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मंगलवार, 2 मई 2023

तुम महाभारत का क्या अर्थ जानते हो?"

 शास्त्र कहते हैं कि अठारह दिनों के महाभारत युद्ध में उस समय की पुरुष जनसंख्या का 80% सफाया हो गया था। युद्ध के अंत में एक दिन संजय कुरुक्षेत्र के उस स्थान पर गए जहां संसार का सबसे महानतम युद्ध हुआ था।




तभी एक वृद्ध व्यक्ति ने वहां आकर धीमे और शांत स्वर में कहा, "अब आप उस बारे में सच्चाई कभी नहीं जान पाएंगे, क्योंकि वह अब इतिहास हो चुका है"।

संजय ने धूल के बड़े से गुबार के बीच दिखाई देने वाले भगवा वस्त्रधारी एक वृद्ध व्यक्ति को देखने के लिए उस ओर सिर को घुमाया।

"मुझे पता है कि आप कुरुक्षेत्र युद्ध के बारे में पता लगाने के लिए यहां हैं, लेकिन आप उस युद्ध के बारे में तब तक नहीं जान सकते, जब तक आप ये नहीं जान लेते हैं कि असली युद्ध है क्या?" बूढ़े आदमी ने रहस्यमय ढंग से कहा।


"तुम महाभारत का क्या अर्थ जानते हो?" तब संजय ने उस रहस्यमय व्यक्ति से पूछा।

वह कहने लगा, "महाभारत एक महाकाव्य है, एक गाथा है, एक वास्तविकता भी है, लेकिन निश्चित रूप से एक दर्शन भी है।"


वृद्ध व्यक्ति संजय को और अधिक सवालों के चक्कर में फंसा कर मुस्कुरा रहा था।

"क्या आप मुझे बता सकते हैं कि दर्शन क्या है?" संजय ने निवेदन किया।

अवश्य जानता हूं, बूढ़े आदमी ने कहना शुरू किया। "पांडव कुछ और नहीं, बल्कि आपकी पाँच इंद्रियाँ हैं - दृष्टि, गंध, स्वाद, स्पर्श और श्रवण... और क्या आप जानते हैं कि कौरव क्या हैं? उसने अपनी आँखें संकीर्ण करते हुए पूछा।


कौरव ऐसे सौ तरह के विकार हैं, जो आपकी इंद्रियों पर प्रतिदिन हमला करते हैं लेकिन आप उनसे लड़ सकते हैं और जीत भी सकते है। पर क्या आप जानते हैं कैसे?


संजय ने फिर से न में सर हिला दिया।

"जब कृष्ण आपके रथ की सवारी करते हैं!" यह कह वह वृद्ध व्यक्ति मुस्कुराया।

"कृष्ण आपकी आंतरिक आवाज, आपकी आत्मा, आपका मार्गदर्शक प्रकाश हैं और यदि आप अपने जीवन को उनके हाथों में सौप देते हैं तो आपको फिर चिंता करने की कोई आवश्कता नहीं है।" उस वृद्ध व्यक्ति ने कहा।

संजय अब तक लगभग चेतन अवस्था में पहुंच गया था, लेकिन जल्दी से एक और सवाल लेकर आया।

फिर कौरवों के लिए द्रोणाचार्य और भीष्म क्यों लड़ रहे हैं?

भीष्म हमारे अहंकार का प्रतीक हैं, अश्वत्थामा हमारी वासनाएं, जो कि जल्दी नहीं मरतीं। दुर्योधन हमारी सांसारिक वासनाओं, इच्छाओं का प्रतीक है। द्रोणाचार्य हमारे संस्कार हैं। जयद्रथ हमारे शरीर के प्रति राग का प्रतीक है कि 'मैं ये देह हूं' का भाव। द्रुपद वैराग्य का प्रतीक हैं। अर्जुन मेरी आत्मा है, मैं ही अर्जुन हूं और  स्वनियंत्रित भी हूं। कृष्ण हमारे परमात्मा हैं। पांच पांडव पांच नीचे वाले चक्र भी हैं, मूलाधार से विशुद्ध चक्र तक। द्रौपदी कुंडलिनी शक्ति है, वह जागृत शक्ति है, जिसके 5 पति 5 चक्र हैं। ओम् शब्द ही कृष्ण का पांचजन्य शंखनाद है, जो मुझ और आप आत्मा को ढ़ाढ़स बंधाता है कि चिंता मत कर मैं तेरे साथ हूं, अपनी बुराइयों पर विजय पा, अपने निम्न विचारों, निम्न इच्छाओं, सांसारिक इच्छाओं, अपने आंतरिक शत्रुओं यानि कौरवों से लड़ाई कर , अर्थात अपनी मेटेरियलिस्टिक वासनाओं को त्याग कर और चैतन्य  पाठ पर आरूढ़ हो जा, विकार रूपी कौरव अधर्मी एवं दुष्ट प्रकृति के हैं।


श्री कृष्ण का साथ होते ही 72000 नाड़ियों में भगवान की चैतन्य शक्ति भर जाती है, और हमें पता चल जाता है कि मैं चैतन्यता, आत्मा, जागृति हूं, मैं अन्न से बना शरीर नहीं हूं, इसलिए उठो जागो और अपने आपको, अपनी आत्मा को, अपने स्वयं सच को जानो, भगवान को पाओ, यही भगवद प्राप्ति या आत्म साक्षात्कार है, यही इस मानव जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य है।


ये शरीर ही धर्म क्षेत्र, कुरुक्षेत्र है। धृतराष्ट्र अज्ञान से अंधा हुआ मन है। अर्जुन आप हो, और श्रीकृष्ण आपके सारथी हैं।

वृद्ध आदमी ने दुःखी भाव के साथ सिर हिलाया और कहा, "जैसे-जैसे आप बड़े होते हैं, अपने बड़ों के प्रति आपकी धारणा बदल जाती है। जिन बुजुर्गों के बारे में आपने सोचा था कि आपके बढ़ते वर्षों में वे संपूर्ण थे, अब आपको लगता है वे सभी परिपूर्ण नहीं हैं। उनमें दोष हैं। और एक दिन आपको यह तय करना होगा कि उनका व्यवहार आपके लिए अच्छा या बुरा है। तब आपको यह भी अहसास हो सकता है कि आपको अपनी भलाई के लिए उनका विरोध करना या लड़ना भी पड़ सकता है। यह बड़ा होने का सबसे कठिन हिस्सा है और यही कारण है कि गीता महत्वपूर्ण है।"


संजय धरती पर बैठ गया, इसलिए नहीं कि वह थक गया था, बल्कि इसलिए कि वह जो समझ लेकर यहां आया था, वो एक-एक कर धराशाई हो रही थी। लेकिन फिर भी उसने लगभग फुसफुसाते हुए एक और प्रश्न पूछा, तब कर्ण के बारे में आपका क्या कहना है?


"आह!" वृद्ध ने कहा, आपने अंत के लिए सबसे अच्छा प्रश्न बचाकर रखा हुआ है।

"कर्ण आपकी इंद्रियों का भाई है। वह इच्छा है। वह सांसारिक सुख के प्रति आपके राग का प्रतीक है। वह आप का ही एक हिस्सा है, लेकिन वह अपने प्रति अन्याय महसूस करता है और आपके विरोधी विकारों के साथ खड़ा दिखता है। और हर समय विकारों के विचारों के साथ खड़े रहने के कोई न कोई कारण और बहाना बनाता रहता है।"


"क्या आपकी इच्छा; आपको विकारों के वशीभूत होकर उनमें बह जाने या अपनाने के लिए प्रेरित नहीं करती रहती है?" वृद्ध ने संजय से पूछा।


संजय ने स्वीकार में सिर हिलाया और भूमि की तरफ सिर करके सारी विचार श्रंखलाओं को क्रमबद्ध कर मस्तिष्क में बैठाने का प्रयास करने लगा, और जब उसने अपने सिर को ऊपर उठाया, वह वृद्ध व्यक्ति धूल के गुबारों के मध्य कहीं विलीन  चुका था। लेकिन जाने से पहले वह जीवन की वो दिशा एवं दर्शन दे गया था, जिसे आत्मसात करने के अतिरिक्त संजय के सामने अब कोई अन्य मार्ग नहीं बचा था।


साभार जय श्रीकृष्ण 🌺🙏🕉️

रविवार, 30 अप्रैल 2023

कुछ ही वर्षो में ब्राह्मण का दर्शन दुर्लभ हो जायेगा ऐसा बहुत जल्द होने वाला है

 
पंडित जी- इसकी पत्रिका मे सी ए बनने के योग हैं इसे सी ए बनाए।

 यजमान-  पंडितजी, बेटे ने 10 पास कर ली हैं बताए कौन सा क्षेत्र इसके लिए अच्छा रहेगा।

पंडित जी की दक्षिणा 200/ परंतु दक्षिणा केवल 51/रु दी गयी।

सन् 2010 –
यजमान - पंडित जी , आपकी कृपा से बेटा सी ए बन गया हैं आपने बताया भी था। अब ज़रा नौकरी के विषय मे भी बता देते।

पंडितजी – इसे आगामी माह मे नौकरी मिल जानी चाहिए बस ये एक छोटा सा उपाय करवा दीजिएगा।

पंडितजी की दक्षिणा -500/परंतु दक्षिणा 101 रु दी गयी ???
अगले माह 30,000 रु प्रति माह की नौकरी भी प्राप्त हो गयी।

सन् 2013 –
यजमान- पंडितजी बेटा विवाह नहीं कर रहा हैं ?

पंडितजी - इसकी पत्रिका मे प्रेमविवाह की संभावना हैं संभवत: इसी कारण विवाह करने मे आना कानी कर रहा हो , प्यार से बैठा कर पूछिये कोई लड़की पसंद होगी जिस कारण ऐसा हो रहा हैं |

यजमान- पंडित जी लड़की पसंद बताता तो हैं क्या करे??
पंडित जी- उसी कन्या से उसका विवाह कर दीजिये सही रहेगा,हो सके तो उस कन्या की पत्रिका दिखा दीजिएगा
पंडितजी की दक्षिणा 1001/ परंतु दक्षिणा 200 रु दी गयी |

सन् 2015 –
यजमान-  पंडितजी आपकी दया से बेटा 70,000 रु प्रति माह कमा रहा हैं , शादी भी हो गयी हैं।
एक बेटी भी हैं, बेटा कब होगा यह बताए ???

पंडितजी- इसकी पत्रिका मे गुरु ग्रह का श्राप हैं जिस कारण बेटे का होना मुश्किल जान पड़ता हैं।
यजमान- हैं ऐसा कैसे पंडितजी हमने या हमारे किसी भी बुजुर्ग ने कभी भी किसी ब्राह्मण,विद्वान तथा गुरु का अपमान नहीं किया हैं गुरु ग्रह का श्राप कैसे लग सकता हैं “

पंडितजी – इसके पूर्वजो ने अपने पंडित को कभी भी पंडित के कार्य का दक्षिणा नहीं दिया जिस कारण ऐसा हैं।


नही - नहीं पंडितजी,,  आपसे देखने मे ग़लती हो रही हैं।

पंडितजी –सही कह रहे हैं आप....

*हमसे देखने मे ही ग़लती हो रही होगी यह बेटा जब 10वी मे था और अब 70,000 रुपये प्रति माह कमा रहा हैं। शादी, बच्चा भी हो गया परंतु पंडित जी को अब तक आपने 352 रुपये ही दिये हैं शायद आपके पिता ने भी आपके लिए ऐसा ही किया होगा जिस कारण ऐसा हो रहा हैं।

ये कटु सत्य है पिछले 20 साल में महंगाई कहाँ से कहाँ पहुँच गयी लेकिन नही बढ़ा तो पण्डित की दक्षिणा ........?




लोग आज भी बड़े बड़े पूजा अनुष्ठान के संकल्प और आरती में चढ़ाने के लिये एक रूपये का सिक्का ही ढूंढ कर लाते है।

नोट-  कुछ दिन ऐसा दिन आने वाला है की ब्राह्मण इस पूजा पाठ के कार्य को छोड़ देगा लोग की ऐसी मानसिकता रही तो कुछ दिन में कोई ब्राह्मण दान भी नही लेगा, और  ये मानसिकता समाज  छोड़ दे की ब्राह्नण कभी गरीब था भागवतपुराण  में साफ लिखा है की पृथ्वी का एक मात्र देवता ब्राह्मण है ,

 आज लोग इसलिये इतना कष्ट भोग रहे है की लोग ब्राह्मण को घटिया से घटिया सामग्री , अनुपयोगी वस्त्र दान और उचित दक्षिणा नहीं दे रहे है, कुछ ही वर्षो में ब्राह्मण का दर्शन दुर्लभ हो जायेगा ऐसा बहुत जल्द होने वाला है और जो पूजा करवाऐंगे वो किसी भी तरह के लोग होंगे होंगे।


शादी में लोग  10-12 लाख रुपये सिर्फ शानौशौकत के लिए उड़ा देंगे। ढोली बैंडबाजे वाले को छः महिने पहले  बुक करके 21-31000 हजार रुपए एक डेढ घंटे के लिये दे देंगे । डीजे व शराब में बर्बाद करके अपनी ही बहन बेटियों को नचायेंगे और ये सारा मांगलिक मुहूर्त कार्यक्रम तय करने वाले ब्राह्मण पंडित को जो इसका रचनाकार और धूरी है उस विप्र श्रेष्ठ को 1100 रुपए में ही निपटाने का भरसक प्रयास करेंगे।  तब कौन ब्राह्मण का पुत्र यह संस्कार अपनायेगा ???
मेरी बातों का गलत मतलब न समझें। ब्राह्मण  को तन मन धन से सम्मान दें।

आज हम आपको सत्य नारायण व्रत कथा के बारे में बतायेगें



आज हम आपको सत्य नारायण व्रत कथा के बारे में बतायेगें!!!!!!!

 हिंदू धर्मावलंबियो के बीच सबसे प्रतिष्ठित व्रत कथा के रूप में भगवान विष्णु के सत्य स्वरूप की सत्यनारायण व्रत कथा है। कुछ लोग मनौती पूरी होने पर, कुछ अन्य नियमित रूप से इस कथा का आयोजन करते हैं। सत्यनारायण व्रतकथाके दो भाग हैं, व्रत-पूजा एवं कथा। सत्यनारायण व्रतकथा स्कंदपुराण के रेवाखंड से संकलित की गई है।

सत्य को नारायण (विष्णु के रूप में पूजना ही सत्यनारायण की पूजा है। इसका दूसरा अर्थ यह है कि संसार में एकमात्र नारायण ही सत्य हैं, बाकी सब माया है।

भगवान की पूजा कई रूपों में की जाती है, उनमें से उनका सत्यनारायण स्वरूप इस कथा में बताया गया है। इसके मूल पाठ में पाठांतर से लगभग 170 श्लोक संस्कृत भाषा में उपलब्ध है जो पांच अध्यायों में बंटे हुए हैं। इस कथा के दो प्रमुख विषय हैं- जिनमें एक है संकल्प को भूलना और दूसरा है प्रसाद का अपमान।

व्रत कथा के अलग-अलग अध्यायों में छोटी कहानियों के माध्यम से बताया गया है कि सत्य का पालन न करने पर किस तरह की परेशानियां आती है। इसलिए जीवन में सत्य व्रत का पालन पूरी निष्ठा और सुदृढ़ता के साथ करना चाहिए। ऐसा न करने पर भगवान न केवल नाराज होते हैं अपितु दंड स्वरूप संपति और बंधु बांधवों के सुख से वंचित भी कर देते हैं। इस अर्थ में यह कथा लोक में सच्चाई की प्रतिष्ठा का लोकप्रिय और सर्वमान्य धार्मिक साहित्य हैं। प्रायः पूर्णमासी को इस कथा का परिवार में वाचन किया जाता है। अन्य पर्वों पर भी इस कथा को विधि विधान से करने का निर्देश दिया गया है।

इनकी पूजा में केले के पत्ते व फल के अलावा पंचामृत, पंचगव्य, सुपारी, पान, तिल, मोली, रोली, कुमकुम, दूर्वा की आवश्यकता होती जिनसे भगवान की पूजा होती है। सत्यनारायण की पूजा के लिए दूध, मधु, केला, गंगाजल, तुलसी पत्ता, मेवा मिलाकर पंचामृत तैयार किया जाता है जो भगवान को काफी पसंद है। इन्हें प्रसाद के तौर पर फल, मिष्टान्न के अलावा आटे को भून कर उसमें चीनी मिलाकर एक प्रसाद बनता है जिसे सत्तू कहा जाता है, उसका भी भोग लगता है।

सत्यनारायण व्रतकथा के
प्रथम अध्याय में यह बताया गया है
कि सत्यनारायण भगवान की पूजा कैसे की जाय।
संक्षेप में यह विधि निम्नलिखित है-

जो व्यक्ति सत्यनारायण की पूजा का संकल्प लेते हैं उन्हें दिन भर व्रत रखना चाहिए। पूजन स्थल को गाय के गोबर से पवित्र करके वहां एक अल्पना बनाएं और उस पर पूजा की चौकी रखें। इस चौकी के चारों पाये के पास केले का वृक्ष लगाएं। इस चौकी पर ठाकुर जी और श्री सत्यनारायण की प्रतिमा स्थापित करें। पूजा करते समय सबसे पहले गणपति की पूजा करें फिर इन्द्रादि दशदिक्पाल की और क्रमश: पंच लोकपाल, सीता सहित राम, लक्ष्मण की, राधा कृष्ण की। इनकी पूजा के पश्चात ठाकुर जी व सत्यनारायण की पूजा करें। इसके बाद लक्ष्मी माता की और अंत में महादेव और ब्रह्मा जी की पूजा करें।

पूजा के बाद सभी देवों की आरती करें और चरणामृत लेकर प्रसाद वितरण करें। पुरोहित जी को दक्षिणा एवं वस्त्र दे व भोजन कराएं। पुराहित जी के भोजन के पश्चात उनसे आशीर्वाद लेकर आप स्वयं भोजन करें।

सत्यनारायण व्रत कथा का पूरा सन्दर्भ यह है कि पुराकालमें शौनकादिऋषि नैमिषारण्य स्थित महर्षि सूत के आश्रम पर पहुंचे। ऋषिगण महर्षि सूत से प्रश्न करते हैं कि लौकिक कष्टमुक्ति, सांसारिक सुख समृद्धि एवं पारलौकिक लक्ष्य की सिद्धि के लिए सरल उपाय क्या है? महर्षि सूत शौनकादिऋषियों को बताते हैं कि ऐसा ही प्रश्न नारद जी ने भगवान विष्णु से किया था।

भगवान विष्णु ने नारद जी को बताया कि लौकिक क्लेशमुक्ति, सांसारिक सुखसमृद्धि एवं पारलौकिक लक्ष्य सिद्धि के लिए एक ही राजमार्ग है, वह है सत्यनारायण व्रत। सत्यनारायण का अर्थ है सत्याचरण, सत्याग्रह, सत्यनिष्ठा। संसार में सुखसमृद्धि की प्राप्ति सत्याचरणद्वारा ही संभव है। सत्य ही ईश्वर है। सत्याचरणका अर्थ है ईश्वराराधन, भगवत्पूजा।

कथा का प्रारंभ सूत जी द्वारा कथा सुनाने से होता है। नारद जी भगवान श्रीविष्णु के पास जाकर उनकी स्तुति करते हैं। स्तुति सुनने के अनन्तर भगवान श्रीविष्णु जी ने नारद जी से कहा- महाभाग! आप किस प्रयोजन से यहां आये हैं, आपके मन में क्या है? कहिये, वह सब कुछ मैं आपको बताउंगा।

नारद जी बोले - भगवन! मृत्युलोक में अपने पापकर्मों के द्वारा विभिन्न योनियों में उत्पन्न सभी लोग बहुत प्रकार के क्लेशों से दुखी हो रहे हैं। हे नाथ! किस लघु उपाय से उनके कष्टों का निवारण हो सकेगा, यदि आपकी मेरे ऊपर कृपा हो तो वह सब मैं सुनना चाहता हूं। उसे बतायें।

श्री भगवान ने कहा - हे वत्स! संसार के ऊपर अनुग्रह करने की इच्छा से आपने बहुत अच्छी बात पूछी है। जिस व्रत के करने से प्राणी मोह से मुक्त हो जाता है, उसे आपको बताता हूं, सुनें। हे वत्स! स्वर्ग और मृत्युलोक में दुर्लभ भगवान सत्यनारायण का एक महान पुण्यप्रद व्रत है। आपके स्नेह के कारण इस समय मैं उसे कह रहा हूं। अच्छी प्रकार विधि-विधान से भगवान सत्यनारायण व्रत करके मनुष्य शीघ्र ही सुख प्राप्त कर परलोक में मोक्ष प्राप्त कर सकता है।

भगवान की ऐसी वाणी सनुकर नारद मुनि ने कहा -प्रभो इस व्रत को करने का फल क्या है? इसका विधान क्या है? इस व्रत को किसने किया और इसे कब करना चाहिए? यह सब विस्तारपूर्वक बतलाइये।

श्री भगवान ने कहा - यह सत्यनारायण व्रत दुख-शोक आदि का शमन करने वाला, धन-धान्य की वृद्धि करने वाला, सौभाग्य और संतान देने वाला तथा सर्वत्र विजय प्रदान करने वाला है। जिस-किसी भी दिन भक्ति और श्रद्धा से समन्वित होकर मनुष्य ब्राह्मणों और बन्धुबान्धवों के साथ धर्म में तत्पर होकर सायंकाल भगवान सत्यनारायण की पूजा करे। नैवेद्य के रूप में उत्तम कोटि के भोजनीय पदार्थ को सवाया मात्रा में भक्तिपूर्वक अर्पित करना चाहिए। केले के फल, घी, दूध, गेहूं का चूर्ण अथवा गेहूं के चूर्ण के अभाव में साठी चावल का चूर्ण, शक्कर या गुड़ - यह सब भक्ष्य सामग्री सवाया मात्रा में एकत्र कर निवेदित करनी चाहिए।

बन्धु-बान्धवों के साथ श्री सत्यनारायण भगवान की कथा सुनकर ब्राह्मणों को दक्षिणा देनी चाहिए। तदनन्तर बन्धु-बान्धवों के साथ ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए। भक्तिपूर्वक प्रसाद ग्रहण करके नृत्य-गीत आदि का आयोजन करना चाहिए। तदनन्तर भगवान सत्यनारायण का स्मरण करते हुए अपने घर जाना चाहिए। ऐसा करने से मनुष्यों की अभिलाषा अवश्य पूर्ण होती है। विशेष रूप से कलियुग में, पृथ्वीलोक में यह सबसे छोटा सा उपाय है।

दूसरा अध्याय,,,,,,,

श्रीसूतजी बोले - हे द्विजों! अब मैं पुनः पूर्वकाल में जिसने इस सत्यनारायण व्रत को किया था, उसे भलीभांति विस्तारपूर्वक कहूंगा। रमणीय काशी नामक नगर में कोई अत्यन्त निर्धन ब्राह्मण रहता था। भूख और प्यास से व्याकुल होकर वह प्रतिदिन पृथ्वी पर भटकता रहता था। ब्राह्मण प्रिय भगवान ने उस दुखी ब्राह्मण को देखकर वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारण करके उस द्विज से आदरपूर्वक पूछा - हे विप्र! प्रतिदिन अत्यन्त दुखी होकर तुम किसलिए पृथ्वीपर भ्रमण करते रहते हो। हे द्विजश्रेष्ठ! यह सब बतलाओ, मैं सुनना चाहता हूं।

ब्राह्मण बोला - प्रभो! मैं अत्यन्त दरिद्र ब्राह्मण हूं और भिक्षा के लिए ही पृथ्वी पर घूमा करता हूं। यदि मेरी इस दरिद्रता को दूर करने का आप कोई उपाय जानते हों तो कृपापूर्वक बतलाइये।

वृद्ध ब्राह्मण बोला - हे ब्राह्मणदेव! सत्यनारायण भगवान् विष्णु अभीष्ट फल को देने वाले हैं। हे विप्र! तुम उनका उत्तम व्रत करो, जिसे करने से मनुष्य सभी दुखों से मुक्त हो जाता है।

व्रत के विधान को भी ब्राह्मण से यत्नपूर्वक कहकर वृद्ध ब्राह्मणरूपधारी भगवान् विष्णु वहीं पर अन्तर्धान हो गये। ‘वृद्ध ब्राह्मण ने जैसा कहा है, उस व्रत को अच्छी प्रकार से वैसे ही करूंगा’ - यह सोचते हुए उस ब्राह्मण को रात में नींद नहीं आयी।

अगले दिन प्रातःकाल उठकर ‘सत्यनारायण का व्रत करूंगा’ ऐसा संकल्प करके वह ब्राह्मण भिक्षा के लिए चल पड़ा। उस दिन ब्राह्मण को भिक्षा में बहुत सा धन प्राप्त हुआ। उसी धन से उसने बन्धु-बान्धवों के साथ भगवान सत्यनारायण का व्रत किया। इस व्रत के प्रभाव से वह श्रेष्ठ ब्राह्मण सभी दुखों से मुक्त होकर समस्त सम्पत्तियों से सम्पन्न हो गया। उस दिन से लेकर प्रत्येक महीने उसने यह व्रत किया। इस प्रकार भगवान् सत्यनारायण के इस व्रत को करके वह श्रेष्ठ ब्राह्मण सभी पापों से मुक्त हो गया और उसने दुर्लभ मोक्षपद को प्राप्त किया।

हे विप्र! पृथ्वी पर जब भी कोई मनुष्य श्री सत्यनारायण का व्रत करेगा, उसी समय उसके समस्त दुख नष्ट हो जायेंगे। हे ब्राह्मणों! इस प्रकार भगवान नारायण ने महात्मा नारदजी से जो कुछ कहा, मैंने वह सब आप लोगों से कह दिया, आगे अब और क्या कहूं?

हे मुने! इस पृथ्वी पर उस ब्राह्मण से सुने हुए इस व्रत को किसने किया? हम वह सब सुनना चाहते हैं, उस व्रत पर हमारी श्रद्धा हो रही है।

श्री सूत जी बोले - मुनियों! पृथ्वी पर जिसने यह व्रत किया, उसे आप लोग सुनें। एक बार वह द्विजश्रेष्ठ अपनी धन-सम्पत्ति के अनुसार बन्धु-बान्धवों तथा परिवारजनों के साथ व्रत करने के लिए उद्यत हुआ। इसी बीच एक लकड़हारा वहां आया और लकड़ी बाहर रखकर उस ब्राह्मण के घर गया। प्यास से व्याकुल वह उस ब्राह्मण को व्रत करता हुआ देख प्रणाम करके उससे बोला - प्रभो! आप यह क्या कर रहे हैं, इसके करने से किस फल की प्राप्ति होती है, विस्तारपूर्वक मुझसे कहिये।

विप्र ने कहा - यह सत्यनारायण का व्रत है, जो सभी मनोरथों को प्रदान करने वाला है। उसी के प्रभाव से मुझे यह सब महान धन-धान्य आदि प्राप्त हुआ है। जल पीकर तथा प्रसाद ग्रहण करके वह नगर चला गया। सत्यनारायण देव के लिए मन से ऐसा सोचने लगा कि ‘आज लकड़ी बेचने से जो धन प्राप्त होगा, उसी धन से भगवान सत्यनारायण का श्रेष्ठ व्रत करूंगा।’ इस प्रकार मन से चिन्तन करता हुआ लकड़ी को मस्तक पर रख कर उस सुन्दर नगर में गया, जहां धन-सम्पन्न लोग रहते थे। उस दिन उसने लकड़ी का दुगुना मूल्य प्राप्त किया।

इसके बाद प्रसन्न हृदय होकर वह पके हुए केले का फल, शर्करा, घी, दूध और गेहूं का चूर्ण सवाया मात्रा में लेकर अपने घर आया। तत्पश्चात उसने अपने बान्धवों को बुलाकर विधि-विधान से भगवान श्री सत्यनारायण का व्रत किया। उस व्रत के प्रभाव से वह धन-पुत्र से सम्पन्न हो गया और इस लोक में अनेक सुखों का उपभोग कर अन्त में सत्यपुर अर्थात् बैकुण्ठलोक चला गया।

तीसरा अध्याय,,,,,,,

श्री सूतजी बोले - श्रेष्ठ मुनियों! अब मैं पुनः आगे की कथा कहूंगा, आप लोग सुनें। प्राचीन काल में उल्कामुख नाम का एक राजा था। वह जितेन्द्रिय, सत्यवादी तथा अत्यन्त बुद्धिमान था। वह विद्वान राजा प्रतिदिन देवालय जाता और ब्राह्मणों को धन देकर सन्तुष्ट करता था। कमल के समान मुख वाली उसकी धर्मपत्नी शील, विनय एवं सौन्दर्य आदि गुणों से सम्पन्न तथा पतिपरायणा थी। राजा एक दिन अपनी धर्मपत्नी के साथ भद्रशीला नदी के तट पर श्रीसत्यनारायण का व्रत कर रहा था। उसी समय व्यापार के लिए अनेक प्रकार की पुष्कल धनराशि से सम्पन्न एक साधु नाम का बनिया वहां आया। भद्रशीला नदी के तट पर नाव को स्थापित कर वह राजा के समीप गया और राजा को उस व्रत में दीक्षित देखकर विनयपूर्वक पूछने लगा।

साधु ने कहा - राजन्! आप भक्तियुक्त चित्त से यह क्या कर रहे हैं? कृपया वह सब बताइये, इस समय मैं सुनना चाहता हूं।

राजा बोले - हे साधो! पुत्र आदि की प्राप्ति की कामना से अपने बन्धु-बान्धवों के साथ मैं अतुल तेज सम्पन्न भगवान् विष्णु का व्रत एवं पूजन कर रहा हूं।

राजा की बात सुनकर साधु ने आदरपूर्वक कहा - राजन् ! इस विषय में आप मुझे सब कुछ विस्तार से बतलाइये, आपके कथनानुसार मैं व्रत एवं पूजन करूंगा। मुझे भी संतति नहीं है। ‘इससे अवश्य ही संतति प्राप्त होगी।’ ऐसा विचार कर वह व्यापार से निवृत्त हो आनन्दपूर्वक अपने घर आया। उसने अपनी भार्या से संतति प्रदान करने वाले इस सत्यव्रत को विस्तार पूर्वक बताया तथा - ‘जब मुझे संतति प्राप्त होगी तब मैं इस व्रत को करूंगा’ - इस प्रकार उस साधु ने अपनी भार्या लीलावती से कहा।

एक दिन उसकी लीलावती नाम की सती-साध्वी भार्या पति के साथ आनन्द चित्त से ऋतुकालीन धर्माचरण में प्रवृत्त हुई और भगवान् श्रीसत्यनारायण की कृपा से उसकी वह भार्या गर्भिणी हुई। दसवें महीने में उससे कन्यारत्न की उत्पत्ति हुई और वह शुक्लपक्ष के चन्द्रम की भांति दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगी। उस कन्या का ‘कलावती’ यह नाम रखा गया। इसके बाद एक दिन लीलावती ने अपने स्वामी से मधुर वाणी में कहा - आप पूर्व में संकल्पित श्री सत्यनारायण के व्रत को क्यों नहीं कर रहे हैं?

साधु बोला - ‘प्रिये! इसके विवाह के समय व्रत करूंगा।’ इस प्रकार अपनी पत्नी को भली-भांति आश्वस्त कर वह व्यापार करने के लिए नगर की ओर चला गया। इधर कन्या कलावती पिता के घर में बढ़ने लगी। तदनन्तर धर्मज्ञ साधु ने नगर में सखियों के साथ क्रीड़ा करती हुई अपनी कन्या को विवाह योग्य देखकर आपस में मन्त्रणा करके ‘कन्या विवाह के लिए श्रेष्ठ वर का अन्वेषण करो’ - ऐसा दूत से कहकर शीघ्र ही उसे भेज दिया। उसकी आज्ञा प्राप्त करके दूत कांचन नामक नगर में गया और वहां से एक वणिक का पुत्र लेकर आया। उस साधु ने उस वणिक के पुत्र को सुन्दर और गुणों से सम्पन्न देखकर अपनी जाति के लोगों तथा बन्धु-बान्धवों के साथ संतुष्टचित्त हो विधि-विधान से वणिकपुत्र के हाथ में कन्या का दान कर दिया।

उस समय वह साधु बनिया दुर्भाग्यवश भगवान् का वह उत्तम व्रत भूल गया। पूर्व संकल्प के अनुसार विवाह के समय में व्रत न करने के कारण भगवान उस पर रुष्ट हो गये। कुछ समय के पश्चात अपने व्यापारकर्म में कुशल वह साधु बनिया काल की प्रेरणा से अपने दामाद के साथ व्यापार करने के लिए समुद्र के समीप स्थित रत्नसारपुर नामक सुन्दर नगर में गया और पअने श्रीसम्पन्न दामाद के साथ वहां व्यापार करने लगा। उसके बाद वे दोों राजा चन्द्रकेतु के रमणीय उस नगर में गये। उसी समय भगवान् श्रीसत्यनारायण ने उसे भ्रष्टप्रतिज्ञ देखकर ‘इसे दारुण, कठिन और महान् दुख प्राप्त होगा’ - यह शाप दे दिया।

एक दिन एक चोर राजा चन्द्रकेतु के धन को चुराकर वहीं आया, जहां दोनों वणिक स्थित थे। वह अपने पीछे दौड़ते हुए दूतों को देखकर भयभीतचित्त से धन वहीं छोड़कर शीघ्र ही छिप गया। इसके बाद राजा के दूत वहां आ गये जहां वह साधु वणिक था। वहां राजा के धन को देखकर वे दूत उन दोनों वणिकपुत्रों को बांधकर ले आये और हर्षपूर्वक दौड़ते हुए राजा से बोले - ‘प्रभो! हम दो चोर पकड़ लाए हैं, इन्हें देखकर आप आज्ञा दें’। राजा की आज्ञा से दोनों शीघ्र ही दृढ़तापूर्वक बांधकर बिना विचार किये महान कारागार में डाल दिये गये। भगवान् सत्यदेव की माया से किसी ने उन दोनों की बात नहीं सुनी और राजा चन्द्रकेतु ने उन दोनों का धन भी ले लिया।

भगवान के शाप से वणिक के घर में उसकी भार्या भी अत्यन्त दुखित हो गयी और उनके घर में सारा-का-सारा जो धन था, वह चोर ने चुरा लिया। लीलावती शारीरिक तथा मानसिक पीड़ाओं से युक्त, भूख और प्यास से दुखी हो अन्न की चिन्ता से दर-दर भटकने लगी। कलावती कन्या भी भोजन के लिए इधर-उधर प्रतिदिन घूमने लगी। एक दिन भूख से पीडि़त कलावती एक ब्राह्मण के घर गयी। वहां जाकर उसने श्रीसत्यनारायण के व्रत-पूजन को देखा। वहां बैठकर उसने कथा सुनी और वरदान मांगा। उसके बाद प्रसाद ग्रहण करके वह कुछ रात होने पर घर गयी।

माता ने कलावती कन्या से प्रेमपूर्वक पूछा - पुत्री ! रात में तू कहां रुक गयी थी? तुम्हारे मन में क्या है? कलावती कन्या ने तुरन्त माता से कहा - मां! मैंने एक ब्राह्मण के घर में मनोरथ प्रदान करने वाला व्रत देखा है। कन्या की उस बात को सुनकर वह वणिक की भार्या व्रत करने को उद्यत हुई और प्रसन्न मन से उस साध्वी ने बन्धु-बान्धवों के साथ भगवान् श्रीसत्यनारायण का व्रत किया तथा इस प्रकार प्रार्थना की - ‘भगवन! आप हमारे पति एवं जामाता के अपराध को क्षमा करें। वे दोनों अपने घर शीघ्र आ जायं।’ इस व्रत से भगवान सत्यनारायण पुनः संतुष्ट हो गये तथा उन्होंने नृपश्रेष्ठ चन्द्रकेतु को स्वप्न दिखाया और स्वप्न में कहा - ‘नृपश्रेष्ठ! प्रातः काल दोनों वणिकों को छोड़ दो और वह सारा धन भी दे दो, जो तुमने उनसे इस समय ले लिया है, अन्यथा राज्य, धन एवं पुत्रसहित तुम्हारा सर्वनाश कर दूंगा।’

राजा से स्वप्न में ऐसा कहकर भगवान सत्यनारायण अन्तर्धान हो गये। इसके बाद प्रातः काल राजा ने अपने सभासदों के साथ सभा में बैठकर अपना स्वप्न लोगों को बताया और कहा - ‘दोनों बंदी वणिकपुत्रों को शीघ्र ही मुक्त कर दो।’ राजा की ऐसी बात सुनकर वे राजपुरुष दोनों महाजनों को बन्धनमुक्त करके राजा के सामने लाकर विनयपूर्वक बोले - ‘महाराज! बेड़ी-बन्धन से मुक्त करके दोनों वणिक पुत्र लाये गये हैं। इसके बाद दोनों महाजन नृपश्रेष्ठ चन्द्रकेतु को प्रणाम करके अपने पूर्व-वृतान्त का स्मरण करते हुए भयविह्वन हो गये और कुछ बोल न सके।

राजा ने वणिक पुत्रों को देखकर आदरपूर्वक कहा -‘आप लोगों को प्रारब्धवश यह महान दुख प्राप्त हुआ है, इस समय अब कोई भय नहीं है।’, ऐसा कहकर उनकी बेड़ी खुलवाकर क्षौरकर्म आदि कराया। राजा ने वस्त्र, अलंकार देकर उन दोनों वणिकपुत्रों को संतुष्ट किया तथा सामने बुलाकर वाणी द्वारा अत्यधिक आनन्दित किया। पहले जो धन लिया था, उसे दूना करके दिया, उसके बाद राजा ने पुनः उनसे कहा - ‘साधो! अब आप अपने घर को जायं।’ राजा को प्रणाम करके ‘आप की कृपा से हम जा रहे हैं।’ - ऐसा कहकर उन दोनों महावैश्यों ने अपने घर की ओर प्रस्थान किया।

चौथा अध्याय,,,,,,,,

श्रीसूत जी बोले - साधु बनिया मंगलाचरण कर और ब्राह्मणों को धन देकर अपने नगर के लिए चल पड़ा। साधु के कुछ दूर जाने पर भगवान सत्यनारायण की उसकी सत्यता की परीक्षा के विषय में जिज्ञासा हुई - ‘साधो! तुम्हारी नाव में क्या भरा है?’ तब धन के मद में चूर दोनों महाजनों ने अवहेलनापूर्वक हंसते हुए कहा - ‘दण्डिन! क्यों पूछ रहे हो? क्या कुछ द्रव्य लेने की इच्छा है? हमारी नाव में तो लता और पत्ते आदि भरे हैं।’ ऐसी निष्ठुर वाणी सुनकर - ‘तुम्हारी बात सच हो जाय’ - ऐसा कहकर दण्डी संन्यासी को रूप धारण किये हुए भगवान कुछ दूर जाकर समुद्र के समीप बैठ गये।

दण्डी के चले जाने पर नित्यक्रिया करने के पश्चात उतराई हुई अर्थात जल में उपर की ओर उठी हुई नौका को देखकर साधु अत्यन्त आश्चर्य में पड़ गया और नाव में लता और पत्ते आदि देखकर मुर्छित हो पृथ्वी पर गिर पड़ा। सचेत होने पर वणिकपुत्र चिन्तित हो गया। तब उसके दामाद ने इस प्रकार कहा - ‘आप शोक क्यों करते हैं? दण्डी ने शाप दे दिया है, इस स्थिति में वे ही चाहें तो सब कुछ कर सकते हैं, इसमें संशय नहीं।

अतः उन्हीं की शरण में हम चलें, वहीं मन की इच्छा पूर्ण होगी।’ दामाद की बात सुनकर वह साधु बनिया उनके पास गया और वहां दण्डी को देखकर उसने भक्तिपूर्वक उन्हें प्रणाम किया तथा आदरपूर्वक कहने लगा - आपके सम्मुख मैंने जो कुछ कहा है, असत्यभाषण रूप अपराध किया है, आप मेरे उस अपराध को क्षमा करें - ऐसा कहकर बारम्बार प्रणाम करके वह महान शोक से आकुल हो गया।

दण्डी ने उसे रोता हुआ देखकर कहा - ‘हे मूर्ख! रोओ मत, मेरी बात सुनो। मेरी पूजा से उदासीन होने के कारण तथा मेरी आज्ञा से ही तुमने बारम्बार दुख प्राप्त किया है।’ भगवान की ऐसी वाणी सुनकर वह उनकी स्तुति करने लगा।

साधु ने कहा - ‘हे प्रभो! यह आश्चर्य की बात है कि आपकी माया से मोहित होने के कारण ब्रह्मा आदि देवता भी आपके गुणों और रूपों को यथावत रूप से नहीं जान पाते, फिर मैं मूर्ख आपकी माया से मोहित होने के कारण कैसे जान सकता हूं! आप प्रसन्न हों। मैं अपनी धन-सम्पत्ति के अनुसार आपकी पूजा करूंगा। मैं आपकी शरण में आया हूं। मेरा जो नौका में स्थित पुराा धन था, उसकी तथा मेरी रक्षा करें।’ उस बनिया की भक्तियुक्त वाणी सुनकर भगवान जनार्दन संतुष्ट हो गये।

भगवान हरि उसे अभीष्ट वर प्रदान करके वहीं अन्तर्धान हो गये। उसके बाद वह साधु अपनी नौका में चढ़ा और उसे धन-धान्य से परिपूर्ण देखकर ‘भगवान सत्यदेव की कृपा से हमारा मनोरथ सफल हो गया’ - ऐसा कहकर स्वजनों के साथ उसने भगवान की विधिवत पूजा की।

भगवान श्री सत्यनारायण की कृपा से वह आनन्द से परिपूर्ण हो गया और नाव को प्रयत्नपूर्वक संभालकर उसने अपने देश के लिए प्रस्थान किया। साधु बनिया ने अपने दामाद से कहा - ‘वह देखो मेरी रत्नपुरी नगरी दिखायी दे रही है’। इसके बाद उसने अपने धन के रक्षक दूत कोअपने आगमन का समाचार देने के लिए अपनी नगरी में भेजा।

उसके बाद उस दूत ने नगर में जाकर साधु की भार्या को देख हाथ जोड़कर प्रणाम किया तथा उसके लिए अभीष्ट बात कही -‘सेठ जी अपने दामाद तथा बन्धुवर्गों के साथ बहुत सारे धन-धान्य से सम्पन्न होकर नगर के निकट पधार गये हैं।

’ दूत के मुख से यह बात सुनकर वह महान आनन्द से विह्वल हो गयी और उस साध्वी ने श्री सत्यनारायण की पूजा करके अपनी पुत्री से कहा -‘मैं साधु के दर्शन के लिए जा रही हूं, तुम शीघ्र आओ।’ माता का ऐसा वचन सुनकर व्रत को समाप्त करके प्रसाद का परित्याग कर वह कलावती भी अपने पति का दर्शन करने के लिए चल पड़ी। इससे भगवान सत्यनारायण रुष्ट हो गये और उन्होंने उसके पति को तथा नौका को धन के साथ हरण करके जल में डुबो दिया।

इसके बाद कलावती कन्या अपने पति को न देख महान शोक से रुदन करती हुई पृथ्वी पर गिर पड़ी। नाव का अदर्शन तथा कन्या को अत्यन्त दुखी देख भयभीत मन से साधु बनिया से सोचा - यह क्या आश्चर्य हो गया? नाव का संचालन करने वाले भी सभी चिन्तित हो गये।

तदनन्तर वह लीलावती भी कन्या को देखकर विह्वल हो गयी और अत्यन्त दुख से विलाप करती हुई अपने पति से इस प्रकार बोली -‘ अभी-अभी नौका के साथ वह कैसे अलक्षित हो गया, न जाने किस देवता की उपेक्षा से वह नौका हरण कर ली गयी अथवा श्रीसत्यनारायण का माहात्म्य कौन जान सकता है!’ ऐसा कहकर वह स्वजनों के साथ विलाप करने लगी और कलावती कन्या को गोद में लेकर रोने लगी।

कलावती कन्या भी अपने पति के नष्ट हो जाने पर दुखी हो गयी और पति की पादुका लेकर उनका अनुगमन करने के लिए उसने मन में निश्चय किया। कन्या के इस प्रकार के आचरण को देख भार्यासहित वह धर्मज्ञ साधु बनिया अत्यन्त शोक-संतप्त हो गया और सोचने लगा - या तो भगवान सत्यनारायण ने यह अपहरण किया है अथवा हम सभी भगवान सत्यदेव की माया से मोहित हो गये हैं।

अपनी धन शक्ति के अनुसार मैं भगवान श्री सत्यनारायण की पूजा करूंगा। सभी को बुलाकर इस प्रकार कहकर उसने अपने मन की इच्छा प्रकट की और बारम्बार भगवान सत्यदेव को दण्डवत प्रणाम किया। इससे दीनों के परिपालक भगवान सत्यदेव प्रसन्न हो गये। भक्तवत्सल भगवान ने कृपापूर्वक कहा - ‘तुम्हारी कन्या प्रसाद छोड़कर अपने पति को देखने चली आयी है, निश्चय ही इसी कारण उसका पति अदृश्य हो गया है। यदि घर जाकर प्रसाद ग्रहण करके वह पुनः आये तो हे साधु बनिया तुम्हारी पुत्री पति को प्राप्त करेगी, इसमें संशय नहीं।

कन्या कलावती भी आकाशमण्डल से ऐसी वाणी सुनकर शीघ्र ही घर गयी और उसने प्रसाद ग्रहण किया। पुनः आकर स्वजनों तथा अपने पति को देखा। तब कलावती कन्या ने अपने पिता से कहा - ‘अब तो घर चलें, विलम्ब क्यों कर रहे हैं?’ कन्या की वह बात सुनकर वणिकपुत्र संतुष्ट हो गया और विधि-विधान से भगवान सत्यनारायण का पूजन करके धन तथा बन्धु-बान्धवों के साथ अपने घर गया। तदनन्तर पूर्णिमा तथा संक्रान्ति पर्वों पर भगवान सत्यनारायण का पूजन करते हुए इस लोक में सुख भोगकर अन्त में वह सत्यपुर बैकुण्ठलोक में चला गया।

पांचवा अध्याय,,,,,,

श्रीसूत जी बोले - श्रेष्ठ मुनियों! अब इसके बाद मैं दूसरी कथा कहूंगा, आप लोग सुनें। अपनी प्रजा का पालन करने में तत्पर तुंगध्वज नामक एक राजा था। उसने सत्यदेव के प्रसाद का परित्याग करके दुख प्राप्त किया। एक बाद वह वन में जाकर और वहां बहुत से पशुओं को मारकर वटवृक्ष के नीचे आया। वहां उसने देखा कि गोपगण बन्धु-बान्धवों के साथ संतुष्ट होकर भक्तिपूर्वक भगवान सत्यदेव की पूजा कर रहे हैं। राजा यह देखकर भी अहंकारवश न तो वहां गया और न उसे भगवान सत्यनारायण को प्रणाम ही किया। पूजन के बाद सभी गोपगण भगवान का प्रसाद राजा के समीप रखकर वहां से लौट आये और इच्छानुसार उन सभी ने भगवान का प्रसाद ग्रहण किया। इधर राजा को प्रसाद का परित्याग करने से बहुत दुख हुआ।

उसका सम्पूर्ण धन-धान्य एवं सभी सौ पुत्र नष्ट हो गये। राजा ने मन में यह निश्चय किया कि अवश्य ही भगवान सत्यनारायण ने हमारा नाश कर दिया है। इसलिए मुझे वहां जाना चाहिए जहां श्री सत्यनारायण का पूजन हो रहा था। ऐसा मन में निश्चय करके वह राजा गोपगणों के समीप गया और उसने गोपगणों के साथ भक्ति-श्रद्धा से युक्त होकर विधिपूर्वक भगवान सत्यदेव की पूजा की। भगवान सत्यदेव की कृपा से वह पुनः धन और पुत्रों से सम्पन्न हो गया तथा इस लोक में सभी सुखों का उपभोग कर अन्त में सत्यपुर वैकुण्ठलोक को प्राप्त हुआ।

श्रीसूत जी कहते हैं - जो व्यक्ति इस परम दुर्लभ श्री सत्यनारायण के व्रत को करता है और पुण्यमयी तथा फलप्रदायिनी भगवान की कथा को भक्तियुक्त होकर सुनता है, उसे भगवान सत्यनारायण की कृपा से धन-धान्य आदि की प्राप्ति होती है। दरिद्र धनवान हो जाता है, बन्धन में पड़ा हुआ बन्धन से मुक्त हो जाता है, डरा हुआ व्यक्ति भय मुक्त हो जाता है - यह सत्य बात है, इसमें संशय नहीं। इस लोक में वह सभी ईप्सित फलों का भोग प्राप्त करके अन्त में सत्यपुर वैकुण्ठलोक को जाता है। हे ब्राह्मणों! इस प्रकार मैंने आप लोगों से भगवान सत्यनारायण के व्रत को कहा, जिसे करके मनुष्य सभी दुखों से मुक्त हो जाता है।

कलियुग में तो भगवान सत्यदेव की पूजा विशेष फल प्रदान करने वाली है। भगवान विष्णु को ही कुछ लोग काल, कुछ लोग सत्य, कोई ईश और कोई सत्यदेव तथा दूसरे लोग सत्यनारायण नाम से कहेंगे। अनेक रूप धारण करके भगवान सत्यनारायण सभी का मनोरथ सिद्ध करते हैं। कलियुग में सनातन भगवान विष्णु ही सत्यव्रत रूप धारण करके सभी का मनोरथ पूर्ण करने वाले होंगे।

 हे श्रेष्ठ मुनियों! जो व्यक्ति नित्य भगवान सत्यनारायण की इस व्रत-कथा को पढ़ता है, सुनता है, भगवान सत्यारायण की कृपा से उसके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। हे मुनीश्वरों! पूर्वकाल में जिन लोगों ने भगवान सत्यनारायण का व्रत किया था, उसके अगले जन्म का वृतान्त कहता हूं, आप लोग सुनें।

महान प्रज्ञासम्पन्न शतानन्द नाम के ब्राह्मण सत्यनारायण व्रत करने के प्रभाव से दूसे जन्म में सुदामा नामक ब्राह्मण हुए और उस जन्म में भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया। लकड़हारा भिल्ल गुहों का राजा हुआ और अगले जन्म में उसने भगवान श्रीराम की सेवा करके मोक्ष प्राप्त किया। महाराज उल्कामुख दूसरे जन्म में राजा दशरथ हुए, जिन्होंने श्रीरंगनाथजी की पूजा करके अन्त में वैकुण्ठ प्राप्त किया।

इसी प्रकार धार्मिक और सत्यव्रती साधु पिछले जन्म के सत्यव्रत के प्रभाव से दूसरे जन्म में मोरध्वज नामक राजा हुआ। उसने आरे सेचीरकर अपने पुत्र की आधी देह भगवान विष्णु को अर्पित कर मोक्ष प्राप्त किया। महाराजा तुंगध्वज जन्मान्तर में स्वायम्भुव मनु हुए और भगवत्सम्बन्धी सम्पूर्ण कार्यों का अनुष्ठान करके वैकुण्ठलोक को प्राप्त हुए। जो गोपगण थे, वे सब जन्मान्तर में व्रजमण्डल में निवास करने वाले गोप हुए और सभी राक्षसों का संहार करके उन्होंने भी भगवान का शाश्वत धाम गोलोक प्राप्त किया।

इस प्रकार श्रीस्कन्दपुराण के अन्तर्गत रेवाखण्ड में श्रीसत्यनारायणव्रत कथा का यह पांचवां अध्याय पूर्ण हुआ

गुरुवार, 27 अप्रैल 2023

बद्रीनाथ मंदिर को 15 टन फूलों से सजाया गया है.

*🔴भारी बर्फबारी के बीच खुले बद्रीनाथ धाम के कपाट, जयकारों के बीच नाचने लगे श्रद्धालु*


*बद्रीनाथ धाम के कपाट भक्तों के लिए खोल दिए गए हैं. इसी के साथ ही उत्तराखंड में चार धाम की यात्रा शुरू हो गई है. वैदिक मंत्रोच्चार के साथ यहां पूरे विधि विधान से पूजा-अर्चना हुई. भारी बर्फबारी के बीच श्रद्धालुओं का उत्साह देखने लायक था और कपाट खुलते ही वह झूमने लगे.*

बद्रीनाथ मंदिर को 15 टन फूलों से सजाया गया है.

*नई दिल्ली,*
केदारनाथ के बाद अब भगवान बद्रीनाथ धाम के कपाट भी यात्रियों के लिए खुल गए हैं. कपाट खुलने से पहले ही बद्रीनाथ में भारी बर्फबारी हो रही है, लेकिन इसके बावजूद भी श्रद्धालु वहां जयकारे लगाने के साथ झूमते हुए नजर आए. हर साल की तरह इस साल भी पहली पूजा और आरती देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम से हुई. आईटीबीपी के बैंड के अलावा गढ़वाल स्काउट्स भी इस मौके पर प्रस्तुति दी. कपाट खुलने से पहले शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद मंदिर पहुंच गए थे. मंदिर को 15 टन से अधिक फूलों से सजाया गया है. 

*धार्मिक मान्यता*
12 महीने भगवान विष्णु जहां विराजमान होते हैं, उस सृष्टि के आठवें बैकुंठ धाम को बद्रीनाथ के नाम से जाना जाता है. मान्यता है कि भगवान विष्णु यहां 6 महीने विश्राम करते हैं और 6 महीने भक्तों को दर्शन देते हैं. वहीं दूसरी मान्यता यह भी है कि साल के 6 महीने मनुष्य भगवान विष्णु की पूजा करते हैं तो बाकी के 6 महीने यहां देवता भगवान विष्णु की पूजा करते हैं जिसमें मुख्य पुजारी खुद देवर्षि नारद होते हैं. 

*चारधाम यात्रा का होगा आगाज*

बद्रीनाथ धाम के कपाट खुलने के साथ ही उत्तराखंड में चार धाम की यात्रा शुरू हो गई है. इस दिन का चयन टिहरी नरेश करते हैं जो कि एक पुरानी परंपरा रही है. पूर्व धर्माधिकारी भुवन चंद्र उनियाल बताते हैं कि जिस तारीख से वैशाख शुरू हो वही तिथि से बद्रीनाथ धाम के कपाट खोले जाते हैं और परंपरा के अनुसार नरेंद्र नगर के टिहरी नरेश की तारीख तय करते हैं. परंपराओं के अनुसार यहां 6 महीने मनुष्य और 6 महीने देवता भगवान विष्णु की आराधना करते हैं.

*चार धाम यात्रा के लिए उत्तराखंड तैयार.*

चारधाम: केदारनाथ धाम के लिए बंद किये गए रजिस्ट्रेशन, जानिए वजह.

केदारनाथ धाम के भक्तों के लिए खुशखबरी, आज से खोले गए कपाट.

केदारनाथ-बद्रीनाथ में स्पेशल दर्शन के लिए देने होंगे इतने रुपये.

*तैयारियां जोरों पर*
बद्रीनाथ धाम के अंदर भी जगह-जगह निर्माण कार्य और तैयारियां जोरों शोरों पर हैं. संत महात्माओं की टोली बद्रीनाथ पहुंच गई है तो श्रद्धालु भी धाम में पहुंच चुके हैं. सडकें पहले के मुकाबले ज्यादा चौड़ी हो चुकी हैं. गोविंदघाट से रास्ता बद्रीनाथ और सिखों के पवित्र धर्मस्थल हेमकुंड साहिब के लिए अलग होता है. बॉर्डर रोड ऑर्गेनाइजेशन यानी सीमा सड़क संगठन की ओर से पीपीपी की तर्ज पर एक रेस्टोरेंट भी बनाया जा रहा है. अगले 2 दिनों में यह रेस्टोरेंट्स है तैयार हो जाएगा और बद्रीनाथ की यात्रा करने वाले श्रद्धालुओं को बेहतर क्वालिटी का खाना मिलेगा.

बुधवार, 26 अप्रैल 2023

गंगा सप्तमी 27 अप्रैल, क्या है सही तिथि, जानिए पूजा विधि

गंगा सप्तमी  27 अप्रैल, क्या है सही तिथि, जानिए पूजा विधि*


*🚩🌺गंगा नदी का महत्व हम सभी जानते हैं। गंगा जल की पवित्रता पर ग्रंथों में कई उल्लेख मिलते हैं। वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को गंगा सप्तमी मनाई जाती है। इसी दिन मां गंगा पृथ्वी पर अवतरित हुई थीं।*
 
*🚩🌺गंगा नदी और गंगा जल की तरह ही हिंदू धर्म में गंगा सप्तमी और गंगा दशहरा का महत्व है। इस दिन मां गंगा की पूजा करने से, जल को स्पर्श करने, स्मरण करने घर में ही गंगा जल का आचमन करने से समस्त पापों से मुक्ति मिलती है।* 
 
*🚩🌺गंगा सप्तमी पर गंगा नदी में स्नान से करोड़ों पापों का नाश होता है। अनंत पुण्य मिलता है। इस दिन दान करना श्रेष्ठ माना गया है। गंगा सप्तमी के दिन स्नान-दान पूजा और मंत्र से सहत का साथ मिलता है, रिश्तों में मिठास आती है। धन खूब आता है, दान-धर्म में रूचि बढ़ती है। जीवन में खुशियां आती हैं और संतान सुख प्राप्त होता है।*

*🚩🌺लेकिन वास्तव में गंगा नदी के प्रदूषण की स्थिति चिंताजनक है। आंकड़ों में गंगा नदी का सच डराने वाला है।*  

*🚩🌺गंगा सप्तमी 2023 तिथि* 

*🚩🌺वैशाख शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि की शुरुआत 26 अप्रैल 2023 को सुबह 11 बजकर 27 मिनट पर हो रही है। ये तिथि अगले दिन 27 अप्रैल को दोपहर 01 बजकर 38 मिनट पर समाप्त होगी। शास्त्रों में तीर्थ स्नान के लिए ब्रह्म मुहूर्त को उत्तम बताया गया है, इसलिए 27 अप्रैल 2023 को गंगा स्नान करना शुभ होगा। 27 अप्रैल को मां गंगा की पूजा का शुभ मुहूर्त सुबह 11 बजे से दोपहर 01 बजकर 38 मिनट तक है। विविध मतानुसार 26 और 27 अप्रैल दोनों दिन गंगा सप्तमी मनाई जा रही है। लेकिन शास्त्र सम्मत तिथि 27 अप्रैल अधिक शुभ है।*

*🚩🌺गंगा सप्तमी पूजा विधि*

*🚩🌺गंगा सप्तमी के दिन यदि आप गंगा नदी में स्नान नहीं कर पा रहे हैं तो सूर्योदय से पहले उठकर घर पर ही पानी में गंगाजल मिलाकर स्नान कर लें।*
 
*🚩🌺इसके बाद अपने घर के मंदिर में मां गंगा की मूर्ति या तस्वीर के साथ कलश की स्थापना करें।*

*🚩🌺इस कलश में रोली, चावल, गंगाजल, शहद, चीनी, इत्र और गाय का दूध इन सभी सामग्रियों को भर कर कलश के ऊपर नारियल रखें और इसके आसपास मुख पर अशोक के पांच पत्ते लगा दें। साथ ही नारियल पर कलावा बांध दें।*
 
*🚩🌺फिर देवी गंगा की प्रतिमा या तस्वीर पर कनेर का फूल, लाल चंदन, फल और गुड़ का प्रसाद चढ़ाकर मां गंगा की आरती करें।*
 
*🚩🌺साथ ही 'गायत्री मंत्र' तथा गंगा सहस्त्रनाम स्त्रोत का का जाप करें।* 

*🚩🌺धार्मिक मान्यता*

*🚩🌺गंगा सप्तमी के दिन सुबह सूर्योदय से पहले उठकर गंगा नदी में स्नान करना बहुत ही शुभ होता है।* 
 
*🚩🌺इस दिन गंगा जी में डुबकी लगाने से जीवन के सभी दुखों से मुक्ति मिल जाती है।*

*🚩🌺साथ ही सभी तरह के पाप मिट जाते हैं।*
 
   *🌺🌻उपाय🌺🌻* 

*🚩🌺यदि किसी व्यक्ति के घर में हमेशा अनबन या क्लेश भरा माहौल बना रहता है तो उसे अपने पूरे घर में पूजा के बाद गंगा जल का छिड़काव करना चाहिए।* 
 
*🚩🌺इससे घर का क्लेश भी दूर होगा साथ ही नकारात्मकता दूर होगी और सकारात्मकता का प्रवेश होगा।* 
 
*🚩🌺जो व्यक्ति ग्रह दोष से पीड़ित हैं उन्हें भगवान शिव की पूजा के बाद उनका गंगा जल से अभिषेक करना चाहिए।*
 
*🚩🌺गंगा सप्तमी पर एक कलश में पानी लेकर उसमें थोड़ा सा गंगा जल मिला लें। अब इस जल को पीपल की जड़ों में चढ़ाएं। इससे ग्रह दोष से उत्पन्न परेशानियों से छुटकारा मिलेगा।* 

*🚩🌺कर्ज से परेशान हैं तो पीतल के कलश में गंगाजल लेकर घर की उत्तर पूर्व दिशा के कोने में गंगा जल को रख दें। कलश के मुंह को लाल कपड़े से ढक दें। इस उपाय से कर्ज से धीरे धीरे राहत मिलने लगती है।*  
 
*🚩🌺यदि नौकरी संबंधी समस्या से परेशान हैं तो गंगा सप्तमी से लेकर 40 दिन तक पीतल या चांदी के कलश में गंगाजल की 11 बूंदें शुद्ध सामान्य जल में मिलाकर  डालकर 5 बेलपत्र के साथ शिवलिंग पर अर्पित करें।*
 
*🚩🌺विवाह में बाधा आ रही है तो नहाने के पानी में गंगाजल और चुटकी भर हल्दी मिलाकर लगातार 21 दिन स्नान करें।*

 
*🌺🌻गंगाजल के नियम* 

*🌺🌻गंगा जल को कभी भी प्लास्टिक के बर्तन में न रखें।* 

*🌺🌻गंगाजल को कभी भी जूठे हाथ या फिर जूते-चप्पल पहनकर न छुएं।*

*🌺🌻गंगाजल को किसी अंधेरे वाली जगह पर बंद करके नहीं रखना चाहिए।* 

*🌺🌻गंगा जल को हमेशा अपने घर के ईशान कोण यानि पूजा घर में ही रखना चाहिए।*

*🕉️मां गंगा का मंत्र : ॐ नमो गंगायै विश्वरूपिण्यै नारायण्यै नमो नमः'* 
 
*🌺🌻गंगा में स्नान करते समय हमेशा 3, 5, 7 या 12 डुबकियां लगाना अच्छा बताया गया है।* 
 
*🌺🌻यदि आप तीन डुबकी लगा रहे हैं तो आप एक डुबकी देवी-देवताओं के नाम से, एक अपने पुरखों के नाम से और एक अपने परिवार के नाम से लगाएं।*

🚩🌻🌺🚩🌻🌺🚩🌻🌺🚩

भगवान विष्णु का हयग्रीव अवतार

एक बार माता लक्ष्मी गहनों से सुसज्जित होकर भगवान विष्णु के पास आईं। भगवान विष्णु उन्हें देखकर मुस्कुराए माता लक्ष्मी ने उसे अपना अपमान समझा और भगवान विष्णु को श्राप दिया ''कि आपका मस्तक आपके धड़ से विलग हो जाएगा ''। उसी समय हयग्रीव नाम का एक पराकर्मी दानव सरस्वती नदी के तट पर चला गया और वहां उसने माता पार्वती की घोर तपस्या आरम्भ कर दी। माता पार्वती ने उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर उसे वरदान मांगने को कहा तो वह बोला ''कि हे माते मुझे अमरता का वर दीजिए ’'। माता पार्वती ने कहा '' कि हे असुर राज संसार में जिसका जन्म होता है उसकी मृत्यु भी अवश्य होती है यह विधि का विधान है ''। जब माता पार्वती ने हयग्रीव को अमरता का वर देने से इंकार किया तो वह बोला कि ''हे मां मैं ही इस सृष्टि में एक ऐसा प्राणी हूं जिसका सिर घोड़े का और धड़ मनुष्य का है सो मुझे वरदान दीजिए कि मेरी मृत्यु हयग्रीव के ही हाथों हों ''। माता पार्वती तथास्तु कहकर अंतर्ध्यान हो गई। इस वरदान का उसने दुरुपयोग शुरू कर दिया क्योंकि वह सोचने लगा कि एकमात्र वही सृष्टि पर ऐसा है जो हयग्रीव है इसलिए उसने ब्रह्मा जी से वेदों की शक्तियों को अपने भीतर समाहित कर लिया जिससे वेद शक्तिहीन हो गए और संसार से ज्ञान का प्रकाश हट
गया और पाप का अंधकार छा गया। भगवान विष्णु को उसने युद्ध के लिए ललकारा। भगवान विष्णु तत्काल गरुड़ पर आरूढ़ होकर हयग्रीव से युद्ध करने गए। दोनों का युद्ध कई दिनों तक चला। दोनों को युद्ध करते हुए एक सप्ताह हो गया था आठवें दिन हयग्रीव तथा भगवान विष्णु दोनों थककर विश्राम करने लगे। ब्रह्मा जी ने उस समय अपने तेज़ से एक कीड़ा उत्पन्न किया और उसे आदेश दिया कि वह नारायण के धनुष की प्रत्यंचा काट दे। उसने आदेश मानते हुए ऐसा ही किया और भगवान विष्णु के धनुष की प्रत्यंचा काट दी जिससे भगवान विष्णु का सिर उनके धड़ से अलग हो गया उस कारण चारों ओर अन्धकार छा गया। देवताओं ने अश्विनी कुमारों का स्मरण किया। ब्रह्मा जी भी एक घोड़े की गर्दन ले आए। अश्विनी कुमारों ने भगवान विष्णु के धड़ से घोड़े की गर्दन का जुड़ाव किया जिसके कारण भगवान विष्णु का हयग्रीव अवतार हुआ। हयग्रीव रूपी विष्णु तथा हयग्रीव में बहुत भयानक युद्ध चला। हयग्रीव रूपी भगवान विष्णु ने एक बाण चलाया जिससे सुदर्शन चक्र प्रकट हुआ और सुदर्शन चक्र ने पलक झपकते ही हयग्रीव का सिर उसके धड़ से अलग कर दिया। इस प्रकार भगवान विष्णु ने दुष्ट दानव हयग्रीव का वध करके वेदों की शक्तियों को उसके भीतर से निकलकर ब्रह्मा जी को सौंप दिया।

शंकरो शंकर: साक्षात्’

शंकरो शंकर: साक्षात्’ 

एक वृद्ध सन्यासी ओंकारेश्वर क्षेत्र में एक गुफा के भीतर तपस्यारत था। शरीर की अवस्था अब ऐसी न थी कि वह यात्राएं कर सकें। सन्यासी का प्रभाव ऐसा था कि जो जंगली पशु सदा हिंसक रहते, वे गुफा के समीप आते ही शांत हो जाते।

सन्यासी का सारा समय ध्यान में गुजरता, उसे प्रतीक्षा थी किसी के आगमन की। उसे परंपरा से प्राप्त ज्ञान किसी को सौंप कर ही इस संसार से विदा लेनी थी। प्रतीक्षा लंबी होती जा रही थी, लेकिन विश्वास दृढ़ था। 

एक दिन वहां से बहती नर्मदा नदी में बाढ़ आ गई। नर्मदा का उफान देखकर किसी की हिम्मत नही थी कि कोई उसके समीप भी जा सके। पशु पक्षियों में भगदड़ मच गई, शोर मचाती नर्मदा हर तट, बांध को तोड़ती जा रही थी।

एक बालक जिसने भगवा रंग के वस्त्र पहने थे, माथे पर त्रिपुंड, शरीर पर यज्ञोपवीत, सर पर गोखुरी शिखा, गले मे रुद्राक्ष और चेहरे पर सूर्य सा तेज औऱ हाथ म् कमंडल पकड़ा हुआ था, नर्मदा के समीप आकर खड़ा हो गया। वह रुक नही सकता था, उसने शांत चित्त से नर्मदा को देखा, उफान देखकर अंदाजा हो गया कि अभी नदी को पार नही किया जा सकता। उस बाल ब्रह्मचारी ने माँ नर्मदा को प्रणाम किया औऱ नर्मदा की स्तुति करते हुए कहा,

"सबिंदु सिन्धु सुस्खल तरंग भंग रंजितम
द्विषत्सु पाप जात जात कारि वारि संयुतम
कृतान्त दूत काल भुत भीति हारि वर्मदे
त्वदीय पाद पंकजम नमामि देवी नर्मदे ||"

इस नर्मदाष्टकम को सुनकर देखते ही देखते नर्मदा उसके कमंडल में आकर समा गई।

नदी के दूसरे छोर पर जंगल में स्थित गुफा में समाधिरत सन्यासी की आंखे खुल गई, वह जान गया कि प्रतीक्षा समाप्त हुई। तभी बाल ब्रह्चारी उसके सामने आकर खड़ा हो गया। दोनों ने एक दूसरे को देखा, ब्रह्मचारी ने सन्यासी को प्रणाम किया तो सन्यासी ने परम्परा के निर्वाहन हेतु उसे बाहर से आशीर्वाद दिया, किन्तु मन ही मन प्रणाम किया।

सब कुछ जानते हुए भी लोकाचार की मर्यादा रखते हुए सन्यासी ने पूछा,"कौन हो तुम? अपना परिचय दो।"
बाल ब्रह्चारी जो मात्र आठ वर्ष का था, उसने कहा,

"मनो बुद्धय अहंकार चित्तानि नाहं
न च श्रोत्र जिव्हे न च घ्राण नेत्रे
न च व्योम भूमिर्न तेजो न वायुः
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम॥

मैं न तो मन हूं‚ न बुद्धि‚ न अहांकार‚ न ही चित्त हूं
मैं न तो कान हूं‚ न जीभ‚ न नासिका‚ न ही नेत्र हूं
मैं न तो आकाश हूं‚ न धरती‚ न अग्नि‚ न ही वायु हूं
मैं तो मात्र शुद्ध चेतना हूं‚ अनादि‚ अनंत हूं‚ अमर हूं।।"

निर्वाण षट्कम के रूप में ब्रह्चारी ने जो परिचय दिया वह सुनकर सन्यासी की आँखों से आंसू निकल आये औऱ उसने प्रेम से उस बालक को गले लगा लिया।

सन्यासी की प्रतीक्षा औऱ ब्रह्चारी की खोज समाप्त हुई। सन्यासी गोविंद भगवत्पाद ने ब्रह्चारी शंकर को विधिवत सन्यास की दीक्षा दी औऱ परंपरागत ज्ञान को शंकर को सौंप दिया।

यही बालब्रह्चारी शंकर, आदि गुरु शंकराचार्य बने जो स्वयं शिवातार थे। वैशाख शुक्ल पंचमी को 507 ईसापूर्व  केरल के कलाड़ी ग्राम में जन्मे आदिगुरु ने महाराज सुधन्वा की सहायता से वैदिक धर्म को पुनर्जीवित किया। उन्होंने चार मठों की स्थापना की, पूर्व में गोवर्धन, उत्तर में जोशी, पश्चिम में शारदा औऱ दक्षिण में श्रृंगेरी।

आदिगुरु शंकराचार्य भगवान की आज 2530वीं जयंती है, 
आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएं 🙏

#जय_भूतेश्वर

मंगलवार, 25 अप्रैल 2023

श्री आद्य शंकराचार्य जयंती आज

श्री आद्य शंकराचार्य जयंती आज

आद्य शंकराचार्य एक महान हिन्दू दार्शनिक एवं धर्मगुरु थे। आदि शंकराचार्य जी का जन्म 788 ईसा पूर्व केरल के कालड़ी में एक नंबूदरी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इसी उपलक्ष्य में वैशाख मास की शुक्ल पंचमी के दिन आदि गुरु शंकराचार्य जयंती मनाई जाती है। इस वर्ष आद्यगुरू शंकराचार्य जयंती 25 अप्रैल 2023, को मनाई जाएगी। हिन्दू धार्मिक मान्यता अनुसार इन्हें भगवान शंकर का अवतार माना जाता है यह अद्वैत वेदान्त के संस्थापक और हिन्दू धर्म प्रचारक थे। आद्य शंकराचार्य जी जीवनपर्यंत सनातन धर्म के जीर्णोद्धार में लगे रहे उनके प्रयासों ने हिंदु धर्म को नव चेतना प्रदान की।

आदि शंकराचार्य जयन्ती के पावन अवसर पर शंकराचार्य मठों में पूजन हवन का आयोजन किया जाता है। देश भर में आदि शंकराचार्य जी को पूजा जाता है। अनेक प्रवचनों एवं सतसंगों का आयोजन भी होता है। सनातन धर्म के महत्व पर की उपदेश दिए जाते हैं और चर्चा एवं गोष्ठी भी कि जाती है।

मान्यता है कि इस पवित्र समय अद्वैत सिद्धांत का पाठ करने से व्यक्ति को परेशानियों से मुक्ति प्राप्त होती है। इस दिन धर्म यात्राएं एवं शोभा यात्रा भी निकाली जाती है। आदि शंकराचार्य जी ने अद्वैत वाद के सिंद्धांत को प्रतिपादित किया जिस कारण आदि शंकराचार्य जी को हिंदु धर्म के महान प्रतिनिधि के तौर पर जाना जाता है, आदि शंकराचार्य, जी को जगद्गुरु  एवं शंकर भगवद्पादाचार्य के नाम से भी जाना जाता है।

आदि शंकराचार्य’ की जन्म कथा 
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असाधारण प्रतिभा के धनी आद्य जगदगुरू शंकराचार्य का जन्म वैशाख शुक्ल पंचमी के पावन दिन हुआ था। दक्षिण के कालाड़ी ग्राम में जन्में शंकर जी आगे चलकर ‘जगद्गुरु आदि शंकराचार्य’ के नाम से विख्यात हुए। इनके पिता शिवगुरु नामपुद्रि के यहाँ जब विवाह के कई वर्षों बाद भी कोई संतान नहीं हुई, तो इन्होंने अपनी पत्नी विशिष्टादेवी सहित संतान प्राप्ति की इच्छा को पूर्ण करने के लिए से दीर्घकाल तक भगवान शंकर की आराधना की इनकी श्रद्धा पूर्ण कठिन तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें स्वप्न में दर्शन दिए और वरदान मांगने को कहा।

शिवगुरु ने प्रभु शंकर से एक दीर्घायु सर्वज्ञ पुत्र की इच्छा व्यक्त की। तब भगवान शिव ने कहा कि ‘वत्स, दीर्घायु पुत्र सर्वज्ञ नहीं होगा और सर्वज्ञ पुत्र दीर्घायु नहीं होगा अत: यह दोनों बातें संभव नहीं हैं तब शिवगुरु ने सर्वज्ञ पुत्र की प्राप्ति की प्रार्थना की और भगवान शंकर ने उन्हें सर्वज्ञ पुत्र की प्राप्ति का वरदान दिया तथा कहा कि मैं स्वयं पुत्र रूप में तुम्हारे यहाँ जन्म लूंगा।

इस प्रकार उस ब्राह्मण दंपती को संतान रूप में पुत्र रत्न की प्राप्त हुई और जब बालक का जन्म हुआ तो उसका नाम शंकर रखा गया शंकराचार्य ने शैशव में ही संकेत दे दिया कि वे सामान्य बालक नहीं है। सात वर्ष की अवस्था में उन्होंने वेदों का पूर्ण अध्ययन कर लिया था, बारहवें वर्ष में सर्वशास्त्र पारंगत हो गए और सोलहवें वर्ष में ब्रह्मसूत्र- भाष्य कि रचना की उन्होंने शताधिक ग्रंथों की रचना शिष्यों को पढ़ाते हुए कर दी अपने इन्हीं महान कार्यों के कारण वह आदि गुरू शंकराचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए।

आदि शंकराचार्य जयंती का महत्व 
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आदि शंकराचार्य जयन्ती के दिन शंकराचार्य मठों में पूजन हवन किया जाता है और पूरे देश में सनातन धर्म के महत्व पर विशेष कार्यक्रम किए जाते हैं। मान्यता है कि आदि शंकराचार्य जंयती के अवसर पर अद्वैत सिद्धांत का किया जाता है।

इस अवसर पर देश भर में शोभायात्राएं निकली जाती हैं तथा जयन्ती महोत्सव होता है जिसमें बडी संख्या में श्रद्वालु भाग लेते हैं तथा यात्रा करते समय रास्ते भर गुरु वन्दना और भजन-कीर्तनों का दौर रहता है। इस अवसर पर अनेक समारोह आयोजित किए जाते हैं जिसमें वैदिक विद्वानों द्वारा वेदों का सस्वर गान प्रस्तुत किया जाता है और समारोह में शंकराचार्य विरचित गुरु अष्टक का पाठ भी किया जाता है।

आदि शंकराचार्य के कुछ उपदेश
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अज्ञान का नाश ही मोक्ष है।
समय पर दिया गया दान अनमोल होता है।
सत्य वह है जो जीवों की सहायता करे।
स्वयं का निर्मल मन ही सबसे बड़ा तीर्थ है।
वह ज्ञान है जो ब्रह्म से जुड़ने में मदद करता है।


शनिवार, 22 अप्रैल 2023

जाती का विनाश नही सुधार जरूरी @ महेश्री

भारत भाग्य विधाता 
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जाती का  विनाश नही सुधार जरूरी @ महेश्री 
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दुनिया मे एकल धर्मं के देश अधिक.
 जितनी ऊनकी नज़र जाती उतने को ही वे दूरी / रोशनी समझते .
भारत जो आज हे,  वो अतीत की निरन्तरता  मे हे .
ना  तो पूरा आधुनिक तथा ना  ही पुरातन  ही .
दुनिया की लगभग सभ्यताये यूनान  से रोम तक खत्म हो गयी 
लेकिन भारत की सभ्यता  क्यो बची रही?
हमारी  सभ्यता बाकी की तरह खुद  को नवीन नही कर पायी ?
सनातनता  को उपलब्धी मानने वाले गैर उत्पादक अधिक नही ?
अतीत से बचा के जो लाये हे तथा जो हे वो भविष्य मे जा  पायेगा 
वो ही सनातन , बाकी सब त्यागने जैसा कचरा ?
बाबा / प्रचारक को सनातनता  पे बोलने की क्या  ज़रुरत ?
बिना ग्रहस्त / विवाहित हुये अनुभवहीनता  की बाते क्या  काल्पनिक भर नही सेक्स के आनन्द की सनातनता  को लेकर ?
गांधी ने सत्य तथा अहिंसा  की बात की ना  की ब्रहमचर्य  की ?
उन्होने प्रयोग का  साहस  किया  अंत तक तथा उसको नपुन्शक  लोगो के लिए छोड़ दिया ,की वो झूट को महिमा  माडित  करे तो करते रहे सदियो की झूट की तरह .
वाजपयी ने खुद को अविवाहित  बोला ना  की ब्रहमचारी .
सनातनी  होने के लिए सत्य का  चिंतन  जरूरी ये हमने देखा .
वाजपयी भारत रत्न /गांधी  को राष्ट्रपिता  सनातनी  होने के लिए?
 बाबा तथा प्रचारक जी   को अतीत / उधार का   नही खुद का  अनुभव  बताना / बोलना चाहिये अगर  बताना  ही हो तो .
भारत  मे जाती  तथा वर्ग हे जबकी दुनिया मे वर्ग  भर ही .
जाती अगर व्यवस्था हे तो ठीक तथा बाधा  हो तो लांघने योग्य .
ईश्वर , धर्मं तथा जाती अतीत के इजाद  हे मनुष्य के , 
अभी तो जिसको विवेक नही वो ही इनको  सनातन मानता?
विग्यान , विवेक तथा व्यक्ती   ने ईश्वर , धर्मं तथा जाती को छोटा किया  हे दुनिया मे तथा भारत क्या  पीछे रहेगा ?
भारत मे 1947 मे ये  गलती रह गयी संविधान लिखते हुये ---
सरकारी  सेवक / सेविका को  अपनी जाती लिखने का  अधीकार ना  होता  तथा नाम के साथ  नम्बर  लिखने की तजबीज  होती  तो ?
जिस जगह जो जाती अधिक होती उसको वंहा से संसद के लिए चुनाव लडने की अनुमती ना  होती तो जातिवाद  क्या बढता ?
जिस जगह से जो उम्मीदवार जीतता  वंहा से  उसकी जाती को सरकारी सेवा मे जाने की अनुमती  नही होती  तो क्या  जाती खत्म नही हो जाती ?
एक परिवार एक वोट की कल्पना होती तो लोग जाती की भीड बढाते इतनी की चीन से अधिक हो गये जबकी  क्षेत्र  थोडा !
अम्बेडकर ने जाती के विनाश  को जरूरी बताया  तथा गांधी  ने उसपे अपने विचार यंग इन्डिया  मे उनके साथ साथ  लिखे .
 दोनो व्यस्त  थे तथा दोनो ने जाती से बाहर विवाह को कर के दिखाया खुद ने / परिवार मे .
जाती को विवाह के लिए अछूत  क्यो  समझे ?
जाती मे हो  विवाह तो ठीक तथा जाती से बाहर हो तो भी बढ़िया? 
जाती विहीन विवाह  तो श्रेष्ठ विवाह क्योकी  इसमे जाती होना या  नही कोई महत्व की बात नही .
खारा  पानी खुदके कुयें का  तो जन्हा मीठा पानी हो उसको उपयोग मे लेना क्या  गलत ?
माहेश्वरी धर्मं किसी किताब तथा व्यक्ती की गुलामी मे  नही .
नीम  ही इसकी सनातनता जो दुनिया के पर्यावरण को  भी ठीक.
जाजू ,बिडला , सोनी से लेकर मुझ तक जाती को सुधारा अनेको  ने  अपने अपने तरीको से .
पूजारियो ने ये भ्रम फेलाया की क्षत्रीय  से वेश्य  हुये माहेश्वरी ! 
कोई ऊपर से नीचे जाता अगर वर्ण को  सामाजिकता की सीढी समझे  तो भी ?
क्षत्रीय  से ऊपर पुजारी को लांघ के नया वर्ण बना होगा महेश्री ?
पुजारी कथा की लोहा गलने  से पत्थर के अशापित  होने से हुये 
माहेश्वरी , सही नही क्योकी  दुनिया मे कहीं कोई होता ऐसे पैदा  ?
माहेश्वरी होना भीड / बहुमत के होने को सत्य मानना  नही होता .
सत्य को सत्य मानने वाला  कभी उन्मादी नही होता कथा वाचक की तरह जिसकी आय पे सरकार जी एस टी नही लेती दुकानो की तरह .जिसे शुरु करवा रहे कवियो  की तरह .
विविकेत सत्य को सनातन समझे वो माहेश्वरी , सनातनी  भी .
अनाज के आखिरी कण  तथा पानी  की आखिरी बूंद को उपयोग लेने वाले रहे हे मारवाडी माहेश्वारियो के पुरखे , जो मेरे भी .
अतीत को भविष्य की तरफ बिना परखे, जो  जाने ना  दे वो मेरी तरह का  माहेश्वरी ?
 आप इसको पढ़ रहे तथा आपने नीम / पेड  लगा दिया धरती  माता पे तो आपका शौर्य आत्मतोश  वाला .
धन को विचार  समझने वाले बाकी जो भी हो शौर्य वाले नही . 
@ महेश्री 9967600972

शुक्रवार, 21 अप्रैल 2023

मनुष्य के कर्म - पाप-पुण्य

 ।। श्रीहरि: ।।
(मनुष्य के कर्म)


महर्षि शुकदेवजी ने राजा परीक्षित को सातवें  दिन समझाते हुए अंतिम उपदेश दिया-

हे राजन ! मृत्युलोक में प्राणी अकेला ही पैदा होता है, अकेले ही मरता है। प्राणी का धन-वैभव घर में ही छूट जाता है। मित्र और स्वजन श्मशान में छूट जाते हैं। शरीर को अग्नि ले लेती है। पाप-पुण्य ही उस जीव के साथ जाते हैं। अकेले ही वह पाप-पुण्य का भोग करता है परन्तु धर्म ही उसका अनुसरण करता है।

‘शरीर और गुण (पुण्यकर्म) इन दोनों में बहुत अंतर है, क्योंकि शरीर तो थोड़े ही दिनों तक रहता है किन्तु गुण प्रलयकाल तक बने रहते हैं। जिसके गुण और धर्म जीवित हैं, वह वास्तव में जी रहा है।’

वेदों में जिन कर्मों का विधान है, वे धर्म (पुण्य) हैं और उनके विपरीत कर्म अधर्म (पाप) कहलाते हैं। मनुष्य एक दिन या एक क्षण में ऐसे पुण्य या पाप कर सकता है कि उसका भोग सहस्त्रों वर्षों में भी पूर्ण न हो।

सूर्य, अग्नि, आकाश, वायु, इन्द्रियां, चन्द्रमा, संध्या, रात, दिन, दिशाएं, जल, पृथ्वी, काल और धर्म- ये सब मनुष्य के कर्मों के साक्षी हैं।



सूर्य रात्रि में नहीं रहता और चन्द्रमा दिन में नहीं रहता, जलती हुई अग्नि भी हर समय नहीं रहती; किन्तु रात-दिन और संध्या में से कोई एक तो हर समय रहता ही है। दिशाएं, आकाश, वायु, पृथ्वी, जल सदैव रहते हैं, मनुष्य इन्हें छोड़कर कहीं भाग नहीं सकता, इनसे छुप नहीं सकता। मनुष्य की इन्द्रियां, काल और धर्म भी सदैव उसके साथ रहते हैं। कोई भी कर्म किसी- न किसी इन्द्रिय द्वारा किसी- न- किसी समय (काल) होगा ही। उस कर्म का प्रभाव मनुष्य के ग्रह-नक्षत्रों व पंचमहाभूतों पर पड़ता है। जब मनुष्य कोई गलत कार्य करता है तो धर्मदेव उस गलत कर्म की सूचना देते हैं और उसका दण्ड मनुष्य को अवश्य मिलता है।

पृथ्वी पर जो मनुष्य-देह है उसमें एक सीमा तक ही सुख या दु:ख भोगने की क्षमता है। जो पुण्य या पाप पृथ्वी पर किसी मनुष्य-देह के द्वारा भोगने संभव नही, उनका फल जीव स्वर्ग या नरक में भोगता है। पाप या पुण्य जब इतने रह जाते हैं कि उनका भोग पृथ्वी पर संभव हो, तब वह जीव पृथ्वी पर किसी देह में जन्म लेता है।

कर्मों के अवशेष भाग को भोगने के लिए मनुष्य मृत्युलोक में स्थावर-जंगम अर्थात् वृक्ष, गुल्म (झाड़ी), लता, बेल, पर्वत और तृण- आदि योनि प्राप्त करता है। ये सब दु:खों के भोग की योनियां हैं। वृक्षयोनि में दीर्घकाल तक सर्दी-गर्मी सहना, काटे जाने व अग्नि में जलाये जाने सम्बधी दु:ख भोगना पड़ता है। यदि जीव कीटयोनि प्राप्त करता है तो अपने से बलवान प्राणियों द्वारा दी गयी पीड़ा सहता है, शीत-वायु और भूख के क्लेश सहते हुए मल-मूत्र में विचरण करना आदि दारुण दु:ख उठाता है।

इसी तरह से पशुयोनि में आने पर अपने से बलवान पशु द्वारा दी गयी पीड़ा का कष्ट पाता रहता है। पक्षी की योनि में आने पर कभी वायु पीकर रहना तो कभी अपवित्र वस्तुओं को खाने का कष्ट उठाना पड़ता है। यदि भार ढोने वाले पशुओं की योनि में जीव आता है तो रस्सी से बांधे जाने, डण्डों से पीटे जाने व हल जोतने का दारुण दु:ख जीव को सहना पड़ता है।

इस संसार-चक्र में मनुष्य घड़ी के पेण्डुलम की भांति विभिन्न पापयोनियों में जन्म लेता और मरता है-


माता-पिता को कष्ट पहुंचाने वाले को कछुवे की योनि में जाना पड़ता है।

मित्र का अपमान करने वाला गधे की योनि में जन्म लेता है।

छल-कपट कर जीवनयापन करने वाला बंदर की योनि में जाता है।

अपने पास रखी किसी की धरोहर को हड़पने वाला मनुष्य कीड़े की योनि में जन्म लेता है।

विश्वासघात करने से मनुष्य को मछली की योनि मिलती है।

विवाह, यज्ञ आदि शुभ कार्यों में विघ्न डालने वाले को कृमियोनि मिलती है।

देवता, पितर व ब्राह्मणों को भोजन न कराकर स्वयं खा लेता है वह काकयोनि (कौए) में जाता है।

इस प्रकार बहुत-सी योनियों में भ्रमण करके जीव किसी महान पुण्य के कारण मनुष्ययोनि प्राप्त करता है। मनुष्ययोनि प्राप्त करके भी यदि दरिद्र, रोगी, काना या अपाहिज जीवन मिले तो बहुत अपमान व कष्ट भोगना पड़ता है।



इसलिए दुर्लभ मनुष्य जन्म पाकर संसार-बंधन से मुक्त होने के लिए प्राणी को भगवान विष्णु की सेवा-आराधना करनी चाहिए क्योंकि वे ही कर्मफल के दाता व संसार-बंधन से छुड़ाने वाले मोक्षदाता हैं। भगवान विष्णु के जो-जो स्वरूप हैं, उनकी भक्ति करने से मनुष्य संसार-सागर आसानी से पार कर परमध ाम को प्राप्त करता है।

भगवान विष्णु ने संसार-सागर से पार होने का उपाय भगवान रुद्र को बताते हुए कहा कि ‘विष्णुसहस्रनाम’ स्तोत्र से मेरी नित्य स्तुति करने से मनुष्य भवसागर को सहज ही पार कर लेता है।

‘जिनका मन भगवान विष्णु की भक्ति में अनुरक्त है, उनका अहोभाग्य है, अहोभाग्य है; क्योंकि योगियों के लिए भी दुर्लभ मुक्ति उन भक्तों के हाथ में ही रहती है।’
(नारदपुराण)

भक्त अपने आराध्य के लोक में जाते हैं। भगवान के लोक में कुछ भी बनकर रहना सालोक्य-मुक्ति है। भगवान के समान ऐश्वर्य प्राप्त करना सार्ष्टि-मुक्ति है। भगवान के समान रूप पाकर वहां रहना सारुप्य-मुक्ति है। भगवान के आभूषणादि बनकर रहना सामीप्य-मुक्ति कहलाती है। भगवान के श्रीविग्रह में मिल जाना सायुज्य-मुक्ति है।

जिस जीव को भगवान का धाम प्राप्त हो जाता है, वह भगवान की इच्छा से उनके साथ या अलग से संसार में दिव्य जन्म ले सकता है। वह कर्मबन्धन में नहीं बंधा होता है। संसार में भगवत्कार्य समाप्त करके वह पुन: भगवद्धाम चला जाता है।

मनुष्य बिना कर्म किए रह नहीं सकता। कर्म करेगा तो पाप-पुण्य दोनों होंगे। लेकिन जो मनुष्य सबमें भगवत्दृष्टि रखकर भगवान की सेवा के लिए, उनकी आज्ञा का पालन करने के लिए और भगवान की प्रसन्नता के लिए कर्म करता है तो उसके कर्म भी अकर्म बन जाते हैं और कर्म-बंधन में नहीं बांधते हैं। वह संसार में रहते हुए भी नित्यमुक्त है।

तत्त्वज्ञानी पुरुष संसार के आवागमन से मुक्त हो जाते हैं। उनके प्राण निकलकर कहीं जाते नहीं बल्कि परमात्मा में लीन हो जाते हैं। सती स्त्रियां, युद्ध में मारे गए वीर और उत्तरायण के शुक्ल-मार्ग से जाने वाले योगी मुक्त हो जाते हैं।

गीता में शुक्ल तथा कृष्ण मार्ग कहकर दो गतियों का वर्णन है-

जिनमें वासना शेष है, वे धुएं, रात्रि, कृष्णपक्ष, दक्षिणायन के देवताओं द्वारा ले जाए जाते हैं। ऊर्ध्वलोक में अपने पुण्य भोगकर वे फिर पृथ्वी पर जन्म लेते हैं।

जिनमें कोई वासना शेष नहीं है, वे अग्नि, दिन, शुक्लपक्ष, उत्तरायण के देवताओं द्वारा ले जाये जाते हैं। वे फिर पृथ्वी पर जन्म लेकर नहीं लौटते हैं।

पितृलोक-
यह एक प्रकार का प्रतीक्षालोक है। एक जीव को पृथ्वी पर जिस माता-पिता से जन्म लेना है, जिस भाई-बहिन व पत्नी को पाना है, जिन लोगों के द्वारा उसे सुख-दु:ख मिलना है; वे सब लोग अलग-अलग कर्म करके स्वर्ग या नरक में हैं। जब तक वे सब भी इस जीव के अनुकूल योनि में जन्म लेने की स्थिति में न आ जाएं, इस जीव को प्रतीक्षा करनी पड़ती है। पितृलोक इसलिए एक प्रकार का प्रतीक्षालोक है।

प्रेतलोक-
यह नियम है कि मनुष्य की अंतिम इच्छा या भावना के अनुसार ही उसे गति प्राप्त होती है। जब मनुष्य किसी प्रबल राग-द्वेष, लोभ या मोह के आकर्षण में फंसकर देह त्यागता है तो वह उस राग-द्वेष के बंधन में बंधा आस-पास ही भटकता रहता है। वह मृत पुरुष वायवीय देह पाकर बड़ी यातना भरी योनि प्राप्त करता है। इसीलिए कहा जाता है- ‘अंते मति: सो गति:! अत: हे राजन!भगवान का भजन ही श्रेयस्कर है।

इसी बात को गोस्वामी तुलसीदासजी ने भी रामचरितमानस में लिखा है-

उमा कहउं मै अनुभव अपना।
सत हरि भजन जगत सब सपना।।

निज अनुभव मैं कहउं खगेसा।
विनु हरि भजन न जाइ कलेसा।।

।। जय भगवान श्रीहरि विष्णु ।।

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