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गुरुवार, 26 मई 2022

भारत का हाबूर गांव, जहां मिलता है दही जमाने वाला चमत्कारी पत्थर- इसमें भारी औषधीय गुण होते हैं

भारत का हाबूर गांव, जहां मिलता है दही जमाने वाला चमत्कारी पत्थर

दही जमाने के लिए लोग अक्सर जामन ढूंढ़ते नजर आते हैं। कभी कटोरी लेकर पड़ोसी के यहां पर भागते हैं तो कभी थोड़ा सा दही बाजार से ले आते हैं, सोचते है की थोड़े से दही को दूध में डालकर खूब सारा दही जमा ले। लेकिन राजस्थान के जैसलमेर जिले के एक गांव को अभी तक जामन की जरूरत ही नहीं पड़ी, ऐसा नहीं है कि यहां पर लोग दही नहीं खाते, छाछ नहीं पीते। बल्कि उनके पास लाखों बरस पुराना जादुई पत्थर है जिसके संपर्क में आते ही दूध, दही बन जाता है। आइए जानते हैं उस गांव के पास विशेष पत्थर के साथ दही बनाने की अनूठी विधि कौनसी है ? और उस पत्थर का रहस्य क्या है?

हाबूर गांव - जैसलमेर से 40 किलोमीटर दूर स्थित है हाबूर गांव। ये वहीं गांव है जहां पर दही जमाने वाला रहस्यमयी पत्थर पाया जाता है। इस गांव को स्वर्णगिरी के नाम से जाना जाता है। हाबूर गांव का वर्तमान नाम पूनमनगर है। हाबूर पत्थर को स्थानीय भाषा में हाबूरिया भाटा कहा जाता है। ये गांव अनोखे पत्थर की वजह से देश- विदेश में प्रसिद्ध है।


दही जामने वाला हाबूर पत्थर: जैसलमेर पत्थरों के लिए प्रसिद्ध है, यहां के पीले पत्थर दुनियाभर में अपनी अलग पहचान बना चुके हैं। लेकिन हाबूर गांव का जादुई पत्थर अपने आप में विशिष्ट खूबियां समेटे हुए है। हाबूर पत्थर दिखने में बहुत खूबसूरत होता है। ये हल्का सुनहरा और चमकीला होता है। हाबूर पत्थर का कमाल ऐसा है कि इस पत्थर में दूध को दही बनाने की कला है। हाबूर पत्थर के संपर्क में आते ही दूध एक रात में दही बन जाता है। जो स्वाद में मीठा और सौंधी खुशबू वाला होता है। इस पत्थर का उपयोग आज भी जिले के ग्रामीण क्षेत्रों में दूध को जमाने के लिए किया जाता है। इस गांव में मिलने वाले स्टोन से यहां के लोग बर्तन, मूर्ति और खिलौने बनाते हैं जो अपनी विशेष खूबी के चलते देश-विदेश में काफी लोकप्रिय है। इस पत्थर से गिलास, प्लेट, कटोरी, प्याले, ट्रे, मालाएं, फूलदान, कप, थाली, और मूर्तियां बनाए जाते हैं।

पत्थर से दही जमने की वजह : अब सवाल उठता है कि एक पत्थर से कैसे दही जम सकता है। वो भी रात को दूध उस पत्थर से बने बर्तन में डाला और सुबह उठकर दही खा लो। जब ऐसा होने लगा तो रिसर्च भी होने लगी, जिसमें ये सामने आया है की हाबूर पत्थर में दही जमाने वाले सारे केमिकल्स मौजूद है। इस पत्थर में एमिनो एसिड, फिनायल एलिनिया, रिफ्टाफेन टायरोसिन हैं। ये केमिकल दूध से दही जमाने में सहायक होते हैं। हाबूर गांव के भूगर्भ से निकलने वाले इस पत्थर में कई खनिज और अन्य जीवाश्मों की भरमार है जो इसे चमत्कारी बनाते हैं।

क्या है इतिहास: कहा जाता है कि जैसलमेर में पहले समुद्र हुआ करता था। जिसका का नाम तेती सागर था। कई समुद्री जीव समुद्र सूखने के बाद यहां जीवाश्म बन गए और पहाड़ों का निर्माण हुआ। हाबूर गांव में इन पहाड़ों से निकलने वाले पत्थर में कई खनिज और अन्य जीवाश्मों की भरमार है। जिसकी वजह से इस पत्थर से बनने वाले बर्तनों की भारी डिमांड है।

हाबूर पत्थर से बने बर्तनों की डिमांड: हाबूर पत्थर से बने बर्तनों कि डिमांड देश के साथ-साथ विदेशों में भी है। इस पत्थर से बने बर्तनों की बिक्री ऑनलाइन भी होती है। कई ऐसे ऑनलाइन आउटलेट है जहां पर आपको इस पत्थर से बने बर्तन अलग- अलग Rate पर मिल जाएंगे। उदाहरण के तौर पर अगर आपको हाबूर पत्थर से बनी एक प्याली खरीदनी है तो आपको 1500 से 2000 रुपये चुकाने होंगे। वहीं कटोरी की कीमत 2500 के आसपास हो सकती है। वहीं एक गिलास की कीमत 650 रुपये से लेकर 1000 रुपये तक होती है।

हाबूर पत्थर में औषधीय गुण: हाबूर पत्थर चमत्कारी जीवाश्म पत्थर बताया जाता है जिसका गठन 180 मिलियन साल पहले समुद्र के खोल से जैसलमेर में हुआ था। इसमें भारी औषधीय गुण होते हैं, जैसे मधुमेह तथा रक्त दबाव नियंत्रित करता है। ऐसा कहा जाता है कि इस पत्थर से बने गिलास में रात को सोते समय पानी भरकर रख दो और सुबह खाली पेट पी लो। अगर आप एक से डेढ़ महीने तक लगातार इसका पानी पीते है, तो आपके शरीर में एक चेंज नजर आएगा। आपके शरीर में होने वाला जोड़ों का दर्द कम होगा साथ ही पाइल्स की बीमारी कंट्रोल होगी।

हाबूर गांव कैसे जाएं : अगर आप दिल्ली से हाबूर गांव आना चाहते हैं तो आपको 810 किलोमीटर का सफर तय करना होगा। आप यहां पर बस, कार, जीप में आ सकते हैं।

25 मई से प्रारंभ होकर 2 जून तक रहेगा नौतपा

!!  *सूर्यनारायणाय नमः* !!

*🌞🔥25 मई से प्रारंभ होकर   2 जून तक रहेगा नौतपा*


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*🌞🔥नौतपा यानी वे 9 दिन जब सूर्य धरती के ज्यादा करीब आ जाते हैं, जिससे गर्मी अधिक पड़ती है। नौतपा 25 मई शुरू हो रहा है और 2 जून तक रहेगा। नौतपा के दौरान प्रचंड गर्मी होती है, जिससे मानसून बनता है।*

 *🌞🔥अगर इन 9 दिनों में बारिश होने लगे तो नौतपा का गलना कहा जाएगा। ऐसा होने पर अच्छी बारिश की संभावना नहीं होती। माना जाता है कि नौतपा  खूब तपा तो उस साल अच्छी बारिश होती है। क्योंकि तपन की वजह से समुद्र के जल का तेजी से वाष्पीकरण होता है, जिससे बादल बनते हैं और बारिश करते हैं।*

*🌞सर्व तपै जो रोहिनी, सर्व तपै जो मूर*
*परिवा तपै जो जेठ की, उपजै सातो तूर*

*🌞🔥घाघ के इस दोहे का अर्थ है… रोहिणी नक्षत्र में भरपूर गर्मी हो, मूल भी पूरा तपे और जेठ की प्रतिपदा पर भी भीषण गर्मी हो तो सातों प्रकार के अन्न पैदा होंगे।* 

*🔥🌞मौसम और खेती के लिहाज से इस साल यह दोहा एकदम सटीक साबित हो सकता है।* 

*🌞🔥ज्योतिष विद्वानों के मुताबिक, जेठ के इन नौ दिनों में गर्मी का प्रकोप बढ़ता जाएगा। इसके साथ धूल भरी आंधी भी चलने के आसार हैं। नौतपा में भीषण गर्मी पड़ने से इस साल अच्छी बरसात होगी। इससे खाद्यान्न उत्पादन में भी बढ़ोतरी होगी।*

*🌞🔥ऐसे शुरू होता है नौतपा*

*🌞🔥ज्योतिष विद्वानों के मुताबिक, ज्येष्ठ मास की कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि पर यानी 25 मई को सूर्य कृतिका से रोहिणी नक्षत्र में प्रवेश करेंगे। दोपहर 02 बजकर 52 मिनट पर सूर्य के रोहिणी नक्षत्र में प्रवेश करने के साथ नौतपा शुरू हो जाएगा और वहां वह 8 जून को सुबह 06 बजकर 40 मिनट तक रहेंगे। इसके बाद 15 दिनों तक सूर्य की किरणें धरती पर लंबवत पड़ेंगी।* 

*🌞🔥इसके शुरुआती नौ दिनों को नौतपा कहते हैं। इन नौ दिनों को गर्मी का चरम माना जाता है।*

*🌞🔥ग्रह-नक्षत्रों की चाल*

*🌞🔥मौजूदा समय में सूर्य शुक्र की राशि वृषभ राशि में गोचर कर रहे हैं। साथ ही शुक्र नौतपा से पहले मेष में आ गए हैं और मंगल व गुरु एक ही नक्षत्र में विराजमान रहेंगे। पूरे नौतपा के दौरान मेष, वृषभ और मीन राशि में तीन ग्रहों की युति रहेगी अर्थात नौतपा के दौरान हर दिन त्रिग्रही योग बनेगा, जिससे मौसम में बदलाव आएगा*

*🌞🔥अच्छी बारिश की मान्यता*

*🌞🔥ज्योतिषाचार्यों के मुताबिक, चंद्रमा जब ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष में आर्द्रा से स्वाति नक्षत्र तक अपनी स्थितियों में हो और तीव्र गर्मी पड़े तो वह नौतपा है। रोहिणी के दौरान बारिश हो जाती है तो इसे रोहिणी नक्षत्र का गलना भी कहा जाता है। इस बार मॉनसून में अच्छी बारिश के अनुकूल योग हैं। इस वर्ष मेघेश बुध हैं और वह सूर्य के नक्षत्र में स्थित हैं। इससे वर्षा समयानुकूल होने के योग बन रहे हैं।*
*🌞🔥यह है नौतपा का विज्ञान*

*🌞🔥नौतपा के दौरान सूर्य घूमते हुए मध्य भारत के ऊपर आ जाता है। जब यह कर्क रेखा के पास पहुंच जाता है, तब 90 डिग्री की स्थिति में होता है। इससे सूर्य की किरणें सीधे पृथ्वी पर पड़ती हैं। इससे तापमान बढ़ जाता है।*

*🌞🔥नौतपा के दौरान बरतें ये सावधानी*

*🌞🔥नौतपा के समय कुछ भी खाए-पिए घर से नहीं निकलना चाहिए और ज्यादा से ज्यादा पानी पीना चाहिए। ऐसा करने से शरीर में नौतपा के दौरान जल की कमी नहीं रहती।*

*🌞🔥नौतपा के समय हमेशा टोपी पहने, कानों को ढ़ककर रखें और आंखों पर चश्मा लगाएं। हर दिन सत्तू पिएं और मौसमी फल, फलों का रस, दही, मट्ठा, छाछ आदि का सेवन करें।*

*🌞🔥नौतपा के समय तैलीय और मसालेदार भोजन से दूरी बनाकर रखें। साथ ही हल्का व शीघ्र पचने वाला भोजन करें, इससे पेट खराब नहीं होता है।*

*🌞🔥नौतपा के समय गर्मी अधिक होती है इसलिए लू से बचकर रहें और घर में रहें। पंखा, एसी और कूलर से निकलने के बाद एकदम गर्मी में न जाएं।*
 संकलित ...
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बुधवार, 25 मई 2022

तुम लोग अपनी जान बचाओ मुझे तो मेरा भगवान बचाएगा

 भगवान बचाएगा


          एक समय की बात है किसी गाँव  में  एक  साधु रहता  था, वह  भगवान का बहुत बड़ा भक्त था और निरंतर एक पेड़ के नीचे  बैठ  कर  तपस्या  किया करता  था |  उसका  भागवान पर  अटूट   विश्वास   था और गाँव वाले भी उसकी इज्ज़त करते थे|
         एक बार गाँव  में बहुत भीषण बाढ़  आ  गई |  चारो तरफ पानी ही पानी दिखाई देने लगा, सभी लोग अपनी जान बचाने के लिए ऊँचे स्थानों की तरफ बढ़ने लगे | जब लोगों ने देखा कि साधु महाराज अभी भी पेड़ के नीचे बैठे भगवान का नाम जप  रहे हैं तो उन्हें यह जगह छोड़ने की सलाह दी| पर साधु ने कहा-
 ” तुम लोग अपनी  जान बचाओ मुझे तो मेरा भगवान बचाएगा!”
         धीरे-धीरे पानी  का  स्तर बढ़ता गया, और पानी साधु के कमर तक आ पहुंचा , इतने में वहां से एक नाव  गुजरी | मल्लाह ने कहा-” हे साधू महाराज आप इस नाव पर सवार हो जाइए मैं आपको सुरक्षित स्थान तक पहुंचा दूंगा |”
“ नहीं, मुझे तुम्हारी मदद की आवश्यकता नहीं है , मुझे तो मेरा भगवान बचाएगा !! “, साधु ने उत्तर दिया. नाव वाला चुप-चाप वहां से चला गया.
          कुछ देर बाद बाढ़ और प्रचंड हो गयी , साधु ने पेड़ पर चढ़ना उचित समझा और वहां बैठ कर ईश्वर को याद करने लगा | तभी अचानक उन्हें गड़गडाहत की आवाज़ सुनाई दी, एक हेलिकोप्टर उनकी मदद के लिए आ पहुंचा, बचाव दल  ने एक रस्सी लटकाई  और साधु को उसे जोर से पकड़ने का आग्रह किया|

       पर साधु फिर बोला-” मैं इसे नहीं पकडूँगा, मुझे तो मेरा भगवान बचाएगा |”
         उनकी हठ के आगे बचाव दल भी उन्हें लिए बगैर वहां से चला गया |
         कुछ ही देर में पेड़ बाढ़ की धारा में बह गया और साधु की मृत्यु हो गयी |
          मरने  के  बाद  साधु महाराज स्वर्ग पहुचे और भगवान  से बोले  -. ” हे  प्रभु  मैंने  तुम्हारी  पूरी  लगन   के  साथ  आराधना की… तपस्या  की पर जब  मै पानी में डूब कर मर  रहा  था  तब  तुम मुझे  बचाने  नहीं  आये, ऐसा क्यों प्रभु ?
        भगवान बोले , ”  हे साधु महात्मा  मै तुम्हारी रक्षा करने एक  नहीं बल्कि तीन  बार  आया , पहला, ग्रामीणों के रूप में , दूसरा  नाव  वाले  के   रूप में , और तीसरा, हेलीकाप्टर  बचाव दल  के  रूप   में. किन्तु तुम मेरे  इन अवसरों को पहचान नहीं पाए | ”

        💐💐शिक्षा💐💐
 मित्रों, इस जीवन में ईश्वर हमें कई अवसर देता है , इन अवसरों की प्रकृति कुछ ऐसी होती  है कि वे  किसी  की प्रतीक्षा  नहीं  करते है , वे  एक  दौड़ते  हुआ  घोड़े के सामान होते हैं जो हमारे सामने से तेजी से गुजरते हैं  , यदि हम उन्हें पहचान कर उनका लाभ उठा लेते  है  तो  वे  हमें   हमारी  मंजिल   तक  पंहुचा  देते  है, अन्यथा हमें बाद में पछताना ही पड़ता है|

शिवलिंग पर पैर लगाते एक व्यक्ति की तस्वीर सोशल मिडिया पर क्यों वायरल हो रही है?

 शिवलिंग पर पैर लगाते एक व्यक्ति की तस्वीर सोशल मिडिया पर क्यों वायरल हो रही है?









जैसे ही खबर आई कि कोर्ट के आदेश पर बनी एक कमेटी की जांच में ज्ञानवापी मस्जिद के वजूखाने में एक बड़ा शिवलिंग मिला है, सोशल मीड़िया पर तमाम तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आने लगीं। कई नेताओं ने भी शिवलिंग का मजाक उड़ाया, एक प्रोफेसर ने भी ऐसा ही किया, पुलिस ने भी कई लोगों को इस मामले में जेल भेज दिया।


लेकिन एक ऐसी तस्वीर कई लोगों ने शिवलिंग की शेयर की, जो देखने में बेहद आपत्तिजनक लगती है। जिस भी शिव भक्त ने उसे देखा उसे गुस्सा आ रहा है, लेकिन चूंकि वो तस्वीर एडिट करके नहीं बनाई गई है, बल्कि मूर्ति रूप की भी तस्वीर है, सो लोग समझ नहीं पा रहे कि आखिर वो कौन होगा जिसने ये मूर्ति बनाई होगी। कोई ऐसा कैसे कर सकता है कि शिवलिंग पर पैर लगाते हुए व्यक्ति की मूर्ति बना सके?
 
ये तस्वीर शेयर करने वालों में सबसे प्रमुख नाम है देवदत्त पटनायक का, हिंदू पौराणिक ग्रंथों में ढूंढ़-ढूंढकर वो बातें निकालना, जो राष्ट्रवादियों की आस्था को चोट पहुंचाती हैं, ये देवदत्त को काफी पसंद आता है, अपने इस अभियान में वह कई बार गलत बातें भी शेयर कर देते हैं और फिर उनकी फजीहत भी होती है, लेकिन रुकते नहीं है। पहले देवदत्त पटनायक का ट्वीट पढ़िए...

उन्होंने लिखा है कि, ‘’Remember Kanappa today... this Nayamnar saint of South India loved Shiva in his own way.... full of love... considered superior to the Brahmin ritual performance of devotion’’। इस ट्वीट में जो उन्होंने लिखा है, उससे संदेश मिलता है कि दक्षिण भारत के ये संत शिव को इसी तरह यानी लिंग पर पैर रखकर सम्मान देते थे। आदत के मुताबिक ब्राह्मणों की आलोचना करते हुए उन्होंने ये भी लिखा है कि इसे ब्राह्मणों की पूजा से बेहतर समझा जाता था।

लेकिन उनके ट्वीट पर गौर करेंगे तो आप पाएंगे कि वह आपको पूरा सच नहीं बता रहे हैं। एक तरह से आधा सच गुमराह ही करता है। संदेश उनकी ट्वीट से ये जा रहा है संत कनप्पा इसी तरह से अपने आराध्य महादेव की पूजा करते थे, लिंग पर पैर लगाकर. जबकि ये बिलकुल भी सच नहीं है।



अकेले देवदत्त नहीं सोशल मीडिया खासतौर पर ट्विटर व फेसबुक पर बहुत से लोगों ने इस तस्वीर को शेयर किया है, किसी में इसी मुद्रा में बनी मूर्तियों की फोटो है, तो कहीं किसी चित्रकार ने पेंटिंग की तरह बनाया है। इससे ये तो पता चलता है कि कई जगह कनप्पा की शिव लिंग को पैर लगाते हुए मूर्तियां भी हैं, अगर वाकई में ऐसा है तो आज तक कोई हंगामा क्यों नहीं हुआ? कोई नाराज क्यों नहीं होता? भगवा दल वाले क्यों इस पर ऐतराज नहीं करते?

इसका मतलब साफ है कि उनको पता है कि इसमें कुछ भी विवादित नहीं है। जबकि देवदत्त जैसे तमाम लोग हैं, जो इसे गलत ना बताते हुए भी भ्रम में डालने वाला टैक्स्ट उसके साथ लिख रहे हैं। जैसे एआईएमआईएम से जुड़े मुबासिर किसी और की ऐसी ही पोस्ट शेयर करते हुए लिखते हैं कि, ‘’मुझे नहीं पता कि उत्तर भारतीयों को भक्त कनप्पा के बारे में पता भी है कि नहीं, अगर ये आज के दौर में होता तो कनप्पा के खिलाफ शिवलिंग पर पैर रखने के चलते ना जाने कितने केस हो गए होते।’’

सभी लोग कनप्पा को शिवभक्त ही बता रहे हैं, ये नहीं बता रहे कि वो अपमान कर रहे हैं, यानी कहना चाहते हैं कि ये भी एक तरीका है शिवलिंग की पूजा करने का। ये सारी कवायद इसलिए है ताकि इतने सालों तक ज्ञानवापी के वजू खाने में शिवलिंग के साथ जो भी हुआ, उसको जायज ठहराया जा सके।
 

संत कनप्पा उन 63 नयनार संतों में गिने जाते हैं, जो शिव के उपासक थे, व तीसरी से आठवीं शताब्दी के बीच हुए थे। जबकि अलवार संत विष्णु के उपासक थे। कनप्पा पेशे से शिकारी थे, जो बाद में संत बन गए। उनके भक्त मानते हैं कि वो पिछले जन्म में पांडवों में से एक अर्जुन थे। कनप्पा नयनार के कई नाम चलन में हैं, जैसे थिनप्पन, थिन्नन, धीरा, कन्यन, कन्नन आदि। माता पिता ने उनका नाम थिन्ना रखा था। आंध्र प्रदेश के राजमपेट इलाके में उनका जन्म हुआ था।

उनके पिता बड़े शिकारी थे और शिवभक्त थे, शिव के पुत्र कार्तिकेय को पूजते थे। कनप्पा श्रीकलहस्तीश्वरा मंदिर में वायु लिंग की पूजा करते थे, शिकार के दौरान उन्हें ये मंदिर मिला था। पांचवी सदी में बना इस मंदिर का बाहरी हिस्सा 11वीं सदी में राजेन्द्र चोल ने बनवाया था, बाद में विजय नगर साम्राज्य के राजाओं ने उसका जीर्णोद्धार करवाया।

लेकिन थिन्ना को पता नहीं था कि शिव भक्ति और पूजा के विधि विधान क्या है। किन नियमों का पालन करना है, लेकिन उनकी श्रद्धा अगाध थी। कहा ये तक जाता है कि वह पास की स्वर्णमुखी नदी से मुंह में पानी भरकर लाते थे और उससे शिवलिंग का जलाभिषेक करते थे, चूंकि शिकारी थे, सो जो भी उन्हें मिलता था, एक हिस्सा शिव को अर्पित कर देते थे, यहां तक कि एक बार सुअर का मांस भी।      


लेकिन शिव अपने इस भक्त की आस्था को देखकर खुश थे, उनको पता था कि इसे पूजा करनी नहीं आती है, ना मंत्र पता हैं ना किसी तरह के विधि विधान। सैकड़ों सालों से ये कथा कनप्पा के भक्तों में प्रचलित है कि एक दिन महादेव ने उनकी परीक्षा लेने की ठानी और उन्होंने उस मंदिर में उस वक्त भूकंप के झटके दिए, जब मंदिर में बाकी साथियों, भक्तों और पुजारियों के साथ कनप्पा भी मौजूद थे।


जैसे ही भूकंप के झटके आए, लगा कि मानो मंदिर की छत गिरने वाली है, तो डर के मारे सभी भाग गए, भागे नहीं तो बस कनप्पा। उन्होंने ये किया कि अपने शरीर से शिव लिंग को पूरी तरह से ढक लिया ताकि कोई पत्थर अगर गिरे तो शिवलिंग के ऊपर ना गिरे बल्कि उनके ऊपर गिरे। इससे वह पूरी तरह सुरक्षित रहा।

शिवलिंग पर तीन आंखें बनी हुई थीं। जैसे ही भूकम्प के झटके थोड़ा थमे, कनप्पा ने देखा कि शिवलिंग पर बनी एक आंख से रक्त और आंसू एक साथ निकल रहे थे। उनकी समझ में आ गया कि किसी पत्थर से शिवजी की एक आंख घायल हो गई है। आव देखा ना ताव, कनप्पा ने फौरन अपनी एक आंख अपने एक वाण से निकालने की प्रक्रिया शुरू कर दी और उसे निकालकर शिवलिंग की आंख पर लगा दिया, जिससे उसमें से खून निकलना बंद हो गया। लेकिन थोड़ी देर बाद ही शिवलिंग की दूसरी आंख से रक्त और आंसुओं का निकलना शुरू हो गया।

तब कनप्पा ने जैसे ही दूसरी आंख निकालने की प्रक्रिया शुरू की, उनके दिमाग में आया कि जब मैं अपनी दूसरी आंख भी निकाल लूंगा तो बिलकुल अंधा हो जा जाऊंगा, ऐसे में मुझे कैसे दिखेगा कि उस आंख को शिवलिंग में कैसे लगाना है।

ऐसे में उन्हें एक उपाय सूझा, उन्होंने फौरन अपना एक पैर उठाया और पैर का अंगूठा ठीक उस आंख के पास लगा दिया, ताकि अंधा होने के बावजूद वो शिवजी की दूसरी आंख की जगह अपनी आंख लगा सके। उसी वक्त भगवान शिव प्रकट हुए और उससे खुश होकर उसकी आंखें एकदम ठीक कर दीं। यही वो घटना थी, जिसके चलते थिन्ना को नया नाम कनप्पा मिला था।

इसी मौके की वो तस्वीर या मूर्तियां हैं, कि कैसे वह एक हाथ में वाण से आंख निकालेंगे, दूसरे हाथ से उसे पकड़ेंगे तो जहां से आंख निकालनी है, उस जगह को कैसे चिन्हित करेंगे, तो पैर का अंगूठा उस मासूम भक्त ने शिवलिंग पर रखा, इस काम के लिए था। लेकिन जितने भी लोग शेयर करे रहे हैं, चाहे वो देवदत्त पटनायक ही क्यों ना हो, किसी को ये नहीं बता रहे कि शिव भगवान ने उनकी भक्ति की परीक्षा ली थी और ये बस एक पल का वाकया था, ना कि रोज कनप्पा ऐसा किया करते थे. लेकिन इससे सच्चाई बाहर आ जाती और उनमें से बहुत से लोग ये चाहते भी नहीं।

मंगलवार, 24 मई 2022

भारतीय शिक्षा भारतीय कब होगी ?

भारतीय शिक्षा भारतीय कब होगी ? 
किसी भी सभ्यता का इतिहास उस  समाज की शिक्षा का इतिहास भी होता है क्योंकि सभ्यता के लिए आवश्यक पुरुषार्थ अपने ज्ञान परंपरा के संदर्भ में ही संभव होते हैं और किस समाज ने  ज्ञान के किन-किन रूपों की साधना की है और कितना और कैसा ज्ञान अर्जित किया है ,  इससे ही उसमें किए गए और चल रहे पुरुषार्थों का स्वरूप  निर्धारित होता है। 
आज यह विश्व विदित सत्य है कि प्राचीन भारत में जिस शिक्षा व्यवस्था का प्रचार था , वह अपने समय के विश्व की अन्य शिक्षा व्यवस्थाओं की तुलना   में सर्वाधिक श्रेष्ठ और समुन्नत थी ।  
जब कुछ अंग्रेज ईस्ट इंडिया कंपनी के कर्मचारी के रूप में भारत आए और यहां के समाज में कुछ प्रतिष्ठा पाने का प्रयास करने लगे तो उन्होंने पाया कि इस समाज में शिक्षा का बहुत अधिक आदर है इसलिए उन्हें लगा कि हम भी यहां के लोगों को शिक्षा में रुचि लेते हुए दिखे तो शायद इससे हमारा कुछ सम्मान बढ़ेगा और तब हमें अपना व्यापार फैलाने में सहायता मिलेगी इसके लिए उन्होंने कोलकाता और काशी मे विद्यालय स्थापित किए । यद्यपि उन्हे एक आशा यह थी कि शायद इन विद्यालयों द्वारा छद्म रूप से ईसाइयत के प्रसार मे भी सहायता मिलेगी । 
1780 ईस्वी मे कोलकाता मे  एक मदरसा बनाया ताकि उस इलाके के नवाब प्रसन्न हों और 1791 ईस्वी मे काशी मे  संस्कृत विद्यालय बनाया ताकि काशी , दरभंगा , हथुआ, जगदीशपुर , बेतिया , टेकरी , बनैली ,  आदि के राजा गण प्रसन्न हों और शायद वे अपने बच्चों को भी यहाँ पढ़ाने लगें । यह अलग बात है कि दरभंगा नरेश ने स्वयं  एक विशाल संस्कृत विद्यालय की स्थापना की , जो बाद मे विश्व विद्यालय ही बना । 
इंग्लैंड मे यह वह दौर था जब वहाँ भारत की लूट से पहली बार धन पहुँचना शुरू हुआ जो भारतीय व्यापारियों के लिए तो नगण्य धन था पर कंगाल और भूखे इंग्लैंड के लिए वह मानो स्वर्ग का खजाना खुल गया था । भारत के सुंदर मुलायम सूती और रेशमी वस्त्र इंग्लैंड और यूरोप के धनियों के लिए मानो देवलोक की वस्तुएं थे । उधर सामान्य अंग्रेज़ भूख और अभाव से बिलबिलाता था और सस्ती जिन पीकर हजारों गरीब अंग्रेज़ दम तोड़ रहे थे । \
इधर समुद्र मे अपनी अपनी नौकाएँ लिए इंग्लैंड , फ़्रांस और स्पेन के डकैत और लुटेरे ( जो बाद मे व्यापारी कहे जाने लगे ताकि उनके पाप छिपाए जा सकें )आपस मे एक दूसरे को मार और लूट रहे थे और इंग्लैंड मे शिक्षा केवल पादरियों और राजकुमारों तक सीमित थी । इसीलिए कंपनी ने यहाँ भी राज घरानों को ही खुश करने पर ध्यान दिया ।लेकिन जब इसमे सफल नहीं हुये तो अपना स्वतंत्र प्रयास शुरू किया । 
इस बीच इंग्लैंड से पादरी विलियम कैरी भारत आया । इसने इंग्लैंड में रहकर एक पुस्तक लिखी थी:"  हिंदुओं तथा अन्य विधर्मियों  को ईसाई बनाने की विधि "। 
उसने बंगाल में कोलकाता के आस पास आकर लोगों को ईसाई बनाने का अभियान छेड़ा । 
कुछ समय बाद ही उसकी भेंट  बनिए का यानी  साहूकारी का काम कर रहे युवक राम मोहन राय से हुई जो थोड़ी अरबी फारसी पढ़ा था और साहूकारी का धंधा कोलकाता में कर रहा था तथा विशेषकर कंपनी के लोगों को ब्याज पर रकम उधार देता था और अपना गुजारा ब्याज की रकम से चलाता था । इस तरह वह  कंपनी के लोगों से काफी घुल मिल गया था ॥ उसने  कैरी को बताया कि मैंने 9 साल की उम्र में ही अरबी और फारसी पढ़ी  है और संस्कृत भी  जानता हूं क्योंकि मैं एक बार बनारस भी घूम आया हूँ ।  पादरी विलियम कैरी को यह व्यक्ति बिल्कुल उपयुक्त लगा और उसने उसे ईस्ट इंडिया कंपनी मेंउसे  कुछ काम दिलाने का वचन दिया । कैरी की सिफ़ारिश पर  मुशीराबाद में कंपनी की अदालत में मुंशी का काम राममोहन राय करने लगा । जिस से कुछ कमाई अधिक होने लगी । पिता आर्थिक कष्ट मे थे सो उन्हे भी भेजने को कुछ बचत होने लगी । 
पादरी कैरी  और राममोहन राय ने मिलकर एक  जालसाजी से भरा ग्रंथ लिखा : " महानिर्वाण तंत्र " और यह बताया कि "महानिर्वाण तंत्र" भारतीय दर्शन का बहुत बड़ा ग्रंथ है जो कि ईसाइयत के सिद्धांतों को ही  संस्कृत में प्रस्तुत करता है और परमेश्वर के विषय में ईसाइयों की जो मान्यता है,  ठीक वही मान्यता महानिर्वाण तंत्र मे भी  ईश्वर की  है । 

इस समय तक राम मोहन राय अंग्रेजी नहीं जानता था और संस्कृत केवल कामचलाऊ जानता था।  उसने केवल मुंशीगिरी के लिए आवश्यक अरबी और फारसी ही सीखी थी इसलिए उसकी बातों को पादरी विलियम कैरी लिखता गया और यह पुस्तक रची गयी । अपनी जालसाज़ी छिपने के लिए कैरी ने मुंशी राममोहन को अरबी और संस्कृत दोनों का पंडित प्रचारित किया । राम मोहन भी इस जालसाज़ी मे पूरी तरह खुश था । 
 कंपनी का अनुबंधित अस्थायी मुलाजिम रहते हुए राममोहन राय ने एक अभियान छेड़ दिया कि  बंगाल में अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाई हो । इसके साथ ही उसने यह अभियान भी चलाया कि अंग्रेज लोग बंगाल में ज्यादा से ज्यादा संख्या में आकर बसें ।  उसके लिए भारतीयों के समक्ष यह तर्क  रखा कि देखो , यह लोग हमारा धन इंग्लैंड ले जाते हैं ,अगर यही रहेंगे तो हमारा धन यही रहेगा और वे यहीं पर व्यापार करेंगे । 
राममोहन की मदद से कंपनी ने एक एंग्लो संस्कृत स्कूल कोलकाता मे खोला , बाद मे उसे ही वेदान्त महाविद्यालय का नाम दिया जबकि वहाँ ईसाई सिद्धान्त ही वेदान्त कहकर पढ़ाये जाते थे । 
राममोहन राय फारसी के जानकार होने के कारण और कंपनी की प्रेरणा से तथा पादरी विलियम कैरी की प्रेरणा से अकबर शाह द्वितीय नामक जो मुगल खानदान का  वंशज दिल्ली में बचा था , उसके संपर्क में आया और उनका एक पत्र लेकर लंदन जाने का वादा किया । अकबर शाह द्वितीय अपनी पेन्सन बढ़ाने की अर्जी भेजना चाहता था । 
राम मोहन ने अकबर शाह द्वितीय  को समझाया कि इंग्लैंड में लोग तभी मेरी इज्जत करेंगे ,जब आप मुझे भी एक राजा की उपाधि देकर भेजें । 
तब 1830  ईसवी में पहली बार अकबर शाह द्वितीय ने  उसे कागज में राजा लिख दिया तथा अपना संदेश और अपनी विनती लिखकर लंदन मे भारत सचिव को देने के लिए राम मोहन राय को लंदन भेजा । इस बीच राममोहन राय ने ईसाई बपतिस्मा ले लिया था और भारत तथा लंदन आता जाता रहा । इस प्रकार जीवन के अंतिम 3 वर्ष मे वह कागज पर राजा कहलाता रहा । जबकि आजीवन वह एक कंपनी के अधीन एक अनुबंधित अस्थायी मुंशी था।  
अंत में 3  वर्षों बाद वह लंदन में मरा और ईसाई  पद्धति से दफनाया गया । कुछ समय बाद , जिस ईसाई कब्रिस्तान में उसे  दफनाया गया था , वहां के लोगों ने उसे इसके लायक नहीं माना और 9 साल बाद उसे उस कब्र से निकाल कर ब्रिस्टल मे एक दूसरे कब्रिस्तान की कब्र में फिर से 7 फुट गहरे गड्ढे में दफनाया गया । उस कब्रिस्तान के पादरी लोग प्रतिवर्ष 27  सितंबर को राम मोहन राय की स्मृति में प्रार्थना करने उस कब्र पर इकट्ठा होते हैं और नेहरू जी की प्रेरणा से तथा कांग्रेस शासन की योजना से भारतीय राजदूत वहां 1947 ईस्वी के बाद भी प्रतिवर्ष ईसाई कब्रिस्तान में पहुंचकर"  मृतक राम मोहन राय को ईसाई गॉड सद्गति दें" ,  इस प्रार्थना की सभा में शामिल होते हैं । कांग्रेसी लेखक उन्हे राजा राम मोहन राय लिखते हैं । 
राम मोहन राय की प्रेरणा से ईसाई पादरियों ने कोलकाता के आसपास लगभग आधे बंगाल में यह वातावरण बना दिया था कि  भारत में अंग्रेज बस जाएं , यह भारत के राजा और नवाब लोग चाहते हैं और इसीलिए उन्होंने राम मोहन राय को बहुत बड़ा पंडित और सम्पन्न व्यक्ति ,  दोनों बताया जबकि राम मोहन राय आजीवन अपने पिता की गरीबी से दुखी रहा करते और उन्हें कुछ आर्थिक मदद करने के लिए मुंशीगिरी  करते रहे । राममोहन राय ने यह अभियान छेड़ा कि भारत में अंग्रेजी माध्यम से ही शिक्षा हो,  यह आवश्यक है ।
इस बीच ईस्ट इंडिया कंपनी का महा प्रबंधक बनकर विलियम बेंटिक नामक एक महा बदमाश आया जिसकी जालसाजी की चर्चा स्वयं इंग्लैंड की संसद में बाद में हुई थी । उसने राम मोहन की तथा कुछ अन्य  बाँगालियों की मदद से,  विशेषकर प्रार्थना समाज और ब्रह्म समाज की मदद से , यह झूठी अफवाह फैलाई और लंदन में यह रिपोर्ट बारंबार फैलाई कि भारत में हर विधवा  स्त्री को जबरन सती कहकर जला  दिया जाता है और यहां बाल विवाह की कुप्रथा  मौजूद है । ताकि इंग्लैंड के सम्पन्न लोगों को लगे कि कंपनी भारत में जो कर रही है, वह अच्छा ही है। 
 ऐसा वातावरण बन जाने के बाद कंपनी का एक सलाहकार बन कर थॉमस बेबिंगटन  मैकाले नामक व्यक्ति  आया । इसके विषय मे भी भारत मे भारी झूठ फैलाया गया है । 
थॉमस बेबिंगटन मैकाले इंग्लैंड के लिसिस्टरशायर कस्बे में 1800 ईस्वी में पैदा हुआ था और उसने  कस्बे  के एक चर्च में ईसाई कानून की शिक्षा प्राप्त की।  कंपनी का कर्मचारी बन  कर वह 1834 ईस्वी में भारत आया । उसे यह जिम्मा दिया गया कि क्योंकि तुम ईसाई कानून के जानकार हो इसलिए हम जो जाली और फर्जी कोर्ट यहाँ  चलाते हैं,  उसमें कानूनी निर्णय के नाम पर की जा रही जालसाजी में हमारी मदद करो । 
कंपनी भारत में जो कोर्ट चलाती थी वह पूरी तरह जालसाजी और धोखाधड़ी थी और उसका न तो भारत के किसी विधि परंपरा से कोई संबंध था और ना ही स्वयं इंग्लैंड के किसी कानून के अनुसार वह कोर्ट चल रही थी । वह पूरी तरह  जालसाजी थी।  यह बात लंदन में वहां की संसद में वहां के अनेक माननीय सांसदों ने स्वयं प्रमाण सहित कही थी,  जिसके अभिलेख विद्यमान है। 
भारत के बहुत से पढे लिखे लोगों मे इतनी अधिक अंग्रेज़ भक्ति है कि श्रद्धा के  अतिरेक मे वे अंग्रेजों की हर बात को अधिकृत मानते हैं , उन्हे भी जिनहे स्वयम अंग्रेज़ लोग अधिकृत नहीं मानते । 
इंग्लैंड मे व्यापारियों को अपना प्रधान वहाँ के क्राउन को दिखाना पड़ता था परंतु कंपनी पूरी तरह निजी होती थी । केवल कमीशन शासन मे जमा करना होता  था  । 
1834 ईस्वी मे कंपनी का भारत मे यानी मुख्यतः बंगाल मे महा प्रबन्धक था बेंटिक। उसके अधीन विधि सलाहकार बनकर आया थॉमस बेबिंगटन मेकाले। उसे बेंटिक ने शिक्षा के कंपनी बजट  के सही उपयोग के लिए सुझाव देने कहा । जाहीर है , उस से यह अपेक्षा बेंटिक की थी  कि वह उसकी इच्छा के अनुरूप सुझाव दे सो उसने दे दिया । भारत मे मूढ़ या दास बुद्धि लोग उसे लॉर्ड मेकाले के प्रसिद्ध नोट के रूप मे याद करते हैं जिसे पढ़ सुनकर अंग्रेज़ लोग खूब हँसते हैं । 
केवल महा मूर्ख ही यह समझते हैं कि भारत की वर्तमान शिक्षा मेकाले के बताए रास्ते पर चल रही है । सचाई बिलकुल अलग है जिसकी हम यहाँ चर्चा करेंगे ।
सत्य यह है कि मेकाले को लॉर्ड बने गया 1857 ईस्वी मे यद्यपि वह  एक भी दिन हाउस ऑफ लॉर्डस   की  किसी मीटिंग मे भाग नहीं लिया ।
जिन दिनों फरवरी 1835 मे उसमे अपना प्रसिद्ध किया गया नोट लिखा , उन दिनों वह एक कंपनी ( जो भारत के टाटा या अंबानी की आज की  कंपनी से बहुत छोटी हैसियत की  थी ) के महाप्रबंधक का एक अधीनस्थ कर्मचारी मात्र था जिसने मालिक को खुश करने वाला नोट लिखा । उसने लिखा : -
"मैं न तो संस्कृत जानता , न ही अरबी । पर हमारे  परिचय मे जो इन भाषाओं के अध्येता हैं , उनसे चर्चा कर मैं  इस निष्कर्ष पर आया हूँ कि भारत का समस्त संस्कृत साहित्य और अरब का समस्त अरबी साहित्य  ( यहाँ वह मूर्ख फारसी के साहित्य को ही अरबी कह रहा है )मिलाकर भी किसी भी एक अच्छी यूरोपीय लाइब्ररी के एक शेल्फ मे रखी किताबों के सामने गुणवत्ता मे हल्का बैठेगा ।संस्कृत मे काव्य ही सर्वश्रेष्ठ  बताया जाता है पर अङ्ग्रेज़ी और अन्य युरपीय भाषा के बड़े कवियों के सामने वह बहुत हल्का है । ऐसा मी सब परिचित विद्वानों का मत है । सभी लौकिक और नैतिक विषयों मे यूरोपीय साहित्य इनसे बहुत उच्च कोटि का है  । "
अब यह वस्तुतः एक बाबू का नोट है जैसा आए दिन हर भारतीय मंत्री के समक्ष अधीनस्थ बाबू के नोट आते रहते हैं । उन पर "एक्शन " क्या लेना है , यह मंत्री जी को ज्ञात रहता है।  बेंटिक को भी ज्ञात था क्योंकि यह लिखा ही उसके संकेत पर गया था सो बेंटिक ने तदनुसार कंपनी के विद्यालयों मे छठी कक्षा  से अङ्ग्रेज़ी की पढ़ाई अनिवारी कर दी । 1813 ईस्वी मे जो थोड़ा सा बजट शिक्षा के लिए लोगों के दबाव मे रखा था , वह इस प्रकार बेंटिक की  इच्छा अनुसार अङ्ग्रेज़ी की शिक्षा मे ही व्यय किया जाने लगा । मेकाले ने इस शिक्षा के क्या गुण बताए थे , उसकी अतिरंजित चर्चा से सत्य छिपा दबा रह जाता है । 
यह नीति अनेक समान संस्तुतियों के साथ कंपनी 1857 तक चलाती रही 1858 से कंपनी के नियंत्रण तथा संधि वाले इलाकों मे  ब्रिटिश शासन लागू हो गया । 
तब 1882 मे विलियम विल्सन हंटर कमेटी बनी ।फिर कर्ज़न ने एक गुप्त बैठक शिक्षा पर की ।  उसने भी समान संस्तुति दी । प्राथमिक कक्षा से ही अङ्ग्रेज़ी ज्ञान करने पर ध्यान दिया जाने लगा । पर भारतीयों के प्रबल विरोध से यह सहमति बनी कि प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा से हो।  फिर छठी से अङ्ग्रेज़ी  हो । 
 इस बीच इंग्लैंड जाकर पढ़ने वाले लोग शांतिपूर्ण आंदोलन के नेता बने जो अङ्ग्रेज़ी शिक्षा के परम प्रशंसक बने रहे । 
स्वामी श्रद्धानंद जी ने 1902 मे भारतीय पद्धति से ज्ञान के लिए गुरुकुल काँगड़ी विश्व विद्यालय स्थापित किया । इसी वर्ष 1902 मे अंग्रेजों ने भारतीय विश्वविद्यालय आयोग बनाया । 1916 तक 5 विश्व विद्यालय खोल दिये गए । इनके समानान्तर आर्य समाज ने गुरुकुल पद्धति के विकास पर ज़ोर दिया पर उसे अंग्रेज़ शासन ने अपनी नीति मे स्थान नहीं दिया । महामना मालवीय जी ने सनातन धर्म महामंडल के अधिवेशन मे हिन्दू विश्व विद्यालय का प्रारूप प्रस्तुत किया जिसे सभी हिन्दू राजाओं रानियों और धर्माचार्यों ने समर्थन दिया ।  बाद मे कांग्रेस के अधिवेशन मे भी उन्होने अपनी योजना रखी । मालवीय जी ने हिन्दू राजाओं से सलाह कर इस विश्व विद्यालय को प्रारम्भ मे अङ्ग्रेज़ी मधायम से शिक्षा का केंद्र बनाकर धीरे धीरे हिन्दी को अपनाने की घोषणा की । देश भर से सहयोग मिला और यह विश्व विद्यालय1916 ईस्वी मे  स्थापित हो गया । 
इसके बाद 6  और विश्वविद्यालय  अंग्रेजों ने खोले । मैसूर,  हैदराबाद , पटना  , अलीगढ़ , लखनऊ , ढाका मे । राष्ट्रीय भावना से काशी विद्यापीठ , तिलक विद्यापीठ , गुजरात विद्यापीठ और बिहार विद्यापीठ बनी । परंतु मूल धारा अंग्रेजों की बहाई ही बहती रही । 

15 अगस्त 1947 के बाद शासन ने भारतीय विश्वविद्यालय आयोग बनाया । अनेक विश्व विद्यालय  बनते और चलते रहे ।सब अंग्रेजों की चलायी धारा मे ही । 
परंतु यह स्पष्ट होना चाहिए कि विगत 70 वर्षों मे जो भी शिक्षा नीति बनी है , वह भारत के शासकों ने ही बनाई है । उसका मेकाले से कोई संबंध नहीं है  । 
वस्तुतः श्री  जवाहरलाल नेहरू सोवियत  संघ से प्रभावित थे और उन्होने शिक्षा पर पूर्ण राजकीय नियंत्रण आवश्यक माना । साथ ही भारतीय ज्ञान परंपर को बासी और पुरानी मानकर अंग्रेजों द्वारा चलायी शिक्षा ही और विस्तार के साथ फैला दी ।इसका कोई भी संबंध मेकाले से नहीं है , इसका संबंध नेहरू जी और भारतीय शासकों से है । यह अभारतीय रहे , यह निर्णय भारत के शासकों का है । वे जब चाहेंगे , शिक्षा को भारतीय बना देंगे क्योंकि भारत मे भारतीय शिक्षा पूर्ण रूप से विलुप्त नहीं हुयी है । अनेक गुरुकुलों मे वह मोटे रूप मे विद्यमान है । उसका और  परिष्कार सहज ही संभव है ।

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