धर्मनिरपेक्षता हिंदुस्तान का सबसे बड़ा झूठ है
लोग हज़ारों की हिंसक भीड़ को कुछ ‘अराजक तत्व’ बताकर खारिज कर देते हैं। वो दावा करते हैं कि ये असली प्रदर्शनकारी नहीं है बल्कि असमाजिक तत्व हैं। और यही लोग पिछले 6 सालों से कुछ-एक लिंचिंग घटनाओं को आगे रख ये माहौल बना रहे हैं कि एक कौम ज़ुल्म कर रही है और दूसरे पर जुल्म हो रहा है...
तब कभी ये समझने की कोशिश नहीं की गई वो हिंसा करने वाले भी कुछ हिंसक तत्व ही थे। क्या 130 करोड़ लोगों के मुल्क में जहां 20 करोड़ के करीब मुसलमान हैं आप कुछ-एक घटनाओं को आगे रखकर ये दावा कर सकते हैं कि हर किसी के साथ ऐसा हो रहा है? होनी तो एक भी घटना नहीं चाहिए...लेकिन अगर कोई अफसोसनाक घटना हुई तो उसे उसी संदर्भ में क्यों न देखा जाए मगर तब तक तो आप उसे पूरे देश के माहौल से जोड़कर टिप्पणी करने लगते हैं...आज आप अराजक तत्वों को कौम से न जोड़ने की अपील कर रहे हैं और कठुआ की अफसोसनाक घटना के बाद आपने पूरी हिंदू कौम को ही बलात्कारी बता दिया था...हिंदू धर्म से जुड़े चिन्हों पर आपत्तिजनक चित्र बनाकर हिंदू धर्म को बलात्कारी बताया गया...जिस देश में ये घिनौना अपराध हर किसी के साथ हर रोज़ होता है, उसे इस तरह पेश किया गया जैसे उस बच्ची के साथ सिर्फ उसके धर्म की वजह से ऐसा किया गया...तब क्यूं सिर्फ कुछ लोगों के अपराध की तरह लिया गया...किस-किस मक्कारी का ज़िक्र करू...किस्से ख़त्म नहीं होंगे...
5 सालों में 100 से ज़्यादा हिंदू भी हेटक्राइम का शिकार हुए जिसमें अपराधी मुस्लिम थे...उस पर चर्चा करना तो आपको पता तक नहीं होगा...मगर नहीं, हमें तो वही कुछ-एक मामले आगे रखकर हायतौबा मचानी है। खुद इस बात की शिकायत करते हैं कि सरकार की आलोचना पर आपको एंटी नेशनल बता दिया जाता है और खुद हर उस आदमी को एक खास पार्टी का एजेंट बताते हैं जो आपसे सहमत नहीं होता है। अगर आपका विरोध आपके विश्वास से निकला है, आपकी राजनीतिक Conviction से निकला है, तो सामने वाले का विरोध भी तो उसकी कंवीकशन से निकला हो सकता है...तब आपको ये क्यूं लगता है कि सामने वाला किसी से पैसे लेकर अपना राजनीतिक राय बना रहा है।
जब आप खुद विरोध का हक चाहते हैं, तो सामने वाले पर बिना लांछन लगाए उसे ये अधिकार क्यों नहीं देते...क्या ये ज़रूरी है कि आप किसी इंसान को तभी ईमानदार मानेंगे जब वो आपकी नफरत से सहमत हो...क्या उसकी पवित्रता तभी साबित होगी जब वो उस इंसान से उतनी ही नफरत करे जितना आप करते हैं...अगर आप अपनी आलोचना में संयम नहीं बरतते तो तब क्यूं भड़क उठते हैं जब लोग आपको पाकिस्तान का हमदर्द बताते हैं...क्या वजह है कि कश्मीर से लेकर 370 तक और सर्जिकल स्ट्राइक से लेकर कैब तक आपको और पाकिस्तान के सुर एक ही होते हैं...आपको कैसा लगेगा अगर ऐसे हर मामले पर आपको पाकिस्तानी एजेंट बता दिया जाए...बुरा लगता है न...उसी तरह उन लोगों को भी लगता है जो अपनी निजी निष्ठा से कोई बात बोलते हैं और आप उन्हें भक्त, एजेंट या बिका हुआ बता देते हैं।
आप हज़ारों सालों की गंगा ज़मनी संस्कृति की दुहाई देते हैं, तो क्यूं आपकी कुछ कमज़ोरियों पर सवाल उठाने पर इतना बिदक जाते हैं...क्या दुनिया के सारे रिश्ते ऐसे ही वर्क करते हैं...घर पर मां-बाप से प्यार करते हैं, तो क्या उनकी हर बात से सहमत होते हैं...नहीं न..उनसे प्यार करते हुए उन्हें उनकी गलती बताते हैं न...वो भी आपको प्यार करते हुए आपको भी आपको गलती बताते हैं, तो क्यों ये छूट धर्मों के बीच लोगों को नहीं हो सकती...आप क्यों खुद को आलोचना से ऊपर मानते हैं...ये कैसी गंगा जमनी संस्कृति है जहां आप सिर्फ तारीफ तो सुन सकते हैं मगर आलोचना नहीं...मगर आपके तो किसी विश्वास पर ज़रा सा सवाल उठा दिया जाए, तो आप सामने वाले कट्टर घोषित कर देते हैं...क्या भाईचारे का मतलब ये होता है कि कोई भी इंसान दूसरे की कमज़ोरी पर सवाल उठाकर उसको शर्मिंदा नहीं करेगा...मगर आप तो हो जाते हैं...तभी तो ट्रिपल तलाक ख़त्म करने को आप मुसलमानों के खिलाफ साजिश बताते हैं...बिना ये सोचे कि पूरी दुनिया इससे कब से मुक्त हो चुकी है..भाइचारे का मतलब क्या किसी को उसके हाल पर छोड़ देना होता है क्या... आप इन सब सवालों पर कभी नहीं सोचते...बस अपनी नफरतों से चिपके रहते हैं...
हिंदुस्तान सेक्युलर मुल्क इसलिए नहीं है क्योंकि नेहरू या कांग्रेस ने आज़ादी के वक्त ऐसा चाहा था..वो इसलिए सेक्युलर है क्योंकि यहां कि बहुसंख्यक आबादी भी यही चाहती रही है...अगर आवाम नहीं चाहती, तो वो कभी नेताओं के कहने पर ऐसा नहीं करती...जैसे पाकिस्तान की मुस्लिम आबादी ने जिन्ना की ख्वाहिश के बावजूद पाकिस्तान को सेक्युलर नहीं होने दिया...संविधान में ही उसे मुस्लिम मुल्क घोषित करवा दिया...अगर ये देश सेक्युलर नहीं होता, तो पाकिस्तान की धर्म लोगों को अपना हीरो बनाने से पहले पूंछ उठाकर देखता कि वो हिंदू या मुसलमान...वो तीनों खानों का बालीवुड का बादशाह नहीं बनाता..अज़हर से लेकर ज़हीर और इरफान जैसों को अपना हीरो नहीं मानता...ये हिंदू धर्म नहीं देखता तभी तो हिंद्स्तान से बेपनाह नफरत करने वाले कश्मीरियों को भी सिर आंखों पर बिठात है....याद है कुछ साल पहले फेमगुरू कुल में आए एक कश्मीरी लड़के काज़ी को लोगों ने सिर्फ इसलिए जीता दिया क्योंकि वो बातें अच्छी करता था...लोगों को उसकी शख्सियत से प्यार हो गया था...अगर हम धर्म या प्रांत के आधार पर नफरत करने वाले होते तो क्या उस राज्य के मुस्लिम लड़के को जीताते जो हर दिन भारत के झंडे जलाती है...
अगर ये हिंदू संयमी नहीं होता, सब्र वाला नहीं होता तो 75 सालों से हिंदू बस्तियों में मुसलमानों को सुबह 6 बजे लाउस्पीकर पर अजान नहीं चलाने देता...यहां भी कॉलेज में हिंदू त्यौहार मनाया जाना खबर बनता...यहां भी पाकिस्तान की तरह Minority की आबादी घटती, उनके धार्मिक स्थल ढहाए जाते...कश्मीर की तरह मंदिरों पर ताले लगाए जाते...मगर तुम्हें ये सब दिखाई नहीं देता...तुम्हें ये इसलिए नहीं दिखाई देता क्योंकि तुम धार्मिक श्रेष्ठता के शिकार हो...तुममें इतना नैतिक साहस नहीं कि अपने मज़हब के कट्टपंथियों के खिलाफ आवाज़ उठा पाओ...
मोदी ने तो 6 साल में देश में धर्मनिरपेक्षता की नींव हिला दी...मगर हर शहर में जो सालों से जो तुम अपने मोहल्ले बसाकर रहते हैं क्या ये भी पीछे जाकर मोदी बसा आए हैं...या तो आपने अपनी मर्ज़ी से ऐसा किया है...या फिर इस देश की हिंदू कौम तुम्हें अपने साथ नहीं रहने देती...अगर ये दोनों ही बातें सच है, तो ये देश तो कभी सेक्युकलर था ही नहीं...मतलब हिंदू कट्टर रहे हैं जो तुम्हें साथ नहीं रख सकते या तुम इतने कट्टर हो जो उसके साथ रहना नहीं चाहते...अगर ऐसा है तो आज तुम किसी गंगा जमनी संस्कृति की, धार्मिक सौहार्द्र की दुहाई देते हो
ये कैसी धर्मनिरपेक्षता है, जो ज़रा सी तकलीफ होने पर तो संविधान की दुहाई देती है मगर तुम्हें कॉमन सिविल कोड मानने नहीं देती, ट्रिपल तलाक लाने नहीं देती, वंदेमातरम नहीं बोलने देती, हिंदू परिवारों में शादी नहीं करने देती...ये किसी तरह का झूठ हम अपने आप से बोल रहे हैं...जब हमें कानून भी अपने बनाने हैं, रहना भी अपने लोगों के बीच है, मानना भी सिर्फ अपने ईश्वर को है, शादी भी अपने लोगों में ही करनी है, तो किस सेक्युरलिज़्म की बात कर रहे हैं हम...क्यों ये झूठ बोल रहे हैं कि हमने तो कट्टर पाकिस्तान के ऊपर सेकुलर हिंदुस्तान चुना...किसलिए चुना...अपने ही लोगों के बीच अपने मोहल्ले बनाकर उन्ही से रिश्तेदारियां जोड़कर...सेक्युरलिज़्म क्या नियम और शर्तों के साथ आता है...कम से कम मेरा तो नहीं आता...उसमें कोई रोक नहीं है, कोई बंधन नहीं है, मेरा सेकुयुरलजिम तो हर मंदिर-मस्जिद के आगे झुकता है, हर किसी की इबादत की इजाज़त देता है, हर किसी से मोहब्बत की छूट देता है..झांको अपने अंदर पूछो खुद से क्या तुम्हारा सेक्युलरज़िम भी यही बोलता है...अगर नहीं, तो बदलना तुम्हें है मुझे नहीं!
धर्मनिरपेक्षता और कट्टरता पर कुछ समय पहले एक पोस्ट लिखी थी...यहां फिर से दोहरा रहा हूं...शायद इसके बाहर कुछ नहीं है
अगर आपको लगता है कि जिस धर्म में आप पैदा हुए हैं, उसे डिफेंड करना आपकी मजबूरी या फर्ज़ है, तो आप कट्टर हैं। अगर आपको लगता है कि आपका धर्म आलोचना से परे है, तो आप कट्टर हैं। अगर आपको लगता है कि आपका जीवन प्राकृतिक या मानवीय नियमों पर नहीं, आपकी धार्मिक मान्यताओं से तय होगा, तो आप कट्टर हैं। अगर आपको लगता है कि एक भी चीज़ सवाल से परे है या वो अंतिम सत्य है, तो आप कट्टर हैं।
अगर आप अपनी धार्मिक मान्यताओं पर चर्चा के लिए तैयार हैं, तो आप उदार हैं। अगर आप मानते हैं कि सच को किसी धर्म या किताब में नहीं बांधा जा सकता, तो आप उदार हैं। अगर आपको लगता है कि सब कुछ आलोचना के दायरे में है, तो आप उदार हैं।
अगर आपको लगता है कि कुछ चीज़ों पर चर्चा नहीं हो सकती, तो आपको किसी को भी कट्टर कहने का हक नहीं। अगर आपके लिए कोई मान्यता या किताब आलोचना से परे है, तो किसी और के लिए कोई संगठन या व्यक्ति आलोचना से परे हो सकता है। मूर्खता हर हाल में मूर्खता ही होती है फिर चाहे वो एक किताब को जीवन का सच मानने की ज़िद्द में छिपी हो या किसी एक व्यक्ति को राष्ट्र का सच मानने में।
जीवन इतना तेज़ी से बदलता है कि कुछ महीनों के अंतराल में हमारा अपने आप से सहमत होना मुश्किल हो जाता है, ऐसे में अपने आज को हज़ारों साल पुराने किसी किताबी संविधान के हवाले कर देना सिवाए बौधिक आलस्य को और कुछ नहीं। और आलस्य से बड़ा तो दुनिया में दूसरा और कोई पाप है ही नहीं।