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सोमवार, 7 फ़रवरी 2022

सांप की मौसी किसे कहा जाता है ?

 

सांप की मौसी किसे कहा जाता है ?

हमारे यहां कभी-कभी एक छिपकली जैसा लेकिन वह चलता साँप जैसा जीव दिखाई देता है उसे यहाँ हमारी स्थानीय भाषा में 'सांप की मौसी' और 'बामनी' कहते हैं।

(चित्र :- हाथों में दस्ताना पहनकर पकड़ी हुई बामनी हालाँकि यह ख़तरनाक नहीं है।)

इसका रंग सांप जैसा चमकीला होता है। इसके काटने से जहर नहीं फैलता है।

बचपन में रेत में खेलते वक़्त निकला करती थी। हम तब किसी भी तरह इसकी पूछ को छु लेना चाहते थे। कहते है इसे छूना सौभाग्यशाली होता है।

चलते-चलते इसके बारे में थोड़ा सा और जान लेते है-

वैज्ञानिक नाम :- Eutropis Carinata

सामान्य नाम :- Keeled Indian Mabuya (स्किंक)

  • जहरीली नही।
  • अधिकतम लंबाई 15 cm
  • पूछ को अलग कर सकती है। Regenerative Tail
  • कीड़े इत्यादि खाकर इको सिस्टम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
  • स्किंक तमाम प्रकार के पर्यावासों में रहते हैं।
  • छिपकली जैसी शक्ल-सूरत, आकार-प्रकार। लेकिन, चमकदार त्वचा और देखने में गोरी-चिट्टी और साफ-सुथरी। शायद इसी के चलते इसे बभनी कहा जाता होगा।

स्किंक जहरीले नहीं होते हैं। उन्हें देखकर डरन की जरूरत नहीं है। कुछ लोग सरीसृपों (रेप्टाइल) या रेंगने वाले जीवों से घृणा करते हैं। अक्सर ही इन्हें सांप के साथ जोड़कर देखा जाता है, इसलिए लोग इन्हें जहरीला भी समझते हैं। इन्हें देखकर घृणा करने की भी जरूरत नहीं है।

बदलाव :- आज घर पर फिर से दिखाई दी यह देखिए-

  • भोजपुरी में इसे लोटनी कहते हैं।
  • छत्तीसगढ़ी में बिजगुरीया
  • सादरी में गछई कहते हैं।
  • हमारे बचपन मे इसे नुकसान पहुचाने की सख्त मनाही थी,दादी कहती थीं ये अपने माँ की इकलौती औलाद होते हैं।
  • इसे भोलेनाथ के कुँडल मानते हैं। कहते थे इसे छूने से पैसे मिलते है।

ये भी ईकोसिस्टम में अपनी भूमिका अदा कर रहे हैं। उससे कहीं ज्यादा, जितना होमो सेपियंस अदा कर रहे हैं।

बच्चों को फोन से दूर रखना तो ख़ासा मुश्किल काम है

 बच्चे और धर्म

सम्मलेन “साइबर क्राइम” पर था और चूँकि ऑनलाइन गालीगलौच से अक्सर कम उम्र के या सोशल मीडिया पर नए आये लोगों के अवसाद में जाने की घटनाएँ होती रहती हैं, इसलिए वहाँ एक मनोवैज्ञानिक भी मौजूद थे। महिलाओं में से एक ने प्रश्न किया कि मोबाइल और सोशल मीडिया बच्चों के लिए घातक है, ये तो समझ में आता है, मगर बच्चों को फोन से दूर रखना तो ख़ासा मुश्किल काम है। वो तो मौका पाते ही फोन झपट लेते हैं और न देने पर रोना-धोना बंद करवाना भी काफी मुश्किल होता है! जवाब में मनोवैज्ञानिक ने प्रतिप्रश्न किया, अगर मैं आपके घर ऐसे वक्त आऊं जब आप कोई काम न कर रही हों, तो आप क्या करती मिलेंगी? क्या आप अपने मोबाइल फ़ोन में कोई वीडियो देख रही होंगी, या खाली समय में व्हाट्सएप्प वगैरह पर चैटिंग कर रही होंगी?



जब कई महिलाओं का जवाब हाँ में आया तो मनोवैज्ञानिक ने अपनी आगे की बात रखी। बच्चे वही सीखते हैं जो वो बड़ों को करते देखते हैं। इससे पिछली पीढ़ी में संभवतः कई लोग शाम में टीवी शो देखते पाए जाते थे तो अगली पीढ़ी यानी हम लोगों ने बचपन में वो सीख लिया। फिर अब जब वही टीवी शो वगैरह मोबाइल पर भी आने लगे तो हमारी पीढ़ी अपने खाली समय का काफी हिस्सा फोन पर बिताने लगी। किताबें पढ़ना, सिलाई-बुनाई, चित्रकारी जैसे शौक को अब उतना समय नहीं दिया जाता। बच्चे जो भी बड़ों को करते देखते हैं, वो उसी की नक़ल करके सीखते हैं। ऐसे में वो लगातार सभी को मोबाइल फ़ोन में व्यस्त देखने लगे, तो बाहर खेलने जाना, चित्रकारी या पढ़ने जैसी चीज़ें वो सीखेंगे कहाँ से?




इसी को थोड़ा आगे ले आकर आप ये सोचिये कि क्या आपको कोई भजन, पूरा न सही कोई एक दो वाक्य ही, याद हैं? जो याद हैं, क्या वो वही नहीं हैं जो आपके घर में कोई रिश्तेदार, संभवतः दादी-नानी जैसे कोई लोग गुनगुनाया करते थे? पूजा-पाठ जैसे तरीके भी आपने अपने परिवार के लोगों को जैसे करते पाया, वही सीखा है। जब आप खुद तिलक लगाये नहीं दिखते, पूजा नहीं करते, बच्चों को साथ लेकर मंदिर नहीं गए, तो आज थोड़ा बड़े होने पर, किशोरावस्था में आने पर वो अगर ये सब नहीं कर रहे हैं तो आश्चर्य क्यों होना चाहिए? ध्यान रहे किशोरावस्था तेरह वर्ष की आयु पर शुरू और उन्नीस पर ख़त्म मानी जाती है, और कानूनी तौर पर 18 से कम उम्र का कोई भी बच्चा ही है। ऐसे में हम जिन्हें बच्चा कह रहे हैं वो अगर 13 से 18 के बीच के हैं तो किशोरावस्था वाला विद्रोही स्वभाव और बच्चों वाली जिज्ञासा दोनों का सामना करना होगा।


अगर आप ये नहीं बता सकते कि कोई त्यौहार क्यों मनाया जाता है, तो क्या होगा? उदाहरण के तौर पर दुर्गा पूजा क्यों मनाई जाती है, ये अगर आपने नहीं बताया तो नतीजा यही होगा कि कोई और इयान डीकॉस्टा जैसा अपने फॉरवर्ड प्रेस के जरिये आकर जब उसे सिखा देगा कि महिषासुर एक मूल निवासी राजा था जिसे विदेशी दुर्गा ने छल से मार दिया तो उसके पास विश्वास करने के सिवा क्या चारा होगा? आपने तो कुछ बताया ही नहीं था। ऐसे ही जब आप नहीं बताते कि होली के आस-पास भारत में मौसम सूखा और गर्म होने लगता है। ऐसे मौसम में ही वन विभाग आग लगने की चेतावनियाँ जारी करना शुरू करता है। हिन्दुओं में परंपरागत रूप से आग जिन लकड़ियों में लग सकती हो उसे होलिका दहन में इकठ्ठा करके जला देते हैं और होली पर पानी का छिड़काव वातावरण में आद्रता बढ़ा देता है।

छोटे कस्बों-गावों में अब भी इस मौसम के शुरू होते ही घरों दुकानों के सामने पानी का छिड़काव करके सूखी लकड़ियों, जाड़े के बाद टूटे पत्तों, कागज और दूसरे ज्वलनशील कचरे को इकठ्ठा किया जाने लगता है। फिर सामुदायिक रूप से कई लोगों की निगरानी में इसे जला दिया जाता है ताकि आग को खुराक न मिले। रिहाइशी इलाकों में पानी के छिड़काव से आद्रता रहेगी, तो आस पास जंगलों में आग लगेगी तो भी मनुष्यों की आबादी वाले इलाके का अधिक नुकसान नहीं हो पायेगा। लेकिन आपने तो ये सिखाया ही नहीं! ऐसे में जब उसे कोई होली को पानी की बर्बादी बताएगा तो वो क्यों पूछेगा कि एक लीटर पानी साफ़ करने में जो आरओ नौ लीटर पानी बर्बाद कर देता है, उसे रोककर पानी बचाओ। वो क्यों बहकाने वाले को याद दिलाएगा कि दो-दो कारों को धोने में जो हर रोज पानी बर्बाद होता है, उसे बचाया जाए।

दीपावली के समय जब कोई उसे धुंए या प्रदुषण की सीख देने लगे तो जब उसे आपने ये पहले से बताया हो कि दफ्तरों में चौबीसों घंटे चलने वाले एसी का जो पर्यावरण पर प्रभाव पड़ता है, उसे भी देखा जाए, तभी वो इस बारे में पूछेगा। वर्ष भर कार पूल या पब्लिक ट्रांसपोर्ट का प्रयोग, फ्रिज बंद रखना, सिगरेट छोड़ना जैसा कुछ किसी ने किया है जो उससे पूछने आया है दीपावली के प्रदुषण पर, ये तो आपको याद दिलाना होगा। ऐसे सभी मसलों पर अगर आप सर हिलाते हुए कहते हैं कि हमारी युवा पीढ़ी धर्म से कटती जा रही है तब असल में उसकी ओर इशारा करते वक्त आपके ही हाथ की तीन उँगलियाँ आपकी तरफ मुड़ जाती हैं। कहीं न कहीं पिछली पीढ़ी ने उसे सिखाने, उसे बताने में कमी छोड़ी इसी लिए आज उसकी जानकारी कम है। कहीं न कहीं पिछली पीढ़ी ने उससे संवाद कम रखा, छोड़ दिया, या उसकी भाषा, उसे समझ में आने वाली शैली में नहीं किया, इसी लिए आज उसकी इस विषय में रूचि कम है।


याद रखिये कि जब आप कोई पौधा लगाते हैं और वो उस तरह फलता-फूलता, या पनपता नहीं जैसा उसे बढ़ना चाहिए था तो आप पौधे को दोष देने नहीं बैठते। आप देखते हैं की कहीं खाद-मिट्टी अनुपयुक्त तो नहीं, कहीं पानी ज्यादा या कम मिला हो ऐसा तो नहीं, कहीं वातावरण तो पौधे के लिए प्रतिकूल नहीं था? इसलिए जब ऐसे सवाल सामने आयें तो हमें सोचना होगा कि हमसे कहाँ कमियां रह गयी हैं। हमें आज ये अच्छी तरह मालूम है कि संविधान में सेक्युलर का हिन्दी अर्थ पंथनिरपेक्ष लिखा हुआ है, लेकिन उसे धर्म-निरपेक्ष बनाकर स्कूलों के पाठ्यक्रम से धर्म सम्बन्धी शिक्षा हटा ली गयी है। ये बच्चों ने नहीं हमारी आपकी, या हमसे पीछे की पीढ़ियों ने किया है। घर में अगर हमने सिखाया नहीं और स्कूल-कॉलेज में ये पाठ्यक्रम में था

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