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रविवार, 17 अप्रैल 2022

ब्रह्म मुहूर्त में उठने की परंपरा क्यों ?

ब्रह्म मुहूर्त में उठने की परंपरा क्यों ? 
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रात्रि के अंतिम प्रहर को ब्रह्म मुहूर्त कहते हैं। हमारे ऋषि मुनियों ने इस मुहूर्त का विशेष महत्व बताया है। उनके अनुसार यह समय   निद्रा त्याग के लिए सर्वोत्तम है। ब्रह्म मुहूर्त में उठने से सौंदर्य, बल, विद्या, बुद्धि और स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है। सूर्योदय से चार घड़ी (लगभग डेढ़ घण्टे) पूर्व ब्रह्म मुहूर्त में ही जग जाना चाहिये। इस समय सोना शास्त्र निषिद्ध है।

ब्रह्म का मतलब परम तत्व या परमात्मा। मुहूर्त यानी अनुकूल समय। रात्रि का अंतिम प्रहर अर्थात प्रात: 4 से 5.30 बजे का समय ब्रह्म मुहूर्त कहा गया है।

*“ब्रह्ममुहूर्ते या निद्रा सा पुण्यक्षयकारिणी”।*
(ब्रह्ममुहूर्त की निद्रा पुण्य का नाश करने वाली होती है।)

सिख धर्म में इस समय के लिए बेहद सुन्दर नाम है--*"अमृत वेला"*, जिसके द्वारा इस समय का महत्व स्वयं ही साबित हो जाता है। ईश्वर भक्ति के लिए यह महत्व स्वयं ही साबित हो जाता है। ईवर भक्ति के लिए यह सर्वश्रेष्ठ समय है। इस समय उठने से मनुष्य को सौंदर्य, लक्ष्मी, बुद्धि, स्वास्थ्य आदि की प्राप्ति होती है। उसका मन शांत और तन पवित्र होता है।

ब्रह्म मुहूर्त में उठना हमारे जीवन के लिए बहुत लाभकारी है। इससे हमारा शरीर स्वस्थ होता है और दिनभर स्फूर्ति बनी रहती है। स्वस्थ रहने और सफल होने का यह ऐसा फार्मूला है जिसमें खर्च कुछ नहीं होता। केवल आलस्य छोड़ने की जरूरत है।

पौराणिक महत्व👉  वाल्मीकि रामायण के मुताबिक माता सीता को ढूंढते हुए श्रीहनुमान ब्रह्ममुहूर्त में ही अशोक वाटिका पहुंचे। जहां उन्होंने वेद व यज्ञ के ज्ञाताओं के मंत्र उच्चारण की आवाज सुनी।

शास्त्रों में भी इसका उल्लेख है--
*वर्णं कीर्तिं मतिं लक्ष्मीं स्वास्थ्यमायुश्च विदन्ति।*
*ब्राह्मे मुहूर्ते संजाग्रच्छि वा पंकज यथा॥*

अर्थात👉  ब्रह्म मुहूर्त में उठने से व्यक्ति को सुंदरता, लक्ष्मी, बुद्धि, स्वास्थ्य, आयु आदि की प्राप्ति होती है। ऐसा करने से शरीर कमल की तरह सुंदर हो जाता हे।

ब्रह्म मुहूर्त और प्रकृति 
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ब्रह्म मुहूर्त और प्रकृति का गहरा नाता है। इस समय में पशु-पक्षी जाग जाते हैं। उनका मधुर कलरव शुरू हो जाता है। कमल का फूल भी खिल उठता है। मुर्गे बांग देने लगते हैं। एक तरह से प्रकृति भी ब्रह्म मुहूर्त में चैतन्य हो जाती है। यह प्रतीक है उठने, जागने का। प्रकृति हमें संदेश देती है ब्रह्म मुहूर्त में उठने के लिए।

इसलिए मिलती है सफलता व समृद्धि
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आयुर्वेद के अनुसार ब्रह्म मुहूर्त में उठकर टहलने से शरीर में संजीवनी शक्ति का संचार होता है। यही कारण है कि इस समय बहने वाली वायु को अमृततुल्य कहा गया है। इसके अलावा यह समय अध्ययन के लिए भी सर्वोत्तम बताया गया है क्योंकि रात को आराम करने के बाद सुबह जब हम उठते हैं तो शरीर तथा मस्तिष्क में भी स्फूर्ति व ताजगी बनी रहती है। प्रमुख मंदिरों के पट भी ब्रह्म मुहूर्त में खोल दिए जाते हैं तथा भगवान का श्रृंगार व पूजन भी ब्रह्म मुहूर्त में किए जाने का विधान है।

*ब्रह्ममुहूर्त के धार्मिक, पौराणिक व व्यावहारिक पहलुओं और लाभ को जानकर हर रोज इस शुभ घड़ी में जागना शुरू करें तो बेहतर नतीजे मिलेंगे।*

ब्रह्म मुहूर्त में उठने वाला व्यक्ति सफल, सुखी और समृद्ध होता है, क्यों? क्योंकि जल्दी उठने से दिनभर के कार्यों और योजनाओं को बनाने के लिए पर्याप्त समय मिल जाता है। इसलिए न केवल जीवन सफल होता है। शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ रहने वाला हर व्यक्ति सुखी और समृद्ध हो सकता है। कारण वह जो काम करता है उसमें उसकी प्रगति होती है। विद्यार्थी परीक्षा में सफल रहता है। जॉब (नौकरी) करने वाले से बॉस खुश रहता है। बिजनेसमैन अच्छी कमाई कर सकता है। बीमार आदमी की आय तो प्रभावित होती ही है, उल्टे खर्च बढऩे लगता है। सफलता उसी के कदम चूमती है जो समय का सदुपयोग करे और स्वस्थ रहे। अत: स्वस्थ और सफल रहना है तो ब्रह्म मुहूर्त में उठें।

वेदों में भी ब्रह्म मुहूर्त में उठने का महत्व और उससे होने वाले लाभ का उल्लेख किया गया है।
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प्रातारत्नं प्रातरिष्वा दधाति तं चिकित्वा प्रतिगृह्यनिधत्तो।
तेन प्रजां वर्धयमान आयू रायस्पोषेण सचेत सुवीर:॥ - ऋग्वेद-1/125/1
अर्थात- सुबह सूर्य उदय होने से पहले उठने वाले व्यक्ति का स्वास्थ्य अच्छा रहता है। इसीलिए बुद्धिमान लोग इस समय को व्यर्थ नहीं गंवाते। सुबह जल्दी उठने वाला व्यक्ति स्वस्थ, सुखी, ताकतवाला और दीर्घायु होता है।
यद्य सूर उदितोऽनागा मित्रोऽर्यमा। सुवाति सविता भग:॥ - सामवेद-35
अर्थात- व्यक्ति को सुबह सूर्योदय से पहले शौच व स्नान कर लेना चाहिए। इसके बाद भगवान की पूजा-अर्चना करना चाहिए। इस समय की शुद्ध व निर्मल हवा से स्वास्थ्य और संपत्ति की वृद्धि होती है।
उद्यन्त्सूर्यं इव सुप्तानां द्विषतां वर्च आददे।
अथर्ववेद- 7/16/२
अर्थात- सूरज उगने के बाद भी जो नहीं उठते या जागते उनका तेज खत्म हो जाता है।

👉 व्यावहारिक महत्व - व्यावहारिक रूप से अच्छी सेहत, ताजगी और ऊर्जा पाने के लिए ब्रह्ममुहूर्त बेहतर समय है। क्योंकि रात की नींद के बाद पिछले दिन की शारीरिक और मानसिक थकान उतर जाने पर दिमाग शांत और स्थिर रहता है। वातावरण और हवा भी स्वच्छ होती है। ऐसे में देव उपासना, ध्यान, योग, पूजा तन, मन और बुद्धि को पुष्ट करते हैं।

जैविक घड़ी पर आधारित शरीर की दिनचर्या
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👉 प्रातः 3 से 5 – इस समय जीवनी-शक्ति विशेष रूप से फेफड़ों में होती है। थोड़ा गुनगुना पानी पीकर खुली हवा में घूमना एवं प्राणायाम करना । इस समय दीर्घ श्वसन करने से फेफड़ों की कार्यक्षमता खूब विकसित होती है। उन्हें शुद्ध वायु (आक्सीजन) और ऋण आयन विपुल मात्रा में मिलने से शरीर स्वस्थ व स्फूर्तिमान होता है। ब्रह्म मुहूर्त में उठने वाले लोग बुद्धिमान व उत्साही होते है, और सोते रहने वालों का जीवन निस्तेज हो जाता है ।

👉 प्रातः 5 से 7 – इस समय जीवनी-शक्ति विशेष रूप से आंत में होती है। प्रातः जागरण से लेकर सुबह 7 बजे के बीच मल-त्याग एवं स्नान का लेना चाहिए । सुबह 7 के बाद जो मल-त्याग करते है उनकी आँतें मल में से त्याज्य द्रवांश का शोषण कर मल को सुखा देती हैं। इससे कब्ज तथा कई अन्य रोग उत्पन्न होते हैं।

👉 प्रातः 7 से 9 – इस समय जीवनी-शक्ति विशेष रूप से आमाशय में होती है। यह समय भोजन के लिए उपर्युक्त है । इस समय पाचक रस अधिक बनते हैं। भोजन के बीच-बीच में गुनगुना पानी (अनुकूलता अनुसार) घूँट-घूँट पिये।

👉 प्रातः 11 से 1 – इस समय जीवनी-शक्ति विशेष रूप से हृदय में होती है।

👉 दोपहर 12 बजे के आस–पास मध्याह्न – संध्या (आराम) करने की हमारी संस्कृति में विधान है। इसी लिए भोजन वर्जित है । इस समय तरल पदार्थ ले सकते है। जैसे मट्ठा पी सकते है। दही खा सकते है ।

👉 दोपहर 1 से 3 -- इस समय जीवनी-शक्ति विशेष रूप से छोटी आंत में होती है। इसका कार्य आहार से मिले पोषक तत्त्वों का अवशोषण व व्यर्थ पदार्थों को बड़ी आँत की ओर धकेलना है। भोजन के बाद प्यास अनुरूप पानी पीना चाहिए । इस समय भोजन करने अथवा सोने से पोषक आहार-रस के शोषण में अवरोध उत्पन्न होता है व शरीर रोगी तथा दुर्बल हो जाता है ।

दोपहर 3 से 5 -- इस समय जीवनी-शक्ति विशेष रूप से मूत्राशय में होती है । 2-4 घंटे पहले पिये पानी से इस समय मूत्र-त्याग की प्रवृति होती है।

शाम 5 से 7 -- इस समय जीवनी-शक्ति विशेष रूप से गुर्दे में होती है । इस समय हल्का भोजन कर लेना चाहिए । शाम को सूर्यास्त से 40 मिनट पहले भोजन कर लेना उत्तम रहेगा। सूर्यास्त के 10 मिनट पहले से 10 मिनट बाद तक (संध्याकाल) भोजन न करे। शाम को भोजन के तीन घंटे बाद दूध पी सकते है । देर रात को किया गया भोजन सुस्ती लाता है यह अनुभवगम्य है।

रात्री 7 से 9 -- इस समय जीवनी-शक्ति विशेष रूप से मस्तिष्क में होती है । इस समय मस्तिष्क विशेष रूप से सक्रिय रहता है । अतः प्रातःकाल के अलावा इस काल में पढ़ा हुआ पाठ जल्दी याद रह जाता है । आधुनिक अन्वेषण से भी इसकी पुष्टी हुई है।

रात्री 9 से 11 -- इस समय जीवनी-शक्ति विशेष रूप से रीढ़ की हड्डी में स्थित मेरुरज्जु में होती है। इस समय पीठ के बल या बायीं करवट लेकर विश्राम करने से मेरूरज्जु को प्राप्त शक्ति को ग्रहण करने में मदद मिलती है। इस समय की नींद सर्वाधिक विश्रांति प्रदान करती है । इस समय का जागरण शरीर व बुद्धि को थका देता है । यदि इस समय भोजन किया जाय तो वह सुबह तक जठर में पड़ा रहता है, पचता नहीं और उसके सड़ने से हानिकारक द्रव्य पैदा होते हैं जो अम्ल (एसिड) के साथ आँतों में जाने से रोग उत्पन्न करते हैं। इसलिए इस समय भोजन करना खतरनाक है।

रात्री 11 से 1 -- इस समय जीवनी-शक्ति विशेष रूप से पित्ताशय में होती है । इस समय का जागरण पित्त-विकार, अनिद्रा , नेत्ररोग उत्पन्न करता है व बुढ़ापा जल्दी लाता है । इस समय नई कोशिकाएं बनती है ।

रात्री 1 से 3 -- इस समय जीवनी-शक्ति विशेष रूप से लीवर में होती है । अन्न का सूक्ष्म पाचन करना यह यकृत का कार्य है। इस समय का जागरण यकृत (लीवर) व पाचन-तंत्र को बिगाड़ देता है । इस समय यदि जागते रहे तो शरीर नींद के वशीभूत होने लगता है, दृष्टि मंद होती है और शरीर की प्रतिक्रियाएं मंद होती हैं। अतः इस समय सड़क दुर्घटनाएँ अधिक होती हैं।

नोट :-👉 ऋषियों व आयुर्वेदाचार्यों ने बिना भूख लगे भोजन करना वर्जित बताया है। अतः प्रातः एवं शाम के भोजन की मात्रा ऐसी रखे, जिससे ऊपर बताए भोजन के समय में खुलकर भूख लगे। जमीन पर कुछ बिछाकर सुखासन में बैठकर ही भोजन करें। इस आसन में मूलाधार चक्र सक्रिय होने से जठराग्नि प्रदीप्त रहती है। कुर्सी पर बैठकर भोजन करने में पाचनशक्ति कमजोर तथा खड़े होकर भोजन करने से तो बिल्कुल नहींवत् हो जाती है। इसलिए ʹबुफे डिनरʹ से बचना चाहिए।
पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र का लाभ लेने हेतु सिर पूर्व या दक्षिण दिशा में करके ही सोयें, अन्यथा अनिद्रा जैसी तकलीफें होती हैं।

शरीर की जैविक घड़ी को ठीक ढंग से चलाने हेतु रात्रि को बत्ती बंद करके सोयें। इस संदर्भ में हुए शोध चौंकाने वाले हैं। देर रात तक कार्य या अध्ययन करने से और बत्ती चालू रख के सोने से जैविक घड़ी निष्क्रिय होकर भयंकर स्वास्थ्य-संबंधी हानियाँ होती हैं। अँधेरे में सोने से यह जैविक घड़ी ठीक ढंग से चलती है।

आजकल पाये जाने वाले अधिकांश रोगों का कारण अस्त-व्यस्त दिनचर्या व विपरीत आहार ही है। हम अपनी दिनचर्या शरीर की जैविक घड़ी के अनुरूप बनाये रखें तो शरीर के विभिन्न अंगों की सक्रियता का हमें अनायास ही लाभ।। मिलेगा। इस प्रकार थोड़ी-सी सजगता हमें स्वस्थ जीवन की प्राप्ति करा देगी।

" सब सुखी और निरोगी हों !!
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वैशाखमास महात्म्य – स्कन्द पुराण से

वैशाखमास महात्म्य – स्कन्द पुराण से
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वैशाख मास की श्रेष्ठता
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नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तम् ।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ।।
अर्थ – भगवान नारायण, नरश्रेष्ठ नर, देवी सरस्वती तथा महर्षि वेदव्यास को नमस्कार करके भगवान की विजय-कथा से परिपूर्ण इतिहास-पुराण आदि का पाठ करना चाहिए।
 
सूतजी कहते हैं – राजा अम्बरीष ने परमेष्ठी ब्रह्मा के पुत्र देवर्षि नारद से पुण्यमय वैशाख मास का माहात्म्य सुना। उस समय आपने यह कहा था कि सब महीनों में वैशाख मास श्रेष्ठ है। इसलिए यह बताने की कृपा करें कि वैशाख मास क्यों भगवान विष्णु को प्रिय है और उस समय कौन-कौन से धर्म भगवान विष्णु के लिए प्रीतिकारक हैं?

नारद जी ने कहा – वैशाख मास को ब्रह्मा जी ने सब मासों में उत्तम सिद्ध किया है। वह माता की भाँति सब जीवों को सदा अभीष्ट वस्तु प्रदान करने वाला है। धर्म, यज्ञ, क्रिया और तपस्या का सार है। संपूर्ण देवताओं द्वारा पूजित है। जैसे विद्याओं में वेद-विद्या, मन्त्रों में प्रणव, वृक्षों में कल्पवृक्ष, धेनुओं में कामधेनु, देवताओं में विष्णु, वर्णों में ब्राह्मण, प्रिय वस्तुओं में प्राण, नदियों में गंगाजी, तेजों में सूर्य, अस्त्र-शस्त्रों में चक्र, धातुओं में सुवर्ण, वैष्णवों में शिव तथा रत्नों में कौस्तुभमणि है, उसी प्रकार धर्म के साधनभूत महीनों में वैशाख मास सबसे उत्तम है। संसार में इसके समान भगवान विष्णु को प्रसन्न करने वाला दूसरा कोई मास नहीं है। जो वैशाख मास में सूर्योदय से पहले स्नान करता है, उससे भगवान विष्णु निरन्तर प्रीति करते हैं। पाप तभी तक गर्जते हैं जब तक जीव वैशाख मास में प्रात: काल जल में स्नान नहीं करता।

राजन् ! वैशाख के महीने में सब तीर्थ आदि देवता बाहर के जल में भी सदैव स्थित रहते हैं भगवान विष्णु की आज्ञा से मनुष्यों का कल्याण करने के लिए वे सूर्योदय से लेकर छ: दण्ड के भीतर तक वहाँ मौजूद रहते हैं। वैशाख के समान कोई मास नहीं है, सतयुग के समान कोई युग नहीं है, वेद के समान कोई शास्त्र नहीं है और गंगाजी के समान कोई तीर्थ नहीं है। जल के समान दान नहीं है, खेती के समान धन नहीं है और जीवन से बढ़कर कोई लाभ नहीं है। उपवास के समान कोई तप नहीं, दान से बढ़कर कोई सुख नहीं, दया के समान धर्म नहीं, धर्म के समान मित्र नहीं, सत्य के समान यश नहीं, आरोग्य के समान उन्नति नहीं, भगवान विष्णु से बढ़कर कोई रक्षक नहीं और वैशाख मास के समान संसार में कोई पवित्र मास नहीं है। ऎसा विद्वान पुरुषों का मत है।

वैशाख श्रेष्ठ मास है और शेषशायी भगवान विष्णु को सदा प्रिय है। सब दानों से जो पुण्य होता है और सब तीर्थों में जो फल होता है, उसी को मनुष्य वैशाख मास में केवल जलदान करके प्राप्त कर लेता है। जो जलदान में असमर्थ है, ऎसे ऎश्वर्य की अभिलाषा रखने वाले पुरुष को उचित है कि वह दूसरे को प्रबोध करे, दूसरे को जलदान का महत्त्व समझावे। यह सब दानों से बढ़कर हितकारी है। जो मनुष्य वैशाख में सड़क पर यात्रियों के लिए प्याऊ लगाता है वह विष्णुलोक में प्रतिष्ठित होता है।
नृपश्रेष्ठ ! प्रपादान (प्याऊ) देवताओं, पितरों तथा ऋषियों को अत्यन्त प्रीति देने वाला है। जिसने प्याऊ लगाकर रास्ते के थके-माँदे मनुष्यों को सन्तुष्ट किया है, उसने ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि देवताओं को सन्तुष्ट कर लिया है। राजन् ! वैशाख मास में जल की इच्छा रखने वाले को जल, छाया चाहने वाले को छाता और पंखे की इच्छा रखने वाले को पंखा देना चाहिए। राजेन्द्र ! जो प्यास से पीड़ित महात्मा पुरुष के लिए शीतल जल प्रदान करता है, वह उतने ही मात्र से दस हजार राजसूय यज्ञों का फल पाता है। धूप और परिश्रम से पीड़ित ब्राह्मण को जो पंखा डुलाकर हवा करता है, वह उतने ही मात्र से निष्पाप होकर भगवान का पार्षद हो जाता है।
जो मार्ग से थके हुए श्रेष्ठ द्विज को वस्त्र से भी हवा करता है, वह उतने से ही मुक्त हो भगवान विष्णु का सायुज्य परप्त कर लेता है। जो शुद्ध चित्त से ताड़ का पंखा देता है वह सब पापों का नाश करके ब्रह्मलोक को जाता है। जो विष्णुप्रिय वैशाख मास में पादुका दान करता है, वह यमदूतों का तिरस्कार करके विष्णुलोक में जाता है। जो मार्ग में अनाथों के ठहरने के लिए विश्रामशाला बनवाता है, उसके पुण्य-फल का वर्णन किया नहीं जा सकता। मध्याह्न में आये हुए ब्राह्मण अतिथि को यदि कोई भोजन दे तो उसके फल का अन्त नहीं है।   
राजन् ! अन्नदान मनुष्यों को तत्काल तृप्त करने वाला है इसलिए संसार में अन्न के समान कोई दान नहीं है। जो मनुष्य मार्ग के थके हुए ब्राह्मण के लिए आश्रय देता है उसके पुण्यफल का वर्णन किया नहीं जा सकता। भूपाल ! जो अन्नदाता है, वह माता-पिता आदि का भी विस्मरण करा देता है इसलिए तीनों लोकों के निवासी अन्नदान की ही प्रशंसा करते हैं। माता और पिता केवल जन्म के हेतु हैं पर जो अन्न देकर पालन करता है, मनीषी पुरुष इस लोक में उसी को पिता कहते हैं।
 
वैशाख स्नान के नियम
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महीरथ नाम का एक राजा था जो सदा कामनाओं में आसक्त और अजितेन्द्रिय था। वह केवल वैशाख स्नान के सुयोग से स्वत: वैकुण्ठधाम को चला गया। वैशाख मास के देवता भगवान मधुसूदन हैं। अतएव वह सफल मास है। वैशाख मास में भगवान की प्रार्थना का मन्त्र इस प्रकार है –
 
मधुसूदन देवेश वैशाखे मेषगे रवौ।
प्रात:स्नानं करिष्यामि निर्विघ्नं कुरु माधव।।
अर्थ – हे मधुसूदन ! हे देवेश्वर माधव ! मैं मेष राशि में सूर्य के स्थित होने पर वैशाख मास में प्रात: स्नान करुँगा, आप इसे निर्विघ्न पूर्ण कीजिए।
 
तत्पश्चात निम्नांकित मन्त्र से अर्घ्य प्रदान करना चाहिए –
वैशाखे मेषगे भानौ प्रात:स्नानपरायण:।
अर्घ्यं तेSहं प्रदास्यामि गृहाण मधुसूदन।।
अर्थ – सूर्य के मेष राशि पर स्थित रहते हुए वैशाख मास में प्रात: स्नान के नियम में संलग्न होकर मैं आपको अर्घ्य देता हूँ। मधुसूदन ! इसे ग्रहण कीजिए।
 
इस प्रकार अर्घ्य समर्पण करके स्नान करें फिर वस्त्रों को पहनकर संध्या तर्पण आदि सब कर्मों को पूरा करके वैशाख मास में विकसित होने वाले पुष्पों से भगवान विष्णु की पूजा करें। उसके बाद वैशाख मास के माहात्म्य को सूचित करने वाली भगवान विष्णु की कथा सुने। ऎसा करने से कोटि जन्मों के पापों से मुक्त होकर मनुष्य मोक्ष को प्राप्त होता है। यह शरीर अपने अधीन है, जल भी अपने अधीन ही है, साथ ही अपनी जिह्वा भी अपने वश में है। अत: इस स्वाधीन शरीर से स्वाधीन जल में स्नान करके स्वाधीन जिह्वा से “हरि” इन दो अक्षरों का उच्चारण करें। जो वैशाख मास में तुलसीदल से भगवान विष्णु की पूजा करता है, वह विष्णु की सायुज्य मुक्ति को पाता है। अत: अनेक प्रकार के भक्तिमार्ग से तथा भाँति-भाँति के व्रतों द्वारा भगवान विष्णु की सेवा तथा उनके सगुण या निर्गुण स्वरूप का अनन्य चित्त से ध्यान करना चाहिए।
 
वैशाख मास में छत्र दान से हेमन्त का उद्धार
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नारदजी कहते हैं – एक समय विदेहराज जनक के घर दोपहर के समय श्रुतदेव नाम से विख्यात एक श्रेष्ठ मुनि पधारे, जो वेदों के ज्ञाता थे। उन्हें देखकर राजा बड़े उल्लास के साथ उठकर खड़े हो गए और मधुपर्क आदि सामग्रियों से उनकी विधिपूर्वक पूजा करके राजा ने उनके चरणोदक को अपने मस्तक पर धारण किया। इस प्रकार स्वागत-सत्कार के पश्चात जब वे आसन पर विराजमान हुए तब विदेहराज के प्रश्न के अनुसार वैशाख मास के माहात्म्य का वर्णन करते हुए वे इस प्रकार बोले।
श्रुतदेव ने कहा – राजन् ! जो लोग वैशाख मास में धूप से सन्तप्त होने वाला माहात्मा पुरुषों के ऊपर छाता लगाते हैं, उन्हें अनन्त पुण्य की प्राप्ति होती है। इस विषय में एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं।
पहले वंग देश में हेमकान्त नाम से विख्यात एक राजा थे। वे कुशकेतु के पुत्र परम बुद्धिमान और शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ थे। एक दिन वे शिकार खेलने में आसक्त होकर एक गहन वन में जा घुसे। वहाँ अनेक प्रकार के मृग और वराह आदि जन्तुओं को मारकर जब वे बहुत थक गए तब दोपहर के समय मुनियों के आश्रम पर आए। उस समय आश्रम पर उत्तम व्रत का पालन करने वाले शतर्चि नाम वाले ऋषि समाधि लगाए बैठे थे, जिन्हें बाहर के कार्यों का कुछ भी ज्ञान नहीं होता था। उन्हें निश्चल बैठे देख राजा को बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने उन महात्माओं को मार डालने का निश्चय किया तब उन ऋषियों के दस हजार शिष्यों ने राजा को मना करते हुए कहा – “ओ खोटी बुद्धिवाले नरेश ! हमारे गुरु लोग इस समय समाधि में स्थित हैं, बाहर कहाँ क्या हो रहा है – इसको ये नहीं जानते इसलिए इन पर तुम्हें क्रोध नहीं करना चाहिए।”
तब राजा ने क्रोध से विह्वल होकर शिष्य़ों से कहा – द्विजकुमारों ! मैं मार्ग से थका-माँदा यहाँ आया हूँ। अत: तुम्हीं लोग मेरा आतिथ्य करो। राजा के ऎसा कहने पर वे शिष्य बोले – “हम लोग भिक्षा माँगकर खाने वाले हैं। गुरुजनों ने हमें किसी के आतिथ्य के लिए आज्ञा नहीं दी है। हम सर्वथा गुरु के अधीन हैं। अत: तुम्हारा आतिथ्य मैसे कर सकते हैं।” शिष्यों का यह कोरा उत्तर पाकर राजा ने उन्हें मारने के लिए धनुष उठाया और इस प्रकार कहा – “मैंने हिंसक जीवों और लुटेरों के भय आदि से जिनकी अनेकों बार रक्षा की है, जो मेरे दिए हुए दानों पर ही पलते हैं, वे आज मुझे ही सिखलाते चले हैं। ये मुझे नहीं जानते, ये सभी कृतघ्न और बड़े अभिमानी हैं। इन आततायियों को मर डालने पर भी मुझे कोई दोष नहीं लगेगा।” ऎसा कहकर वे कुपित हो धनुष से बाण छोड़ने लगे।
बेचारे शिष्य आश्रम छोड़कर भय से भाग चले। भागने पर भी हेमकान्त ने उनका पीछा किया और तीन सौ शिष्यों को मर गिराया। शिष्यों के भाग जाने पर आश्रम पर जो कुछ सामग्री थी उसे राजा के पापात्मा सैनिकों ने लूट लिया। राजा के अनुमोदन से ही उन्होंने वहाँ इच्छानुसार भोजन किया। तत्पश्चात दिन बीतते-बीतते राजा सेना के साथ अपनी पुरी में आ गए। राजा कुशकेतु ने जब अपने पुत्र का यह अन्यायपूर्ण कार्य सुना तब उसे राज्य करने के अयोग्य जानकर उसकी निन्दा करते हुए उसे देश निकाला दे दिया। पिता के त्याग देने पर हेमकान्त घने वन में चला गया। वहाँ उसने बहुत वर्षों तक निवास किया। ब्रह्महत्या उसका सदा पीछा करती रहती थी इसलिए वह कहीं भी स्थिरतापूर्वक रह नहीं पाता था।
इस प्रकार उस दुष्टात्मा के अठ्ठाईस वर्ष व्यतीत हो गए। एक दिन वैशाख मास में जब दोपहर का समय हो रहा था, महामुनि त्रित तीर्थयात्रा के प्रसंग से उस वन में आए। वे धूप से अत्यन्त संतप्त और तृषा से बहुत पीड़ित थे इसलिए किसी वृक्षहीन प्रदेश में मूर्च्छित होकर गिर पड़े। दैवयोग से हेमकान्त उधर आ निकला, उसने मुनि को प्यास से पीड़ित, मूर्च्छित और थका-माँदा देख उन पर बड़ी दया की। उसने पलाश के पत्तों से छत्र बनाकर उनके ऊपर आती हुई धूप का निवारण किया। वह स्वयं मुनि के मस्तक पर छाता लगाए खड़ा हुआ और तूँबी में रखा हुआ जल उनके मुँह में डाला।
इस उपचार से मुनि को चेत(होश) हो आया और उन्होंने क्षत्रिय के दिए हुए पत्ते के छाते को लेकर अपनी व्याकुलता दूर की। उनकी इन्द्रियों में कुछ शक्ति आई और वे धीरे-धीरे किसी गाँव में पहुँच गए। उस पुण्य के प्रभाव से हेमकान्त की तीन सौ ब्रह्महत्याएँ नष्ट हो गईं। इसी समय यमराज के दूत हेमकान्त को लेने के लिए वन में आए। उन्होंने उसके प्राण लेने के लिए संग्रहणी रोग पैदा किया। उस समय प्राण छूटने की पीड़ा से छटपटाते हुए हेमकान्त ने तीन अत्यन्त भयंकर यमदूतों को देखा जिनके बाल ऊपर की ओर उठे हुए थे। उस समय अपने कर्मों को याद करके वह चुप हो गया। छत्र-दान के प्रभाव से उसको विष्णु भगवान का स्मरण हुआ।
उसके स्मरण करने पर महाविष्णु ने विष्वक् सेन से कहा – “तुम शीघ्र जाओ, यमदूतों को रोकों, हेमकान्त की रक्षा करो। अब यह निष्पाप और मेरा भक्त हो गया है। उसे नगर में ले जाकर उसके पिता को सौंप दो। साथ ही मेरे कहने से कुशकेतु को यह समझाओ कि तुम्हारे पुत्र ने अपराधी होने पर भी वैशाख मास में छत्र-दान करके एक मुनि की रक्षा की है। अत: वह पाररहित हो गया है। इस पुण्य के प्रभाव से वह मन और इन्द्रियों को अपने वश में रखने वाला दीर्घायु, शूरता और उदारता आदि गुणों से युक्त तथा तुम्हारे समान गुणवान हो गया है। इसलिए अपने महाबली पुत्र को तुम राज्य का भार सँभालने के लिए नियुक्त करो। भगवान विष्णु ने तुम्हें ऎसी ही आज्ञा दी है। इस प्रकार राजा को आदेश देकर हेमकान्त को उनके अधीन करके यहाँ लौट आओ।”
भगवान विष्णु का यह आदेश पाकर महाबली विष्वक् सेन ने हेमकान्त के पास आकर यमदूतों को रोका और अपने कल्याणमय हाथों से उसके सब अंगों में स्पर्श किया। भगवद्भक्त के स्पर्श से हेमकान्त की सारी व्याधि क्षण भर में दूर हो गई। तदनन्तर विष्वक् सेन उसके साथ राजा की पुरी में गए। उन्हें देखकर महाराज कुशकेतु ने आश्चर्ययुक्त हो भक्तिपूर्वक मस्तक झुकाकर पृथ्वी पर साष्टांग प्रणाम किया और भगवान के पार्षद का अपने घर में प्रवेश कराया। वहाँ नाना प्रकार के स्तोत्रों से उनकी स्तुति तथा वैभवों से उनका पूजन किया। तत्पश्चात महाबली विष्वक् सेन ने अत्यन्त प्रसन्न होकर राजा को हेमकान्त के विषय में भगवान विष्णु ने जो संदेश दिया था, वह सब कह सुनाया। उसे सुनकर कुशकेतु ने पुत्र को राज्य पर बिठा दिया और स्वयं विष्वक् सेन की आज्ञा लेकर पत्नी सहित वन को प्रस्थान किया।
तदनन्तर महामना विष्वक् सेन हेमकान्त से पूछकर और उसकी प्रशंसा करके श्वेतद्वीप में भगवान विष्णु के समीप चले गए तब से राजा हेमकान्त वैशाख मास में बताए हुए भगवान की प्रसन्नता को बढ़ाने वाले शुभ धर्मों का प्रति वर्ष पालन करने लगे। वे ब्राह्मणभक्त, धर्मनिष्ठ, शान्त, जितेन्द्रिय, सब प्राणियों के प्रति दयालु और संपूर्ण यज्ञों की दीक्षा में स्थित रहकर सब प्रकार की संपदाओं से संपन्न हो गए। उन्होंने पुत्र-पौत्र आदि के साथ समस्त भोगों का उपभोग करके भगवान विष्णु का लोक प्राप्त किया। वैशाख मास सुख से साध्य, अतिशय पुण्य प्रदान करने वाला है। पापरूपी ईंधन को अग्नि की भाँति जलाने वाला, परम सुलभ तथा धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष – चारों पुरुषार्थों को देने वाला है।
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शनिवार, 16 अप्रैल 2022

जाती का प्रमाणपत्र हटाके,भारतीय का प्रमाणपत्र होना चाहिए सब जगह।

*जातिवाद सत्य है, या एक कल्पना ?*

क्या भारत में जातिवाद है ?

*या बेवकूफ बनाया जा रहा है 70 साल से ?* 🤣
कहां है जातिवाद ?
स्कूल में है ? *नहीं है।*
कॉलेज में है ? *नहीं है।*
ट्यूशन में है ? *नहीं है।*
हॉस्पिटल में है ? *नहीं है।*
प्राइवेट जोब में है ? *नहीं है।*
मोबाईल खरीदने में है ? *नहीं है।*
सिमकार्ड खरीदने में है ? *नहीं है।*
ऐमज़ॉन, फ्लिपकार्ट पे है ? *नहीं है।*
बैंक में है ? *नहीं है।*
किसी भी बिसिनेस में है ? *नहीं है।*
राशन की दुकान में है ? *नहीं है।*
मॉल में है ? *नहीं है।*
मूवी थिअटर में है ? *नहीं है।*
रेस्टोरेंट में है ? *नहीं है।*
होटल्स में है ? *नहीं है।*
बस, ट्रैन, प्लैन में है ? *नहीं है।*
स्कूटर लेने जाओगे वहाँ है ? *नहीं है।*
श्मशान में है ? *नहीं है।*
संजय मंडी में पूछते हो ? *नहीं है।*
पार्टी में पूछते हो ? *नहीं।*
त्योहार मनाते वक़्त पूछते हो ? *नहीं।*

*तो कहाँ है ये जातिवाद ??????*
सरकारी नोकरियों में ? हाँ 🤓 है।
सरकारी पढ़ाई ? हाँ 😝 है।
सरकारी लाभ में ? हाँ है 😍 आरक्षण

अगर वो ख़ुदको हरिजन कहे, तो उसे नॉकरी मिले।
आप उसे हरिजन कहो, तो आपको सज़ा मिलेगी।
*ये है वास्तविक जातिवाद*

अब समझे ! जातिवाद कहाँ है ?! 😆🙏

*चुनोती है, चार सवर्ण का नाम बता देना,*
जिन्होंने दलितों का शोषण किया हो जाती के नाम पे ?
*रामायण* लिखने वाले वाल्मिकी दलित थे,
*महाभारत* लिखने वाले वेद व्यास दलित थे,
*शबरी* के जूठे बेर खाये थे श्री राम ने,
*सुदामा* सबसे प्रिय मित्र थे कृष्ण के,
विश्व के सबसे बडे मंदिर *तिरुपति में दलित पुजारी* है,
पटना, *हनुमान मंदिर में है दलित पुजारी,*
तिरुवनंतपुरम के *त्रावणकोर मंदिर में दलित पुजारी* है,
*के आर नारायण, दलित राष्ट्रपति* रह चुके है,

और तुम लोग जातिवाद की बकवास चला रहे हो 70 साल से 😠
*बेवकूफ बना रहे हो 70 साल से एक ही गाना गा के ! 😠*

आरक्षण की तारीफ करने वालों से सिर्फ एक सवाल
*क्या किया, 70 साल आरक्षण लेकर ?*

70 सालों में बने सिर्फ 70 डॉक्टर बताओ जिन्होंने *70 नई दवाई* ढूंढकर विश्व में भारत का नाम रोशन किया हो।

70 सालों में आरक्षण से बने 70 इंजीनियर बताओ जिन्होंने *70 विश्वप्रसिद्ध इमारतें* बनाके विश्व में भारत को गर्व दिलाया हो।

70 सालों में आरक्षण से बने 70 टेक्नोलॉजी के एक्सपर्ट बताओ, जिन्होंने *70 टेक्नोलॉजी* बनाई हो !

70 सालों में आरक्षण से बने 70 अर्थशास्त्री के नाम बताओ जिन्होंने *भारत की अर्थव्यवस्था* सुधारी हो।

70 साल में आरक्षण से बने वैपन्स के एक्सपर्ट बतादो, जिन्होंने वैसे *70 हाईटेक हथियार* बनाके देश की आर्मी में मदद की हो!

70 सालों में आरक्षण से बने *70 CEO* बताओ जिन्होंने विश्व में भारत को सम्मान दिलाया हो।

70 नहीं मिल रहे ?
चलो सबके *7-7 नाम ही तो बता दो !* 😆

कहाँ से मिलेंगे 🤣 सोचो 50% पढ़ाई से आरक्षण के ज़रिए पढ़ा हुआ, क्या नाम रोशन करेगा देश का ? कैसे टिकेगा वो दुनिया के 95% टेलेंटेड लोगों के सामने ?!

*आरक्षण सिर्फ देश का क्षत्रु है।* और कुछ नहीं।
इस से हमारा देश, दुनिया के सामने घुटने टेक रहा है क्योंकि, हम 50% वाले को डॉक्टर बनाते है, जबकि विश्व 95% वालों को हमारे 50% ज्ञानी के सामने खड़ी करती है।

जाती का प्रमाणपत्र हटाके,
भारतीय का प्रमाणपत्र होना चाहिए सब जगह।

*आरक्षण हटाओ = देश बचाओ।*
#आरक्षण
#सिस्टम_सुधारो
#देश_बचाओ
*#जयहिंद*🚩

श्री हनुमान जन्मोत्सव

16 अप्रैल को हनुमान जन्मोत्सव का त्यौहार पूरे देश में मनाया जाएगा. भगवान हनुमान को शिव का 11वां रूद्र अवतार माना जाता है. हनुमान की कथाओं और मान्यताओं से पूरा देश भरा पड़ा है.



हनुमान जन्मोत्सव
दो बार क्यों मनाई जाती है?


ज्योतिष विशेषज्ञों की मानें तो हनुमान जी के जन्म की एक तिथि को उनके जन्मोत्सव के रूप में तो दूसरी को विजय अभिनन्दन महोत्सव के रूप में मनाया जाता है.एक बार यह कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को मनाया जाता है. बाल्मिकी रामायण के अनुसार इस तिथि को मंगलवार के दिन स्वाति नक्षत्र और मेष लग्न में हनुमान जी का जन्म हुआ था. इसी तिथि को हनुमान जन्मोत्सव के रूप में भी मनाया जाता है. वहीं चैत मास की पूर्णिमा तिथि को हनुमान जन्मोत्सव मनाने के पीछे की भी एक कथा है.

हनुमान की कथाओं और मान्यताओं से पूरा देश भरा पड़ा है. चाहे बात गुजरात की हो या हरियाणा की झारखंड की हो या कर्नाटक की हर जगह हनुमान के जन्म के साक्ष्य मिलते हैं और इन जगहों का जिक्र अलग-अलग ग्रंथों में भी मिलता है.

जन्मोत्सव, जयंती और जन्मदिन में अंतर –

जयंती कब मनाते हैं – जन्मोत्सव का अर्थ

जयंती और जन्मदिन में अंतर (जयंती और जन्मोत्सव का अर्थ)

जन्मदिन: जब किसी का जन्म होता है तो उस दिन को हम साधारण भाषा में जन्मदिन कहते है। किन्तु जन्मदिन उन लोगो का ही मनाया जाता है जो हमारे बिच मौजूद है यानी इस धरती पर जीवित है।

जयंती: यह भी जन्मदिन के रूप में ही मनाया जाता है किन्तु जन्मदिन और जयंती में बहुत अंतर है, जन्मदिन जीवित लोगों के लिए मनाया जाता है और जयंती उन लोगो के जन्मदिवस को कहते है जो आज हमारे बिच नहीं है, जिनकी मृत्यु हो चुकी है।

जन्मोत्सव: जन्मोत्सव भगवान या भगवान किसी अवतार के जन्मदिवस के रूप में मनाया जाता है। जन्मोत्सव शब्द का प्रयोग सामान्य मनुष्य के जन्मदिवस को व्यक्त करने के लिए नहीं किया जाता है यही केवल ईश्वर के अवतारों के जन्मदिवस को सम्बोधित करने लिए ही किया जाता है।

साल में दो बार मनाया जाता है हनुमान जन्मोत्सव

हनुमान जी का जन्मोत्सव साल में दो बार मनाया जाता है. एक बार यह कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को मनाया जाता है. बाल्मिकी रामायण के अनुसार इस तिथि को मंगलवार के दिन स्वाति नक्षत्र और मेष लग्न में हनुमान जी का जन्म हुआ था. इसी तिथि को हनुमान जन्मोत्सव के रूप में भी मनाया जाता है. वहीं चैत मास की पूर्णिमा तिथि को हनुमान जन्मोत्सव मनाने के पीछे की भी एक कथा है. इसके अनुसार बाल रूप हनुमान को एक बार तेज भूख लगी और सूरज को पका फल समझकर उन्होंने खाने की कोशिश की लेकिन उसी वक्त राहु सूर्य को ग्रास करने आया था. ऐसे में हनुमान के हाथ का स्पर्श उसे हो गया और वह डरकर भाग गया. इसके बाद राहु इंद्र के पास पहुंचा और उनसे शिकायत की और कहा कि एक और राहु ने सूर्य को ग्रास कर लिया है. देवराज इंद्र को यह सुनकर गुस्सा आया और उन्होंने अपने बज्र का जोरदार प्रहार हनुमान की ठोड़ी पर कर दिया. इसके बाद वह अचेत होकर गिर गए. इसके देखकर हनुमान के पिता पवन क्रोधित हो गए और उन्होंने वायु का प्रवाह रोक दिया. इससे जीव जंतू त्राहिमाम करने लगे. इसके बाद सभी भगवान ब्रह्मा के पास पहुंचे और उनसे विनती करने लगे. इसके बाद ब्रह्मा सभी को लेकर पवन देव के पास गए जहां पवन देव अपने पुत्र अचेत हनुमान को गोद में लेकर बैठे थे. इसके बाद सभी देवताओं ने हनुमान जी को जीवन दान दिया और उन्हें अपनी शक्तियां दी. जिस दिन यह सारा घटनाक्रम हुआ वह चैत मास के पूर्णिमा की तिथि थी. इस दिन हनुमान को दूसरा जन्म मिला था. ऐसे में इसे हनुमान जयंती के तौर पर मनाए जाने की शुरुआत हुआ. चूकि हनुमान को ठोढ़ी पर प्रहार किया गया था और ठोढ़ी को हनु कहा जाता है ऐसे में उन्हें 'हनुमान' कहा जाने लगा.

सप्तचिरंजिवी में से एक हैं हनुमान

सप्तचिरंजिवी उनको कहा गया है जिनके बारे में कहा जाता है कि वह हमेशा से पृथ्वी पर मौजूद रहेंगे, हनुमान को भी इसिलिए सप्तचिरंजिवी कहा जाता है. जो हर युग में पृथ्वी पर मौजूद रहे हैं. वह इस धरती के जीवित और जागृत देवता माने जाते हैं ऐसे में इसे हनुमान जन्मोत्सव कहा जाता है ना कि हनुमान जयंती. क्योंकि जयंती शब्द का इस्तेमाल उस व्यक्ति के संदर्भ मे किया जाता है जो अब इस दुनिया में नहीं है लेकिन हनुमान के बारे में कहा जाता है कि वह हर युग में सास्वत, सत्य और विराजमान हैं.

क्या है हनुमान जन्म की कथा

कहते हैं कि हनुमान की मां अंजनी पहले एक अप्सरा थी और उन्हें यह श्राप दिया गया था कि वह कभी किसी के प्रेम में नहीं पड़ सकती अगर उन्होंने ऐसा किया तो उनका मुंह वानर की तरह हो जाएगा. इससे घबराकर उन्होंने ब्रह्मा जी की विनती की और तब उन्हें पृथ्वी पर मानव रूप में पैदा होने का रास्ता सुझाया गया. इस उपाय से वह पृथ्वी पर पैदा हुईं और उनका विवाह वानर राज केसरी से हुआ. माता अंजनी शिव की बड़ी भक्त थी ऐसे में शिव ने उनकी कोख से उनके पुत्र के रूप में जन्म लिया. इसलिए हनुमान जी को शिव का 11वां रूद्र अवतार और केसरी वंदन भी कहा जाता है. पौराणिक कथाओं की मानें तो हनुमान जी के 6 भाई थे जिनमें वह सबसे बड़े थे.

ब्रह्मचारी हनुमान के भी थे पुत्र

आपको यह जानकर शायद हैरानी हो कि हनुमान जी तो ब्रह्मचारी थे फिर उनके पुत्र कैसे थे तो इसके पीछे भी एक कहानी है. लंकादहन के बाद जब हनुमान जी अपनी पूंछ की आग बुझाने के लिए समुद्र में गए थे तो अग्नि के ताप से तप रहे उनके शरीर से पसीने की एक बूंद पानी में गिर गई और यह एक मछली के पेट में चली गई इससे ही उनके पुत्र मकरध्वज का जन्म हुआ.

मित्रो! केवल मंगलवार को हनुमान जी की पूजा करने से नही बल्कि हनुमान जी के जीवन से ज्ञान लेकर हम अपने जीवन को मंगलमय बना सकते है।

सुंदर काण्ड में हनुमान जी जब सीताजी की खोज करने गये तब सुरसा सर्पणी,सिह्नका निस्चरी,लंकिनी निशाचरी सभी उनको खाने को दोड़े परन्तु हनुमान जी के दृढ़ संकल्प,बल,बुधि व् प्रभु किरपा के सहारे इन सभी राक्षसों ने भी हनुमान को कार्य सफल होने का आशीर्वाद दिया। इससे ज्ञान मिलता है की आप जब भी जीवन में धर्म,अर्थ,राजनीती या कोई भी काम करने लगते है तो पहले आपका हर द्रष्टिकोण से विरोध होगा परन्तु जब आपका संकल्प दृढ़ होगा तो यही विरोधी ही आपके सहयोगी तो बनेगे ही साथ यही आपकी उन्नति के कारण भी सिद्द होंगे।

हनुमान जी के जीवन से ज्ञान मिलता है सच्ची लगन,मजबूत इरादा हो तो फिर इस संसार का कोई कार्य मुश्किल नही है।

श्री हनुमान जन्मोत्सव के पावन अवसर पर सभी मित्रों को हार्दिक शुभकामनाएं

मनोजवं मारुततुल्यवेगम्
जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम्
वातात्मजं वानरयूथमुख्यम्
श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये

जय जय हनुमंता, जय जय बजरंगबली

हे मारूतिनंदन, हे बजरंगबली प्रभौ हम सब पर और हमारे देश पर अपनी असीम कृपा बरसाओ ,सुख समृद्धि, सुरक्षा तथा शांति से भरपूर रखो इस जम्बूद्वीप, आर्यावर्त, भारत देश को...यही कामनाएँ हैं।

मंगलकामनाएँ मित्रों,

"हनुमान जन्मोत्सव की शुभकामनाये"

मित्रो! केवल मंगलवार को हनुमान जी की पूजा करने से नही बल्कि हनुमान जी के जीवन से ज्ञान लेकर हम अपने जीवन को मंगलमय बना सकते है।

सुंदर काण्ड में हनुमान जी जब सीताजी की खोज करने गये तब सुरसा सर्पणी,सिह्नका निस्चरी,लंकिनी निशाचरी सभी उनको खाने को दोड़े परन्तु हनुमान जी के दृढ़ संकल्प,बल,बुधि व् प्रभु किरपा के सहारे इन सभी राक्षसों ने भी हनुमान को कार्य सफल होने का आशीर्वाद दिया। इससे ज्ञान मिलता है की आप जब भी जीवन में धर्म,अर्थ,राजनीती या कोई भी काम करने लगते है तो पहले आपका हर द्रष्टिकोण से विरोध होगा परन्तु जब आपका संकल्प दृढ़ होगा तो यही विरोधी ही आपके सहयोगी तो बनेगे ही साथ यही आपकी उन्नति के कारण भी सिद्द होंगे।

हनुमान जी के जीवन से ज्ञान मिलता है सच्ची लगन,मजबूत इरादा हो तो फिर इस संसार का कोई कार्य मुश्किल नही है।

श्री हनुमान जन्मोत्सव की शुभकामनाये"

श्रीहनुमान जन्मोत्सव 16 अप्रैल विशेष

 श्रीहनुमान जन्मोत्सव 16 अप्रैल विशेष



पवन पुत्र हनुमान के जन्म की कहानी
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ज्योतिषीयों के सटीक गणना के अनुसार हनुमान जी का जन्म 1 करोड़ 85 लाख 58 हजार 114 वर्ष पहले चैत्र पूर्णिमा को मंगलवार के दिन चित्र नक्षत्र व मेष लग्न के योग में सुबह 06:03 बजे हुआ था।

वाल्मीकि रचित रामायण (मतान्तर से) के अनुसार कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि (छोटी दीपावली) मंगलवार के दिन हनुमान का जन्म हुआ था।

हनुमान जयंती वर्ष में दो बार मनाई जाती है। पहली हिन्‍दू कैलेंडर के अनुसार चैत्र शुक्‍ल पूर्णिमा को अर्थात ग्रेगोरियन कैलेंडर के मुताबिक मार्च या अप्रैल के बीच और दूसरी कार्तिक कृष्‍ण चतुर्दशी अर्थात नरक चतुर्दशी को अर्थात सितंबर-अक्टूबर के बीच। इसके अलावा तमिलनाडु और केरल में हनुमान जयंती मार्गशीर्ष माह की अमावस्या को तथा उड़ीसा में वैशाख महीने के पहले दिन मनाई जाती है। आखिर सही क्या है?
 
चैत्र पूर्णिमा को मेष लग्न और चित्रा नक्षत्र में प्रातः 6:03 बजे हनुमानजी का जन्म एक गुफा में हुआ था। मतलब यह कि चैत्र माह में उनका जन्म हुआ था। फिर चतुर्दर्शी क्यों मनाते हैं? वाल्मिकी रचित रामायण के अनुसार हनुमानजी का जन्म कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को मंगलवार के दिन, स्वाति नक्षत्र और मेष लग्न में हुआ था।
 
हनुमान जी जन्म को लेकर मतभेद
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एक तिथि को विजय अभिनन्दन महोत्सव के रूप में जबकि दूसरी तिथि को जन्मदिवस के रूप में मनाया जाता है। पहली तिथि के अनुसार इस दिन हनुमानजी सूर्य को फल समझ कर खाने के लिए दौड़े थे, उसी दिन राहु भी सूर्य को अपना ग्रास बनाने के लिए आया हुआ था लेकिन हनुमानजी को देखकर सूर्यदेव ने उन्हें दूसरा राहु समझ लिया। इस दिन चैत्र माह की पूर्णिमा थी जबकि कार्तिक कृष्‍ण चतुर्दशी को उनका जन्म हुआ हुआ था। एक अन्य मान्यता के अनुसार माता सीता ने हनुमानजी की भक्ति और समर्पण को देखकर उनको अमरता का वरदान दिया था। यह दिन नरक चतुर्दशी का दिन था। हालांकि वाल्मिकीजी ने जो लिखा है उसे सही माना जा सकता है।

हनुमान जी की माता अंजनि के पूर्व जन्म की कहानी
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कहते हैं कि माता अंजनि पूर्व जन्म में देवराज इंद्र के दरबार में अप्सरा पुंजिकस्थला थीं। ‘बालपन में वो अत्यंत सुंदर और स्वभाव से चंचल थी एक बार अपनी चंचलता में ही उन्होंने तपस्या करते एक तेजस्वी ऋषि के साथ अभद्रता कर दी थी।

गुस्से में आकर ऋषि ने पुंजिकस्थला को श्राप दे दिया कि जा तू वानर की तरह स्वभाव वाली वानरी बन जा, ऋषि के श्राप को सुनकर पुंजिकस्थला ऋषि से क्षमा याचना मांगने लगी, तब ऋषि ने कहा कि तुम्हारा वह रूप भी परम तेजस्वी होगा।

तुमसे एक ऐसे पुत्र का जन्म होगा जिसकी कीर्ति और यश से तुम्हारा नाम युगों-युगों तक अमर हो जाएगा, अंजनि को वीर पुत्र का आशीर्वाद मिला।

श्री हनुमानजी की बाल्यावस्था
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ऋषि के श्राप से त्रेता युग मे अंजना मे नारी वानर के रूप मे धरती पे जन्म लेना पडा इंद्र जिनके हाथ में पृथ्वी के सृजन की कमान है, स्वर्ग में स्थित इंद्र के दरबार (महल) में हजारों अप्सरा (सेविकाएं) थीं, जिनमें से एक थीं अंजना (अप्सरा पुंजिकस्थला) अंजना की सेवा से प्रसन्न होकर इंद्र ने उन्हें मनचाहा वरदान मांगने को कहा, अंजना ने हिचकिचाते हुए उनसे कहा कि उन पर एक तपस्वी साधु का श्राप है, अगर हो सके तो उन्हें उससे मुक्ति दिलवा दें। इंद्र ने उनसे कहा कि वह उस श्राप के बारे में बताएं, क्या पता वह उस श्राप से उन्हें मुक्ति दिलवा दें।  

अंजना ने उन्हें अपनी कहानी सुनानी शुरू की, अंजना ने कहा ‘बालपन में जब मैं खेल रही थी तो मैंने एक वानर को तपस्या करते देखा, मेरे लिए यह एक बड़ी आश्चर्य वाली घटना थी, इसलिए मैंने उस तपस्वी वानर पर फल फेंकने शुरू कर दिए, बस यही मेरी गलती थी क्योंकि वह कोई आम वानर नहीं बल्कि एक तपस्वी साधु थे।    

मैंने उनकी तपस्या भंग कर दी और क्रोधित होकर उन्होंने मुझे श्राप दे दिया कि जब भी मुझे किसी से प्रेम होगा तो मैं वानर बन जाऊंगी। मेरे बहुत गिड़गिड़ाने और माफी मांगने पर उस साधु ने कहा कि मेरा चेहरा वानर होने के बावजूद उस व्यक्ति का प्रेम मेरी तरफ कम नहीं होगा’। अपनी कहानी सुनाने के बाद अंजना ने कहा कि अगर इंद्र देव उन्हें इस श्राप से मुक्ति दिलवा सकें तो वह उनकी बहुत आभारी होंगी। इंद्र देव ने उन्हें कहा कि इस श्राप से मुक्ति पाने के लिए अंजना को धरती पर जाकर वास करना होगा, जहां वह अपने पति से मिलेंगी। शिव के अवतार को जन्म देने के बाद अंजना को इस श्राप से मुक्ति मिल जाएगी।

इंद्र की बात मानकर अंजना धरती पर आईं और केसरी से विवाह - इंद्र की बात मानकर अंजना धरती पर चली आईं, एक शाप के कारण उन्हें नारी वानर के रूप मे धरती पे जन्म लेना पडा। उस शाप का प्रभाव शिव के अन्श को जन्म देने के बाद ही समाप्त होना था। और एक शिकारन के तौर पर जीवन यापन करने लगीं। जंगल में उन्होंने एक बड़े बलशाली युवक को शेर से लड़ते देखा और उसके प्रति आकर्षित होने लगीं, जैसे ही उस व्यक्ति की नजरें अंजना पर पड़ीं, अंजना का चेहरा वानर जैसा हो गया। अंजना जोर-जोर से रोने लगीं, जब वह युवक उनके पास आया और उनकी पीड़ा का कारण पूछा तो अंजना ने अपना चेहरा छिपाते हुए उसे बताया कि वह बदसूरत हो गई हैं। अंजना ने उस बलशाली युवक को दूर से देखा था लेकिन जब उसने उस व्यक्ति को अपने समीप देखा तो पाया कि उसका चेहरा भी वानर जैसा था।

अपना परिचय बताते हुए उस व्यक्ति ने कहा कि वह कोई और नहीं वानर राज केसरी हैं जो जब चाहें इंसानी रूप में आ सकते हैं। अंजना का वानर जैसा चेहरा उन दोनों को प्रेम करने से नहीं रोक सका और जंगल में केसरी और अंजना ने विवाह कर लिया।

केसरी एक शक्तिशाली वानर थे जिन्होने एक बार एक भयंकर हाथी को मारा था। उस हाथी ने कई बार असहाय साधु-संतों को विभिन्न प्रकार से कष्ट पँहुचाया था। तभी से उनका नाम केसरी पड गया, "केसरी" का अर्थ होता है सिंह। उन्हे "कुंजर सुदान"(हाथी को मारने वाला) के नाम से भी जाना जाता है।

पंपा सरोवर
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अंजना और मतंग ऋषि - पुराणों में कथा है कि केसरी और अंजना ने विवाह कर लिया पर संतान सुख से वंचित थे । अंजना अपनी इस पीड़ा को लेकर मतंग ऋषि के पास गईं, तब मंतग ऋषि ने उनसे कहा-पप्पा (कई लोग इसे पंपा सरोवर भी कहते हैं) सरोवर के पूर्व में नरसिंह आश्रम है, उसकी दक्षिण दिशा में नारायण पर्वत पर स्वामी तीर्थ है वहाँ जाकर उसमें स्नान करके, बारह वर्ष तक तप एवं उपवास करने पर तुम्हें पुत्र सुख की प्राप्ति होगी।

अंजना को पवन देव का वरदान
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मतंग रामायण कालीन एक ऋषि थे, जो शबरी के गुरु थे। अंजना ने मतंग ऋषि एवं अपने पति केसरी से आज्ञा लेकर तप किया था बारह वर्ष तक केवल वायु पर ही जीवित रही, एक बार अंजना ने “शुचिस्नान” करके सुंदर वस्त्राभूषण धारण किए। तब वायु देवता ने अंजना की तपस्या से प्रसन्न होकर उस समय पवन देव ने उसके कर्णरन्ध्र में प्रवेश कर उसे वरदान दिया, कि तेरे यहां सूर्य, अग्नि एवं सुवर्ण के समान तेजस्वी, वेद-वेदांगों का मर्मज्ञ, विश्वन्द्य महाबली पुत्र होगा।

अंजना को भगवान शिव का वरदान
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अंजना ने मतंग ऋषि एवं अपने पति केसरी से आज्ञा लेकर नारायण पर्वत पर स्वामी तीर्थ के पास, अपने आराध्य शिव की तपस्या में मग्न थीं । शिव की आराधना कर रही थीं तपस्या से प्रसन्न होकर शिव ने उन्हें वरदान मांगने को कहा, अंजना ने शिव को कहा कि साधु के श्राप से मुक्ति पाने के लिए उन्हें शिव के अवतार को जन्म देना है, इसलिए शिव बालक के रूप में उनकी कोख से जन्म लें।
 
(कर्नाटक राज्य के दो जिले कोप्पल और बेल्लारी में रामायण काल का प्रसिद्ध किष्किंधा)

‘तथास्तु’ कहकर शिव अंतर्ध्यान हो गए। इस घटना के बाद एक दिन अंजना शिव की आराधना कर रही थीं और दूसरी तरफ अयोध्या में, इक्ष्वाकु वंशी महाराज अज के पुत्र और अयोध्या के महाराज दशरथ, अपनी तीन रानियों के कौशल्या, सुमित्रा और कैकेयी साथ पुत्र रत्न की प्राप्ति के लिए, श्रृंगी ऋषि को बुलाकर 'पुत्र कामेष्टि यज्ञ' के साथ यज्ञ कर रहे थे।
यज्ञ की पूर्णाहुति पर स्वयं अग्नि देव ने प्रकट होकर श्रृंगी को खीर का एक स्वर्ण पात्र (कटोरी) दिया और कहा "ऋषिवर! यह खीर राजा की तीनों रानियों को खिला दो। राजा की इच्छा अवश्य पूर्ण होगी।" जिसे तीनों रानियों को खिलाना था लेकिन इस दौरान एक चमत्कारिक घटना हुई, एक पक्षी उस खीर की कटोरी में थोड़ा सा खीर अपने पंजों में फंसाकर ले गया और तपस्या में लीन अंजना के हाथ में गिरा दिया। अंजना ने शिव का प्रसाद समझकर उसे ग्रहण कर लिया।

हनुमान जी का जन्म त्रेता युग मे अंजना के पुत्र के रूप मे, चैत्र शुक्ल की पूर्णिमा की महानिशा में हुआ।

अन्य कथा अनुसार हनुमान अवतार
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सामान्यत: लंकादहन के संबंध में यही माना जाता है कि  सीता की खोज करते हुए लंका पहुंचे और रावण के पुत्र सहित अनेक राक्षसों का अंत कर दिया। तब रावण के पुत्र मेघनाद ने श्री हनुमान को ब्रह्मास्त्र छोड़कर काबू किया और रावण ने श्री हनुमान की पूंछ में आग लगाने का दण्ड दिया। तब उसी जलती पूंछ से श्री हनुमान ने लंका में आग लगा रावण का दंभ चूर किया। किंतु पुराणों में लंकादहन के पीछे भी एक ओर रोचक कथा जुड़ी है, जिसके कारण श्री हनुमान ने पूंछ से लंका में आग लगाई।

श्री हनुमान शिव अवतार है। शिव से ही जुड़ा है यह रोचक प्रसंग। एक बार माता पार्वती की इच्छा पर शिव ने कुबेर से सोने का सुंदर महल का निर्माण करवाया। किंतु रावण इस महल की सुंदरता पर मोहित हो गया। वह ब्राह्मण का वेश रखकर शिव के पास गया। उसने महल में प्रवेश के लिए शिव-पार्वती से पूजा कराकर दक्षिणा के रूप में वह महल ही मांग लिया। भक्त को पहचान शिव ने प्रसन्न होकर वह महल दान दे दिया।

दान में महल प्राप्त करने के बाद रावण के मन में विचार आया कि यह महल असल में माता पार्वती के कहने पर बनाया गया। इसलिए उनकी सहमति के बिना यह शुभ नहीं होगा। तब उसने शिवजी से माता पार्वती को भी मांग लिया और भोलेभंडारी शिव ने इसे भी स्वीकार कर लिया। जब रावण उस सोने के महल सहित मां पार्वती को ले जाना लगा। तब अचंभित और दुखी माता पार्वती ने विष्णु को स्मरण किया और उन्होंने आकर माता की रक्षा की।

जब माता पार्वती अप्रसन्न हो गई तो शिव ने अपनी गलती को मानते हुए मां पार्वती को वचन दिया कि त्रेतायुग में मैं वानर रूप हनुमान का अवतार लूंगा उस समय तुम मेरी पूंछ बन जाना। जब मैं माता सीता की खोज में इसी सोने के महल यानी लंका जाऊंगा तो तुम पूंछ के रूप में लंका को आग लगाकर रावण को दण्डित करना।

हनुमान जी की प्रसिद्धि कथा
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अंजना के पुत्र होने के कारण ही हनुमान
जी को अंजनेय नाम से भी जाना जाता है
जिसका अर्थ होता है 'अंजना द्वारा उत्पन्न'। माता श्री अंजनी और कपिराज
श्री केसरी हनुमानजी को अतिशय प्रेम करते थे।

श्री हनुमानजी को सुलाकर वो फल-फूल लेने गये थे इसी समय बाल हनुमान भूख एवं अपनी माता की अनुपस्थिति में भूख के कारण आक्रन्द करने लगे। इसी दौरान उनकी नजर क्षितिज पर पड़ी। सूर्योदय हो रहा था। बाल हनुमान को लगा की यह कोई लाल फल है। (तेज और पराक्रम के लिए कोई अवस्था नहीं होती)।
यहां पर तो श्री हनुमान जी के रुप में
माताश्री अंजनी के गर्भ से प्रत्यक्ष शिवशंकर अपने ग्यारहवें रुद्र में लीला कर रहे थे और श्री पवनदेव ने उनके उड़ने की शक्ति भी प्रदान की थी। जब शिशु हनुमान को भूख लगी तो वे उगते हुये सूर्य को फल समझकर उसे पकड़ने आकाश में उड़ने लगे। उस लाल फल को लेने के लिए हनुमानजी वायुवेग से आकाश में उड़ने लगे। उनको देखकर देव, दानव सभी विस्मयतापूर्वक कहने लगे कि बाल्यावस्था में एसे पराक्रम दिखाने वाला यौवनकाल में क्या नहीं करेगा। उधर भगवान सूर्य ने उन्हें अबोध शिशु समझकर अपने तेज से नहीं जलने दिया। जिस समय हनुमान सूर्य को पकड़ने के लिये लपके, उसी समय राहु
सूर्य पर ग्रहण लगाना चाहता था।हनुमानजी ने सूर्य के ऊपरी भाग में जब राहु का स्पर्श किया तो वह भयभीत होकर वहाँ से भाग गया। उसने इन्द्र के पास जाकर शिकायत की "देवराज! आपने मुझे अपनी क्षुधा शान्त करने के साधन के रूप में सूर्य और चन्द्र दिये थे। आज अमावस्या के दिन जब मैं सूर्य को ग्रस्त करने गया तब देखा कि दूसरा राहु सूर्य को पकड़ने जा रहा है।"

राहु की बात सुनकर इन्द्र घबरा गये और उसे साथ लेकर सूर्य की ओर चल पड़े। राहु को देखकर हनुमानजी सूर्य को छोड़ राहु पर झपटे। राहु ने इन्द्र को रक्षा के लिये पुकारा तो उन्होंने हनुमानजी पर वज्रायुध से प्रहार किया जिससे वे एक पर्वत पर गिरे और उनकी बायीं ठुड्डी टूट गई। हनुमान की यह दशा देखकर वायुदेव
को क्रोध आया। उन्होंने उसी क्षण अपनी गति रोक दिया। इससे संसार की कोई
भी प्राणी साँस न ले सकी और सब पीड़ा से तड़पने लगे। तब सारे सुर, असुर, यक्ष, किन्नर आदि ब्रह्मा जी की शरण में गये। ब्रह्मा उन सबको लेकर वायुदेव के पास गये। वे मूर्छत हनुमान को गोद में लिये उदास बैठे थे। जब ब्रह्माजी ने उन्हें सचेत किया तो वायुदेव ने अपनी गति का संचार करके सभी प्राणियों की पीड़ा दूर की।
तभी श्री ब्रह्माजी ने श्री हनुमानजी को वरदान दिया कि इस बालक को कभी ब्रह्मशाप नहीं लगेगा, कभी भी उनका एक भी अंग शस्तर नहीं होगा, ब्रह्माजीने अन्य देवताओं से भी कहा कि इस बालक को आप सभी वरदान दें तब देवराज इंन्द्रदेव ने हनुमानजी के गले में कमल की माला पहनाते हुए कहा की मेरे वज्रप्रहार के कारण इस बालक की हनु (दाढ़ी) टूट गई है इसीलिए इन कपिश्रेष्ठ का नाम आज से हनुमान रहेगा और मेरा वज्र भी इस बालक को नुकसान न पहुंचा सके ऐसा वज्र से कठोर होगा। श्री सूर्यदेव ने भी कहा कि इस बालक को में अपना तेज प्रदान करता हूं और मैं इसको शस्त्र-समर्थ मर्मज्ञ बनाता हुं ।

हनुमानजी के कुछ नाम एवं उनका अर्थ
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हनुमानजी को मारुति, बजरंगबली इत्यादि नामों से भी जानते हैं।  मरुत शब्द से ही मारुति शब्द की उत्पत्ति हुई है। महाभारत में हनुमानजी का उल्लेख मारुतात्मज के नाम से किया गया है। हनुमानजी का अन्य एक नाम है, बजरंगबली। बजरंगबली यह शब्द व्रजांगबली के अपभ्रंश से बना है। जिनमें वज्र के समान कठोर अस्त्र का सामना करनेकी शक्ति है, वे व्रजांगबली है। जिस प्रकार लक्ष्मण से लखन, कृष्ण से किशन ऐसे सरल नाम लोगों ने अपभ्रंश कर उपयोगमें लाए, उसी प्रकार व्रजांगबली का अपभ्रंश बजरंगबली हो गया।

हनुमानजी की विशेषताएं
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अनेक संतों ने समाज में हनुमानजी की उपासना को प्रचलित किया है। ऐसे हनुमान जी के संदर्भ में समर्थ रामदास स्वामी कहते हैं, ‘हनुमानजी हमारे देवता हैं ।’ हनुमानजी शक्ति, युक्ति एवं भक्ति का प्रतीक हैं। इसलिए समर्थ रामदासस् वामी ने हनुमानजी की उपासना की प्रथा आरंभ की। महाराष्ट्र में उनके द्वारा स्थापित ग्यारह मारुति प्रसिद्ध हैं। साथ ही संत तुलसीदास ने उत्तर भारत में मारुति के अनेक मंदिर स्थापित किए तथा उनकी उपासना दृढ की। दक्षिण भारत में मध्वाचार्य को मारुति का अवतार माना जाता है। इनके साथ ही अन्य कई संतों ने अपनी विविध रचनाओं द्वारा समाज के समक्ष मारुति का आदर्श रखा है।

1.  शक्तिमानता
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हनुमानजी सर्वशक्तिमान देवता हैं। जन्म लेते ही हनुमानजी ने सूर्यको निगलनेके लिए उडान भरी। इससे यह स्पष्ट होता है कि, वायुपुत्र अर्थात वायुतत्त्वसे उत्पन्न हनुमानजी, सूर्यपर अर्थात तेजतत्त्वपर विजय प्राप्त करनेमें सक्षम थे। पृथ्वी, आप, तेज, वायु एवं आकाश तत्त्वोंमेंसे तेजतत्त्वकी तुलनामें वायुतत्त्व अधिक सूक्ष्म है अर्थात अधिक शक्तिमान है। सर्व देवताओंमें केवल हनुमानजीको ही अनिष्ट शक्तियां कष्ट नहीं दे सकतीं। लंकामें लाखों राक्षस थे, तब भी वे हनुमानजीका कुछ नहीं बिगाड पाएं। इससे हम हनुमानजीकी शक्तिका अनुमान लगा सकते हैं।

1. भूतों के स्वामी
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हनुमानजी भूतों के स्वामी माने जाते हैं। किसी को भूत बाधा हो, तो उस व्यक्ति को हनुमानजी के मंदिर ले जाते हैं। साथ ही हनुमानजी से संबंधित स्तोत्र जैसे हनुमत्कवच, भीमरूपी स्तोत्र अथवा हनुमानचालीसा का पाठ करनेके लिए कहते हैं ।

2. भक्ति
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साधना में जिज्ञासु, मुमुक्षु, साधक, शिष्य एवं भक्त ऐसे उन्नति के चरण होते हैं। इसमें भक्त यह अंतिम चरण है। भक्त अर्थात वह जो भगवानसे विभक्त नहीं है। हनुमानजी भगवान श्रीराम से पूर्णतया एकरूप हैं। जब भी नवविधा भक्ति में से दास्य भक्ति का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण देना होता है, तब हनुमानजी का उदाहरण दिया जाता है। वे अपने प्रभु राम के लिए प्राण अर्पण करने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं । प्रभु श्रीराम की सेवा की तुलना में उन्हें सब कुछ कौडी के मोल लगता है। हनुमान सेवक एवं सैनिक का एक सुंदर सम्मिश्रण हैं। स्वयं सर्वशक्तिमान होते हुए भी वे, अपने-आपको श्रीरामजीका दास कहलवाते थ। उनकी भावना थी कि उनकी शक्ति भी श्रीरामजी की ही शक्ति है। मान अर्थात शक्ति एवं भक्तिका संगम।

3.  मनोविज्ञान में निपुण एवं राजनीति में कुशल
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अनेक प्रसंगों में सुग्रीव इत्यादि वानर ही नहीं, वरन् राम भी हनुमानजी से परामर्श करते थे। लंका में प्रथम ही भेंट में हनुमानजी ने सीता के मन में अपने प्रति विश्वास निर्माण किया। इन प्रसंगों से हनुमानजी की बुद्धिमानता एवं मनोविज्ञान में निपुणता स्पष्ट होती है। लंकादहन कर हनुमानजी ने रावण की प्रजा में रावणके सामर्थ्य के प्रति अविश्वास उत्पन्न किया। इस बातसे उनकी राजनीति-कुशलता स्पष्ट होती है।

4.  जितेंद्रिय
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 सीता को ढूंढने जब हनुमानजी रावण के अंतःपुर में गए, तो उस समय की उनकी मनः स्थिति थी, उनके उच्च चरित्र का सूचक है। इस संदर्भ में वे स्वयं कहते हैं,  ‘सर्व रावण पत्नियों को निःशंक लेटे हुए मैंने देखा; परंतु उन्हें देखने से मेरे मन में विकार उत्पन्न नहीं हुआ।’

वाल्मीकि रामायण, सुंदरकांड 11.42-43

इंद्रियजीत होने के कारण हनुमानजी रावणपुत्र इंद्रजीत को भी पराजित कर सके। तभी से इंद्रियों पर विजय पाने हेतु हनुमानजी की उपासना बतायी गई।

5. भक्तों की इच्छा पूर्ण करने वाले
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हनुमानजी को इच्छा पूर्ण करने वाले देवता मानते हैं, इसलिए व्रत रखने वाले अनेक स्त्री-पुरुष हनुमानजी की मूर्ति की श्रद्धापूर्वक निर्धारित परिक्रमा करते हैं। कई लोगों को आश्चर्य होता है कि, जब किसी कन्या का विवाह निश्चित न हो रहा हो, तो उसे ब्रह्मचारी हनुमानजी की उपासना करने के लिए कहा जाता है। वास्तव में अत्युच्च स्तर के देवताओं में ‘ब्रह्मचारी’ या ‘विवाहित’ जैसा कोई भेद नहीं होता। ऐसा अंतर मानव-निर्मित है। मनोविज्ञान के आधार पर कुछ लोगों की यह गलत धारणा होती है कि, सुंदर, बलवान पुरुष से विवाह की कामना से कन्याएं हनुमानजी की उपासना करती हैं। परंतु वास्तविक कारण कुछ इस प्रकार है। लगभग 30 प्रतिशत व्यक्तियों का विवाह भूतबाधा, जादू-टोना इत्यादि अनिष्ट शक्तियों के प्रभावके कारण नहीं हो पाता। हनुमानजी की उपासना करने से ये कष्ट दूर हो जाते हैं एवं उनका विवाह संभव हो जाता है।

6. हनुमान जन्मोत्सव कैसे मनाया जाता है ?
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 हनुमान जयंती का उत्सव संपूर्ण भारत में विविध स्थानों पर धूमधाम से मनाया जाता है। इस दिन प्रात: 4 बजे से ही भक्तजन स्नान कर हनुमान जी के देवालयों में दर्शन के लिए आने लगते हैं। प्रात: 5 बजे से देवालयों में पूजा विधि आरंभ होती हैं । हनुमानजी की मूर्ति को पंचामृत स्नान करवा कर उनका विधिवत पूजन किया जाता है।  सुबह ६ बजे तक अर्थात हनुमान जन्म के समय तक हनुमान जन्म की कथा, भजन, कीर्तन आदि का आयोजन किया जाता है। हनुमानजी की मूर्ति को हिंडोले में रख हिंडोला गीत गाया जाता है।  हनुमानजी की मूर्ति हाथ में लेकर देवालय की परिक्रमा करते हैं।  हनुमान जयंती के उपलक्ष्य में कुछ जगह यज्ञ का आयोजन भी करते हैं।  तत्पश्चात हनुमानजी की आरती उतारी जाती है।  आरती के उपरांत कुछ स्थानों पर सौंठ अर्थात सूखे अदरक का चूर्ण एवं पीसी हुई चीनी तथा सूखे नारियल का चूरा मिलाकर उस मिश्रणको या कुछ स्थानों पर छुहारा, बादाम, काजू, सूखा अंगूर एवं मिश्री, इस पंचखाद्य को प्रसाद के रूप में बांटते हैं । कुछ स्थानों पर पोहे तथा चने की भीगी हुई दाल में दही, शक्कर, मिर्ची के टुकडे, निम्ब का अचार मिलाकर गोपाल काला बनाकर प्रसाद के रूप में बाटते है। कुछ जगह महाप्रसाद का आयोजन किया जाता है।

संकलन

हनुमानजी के देशभर में हजारों मंदिर है उनमें से सैंकड़ों सिद्ध मंदिर है।

 
हनुमानजी के देशभर में हजारों मंदिर है उनमें से सैंकड़ों सिद्ध मंदिर है। उनमें से भी 10 मंदिरों का चयन करना बहुत ही मुश्‍किल है। फिर भी बहुत ही खास 10 मंदिरों के बारे में यहां लिखा है


1. बालाजी हनुमान मंदिर मेहंदीपुर (राजस्थान) : राजस्थान के दौसा जिले के पास दो पहाड़ियों के बीच बसा हुआ घाटा मेहंदीपुर नामक स्थान है, जहां पर बहुत बड़ी चट्टान में हनुमानजी की आकृति स्वत: ही उभर आई है जिसे श्रीबालाजी महाराज कहते हैं। इसे हनुमानजी का बाल स्वरूप माना जाता है। इनके चरणों में छोटी-सी कुंडी है जिसका जल कभी समाप्त नहीं होता। यहां के हनुमानजी का विग्रह काफी शक्तिशाली एवं चमत्कारिक माना जाता है तथा इसी वजह से यह स्थान न केवल राजस्थान में बल्कि पूरे देश में विख्यात है। यहां हनुमानजी के साथ ही शिवजी और भैरवजी की भी पूजा की जाती है।

2. जगन्नाथ का मंदिर : जगन्नाथपुरी में ही सागर तट पर बेदी हनुमान का प्राचीन एवं प्रसिद्ध मंदिर है। कहावत है कि महाप्रभु जगन्नाथ में वीर मारुति को यहां समुद्र को नियंत्रित करने हेतु नियुक्त किया था, परंतु जब-तब हनुमान भी जगन्नाथ-बलभद्र एवं सुभद्रा के दर्शनों का लोभ संवरण नहीं कर पाते थे, सम्प्रति समुद्र भी उनके पीछे नगर में प्रवेश कर जाता। केसरीनंदन की इस आदत से परेशान हो जगन्नाथ महाप्रभु ने हनुमान को यहां स्वर्ण बेड़ी से आबद्ध कर दिया।

3.श्रीपंचमुख आंजनेय स्वामीजी : तमिलनाडु के कुंभकोणम नामक स्थान पर श्रीपंचमुखी आंजनेयर स्वामीजी (श्रीहनुमानजी) का बहुत ही मनभावन मठ है। यहां पर श्रीहनुमानजी का पंचमुख रूप में विग्रह स्थापित है, जो अत्यंत भव्य एवं दर्शनीय है। यहां पर प्रचलित कथाओं के अनुसार जब अहिरावण तथा उसके भाई महिरावण ने श्रीरामजी को लक्ष्मण सहित अगवा कर लिया था, तब प्रभु श्रीराम को ढूंढने के लिए हनुमानजी ने पंचमुख रूप धारण कर इसी स्थान से अपनी खोज प्रारंभ की थी और फिर इसी रूप में उन्होंने उन अहिरावण और महिरावण का वध भी किया था। यहां पर हनुमानजी के पंचमुख रूप के दर्शन करने से मनुष्य सारे दुखों, संकटों एवं बंधनों से मुक्त हो जाता है। बाद में हनुमानजी गुजरात के समुद्री तट पर स्थित बेट द्वारका से पाताललोक गए थे। वहीं बेट द्वारका से 4 मील की दूरी पर मकरध्वज के साथ में हनुमानजी की मूर्ति स्थापित है। कहते हैं कि पहले मकरध्वज की मूर्ति छोटी थी, परंतु अब दोनों मूर्तियां एक-सी ऊंची हो गई है। अहिरावण ने भगवान श्रीराम-लक्ष्मण को इसी स्थान पर छिपाकर रखा था। जब हनुमानजी श्रीराम-लक्ष्मण को लेने के लिए आए, तब उनका मकरध्वज के साथ घोर युद्ध हुआ। अंत में हनुमानजी ने उसे परास्त कर उसी की पूंछ से उसे बांध दिया। उनकी स्मृति में यह मूर्ति स्थापित है। मकरध्वज हनुमानजी का पुत्र था।

4. हनुमानगढ़ी : अयोध्या में स्थित यह सबसे प्राचीन मंदिर माना जाता है। यह मंदिर अयोध्या में सरयू नदी के दाहिने तट पर एक ऊंचे टीले पर स्थित है। यहां तक पहुंचने के लिए 76 सीढ़ियां चढ़नी होती हैं। यहां पर स्थापित हनुमानजी की प्रतिमा केवल छः (6) इंच लंबी है, जो हमेशा फूल-मालाओं से सुशोभित रहती है।इस मंदिर के जीर्णोद्धार के पीछे एक कहानी है। सुल्तान मंसूर अली लखनऊ और फैजाबाद का प्रशासक था। तब एक बार सुल्तान का एकमात्र पुत्र बीमार पड़ा। वैद्य और डॉक्टरों ने जब हाथ टेक दिए, तब सुल्तान ने थक-हारकर आंजनेय के चरणों में अपना माथा रख दिया। लेकिन मुसलमान होने के नाते किसी मूर्ति के समक्ष झुकने से उसे ग्लानि हो रही थी। लेकिन मन में श्रद्धा थी और उसने सोचा कि खुदा और ईश्वर में कोई फर्क नहीं। उसने हनुमान से विनती की और तभी चमत्कार हुआ कि उसका पुत्र पूर्ण स्वस्थ हो गया। उसकी धड़कनें फिर से सामान्य हो गईं। तब सुल्तान से खुश होकर अपनी आस्था और श्रद्धा को मूर्तरूप दिया- हनुमानगढ और इमली वन के माध्यम से। उसने इस जीर्ण-शीर्ण मंदिर को विराट रूप दिया और 52 बीघा भूमि हनुमानगढ़ी और इमली वन के लिए उपलब्ध करवाई। संत अभयारामदास के सहयोग और निर्देशन में यह विशाल निर्माण संपन्न हुआ। संत अभयारामदास निर्वाणी अखाड़ा के शिष्य थे और यहां उन्होंने अपने संप्रदाय का अखाड़ा भी स्थापित किया था।

 5.बालाजी हनुमान मंदिर, सालासर (राजस्थान) : हनुमानजी का यह मंदिर राजस्थान के चुरु जिले के गांव सालासर में स्थित है। इन्हें सालासर के बालाजी हनुमान के नाम से पुकारा जाता है। यहां स्थित हनुमानजी की प्रतिमा दाढ़ी व मूंछ से सुशोभित है। दूर-दूर से श्रद्धालु यहां अपनी मनोकामनाएं लेकर आते हैं और मनचाहा वरदान पाते हैं। इस मंदिर के संस्थापक श्री मोहनदासजी बचपन से श्री हनुमानजी के प्रति अगाध श्रद्धा रखते थे। माना जाता है कि हनुमानजी की यह प्रतिमा एक किसान को जमीन जोतते समय मिली थी जिसे सालासर में सोने के सिंहासन पर स्थापित किया गया है।

6. संकटमोचन हनुमान मंदिर : भूतभावन आशुतोष की पावन नगरी बनारस में अवस्थित है संकटमोचन हनुमान मंदिर। इस पावन नगरी में जिस स्थान पर गोस्वामी तुलसीदास को अंजनीसुत ने दर्शन दिए, वही स्थान आज संकटमोचन के नाम से सुविख्यात है। जिस मुद्रा में गोस्वामी को दर्शन हुए, उसी की प्रतिकृति है यहां का विग्रह। स्वयं तुलसीदासजी ने यह मूर्ति स्थापित करवाई थी। इस मंदिर के प्रांगण में हनुमत विग्रह के सामने ही सानुज श्रीराम, माता जानकी के साथ विराजित हैं।काशी से ही जिस गुफानुमा कोठरी में गोस्वामी ने साधनारत अपने जीवन का अंतिम समय गुजारा वहां भी 'गुफा के हनुमान' के रूप में प्रसिद्ध हनुमान मंदिर है।

7. अलीगंज का हनुमान मंदिर : लखनऊ को किसी समय लक्ष्मणपुर कहा जाता था। लखनऊ के अलीगंज में है एक प्रसिद्ध हनुमान मंदिर है, जो बेहद ही चमत्कारिक मंदिर है। आसपास या दूरदराज में जहां भी हनुमान मंदिर बनाया जा रहा है उसके लिए यहीं से सिंदूर और लंगोट ले जाकर प्राण-प्रतिष्ठा की जाती है। ज्येष्ठ मास के प्रत्येक मंगलवार को यहां विशाल मेला लगता है। अंग्रेज काल में लखनऊ के नवाब मुहम्मद अली शाह रहते थे। उनकी बेगम राबिया को कोई औलाद नहीं हो रही थी। सब दवा-दुआ बेकार जा रहा थी। किसी ने बताया कि इस्लामबाड़ी में एक हिन्दू संत रहता है, उसके सामने झोली फैलाओ। इस्लामबाड़ी को पहले हनुमानबाड़ी कहते थे। यहां हनुमान मंदिर था लेकिन 600 वर्ष पूर्व बख्तियार खिलजी ने इसका नाम बदलकर इस्लामबाड़ी कर दिया। खैर, इस्लामबाड़ी में इस हिन्दू संत को बाड़ी वाले बाबा कहकर पुकारते थे। ये बजरंग बली के परम भक्त थे।राबिया बेगम ने बाड़ी वाले बाबा के सामने दामन फैलाया तो बाबा ने बेगम की फरियाद पहुंचा दी रामदूत हनुमान के पास तक। हनुमानजी ने बेगम की आस्था को जांचने की सोची और स्वप्न में बेगम को आदेश दिया- इस्लामबाड़ी के टीले के नीचे मेरी मूर्ति दबी पड़ी है, उसका उद्धार कर किसी मंदिर में स्थापित करो। सुबह राबिया बेगम बाबा के पास गई और बताया कि हनुमानजी स्वप्न में आए थे। बाबा के निर्देशन में टीले की खुदाई हुई और दबी हुई मूर्ति को निकाला गया। वही मूर्ति आज अलीगंज के मंदिर में स्थापित है। बेगम ने यहां बाबा का मंदिर बनवाया और बेगम को संतान सुख प्राप्त हुआ।

8. यंत्रोद्धारक हनुमान मंदिर, हंपी (कर्नाटक) : बेल्लारी जिले के हंपी नामक नगर में एक हनुमान मंदिर स्थापित है। इस मंदिर में प्रतिष्ठित हनुमानजी को यंत्रोद्धारक हनुमान कहा जाता है। विद्वानों के मतानुसार यही क्षेत्र प्राचीन किष्किंधा नगरी है। वाल्मीकि रामायण व रामचरित मानस में इस स्थान का वर्णन मिलता है। संभवतया इसी स्थान पर किसी समय वानरों का विशाल साम्राज्य स्थापित था। आज भी यहां अनेक गुफाएं हैं। इस मंदिर में श्रीरामनवमी के दिन से लेकर 3 दिन तक विशाल उत्सव मनाया जाता है।

9.कष्टभंजन हनुमान दादा महाराज मंदिर, सारंगपुर ‍(गुजरात) : गुजरात के भावनगर के सारंगपुर में विराजने वाले कष्‍टभंजन महाराजाधिराज हनुमान यहां हनुमान दादा के नाम से पुकारे जाते हैं। अहमदाबाद-भावनगर रेलवे लाइन पर स्थित बोटाद जंक्शन से सारंगपुर लगभग 12 मील दूर है। सोने के सिंहासन पर विराजमान हनुमान दादा की यहां स्थित मूर्ति के चरणों में शनि महाराज विराजमान हैं। कहा जाता है कि एक समय था, जब शनिदेव का पूरे राज्य पर आतंक था। आखिरकार भक्तों ने अपनी फरियाद बजरंग बली से की। भक्तों की बातें सुनकर हनुमानजी शनिदेव को मारने के लिए उनके पीछे पड़ गए। अब शनिदेव के पास जान बचाने का आखिरी विकल्प बाकी था, सो उन्होंने स्त्री रूप धारण कर लिया क्योंकि उन्हें पता था कि हनुमानजी बाल ब्रह्मचारी हैं और वे किसी स्त्री पर हाथ नहीं उठाएंगे। लेकिन भगवान राम के आदेश से उन्होंने स्त्री-स्वरूप शनिदेव को अपने पैरों तले कुचल दिया।

10.हनुमान धारा, चित्रकूट, उत्तरप्रदेश : उत्तरप्रदेश के सीतापुर नामक स्थान से 3 मील दूर पर्वतमाला के मध्यभाग में यह हनुमान मंदिर स्थापित है। पहाड़ के सहारे हनुमानजी की एक विशाल मूर्ति के ठीक सिर पर जल के दो कुंड हैं, जो हमेशा जल से भरे रहते हैं और उनमें से निरंतर पानी बहता रहता है। इस धारा का जल हनुमानजी को स्पर्श करता हुआ बहता है इसीलिए इसे हनुमान धारा कहते हैं। कहा जाता है कि श्रीराम के अयोध्या में राज्याभिषेक होने के बाद एक दिन हनुमानजी ने भगवान श्री रामचंद्र से कहा- 'हे भगवन्! मुझे कोई ऐसा स्थान बतलाइए, जहां लंका दहन से उत्पन्न मेरे शरीर का ताप मिट सके।' तब भगवान श्रीराम ने हनुमानजी को यह स्थान बताया था

🙏🚩जय जय जय बजरंगबली 🙏🚩

मंगलवार, 12 अप्रैल 2022

कश्मीर फाइल्स धीरे धीरे थियेटर्स से उतर रही है.. और साथ ही साथ हम लोगों को चढ़ा हिंदुत्व जागरण का बुखार भी उतर रहा है...

कश्मीर फाइल्स धीरे धीरे थियेटर्स से उतर रही है.. और साथ ही साथ हम लोगों को चढ़ा हिंदुत्व जागरण का बुखार भी उतर रहा है...

कश्मीर फाइल्स देखकर आम हिन्दुओं को जो हुआ वो कुछ कुछ शमशान भूमि में होने वाले हृदय परिवर्तन जितना ही असरदार था...आप सोचते विचारते हैं.. और बाहर निकलकर फिर अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो जाते हैं।

तो कश्मीर फाइल्स से सबक लेते हुए हम क्या कर सकते हैं?
1_ सामाजिक रूप से सक्रिय रहें.. धर्म , सनातन समाज से जुड़े कामों में भागीदारी बढ़ाए।

2_ अगर किसी जातिवादी संगठन से जुड़े हैं तो दूसरी जाति के संघठन के साथ भी संवाद करें..

3_ अपने घरों को इस प्रकार से सुरक्षित करें कि विपरीत परिस्थितियों में भी आप 1 दिन कम से कम काट सकें।

4_ घरों में CCTV कैमरा का फूल प्रूफ बंदोबस्त करें.. कैमेरा को ऊंचाई पर इंस्टॉल करवाएं और डीवीआर को गोपनीय जगह पर।

5_मंदिरों में सामूहिक मंगल आरती का आयोजन रखें..
अधिक से अधिक भागीदारी सुनिश्चित करें.. प्रयास करें कि किसी प्रकार बच्चों की रुचि इसमें बन सके। इसके लिए आप वाद्य यंत्र से लेकर प्रसाद आदि तक का प्रयोग कर सकते हैं।

6_एक हिंदू दूसरे हिंदू से व्यवहार करते समय इस बात को ध्यान रखे कि सामने वाला आम भीड़ से कुछ अलग है.."अपना हिंदू भाई" है। 

7_आप जिस पेशे में भी हैं हिंदू भाई को रियायत दीजिए.. जताकर दीजिए.. अधिकारी हैं तो कम सख्ती दिखाइए..
व्यापारी हैं तो अच्छा रेट दीजिए.. सही लगे तो क्रेडिट दीजिए..अपने सनातनी नौकरों के साथ भी रियायत बरतिए।

जो मुझे समझ आए वो मैंने लिख दिए हैं..आप भी अपने सुझाव रखिए।

शनिवार, 9 अप्रैल 2022

रक्षाबंधन है तो Sister’s day क्यों

*हमारे पास तो  पहले से ही अमृत से भरे कलश थे...!*

*फिर हम वह अमृत फेंक कर उनमें कीचड़ भरने का काम क्यों कर रहे हैं...?🤔*

*जरा इन पर विचार करें...👇*

० यदि *मातृनवमी* थी,
तो Mother’s day क्यों लाया गया?

० यदि *कौमुदी महोत्सव* था,
तो Valentine day क्यों लाया गया?

० यदि *गुरुपूर्णिमा* थी,
तो Teacher’s day क्यों लाया गया?

० यदि *धन्वन्तरि जयन्ती* थी,
तो Doctor’s day क्यों लाया गया?

० यदि *विश्वकर्मा जयंती* थी,
तो Technology day क्यों लाया गया?

० यदि *सन्तान सप्तमी* थी,
तो Children’s day क्यों लाया गया?

० यदि *नवरात्रि* और *कन्या भोज* था,
तो Daughter’s day क्यों लाया गया?

० *रक्षाबंधन* है तो Sister’s day क्यों ?

० *भाईदूज* है तो Brother’s day क्यों ?

० *आंवला नवमी, तुलसी विवाह* मनाने वाले हिंदुओं को Environment day की क्या आवश्यकता ?

० केवल इतना ही नहीं, *नारद जयन्ती* ब्रह्माण्डीय पत्रकारिता दिवस है...

० *पितृपक्ष* ७ पीढ़ियों तक के पूर्वजों का पितृपर्व है...

० *नवरात्रि* को स्त्री के नवरूपों के दिवस के रूप में स्मरण कीजिये...

*सनातन पर्वों को गर्व से मनाईये...*
*पश्चिमी अंधानुकरण मत अपनाइये*
ध्यान रखे... 
" सूर्य जब भी पश्चिम में गया है तब अस्त ही हुआ है "

अपनी  संस्कारी जड़ों की ओर लौटिए। अपने सनातन मूल की ओर लौटिए। व्रत, पर्व, त्यौहारों को मनाइए। *अपनी संस्कृति और सभ्यता को जीवंत कीजिये।* 

🙏🏼 जय श्रीराम 🙏🏼

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अखंड_भारत_का_इतिहास

#अखंड_भारत_का_इतिहास......
. आज तक किसी भी इतिहास की पुस्तक में इस बात का उल्लेख नहीं मिलता की बीते 2500 सालों में हिंदुस्तान पर जो आक्रमण हुए उनमें किसी भी आक्रमणकारी ने अफगानिस्तान, म्यांमार, श्रीलंका, नेपाल, तिब्बत, भूटान, पाकिस्तान, मालद्वीप या बांग्लादेश पर आक्रमण किया हो। अब यहां एक प्रश्न खड़ा होता है कि यह देश कैसे गुलाम और आजाद हुए। पाकिस्तान व बांग्लादेश निर्माण का इतिहास तो सभी जानते हैं। बाकी देशों के इतिहास की चर्चा नहीं होती। हकीकत में अंखड भारत की सीमाएं विश्व के बहुत बड़े भू-भाग तक फैली हुई थीं।

#एवरेस्ट का नाम था #सागरमाथा, #गौरीशंकर #चोटी

पृथ्वी का जब जल और थल इन दो तत्वों में वर्गीकरण करते हैं, तब सात द्वीप एवं सात महासमुद्र माने जाते हैं। हम इसमें से प्राचीन नाम #जम्बूद्वीप जिसे आज #एशिया द्वीप कहते हैं तथा #इन्दू #सरोवरम् जिसे आज #हिन्दू #महासागर कहते हैं, के निवासी हैं। इस जम्बूद्वीप (एशिया) के लगभग मध्य में हिमालय पर्वत स्थित है। हिमालय पर्वत में विश्व की सर्वाधिक ऊंची चोटी सागरमाथा, गौरीशंकर हैं, जिसे 1835 में अंग्रेज शासकों ने एवरेस्ट नाम देकर इसकी प्राचीनता व पहचान को बदल दिया।

ये थीं #अखंड #भारत की #4सीमाएं

अखंड भारत इतिहास की किताबों में हिंदुस्तान की सीमाओं का उत्तर में हिमालय व दक्षिण में हिंद महासागर का वर्णन है, परंतु पूर्व व पश्चिम का वर्णन नहीं है। परंतु जब श्लोकों की गहराई में जाएं और भूगोल की पुस्तकों और एटलस का अध्ययन करें तभी ध्यान में आ जाता है कि श्लोक में पूर्व व पश्चिम दिशा का वर्णन है। कैलाश मानसरोवर‘ से पूर्व की ओर जाएं तो वर्तमान का इंडोनेशिया और पश्चिम की ओर जाएं तो वर्तमान में ईरान देश या आर्यान प्रदेश हिमालय के अंतिम छोर पर हैं।

एटलस के अनुसार जब हम श्रीलंका या कन्याकुमारी से पूर्व व पश्चिम की ओर देखेंगे तो हिंद महासागर इंडोनेशिया व आर्यान (ईरान) तक ही है। इन मिलन बिंदुओं के बाद ही दोनों ओर महासागर का नाम बदलता है। इस प्रकार से हिमालय, हिंद महासागर, आर्यान (ईरान) व इंडोनेशिया के बीच का पूरे भू-भाग को #आर्यावर्त अथवा #भारतवर्ष या हिंदुस्तान कहा जाता है।

अब तक 24 #विभाजन

सन 1947 में भारतवर्ष का पिछले 2500 सालों में 24वां विभाजन है। अंग्रेज का 350 वर्ष पूर्व के लगभग ईस्ट इण्डिया कम्पनी के रूप में व्यापारी बनकर भारत आना, फिर धीरे-धीरे शासक बनना और उसके बाद 1857 से 1947 तक उनके द्वारा किया गया भारत का 7वां विभाजन है। 1857 में भारत का क्षेत्रफल 83 लाख वर्ग किमी था। वर्तमान भारत का क्षेत्रफल 33 लाख वर्ग किमी है। पड़ोसी 9 देशों का क्षेत्रफल 50 लाख वर्ग किमी बनता है।

क्या थी #अखंड #भारत की #स्थिति

सन 1800 से पहले विश्व के देशों की सूची में वर्तमान भारत के चारों ओर जो आज देश माने जाते हैं उस समय ये देश थे ही नहीं। यहां राजाओं का शासन था। इन सभी राज्यों की भाषा अधिकांश शब्द संस्कृत के ही हैं। मान्यताएं व परंपराएं बाकी भारत जैसी ही हैं। खान-पान, भाषा-बोली, वेशभूषा, संगीत-नृत्य, पूजापाठ, पंथ के तरीके सब एकसे थे। जैसे-जैसे इनमें से कुछ राज्यों में भारत के इतर यानि विदेशी मजहब आए तब यहां की संस्कृति बदलने लगी।

2500 सालों के इतिहास में सिर्फ हिंदुस्तान पर हुए हमले

इतिहास की पुस्तकों में पिछले 2500 वर्ष में जो भी आक्रमण हुए (यूनानी, यवन, हूण, शक, कुषाण, सिरयन, पुर्तगाली, फेंच, डच, अरब, तुर्क, तातार, मुगल व अंग्रेज) इन सभी ने हिंदुस्तान पर आक्रमण किया ऐसा इतिहासकारों ने अपनी पुस्तकों में कहा है। किसी ने भी अफगानिस्तान, म्यांमार, श्रीलंका, नेपाल, तिब्बत, भूटान, पाकिस्तान, मालद्वीप या बांग्लादेश पर आक्रमण का उल्लेख नहीं किया है।

#रूस और #ब्रिटिश शासकों ने बनाया #अफगानिस्तान

1834 में प्रकिया शुरु हुई और 26 मई 1876 को रूसी व ब्रिटिश शासकों (भारत) के बीच गंडामक संधि के रूप में निर्णय हुआ और अफगानिस्तान नाम से एक बफर स्टेट अर्थात् राजनैतिक देश को दोनों ताकतों के बीच स्थापित किया गया। इससे अफगानिस्तान अर्थात पठान भारतीय स्वतंत्रतता संग्राम से अलग हो गए। दोनों ताकतों ने एक-दूसरे से अपनी रक्षा का मार्ग भी खोज लिया। परंतु इन दोनों पूंजीवादी व मार्क्सवादी ताकतों में अंदरूनी संघर्ष सदैव बना रहा कि अफगानिस्तान पर नियंत्रण किसका हो? अफगानिस्तान शैव व प्रकृति पूजक मत से बौद्ध मतावलम्बी और फिर विदेशी पंथ इस्लाम मतावलम्बी हो चुका था। बादशाह शाहजहां, शेरशाह सूरी व महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल में उनके राज्य में कंधार (गंधार) आदि का स्पष्ट वर्णन मिलता है।

1904 में दिया आजाद रेजीडेंट का दर्जा

मध्य हिमालय के 46 से अधिक छोटे-बडे राज्यों को संगठित कर पृथ्वी नारायण शाह नेपाल नाम से एक राज्य बना चुके थे। स्वतंत्रतता संग्राम के सेनानियों ने इस क्षेत्र में अंग्रेजों के विरुद्ध लडते समय-समय पर शरण ली थी। अंग्रेज ने विचारपूर्वक 1904 में वर्तमान के बिहार स्थित सुगौली नामक स्थान पर उस समय के पहाड़ी राजाओं के नरेश से संधी कर नेपाल को एक आजाद देश का दर्जा प्रदान कर अपना रेजीडेंट बैठा दिया। इस प्रकार से नेपाल स्वतन्त्र राज्य होने पर भी अंग्रेज के अप्रत्यक्ष अधीन ही था। रेजीडेंट के बिना महाराजा को कुछ भी खरीदने तक की अनुमति नहीं थी। इस कारण राजा-महाराजाओं में यहां तनाव था। नेपाल 1947 में ही अंग्रेजी रेजीडेंसी से मुक्त हुआ।

#भूटान के लिए ये #चाल चली गई

1906 में सिक्किम व भूटान जो कि वैदिक-बौद्ध मान्यताओं के मिले-जुले समाज के छोटे भू-भाग थे इन्हें स्वतन्त्रता संग्राम से लगकर अपने प्रत्यक्ष नियंत्रण से रेजीडेंट के माध्यम से रखकर चीन के विस्तारवाद पर अंग्रेज ने नजर रखना शुरु किया। यहां के लोग ज्ञान (सत्य, अहिंसा, करुणा) के उपासक थे। यहां खनिज व वनस्पति प्रचुर मात्रा में थी। यहां के जातीय जीवन को धीरे-धीरे मुख्य भारतीय धारा से अलग कर मतांतरित किया गया। 1836 में उत्तर भारत में चर्च ने अत्यधिक विस्तार कर नए आयामों की रचना कर डाली। फिर एक नए टेश का निर्माण हो गया।

#चीन ने किया #कब्जा

1914 में तिब्बत को केवल एक पार्टी मानते हुए चीन भारत की ब्रिटिश सरकार के बीच एक समझौता हुआ। भारत और चीन के बीच तिब्बत को एक बफर स्टेट के रूप में मान्यता देते हुए हिमालय को विभाजित करने के लिए मैकमोहन रेखा निर्माण करने का निर्णय हुआ। हिमालय को बांटना और तिब्बत व भारतीय को अलग करना यह षड्यंत्र रचा गया। चीनी और अंग्रेज शासकों ने एक-दूसरों के विस्तारवादी, साम्राज्यवादी मनसूबों को लगाम लगाने के लिए कूटनीतिक खेल खेला।

अंग्रेजों ने अपने लिए बनाया रास्ता

1935 व 1937 में ईसाई ताकतों को लगा कि उन्हें कभी भी भारत व एशिया से जाना पड़ सकता है। समुद्र में अपना नौसैनिक बेड़ा बैठाने, उसके समर्थक राज्य स्थापित करने तथा स्वतंत्रता संग्राम से उन भू-भागों व समाजों को अलग करने हेतु सन 1935 में श्रीलंका व सन 1937 में म्यांमार को अलग राजनीतिक देश की मान्यता दी। म्यांमार व श्रीलंका का अलग अस्तित्व प्रदान करते ही मतान्तरण का पूरा ताना-बाना जो पहले तैयार था उसे अधिक विस्तार व सुदृढ़ता भी इन देशों में प्रदान की गई। ये दोनों देश वैदिक, बौद्ध धार्मिक परम्पराओं को मानने वाले हैं। म्यांमार के अनेक स्थान विशेष रूप से रंगून का अंग्रेज द्वारा देशभक्त भारतीयों को कालेपानी की सजा देने के लिए जेल के रूप में भी उपयोग होता रहा है।

दो देश से हुए तीन

1947 में भारत पाकिस्तान का बंटवारा हुआ। इसकी पटकथा अंग्रेजों ने पहले ही लिख दी थी। सबसे ज्यादा खराब स्थिति भौगोलिक रूप से पाकिस्तान की थी। ये देश दो भागों में बंटा हुआ था और दोनों के बीच की दूरी थी 2500 किलो मीटर। 16 दिसंबर 1971 को भारत के सहयोग से एक अलग देश बांग्लादेश अस्तित्व में आया।

तथाकथित इतिहासकार भी दोषी

यह कैसी विडंबना है कि जिस लंका पर पुरुषोत्तम श्री राम ने विजय प्राप्त की ,उसी लंका को विदेशी बना दिया। रचते हैं हर वर्ष रामलीला। वास्तव में दोषी है हमारा इतिहासकार समाज ,जिसने वोट-बैंक के भूखे नेताओं से मालपुए खाने के लालच में भारत के वास्तविक इतिहास को इतना धूमिल कर दिया है, उसकी धूल साफ करने में इन इतिहासकारों और इनके आकाओं को साम्प्रदायिकता दिखने लगती है। यदि इन तथाकथित इतिहासकारों ने अपने आकाओं ने वोट-बैंक राजनीति खेलने वालों का साथ नही छोड़ा, देश को पुनः विभाजन की ओर धकेल दिया जायेगा। इन तथाकथित इतिहासकारो ने कभी वास्तविक भूगोल एवं इतिहास से देशवासिओं को अवगत करवाने का साहस नही किया।

शुक्रवार, 8 अप्रैल 2022

गुरुकुल पद्धति एवं आधुनिक शिक्षा – एक समाज-वैज्ञानिक विमर्श

गुरुकुल पद्धति एवं आधुनिक शिक्षा – एक समाज-वैज्ञानिक विमर्श
प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति – एक परिचय  

सीखना मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति है । मनुष्य समाज के विकास के साथ-साथ पीढ़ियों से अर्जित श्रुतज्ञान को लिपिबद्ध करने और फिर ज्ञान-विज्ञान को अपनी अगली पीढ़ियों में हस्तांतरित करने की आवश्यकता के क्रम में ज्ञान को संस्थाबद्ध किये जाने की आवश्यकता का अनुभव मनुष्य को हजारों वर्ष पूर्व हो चुका था । ज्ञान हस्तांतरण को संस्था का व्यवस्थित रूप देना एक कठिन कार्य था जिसे सबसे पहले भारतीयों ने वैदिक काल मे सफलतापूर्वक सुस्थापित किया । प्राचीन भारत में शिक्षा के आदान-प्रदान और शोध कार्यों के लिये आश्रमों, गुरुकुलों, परिषदों, सम्मेलनों और विश्वविद्यालयों का विकास तत्कालीन सत्ताओं और समाज के सहयोग से किया जाता रहा है । कालांतर में शिक्षा के इन केन्द्रों ने विश्वस्तरीय ख्याति अर्जित की और विश्व के प्राचीनतम विश्वविद्यालयों में पाटलिपुत्र, नालन्दा, ओदंतपुरी, तक्षशिला, विक्रमशिला, सोमपुरा, जगद्दला, वल्लभी आदि की स्थापना ने भारत को शिक्षा के क्षेत्र में शीर्ष पर स्थापित कर दिया ।
बारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ (1193) में बख़्तियार ख़िलजी के आक्रमण के साथ भारतीय विश्वविद्यालयों को नष्ट करने, जलाने और सामूहिक हत्याओं की जो वीभत्स परम्परा प्रारम्भ हुयी उसके कारण बारहवीं शताब्दी के अंत तक भारत की गौरवमयी शिक्षा व्यवस्था का पूरी तरह अंत हो गया । तेरहवीं शताब्दी से लेकर अट्ठारहवीं शताब्दी के अंत तक भारतीय शिक्षा तत्कालीन राजाओं, दानदाताओं और स्वयंसेवी आश्रमों की कृपा पर निर्भर रही । ब्रिटिश काल में शिक्षा पूरी तरह उपेक्षित रही किंतु अठारहवीं शताब्दी के अंत में ब्रिटिशर्स ने अपनी सत्ता संचालन के लिये देशज लोगों को तैयार करने के उद्देश्य से एक शोषणमूलक शिक्षा व्यवस्था को जन्म दिया । पश्चिमी षड्यंत्रों के फलस्वरूप उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ के साथ ही आश्रम एवं गुरुकुल पद्धति पूर्णतः समाप्त कर दी गयी जिसके बाद भारत में आधुनिक शिक्षा व्यवस्था अपने अस्तित्व में आयी । स्वाधीन भारत ने ब्रिटिश परम्पराओं का अनुकरण करते हुये नयी शिक्षा नीति का निर्माण अवश्य किया किंतु वह किसी भी दृष्टि से भारत के लोगों की आवश्यकताओं और परम्पराओं की पोषक व्यवस्था नहीं बन सकी । स्वातंत्र्योत्तर भारत में शिक्षा के क्षेत्र में अविवेकपूर्ण प्रयोगों की अदूरदर्शी परम्परा स्थापित हुयी जिसने उच्च उपाधिधारी विद्यार्थियों के ऐसे समूह तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी जो मानवीय गुणों से शून्य एवं आत्मविश्वासहीन होने के कारण जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में अव्यावहारिक सिद्ध हो रहे हैं । विद्यार्थियों में पनपती जा रही उग्रता, मनः अवसाद एवं आत्महत्या की प्रवृत्तियों ने शिक्षा के औचित्य पर गम्भीर प्रश्न खड़े कर दिये हैं । आज भारत में शिक्षा के स्तर में आयी भारी गिरावट के कारण निराशा और दिशाहीनता की स्थिति निर्मित हुयी है । पतन की स्थिति यहाँ तक पहुँच गयी है कि आज विश्व के श्रेष्ठ 200 विश्वविद्यालयों में भारत के एक भी विश्वविद्यालय का नाम नहीं है । 
भारत में, आज जबकि शिक्षा में नित नये प्रयोगों की एक श्रृंखला ही प्रारम्भ हो चुकी है और बुद्धिजीवी शैक्षणिक पतन से चिंतित हो रहे हैं, हमें एक बार पलट कर अपने गौरवशाली अतीत पर भी चिंतन करना चाहिये । यदि हम तुलनात्मक दृष्टि से देखें तो निम्न बिन्दुओं के आधार पर विमर्श का एक युक्तियुक्त धरातल निर्मित होता है –

1- शिक्षा का उद्देश्य :- प्राचीन भारत में शिक्षा का उद्देश्य आत्मिक उन्नति, व्यक्ति निर्माण और गुणात्मक विकास हुआ करता था । उस समय की शिक्षा आज की तरह आजीविका मूलक नहीं थी । तब लोग आजीविका के लिये पारम्परिक कार्यों एवं कुटीर उद्योगों आदि पर निर्भर हुआ करते थे जिससे धीरे-धीरे उनमें पारम्परिक दक्षता और निपुणता आती गयी । आजीविका के लिये यह एक अच्छा और स्वाभाविक समाधान था । भारत में ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में शैक्षणिक भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा कारण शिक्षा का उद्देश्य आजीविकामूलक हो जाना है । शिक्षा पूरी होने के बाद आजीविका न मिलने पर अवसाद होने और अपराध की प्रवृत्ति पनपने के दुष्परिणामों से भारतीय समाज को जूझना पड़ रहा है।
2- शिक्षा के विषय :- गुरुकुल प्रणाली में शिक्षा के विषय और उनकी संख्या विद्यार्थी की रुचि और क्षमता पर निर्भर हुआ करती थी, आज ऐसा नहीं है । प्रारम्भिक कक्षाओं में हर विद्यार्थी को एक समान विषय पढ़ने की बाध्यता ने विद्यार्थियों में अध्ययन के प्रति अरुचि उत्पन्न कर दी है जिसके कारण वे उन्हें जैसे-तैसे बोझ की तरह ढोने के लिये बाध्य होते हैं । शिक्षा, मूलतः मनुष्य की उत्सुकता, उत्कंठा और आनन्द का विषय है । आधुनिक शिक्षा प्रणाली ने शिक्षा को एक नीरस क्षेत्र बना दिया है । यहाँ आधुनिक शिक्षा के विषयों पर चिंतन करना एक महत्वपूर्ण बिन्दु है । गुरुकुल पद्धति के समय शिक्षा गुणाधान का माध्यम हुआ करती थी, विद्यार्थी का गुणात्मक विकास और नैतिक उत्थान महत्वपूर्ण था जिससे विद्यार्थी एक सभ्य और सुसंस्कृत नागरिक बन कर देश और समाज के कार्यों में अपनी सहभागिता सुनिश्चित किया करता था । दुर्भाग्य से आज शिक्षा के क्षेत्र में हर प्रकार का नैतिक पतन आता जा रहा है जिसका एक बहुत बड़ा कारण अव्यावहारिक विषयों का अध्यापन किया जाना है । आधुनिक शिक्षा लोकहितकारी नहीं रही प्रत्युत वह औद्योगिक और शोषण मूलक होती जा रही है । यही कारण है कि उच्च शिक्षित और उच्च पदों पर बैठे लोग भी अनैतिक कार्यों में लिप्त पाये जा रहे हैं । वास्तव में शिक्षा के विषयों के चयन की प्रक्रिया एक जटिल किंतु देशज परम्पराओं व आवश्यकताओं पर आधारित सूझ-बूझ की अपेक्षा करती है जिसकी आधुनिक भारतीय शिक्षा प्रणाली में उपेक्षा की जा रही है । यह ध्यान रखा जाना चाहिये कि ‘सीखना’ जिज्ञासा शांत होने पर उत्पन्न संतुष्टि एवं आनन्द का एक मार्ग है । विद्यार्थी के लिये यह बोझ का कारण एवं अरुचिकर नहीं होना चाहिये । समाज और देश के लिये क्या उपयोगी एवं आवश्यक है इसका विचार किये बिना विषयों एवं पाठों का चयन शैक्षणिक पाखण्ड ही माना जायेगा जिसका व्यक्तिनिर्माण और सभ्य समाज की स्थापना में कोई योगदान नहीं है ।       
3- शिक्षा का माध्यम :- भारत में शिक्षा का भाषायी माध्यम भी एक बड़ी समस्या है । मनुष्य के सीखने की मूल प्रवृत्ति सहज साधनों, उपकरणों और मातृभाषा में ही सुगम हो पाती है । दुर्भाग्य से भारत में मातृभाषा में अध्ययन-अध्यापन की रुचि एक षड्यंत्र के फलस्वरूप समाप्त की जा रही है। नितांत अपरिचित भाषा में अध्यापन के कारण सीखने में बाधा, आत्मगौरव का अभाव और हीनभावना जैसे अवांछनीय दोषों से विद्यार्थियों को जूझना पड़ रहा है । गुरुकुल पद्धति में लोकभाषाओं, भारतीय भाषाओं एवं सुपरिचित सुसंस्कृत भाषा के अतिरिक्त किसी नितांत अपरिचित भाषा को माध्यम बनाये जाने के बारे में कोई सोच भी नहीं सकता था । शिक्षा की गुणवत्ता, शिक्षा के स्तर और भारतीयता के गौरव के लिये विदेशी भाषा के स्थान पर भारतीय भाषाओं का प्रयोग बोधगम्यता और भाषाविज्ञान की दृष्टि से भी युक्तियुक्त है ।
4- शैक्षणिक संस्थाओं में प्रवेश और पात्रता के मापदण्ड :- गुरुकुल प्रणाली में ज्ञान के लोककल्याणकारी उपयोगों के साथ-साथ दुरुपयोगजन्य संकटों पर भी दूरदर्शी चिंतन किया गया था । कोई विद्या किसी कुपात्र के पास न चली जाय जिससे पूरा समाज या राष्ट्र किसी संकट में पड़ जाय इस चिंता को ध्यान में रखते हुये गुरुकुल में प्रवेश की पात्रता-परीक्षा के कड़े नियम बनाये गये थे जो आज पूरी तरह ध्वस्त हो चुके हैं । आधुनिक शिक्षा में पात्रता के मापदण्ड आज विद्यार्थी की प्रवृत्ति, क्षमता, स्वभाव, चरित्र, नैतिक मूल्य आदि न होकर पूरी तरह उसकी स्मरणशक्ति को आधार बनाकर निर्धारित किये जा रहे हैं । बौद्धिक आरक्षण ने शिक्षा को और भी पतन के गर्त में ढकेलने का काम किया है । अपात्र को दी हुयी विद्या निश्चित फलदायी नहीं हो सकती – यह एक समाज-वैज्ञानिक तथ्य है जिसकी आज पूरी तरह उपेक्षा की जा रही है । यह ध्यातव्य है कि गुरुकुल प्रणाली में शिष्य को भी अपना गुरु चुनने और उसकी पात्रता परीक्षा की अद्भुत व्यवस्था की गयी थी ।  
5- गुरु-शिष्य परम्परा :- गुरुकुल प्रणाली में गुरु-शिष्य सम्बंधों की अद्भुत गौरवमयी परम्परा विकसित की गयी थी । विश्वास, योग्यता, सम्मान, मानवीय और सामाजिक सम्बन्ध एवं निष्ठा के निर्मल धरातल पर स्थापित इस परम्परा में गुरु को सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त था जो आज कहीं भी दिखायी नहीं देता । यह आधुनिक शिक्षा प्रणाली की ही देन है कि आज के शिष्यगण अपने गुरु को न केवल अपमानित करने को उद्धत रहते हैं अपितु उनके साथ हिंसक कृत्य करने में भी संकोच नहीं करते । गुरु आज अपने ही शिष्यों से सुरक्षित नहीं रह गये हैं जो निश्चित ही नैतिक पतन का स्पष्ट प्रमाण है ।
6- मूल्यांकन प्रणाली :- बारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक भारतीय गुरुकुलों में विद्यार्थी की शिक्षा के मूल्यांकन की पद्धति व्यावहारिक और शिक्षा के विभिन्न पक्षों को ध्यान में रखकर की जाती थी । सीखी हुयी विद्या के साथ-साथ विद्यार्थी का भी मूल्यांकन किये जाने की पद्धति प्रचलित थी । गुरु द्वारा पूरे अध्ययन काल तक विद्यार्थी का सतत मूल्यांकन किया जाता था जिसका उद्देश्य विद्यार्थी की सीखने की क्षमता, त्वरिता, अनुकरण, व्यावहारिक दक्षता, विद्या के उपयोग की योजना क्षमता एवं व्यक्तित्व परिवर्तन आदि हुआ करता था । आधुनिक शिक्षा में विद्यार्थी और उसमें आये व्यवहार परिवर्तन का मूल्यांकन नहीं किया जाता जिसके कारण व्यक्ति निर्माण का उद्देश्य लगभग समाप्त सा हो गया है । आधुनिक शिक्षा में परीक्षा प्रणाली का आधार सीखना एवं व्यावहारिक पक्ष न होकर विद्यार्थी की स्मरण शक्ति है जिसे निश्चित ही किसी विद्यार्थी के सम्यक मूल्यांकन का वैज्ञानिक आधार नहीं माना जा सकता । वह बात अलग है कि निजी संस्थानों/उपक्रमों में सेवा हेतु दी जाने वाली परीक्षाओं में आज aptitude test को भी सम्मिलित किया गया है किंतु यह नियमित शिक्षा का आवश्यक भाग नहीं है । आधुनिक परीक्षा प्रणाली विद्यार्थी के निर्दुष्ट मूल्यांकन में पूरी तरह असफल सिद्ध हुयी है ।  
7- उपाधि की प्रामाणिकता :- संस्थागत् शिक्षा की पूर्णावधि एवं योग्यता मूल्यांकन के आधार पर विद्यार्थी की औपाधिक उपलब्धता के लिये गुरुकुल प्रणाली में नैतिक मापदण्ड विकसित किये गये थे । गुरु के द्वारा मात्र इतना कह देना ही कि – “तुम्हारी शिक्षा पूर्ण हुयी, अब तुम व्यावहारिक जीवन में लोककल्याण के लिये अपनी विद्या का सदुपयोग करने की दक्षता प्राप्त कर चुके हो” पर्याप्त माना जाता था । विद्यार्थी को दी गयी वाचिक उपाधि उच्च नैतिक मूल्यों एवं प्रतिष्ठा का प्रमाण थी जो आधुनिक शिक्षा में पूरी तरह समाप्त हो गयी है । गुरुकुल, आश्रम या विश्वविद्यालय की विशिष्ट प्रतिष्ठा ही विद्यार्थी की उपाधि की प्रतिष्ठा व स्तर निर्धारित किया करती थी ।  
8- सामाजिक दायित्व की भूमिका :- वैदिक एवं उत्तरवैदिक काल में शिक्षा को धार्मिक एवं सामाजिक उत्तरदायित्व माना जाता था जिसके कारण आश्रमों, गुरुकुलों, परिषदों और सम्मेलनों में समाज ने स्वस्फूर्त दायित्व सुनिश्चित किये हुये थे । शिक्षा को आत्मज्ञान का माध्यम स्वीकार किये जाने के कारण समाज का सहज दायित्व तत्कालीन समाज की जागरूकता का प्रमाण है जो आज कहीं दिखायी नहीं देती । समाज के दायित्व को शिक्षा के व्यापारियों ने बड़ी चालाकी से हथिया लिया है । आधुनिक शिक्षा व्यवस्था में शिक्षा अब एक व्यापार के रूप में पूरी तरह स्थापित हो चुकी है । शिक्षा की मूल अवधारणा इस व्यापार के विरुद्ध है । शिक्षा-उद्योग शिक्षा को लोककल्याणकारी न बनाकर शोषण एवं उत्पादनमूलक बनाता है । विद्या का पवित्र भाव अब समाप्त हो चुका है जिसके कारण निर्धन विद्यार्थियों के लिये उच्च शिक्षा एक स्वप्न बनकर रह गयी है ।  
9- शैक्षणिक संस्थाओं की संचालन व्यवस्था :- उत्तरवैदिक काल में शिक्षा का स्वैच्छिक दायित्व यद्यपि समाज के अधीन था तथापि आश्रमों एवं गुरुकुलों आदि की आंतरिक व्यवस्था पूर्णतः संस्थागत(Autonomous body) हुआ करती थी । सत्ता एवं समाज का कोई हस्तक्षेप न होने के कारण शिक्षा सभी प्रकार के दोषों एवं भ्रष्टाचारों से मुक्त थी । भारतीय समाज मान्यताओं में विद्या को उपासना स्वीकार किया गया है । आधुनिक शिक्षा व्यवस्था ने विद्या के इस स्वरूप को समाप्त कर दिया है जिसके कारण सामाजिक पतन और मनुष्यजन्य दुःखों से हम सभी जूझने के लिये बाध्य हुये हैं ।

निष्कर्ष :-
1- आधुनिक शिक्षा “शिक्षा” के मूल उद्देश्यों को प्राप्त करने में असफल सिद्ध हो रही है ।
2- शिक्षा के औद्योगीकरण ने शिक्षा की पवित्रता को नष्ट कर दिया है ।
3- शिक्षा के क्षेत्र में चल रहे प्रयोग एक तरह से स्वीकारोक्ति है कि अभी हमें शिक्षा के स्वरूप और उसकी व्यवस्था पर बहुत चिंतन एवं सुधार करने की आवश्यकता है ।
4- चिंतन के विषय और सुधारों की दिशा क्या हो, इसका मार्गदर्शन हमें प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति के गौरवशाली इतिहास से मिल सकता है ।
5- वास्तविक सुधार की राजनैतिक दृढ़ इच्छाशक्ति एवं समाज के संकल्प के सहयोग से शिक्षा को न केवल पूर्ववत् प्रतिष्ठा दिलायी जा सकती है अपितु इसके लोककल्याणकारी स्वरूप को भी पुनः स्थापित किया जा सकता है ।     

१. प्राचीन भारत का शिक्षा-दर्शन

ब्रह्मचर्य आश्रम, परा एवं अपरा विद्या, अध्यात्म विद्या, व्यक्ति-केन्द्रित शिक्षा, विश्‍व-बंधुत्व की भावना, धर्माधारित ज्ञान-विज्ञान एवं कला की शिक्षा

२. प्राचीन भारत की शिक्षा के मनोवैज्ञानिक आधार

मनुष्य की मूल प्रकृति आध्यात्मिक, समस्त ज्ञान मनुष्य के अन्तर में, अन्त:करण-चतुष्टय, ज्ञान-प्रक्रिया, एकाग्रता, ब्रह्मचर्य, संस्कार-सिद्धान्त, योग-विज्ञान

३. प्राचीन भारतीय शिक्षा में पाठ्य विषय

वेद-वेदांगादि की शिक्षा, व्यावसायिक शिक्षा, औद्योगिक शिक्षा, चिकित्साशास्त्र की शिक्षा, पशु-चिकित्साशास्त्र की शिक्षा, कृषि-विज्ञान एवं पशुपालन की शिक्षा, सैनिक शिक्षा

४. प्राचीन शिक्षा में चौसठ कलाएँ

संगीत, नृत्य एवं वाद्य कला, अलंकार एवं वेशधारण, शल्य-क्रिया एवं रसायन-मिश्रण, नियुद्ध एवं मल्ल-युद्ध, मुद्राएँ बनाना, वास्तु कला, वस्त्र रंगना, यंत्रों का निर्माण, रत्नों की पहचान, वस्त्र-सीवन, लेखन-कला, वैमानिक कला

५. प्राचीन भारत में सामान्यजन की शिक्षा

प्राथमिक शिक्षा, स्त्री-शिक्षा, सभी वर्णों के लिए शिक्षा, लोक-शिक्षण, षोडश संस्कार

६. प्राचीन भारतीय शिक्षा में गुरु-शिष्य सम्बन्ध

उपनयन संस्कार, ब्रह्मचारी का तपयुक्त जीवन, समावर्तन, गुरु-दक्षिणा, गुरु की महत्ता

७. प्राचीन भारत में प्रयुक्त कुछ आदर्श शिक्षण-विधियॉं

श्रुतज्ञान, ब्राह्मण-संघ/परिषदें, विभिन्न शिक्षण-विधियॉं, बालकेन्द्रित शिक्षण

८. प्राचीन भारत में परीक्षा एवं मूल्यांकन

वर्तमान भारतीय शिक्षा एवं मूल्यांकन, प्राचीन भारतीय शिक्षा एवं मूल्यांकन- प्रवेश परीक्षा, सतत एं सर्वांगपूर्ण मूल्यांकन, समावर्तन के अवसर पर परीक्षा

९. चीनी यात्रियों के अनुसार भारतीय शिक्षा

फाहियान का विवरण, हुएन-त्सांग का विवरण, ईत्सिंग का विवरण

१०. भारत के प्राचीन विद्या-केन्द्र एवं विश्‍वविद्यालय

तक्षशिला, काशी, नालन्दा, वलभी, विक्रमशिला, जगद्दला, ओदन्तपुरी, मिथिला, नदिया, कांची

११. प्राचीन भारतीय वैज्ञानिक

चरक, भरद्वाज, कपिल, कणाद, पतंजलि, सुश्रुत, नागार्जुन, आर्यभट्ट, वराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त, भास्कराचार्य, जीवक

१२. संस्कृत वाङ्मय में शिक्षा-सूत्र

वेदों में, उपनिषदों में, हितोपदेश में, श्रीमद्भगवद् गीता में, चाणक्य-नीति, शुक्रनीति, कालिदास के ग्रन्थों में, चरक संहिता एवं अन्य ग्रन्थों में

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