करते पाया, वही सीखा है। जब आप खुद तिलक लगाये नहीं दिखते, पूजा नहीं करते, बच्चों को साथ लेकर मंदिर नहीं गए, तो आज थोड़ा बड़े होने पर, किशोरावस्था में आने पर वो अगर ये सब नहीं कर रहे हैं तो आश्चर्य क्यों होना चाहिए? ध्यान रहे किशोरावस्था तेरह वर्ष की आयु पर शुरू और उन्नीस पर ख़त्म मानी जाती है, और कानूनी तौर पर 18 से कम उम्र का कोई भी बच्चा ही है। ऐसे में हम जिन्हें बच्चा कह रहे हैं वो अगर 13 से 18 के बीच के हैं तो किशोरावस्था वाला विद्रोही स्वभाव और बच्चों वाली जिज्ञासा दोनों का सामना करना होगा।


अगर आप ये नहीं बता सकते कि कोई त्यौहार क्यों मनाया जाता है, तो क्या होगा? उदाहरण के तौर पर दुर्गा पूजा क्यों मनाई जाती है, ये अगर आपने नहीं बताया तो नतीजा यही होगा कि कोई और इयान डीकॉस्टा जैसा अपने फॉरवर्ड प्रेस के जरिये आकर जब उसे सिखा देगा कि महिषासुर एक मूल निवासी राजा था जिसे विदेशी दुर्गा ने छल से मार दिया तो उसके पास विश्वास करने के सिवा क्या चारा होगा? आपने तो कुछ बताया ही नहीं था। ऐसे ही जब आप नहीं बताते कि होली के आस-पास भारत में मौसम सूखा और गर्म होने लगता है। ऐसे मौसम में ही वन विभाग आग लगने की चेतावनियाँ जारी करना शुरू करता है। हिन्दुओं में परंपरागत रूप से आग जिन लकड़ियों में लग सकती हो उसे होलिका दहन में इकठ्ठा करके जला देते हैं और होली पर पानी का छिड़काव वातावरण में आद्रता बढ़ा देता है।

छोटे कस्बों-गावों में अब भी इस मौसम के शुरू होते ही घरों दुकानों के सामने पानी का छिड़काव करके सूखी लकड़ियों, जाड़े के बाद टूटे पत्तों, कागज और दूसरे ज्वलनशील कचरे को इकठ्ठा किया जाने लगता है। फिर सामुदायिक रूप से कई लोगों की निगरानी में इसे जला दिया जाता है ताकि आग को खुराक न मिले। रिहाइशी इलाकों में पानी के छिड़काव से आद्रता रहेगी, तो आस पास जंगलों में आग लगेगी तो भी मनुष्यों की आबादी वाले इलाके का अधिक नुकसान नहीं हो पायेगा। लेकिन आपने तो ये सिखाया ही नहीं! ऐसे में जब उसे कोई होली को पानी की बर्बादी बताएगा तो वो क्यों पूछेगा कि एक लीटर पानी साफ़ करने में जो आरओ नौ लीटर पानी बर्बाद कर देता है, उसे रोककर पानी बचाओ। वो क्यों बहकाने वाले को याद दिलाएगा कि दो-दो कारों को धोने में जो हर रोज पानी बर्बाद होता है, उसे बचाया जाए।

दीपावली के समय जब कोई उसे धुंए या प्रदुषण की सीख देने लगे तो जब उसे आपने ये पहले से बताया हो कि दफ्तरों में चौबीसों घंटे चलने वाले एसी का जो पर्यावरण पर प्रभाव पड़ता है, उसे भी देखा जाए, तभी वो इस बारे में पूछेगा। वर्ष भर कार पूल या पब्लिक ट्रांसपोर्ट का प्रयोग, फ्रिज बंद रखना, सिगरेट छोड़ना जैसा कुछ किसी ने किया है जो उससे पूछने आया है दीपावली के प्रदुषण पर, ये तो आपको याद दिलाना होगा। ऐसे सभी मसलों पर अगर आप सर हिलाते हुए कहते हैं कि हमारी युवा पीढ़ी धर्म से कटती जा रही है तब असल में उसकी ओर इशारा करते वक्त आपके ही हाथ की तीन उँगलियाँ आपकी तरफ मुड़ जाती हैं। कहीं न कहीं पिछली पीढ़ी ने उसे सिखाने, उसे बताने में कमी छोड़ी इसी लिए आज उसकी जानकारी कम है। कहीं न कहीं पिछली पीढ़ी ने उससे संवाद कम रखा, छोड़ दिया, या उसकी भाषा, उसे समझ में आने वाली शैली में नहीं किया, इसी लिए आज उसकी इस विषय में रूचि कम है।


याद रखिये कि जब आप कोई पौधा लगाते हैं और वो उस तरह फलता-फूलता, या पनपता नहीं जैसा उसे बढ़ना चाहिए था तो आप पौधे को दोष देने नहीं बैठते। आप देखते हैं की कहीं खाद-मिट्टी अनुपयुक्त तो नहीं, कहीं पानी ज्यादा या कम मिला हो ऐसा तो नहीं, कहीं वातावरण तो पौधे के लिए प्रतिकूल नहीं था? इसलिए जब ऐसे सवाल सामने आयें तो हमें सोचना होगा कि हमसे कहाँ कमियां रह गयी हैं। हमें आज ये अच्छी तरह मालूम है कि संविधान में सेक्युलर का हिन्दी अर्थ पंथनिरपेक्ष लिखा हुआ है, लेकिन उसे धर्म-निरपेक्ष बनाकर स्कूलों के पाठ्यक्रम से धर्म सम्बन्धी शिक्षा हटा ली गयी है। ये बच्चों ने नहीं हमारी आपकी, या हमसे पीछे की पीढ़ियों ने किया है। घर में अगर हमने सिखाया नहीं और स्कूल-कॉलेज में ये पाठ्यक्रम में था

रविवार, 6 फ़रवरी 2022

भगवान महेश के अनुग्रह से उत्पन्न हुई वैश्य वर्ण जाति को माहेश्वरी कहते हैं

भगवान शिव जिनका एक नाम महेश भी है, ऐसे देवाधिदेव महादेव और माता पार्वती के अनुग्रह से उत्पन्न हुई वैश्य वर्ण का पालन करने वाली जाति को माहेश्वरी (English : Maheshwari) कहते हैं। भारत के राजस्थान राज्य में आने वाले मारवाड़ क्षेत्र से सम्बद्ध होने के कारण इन्हें मारवाड़ी भी कहा जाता है। माहेश्वरी जाति की उत्पत्ति भगवान शिव की महान कृपा-आशीर्वाद से ही हुआ है इसलिए 'श्री शिव परिवार' (भगवान शिवजी, माता पार्वतीजी, देवसेनापति कुमार श्री कार्तिकेयजी एवं प्रथमपूज्य देवता श्री गणेशजी) को माहेश्वरियों के कुलदेवता / कुलदैवत माना जाता है। माहेश्वरी जाति के मंदिरों में मुख्य रूप से श्री शिव परिवार की ही स्थापना होती है, यद्यपि यह भी सत्य है कि अधिकांश माहेश्वरियों ने वैष्णव संप्रदायों (वल्लभ सम्प्रदाय और रामानुज सम्प्रदाय आदि) से दीक्षा ग्रहण की हुई है। परंतु इसका यह अर्थ नहीं है कि यहाँ इष्ट का भेद है। सनातन धर्म में इष्ट देव के भेद से धर्म भेद को प्राप्त नहीं होता।

माहेश्वरी





विशेष निवासक्षेत्र
 भारत

"धर्मस्य मूलम् अर्थः" अर्थात धर्म का मूल अर्थ है। इसलिये स्वयं शास्त्रोक्त विधा से वैश्य धर्म (कृषि, गोपालन और वाणिज्य) का पालन करना, विश्व की अर्थव्यवस्था और अर्थ तंत्र को शास्त्रसम्मत बनाने का प्रकल्प चलना और विश्व में अर्थ के प्रकल्पों की भ्रष्ट होने से रक्षा करना माहेश्वरी समाज प्रमुख सिद्धान्त हैं। जब लोग शास्त्रोक्त यज्ञादि कर्मों से विमुख होने लगे थे तब संयोग ऐसे बने कि माहेश्वरी जाति की उत्पत्ति हुई, इस कारण माहेश्वरियों पर यह बहुत बड़ा दायित्व है कि धर्म का पालन तो करें ही लेकिन साथ ही निस्वार्थ भाव से धर्म की स्थापना करने के लिए अपने धन को उस ओर लगाए।

माहेश्वरी समाज सत्य, प्रेम और न्याय के पथ पर चलता है। शरीर को स्वस्थ-निरोगी रखना, कर्म करना (मेहनत और ईमानदारी से काम करना), बांट कर खाना और प्रभु की भक्ति (नाम जाप एवं योग साधना) करना इसके आधार हैं। माहेश्वरी अपने धर्माचरण का पूरी निष्ठा के साथ पालन करते है तथा वह जिस स्थान / देश / प्रदेश /शहर में रहते है वहां की स्थानिक संस्कृति का पूरा आदर-सम्मान करते है, इस बात का ध्यान रखते है; यह माहेश्वरी समाज की विशेष बात है। आज दुनियाभर के कई देशों में और तकरीबन भारत के हर राज्य, हर शहर में माहेश्वरी बसे हुए है और अपने अच्छे व्यवहार के लिए पहचाने जाते है। मधुबनी जिला,बिहार राज्य से तीन किलोमीटर उत्तर में ग्राम अहमादा,पंचायत रघुनी देहट में मैथिल ब्राह्मण परिवार जिनका गोत्र काश्यप है भी माँ माहेश्वरी को अपना कुलदेवी मानते हुए वर्षों से नियमित पूजा अर्चना करते आ रहे हैं।

ई.स. पूर्व 3133 में जब भगवान महेश जी और देवी महेश्वरी जी (माता पार्वती) के कृपा से 'माहेश्वरी' समाज की उत्पत्ति हुई थी तब भगवान महेश जी ने महर्षि पराशर, सारस्‍वत, ग्‍वाला, गौतम, श्रृंगी, दाधीच इन छः ऋषियों को माहेश्वरीयों का गुरु बनाया और उनको माहेश्वरीयों को मार्गदर्शित करने का दायित्व सौपा l कालांतर में इन गुरुओं ने ऋषि भारद्वाज को भी माहेश्वरी गुरु पद प्रदान किया जिससे माहेश्वरी गुरुओं की संख्या सात हो गई जिन्हे माहेश्वरीयों में सप्तर्षि कहा जाता है l सप्तगुरुओं ने भगवान महेश जी और माता महेश्वरी जी की प्रेरणा से इस अलौकिक पवित्र माहेश्वरी निशान (Symbol of Maheshwari community) और ध्वज का सृजन किया था l इस निशान को 'मोड़' कहा जाता है जिसमें एक त्रिशूल और त्रिशूल के बीच के पाते में एक वृत्त तथा वृत्त के बीच ॐ (प्रणव) होता है l माहेश्वरी ध्वजा (Flag) पर भी यह निशान अंकित होता है l केसरिया रंग के ध्वज पर गहरे नीले रंग में यह पवित्र निशान अंकित होता है, इसे 'दिव्यध्वज' कहते है l गुरुओं का मानना था की यह निशान और ध्वज सम्पूर्ण माहेश्वरियों को एकत्रित रखता है, आपस में एक-दूसरे से जोड़े रखता हैl

गुरुओं का मानना था कि इस अलौकिक पवित्र माहेश्वरी निशान के दर्शन मात्र से ही हमारे भीतर दिव्य-सृजनात्मक ऊर्जा (एनर्जी) का संचार होता है l इसे देखते ही अनेक प्रेरक भाव मन में प्रस्फुटित होते है l माहेश्वरी निशान की उपस्थिति आपके घर, परिवार और जीवन में जो भी बुरी (दुष्ट) शक्तियां है उनका विनाश करती है ; इस दिव्य निशान के दर्शन मात्र से ही जीवन में सौभाग्य का उदय हो जाता है। आजकल लगभग सभी माहेश्वरी पत्र-पत्रिकाओं, वैवाहिक कार्ड, दीपावली कार्ड, आमंत्रण-पत्र एवं अन्य कार्यक्रमों की पत्रिकाओं में इस निशान (प्रतीक चिह्न) का प्रयोग किया जाता है। यह निशान (प्रतीक चिह्न) माहेश्वरी परम्परा में श्रद्धा एवं विश्वास का द्योतक है। यह निशान माहेश्वरी समाज के आन-बाण-शान का प्रतीक है l

माहेश्वरी निशान का अर्थ





त्रिशूल धर्मरक्षा के लिए समर्पण का प्रतीक है l ”त्रिशूल” शस्त्र भी है और शास्त्र भी है. आततायियों के लिए यह एक शस्त्र है, तो सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक चरित्र का यह एक अनिर्वचनीय शास्त्र भी हैl त्रिशूल पाप को नष्ट करने वाला एवं दुष्ट प्रवृत्ति का दमन करने वाला हैl जैसे ॐ स्वयं शिव स्वरुप है वैसे ही 'त्रिशूल' स्वयं शक्ति (आदिशक्ति माता पार्वती) स्वरुप हैl त्रिशूल का दाहिना पाता सत्य का, बाया पाता न्याय का और मध्य का पाता प्रेम का प्रतीक भी माना जाता हैl वृत्त के बीच का ॐ (प्रणव) स्वयं भगवान महेश जी का प्रतीक है, ॐ पवित्रता का प्रतीक है, ॐ अखिल ब्रम्हांड का प्रतीक हैl सभी मंगल मंत्रों का मूलाधार ॐ हैl परमात्मा के असंख्य रूप है उन सभी रूपों का समावेश ओंकार में हो जाता हैl ॐ सगुण निर्गुण का समन्वय और एकाक्षर ब्रम्ह भी हैl भगवदगीता में कहा है “ ओमित्येकाक्षरं ब्रम्ह”l माहेश्वरी समाज आस्तिक और प्रभुविश्वासी रहा है, इसी ईश्वर श्रध्दा का प्रतीक है- ॐ। माहेश्वरियों का यह गौरवशाली निशान बड़ा ही अर्थपूर्ण, पथ-प्रदर्शक और प्रेरणादायी है l

माहेश्वरी का बोधवाक्य - माहेश्वरीयों का बोधवाक्य' सर्वे भवन्तु सुखिन: माहेश्वरीयों की विचारधारा को, संस्कृति को दर्शाता है। सर्वे भवन्तु सुखिन: अर्थात केवल माहेश्वरियों का ही नही बल्कि सर्वे (सभीके) सुख की कामना करनेवाला तथा सत्य, प्रेम, न्याय का उद्घोषक यह माहेश्वरी निशान सचमुच बडा अर्थपूर्ण है। माहेश्वरी निशान का दर्शन अत्यंत मंगलमय है, इसे देखते ही आतंरिक शक्ति, आतंरिक ऊर्जा जागृत हो जाती है, इसे देखते ही अनेक प्रेरक भाव मन में प्रस्फुटित होते है।

उपयोग निर्देश संपादित करें
माहेश्वरी निशान (प्रतीक चिह्न) किसी भी विचारधारा, दर्शन या दल के ध्वज के समान है, जिसको देखने मात्र से पता लग जाता है कि यह किससे संबंधित है, परंतु इसके लिए किसी भी निशान (प्रतीक चिह्न) का विशिष्ट (विशेष /यूनिक) होना एवं सभी स्थानों पर समानुपाती होना बहुत ही आवश्यक है। यह भी आवश्यक है कि प्रतीक का प्रारूप बनाते समय जो मूल भावनाएँ इसमें समाहित की गई थीं, उन सभी मूल भावनाओं को यह चिह्न अच्छी तरह से प्रकट करता है।

इस निशान (प्रतीक चिह्न) को एक रूप छापने के लिए अब इसके फॉरमेट का विकास कर लिया गया है। इस फॉरमेट के उपयोग से इसे सही स्वरूप में छापा जा सकेगा। सुनिश्चित कर लें कि इसके सही प्रारूप/फॉरमेट का उपयोग हो रहा है।

माहेश्वरी समाज की उत्पति :

खण्डेलपुर राज्य के राजा खड़गलसेन बहुत ही धर्मावतार और प्रजाप्रेमी थे।

उन्होंने पुत्र प्राप्ति के लिये पुत्रेष्टि यज्ञ करवाया , जिससे उनको सुजानसेन पुत्र प्राप्त हुआ

सुजानसेन का विवाह चंद्रावती के साथ हुआ। सुजानसेन को उतर दिशा में कभी भी नही जाने का कहा गया था, किन्तु हठ पूर्वक वो 72 उमरावों के साथ उत्तर दिशा में गए। वहां उन्हें श्रृंगी ऋषि और दाधीच ऋषि यज्ञ करते हुए मिले ।  

सुजानसेन ने ऋषि मुनियों के यज्ञ को विध्वंस कर दिया । जिसके कारण ऋषियों ने सुजानसेन व 72 उमरावों को श्राप देकर उन्हें पत्थर के बना दिये ।

जब सुजानसेन की पत्नी को पता चला तो उसने व 72 उमरावों की पत्नियों ने मिलकर शिवजी का ध्यान करके तपस्या की। तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव और माता पार्वती प्रकट हुए और माता पार्वती के कहने पर भगवान शिव ने सभी उमरावों को व सुजानसेन को जीवन दान दिया । तब सबने महेश वंदना गाई । भगवान महेश के द्वारा जीवन दान मिलने के कारण माहेश्वरी कहलाये । ये एक सुंदर कहानी / गाथा के रूप में भी उपलब्ध है ।

माहेश्वरी खांपें - गौत्र - कुलदेवियाँ एवं मन्दिर
Gotra, Kuldevi List of Maheshwari
kuldevi-list-of-maheshwari-samaj

माहेश्वरी समाज की उत्पत्ति

History of Maheshwari Samaj in Hindi : माहेश्वरी समाज की उत्पत्ति राजपूतों से मानी जाती है। इस विषय में इतिहास कल्पद्रुम में कथा है कि जयपुर में खंडेला (सीकर जिला) नाम का एक स्थान है, यहाँ के राजा सुजातसेन के संतान नहीं थी। पंडितों ने बताया कि वन में जाकर कल्पवृक्ष के नीचे खुदाई करें वहाँ महादेव की प्रतिमा मिलेगी। उस प्रतिमा से आपको संतान का वरदान प्राप्त होगा।

राजा ने वैसा ही किया और पुत्र प्राप्ति का वरदान प्राप्त किया। कुछ समय बाद उनके पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। राजकुमार की अल्प आयु में ही राजा की मृत्यु हो गई।

एक दिन राजकुमार अपने अंगरक्षकों के साथ शिकार खेलने गया। उसे वहां 16 ऋषियों का एक समूह मिला। वहां एक जलाशय था। शिकार खेलने के पश्चात् राजकुमार एवं उसके साथियों ने उस जलाशय में अपने अस्त्र-शस्त्र धोये, इससे जलाशय का जल रक्त के कारण लाल हो गया। ऋषियों ने राजकुमार और उसके साथियों को राक्षस समझा इसलिए उन्होंने उन्हें शाप दे दिया जिसके प्रभाव से राजकुमार और उसके बहत्तर साथी उसी स्थान पर पत्थर बन गये। जब रानियों व राजकुमार के साथियों की पत्नियों ने यह सुना तो वे सभी सती होने चली। जब वे चिताओं पर चढ़ने लगीं तो वहां शिवजी प्रकट हुए और उन्हें सती होने से बचा लिया और उनके पुरुषों को पत्थर से फिर मनुष्य बना दिया। किन्तु शिवजी ने उन्हें क्षत्रिय धर्म त्यागकर व्यापार कार्यों में उद्यम करने का आदेश दिया। इस पर राजकुमार शिवजी का परम भक्त हो गया अउ उसके साथियों से माहेश्वरी समाज के बहत्तर गोत्र बने। 

Gotra wise Kuldevi List of Maheshwari Samaj | माहेश्वरी समाज के गोत्र एवं कुलदेवियां

माहेश्वरी खांपें - गौत्र - कुलदेवियाँ एवं मन्दिर

क्र॰सं॰ खांप गोत्र कुलदेवी मन्दिर
01 जेथलिया जाजाऊंश आनंदी माता रूपनगढ़ से ४० कि.मी. है नोसल,राजस्थान
02 सोनी धुम्रांस सेवल्या माता बागोर, तह, मांडल, जिला भीलवाडा/ओसियां में भी
03 सोमानी लियांस बंधर माता उदयपुर से 70 किमी तानागाँव, (मोरगांव) जम्मू में भी
04 जाखेटिया सीलांस सिसनाय माता मांडल गाँव, भीलवाडॉ॰
05 सोढानी सोढास जीण माता अरावली पर्वतमाला में, सीकर से 10 मील.
06 हुरकुट कश्यप विषवंत माता फलौदी गाँव के पास में है।
07 न्याती नाणसैण चांदसेन माता वाचर्देचण, मानपुरा गाँव के पास.
08 हेडा धनांस फलोदी माता रामगंज मंडी, मेड़ता रोड (नागौर) में भी.
09 करवा करवास सच्चियाय माता जोधपुर से 65 किमी ओसियां में.
10 कांकाणी गौतम आमल माता रीछेड गाँव, तह. कुम्भलगढ़, जि. राजसमन्द.
11 मालू/मालूदा खलांस संचाय माता जोधपुर से 65 किमी ओसियां में.
12 सारडा थोम्बरास संचाय माता जोधपुर से 65 किमी ओसियां में.
13 काह्ल्या कागायंस लीकासन माता ग्रा. लेखासान, नागौर (छोटी खाटू से 4 मील).
14 गिलडा गौत्रम डायल माता/ डेरू गाँव, नागौर से 20 किलोमीटर
15 जाजू वालांस फलोदी माता रामगंज स्टेशन के पास, मेड़ता रोड (नागौर).
16 बाहेती गौकलांस सिंदल माता राम गाँव, जैसलमेर के पास.
17 बिदादा गजांस पाढाय माता डीडवाना.
18 बिहाणी वालांस संचाय माता जोधपुर से 65 किमी ओसियां में.
19 बजाज भंसाली गाहिल माता आसोप, मेड़ता रोड से 40 किलोमीटर
20 कलंत्री कश्यप पाण्डुका माता ग्रा. जायल, जि. नागौर.
21 कासट अचलांस सच्चियाय माता जोधपुर से 65 किमी ओसियां में.
22 काचोला सीलांस पाढाय माता डीडवाना.
23 कालाणी धौलांस चावडां माता मेड़ता सिटी और मेड़ता रोड के मध्य.
24 झंवर घुम्रक्ष गाहील माता करमीसर गाँव, जि. बीकानेर.
25 काबरा अचित्रांस सुसमाद माता कृषिमंडी, कुचेरा (नागौर), मेड़ता रोड के पास.
26 डाड़ आमरांस भद्रकाली माता हनुमानगढ़, (बीकानेर).
27 डागा राजहंस सच्चियाय माता जोधपुर से 65 किमी ओसियां में
28 गट्टानी ढालांस चावड़ा माता मेड़ता सिटी और मेड़ता रोड के मध्य.
29 राठी कपिलांस संचाय माता जोधपुर से 65 किमी ओसियां में.
30 बिड़ला वालांस संचाय माता जोधपुर से 65 किमी ओसियां में.
31 दरक हरिद्रास नागणेची माता नेगडिया, नाथद्वारा, उदयपुर.
32 तोषनीवाल कौशिक खुखर माता तिंवरी, जि.जोधपुर से 32 किलोमीटर
33 अजमेरा मानांस नौसार माता कनेर, जि. चित्तोड़गढ़, पुष्कर घाटी में.
34 भण्डारी कोशिक नागणेची माता नेगडिया, नाथद्वारा, उदयपुर.
35 छापरवाल कौशिक बंधर माता उदयपुर से 70 किलोमीटर तानागाँव, (मोरगांव).
36 भट्ठड़ भट्टयास बिसल माता गडसीसर झील, जैसलमेर.
37 भूतड़ा अचलांस खीवंज माता पोकरण/ कटौती तह. जायल, नागौर में भी.
38 बंग सौढ़ास खांडल माता मूंडवा, (नागौर).
39 अटल गौतम सच्चियाय माता जोधपुर से 65 किमी ओसियां में
40 इन्नाणी शैषांश जैसल माता
41 भराडिया अचित्र दधीमचि माता किरणसरिया, मांगलोर जि. नागौर (रोलगाँव).
42 भन्साली भंसाली चावड़ा माता पाण्डुका जायल, मेड़ता सिटी-मेड़ता रोड के मध्य.
43 लड्ढा सीलांस बाकला माता उम्मेदनगर, तह. ओसियां, जि. जोधपुर.
44 मालपाणी भट्टयास बिसल माता भादरिया, जैसलमेर (पोकरण से 50 किमी).
45 सिकची कश्यप संचाय माता जोधपुर से 65 किमी ओसियां में.
46 लाहोटी कांगास गाहिल माता आसोप, मेड़ता रोड से 40 किलोमीटर
47 गदहया (गोयल) गौरांस बंधर माता उदयपुर से 70 किमी तानागाँव, (मोरगांव).
48 गगराणी कश्यप पाढाय माता डीडवाना.
49 खटोड मूंगास नौसाल्या माता दहौडी, तह. जावद, जि. मंदसौर (मालवा).
50 मोलासरिया निरमिलांस पाढाय माता नमक झील, डीडवाना
51 लखोटिया फाफडांस संचाय माता जोधपुर से 65 किमी ओसियां में.
52 असावा बालांस आसावरी माता ओसियां, किराडू (बाड़मेर), डीडवाना में भी.
53 चेचाणी सीलांस दधवंत माता मांगलोर (किरणसरिया), रोलगाँव जि. नागौर.
54 मानधना
जेसलानी/माणधनी माता कोट मोहल्ला, डीडवाना.
55 मूंधड़ा गोवांस मूँदल माता मुंदीयाड, जि. नागौर.
56 चोखाड़ा चंद्रास जीवन माता
57 चांडक चंद्रास आसापुरा माता आसापुर (उदयपुर), आनन्द से 18 मील.
58 बलदेवा बालांस हिंगलाज माता मूल मन्दिर बलूचिस्तान (पाकिस्तान) में.
59 बाल्दी लौरस गारस माता
60 बूब मूसाइंस भद्रकाली माता हनुमानगढ़.
61 बांगड़ चूडांस संचाय माता जोधपुर से 65 किमी ओसियां में.
62 मंडोवर बछांस धौलेसरी रुई माता बहतु गाँव, जि. अलवर.
63 तोतला कपिलांस खुखर माता तिंवरी, जि. जोधपुर से 32 किलोमीटर
64 आगीवाल चंद्रास भैसादं माता पाडा, डीडवाना.(नीमच में भी).
65 आगसूंड कश्यप जाखण माता
66 परतानी कश्यप संचाय माता जोधपुर से 65 किमी ओसियां में.
67 नावंधर बुग्दालिभ धरजल माता पोकरण, जि. जैसलमेर.
68 नवाल नानणांस नवासण माता
69 पलोड़ साडांस जुजेश्वरी माता नारनोल (हरियाणा), रेवाड़ी, महोसर में भी.
70 तापडिया पीपलांस आसापुरा माता आसापुर (उदयपुर), आनन्द से 18 मील.
71 मणियार कौशिक दायमा माता किरणसरिया, जि. नागौर.
72 धूत फाफडांस लीकासन माता ग्रा. लेखासान, नागौर (छोटी खाटू से 4 मील).

.... वंशोत्पति के बाद कुछ खान्पे और बनी, जिसकी जानकारी नीचे दी जा रही है :-

73 मंत्री कंवलांस संचाय माता सांवर गाँव, जि. अजमेर, चित्तौडगढ़ में भी.
74 देवपुरा पारस पाढाय माता डीडवाना.
75 पोरवाल/परवाल नानांस भद्रकाली माता/ .
76 धूपड सिरसेस फलोदी माता रामगंज मंडी, मेड़ता रोड (नागौर) में भी.
77 मोदाणी साडांस चावड़ा माता गाँव पाण्डुका, मेड़ता सिटी-मेड़ता रोड के मध्य.
78 नौलखा कश्यप/गावंस पाढाय माता डीडवाना, जायल जि. नागौर में भी.
79 टावरी माकरण चावड़ा माता गाँव पाण्डुका, मेड़ता सिटी-मेड़ता रोड के मध्य.
80 दरगड़ गोवंस नागणेची माता नेगडिया, नाथद्वारा, उदयपुर.
81 बागड़ी लियांस बंधर माता उदयपुर से 70 किमी तानागाँव, (मोरगांव) जम्मू में भी
82 खावड मूंगास नौसाल्या माता दहौडी, तह. जावद, जि. मंदसौर (मालवा).
83 लोहिया चंद्रास

84 रांदड कश्यप संचाय माता जोधपुर से 65 किमी ओसियां में.
85 कालिया झुमरंस आसावरी माता ओसियां, किराडू (बाड़मेर), डीडवाना में भी.

निम्न दी गई खान्पों में जाजू एवं राठी महेश्वरीयों में मुख्य मानी गई हैं।

  • निम्न खान्पों/नखों की कुलदेवी भी संचाय माता ही है :- (जोधपुर से 65 किमी ओसियां में).

दम्माणी, करनाणी, सुरजन, धूरया, गांधी, राईवाल, कोठारी, मालाणी, मूथा, मोदी, मोह्त्ता, फाफट आदि l इसके अलावा भी बहुत सी खान्पे है, जो यहाँ नहीं आ सकी है, जो 'राठी' खांप के गोत्र के अंतर्गत आती है l कुछेक अन्य भी हो सकती है l

  • भैयाओं की माता - लटियार माता, फलौदी.
  • तेलाओं की माता - चावड़ा माता, जायल (नागौर).
    • गोत्र केवल ब्रह्मण वर्ण में ही होते थे l अन्य वर्णों ने अपने पुरोहितों के गोत्रों को ही स्वीकार कर लिया है l
  • माहेश्वरियों के ये आठ गुरु हैं - 1. पारीक, 2. दाधीच, 3. गुर्जर गौड़, 4. खंडेलवाल, 5. सिखवाल, 6. सारस्वत, 7. पालीवाल, 8. पुष्करणा.

आगे इनकी और कई नख/उप-खांपे हुयी जैसे - ओझा, दायमा, शर्मा, आदि (आगे चलकर इन गुरुओं को पुरोहित कहकर जाना जाने लगा.).

चलिए हजारो साल पुराना इतिहास पढ़ते हैं -1800-1947 तक अंग्रेजो के शासन रहा और यहीं से जातिवाद शुरू हुआ ।

 चलिए हजारो साल पुराना इतिहास पढ़ते हैं।




सम्राट शांतनु ने विवाह किया एक मछवारे की पुत्री सत्यवती से । उनका बेटा ही राजा बने इसलिए भीष्म ने विवाह न करके,आजीवन संतानहीन रहने की भीष्म प्रतिज्ञा की।

सत्यवती के बेटे बाद में क्षत्रिय बन गए, जिनके लिए भीष्म आजीवन अविवाहित रहे, क्या उनका शोषण होता होगा?

महाभारत लिखने वाले वेद व्यास भी मछवारे थे, पर महर्षि बन गए, गुरुकुल चलाते थे वो।

विदुर, जिन्हें महा पंडित कहा जाता है वो एक दासी के पुत्र थे, हस्तिनापुर के महामंत्री बने, उनकी लिखी हुई विदुर नीति, राजनीति का एक महाग्रन्थ है।

भीम ने वनवासी हिडिम्बा से विवाह किया।

श्रीकृष्ण दूध का व्यवसाय करने वालों के परिवार से थे,

उनके भाई बलराम खेती करते थे, हमेशा हल साथ रखते थे।

यादव क्षत्रिय रहे हैं, कई प्रान्तों पर शासन किया और श्रीकृषण सबके पूजनीय हैं, गीता जैसा ग्रन्थ विश्व को दिया।

राम के साथ वनवासी निषादराज गुरुकुल में पढ़ते थे।

उनके पुत्र लव कुश महर्षि वाल्मीकि के गुरुकुल में पढ़े जो *वन के वासी थे।

तो ये हो गयी वैदिक काल की बात, स्पष्ट है कोई किसी का शोषण नहीं करता था,सबको शिक्षा का अधिकार था, कोई भी पद तक पहुंच सकता था अपनी योग्यता के अनुसार।

वर्ण सिर्फ काम के आधार पर थे वो बदले जा सकते थे, जिसको आज इकोनॉमिक्स में डिवीज़न ऑफ़ लेबर कहते हैं वो ही।

प्राचीन भारत की बात करें, तो भारत के सबसे बड़े जनपद मगध पर जिस नन्द वंश का राज रहा वो जाति से नाई थे ।

नन्द वंश की शुरुवात महापद्मनंद ने की थी जो की राजा नाई थे। बाद में वो राजा बन गए फिर उनके बेटे भी, बाद में सभी क्षत्रिय ही कहलाये।

उसके बाद मौर्य वंश का पूरे देश पर राज हुआ, जिसकी शुरुआत चन्द्रगुप्त से हुई,जो कि एक मोर पालने वाले परिवार से थे और एक ब्राह्मण चाणक्य ने उन्हें पूरे देश का सम्राट बनाया । 506 साल देश पर मौर्यों का राज रहा।

फिर गुप्त वंश का राज हुआ, जो कि घोड़े का अस्तबल चलाते थे और घोड़ों का व्यापार करते थे।140 साल देश पर गुप्ताओं का राज रहा।

केवल पुष्यमित्र शुंग के 36 साल के राज को छोड़ कर 92% समय प्राचीन काल में देश में शासन उन्ही का  रहा, जिन्हें आज दलित पिछड़ा कहते हैं तो शोषण कहां से हो गया? यहां भी कोई शोषण वाली बात नहीं है।

फिर शुरू होता है मध्यकालीन भारत का समय जो सन 1100- 1750 तक है, इस दौरान अधिकतर समय, अधिकतर जगह मुस्लिम शासन रहा।

अंत में मराठों का उदय हुआ, बाजी राव पेशवा जो कि ब्राह्मण थे, ने गाय चराने वाले गायकवाड़ को गुजरात का राजा बनाया, चरवाहा जाति के होलकर को मालवा का राजा बनाया।

अहिल्या बाई होलकर खुद बहुत बड़ी शिवभक्त थी। ढेरों मंदिर गुरुकुल उन्होंने बनवाये।

मीरा बाई जो कि राजपूत थी, उनके गुरु एक चर्मकार रविदास थे और रविदास के गुरु ब्राह्मण रामानंद थे|।

यहां भी शोषण वाली बात कहीं नहीं है।

मुग़ल काल से देश में गंदगी शुरू हो गई और यहां से पर्दा प्रथा, गुलाम प्रथा, बाल विवाह जैसी चीजें शुरू होती हैं।

1800-1947 तक अंग्रेजो के शासन रहा और यहीं से जातिवाद शुरू हुआ । जो उन्होंने फूट डालो और राज करो की नीति के तहत किया।




अंग्रेज अधिकारी निकोलस डार्क की किताब "कास्ट ऑफ़ माइंड" में मिल जाएगा कि कैसे अंग्रेजों ने जातिवाद, छुआछूत को बढ़ाया और कैसे स्वार्थी भारतीय नेताओं ने अपने स्वार्थ में इसका राजनीतिकरण किया।

इन हजारों सालों के इतिहास में देश में कई विदेशी आये जिन्होंने भारत की सामाजिक स्थिति पर किताबें लिखी हैं, जैसे कि मेगास्थनीज ने इंडिका लिखी, फाहियान,  ह्यू सांग और अलबरूनी जैसे कई। किसी ने भी नहीं लिखा की यहां किसी का शोषण होता था।

योगी आदित्यनाथ जो ब्राह्मण नहीं हैं, गोरखपुर मंदिर के महंत  हैं, पिछड़ी जाति की उमा भारती महा मंडलेश्वर रही हैं। जन्म आधारित जातीय व्यवस्था हिन्दुओ को कमजोर करने के लिए लाई गई थी।

इसलिए भारतीय होने पर गर्व करें और घृणा, द्वेष और भेदभाव के षड्यंत्र से खुद भी बचें और औरों को भी बचाएं ।

यह पोस्ट अधिक से अधिक शेयर करें ... उन हिन्दू भाईयों को जोड़िये जो मुगलिया, अंग्रेजी और दलितों के षडयंत्र के कारण अपने🎁 आपको अलग मानते हैं और हिन्दू एकता में बाधा उत्पन्न करते हैं। लक्ष्य उनको भी जोड़ने का है ।

भारत रत्न लता दीदी - भावभीनी श्रद्धांजलि

 भारत रत्न लता दीदी



लता मंगेशकर (जन्म 28 सितंबर, 1929 इंदौर) भारत की सबसे लोकप्रिय और आदरणीय गायिका थीं, जिनका सात दशकों का कार्यकाल उपलब्धियों से भरा हुआ है। लता जी ने लगभग तीस से ज्यादा भाषाओं में फ़िल्मी और गैर-फ़िल्मी 30 हजार से अधिक गाने गाये।
लताजी की जादुई आवाज़ के भारतीय उपमहाद्वीप के साथ-साथ पूरी दुनिया में प्रशंसक हैं।

लता दीदी को भारत सरकार ने 'भारतरत्न' से सम्मानित किया है।

उनकी मृत्यु कोविड से जुड़े कारणों से 6 फरवरी 2022 को हुई।  वे 92 वर्ष की थीं।

पुण्यात्मा को भावभीनी श्रद्धांजलि 🌸🌸🙏🏻
उनका जाना देश के लिए अपूरणीय क्षति है।
वे सभी संगीत साधकों के लिए सदैव प्रेरणा थी।
ॐ शांतिः 🙏🕉️🕉️🕉️🕉️🕉️🕉️🕉️🕉️
नमन 🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻

अंकुरित आलू धीमा जहर है

 

आलु संसार के लगभग हर कोने में पाया जाता है और प्रत्येक घर में आलु का किसी न किसी रूप में उपयोग होता है ।

ऐसे में यह जानना अत्यंत आवश्यक हो जाता है कि क्या अंकुरित आलु धीमा जहर है?

जी हां। बिल्कुल सही सुना आपने अंकुरित आलू हमारी सेहत के लिए सही नहीं है।

जब आलू अंकुरित होता है तो एक प्रकार की रासायनिक प्रक्रिया से गुजरता है। इस प्रक्रिया के दौरान अंकुरित आलु का कार्बोहाइड्रेट स्टार्च शुगर में बदलने लगता है।

इसी दौरान सोलानिन और अल्फा कैकोनिन नाम के दो जहरीले तत्व बनते हैं।

आलू बाहर से नरम और मुरझा जाता है ।

सोलानीन और अल्फा कैकोनीन दोनों ही हमारे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक तत्व हैं। जो हमारे पाचन तंत्र को नुकसान पहुंचा सकते हैं।

अंकुरित आलू खाने से फ़ूड पोइज़निंग का खतरा रहता है।

तो जब भी आपके सामने अंकुरित आए तो उसे फेंकने में ही अपनी भलाई समझे।

भारत के वो महान रसायनज्ञ जो किसी भी धातु को सोने में बदल देते थे

भारत के वो महान रसायनज्ञ जो किसी भी धातु को सोने में बदल देते थे

भारत दक्षिण एशिया में स्थित भारतीय उपमहाद्वीप का सबसे बड़ा देश है। यह पूर्ण रूप से उत्तरी गोलार्ध में स्थित है, भारत भौगोलिक दृष्टि से विश्व का सातवाँ सबसे बड़ा देेश है, जबकि जनसंख्या के दृष्टिकोण से दूसरा सबसे बड़ा देश है।

नागार्जुन भारत के धातुकर्मी एवं रसशास्त्री (alchemist) थे।इनका जन्म महाकौशल मे हुआ था जिसकी राजधानी श्रीपुर था जिसे वर्तमान मे छत्तीसगढ कहते है तथा श्रीपुर को सिरपुर कहते है जो की महासमुन्द जिले मे आता है।श्रीपुर प्राचीन काल मे वैभव की नगरी कहलाती थी अभी के समय वहा उत्खनन मे प्राचीन बौद्ध विहार होने के साक्ष्य मिले है। विदर्भ और महकौसल की सीमा एक दूसरे के साथ मिलती थी इनका जन्म 50ईपू से 120 ई तक माना जाता है चीनी यात्री ह्वेनसाग कुछ दुरी पर स्थित तुरतुरिया जाने का प्रामाण मिलता है।

चीनी और तिब्बती साहित्य के अनुसार वे 'वैदेह देश' (विदर्भ) में जन्मे थे और पास के सतवाहन वंश द्वारा शासित क्षेत्र में चले गये थे। इसके अलावा इतिहास में महायान सम्प्रदाय के दार्शनिक नागार्जुन तथा रसशास्त्री नागार्जुन में भी भ्रम की स्थिति बनी रहती है। महाराष्ट्र के नागलवाडी ग्राम में उनकी प्रयोगशाला होने के प्रमाण मिले हैं। कुछ प्रमाणों के अनुसार वे 'अमरता' की प्राप्ति की खोज करने में लगे हुए थे और उन्हें पारा तथा लोहा के निष्कर्षण का ज्ञान था। द्वितीयक साहित्य में भी रसशास्त्री नागार्जुन के बारे में बहुत ही भ्रम की स्थिति है। पहले माना जाता था कि रसरत्नाकर नामक प्रसिद्ध रसशास्त्रीय ग्रन्थ उनकी ही रचना है किन्तु १९८४ के एक अध्ययन में पता चला कि रसरत्नाकर की पाण्डुलिपि में एक अन्य रचनाकार (नित्यानन्द सिद्ध) का नाम आया है।

इस संदर्भ में सर्वप्रथम 'नागार्जुन' का ही नाम आता है। यह महान गुणों के धनी थे जो विभिन्न धातुओं को सोने में बदलने की विधि जानते थे और उसका सफलतापूर्वक प्रदर्शन भी किया था ।

सोना बनाने का रहस्य

कहते हैं कि इनका जन्म द्वितीय शताब्दी में हुआ था और गुजरात के सोमनाथ के निकट देहक नामक किले में हुआ था । नागार्जुन ने रसायन शास्त्र और धातु विज्ञान पर बहुत शोध कार्य किया। उन्होंने कई पुस्तकों की रचना करी जिसमें 'रस रत्नाकर' और 'रसेंद्र मंगल' बहुत प्रसिद्ध है ।

उन्होंने कई असाध्य रोगों को खत्म करने की कई औषधियां भी प्राप्त करी। प्रयोगशाला में नागार्जुन ने पारे पर बहुत प्रयोग किऐ।

उन्होंने विस्तार से पारे को शुद्ध करना और औषधीय प्रयोग की विधियां बताई। पारे के प्रयोग न केवल धातु परिवर्तन किया जाता था अपितु शरीर को निरोगी बनाने और दीर्घायु बनाने में प्रयोग किया जाता था।

इस तरह हमारा प्राचीन भारत बहुत ही श्रेष्ठ था जहां पर अनेकों अनेक महान वैज्ञानिक पैदा हुए और इस धरा को समृद्धशाली बनाया।

सोना बनाने का रहस्य

https://sanwariyaa.blogspot.com/2015/02/blog-post_5.html

आइय़े फ़िर से सोना बनायें ।
https://sanwariyaa.blogspot.com/2015/02/blog-post_41.html






function disabled

Old Post from Sanwariya