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शुक्रवार, 30 नवंबर 2012

घमंड चूर-चूर

एक गांव में सप्ताह के एक दिन प्रवचन का आयोजन होता था। इसकी व्यवस्था गांव के कुछ प्रबुद्ध लोगों ने करवाई थी ताकि भोले-भाले ग्रामीणों को धर्म का कुछ ज्ञान हो सके। इसके लिए एक दिन एक ज्ञानी पुरुष को बुलाया गया। गांव वाले समय से पहुंच गए। ज्ञानी पुरुष ने पूछा - क्या आपको मालूम है कि मैं क्या कहने जा रहा हूं? गांव वालों ने कहा - नहीं तो...। ज्ञानी पुरुष गुस्से में भरकर बोले - जब आपको पता ही नहीं कि मैं
क्या कहने जा रहा हूं तो फिर क्या कहूं। वह नाराज होकर चले गए।

गांव के सरपंच उनके पास दौड़े हुए पहुंचे और क्षमायाचना करके कहा कि गांव के लोग तो अनपढ़ हैं, वे क्या जानें कि क्या बोलना है। किसी तरह उन्होंने ज्ञानी पुरुष को फिर आने के लिए मना लिया। अगले दिन आकर उन्होंने फिर वही सवाल किया -क्या आपको पता है कि मैं क्या कहने जा रहा हूं? इस बार गांव वाले सतर्क थे। उन्होंने छूटते ही कहा - हां, हमें पता है कि आप क्या कहेंगे। ज्ञानी पुरुष भड़क गए। उन्होंने कहा -जब आपको पता ही है कि मैं क्या कहने वाला हूं तो इसका अर्थ हुआ कि आप सब मुझसे ज्यादा ज्ञानी हैं। फिर मेरी क्या आवश्यकता है? यह कहकर वह चल पड़े।

गांव वाले दुविधा
में पड़ गए कि आखिर उस सज्जन से किस तरह पेश आएं, क्या कहें। उन्हें फिर समझा-बुझाकर लाया गया। इस बार जब उन्होंने वही सवाल किया तो गांव वाले उठकर जाने लगे। ज्ञानी पुरुष ने क्रोध में कहा - अरे, मैं कुछ कहने आया हूं तो आप लोग जा रहे हैं। इस पर कुछ गांव वालों ने हाथ जोड़कर कहा - देखिए, आप परम ज्ञानी हैं। हम गांव वाले मूढ़ और अज्ञानी हैं। हमें आपकी बातें समझ में नहीं आतीं। कृपया अपने अनमोल वचन हम पर व्यर्थ न करें। ज्ञानी पुरुष अकेले खड़े रह गए। उनका घमंड चूर-चूर हो गया।

पापों का बोझ सिर पर लादकर कोई मनुष्य ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकता।’

एक चोर अक्सर एक साधु के पास आता और
उससे ईश्वर से साक्षात्कार का उपाय
पूछा करता था। लेकिन साधु टाल देता था। वह
बार-बार यही कहता कि वह इसके बारे में फिर
कभी बताएगा। लेकिन चोर पर इसका असर

नहीं पड़ता था। वह रोज पहुंच जाता। एक दिन
चोर का आग्रह बहुत बढ़ गया। वह जमकर बैठ
गया। उसने कहा कि वह बगैर उपाय जाने
वहां से जाएगा ही नहीं। साधु ने चोर को दूसरे
दिन सुबह आने को कहा। चोर ठीक समय पर
आ गया।
साधु ने कहा, ‘तुम्हें सिर पर कुछ पत्थर रखकर
पहाड़ पर चढ़ना होगा। वहां पहुंचने पर
ही ईश्वर के दर्शन की व्यवस्था की जाएगी।’
चोर के सिर पर पांच पत्थर लाद दिए गए और
साधु ने उसे अपने पीछे-पीछे चले आने
को कहा। इतना भार लेकर वह कुछ दूर
ही चला तो उस बोझ से उसकी गर्दन दुखने
लगी। उसने अपना कष्ट कहा तो साधु ने एक
पत्थर फिंकवा दिया। थोड़ी देर चलने पर शेष
भार भी कठिन प्रतीत हुआ तो चोर
की प्रार्थना पर साधु ने दूसरा पत्थर
भी फिंकवा दिया। यही क्रम आगे भी चला।
ज्यों-ज्यों चढ़ाई बढ़ी, थोडे़ पत्थरों को ले
चलना भी मुश्किल हो रहा था। चोर बार-बार
अपनी थकान व्यक्त कर रहा था। अंत में सब
पत्थर फेंक दिए गए और चोर सुगमतापूर्वक
पर्वत पर चढ़ता हुआ ऊंचे शिखर पर
जा पहुंचा।
साधु ने कहा, ‘जब तक तुम्हारे सिर पर
पत्थरों का बोझ रहा, तब तक पर्वत के ऊंचे
शिखर पर तुम्हारा चढ़ सकना संभव
नहीं हो सका। पर जैसे ही तुमने पत्थर फेंके वैसे
ही चढ़ाई सरल हो गई। इसी तरह पापों का बोझ
सिर पर लादकर कोई मनुष्य ईश्वर को प्राप्त
नहीं कर सकता।’ चोर ने साधु का आशय समझ
लिया। उसने कहा, ‘आप ठीक कह रहे हैं। मैं
ईश्वर को पाना तो चाहता था पर अपने बुरे
कर्मों को छोड़ने के लिए तैयार नहीं था।’ उस
दिन से चोर पूरी तरह बदल गया।...

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