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मंगलवार, 12 नवंबर 2019

गुरु तेग बहादुर जी जिन्होंने हिन्द की चादर बनकर तिलक और जनेऊ की रक्षा की, उनका एहसान भारत वर्ष कभी नही भूल सकता ।

तारीख :- नवंबर 11, 1675.दोपहर ..

स्थान :-दिल्ली का चांदनी चौंक:लाल किले के सामने ..

मुगलिया हुकूमत की क्रूरता देखने के लिए लोग इकट्ठे हो चुके थे, लेकिन वो बिल्कुल शांत 
बैठे थे , प्रभु परमात्मा में लीन,लोगो का जमघट, सब की सांसे अटकी हुई, शर्त के
मुताबिक अगर गुरु तेग बहादुरजी इस्लाम कबूल कर लेते है तो फिर सब हिन्दुओं 
को मुस्लिम बनना होगा बिना किसी जोर जबरदस्ती के...
गुरु जी का होंसला तोड़ने के लिए उन्हें बहुत कष्ट दिए गए। तीन महीने से वो कष्टकारी क़ैद में थे।
उनके सामने ही उनके सेवादारों भाई दयाला जी, भाई मति दास और उनके ही अनुज भाई सती दासको बहुत कष्ट देकर शहीद किया जा चुका था। लेकिन फिर भी गुरु जी इस्लाम अपनाने के लिए नही माने...
औरंगजेब के लिए भी ये इज्जत का सवाल था,
....समस्त हिन्दू समाज की भी सांसे अटकी हुई थी क्या होगा? लेकिन गुरु जी अडोल बैठे रहे। किसी का धर्म खतरे में था धर्म का अस्तित्व खतरे में था। एक धर्म का सब कुछ दांव पे लगाथा, हाँ या ना पर सब कुछ निर्भर था।
खुद चलके आया था औरगजेब लालकिले से नि कल कर सुनहरी मस्जिद केकाजी के पास,,,उसी मस्जिद से कुरान की आयत पढ़ कर यातना देनेका फतवा निकलता था.. वो मस्जिद आज भी है..गुरुद्वारा शीस गंज, चांदनी चौक दिल्ली के पास । आखिरकार जालिम जब उनको झुकाने में कामयाब नही हुए तो जल्लाद की तलवार चल चुकी थी, और प्रकाश अपने स्त्रोत में लीन हो चुका था। ये भारत के इतिहास का एक ऐसा मोड़ था जिसने पुरे हिंदुस्तान का भविष्य बदल के  रख दिय, हर दिल में रोष था, कुछ समय बाद गोबिंद सिंह जी ने जालिम को उसी के  अंदाज़ में जवाब देने के लिए खालसा पंथ का सृजन की। समाज की बुराइओं से लड़ाई, जोकि गुरु नानक देवजी ने शुरू की थी अब गुरु गोबिंद सिंह जी ने उस लड़ाई को आखिरी रूप दे दिया था, दबा कुचला हुआ निर्बल समाज अब मानसिक रूप से तो परिपक्व हो  चूका था लेकिन तलवार उठाना अभी बाकी था।
खालसा की स्थापना तो गुरु नानक देव् जी ने पहले चरण के रूप में 15 शताब्दी में ही कर दी थी लेकिन आखरी पड़ाव गुरु गोबिंद सिंह जी ने पूरा किया। जब उन्होंने निर्बल  लोगो में आत्मविश्वास जगाया और उनको खालसा बनाया और इज्जत से जीना सिखाया निर्बल और असहाय की मदद का जो कार्य उन्होंने शुरू किया था वो निर्विघ्न आजभी जारी है। गुरु तेग बहादुर जी जिन्होंने हिन्द की चादर बनकर तिलक और जनेऊ की रक्षा की, उनका एहसान भारत वर्ष कभी नही भूल सकता । सुधी जन जरा एकांत में बैठकर सोचें  अगर गुरु तेग बहादुर जी अपना बलिदान न देते तो ....?

भाई मतिदास और दो भाइयों ने धर्म के लिए प्राण दिए पर धर्मपरिवर्तन नहीं किया

*🚩भाई मतिदास और दो भाइयों ने धर्म के लिए प्राण दिए पर धर्मपरिवर्तन नहीं किया*


*🚩औरंगज़ेब के शासनकाल में उसकी इतनी हठधर्मिता थी कि उसे इस्लाम के अतिरिक्त किसी दूसरे धर्म की प्रशंसा तक सहन नहीं थी। मुग़ल आक्रांता औरंगजेब ने मंदिर, गुरुद्वारों को तोड़ने और मूर्ति पूजा बंद करवाने के फरमान जारी कर दिए थे, उसके आदेश के अनुसार कितने ही मंदिर और गुरूद्वारे तोड़े गए, मंदिरों की मूर्तियों को तोड़ कर टुकड़े कर दिए गए और मंदिरों में गायें काटीं गयीं, औरंगज़ेब ने सबको इस्लाम अपनाने का आदेश दिया, संबंधित अधिकारी को यह कार्य सख्ती और तत्परता से करने हेतु सौंप दिया।*

*🚩औरंगजेब ने हुक्म दिया कि किसी हिन्दू को राज्य के कार्य में किसी उच्च स्थान पर नियुक्त न किया जाये तथा हिन्दुओं पर जजिया कर लगा दिया जाये। उस समय अनेकों कर केवल हिन्दुओं पर लगाये गये। इस भय से असंख्य हिन्दू मुसलमान हो गये। हिन्दुओं के पूजा आरती आदि सभी धार्मिक कार्य बंद होने लगे। मंदिर गिराये गये, मस्जिदें बनवायी गयीं और अनेकों धर्मात्मा व्यक्ति मरवा दिये गये। उसी समय की उक्ति है -*

*"सवा मन यज्ञोपवीत रोजाना उतरवा कर औरंगजेब रोटी खाता था।"*

*🚩औरंगज़ेब ने कहा - "सबसे कह दो या तो इस्लाम धर्म कबूल करें या मौत को गले लगा लें।"*

*🚩इस प्रकार की ज़बर्दस्ती शुरू हो जाने से अन्य धर्म के लोगों का जीवन कठिन हो गया। हिंदू और सिखों को इस्लाम अपनाने के लिए सभी उपायों, लोभ लालच, भय दंड से मजबूर किया गया। जब गुरु तेगबहादुर ने इस्लाम धर्म स्वीकार करने से मना कर दिया तो उनको औरंगजेब के हुक्म से गिरफ्तार कर लिया गया था। गुरुजी के साथ तीन सिख वीर दयाला, भाई मतीदास और सतीदास भी दिल्ली में कैद थे।*

*🚩क्रूर औरंगजेब चाहता था कि गुरुजी मुसलमान बन जायें, उन्हें डराने के लिए इन तीनों वीरो को तड़पा तड़पा कर मारा गया, पर गुरुजी विचलित नहीं हुए।*

*🚩मतान्ध औरंगजेब ने सबसे पहले 9 नवम्बर सन 1675 ई. को भाई मतिदास को आरे से दो भागों में चीरने को कहा, लकड़ी के दो बड़े तख्तों में जकड़कर उनके सिर पर आरा चलाया जाने लगा, जब आरा दो तीन इंच तक सिर में धंस गया, तो काजी ने उनसे कहा -*

*🚩"मतिदास अब भी इस्लाम स्वीकार कर ले, शाही जर्राह तेरे घाव ठीक कर देगा, तुझे दरबार में ऊँचा पद दिया जाएगा और तेरी पाँच शादियाँ कर दी जायेंगी।*

*🚩भाई मतिदास ने व्यंग्यपूर्वक पूछा - "काजी, यदि मैं इस्लाम मान लूँ, तो क्या मेरी कभी मृत्यु नहीं होगी." काजी ने कहा कि - "यह कैसे सम्भव है, जो धरती पर आया है उसे मरना तो है ही।"*

*🚩भाई मतिदास ने हँसकर कहा - "यदि तुम्हारा इस्लाम मजहब मुझे मौत से नहीं बचा सकता, तो फिर मैं अपने पवित्र हिन्दू धर्म में रहकर ही मृत्यु का वरण क्यों न करूँ।"*

*🚩उन्होंने जल्लाद से कहा कि - "अपना आरा तेज चलाओ, जिससे मैं शीघ्र अपने प्रभु के धाम पहुँच सकूँ।"*

*🚩यह कहकर वे ठहाका मार कर हँसने लगे, काजी ने कहा कि - "यह मृत्यु के भय से पागल हो गया है।"*

*🚩भाई मतिदास ने कहा - " मैं डरा नहीं हूँ, मुझे प्रसन्नता है कि मैं धर्म पर स्थिर हूँ। जो धर्म पर अडिग रहता है, उसके मुख पर लाली रहती है, पर जो धर्म से विमुख हो जाता है, उसका मुँह काला हो जाता है।"*

*🚩कुछ ही देर में उनके शरीर के दो टुकड़े हो गये। अगले दिन 10 नवम्बर को उनके छोटे भाई सतिदास को रुई में लपेटकर जला दिया गया। भाई दयाला को पानी में उबालकर मारा गया।*

*🚩ग्राम करयाला, जिला झेलम वर्तमान पाकिस्तान तत्कालीन अविभाजित भारत निवासी भाई मतिदास एवं सतिदास के पूर्वजों का सिख इतिहास में विशेष स्थान है। उनके परदादा भाई परागा छठे गुरु हरगोविन्द के सेनापति थे। उन्होंने मुगलों के विरुद्ध युद्ध में ही अपने प्राण त्यागे थे। उनके समर्पण को देखकर गुरुओं ने उनके परिवार को ‘भाई’ की उपाधि दी थी।*

*🚩भाई मतिदास के एकमात्र पुत्र मुकुन्द राय का भी चमकौर के युद्ध में बलिदान हुआ था। भाई मतिदास के भतीजे साहबचन्द और धर्मचन्द गुरु गोविन्दसिंह के दीवान थे। साहबचन्द ने व्यास नदी पर हुए युद्ध में तथा उनके पुत्र गुरुबख्श सिंह ने अहमदशाह अब्दाली के अमृतसर में हरमन्दिर साहिब पर हुए हमले के समय उसकी रक्षार्थ प्राण दिये थे।*

*🚩इसी वंश के क्रान्तिकारी भाई बालमुकुन्द ने 8 मई सन 1915 ई. को केवल 26 वर्ष की आयु में फाँसी पायी थी। उनकी पत्नी रामरखी ने पति की फाँसी के समय घर पर ही देह त्याग दी। लाहौर में भगतसिंह आदि सैकड़ों क्रान्तिकारियों को प्रेरणा देने वाले भाई परमानन्द भी इसी वंश के तेजस्वी नक्षत्र थे। साभार - पंकज चौहान*

*🚩किसी ने ठीक ही कहा है –*

*सूरा सो पहचानिये, जो लड़े दीन के हेत*
*पुरजा-पुरजा कट मरे, तऊँ न छाड़त खेत।।*

*🚩अफ़सोस की बात ये है कि इसके बाद भी इतिहास में भाई मतिदास, भाई सतिदास तथा भाई दयाला को जगह नहीं दी गई तथा उनके बलिदान की गौरवगाथा को हिंदुस्तान के लोगों से छिपाकर रखा गया। बहुत कम लोग होंगे जो इनके बलिदान तथा त्याग के बारे में जानते होंगे।*

*🚩हिंदुस्तान में आज जो हिन्दू बचे हैं वे भी ऐसे महापुरुषों के कारण ही है क्योंकि उन्होंने अपने धर्म के लिए प्राण दिए पर लालच में आकर धर्मपरिवर्तन नहीं किया, नही तो वे भी बड़ा ऊंचा पद लेकर अपनी आराम से जिंदगी जी सकते थे पर उन्होंने ऐशो आराम को ठुकरा कर धर्म के लिए शरीर को तड़पाकर प्राण त्याग दिए इन महापुरुषों के कारण आज हिन्दू धर्म जीवित है। आज जो लालच में आकर धर्म परिवर्तन कर लेते है उनको भाई मतिदास से सिख लेनी चाहिए।*

*🚩ऐसे महापुरुषों के बलिदान दिवस पर शत-शत नमन।*


सोमवार, 11 नवंबर 2019

गुरु तेग बहादुर जी जिन्होंने हिन्द की चादर बनकर तिलक और जनेऊ की रक्षा की, उनका एहसान भारत वर्ष कभी नही भूल सकता ।

तारीख :- नवंबर 11, 1675.दोपहर ..

स्थान :-दिल्ली का चांदनी चौंक:लाल किले के सामने ..

मुगलिया हुकूमत की क्रूरता देखने के लिए लोग इकट्ठे हो चुके थे, लेकिन वो बिल्कुल शांत 
बैठे थे , प्रभु परमात्मा में लीन,लोगो का जमघट, सब की सांसे अटकी हुई, शर्त के
मुताबिक अगर गुरु तेग बहादुरजी इस्लाम कबूल कर लेते है तो फिर सब हिन्दुओं 
को मुस्लिम बनना होगा बिना किसी जोर जबरदस्ती के...
गुरु जी का होंसला तोड़ने के लिए उन्हें बहुत कष्ट दिए गए। तीन महीने से वो कष्टकारी क़ैद में थे।
उनके सामने ही उनके सेवादारों भाई दयाला जी, भाई मति दास और उनके ही अनुज भाई सती दासको बहुत कष्ट देकर शहीद किया जा चुका था। लेकिन फिर भी गुरु जी इस्लाम अपनाने के लिए नही माने...
औरंगजेब के लिए भी ये इज्जत का सवाल था,
....समस्त हिन्दू समाज की भी सांसे अटकी हुई थी क्या होगा? लेकिन गुरु जी अडोल बैठे रहे। किसी का धर्म खतरे में था धर्म का अस्तित्व खतरे में था। एक धर्म का सब कुछ दांव पे लगाथा, हाँ या ना पर सब कुछ निर्भर था।
खुद चलके आया था औरगजेब लालकिले से नि कल कर सुनहरी मस्जिद केकाजी के पास,,,उसी मस्जिद से कुरान की आयत पढ़ कर यातना देनेका फतवा निकलता था.. वो मस्जिद आज भी है..गुरुद्वारा शीस गंज, चांदनी चौक दिल्ली के पास । आखिरकार जालिम जब उनको झुकाने में कामयाब नही हुए तो जल्लाद की तलवार चल चुकी थी, और प्रकाश अपने स्त्रोत में लीन हो चुका था। ये भारत के इतिहास का एक ऐसा मोड़ था जिसने पुरे हिंदुस्तान का भविष्य बदल के  रख दिय, हर दिल में रोष था, कुछ समय बाद गोबिंद सिंह जी ने जालिम को उसी के  अंदाज़ में जवाब देने के लिए खालसा पंथ का सृजन की। समाज की बुराइओं से लड़ाई, जोकि गुरु नानक देवजी ने शुरू की थी अब गुरु गोबिंद सिंह जी ने उस लड़ाई को आखिरी रूप दे दिया था, दबा कुचला हुआ निर्बल समाज अब मानसिक रूप से तो परिपक्व हो  चूका था लेकिन तलवार उठाना अभी बाकी था।
खालसा की स्थापना तो गुरु नानक देव् जी ने पहले चरण के रूप में 15 शताब्दी में ही कर दी थी लेकिन आखरी पड़ाव गुरु गोबिंद सिंह जी ने पूरा किया। जब उन्होंने निर्बल  लोगो में आत्मविश्वास जगाया और उनको खालसा बनाया और इज्जत से जीना सिखाया निर्बल और असहाय की मदद का जो कार्य उन्होंने शुरू किया था वो निर्विघ्न आजभी जारी है। गुरु तेग बहादुर जी जिन्होंने हिन्द की चादर बनकर तिलक और जनेऊ की रक्षा की, उनका एहसान भारत वर्ष कभी नही भूल सकता । सुधी जन जरा एकांत में बैठकर सोचें  अगर गुरु तेग बहादुर जी अपना बलिदान न देते तो ....?

बुधवार, 6 नवंबर 2019

वाराणसी - एक यंत्र है, यह एक असाधारण यंत्र है।

वाराणसी - एक यंत्र है, यह एक असाधारण यंत्र है।
ऐसा यंत्र इससे पहले या फिर इसके बाद कभी नहीं बना।
इसे केवल एक नगर समझने का भूल न करना।
मानव शरीर में जैसे नाभी का स्थान है, वैसे ही पृथ्वी पर वाराणसी का स्थान है।
 शरीर के प्रत्येक अंग का संबंध नाभी से जुड़ा है और पृथ्वी के समस्त स्थान का संबंध भी वाराणसी से जुड़ा है।

इस यंत्र का निर्माण एक ऐसे विशाल और भव्य मानव शरीर को बनाने के लिए किया गया, जिसमें भौतिकता को अपने साथ लेकर चलने की मजबूरी न हो, शरीर को साथ लेकर चलने से आने वाली जड़ता न हो और जो हमेशा सक्रिय रह सके... और जो सारी आध्यात्मिक प्रक्रिया को अपने आप में समा ले।

काशी की रचना सौरमंडल की तरह की गई है, क्योंकि हमारा सौरमंडल कुम्हार के चाक की तरह है।

आपके अपने भीतर 114 चक्रों में से 112 आपके भौतिक शरीर में हैं, लेकिन जब कुछ करने की बात आती है, तो केवल 108 चक्रों का ही इस्तेमाल आप कर सकते हैं।

इसमें एक खास तरीके से मंथन हो रहा है। यह घड़ा यानी मानव शरीर इसी मंथन से निकल कर आया है, इसलिए मानव शरीर सौरमंडल से जुड़ा हुआ है और ऐसा ही मंथन इस मानव शरीर में भी चल रहा है।

सूर्य और पृथ्वी के बीच की दूरी सूर्य के व्यास से 108 गुनी है। आपके अपने भीतर 114 चक्रों में से 112 आपके भौतिक शरीर में हैं, लेकिन जब कुछ करने की बात आती है, तो केवल 108 चक्रों का ही इस्तेमाल आप कर सकते हैं।

अगर आप इन 108 चक्रों को विकसित कर लेंगे, तो बाकी के चार चक्र अपने आप ही विकसित हो जाएंगे।

हम उन चक्रों पर काम नहीं करते।
शरीर के 108 चक्रों को सक्रिय बनाने के लिए 108 तरह की योग प्रणालियां है।

पूरे काशी यनी बनारस शहर की रचना इसी तरह की गई थी। यह पांच तत्वों से बना है, और आमतौर पर ऐसा माना जाता है कि शिव के योगी और भूतेश्वर होने से,  उनका विशेष अंक पांच है।

इसलिए इस स्थान की परिधि पांच कोश है। इसी तरह से उन्होंने सकेंद्रित कई सतहें बनाईं।

यह आपको काशी की मूलभूत ज्यामिति बनावट दिखाता है।


गंगा के किनारे यह शुरू होता है, और ये सकेंद्रित वृत परिक्रमा की व्याख्यां दिखा रहे हैं।

सबसे बाहरी परिक्रमा की माप 168 मील है।

यह शहर इसी तरह बना है और विश्वनाथ मंदिर इसी का एक छोटा सा रूप है।

असली मंदिर की बनावट ऐसी ही है। यह बेहद जटिल है। इसका मूल रूप तो अब रहा ही नहीं।

वाराणसी को मानव शरीर की तरह बनाया गया था
यहां 72 हजार शक्ति स्थलों यानी मंदिरों का निर्माण किया गया।

एक इंसान के शरीर में नाडिय़ों की संख्या भी इतनी ही होती है। इसलिए उन लोगों ने मंदिर बनाये, और आस-पास काफी सारे कोने बनाये - जिससे कि वे सब जुड़कर 72,000 हो जाएं।

यहां 468 मंदिर बने, क्योंकि चंद्र कैलंडर के अनुसार साल में 13 महीने होते हैं, 13 महीने और 9 ग्रह, चार दिशाएं - इस तरह से तेरह, नौ और चार के गुणनफल के बराबर 468 मंदिर बनाए गए।

तो यह नाडिय़ों की संख्या के बराबर है।

यह पूरी प्रक्रिया एक विशाल मानव शरीर के निर्माण की तरह थी।

इस विशाल मानव शरीर का निर्माण ब्रह्मांड से संपर्क करने के लिए किया गया था।

इस शहर के निर्माण की पूरी प्रक्रिया ऐसी है, मानो एक विशाल इंसानी शरीर एक वृहत ब्रह्मांडीय शरीर के संपर्क में आ रहा हो।

काशी बनावट की दृष्टि से सूक्ष्म और व्यापक जगत के मिलन का एक शानदार प्रदर्शन है।

कुल मिलाकर, एक शहर के रूप में एक यंत्र की रचना की गई है।

रोशनी का एक दुर्ग बनाने के लिए, और ब्रह्मांड की संरचना से संपर्क के लिए, यहां एक सूक्ष्म ब्रह्मांड की रचना की गई।

ब्रह्मांड और इस काशी रुपी सूक्ष्म ब्रह्मांड इन दोनों चीजों को आपस में जोडऩे के लिए 468 मंदिरों की स्थापना की गई।

मूल मंदिरों में 54 शिव के हैं, और 54 शक्ति या देवी के हैं। अगर मानव शरीर को भी हम देंखे, तो उसमें आधा हिस्सा पिंगला है और आधा हिस्सा इड़ा।

दायां भाग पुरुष का है और बायां भाग नारी का।
यही वजह है कि शिव को अर्धनारीश्वर के रूप में भी दर्शाया जाता है - आधा हिस्सा नारी का और आधा पुरुष का।

यहां 468 मंदिर बने, क्योंकि चंद्र कैलंडर के अनुसार साल में 13 महीने होते हैं, 13 महीने और 9 ग्रह, चार दिशाएं - इस तरह से तेरह, नौ और चार के गुणनफल के बराबर 468 मंदिर बनाए गए।

आपके स्थूल शरीर का 72 फीसदी हिस्सा पानी है, 12 फीसदी पृथ्वी है, 6 फीसदी वायु है और 4 फीसदी अग्नि। बाकी का 6 फीसदी आकाश है।

सभी योगिक प्रक्रियाओं का जन्म एक खास विज्ञान से हुआ है, जिसे भूत शुद्धि कहते हैं।

इसका अर्थ है अपने भीतर मौजूद तत्वों को शुद्ध करना।

अगर आप अपने मूल तत्वों पर कुछ अधिकार हासिल कर लें, तो अचानक से आपके साथ अद्भुत चीजें घटित होने लगेंगी।

मैं आपको हजारों ऐसे लोग दिखा सकता हूं, जिन्होंने बस कुछ साधारण भूतशुद्धि प्रक्रियाएं करते हुए अपनी बीमारियों से मुक्ति पाई है।

इसलिए इसके आधार पर इन मंदिरों का निर्माण किया गया। इस तरह भूत शुद्धि के आधार पर इस शहर की रचना हुई।

यहां एक के बाद एक 468 मंदिरों में सप्तऋषि पूजा हुआ करती थी और इससे इतनी जबर्दस्त ऊर्जा पैदा होती थी, कि हर कोई इस जगह आने की इच्छा रखता था।

भारत में जन्मे हर व्यक्ति का एक ही सपना होता था - काशी जाने का।

यह जगह सिर्फ आध्यात्मिकता का ही नहीं, बल्कि संगीत, कला और शिल्प के अलावा व्यापार और शिक्षा का केंद्र भी बना।

इस देश के महानतम ज्ञानी काशी के हैं।
शहर ने देश को कई प्रखर बुद्धि और ज्ञान के धनी लोग दिए हैं।

अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा था, 'पश्चिमी और आधुनिक विज्ञान भारतीय गणित के आधार के बिना एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकता था।’ यह गणित बनारस से ही आया।

इस गणित का आधार यहां है।
जिस तरीके से इस शहर रूपी यंत्र का निर्माण किया गया, वह बहुत सटीक था।

ज्यामितीय बनावट और गणित की दृष्टि से यह अपने आप में इतना संपूर्ण है, कि हर व्यक्ति इस शहर में आना चाहता था। क्योंकि यह शहर अपने अन्दर अद्भुत ऊर्जा पैदा करता था।

वाराणसी का इतिहास
यह हमारी बदकिस्मती है कि हम उस समय नहीं थे जब काशी का गौरव काल था। हजारों सालों से दुनिया भर से लोग यहां आते रहे हैं। गौतम बुद्ध ने अपना पहला उपदेश यहीं दिया था।

गौतम के बाद आने वाले चीनी यात्री ने कहा, ‘नालंदा विश्वविद्यालय काशी से निकलने वाली ज्ञान की एक छोटी सी बूंद है।’ और नालंदा विश्वविद्यालय को अब भी शिक्षा का सबसे महान स्थान माना जाता है।

आज भी यह कहा जाता है कि ‘काशी जमीन पर नहीं है। वह शिव के त्रिशूल के ऊपर है।’ लोगों ने एक भौतिक संरचना बनाई, जिसने एक ऊर्जा संरचना को उत्पन्न किया।

शुक्रवार, 1 नवंबर 2019

समाज के सभी वर्णों के लोगों के आर्थिक उन्नयन का आधार - छठ पूजा

हिन्दू वर्ण-व्यवस्था "व्यवस्था" की बात थी इसलिये वहाँ त्योहारों और संस्कारों के माध्यम से ऐसे प्रावधान रखे गये थे, ऐसे रीति-रिवाज गढ़े गये थे कि उसमें समाज के सभी वर्णों के लोगों के आर्थिक उन्नयन का आधार मौजूद था। 

ऐसा ही एक बड़ा माध्यम बनाया गया था छठ पर्व को; जो आज बिहार की सीमा से बाहर निकल कर वैश्विक स्वरूप लेने की ओर अग्रसर है।

ये पर्व न जाने कब से समाज के अर्थ-संचालन को गति देता रहा है; जिससे समाज के हरेक तबके का आर्थिक उन्नयन होता रहा और समाज को धर्मांतरण के खतरे से भी बचा रहा।

पिछले साल छठ पूजा के अगले दिन मैं एक अखबार में छपी खबर पढ़ रहा था, जिसमें लिखा था कि इस छठ के अवसर पर केवल मुजफ्फरपुर जिले के अंदर सूप और बांस की टोकरी का व्यापार 52 करोड़ रूपए का था। बिहार में जिस जाति के लोगों का सूप और टोकरी के व्यवसाय पर एकाधिकार है वो सबके सब "डोम जाति" के हैं जिन्हें बिहार सरकार ने महादलित की सूची में रखा है। 

अब सोचिये कि सूप और टोकरी के व्यवसाय से समाज के किस वर्ग का हित-साधन हुआ? 

इस व्यवसाय से जुड़े लोग साल भर छठ पर्व की प्रतीक्षा करतें हैं; क्योंकि अकेले इस पर्व से ही उनकी आमदनी इतनी हो जाती है कि पूरे साल उन्हें धन का अभाव नहीं रहता। रोचक बात ये है कि इस व्यवसाय में सहभागिता अधिकांशतः महिलाओं की होती है। इसी तरह छठ पर्व के दौरान मिट्टी के बने चूल्हे, हाथी की प्रतिमा और कुंभ (घड़े) की बिक्री भी उतनी ही होती है जो कुंभकार समाज को लाभान्वित करता है। गन्ने , दूसरे मौसमी फल और केले की खेती करने वालों की साल भर में जितनी बिक्री नहीं होती उतनी अकेले इस पर्व में हो जाती है।

आज उपभोक्तावाद अपने चरम पर है, बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ लगभग हमारे घरों में घुस चुकी है पर एक बिहारवासी होने के नाते मुझे गर्व है कि मेरे यहाँ का ये त्योहार केवल और केवल मेरे देश के लोगों को रोजगार देता है। इसलिये छठ स्वदेशी भाव जागरण और और अपने लोगों को रोजगार देने का बहुत बड़ा माध्यम भी है।

छठ पर्व का महत्त्व हम बिहार-वासियों के लिये केवल यहीं तक नहीं है। आज मिशनरियों ने अपने मत-प्रचार के लिये बिहार को निशाने पर लिया हुआ है पर अपने "इन्वेस्टमेंट" के अनुरूप उन्हें बिहार में अपेक्षित सफलता नहीं मिल सकी है तो इसके पीछे की सबसे बड़ी वजह लोक-आस्था का महापर्व छठ भी है। एक ही घाट में व्रत करते व्रतियों में समाज के कथित उच्च जाति के लोगों से लेकर समाज के निचले पायदान पर खड़े लोग भी होतें हैं, जहाँ जाति-भेद और अस्पृश्यता पूरी तरह मिट जाता है। 

"जाति से इतर व्रत करने वाली हरेक महिला देवी का रूप होती है जिसके पैर छूकर प्रसाद लेने को लोग अपना सौभाग्य समझतें हैं।"

ट्रेन में किसी भी तरह कष्ट सह के अगर कोई बिहारवासी छठ पर अपने घर जाता है तो उसका मजाक मत बनाइये, उसके ऊपर चुटकुले मत बनाइये। कम से कम इस बात के लिये उसका अभिनन्दन करिये कि उसने अपनी परंपरा को इतने कष्ट सह कर भी अक्षुण्ण रखा है और अपने समाज के सबसे निम्न तबके के न सिर्फ आर्थिक उन्नयन में परोक्ष सहायता कर रहा है बल्कि उन्हें विधर्मियों के पाले में भी जाने से बचाये रखा है।

पिछले वर्ष नाक तक लगे सिंदूर के कारण छठ व्रती महिलाओं का मजाक उड़ाने वाली "मैत्रियी पुष्पाओं" के निशाने पर छठ का पर्व इसीलिये आया था क्योंकि यह पर्व उनके आकाओं द्वारा मतान्तरण का फसल काटने देने में बाधा बन रहा है, साथ ही इस पर्व में बहुराष्ट्रीय कंपनियों की दाल नहीं गल पा रही है और तो और उत्तर आधुनिकता और नारीवाद का फ़र्ज़ी आडम्बर भी ध्वस्त हो रहा है; क्योंकि नाक तक सिंदूर लगाने वाली महिलाएँ इस परंपरा को दकियानूसी परंपरा नहीं मानतीं।

हर्ष की बात है कि छठ पर कु-प्रचार करने की कोशिश करने वाली पुष्पा सरीखी "विष-कन्याओं" के खिलाफ हर राज्य से लोगों ने आगे आकर उसका विरोध किया था।

समाज की शक्ति इसी तरह संगठित रहे तो भारत का हित हमेशा अक्षुण्ण रहेगा।

दलित- महादलित और जाति की राजनीति करने वालों के पास छठ जैसे त्योहार का कोई विकल्प है जो उन लोगों का इतने बड़े पैमाने पर आर्थिक उन्नयन करती हो?  और अगर नहीं है तो क्यों नहीं वो हिन्दू धर्म के उज्ज्वल पक्षों को स्वीकार करते हैं? 

छठ को एक अलग नज़रिये से भी देखने का भाव जाग्रत हो, इस पोस्ट का यही हेतू है।

~ अभिजीत
Abhijeet Singh भइया।।

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