तब कैमलिन की स्याही प्रायः हर घर में मिल ही जाती थी......कोई कोई टिकिया से स्याही बनाकर भी उपयोग करता था और बुक स्टाल पर शीशी में स्याही भर कर रखी होती थी 5 पैसा दो और ड्रापर से खुद ही डाल लो ये भी सिस्टम था.........जिन्होंने भी पैन में स्याही डाली होगी वो ड्रॉपर के महत्व से भली भांति परिचित होंगे.......!
कुछ लोग ड्रापर का उपयोग कान में तेल डालने में भी करते थे.......
महीने में दो-तीन बार निब पैन को खोलकर उसे गरम पानी में डालकर उसकी सर्विसिंग भी की जाती थी और लगभग सभी को लगता था की निब को उल्टा कर के लिखने से हैंडराइटिंग बड़ी सुन्दर बनती है.......
सामने के जेब मे पेन टांगते थे और कभी कभी स्याही लीक होकर सामने शर्ट नीली कर देती थी जिसे हम पौंक देना कहते थे......कापी में पौंक देने पर हम ब्लैक बोर्ड के नीचे चाक के टुकड़े ढूंढते थे जो कि स्याही सोखने का काम करते थे.... स्याही से भरे हाथों को हम सिर के बालों में पोंछ लेते थे........इसी वजह से हमारी पिटाई घर और स्कूल में भी होती थी........
हर क्लास में एक ऐसा योद्धा होता था जो पैन ठीक से नहीं चलने पर ब्लेड लेकर निब के बीच वाले हिस्से में बारीकी से कचरा निकालने का दावा कर लेता था.........!!
नीचे के हड्डा(जिब)को घिस कर परफेक्ट करना भी एक आर्ट था........!!
हाथ से निब नहीं निकलती थी तो दांतों के उपयोग से भी निब निकालते थे...दांत , जीभ औऱ होंठ भी नीला होकर भगवान महादेव की तरह हलाहल पिये सा दिखाई पड़ता था.......
दुकान में नयी निब खरीदने से पहले उसे पैन में लगाकर सेट करना फिर कापी में स्याही की कुछ बूंदे छिड़क कर निब उन गिरी हुयी स्याही की बूंदो पर लगाकर निब की स्याही सोखने की क्षमता नापना ही किसी बड़े साइंटिस्ट वाली फीलिंग दे जाता था......!
निब पैन कभी ना चले तो हम सभी ने हाथ से झटका देने के चक्कर में आजू बाजू वालों पर के कपड़ों पर स्याही जरूर छिड़कायी होगी....!!
कुछ बच्चे ऐसे भी होते (हम नहीं...) थे जो पढ़ते लिखते तो कुछ नहीं थे लेकिन घर जाने से पहले उंगलियो में स्याही जरूर लगा लेते थे.......बल्कि पैंट पर भी छिड़क लेते थे ताकि घरवालों को देख के लगे कि बच्चा स्कूल में बहुत मेहनत करता है.......!!
यह निब वाला पेन हथियार का काम भी करता था....कोई जब मारने आता था तो बचाव के लिए तुरंत पेन का ढक्कन खोल कर खुद को महाराणा प्रताप समझते थे....
बिखरी बिसरी यादें....