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रविवार, 13 नवंबर 2022

धर्मग्रंथ रोज सुबह नहा धो कर सिर्फ पुण्य कमाने के उद्देश्य से पढ़ने के लिए ही नहीं होते ..

एक गहरी सोच वाली पोस्ट है। 

अपने धर्मग्रंथों को पढ़िए , ये सारे राक्षसों के वध से भरे पड़े हैं. 

राक्षस भी ऐसे-२ वरदानों से प्रोटेक्टेड थे कि दिमाग घूम जाए...















एक को वरदान प्राप्त था कि वो न दिन में मरे, न रात में, न आदमी से मर , न जानवर से, न घर में मरे, न बाहर, न आकाश में मरे, न धरती पर...

तो दूसरे को वरदान था कि वे भगवान भोलेनाथ और विष्णु के संयोग से उत्पन्न पुत्र से ही मरे.

तो, किसी को वरदान था कि... उसके शरीर से खून की जितनी बूंदे जमीन पर गिरें ,उसके उतने प्रतिरूप पैदा हो जाएं.

तो, कोई अपने नाभि में अमृत कलश छुपाए बैठा था.

लेकिन... हर राक्षस का वध हुआ.

हालाँकि... सभी राक्षसों का वध अलग अलग देवताओं ने अलग अलग कालखंड एवं भिन्न भिन्न जगह किया...

लेकिन... सभी वध में एक  बात कॉमन रही और वो यह कि... किसी भी राक्षस का वध उसका वरदान विशेष  निरस्त कर अर्थात उसके वरदान को कैंसिल कर के नहीं किया गया...
ये नहीं किया गया कि, तुम इतना उत्पात मचा रहे हो इसीलिए तुम्हारा वरदान कैंसिल कर रहे हैं..
और फिर उसका वध कर दिया.

बल्कि... हुआ ये कि... देवताओं को उन राक्षसों को निपटाने के लिए उसी वरदान में से रास्ता निकालना पड़ा कि इस वरदान के मौजूद रहते हम इनको कैसे निपटा सकते हैं.

और अंततः कोशिश करने पर वो रास्ता निकला भी... 
 सब राक्षस निपटाए भी गए.

तात्पर्य यह है कि... परिस्थिति कभी भी अनुकूल होती नहीं है,   अनुकूल बनाई जाती हैं.

आप किसी भी एक राक्षस के बारे में सिर्फ कल्पना कर के देखें कि अगर उसके संदर्भ में अनुकूल परिस्थिति का इंतजार किया जाता तो क्या वो अनुकूल परिस्थिति कभी आती ??

उदाहरण के लिए चर्चित राक्षस रावण को ही ले लेते हैं.

रावण के बारे में ये विवशता   कही जा सकती थी कि... 
भला रावण को कैसे मार पाएंगे?
 पचासों तीर मारे और बीसों भुजाओं व दसों सिर भी काट दिए..
लेकिन, उसकी भुजाएँ व सिर फिर जुड़ जाते हैं तो इसमें हम क्या करें ???

इसके बाद अपनी असफलता का सारा ठीकरा ऐसा वरदान देने वाले ब्रह्मा पर फोड़ दिया जाता कि... उन्होंने ही रावण को ऐसा वरदान दे रखा है कि अब उसे मारना असंभव हो चुका है.

और फिर.. ब्रह्मा पर ये भी आरोप डाल दिया जाता कि जब स्वयं ब्रह्मा रावण को ऐसा अमरत्व का वरदान देकर धरती पर राक्षस-राज लाने में लगे हैं तो भला हम कर भी क्या सकते हैं? 

लेकिन... ऐसा हुआ नहीं ... 
बल्कि, भगवान राम ने उन वरदानों के मौजूद रहते हुए ही रावण का वध किया.

*क्योंकि, यही "सिस्टम" है.*

तो... पुरातन काल में हम जिसे वरदान कहते हैं... आधुनिक काल में हम उसे संविधान द्वारा प्रदत्त स्पेशल स्टेटस कह सकते हैं...
जैसे कि... अल्पसंख्यक स्टेटस, पर्सनल बोर्ड आदि आदि.

इसीलिए... आज भी हमें राक्षसों को इन वरदानों (स्पेशल स्टेटस) के मौजूद रहते ही निपटाना होगा.. 
जिसके लिए इन्हीं स्पेशल स्टेटस में से लूपहोल खोजकर रास्ता निकालना होगा.

और, आपको क्या लगता है कि... इनके वरदानों (स्पेशल स्टेटस) को हटाया जाएगा...

क्योंकि, हमारे पौराणिक धर्मग्रंथों में ऐसा एक भी साक्ष्य नहीं मिलता कि किसी राक्षस के स्पेशल स्टेटस (वरदान) को हटा कर पहले परिस्थिति अनुकूल की गई हो तदुपरांत उसका वध किया गया हो.

और, जो हजारों लाखों साल के इतिहास में कभी नहीं हुआ... अब उसके हो जाने में संदेह लगता है.

*परंतु... हर युग में एक चीज अवश्य हुई है...*
*और, वो है राक्षसों का विनाश.*
*एवं, सनातन धर्म की पुनर्स्थापना*.

इसीलिए... इस बारे में जरा भी भ्रमित न हों कि ऐसा नहीं हो पायेगा.

लेकिन, घूम फिर कर बात वहीं आकर खड़ी हो जाती है कि.... भले ही त्रेतायुग के भगवान राम हों अथवा द्वापर के भगवान श्रीकृष्ण..

राक्षसों के विनाश के लिए हर किसी को जनसहयोग की आवश्यकता पड़ी थी.

और, जहाँ तक धर्मग्रंथों के सार की बात है
तो वो भी यही है कि हर युग में राक्षसों के विनाश में सिर्फ जनसहयोग की आवश्यकता   पड़ती है..

ये इसीलिए भी पड़ती है ताकि... राक्षसों के विनाश के बाद जो एक नई दुनिया बनेगी... 
उस नई दुनिया को उनके बाद के लोग संभाल सके, संचालित कर सकें.

नहीं तो इतिहास गवाह है कि.... बनाने वालों ने तो भारत में आकाश छूती इमारतें और स्वर्ग को भी मात देते हुए मंदिर बनवाए थे... 

लेकिन, उसका हश्र क्या हुआ ये हम सब जानते हैं.

इसीलिए... राक्षसों का विनाश जितना जरूरी है...
उतना ही जरूरी उसके बाद उस धरोहर को संभाल के रखने का भी है.

और... अभी शायद उसी की तैयारी हो रही है.

*अर्थात... सभी समाज को गले लगाया जा रहा है.. और, माता शबरी को उचित सम्मान दिया जा रहा है.*

वरना, सोचने वाली बात है कि जो रावण ... पंचवटी में लक्ष्मण के तीर से खींची हुई एक रेखा तक को पार नहीं कर पाया था...भला उसे पंचवटी से ही एक तीर मारकर निपटा देना क्या मुश्किल था? 

अथवा... जिस महाभारत को श्रीकृष्ण सुदर्शन चक्र के प्रयोग से महज 5 मिनट में निपटा सकते थे भला उसके लिए 18 दिन तक युद्ध लड़ने की क्या जरूरत थी? 

लेकिन... रणनीति में हर चीज का एक महत्व होता है... जिसके काफी दूरगामी परिणाम होते हैं.

इसीलिए...  कभी भी उतावलापन नहीं होना चाहिए.
और फिर वैसे भी कहा जाता है कि *जल्दी का काम शैतान का*

क्योंकि,  ये बात अच्छी तरह मालूम है कि.... रावण, कंस, दुर्योधन, रक्तबीज और हिरणकश्यपु आदि का विनाश तो निश्चित है तथा यही उनकी नियति है..!!
*लंका जल रही है,*
*अयोध्या सज रही है और शबरी राष्ट्रपति बन गई है इतिहास से सीख लेकर कार्य जारी है!*

जय महाकाल, जय सनातन जय मौलिक भारत...!!!

*नोट : धर्मग्रंथ रोज सुबह नहा धो कर सिर्फ पुण्य कमाने के उद्देश्य से पढ़ने के लिए ही नहीं होते ..*
*बल्कि, हमारे धर्मग्रंथों के रूप में हमारे पूर्वज/देवताओं ने अपने अनुभव हमें ये बताने के लिए लिपिबद्ध किया ताकि आगामी पीढ़ी ये जान सके कि अगर फिर कभी ऐसी स्थिति उत्पन्न हो तो उससे कैसे निपटा जाए.
🙏🙏🙏🌷
नमः अस्ते 🕉️🙏🙏🕉️

शनिवार, 12 नवंबर 2022

हर एक भारतीय नारी का एक महत्वपूर्ण आभूषण है " मंगलसूत्र "

*मंगलसूत्र* 
     हिन्दू सनातन धर्ममे त्योहारों ओर रीति रिवाजों के पीछे कोई न कोई लाभदायी रहस्य या आरोग्य की दरकार करने वाला तथ्य होता है । समय समय पर उनमें अज्ञानता से किये बदलाव या स्थल काल से विपरीत उपयोग लाभदायी नही रहता । इसलिए लोगो को ये अंधश्रद्धा या फुजूल रिवाज लगता है । 

    हर एक भारतीय नारी का एक महत्वपूर्ण आभूषण है " मंगलसूत्र " । दांपत्य ओर कुटुंब परम्परामे सबसे ज्यादा जिम्मेदारी के साथ सतत कार्यशील रहने का भार परिवार की स्त्री पर होता है । घरकी साफ सफाई , भोजन व्यवस्था , सासु स्वसुर पति की सेवा , बच्चों को जन्म देना और उनकी परवरिश .... ऐसे देखा जाय तो बाकी पात्रों से दसगुना कार्य स्त्री के हिस्सेमें आता है । ऐसेमें स्त्री के शरीरमे ज्यादा जोश , शक्ति , दृढ़ मनोबल , सहनशक्ति की जरूरत होती है । इसलिए हमारे ऋषिमुनियों ने स्त्री को शाक्तवन बनाने केलिए जोश , उमंग , शक्ति , मक्कम मनोबल के कारक ग्रह " मंगल देवता " की विशेष कृपा हेतु " मंगलसूत्र " का अविष्कार किया । कन्या की जब शादी होती है तब पति द्वारा उनके गलेमें मंगलसूत्र पहनाया जाता है । मंगलसूत्र सुहागन की निशानी है और पति प्रेम का प्रतीक है । 

   मंगलसूत्र मतलब मंगल का धागा । मंगल का रंग लाल है इसलिए लाल कलर का धागा  मंगल सूत्र है । गुरु को भी स्वामी माना जाता है और सुखी दाम्पत्य जीवन केलिए गुरु ( बृहस्पति ) की विशेषकृपा भी आवश्यक है इसलिए कुछ कुछ प्रांतोमे पीले रंग के धागेमे लाल रंग के मोती परोके मंगलसूत्र बनाया जाता है । अगर धनवान हो तो सोने का पैडल ओर लाल रंगके मोती से भी मंगल सूत्र बनाया जाता है । मंगलसूत्र धारण करने से स्त्री के शरीर मे मंगल और गुरु ग्रह देवता की असर से विशेष परिवर्तन देखा जाता है और स्त्री स्वयं भी इसे महसूस करती है । 

*  स्त्री और पुरुष की तुलनामे स्त्री के शरीरमे खून कम होता है जो मंगल की कृपासे सरभर होता है

* मंगल की कृपासे स्त्री के शरीरमे प्रजनन शक्ति बढ़ती है । 

* मंगल की कृपासे दृढ़ मनोबल के साथ सहन शक्ति बढ़ती है । 

* मंगल की कृपासे अपने पति के प्रति अपार स्नेह रहता है जो सुखी दाम्पत्य की महत्तम जरूरत है । 

* मंगल और गुरु दोनों की कृपासे सत्य , दया , प्रेम जैसे सद्गुण आत्मसात होते है । 

* मंगल और गुरु की कृपासे देहमें लावण्य ओर सुंदरता बढ़ती है । 

    मतलब सुखी परिवार और कुटुंब जीवन केलिए परिवार की स्त्री को सक्षम बनाने केलिए मंगलसूत्र प्रथा दी गयी है । आजकल पता नही फैशन के कारण या कोई और  अज्ञात कारणवश कही प्रांतोमे काले रंग के मोतियों से मंगल सूत्र बनाने लगे है । कोई कोई विशेषज्ञ उसे शिव शक्ति का प्रतीक कहते है । पर ये बात तर्क संगत भी नही है । क्योंकि एक स्त्री  और पुरुष का जोड़ा स्वयं ही शिव शक्ति माने जाते है फिर मंगल सूत्रमे उनके प्रतीक का क्या काम ? काला रंग तो शनि का कारक है । ओरो की बुरी नजर से बचने केलिए काला धागा कहि ओर भी बांध सकते है या काला टिका भी लगाया जाता है । मंगलसूत्रमे अशुभ काला रंग ये तर्क संगत नही है । पर आजकल तो सोने के साथ काले मोती फैशन ही बन गयी है । सबके अपने अपने विचार । मानसिक ट्रेस , कुटुंब कलह , शारीरिक रोग , वांजपन , डिवोर्स जैसी अनेक समस्याओं के हल के स्वरूपमे भी मंगलसूत्र या लाल - पिला रंग उपयोगी है  तो यही सही । कलर थेरपी भी विज्ञान सम्मत सफल थेरपी ही है । 

      आजकल तो हरकोई बिना कुछ समजे शिवशक्ति के प्रतीक की बाते कर देते है । सतयुग से आजतक अगर इसे मंगलसूत्र कहते है तो सहज है ये मंगल की कृपा केलिए बनाया सूत्र ही है ।

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बात वो नहीं जिसके चर्चे उङ रहे हैं.. महंगाई नही साहब खर्चे बढ गए हैं..*

*बात वो नहीं जिसके चर्चे उङ रहे हैं..*
*महंगाई नही साहब खर्चे बढ गए हैं..*


पहले नानी के घर मनती थी छुट्टियां
आम-अमरूद खाकर मनती थी छुट्टियां
अब तो गोआ मनाली के ट्रिप लग रहे हैं
*महंगाई नही साहब खर्चे बढ गए हैं...*

सरे राह रोज यूं ही नही मिलते थे लोग
पहले मीलो मील पैदल चलते थे लोग
आज दो कदम जाने को कैब बुक कर रहे हैं 
*महंगाई नही साहब खर्चे बढ गए हैं...*


घर में बने खाने पर स्वाद लेकर इतराते थे हम
नमक संग रोटी भी खुशी-खुशी खाते थे हम
अब तो हर वीकेंड सब होटल में दिख रहे हैं
*महंगाई नही साहब खर्चे बढ गए हैं...*

दो जोङी कपङे में पूरा साल निकलता था 
बस दिवाली के दिन नया जोङा सिलता था
अब तो शौक-फैशन के लिए शापिंग कर रहे हैं
*महंगाई नही साहब खर्चे बढ गए हैं...*

एक टीवी से पूरा मोहल्ला चलता था
एक दूरदर्शन से पूरा घर बहलता था 
अब तो चैनलो और वेब के जाल में फंस गए हैं
*महंगाई नही साहब खर्चे बढ गए हैं...*

पैंतीस पैसे के पत्र का इंतजार रहता था
और पत्र के अंदर हरेले का त्योहार रहता था
अब तो बस सब के हाथो में मोबाइल दिख रहे हैं
*महंगाई नही साहब खर्चे बढ गए हैं...*

नानी बाई का मायरा"


*"नानी बाई का मायरा"*

नानी बाई ने (मायरा) भात भरने के लिए 
नरसी जी को बुलाया. 
नरसी जी के पास भात भरने के लिए 
कुछ नहीं था. 
वह निर्धन थे लेकिन भगवन की भक्ति का खजाना भरपूर था. 
वो कहते थे कि -हम्हे अपनी चिंता कियो करनी, हमारी चिंता करने के लिए भगवान बैठे हैं. 

जब नरसी जी के पास भात का सन्देश आया 
तो सामानों की लिस्ट देखकर चिंतित हो उठे 
और आर्त भाव से अपने भगवान को पुकारा -
“हे साँवरिया सेठ! हे गिरधारी !
नरसी मेहता को तो कोई नहीं जाने, 
तुमको जाने है संसार,
चिट्ठी मेरी आई है सावंर सरकार.”

सुलोचना बाई नानी बाई की पुत्री थी, 
सुलोचना बाई का विवाह जब तय हुआ था; 
तब नानी बाई के ससुराल वालों ने यह सोचा कि नरसी एक गरीब व्यक्ति है 
तो वह शादी के लिये भात नहीं भर पायेगा, उनको लगा कि अगर वह साधुओं की टोली को लेकर पहुँचे तो उनकी बहुत बदनामी हो जायेगी, इसलिये उन्होंने एक बहुत लम्बी सूची भात के सामान की बनाई !
उस सूची में करोड़ों का सामान लिख दिया गया जिससे कि नरसी उस सूची को देखकर 
खुद ही न आये।

नरसी जी को निमंत्रण भेजा गया !
साथ ही मायरा भरने की सूची भी भेजी गई ,
परन्तु नरसी के पास केवल एक चीज़ थी -
वह थी श्री कृष्ण की भक्ति, 
इसलिये वे उन पर भरोसा करते हुए 
अपने संतों की टोली के साथ सुलोचना बाई को आर्शिवाद देने के लिये अंजार नगर पहुँच गये, उन्हें आता देख नानी बाई के ससुराल वाले 
भड़क गये और उनका अपमान करने लगे, 
अपने इस अपमान से नरसी जी व्यथित हो गये और रोते हुए श्री कृष्ण को याद करने लगे, 
नानी बाई भी अपने पिता के इस अपमान को बर्दाश्त नहीं कर पाई और 
आत्महत्या करने दौड़ पड़ी !
परन्तु श्री कृष्ण ने नानी बाई को रोक दिया 
और उसे यह कहा कि कल वह स्वयं 
नरसी के साथ मायरा भरने के लिये आयेंगे।

बारह घंटे हुई स्वर्ण वर्षा :-

दूसरे दिन नानी बाई बड़ी ही उत्सुकता के साथ श्री कृष्ण और नरसी जी का इंतज़ार करने लगी! और तभी सामने देखती है कि 
नरसी जी संतों की टोली और 
कृष्ण जी के साथ चले आ रहे हैं 
और उनके पीछे ऊँटों और घोड़ों की लम्बी कतार आ रही है जिनमें सामान लदा हुआ है, 
दूर तक बैलगाड़ियाँ ही बैलगाड़ियाँ 
नज़र आ रही थी, 
ऐसा मायरा न अभी तक किसी ने 
देखा था न ही देखेगा!
यह सब देखकर ससुराल वाले 
अपने किये पर पछताने लगे, 
उनके लोभ को भरने के लिये द्वारिकाधीश ने बारह घण्टे तक स्वर्ण मुद्राओं की वर्षा की, 
नानी बाई के ससुराल वाले 
उस सेठ को देखते ही रहे 
और सोचने लगे कि कौन है ये सेठ 
और ये क्यों नरसी जी की मदद कर रहा है, 
जब उनसे रहा न गया तो उन्होंने पूछा कि 
कृपा करके अपना परिचय दीजिये 
और आप क्यों नरसी जी की सहायता कर रहे हैं।

भक्त के बस में हैं भगवान :-

उनके इस प्रश्न के उत्तर में जो जवाब सेठ ने दिया, वही इस कथा का सम्पूर्ण सार है !
तथा इस प्रसंग का केन्द्र भी है, 
इस उत्तर के बाद सारे प्रश्न 
अपने आप ही समाप्त हो जाते हैं, 
सेठ जी का उत्तर था ...

’मैं नरसी जी का सेवक हूँ !
इनका अधिकार चलता है मुझपर !
जब कभी भी ये मुझे पुकारते हैं ,
मैं दौड़ा चला आता हूँ इनके पास, !
जो ये चाहते हैं; मैं वही करता हूँ !
इनके कहे कार्य को पूर्ण करना ही 
मेरा कर्तव्य है।"

ये उत्तर सुनकर सभी हैरान रह गये 
और किसी के समझ में कुछ नहीं आ रहा था !
बस नानी बाई ही समझती थी कि 
उसके पिता की भक्ति के कारण ही 
श्री कृष्ण उससे बंध गये हैं ,
और उनका दुख अब देख नहीं पा रहे हैं 
इसलिये मायरा भरने के लिये स्वयं ही आ गये हैं, इससे यही साबित होता है कि भगवान केवल अपने भक्तों के वश में होते हैं..!!
   *🙏🙏🏽🙏🏿जय जय श्री राधे*🙏🏻🙏🏼🙏🏾

कूटने की परम्परा - जब से हमने कूटना छोड़ा है, तब से हम सब बीमार होने लग गए



🍂कूटने की परम्परा  ✧😅😅

  कल एक बुजुर्ग से एक आदमी ने पूछा, कि 
     पहले इतने लोग बीमार नहीं होते थे,
           जितने आज हो रहे हैं...?

    तो बुजुर्ग ने अपने तजुर्बे से बोला ~
   भाईजी ! पहले कूटने की परंपरा थी,
जिससे इम्यूनिटी पावर मजबूत रहता था....

★  *पहले हम हर चीज को कूटते थे*. ★
   *जब से हमने कूटना छोड़ा है, तब से* 
    *हम सब बीमार होने लग गए*.🍂

   *जैसे* ... *पहले खेत से अनाज को* 
               *कूट कर घर लाते थे*.
     *घर में मिर्च मसाला कूटते थे*,🍂

     *कभी-कभी तो बड़ा भाई भी*
   *छोटे को कूट देता था, और जब* 
      *छोटा भाई उसकी शिकायत*
        *माँ से करता था, तो माँ*
      *बड़े भाई को कूट देती थी*.

 🍂  *और कभी-कभी तो दादाजी भी* 
           *पोते को कूट देते थे*.

   *यानी कुल मिलाकर .... दिन भर*
  *कूटने का काम चलता रहता था*.

      *कभी माँ , बाजरा कूट कर* 
       *शाम को खिचड़ी बनाती*.🍂

  *पहले हम कपड़े भी कूट कर धोते थे*.
     *स्कूल में मास्टरजी भी कूटते थे*.
     *जहाँ देखो वहाँ पर कूटने का काम*
         *चलता रहता था, इसीलिए*
   🍂   *बीमारी नजदीक नहीं आती थी*.

          *सबका इम्यूनिटी पावर*
             *मजबूत रहता था*.

        *जब कभी बच्चा सर्दी में* 
        *नहाने से मना करता था*, 
        *तो माँ , पहले कूटकर*
    *उसका इम्यूनिटी पावर बढ़ाती थी*,
         *और फिर नहलाती थी*.
            *वर्तमान समय में*
    *इम्यूनिटी पावर बढ़ाने के लिए* 
          *कूटने की परंपरा* 
      *फिर से चालू होनी चाहिए*.
😂😂😂😂

तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री और प्रसिद्ध स्टार जयललिता ने जीवित रहते हुए कभी दिवाली नहीं मनाई। आप जानते हो क्यों?



तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री और प्रसिद्ध स्टार जयललिता ने जीवित रहते हुए कभी दिवाली नहीं मनाई। आप जानते हो क्यों?
1790 नरक चतुर्दशी के मध्यरात्रि थी l टीपू सुल्तान के पास सबसे वफादार और क्रूर साथियों की एक सेना थी, जो मेलुकोट के श्री चेलुवरया स्वामी के मंदिर में प्रवेश करती है।

वहीं नरक चतुर्दशी के अवसर पर आयोजित भगवान जुलूस में लगभग 1000 श्रद्धालु शामिल हुए थे । रात की पूजा के बाद वे आराम करने की तैयारी कर रहे थे। टीपू ने आकर मंदिर के सभी द्वार बंद कर दिए और 1000 भक्तों में से 800 लोगों को बंद कर दिया और अपनी सेना के बल से नरसंहार किया यहां तक बच्चों को भी नहीं बख्शा।  जनानखाने के लिए बाकी  200  महिलाओं को गिरफ्तार कर लिया।
अगली सुबह दीपावली पद्य का दिन था। वह मेलुकोट मंदिर को तोड़ दिया और उसकी विशाल संपत्ति को लूट लिया l मंदिरा का ख़ज़ाना इतना था कि ले जाने के लिए 26 हाथियों और 180 घोड़ों की जरूरत पड़ी थी । सारे खजाने ले जाने में 3 दिन लगे थे l

यही कारण है कि आज भी मेलुकोटे के कई परिवार (मांड्याम अयंगर कहलाते हैं) उस अंधेरी दिवाली की भयानक घटनाओं के कारण इस त्योहार को नहीं मना रहे हैं।

*जयललिता भी इसी समुदाय की थीं* इसलिए उन्होंने कभी दिवाली का त्योहार नहीं मनाया।  उनके पूर्वज (मेलकोट अयंगर) 800 लोग नरसंहारों में मारे गए थे? वह कैसे भूल सकती थी l

कित्तूर चेन्नम्मा के राज्य में 1.40,000 हिंदू जिन्होंने धर्मांतरण से इनकार कर दिया था, वो टीपू सुल्तान के हाथों मारे गए थे l

2. 10,000 ब्राह्मण जिन्होंने धर्मांतरण से इनकार कर दिया, उनका केरल राज्य में जबरन 'खतना' किया गया।

3. हिंदू महिलाओं का अपनी इच्छानुसार उपयोग करना और फिर उन्हें अपने सैनिकों को पुरस्कार के रूप में देने की प्रथा बहुत दिनों तक चलाई।

4. 20 साल के लड़कों को बनाया गया हिजड़ा, इसके प्रमाण उपलब्ध हैं।

5. कोडागु के हिंदुओं का नरसंहार किया गया।

टीपू के पिता हैदर अली  तिरुपति कल्याण वेंकटेश्वर की विशाल संपत्ति को लूट लिया था l

टीवी सीरियलों में टीपू को एक देशभक्त और कुशल प्रशासक के रूप में चित्रित करने वाले धर्मनिरपेक्षतावादी। देखिए टीपू की मशहूर तलवार पर उर्दू में क्या लिखा है:

*"मुस्लिम नायक जिसने काफिरों का कत्लेआम किया"*
“My victorious sabre is lightning for the destruction of the unbelievers.”Haidar, the Lord of the Faith, is victorious for my advantage. And moreover, he destroyed the wicked race who were unbelievers. Praise be to him, who is the Lord of the Worlds! Thou art our Lord, support us against the people who are unbelievers

हमें टीपू सुल्तान को फिर से समझना चाहिए।अपनी सल्तनत बचाने के लिए टीपू ने फ्रांसीसी मदद लेकर ब्रिटिश फौजों का सामना किया लेकिन टीपू सुल्तान हिंदुओं का क़ातिल था हिंदुत्व को मिटाने के लिए उसने इंतिहा जुल्म किए। ऐसे नरपिशाच राक्षस का महिमा मंडन करके कांग्रेस ने बहुत बड़ी ऐतिहासिक गलती की है।
इतिहास की किताबों में टीपू सुल्तान को एक सुंदर, गंभीर, शांत और बहादुर व्यक्ति के रूप में दर्शाया गया है। लेकिन लंदन के पुस्तकालय में टीपू की वास्तविक छवि बहुत अलग है।

टीपू सुल्तान का इतिहास इस बात का एक अच्छा उदाहरण है कि कैसे कांग्रेस और वामपंथियों ने भारत के इतिहास को विकृत किया है।

रूप में दानव कहे जाने वाले इस सुल्तान ने न केवल मेलुकोट मंदिर बल्कि दक्षिण भारत के लगभग 25 मंदिरों की संपत्ति लूटा था l

टीपू हमेशा बड़े-बड़े त्योहारों पर नरसंहार और धन की लूट की घटनाओं को अंजाम देता था। क्योंकि वह अच्छी तरह जानता था कि उन दिनों भक्त बड़ी संख्या में इकट्ठा होते थे और उन सभी के पास अधिक धन और प्रसाद के रूप में चांदी और सोना होता था। उन दिनों मंदिर में ही सारा धन और अनाज इकट्ठा करने की प्रथा थी।
शलीभद्र एस जैन संगीता वर्मा  की वाल से कॉपीड

मंगलवार, 8 नवंबर 2022

पाप कहां जाते हैं




*पाप कहां जाते हैं*



एक बार एक ऋषि ने सोचा की लोग पाप धोने के लिए सभी लोग गंगा जाते हैं। ऐसे में सारे पार गंगा में ही समा जाते हैं। इस तरह तो गंगा भी पापी हो जाएगी। 

उस ऋषि ने यह जानने के लिए आखिर पाप जाता कहां है, तपस्या की।

तपस्या करने के फलस्वरूप देवगण प्रकट हुए। तब ऋषि ने उनसे पूछा कि गंगा में जो पापा धोया जाता है वह कहां जाता है। 

तब भगवान ने कहा कि चलो गंगा जी से ही पूछते हैं इस बारे में। 

ऋषि और भगवान दोनों ने ही गंगा जी से पूछा कि हे गंगे! सब लोग तुम्हारे यहां पाप धोते हैं तो इसका मतलब क्या आप भी पापी हुईं?

तब गंगा ने कहा कि मैं कैसे पापी हो गई। मैं तो सभी पाप लेकर समुद्र को अर्पित कर देती हूं। 

इसके बाद ऋषि और भगवान समुद्र के पास गए और उनसे पूछा कि हे सागर! गंगा सभी पाप आपको अर्पित कर देती है तो क्या आप पापी हो गए?

तब समुद्र ने कहा कि वो कैसे पापी हुआ। वो सभी सभी पाप को भाप बनाकर बादल बना देता है। 

अब ऋषि और भगवान दोनों ही बादल के पास गए। उनसे पूछा कि हे बादल! समुद्र पापों को भाप बनाकर बादल बना देते हैं तो क्या आप पापी हुए?

बादलों ने कहा, मैं कैसे पापी हुआ। मैं तो सभी पाप को वापस पानी बना देता हूं और धरती पर गिरा देता हूं। 

इससे ही अन्न उपजता है। इसे ही मानव खाता है। 

उस अन्न में जो अन्न जिस मानसिक स्थिति से उगाया जाता है और जिस वृत्ति से प्राप्त किया जाता है और जिस मानसिक अवस्था में खाया जाता है उसी के आधार पर मानव की मानसिकता बनती है।

यही कारण है कि कहा जाता है कि 'जैसा खाए अन्न, वैसा बनता मन।' 

जिस वृत्ति से अन्न प्राप्त किया जाता है और जिस मानसिक अवस्था में खाया जाता है, वैसा ही विचार मानव का बन जाता है। 

*ऐसे में हमेशा भोजन शांत रहकर ही ग्रहण करना चाहिए। अन्न जिस धन से खरीदा जाए वह धन भी श्रम का होना चाहिए।* 

*🙏राधे ❤️  राधे 🙏*

प्राचीन भारत के १५ विश्वविद्यालय जिसके कारण भारत विश्वगुरु कहलाता था

प्राचीन भारत के १५ विश्वविद्यालय जिसके कारण भारत विश्वगुरु कहलाता था


भारत के इतिहास्यकार और तथाकथित बुद्धिजीवी हमें समझाते हैं कि क्षत्रिय और ब्राह्मण खुद पढ़ता लिखता था पर तुमलोगों को शिक्षा नहीं देता था क्योंकि तुमलोग शूद्र हो. संस्कृत सवर्णों कि भाषा थी, ब्राह्मण तुम्हे संस्कृत नहीं पढने देते थे. क्या सचमुच ऐसा था? आइये पता करते हैं.

तक्षशिला विश्वविद्यालय में पूरे विश्व के लोग शिक्षा ग्रहण करने आते थे और चन्द्रगुप्त मौर्य भी वहीँ का विद्यार्थी था. पर उपर्युक्त लोग तो चन्द्रगुप्त मौर्य को क्षत्रिय नहीं मानते हैं? नालंदा और बिक्रमशिला विश्वविद्यालयों में भी पूरे विश्व के लोग शिक्षा ग्रहण करने आते थे. क्या वे क्षत्रिय और ब्राह्मण थे? ये लोग तो यहाँ तक कहते हैं नालंदा, बिक्रमशिला बौद्ध विहार था यानि बौद्धों का शिक्षालय. तो क्या बुद्धिष्ट शिक्षक केवल क्षत्रियों और ब्राह्मणों को ही शिक्षा देते थे? आठवीं शताब्दी का बौद्धधर्मी शासक धर्मपाल ने करीब ५० विद्यालय स्थापित किये थे जिसमें कुछ विश्वविद्यालय भी थे. क्या उसने ये सब क्षत्रियों और ब्राह्मणों केलिए बनबाये थे? विदेशी यात्रियों के वर्णन और खुद अरबी यात्रियों के वर्णन में आता है कि “भारतीय शिक्षित और कुशल होते हैं.” अर्थात भारतीय सिर्फ किताबी ज्ञान रखनेवाले ही नहीं थे बल्कि कुशल यानि तकनिकी ज्ञान में भी निपुण थे.

तो फिर सच क्या है

 सच यह है कि भारतवर्ष पर मुस्लिम आक्रमण और मुस्लिम शासन ने विश्वगुरु भारत को ध्वस्त कर दिया. आक्रमणकारियों ने भारतवर्ष के सभी विश्वविद्यालयों, पाठशालाओं को नष्ट कर दिया. उन्होंने ज्ञान, विज्ञान, अनुसन्धान के न केवल सारे ग्रन्थ नष्ट कर दिए बल्कि उनके दरवाजे भी बंद कर दिए.

इस्लाम में शिक्षा अनावश्यक कार्य माना गया है और केवल कुरान की शिक्षा को ही पर्याप्त माना गया है. इसका कारन सम्भवतः यह था कि इस्लाम के प्रवर्तक मोहम्मद पैगम्बर पढ़े-लिखे नहीं थे. कांग्रेसियों वामपंथियों के महान शासक अकबर और अलाद्दीन खिलजी भी अनपढ़ थे. इसके अतिरिक्त मुसलमानों के आदर्श मोहम्मद कासिम और गजनवी भी अनपढ़ थे. इसलिए वे जहाँ भी जाते पाठशालाओं और विश्वविद्यालयों को लूटपाट कर नष्ट कर देते थे. भारतवर्ष के तक्षशिला, नालंदा, बिक्रमशिला सहित करीब पन्द्रह विश्वविद्यालयों को इन्होने नष्ट कर दिया. परिणामतः ८०० वर्षों के मुस्लिम शासन में भारत में शिक्षण कार्य लगभग ठप्प हो गया था.

फिर ब्राह्मण और क्षत्रिय शिक्षित क्यों

इन विषम परिस्थितियों में शिक्षित ब्राह्मण और क्षत्रिय केवल अपने पुत्र पुत्रियों को अपने स्तर पर ही किसी प्रकार शिक्षा दे पाते थे. फिर भी ब्राह्मण चोरी छुपे स्थानीय स्तर पर गुरुकुल बनाकर शिक्षा दे रहे थे. मुगलों के समय आनेवाले एक यूरोपीय लिखता है, “किसी बड़े पेड़ के निचे गुरुकुल लगता था. विद्यार्थी जमीन पर मिटटी में बैठते थे और मिटटी में ऊँगली से अक्षर लिखना सीखते थे.”

दूसरी ओर, ब्राह्मण अपने पुत्रों को संस्कृत और वेदों का विद्वान तो बना देते थे पर उससे अब न उन्हें रोजगार मिलता था और न प्रतिष्ठा. थोड़ी बहुत उम्मीद होती भी तो नया भाषा अरबी, फारसी ने खत्म कर दिया. परिणामतः ब्राह्मणों को छोड़कर आम लोगों से संस्कृत भाषा दूर और खत्म होती चली गयी. फिर जैसे जैसे मुस्लिम शासन का भारत में अंत होता गया गुरुकुल खुलने लगे. हमें तो ब्राह्मणों का आभार प्रकट करना चाहिए की उन विषम परिस्थितियों में भी, गरीबी और कंगाली की हालातों में भी, भूखे रहकर भी, भारतीय सभ्यता संस्कृति की धरोहर देववाणी संस्कृत और संस्कृत ग्रंथों को कंठस्त कर बचाए रखा.

अब आइये आक्रमणकारियों द्वारा ध्वस्त किये गये विश्वविद्यालयों का वर्णन प्रस्तुत करते हैं:

१.    नालंदा विश्वविद्यालय


इसकी स्थापना गुप्त वंश के शक्रादित्य उर्फ़ कुमारगुप्त-I ने किया था. तबकाते नासिरी के लेखक मिन्हाज उल सिराज अपने किताब में इस्लामिक आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी के बारे में लिखा है, “सिर्फ दौ सौ घुड़सवारों के साथ बिहार दुर्ग (नालंदा विश्वविद्यालय) के द्वार तक गया और बेखबर शत्रुओं (यानि छात्र और शिक्षकगण) पर टूट पड़ा. उनमे दो बड़े बुद्धिमान भाई थे-एक का नाम निजामुद्दीन और दुसरे का शमसुद्दीन था. जब लड़ाई प्रारम्भ हो गयी तब इन दो भाईओं ने बहुत बहादुरी दिखाई. बख्तियार खिलजी को लूट का काफी माल हाथ लगा. महल के अधिकांश निवासी केश-मुंडित ब्राह्मण थे. उन सभी को खत्म कर दिया गया. वहां मुहम्मद ने पुस्तकों के ढेर को देखा. उसके बारे में जानकारी केलिए आदमियों को ढूंढा पर वहां सभी मारे जा चुके थे. इस विजय के बाद लूट के माल से लदा बख्तियार खिलजी कुतुबुद्दीन के पास आया जिसने उसका काफी मान और सम्मान किया. (पृष्ठ ३०९, ग्रन्थ-२, तबकाते नासिरी, लेखक मिन्हाज उल सिराज) 

कहा जाता है बख्तियार खिलजी ने उन किताबों के ढेर में आग लगा दिया जो अगले तीन महीने तक जलता रहा. नालंदा विश्वविद्यालय में करीब १०००० विद्यार्थी थे और करीब २००० शिक्षकगण थे.

२.    तेलाहारा विश्वविद्यालय




यह नालंदा विश्वविद्यालय से ४० किलोमीटर दूर है. यहाँ २००९ से २०१४ में हुई खुदाई में यह मिला है. हेंत्सोंग और इत्सिंग ने इसकी चर्चा नालंदा विश्वविद्यालय के समकक्ष के रूप में की है. इसकी स्थापना संभवतः राजगृह का शासक बिम्बिसार ने किया था. हेंत्साग ने अपने वर्णनों में इसे तिन मंजिला इमारत कहा है. यहाँ १००० से ज्यादा शिक्षकों और छात्रों के बैठने का स्थान. नालंदा विश्वविद्यालय को नष्ट करने के बाद बख्तियार खिलजी ने इसे भी लूट लिया, छात्रों और शिक्षकों का कत्लेआम कर इसे भी नष्ट कर दिया.

३.    ओदंतपुरी विश्वविद्यालय


इस विश्वविद्यालय की स्थापना पालवंश का शासक गोपाल ने ८ वीं शताब्दी में किया था. तिब्बती स्रोत से पता चलता है कि यहाँ १२००० से अधिक विद्यार्थी पढ़ते थे. यह मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा और सम्भवतः बख्तियार खिलजी के द्वारा ही नष्ट कर दिया गया.

४.    बिक्रमशिला विश्वविद्यालय


इसकी स्थापना पालवंश के शासक धर्मपाल ने ७ वीं शताब्दी में किया था. शैतान बख्तियार खिलजी सारनाथ, कुशीनारा, नालंदा आदि प्राचीन विश्वविख्यात हिन्दू, बौद्ध शिक्षा केन्द्रों को नष्ट करता हुआ बंगाल की ओर बढ़ा. रस्ते में उसने धर्मपाल के द्वारा स्थापित विक्रमशीला विश्वविद्यालय पर हमला किया और उसे भी लूट लिया और पूरी तरह नष्ट कर दिया.

५.     सोमपुरा विश्वविद्यालय 


इस विश्वविद्यालय की स्थापना भी पाल शासक धर्मपाल ने ७ वीं शताब्दी में किया था. यह अब बांग्लादेश में है. सेन वंशी शासकों की राजधानी नवद्वीप पर आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी द्वारा अधिकार करने के बाद इस विश्वविद्यालय के शिक्षक और छात्र जान बचाने केलिए विश्वविद्यालय छोड़कर भाग गये जिससे यह वीरान और अनारक्षित हो गया जिसे बाद में मुसलमानों द्वारा लूट लिया गया और धीरे धीरे यह नष्ट हो गया. विकिपीडिया लिखता है, “The ruins of the temple and monasteries at Pāhāpur do not bear any evident marks of large-scale destruction. The downfall of the establishment, by desertion or destruction, must have been sometime in the midst of the widespread unrest and displacement of population consequent on the Muslim invasion.”

६.    पुष्पगिरी विश्वविद्यालय

यह ओड़ीशा के जयपुर जिला में स्थित था. यह विश्वविद्यालय नालंदा से अधिक पुराना, सम्भवतः अशोक के द्वारा निर्मित माना जाता है. यह तिन पहाड़ियों ललितगिरी, उदयगिरी और रत्नागिरी के बीच विस्तृत था. तीसरी शताब्दी के आन्ध्र के इच्छ्वाकू राजा विरापुरुषदत्ता के द्वारा इस विश्वविद्यालय को अनुदान देने का उल्लेख मिलता है. नौवीं शताब्दी में बुद्धिष्ट प्रजन गान्धार से यहाँ आकर निवास किया था. यह विश्वविद्यालय भी मुस्लिम शासन में शिक्षा की उपेक्षा का शिकार हो नष्ट हो गया.

७.    तक्षशिला विश्वविद्यालय


तक्षशिला विश्वविद्यालय की स्थापना का श्रेय धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन को दिया जाता है. उसने अपने ननिहाल गांधार में अपनी माँ गांधारी की स्मृति में इस विश्वविद्यालय की स्थापना की थी. मुस्लिम आक्रमण से पहले गांधार में हिन्दुशाही वंश के ब्राह्मणों का शासन था. हिन्दुशाही वंश के पराक्रमी राजा जयपाल ने मुस्लिम आक्रमणकारियों के छक्के छुड़ा दिए थे परन्तु एक युद्ध में वो उनसे हार गया और उसे गांधार छोड़कर लाहौर दुर्ग में आना पड़ा. उधर आक्रमणकारियों ने उसकी प्रजा पर वीभत्स अत्याचार किए. अपने प्रजा पर हुए अत्याचार की जिम्मेदारी लेकर वह अग्नि में प्रवेश कर आत्मदाह कर लिया. आक्रमणकारियों ने विश्वविख्यात सबसे प्राचीन विश्वविद्यालय तक्षशिला को नष्ट भ्रष्ट कर खंडहर बना दिया.

८.    शारदापीठ विश्वविद्यालय


यह विश्वविख्यात ५१ शक्तिपीठों में से एक और तक्षशिला की तरह ही प्राचीन विश्वविद्यालय था. अब यह पाक अधिकृत कश्मीर में है. इस विश्वविद्यालय के महान विद्यार्थीयों में कल्हण, आदि शंकराचार्य, वैरोत्सना, तिब्बती बुद्धिष्ट कुमारजीव, त्होंमी सोमभोटा जिसने तिब्बती लिपि का आविष्कार किया आदि प्रमुख है.

९.    वल्लभी विश्वविद्यालय
 
गुजरात के सौराष्ट्र में शासन करनेवाले गुप्तों के सम्बन्धी मैत्रका वंश ने इसकी स्थान की थी जिसने अपनी राजधानी वल्लभी को बनाया था. अर्थशास्त्र, राजनीती, नीतिशास्त्र, विज्ञान, साहित्य आदि की शिक्षा का यह प्रमुख केंद्र था. बौद्ध यात्री इत्सिंग जिसने नालंदा में पढ़ा था वह वल्लभी का भ्रमण किया था और इसे शिक्षा का महान केंद्र बताया है. यह विश्वविख्यात विश्वविद्यालय ८ वीं शताब्दी में अरबों के आक्रमण में नष्ट हो गया.

 १०.   बिक्रमपुर विश्वविद्यालय



यह अब मुंशीगंज, बांग्लादेश में है. इसकी स्थापना पाल वंश के शासक धर्मपाल ने ७ वीं शताब्दी में किया था. २०१३ में इसकी खुदाई हुई. यहाँ ८००० से अधिक विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करते थे. यह भी मुस्लिम आक्रमणकारियों के लूट और उपेक्षा का शिकार हो नष्ट हो गया.
 
११.   मुरैना विश्वविद्यालय


यह मध्यप्रदेश के आधुनिक चम्बल डिविजन में स्थित था. इसका निर्माण ८ वीं शताब्दी में श्रीराम के अनुज लक्ष्मण के वंशज गुर्जर प्रतिहारों ने करवाया था. चौंसठ योगिनी मन्दिर से प्राप्त जानकारी के अनुसार मितावली, पदावली और बटेश्वर मन्दिरों के बीच यह विश्वविद्यालय स्थित था. यह विश्वविद्यालय स्थापत्यकला का शिक्षण प्रशिक्षण के लिए विश्वविख्यात था. मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा या उनके शासन में यह विश्वविद्यालय नष्ट हो गया

१२.   कंठालूरशाला विश्वविद्यालय

 

यह तिरुअनंतपुरम, केरल में स्थित था. यह विश्वविद्यालय मन्दिर समूहों के बीच ९-१२ वीं शताब्दी तक स्थित था. यहाँ ६४ विभिन्न विषयों की शिक्षा दिया जाता था. इसे दक्षिण का नालंदा कहा जाता था. यहाँ अस्त्र शस्त्रों का भी प्रशिक्षण दिया जाता था.

१३.   जगदल विश्वविद्यालय 


यह अब वारेन्द्र, उत्तर बंगाल, बांग्लादेश में स्थित है. इसकी स्थापना पाल वंश के शासक रामपाल ने ११ वीं शताब्दी में किया था. तिब्बती स्रोत से पता चलता है कि यह उत्तर-पूर्वी भारतवर्ष के ५ सबसे बड़े विश्वविद्यालयों में से एक था. अन्य चार नालंदा, ओद्न्तपुरी, सोमपुरा और बिक्रमशिला था. यह संस्कृत शिक्षा केलिए प्रसिद्ध था. यह भी मुस्लिम आक्रमणकारियों के शिकार हो नष्ट हो गया.

१४.   नागार्जुनकोंडा विश्वविद्यालय


इस विश्वविद्यालय की स्थापना बौद्ध संत नागार्जुन की स्मृति में किया गया था. यह भी बहुत प्राचीन विश्वविद्यालय था. उपलब्ध जानकारी के अनुसार यह विश्वविद्यालय ७-८ वीं शताब्दी में सबसे अधिक विख्यात था. यहाँ विज्ञान, दर्शन, चिकित्सा, भूगोल आदि विषयों की शिक्षा दी जाती थी. यहाँ से सातवाहन और इच्छ्वाकू राजाओं के सिक्के और अभिलेख मिले हैं

१५.   मिथिला विश्वविद्यालय


माना जाता है कि यह विश्वविद्यालय राजा जनक के समय से ही चला आ रहा था. यहाँ मुख्य रूप से वेद, वेदांग, उपनिषद, दर्शन, इतिहास, ज्योतिष, साहित्य आदि की शिक्षा दी जाती थी. उस प्राचीन विश्वविद्यालय के स्थान पर अब आधुनिक मिथिला विश्वविद्यालय का निर्माण हो गया है.

इसके अतिरिक्त Godfrey Higgins के ग्रन्थ The Celtic Druids के पृष्ठ ४३ से ५९ पर उल्लेख है कि “भारत के नगरकोट, कश्मीर और वाराणसी नगरों में, रशिया के समरकंद नगर में बड़े विद्याकेंद्र थे जहाँ विपुल संस्कृत साहित्य था।

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