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सोमवार, 29 अप्रैल 2024

पिता के हाथ के निशान

पिता के हाथ के निशान
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पिता जी बूढ़े हो गए थे और चलते समय दीवार का सहारा लेते थे। नतीजतन, दीवारें जहाँ भी छूती थीं, वहाँ रंग उड़ जाता था और दीवारों पर उनके उंगलियों के निशान पड़ जाते थे।

मेरी पत्नी ने यह देखा और अक्सर गंदी दिखने वाली दीवारों के बारे में शिकायत करती थी।

एक दिन, उन्हें सिरदर्द हो रहा था, इसलिए उन्होंने अपने सिर पर थोड़ा तेल मालिश किया। इसलिए चलते समय दीवारों पर तेल के दाग बन गए।

मेरी पत्नी यह देखकर मुझ पर चिल्लाई। और मैंने भी अपने पिता पर चिल्लाया और उनसे बदतमीजी से बात की, उन्हें सलाह दी कि वे चलते समय दीवारों को न छुएँ।

वे दुखी लग रहे थे। मुझे भी अपने व्यवहार पर शर्म आ रही थी, लेकिन मैंने उनसे कुछ नहीं कहा।

पिता जी ने चलते समय दीवार को पकड़ना बंद कर दिया। और एक दिन गिर पड़े। वे बिस्तर पर पड़ गए और कुछ ही समय में हमें छोड़कर चले गए। मुझे अपने दिल में अपराधबोध महसूस हुआ और मैं उनके भावों को कभी नहीं भूल पाया और कुछ ही समय बाद उनके निधन के लिए खुद को माफ़ नहीं कर पाया।

कुछ समय बाद, हम अपने घर की पेंटिंग करवाना चाहते थे। जब पेंटर आए, तो मेरे बेटे ने, जो अपने दादा को बहुत प्यार करता था, पेंटर को पिता के फिंगरप्रिंट साफ करने और उन जगहों पर पेंट करने की अनुमति नहीं दी।

पेंटर बहुत अच्छे और नए थे। उन्होंने उसे भरोसा दिलाया कि वे मेरे पिता के फिंगरप्रिंट/हाथ के निशान नहीं मिटाएंगे, बल्कि इन निशानों के चारों ओर एक सुंदर घेरा बनाकर एक अनूठी डिजाइन बनाएंगे।

इसके बाद यह सिलसिला चलता रहा और वे निशान हमारे घर का हिस्सा बन गए। हमारे घर आने वाला हर व्यक्ति हमारे अनोखे डिजाइन की प्रशंसा करता था।

समय के साथ, मैं भी बूढ़ा हो गया।

अब मुझे चलने के लिए दीवार के सहारे की जरूरत थी। एक दिन चलते समय, मुझे अपने पिता से कहे गए शब्द याद आ गए और मैंने बिना सहारे के चलने की कोशिश की। मेरे बेटे ने यह देखा और तुरंत मेरे पास आया और मुझे दीवार का सहारा लेने के लिए कहा, चिंता व्यक्त करते हुए कि मैं बिना सहारे के गिर जाऊंगा, मैंने महसूस किया कि मेरा बेटा मुझे पकड़ रहा था।

मेरी पोती तुरंत आगे आई और प्यार से, मुझे सहारा देने के लिए अपना हाथ उसके कंधे पर रखने के लिए कहा। मैं लगभग चुपचाप रोने लगा। अगर मैंने अपने पिता के लिए भी ऐसा ही किया होता, तो वे लंबे समय तक जीवित रहते।

 मेरी पोती मुझे साथ ले गई और सोफे पर बैठा दिया।
फिर उसने मुझे दिखाने के लिए अपनी ड्राइंग बुक निकाली।
उसकी शिक्षिका ने उसकी ड्राइंग की प्रशंसा की और उसे बेहतरीन टिप्पणियाँ दीं।
स्केच दीवारों पर मेरे पिता के हाथ के निशान का था।
स्केच के नीचे शीर्षक लिखा था..
“काश हर बच्चा बड़ों से इसी तरह प्यार करता”।

मैं अपने कमरे में वापस आ गया और अपने पिता से माफ़ी मांगते हुए फूट-फूट कर रोने लगा, जो अब इस दुनिया में नहीं थे।

हम भी समय के साथ बूढ़े हो जाते हैं। आइए अपने बड़ों का ख्याल रखें।
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वैशाख मास-महात्मय (चतुर्थ अध्याय)

वैशाख मास-महात्मय (चतुर्थ अध्याय) 
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इस अध्याय में महर्षि वसिष्ठ के उपदेश से राजा कीर्तिमान् का अपने राज्य में वैशाख मास के धर्म का पालन कराना और यमराज का ब्रह्माजी से राजा के लिये शिकायत करने सम्बंधित वर्णन किया गया है।

मिथिलापति ने पूछा 👉 ब्रह्मन् ! जब वैशाख मास के धर्म अतिशय सुलभ, पुण्यराशि प्रदान करने वाले, भगवान् विष्णु के लिये प्रीतिकारक, चारों पुरुषार्थों की तत्काल सिद्धि करने वाले, सनातन और वेदोक्त हैं तब संसार में उनकी प्रसिद्धि कैसे नहीं हुई ?

          श्रुतदेवजी ने कहा-राजन्! इस पृथ्वी पर लौकिक कामना रखने वाले ही मनुष्य अधिक हैं। उनमें से कुछ राजस और कुछ तामस हैं। वे लोग इस संसार के भोगों तथा पुत्र- पौत्रादि सम्पदाओं की ही अभिलाषा रखते हैं। कहीं किसी प्रकार कभी बड़ी कठिनाई से कोई एक मनुष्य ऐसा मिलता है, जो स्वर्गलोक के लिये प्रयत्न करता है और इसीलिये वह यज्ञ आदि पुण्यकर्मों का अनुष्ठान बड़े प्रयत्न से करता है; परंतु मोक्ष की उपासना प्राय: कोई नहीं करता। तुच्छ आशाएँ लेकर बहुत-से कर्मो का आयोजन करने वाले लोग प्रायः काम्य-कर्मो के ही उपासक हैं। यही कारण है। कि संसार में राजस और तामस धर्म अधिक विख्यात हो गये, परंतु सात्त्विक धर्मो की प्रसिद्धि नहीं हुई। ये सात्त्विक धर्म भगवान् विष्णु को प्रसन्न करने वाले हैं, निष्काम भाव से किये जाते हैं और इहलोक तथा परलोक में सुख प्रदान करते हैं। देवमाया से मोहित होने के कारण मूढ़ मनुष्य इन धर्मो को जानते ही नहीं हैं ।

          पूर्वकाल की बात है, काशीपुरी में कीर्तिमान् नाम से विख्यात एक चक्रवर्ती राजा थे। वे इक्ष्वाकुवंश के भूषण तथा महाराज नृग के पुत्र थे। संसार में उनका बड़ा यश था। वे अपनी इन्द्रियों पर और क्रोध पर विजय पा चुके थे ब्राह्मणों के प्रति उनके मन में बड़ी भक्ति थी । राजाओं में उनका स्थान बहुत ऊँचा था। एक दिन वे मृगया में आसक्त होकर महर्षि वसिष्ठ के आश्रम पर आये। वैशाख की चिलचिलाती हुई धूप में यात्रा करते हुए राजा ने मार्ग में देखा, महात्मा वसिष्ठ के शिष्य जगह-जगह अनेक प्रकार के कार्यों में विशेष तत्परता के साथ संलग्न थे। वे कहीं पौंसला बनाते थे और कहीं छायामण्डप। किनारे पर झरनों के जल को रोककर स्वच्छ बावली बनाते थे। कहीं वृक्षों के नीचे बैठे हुए लोगों को वे पंखा डुलाकर हवा करते थे, कहीं ऊख देते, कहीं सुगन्धित पदार्थ भेंट करते और कहीं फल देते थे। दोपहरी में लोगों को छाता देते और सन्ध्या के समय शर्वत। कोई शिष्य घनी छाया वाले वन में झाड़ बुहारकर साफ किये हुए आश्रम के प्रांगणों में हितकारक बालुका बिछाते थे और कुछ लोग वृक्षों की शाखा में झूला लटकाते थे। उन्हें देखकर राजा ने पूछा- 'आप लोग कौन हैं?' उन्होंने उत्तर दिया-'हम लोग महर्षि वसिष्ठ के शिष्य हैं।' राजा ने पूछा- 'यह सब क्या हो रहा है?' वे बोले-'ये वैशाख मास में कर्तव्य रूप से बताये गये धर्म हैं, 'जो धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष - चारों पुरुषार्थों के साधक हैं। हम लोग गुरुदेव वसिष्ठ की आज्ञा से इन धर्मोका पालन करते हैं । राजा ने पुन: पूछा-'इनके अनुष्ठान से मनुष्यों को कौन-सा फल मिलता है? किस देवता की प्रसन्नता होती है?' उन्होंने उत्तर दिया- ' हमें इस समय यह बताने के लिये अवकाश नहीं है, आप गुरुजी से ही यथोचित प्रश्न कीजिये वे महायशस्वी महर्षि इन धर्मो को यथार्थ रूप से जानते हैं।'
         
शिष्यों से ऐसा उत्तर पाकर राजा शीघ्र ही महर्षि वसिष्ठ के पवित्र आश्रम पर जो विद्या और योग शक्ति से सम्पन्न था, गये राजा को आते देख महर्षि वसिष्ठ मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने सेवकों सहित महात्मा राजा का विधिपूर्वक आतिथ्य-सत्कार किया। जब वे आराम से बैठ गये, तब गुरु वसिष्ठ से प्रसन्नता पूर्वक बोले- 'भगवन् ! मैंने मार्ग में आपके शिष्यों द्वारा परम आश्चर्यमय शुभ कर्मो का अनुष्टान होते देखा है; किंतु उसके सम्बन्ध में जब प्रश्न किया, तब उन्होंने दूसरी कोई बात न बताकर आपके पास जाने की आज्ञा दी उनकी आज्ञा के अनुसार मैं इस समय आपके समीप आया हूँ। मेरे मन में उन धर्मो को सुनने की बड़ी इच्छा है। अत: आप मुझसे उनका वर्णन करें।
         
तब महायशस्वी वसिष्ठजी ने प्रसन्नतापूर्वक कहा-राजन् ! तुम्हारी बुद्धि को उत्तम शिक्षा मिली है। अत: उसने यह उत्तम निश्चय किया है। भगवान् विष्णु की कथा के श्रवण और भगवद्धर्मो के अनुष्ठान में जो तुम्हारी बुद्धि की आत्यन्तिक प्रवृत्त हुई है, यह तुम्हारे किसी पुण्य का ही फल है। जिसने वैशाख मास में बताये हुए महाधर्मो के द्वारा भगवान् श्रीहरि की आराधना की है, उसके उन धर्मो से भगवान् बहुत सन्तुष्ट होते और उसे मनोवांछित वस्तु प्रदान करते हैं। सम्पूर्ण जगत् के स्वामी भगवान् लक्ष्मीपति समस्त पापराशि का विनाश करने वाले हैं। वे सूक्ष्म धर्मो से प्रसन्न होते हैं, केवल परिश्रम और धन से नहीं। भगवान् विष्णु भक्ति से पूजित होने पर अभीष्ट वस्तु प्रदान करते हैं; इसलिये सदा भगवान् विष्णु की भक्ति करनी चाहिये। जगदीश्वर श्रीहरि जल से भी पूजा करने पर अशेष क्लेश का नाश करते और शीघ्र प्रसन्न होते हैं। वैशाख मास में बताये हुए ये धर्म थोड़े-से परिश्रम द्वारा साध्य होने पर भी भगवान् विष्णु के लिये प्रीतिकारक एवं शुभ होने के कारण अधिक व्यय से सिद्ध होने वाले बड़े-बड़े यज्ञादि कर्मो का भी तिरस्कार करने वाले हैं। अत: भृपाल ! तुम भी वैशाख मास में बताये हुए धर्मो का पालन करो और तुम्हारे राज्य में निवास करने वाले अन्य सब लोगों से भी उन कल्याणकारी धर्मो का पालन कराओ।
         
इस प्रकार से वैशाख-धर्म के पालन की आवश्यकता को शास्त्रों और युक्तियों से भली-भाँति सिद्ध करके वसिष्ठजी ने वैशाख मास के सब धर्मो का राजा के समक्ष वर्णन किया। उन सब धर्मो को सुनकर राजा ने गुरु का भक्ति भाव से पूजन किया और घर आकर वे सब धर्मो का विधिपूर्वक पालन करने लगे। देवाधिदेव भगवान् विष्णु में भक्ति रखते हुए राजा कीर्तिमान् देवेश्वर पद्मनाभ के अतिरिक्त और किसी देवता को नहीं देखते थे। उन्होंने हाथी की पीठ पर नगाड़ा रखकर सिपाहियों से अपने राज्य भर में डंके की चोट यह घोषणा करा दी कि मेरे राज्य में जो आठ वर्ष से अधिक की आयु वाला मनुष्य है, उसकी आयु जब तक अस्सी वर्ष की न हो जाय, तब तक मेष राशि में सूर्य के स्थित होने पर यदि वह प्रात:काल स्नान नहीं करेगा तो मेरे द्वारा दण्डनीय, वध्य तथा राज्य से निकाल देने योग्य समझा जायगा यह मेरा निश्चित आदेश है। पिता, पुत्र, अथवा सुहृद्-जो कोई भी वैशाख धर्म का पालन नहीं करेगा, वह चोर की भाँति दण्ड का पात्र समझा जायगा। प्रात:काल शुभ जल में स्नान करके श्रेष्ठ ब्राह्मणों को दान करना चाहिये। तुम सब लोग अपनी शक्ति के अनुसार पौंसला और दान आदि धर्मो का आचारण करो।'
         
राजा कीर्तिमान् ने प्रत्येक ग्राम में धर्म का उपदेश करने वाले एक-एक ब्राह्मण को बसाया। पाँच-पाँच गाँवों पर एक-एक ऐसे अधिकारी की नियुक्ति की, जो धर्म का त्याग करने वाले लोगों को दण्ड दे सके। उस अधिकारी की सेवा में दस-दस घुड़सवार रहते थे। इस प्रकार चक्रवर्ती नरेश के शासन से सर्वत्र और सब देशों में यह धर्म का पौधा प्रारम्भ हुआ और आगे चलकर खूब बढ़े हुए वृक्ष के रूप में परिणत हो गया उस राजा के राज्य में जो लोग मर जाते थे, वे भगवान् विष्णु के धाम में जाते थे। वहाँ के मनुष्यों को विष्णु लोक की प्राप्ति निश्चित थी। एक बार भी वैशाख स्नान कर लेने से मनुष्य यमराज के पास नहीं जाता। अपने धर्मानुकूल कर्म में स्थित हुए सब लोगों के विष्णुलोक में चले जाने से यमपुरी के सब नरक खाली हो गये। वहाँ एक भी पापी प्राणी नहीं रह गया वैशाख मास के प्रभाव से यमपुरी के मार्ग की यात्रा ही बंद हो गयी। सब मनुष्य दिव्य आकृति धारण करके भगवान् के धाम में जाने लगे। देवताओं के जो लोक हैं, वे सब भी शून्य हो गये। स्वर्ग और नरक दोनों के शून्य हो जाने पर एक दिन नारदजी ने धर्मराज के पास जाकर कहा-'धर्मराज ! आपके इस नरक में पहले-जैसा कोलाहल नहीं सुनायी पड़ता, पहले की भाँति पाप - कर्मो का लेखा भी नहीं लिखा जा रहा है। चित्रगुप्तजी तो ऐसे मौन भाव से बैठे हुए हैं, जैसे कोई मुनि हों। महाराज ! इसका कारण तो बताइये?
         
महात्मा नारद के ऐसा कहने पर राजा यम ने कुछ दीनता के स्वर में कहा-नारद! इस समय पृथ्वी पर जो यह राजा राज्य करता है, वह पुराणपुरुषोत्तम भगवान् विष्णु का बड़ा भक्त है। उसके भय से कोई भी मनुष्य कभी वैशाख मास का उल्लंघन नहीं करता। उस पुण्य कर्म के प्रभाव से सभी भगवान् विष्णु के परम धाम में चले जाते हैं। मुनिश्रेष्ठ ! उस राजा ने इस समय मेरे लोक का मार्ग लुप्त-सा कर रखा है। स्वर्ग और नरक दोनों को शून्य बना दिया है। अत: ब्रह्माजी के समीप जाकर यह सब समाचार उनसे निवेदन करके तभी मैं स्वस्थ होऊँगा। ऐसा निश्चय करके यमराज ब्रह्माजी के लोक में गये और वहाँ बैठे हुए उन ब्रह्माजी का दर्शन किया, जिनका आश्रय ध्रुव है, जो इस जगत् के बीज तथा सब लोकों के पितामह हैं और समस्त लोकपाल, दिक्पाल तथा देवता जिनकी उपासना करते हैं।
         
ब्रह्माजी ने यमराज को देखा और यमराज ब्रह्माजी के आगे पृथ्वी पर गिर पड़े। फिर यमराजने कहा- कमलासन! काम में लगाया हुआ जो पुरुष स्वामी की आज्ञा का ठीक-ठीक पालन नहीं करता और उसका धन लेकर भोगता है, वह काठ का कीड़ा होता है। जो बुद्धिमान् मनुष्य लोभवश स्वामी के धन का उपभोग करता है, वह तीन सौ कल्पों तक तिर्यग्-योनिरूप नरक में जाता है। जो कार्य में नियुक्त हुआ पुरुष कार्य करने में समर्थ होकर भी अपने घर में ही बैठा रहता है, वह बिलाव होता है। देव! मैं आपकी आज्ञा से धर्म पूर्वक प्रजा का शासन करता आ रहा हूँ। मैं अब तक मुनियों और धर्मशास्त्रों के कथनानुसार पुण्यात्मा को पुण्य के फल से और पापात्मा को पाप के फल से संयुक्त किया करता था, परंतु अब आपकी आज्ञा का पालन करने में असमर्थ हो गया हूँ। कीर्तितमान् के राज्य में सब लोग वैशाखमासोक्त पुण्य कर्मो का अनुष्ठान करके पितरों और पितामहों के साथ वैकुण्ठधाम में चले जाते हैं। उनके मरे हुए पितर और मातामह आदि भी विष्णुलोक में चले जाते हैं। इतना ही नहीं, पत्नी के पिता- श्वशुर आदि भी मेरे लेख को मिटाकर विष्णुलोक में चले जाते हैं। देव! बड़े-बड़े यज्ञों द्वारा भी मनुष्य वैसी गति नहीं पाता है, जैसी वैशाख मास में मिल रही है। सम्पूर्ण तीर्थों से, दान आदि से, तपस्याओं से, व्रतों से अथवा सम्पूर्ण धर्मो से युक्त मनुष्य भी उस गति को नहीं पाता, जो वैशाख धर्म तत्पर हुए मनुष्य को प्राप्त हो रही है। वैशाख में प्रात:काल स्नान करके देवपूजन, मास-माहात्म्य की कथाका श्रवण तथा भगवान् विष्णु को प्रिय लगने वाले तदनुकृूल धर्म का पालन करने वाला मनुष्य एकमात्र विष्णु लोक का स्वामी होता है और जगत् पति भगवान् विष्णु के लोक की तो मेरी समझ में कोई सीमा ही नहीं है; क्योंकि सब ओर से कोटि-कोटि प्राणियों का समुदाय वहाँ पहुँच रहा है तो भी वह भरता नहीं है। इस संसार में पवित्र और अपवित्र सभी लोग राजा की आज्ञा से वैशाख मास के धर्म का पालन करके विष्णुलोक को जा रहे हैं। लोकनाथ! उसकी प्रेरणा से संस्कारहीन मनुष्य भी वैशाख-स्नान मात्र से वैकुण्ठधाम में चले जाते हैं। वह केवल भगवान् विष्णु के चरणों की शरण लेने वाला है जान पड़ता है, वह समस्त संसार को विष्णुलोक में पहुँचा देगा। जो पुत्र धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के प्रतिकृूल चलता हो, वह पृथ्वी पर माता के पेट से पैदा हुआ रोग है। वह अधम पुरुष अपनी माता का घात करने वाला कहा जाता है; किंतु राजा कीर्तिमान् की माता और उसकी पत्नी का पुण्य संसारमें विख्यात है। उसकी माता एकमात्र वीरजननी है और वह राजा निश्चय ही संसार में बहुत बड़ा वीर है। जिस प्रकार कीर्तिमान् मेरी लिपि को मिटाने में उद्यत हुआ है, ऐसा उद्योग पुराणों में और किसी का नहीं सुना गया है। भगवान् विष्णु की भक्ति में तत्पर हुए राजा कीर्तिमान् के सिवा दूसरे ऐसे किसी को मैं नहीं जानता, जो डंका बजाकर घोषणा करते हुए लोगों को ऐसी प्रेरणा देता हो और मेरे लोक के मार्ग को विलुप्त करने की चेष्टा करता रहा हो।'
  
"जय जय श्री हरि"
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ब्रह्म मुहूर्त का महत्त्व एवं समय

ब्रह्म मुहूर्त का महत्त्व एवं समय
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वैसे तो सूर्य हमेशा आपके सिर के ऊपर ही होता है, लेकिन जब मैं कहता हूं कि सूर्य ठीक आपके सिर पर है तो इसका मतलब है उस समय वह आपके सिर पर लंबवत है। उस समय यह एक विशेष तरीके से काम करता है। यह समय होता है सुबह ३:४५ से लेकर अगले १२ से २० मिनट तक।
अब सवाल आता है कि इस समय में हम क्या करें? इस समय में हम ध्यान करें या क्रिया करें? इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप क्या करें। इस समय में आपको वही करना चाहिए, जिसमें आपको दीक्षित किया गया है। दरअसल, दीक्षा का मतलब यह नहीं है कि आपको कोई क्रिया सिखाई गई है, इसका मतलब है कि इस क्रिया से आपके सिस्टम को परिचित करा कर आपके सिस्टम में इसे बाकायदा स्थापित किया गया है।
अगर आपके सिस्टम में एक जीवंत बीज पड़ चुका है और अगर आप ब्रह्म मुहूर्त में जागकर कोई भी अभ्यास करने बैठते हैं तो यह बीज आपको सबसे ज्यादा फल देगा। उसकी वजह है कि इस समय धरती आपके सिस्टम के अनुसार काम करती है। अगर आप खास तरीके से जागरूक हो जाते हैं, आपके भीतर एक खास स्तर की जागरूकता आ जाती है तो आपको इस समय का सहज रूप से अहसास हो जाता है। अगर आप सही वक्त पर सोने चले जाते हैं तो आपको उठने के लिए घड़ी देखने की जरूरत नहीं पड़ेगी। आपको हमेशा पता चल जाएगा कि कब ३:४५ का वक्त हो गया है, क्योंकि यह वक्त होते ही आपका शरीर एक अलग तरीके से व्यवहार करने लगेगा।

ब्रह्म मुहूर्त का महत्त्व
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आप जिस भी क्रिया में दीक्षित हुए हैं, अगर इस समय वह करना शुरू कर देंगे, तो आपको इसका सर्वश्रेष्ठ फल मिलेगा। हां, यह समय किताब पढ़ कर सीखी हुई क्रिया करने का नहीं है। आपके भीतर पड़ा वह बीज इस समय विशेष सहयोग मिलने से अकुंरित होने लगेगा या दूसरे समय की अपेक्षा ज्यादा तेजी से फूटेगा। यह समय सिर्फ दीक्षित हुए लोगों के लिए ही अनुकूल है। अगर आप दीक्षित नहीं है तो फिर ३:४५ हो या ६:४५ या फिर ७:४५ कोई खास फर्क नहीं पड़ता है। ऐसे लोगों के लिए संध्या काल ज्यादा महत्वपूर्ण होता है। यह एक तरह का संधि काल होता है।
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राम' नाम का प्रताप

(((( 'राम' नाम का प्रताप ))))
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एक बार महाराज दशरथ राम आदि के साथ गंगा स्नान के लिये जा रहे थे। मार्ग में देवर्षि नारद जी से उनकी भेंट हो गयी। 
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महाराज दशरथ आदि सभी ने देवर्षि को प्रणाम किया।
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तदनन्तर नारद जी ने उनसे कहा, महाराज ! अपने पुत्रों तथा सेना आदि के साथ आप कहां जा रहे हैं ? 
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इस पर बड़े ही विनम्र भाव से राजा दशरथ ने बताया.. भगवन ! हम सभी गंगा स्नान की अभिलाषा से जा रहे है।
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इस पर मुनि ने उनसे कहा.. महाराज ! निस्संदेह आप बड़े अज्ञानी प्रतीत होते है.. 
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क्योकि पतित पावनी भगवती गंगा जिनके चरण कमलों से प्रकट हुई है, वे ही नारायण श्री राम आपके पुत्ररूप में अवतरित होकर आपके साथ में रह रहे है। 
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उनके चरणों की सेवा और उनका दर्शन ही दान, पुण्य और गंगा स्नान है, फिर हे राजन् ! आप उनकी सेवा न करके अन्यत्र कहाँ जा रहे है। 
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पुत्र भाव से अपने भगवान् का ही दर्शन करे। श्री राम के मुख कमल के दर्शन के बाद कौन कर्म करना शेष बच जाता है ?
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पतितपावनी गंगा अवनीमण्डले।
सेइ गंगा जन्मिलेन यार पदतले।।
सेइ दान सेइ पुण्य सेइ गंगास्नान।
पुत्रभावे देख तुमि प्रभु भगवान्।।
(मानस, बालकाण्ड)
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नारदजी के कहने पर महाराज दशरथ ने वापस घर लौटने का निश्चय किया.. किंतु भगवान् श्रीराम ने गंगा जी की महिमा का प्रतिपादन करके गंगा स्नान के लिए ही पिता जी को सलाह दी। 
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तदनुसार महाराज दशरथ पुन: गंगा स्नान के लिये आगे बढ़े। 
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मार्ग में तीन करोड़ सैनिकों के द्वारा गुहराज ने उनका मार्ग रोक लिया। 
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गुहराज़ ने कहा, मेरे मार्ग को छोड़कर यात्रा करे, यदि इसी मार्ग से यात्रा करना हो तो आप अपने पुत्र का मुझे दर्शन करायें। 
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इस पर दशरथ की सेना का गुह की सेना के साथ घनघोर युद्ध प्रारम्भ हो गया।
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गुह बंदी बना लिये गये। कौतुकी भगवान् श्री राम ज्यों ही युद्ध देखने की इच्छा से गुहराज के सामने पड़े, गुह ने दण्डवत प्रणाम कर हाथ जोड़ प्रणाम् किया। 
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प्रभु के पूछने पर उसने बताया, प्रभो ! मेरे पूर्वजन्म की कथा आप सुनें.. मैं पूर्व जन्म में महर्षि वसिष्ट का पुत्र वामदेव था।
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एक बार राजा दशरथ अन्धक मुनि के पुत्र की हत्या का प्रायश्चित्त पूछने हमारे आश्रम मे पिता वसिष्ठ के पास आये, पर उस समय मेरे पिताजी आश्रम में नहीं थे। 
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तब महाराज दशरथ ने बड़े ही कातर स्वर में हत्या का प्रायश्चित्त बताने के लिये मुझसे प्रार्थना की। 
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उस समय मैंने राम नाम के प्रताप को समझते हुए तीन बार ‘राम राम राम’ इस प्रकार जपने से हत्या का प्रायश्चित्त हो जायगा परामर्श राजा को बतलाया था। 
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तब प्रसन्न होकर राजा वापस चले गये।
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पिताजी के आश्रम में आने पर मैने सारी घटना उन्हें बतला दी। मैंने सोचा था कि आज पिताजी बड़े प्रसन्न होंगे, किंतु परिणाम बिलकुल ही विपरीत हुआ। 
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पिताजी क्रुद्ध होते हुए बोले, वत्स ! तुमने यह क्या किया, लगता है तुम श्री राम नाम की महिमा को ठीक से जानते नहीं हो..
 
यदि जानते होते तो ऐसा नहीं कहते, क्योकि 'राम' इस नाम का केवल एक बार नाम लेनेमात्र से कोई पातक उप-पातकों तथा ब्रह्महत्यादि महापातको से भी मुक्ति हो जाती है.. 
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फिर तीन बार राम नाम जपने का तुमने राजा को उपदेश क्यों दिया ?
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जाओ, तुम नीच योनि में जन्म ग्रहण करोगे और जब राजा दशरथ के घर मे साक्षात् नारायण श्री राम अवतीर्ण होंगे तब उन के दर्शन से तुम्हारी मुक्ति होगी।
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प्रभो ! आज मैं, करुणासागर पतितपावन आपका दर्शन पाकर कृतार्थ हुआ। इतना कहकर गुहरांज प्रेम विह्नल हो रोने लगा। 
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तब दया के सागर श्रीराम ने उसे बन्धन मुक्त किया और अग्नि को साक्षी मानकर उससे मैत्री कर ली। 
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भगवान् के मात्र एक नाम का प्रताप कितना है यह इस प्रसंग से ज्ञात होता है।
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वैशाखमास महात्म्य (तृतीय अध्याय)

वैशाखमास महात्म्य (तृतीय अध्याय) 
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इस अध्याय में:- वैशाख मास में छत्रदान से हेमकान्त का उद्धार का वर्णन किया गया है।

नारदजी कहते हैं👉 एक समय विदेहराज जनक के घर दोपहर के समय श्रुतदेव नाम से विख्यात एक श्रेष्ठ मुनि पधारे, जो वेदों के ज्ञाता थे उन्हें देख कर राजा बड़े उल्लास के साथ उठ कर खड़े हो गये और मधुपर्क आदि सामग्रियों से उनकी विधि पूर्वक पूजा करके राजा ने उनके चरणोदक को अपने मस्तक पर धारण किया। इस प्रकार स्वागत सत्कार के पश्चात् जब वे आसन पर विराजमान हुए, तब विदेहराज के प्रश्न के अनुसार वैशाख मास के माहात्म्य का वर्णन करते हुए वे इस प्रकार बोले।
         
श्रुतदेव ने कहा 👉 राजन्! जो लोग वैशाख मास में धूप से सन्तप्त होने वाले महात्मा पुरुषों के ऊपर छाता लगाते हैं, उन्हें अनन्त पुण्य की प्राप्ति होती है। इस विषय में एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। पहले वंगदेश में हेमकान्त नाम से विख्यात एक राजा हो गये हैं। वे कुशकेतु के पुत्र परम बुद्धिमान् और शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ थे। एक दिन वे शिकार खेलने में आसक्त होकर एक गहन वन में जा घुसे वहाँ अनेक प्रकार के मृग और वराह आदि जन्तुओं को मारकर जब वे बहुत थक गये, तब दोपहर के समय मुनियों के आश्रम पर आये। उस समय आश्रम पर उत्तम व्रत का पालन करने वाले शर्तरचि नाम वाले ऋषि समाधि लगाये बैठे थे, जिन्हें बाहर के कार्यो का कुछ भी भान नहीं होता था। उन्हें निश्चल बैठे देख राजा को बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने उन महात्माओं को मार डालने का निश्चय किया। तब उन ऋषियों के दस हजार शिष्यों ने राजा को मना करते हुए कहा- ओ खोटी बुद्धि वाले नरेश! हमारे गुरु लोग इस समय समाधि में स्थित हैं, बाहर कहाँ क्या हो रहा है-इसको ये नहीं जानते। इसलिये इन पर तुम्हें क्रोध नहीं करना चाहिये।'
         
तब राजा ने क्रोध से विह्वल होकर शिष्यों से कहा-द्विजकुमारो! मैं मार्ग से थका-माँदा यहाँ आया हूँ। अत: तुम्हीं लोग मेरा आतिथ्य करो। राजा के ऐसा कहने पर वे शिष्य बोले-'हम लोग भिक्षा माँग कर खाने वाले हैं। गुरुजनों ने हमें किसी के आतिथ्य के लिये आज्ञा नहीं दी है। हम सर्वथा गुरु के अधीन हैं। अत: तुम्हारा आतिथ्य कैसे कर सकते हैं।' शिष्यों का यह कोरा उत्तर पाकर राजा ने उन्हें मारने के लिये धनुष उठाया और इस प्रकार कहा-'मैंने हिंसक जीवों और लुटेरों के भय आदि से जिनकी अनेकों बार रक्षा की है, जो मेरे दिये हुए दानों पर ही पलते हैं, वे आज मुझे ही सिखलाने चले हैं। ये मुझे नहीं जानते, ये सभी कृतघ्न और बड़े अभिमानी हैं इन आततायियों को मार डालने पर भी मुझे कोई दोष नहीं लगेगा।' ऐसा कह कर वे कुपित हो धनुष से बाण छोड़ने लगे बेचारे शिष्य आश्रम छोड़कर भय से भाग चले। भागने पर भी हेमकान्त ने उनका पीछा किया और तीन सौ शिष्यों को मार गिराया। शिष्यों के भाग जाने पर आश्रम में जो कुछ सामग्री थी उसे राजा के पापात्मा सैनिकों ने लूट लिया। राजा के अनुमोदन से ही उन्होंने वहाँ इच्छानुसार भोजन किया। तत्पश्चात् दिन बीतते-बीतते राजा सेना के साथ अपनी पुरी में आ गये राजा कुशकेतु ने जब अपने पुत्र का यह अन्यायपूर्ण कार्य सुना, तब उसे राज्य करने के अयोग्य जानकर उसकी निन्दा करते हुए उसे देश निकाला दे दिया। पिता के त्याग देने पर हेमकान्त घने वन में चला गया। वहाँ उसने बहुत वर्षो तक निवास किया। ब्रह्महत्या उसका सदा पीछा करती रहती थी, इसलिये वह कहीं भी स्थिरता पूर्वक रह नहीं पाता था । इस प्रकार उस दुष्टात्मा के अट्ठाईस वर्ष व्यतीत हो गये। एक दिन वैशाख मास में जब दोपहर का समय हो रहा था, महामुनि त्रित तीर्थ यात्रा के प्रसंग से उस वन में आये। वे धूप से अत्यन्त संतप्त और तृषा से बहुत पीड़ित थे, इसलिये किसी वृक्षहीन प्रदेश में मूर्छित होकर गिर पड़े। दैवयोग से हेमकान्त उधर आ निकला; उसने मुनि को प्यास से पीड़ित, मूर्छित और थका-माँदा देख उन पर बड़ी दया की। उसने पलाश के पत्तों से छत्र बनाकर उनके ऊपर आती हुई धूप का निवारण किया। वह स्वयं मुनिके मस्तक पर छाता लगाये खड़ा हुआ और तूँबी में रखा हुआ जल उनके मुँह में डाला। इस उपचार से मुनि को चेत हो आया और उन्होंने क्षत्रिय को दिये हुए पत्ते के छातेको लेकर अपनी व्याकुलता दूर की। उनकी इन्द्रियों में कुछ शक्ति आयी और वे धीरे-धीरे किसी गाँव में पहुँच गये। उस पुण्य के प्रभाव से हेमकान्त की तीन सौ ब्रह्महत्याएँ नष्ट हो गयीं। इसी समय यमराज के दूत हेमकान्त को लेने के लिये वन में आये। उन्होंने उसके प्राण लेने के लिये संग्रहणी रोग पैदा किया। उस समय प्राण छूटने की पीड़ा से छटपटाते हुए हेमकान्त ने तीन अत्यन्त भयंकर यमदूतों को देखा, जिनके बाल ऊपर की ओर उठे हुए थे। उस समय अपने कर्मों को याद करके वह चुप हो गया। छत्र-दान के प्रभाव से उसको भगवान् विष्णु का स्मरण हुआ। उसके स्मरण करने पर भगवान् महाविष्णु ने विष्वक्सेन से कहा-'तुम शीघ्र जाओ, यमदूतों को रोको, हेमकान्त की रक्षा करो। अब वह निष्पाप एवं मेरा भक्त हो गया है। उसे नगर में ले जाकर उसके पिता को सौंप दो। साथ ही मेरे कहने से कुशकेतु को यह समझाओ कि तुम्हारे पुत्र ने अपराधी होने पर भी वैशाख मास में छत्र-दान करके एक मुनि की रक्षा की है। अत: वह पापरहित हो गया है। इस पुण्य के प्रभाव से वह मन और इन्द्रियों को अपने वश में रखने वाला दीर्घायु, शूरता और उदारता आदि गुणों से युक्त तथा तुम्हारे समान गुणवान् हो गया है। इसलिये अपने इस महाबली पुत्र को तुम राज्य का भार सँभालने के लिये नियुक्त करो। भगवान् विष्णु ने तुम्हें ऐसी ही आज्ञा दी है। इस प्रकार राजा को आदेश देकर हेमकान्त को उनके अधीन करके यहाँ लौट आओ।'
         
भगवान् विष्णु का यह आदेश पाकर महाबली विष्वक्सेन ने हेमकान्त के पास आकर यमदूतों को रोका और अपने कल्याणमय हाथों से उसके सब अंगों में स्पर्श किया। भगवद्भक्त के स्पर्श से हेमकान्त की सारी व्याधि क्षण भर में दूर हो गयी। तदनन्तर विष्पकसेन उसके साथ राजा की पुरी में गये। उन्हें देखकर महाराज कुशकेतु ने आश्चर्ययुक्त हो भक्तिपूर्वक मस्तक झुका कर पृथ्वी पर साष्टांगकर घ रमें प्रवेश कराया वहाँ नाना प्रकार के स्तोत्रों से इनकी स्तुति तथा वैभवों से उनका पूजन किया। तत्पश्चात् महाबली विष्वक्सेन ने अत्यन्त प्रसन्न होकर राजा को हेमकान्त के विषय में भगवान् विष्णु ने जो सन्देश दिया था, वह सब कह सुनाया। उसे सुनकर कुशकेतु ने पुत्र को राज्य पर बिठा दिया और स्वयं विष्वक्सेन की आज्ञा लेकर उन्होंने पत्नी सहित वन को प्रस्थान किया।
         
तदनन्तर महामना विष्वक्सेन हेमकान्त से पूछकर और उसकी प्रशंसा करके श्वेतद्वीप में भगवान् विष्णु के समीप चले गये तब से राजा हेमकान्त वैशाख मास में बताये हुए भगवान् की प्रसन्नता को बढ़ाने वाले शुभ धर्मो का प्रतिवर्ष पालन करने लगे। वे ब्राह्मणभक्त, धर्मनिष्ठ, शान्त, जितेन्द्रिय, सब प्राणियों के प्रति दयालु और सम्पूर्ण यज्ञों की दीक्षा में स्थित रहकर सब प्रकार की सम्पदाओं से सम्पन्न हो गये। उन्होंने पुत्र-पौत्र आदि के साथ समस्त भोगों का उपभोग करके भगवान् विष्णु का लोक प्राप्त किया। वैशाख सुख से साध्य, अतिशय पुण्य प्रदान करने वाला है। पापरूपी इन्धन को अग्नि की भाँति जलाने वाला, परम सुलभ तथा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष–चारों पुरुषार्थों को देने वाला है।
  
"जय जय श्री हरि"
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वैशाखमास-महात्म्य (द्वितीय अध्याय)

वैशाखमास-महात्म्य (द्वितीय अध्याय)
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इस अध्याय में:👉 वैशाख मास में विविध वस्तुओं के दान का महत्त्व तथा वैशाख स्नान के नियम का वर्णन किया गया है।

नारदजी कहते हैं👉 वैशाख मास में धूप से तपेऔर थके-माँदे ब्राह्मणों को श्रमनाशक सुखद पलंग देकर मनुष्य कभी जन्म-मृत्यु आदि के क्लेशों से कष्ट नहीं पाता। जो वैशाख मास में पहनने के लिये कपड़े और विछावन देता है, वह उसी जन्म में सब भोगों से सम्पन्न हो जाता है और समस्त पापों से रहित हो ब्रह्मनिर्वाण (मोक्ष) को प्राप्त होता है। जो तिनके की बनी  या अन्य खजूर आदि के पत्तों की बनी हुई चटाई दान करता है, उसकी उस चटाई परसाक्षात् भगवान् विष्णु शयन करते हैं। चटाई देने वाला बैठने और बिछाने आदि में सब ओर से सुखी रहता है। जो सोने के लिये चटाई और कम्बल देता है, वह उतने ही मात्र से मुक्त हो जाता है। निद्रा से दुःख का नाश होता है, निद्रा से थकावट दूर होती है और वह निद्रा चटाई पर सोने वाले को सुखपूर्वक आ जाती है। धूप से कष्ट पाये हरा श्रेष्ठ ब्राह्मण को जो सूक्ष्मतर वस्त्र दान करता है, वह पूर्ण आयु और परलोक में उत्तम गति को पाता है जो पुरुष ब्राह्मण को फूल और रोली देता है, वह लौकिक भोगों का भोग करके मोक्ष को प्राप्त होता है। जो खस, कुश और जल से वासित चन्दन देता है, वह सब भोगों में देवताओं की सहायता पाता है तथा उसके पाप और दु:ख की हानि होकर परमानन्द की प्राप्ति होती है। वैशाख के धर्म को जानने वाला जो पुरुष गोरोचन और कस्तूरी का दान करता है, वह तीनों तापों से मुक्त होकर परम शान्ति को प्राप्त होता है। जो विश्रामशाला बनवाकर प्याऊ सहित ब्राह्मण को दान करता है, वह लोकों का अधिपति होता है। जो सड़क के किनारे बगीचा, पोखरा, कुआँ और मण्डप बनवाता है, वह धर्मात्मा है, उसे पुत्रों की क्या आवश्यकता है। उत्तम शास्त्र का श्रवण, तीर्थयात्रा, सत्संग, जलदान, अन्नदान, पीपल का वृक्ष लगाना तथा पुत्र- इन सात को विज्ञ पुरुष सन्तान मानते हैं। जो वैशाख मास में तापनाशक तक्र दान करता है, वह इस पृथ्वी पर विद्वान् और धनवान् होता है। धूप के समय मट्टठे के समान कोई दान नहीं, इसलिये रास्ते के थके-माँदे ब्राह्मण को मट्टा देना चाहिये। जो वैशाख मास में धूप की शान्ति के लिये दही और खाँड़ दान करता है तथा विष्णुप्रिय वैशाख मास में जो स्वच्छ चावल देता है, वह पूर्ण आयु और सम्पूर्ण यज्ञों का फल पाता है। जो पुरुष ब्राह्मण के लिये गोघृत अर्पण करता है, वह अश्वमेध यज्ञ का फल पाकर विष्णुलोक में आनन्द का अनुभव करता है। जो दिन के ताप की शान्ति के लिये सायंकाल में ब्राह्मण को ऊख दान करता है, उसको अक्षय पुण्य प्राप्त होता है। जो वैशाख मास में शाम को ब्राह्मण के लिये फल और शर्बत देता है, उससे उसके पितरों को निश्चय ही अमृतपान का अवसर मिलता है। जो वैशाख के महीने में पके हुए आम के फल के साथ शर्बत देता है, उसके सारे पाप निश्चय ही नष्ट हो जाते हैं। जो वैशाख की अमावास्या को पितरों के उद्देश्य से कस्तूरी, कपूर, बेला और खस की सुगन्ध से वासित शर्बत से भरा हुआ घड़ा दान करता है, वह छियानबे घड़ा दान करने का पुण्य पाता है।
         
वैशाख में तेल लगाना, दिन में सोना, कांस्य के पात्र में भोजन करना, खाट पर सोना, घर में नहाना, निषिद्ध पदार्थ खाना, दुबारा भोजन करना तथा रात में खाना-ये आठ बातें त्याग देनी चाहिये।
         
जो वैशाख में व्रत का पालन करने वाला पुरुष पद्म-पत्ते में भोजन करता है, वह सब पापो से मुक्त हो विष्णुलोक में जाता है। जो विष्णुभक्त पुरुष वैशाख मास में नदी-स्नान करता है, वह तीन जन्मों के पाप से निश्चय ही मुक्त हो जाता है। जो प्रात:काल सूर्योदय के समय किसी समुद्रगामिनी नदी में स्नान करता है, वह सात जन्मों के पाप से तत्काल छूट जाता है। जो मनुष्य सात गंगाओं में से किसी में ऊष:काल में स्नान करता है, वह करोड़ों जन्मों में उपार्जित किये हुए पाप से निस्सन्देह मुक्त हो जाता है । जाहनवी (गंगा), वृद्ध गंगा (गोदावरी), कालिन्दी (यमुना), सरस्वती, कावेरी, नर्मदा और वेणी- ये सात गंगाएँ कही गयी हैं। वैशाख मास आने पर जो प्रात:काल बावलियो में स्नान करता है, उसके महापातकों का नाश हो जाता है। कन्द, मूल, फल, शाक, नमक, गुड़, बेर, पत्र, जल और तक्र - जो भी वैशाख में दिया जाय, वह सब अक्षय होता है।
        
ब्रह्मा आदि देवता भी बिना दिये हुए कोई वस्तु नहीं पाते। जो दान से हीन है, वह निर्धन होता है। अतः सुख की इच्छा रखने वाले पुरुष को वैशाख मास में अवश्य दान करना चाहिये। सूर्य देव के मेष राशि में स्थित होने पर भगवान् विष्णु के उद्देश्य से अवश्य प्रात:काल स्नान करके भगवान् विष्णु की पूजा करनी चाहिये। कोई महीरथ नामक एक राजा था, जो कामनाओं में आसक्त और अजितेन्द्रिय था । वह केवल वैशाख-स्नान के सुयोग से स्वतः वैकुण्ठधाम को चला गया। वैशाख मास के देवता भगवान् मधुसूदन हैं। अतएव वह सफल मास है। वैशाख मास में भगवान् की प्रार्थना का मन्त्र इस प्रकार है।

मधुसूदन    देवेश    वैशाखे    मेषगे    रवौ।
प्रात:स्नानं करिष्यामि निर्विघ्नं कुरु माधव॥

अर्थात👉 'हे मधुसूदन! हे देवेश्वर माधव! मैं मेष राशि में सूर्य के स्थित होने पर वैशाख मास में प्रात: स्नान करूँगा, आप इसे निर्विघ्न पूर्ण कीजिये।
         
तत्पश्चात् निम्नांकित मन्त्र से अर्ध्य प्रदान करे.

वैशाखे मेषगे भानौ प्रात:स्नानपरायणः।
अर्ध्य तेऽहं प्रदास्यामि गृहाण मधुसूदन॥

अर्थात👉 'सूर्य के मेष राशि पर स्थित रहते हुए वैशाख-मास में प्रात:स्नान के नियम में संलग्न होकर मैं आपको अर्ध्य देता हूँ। मधुसूदन! इसे ग्रहण कीजिये।'
         
इस प्रकार अर्ध्य समर्पण करके स्नान करे। फिर वस्त्रों को पहनकर सन्ध्या-तर्पण आदि सब कर्मो को पूरा करके वैशाख मास में विकसित होने वाले पुष्पों से भगवान् विष्णु की पूजा करे। उसके बाद वैशाख मास के माहात्म्य को सूचित करने वाली भगवान् विष्णु की कथा सुने ऐसा करने से कोटि जन्मों के पापों से मुक्त होकर मनुष्य मोक्ष को प्राप्त होता है । यह शरीर अपने अधीन है, जल भी अपने अधीन ही है, साथ ही अपनी जिह्वा भी अपने वश में है। अत: इस स्वाधीन शरीर से स्वाधीन जल में स्नान करके स्वाधीन जिह्वा से 'हरि' इन दो अक्षरोंका उच्चारण करे। जो वैशाख मास में तुलसी दल से भगवान् विष्णु की पूजा करता है, वह विष्णु की सायुज्य मुक्ति को पता है। अत: अनेक प्रकार के भक्ति मार्ग से तथा भाँति भाँति के व्रतों द्वारा भगवान् विष्णु की सेवा तथा उनके सगुण या निर्गुण स्वरूप का अनन्य चित्त से ध्यान करना चाहिये।

"जय जय श्री हरि"
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इस वजह से भगवान गणेश बने थे स्त्री, जानिए पौराणिक कथा

इस वजह से भगवान गणेश बने थे स्त्री, जानिए पौराणिक कथा
  

हम सभी इस बात से वाकिफ हैं कि कभी भी कोई भी शुभ कार्य करने से पहले भगवान गणेश की पूजा करते हैं. ऐसे में भक्त इन्हें लंबोदर के स्वरूप में जानते हैं लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि भगवान गणेश के स्त्री अवतार की भी पूजा होती है जिसे विनायकी कहा जाता है. आज हम आपको बताने जा रहे हैं कि आखिर क्यों लिया था गणेश जी ने विनायकी अवतार.

मां पार्वती को बचाने गणेश ने लिया था स्त्री रूप – कहा जाता है धर्मोत्तर पुराण में विनायकी के इस रूप का उल्लेख किया गया है. इसी के साथ वन दुर्गा उपनिषद में भी गणेश जी के स्त्री रूप का उल्लेख है, जिसे गणेश्वरी का नाम दिया गया है. केवल इतना ही नहीं, मत्स्य पुराण में भी गणेश जी के इसी स्त्री रूप का वर्णन प्राप्त होता है. आइए बताते हैं उस कथा के बारे में. पुराणों की कथा के अनुसार एक बार अंधक नामक दैत्य माता पार्वती को अपनी अर्धांगिनी बनाने के लिए इच्छुक हुआ. अपनी इस इच्छा को पूर्ण करने के लिए उसने जबर्दस्ती माता पार्वती को अपनी पत्नी बनाने की कोशिश की, लेकिन मां पार्वती ने मदद के लिए अपने पति शिव जी को बुलाया. अपनी पत्नी को दैत्य से बचाने के लिए भगवान शिव ने अपना त्रिशूल उठाया और राक्षस के आरपार कर दिया. लेकिन वह राक्षस म’रा नहीं, बल्कि जैसे ही उसे त्रिशूल लगा तो उसके र’क्त की एक-एक बूंद एक राक्षसी ‘अंधका’ में बदलती चली गई.

राक्षसी को हमेशा के लिए मारने के लिए उसके खू’न की बूंद को जमीन पर गिरने से रोकना था, जो संभव नहीं था. ऐसे में माता पार्वती को एक बात समझ में आई. वे जानती थीं कि हर एक दैवीय शक्ति के दो तत्व होते हैं. पहला पुरुष तत्व जो उसे मानसिक रूप से सक्षम बनाता है और दूसरा स्त्री तत्व, जो उसे शक्ति प्रदान करता है. इसलिए पार्वती जी ने उन सभी देवियों को आमंत्रित किया जो शक्ति का ही रूप हैं. ऐसा करते हुए वहां हर दैवीय ताकत के स्त्री रूप आ गए, जिन्होंने राक्षस के खून को गिरने से पहले ही अपने भीतर समा लिया.

फलस्वरूप अंधका का उत्पन्न होना कम हो गया. लेकिन, इस सबसे से भी अंधक के रक्त को खत्म करना संभव नहीं हो रहा था. अंत में भगवान गणेश जी अपने स्त्री रूप ‘विनायकी’ में प्रकट हुए और उन्होंने अंधक का सारा रक्त’ पी लिया. इस प्रकार से देवताओं के लिए अंधका का सर्वना’श करना संभव हो सका. गणेश जी के विनायकी रूप को सबसे पहले 16वीं सदी में पहचाना गया.

!! जय श्री राम !!
 मात पिता के चरण में,जग के चारों धाम।
श्रीगणेश हैं कह गये, भजो इन्हीं का नाम।।
!! जय श्री राम  !!

शकुन शास्त्र के 12 सूत्र

शकुन शास्त्र के 12 सूत्र 
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घर में हर छोटी वस्तु का अपना महत्व होता है। कभी-कभी बेकार समझी जाने वाली वस्तु भी घर में अपनी उपयोगिता सिद्ध कर देती है। गृहस्थी में रोजाना काम में आने वाली चीजों से भी शकुन-अपशकुन जुड़े होते हैं, जो जीवन में कई महत्वपूर्ण मोड़ लाते हैं। शकुन शुभ फल देते हैं, वहीं अपशकुन इंसान को आने वाले संकटों से सावधान करते हैं। हम आपको घर से जुड़ी वस्तुओं के शकुनों के बारे में बता रहे हैं।

1-दूध का शकुन
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सुबह-सुबह दूध को देखना शुभ कहा जाता है। दूध का उबलकर गिरना शुभ माना जाता है। इससे घर में सुख-शांति, संपत्ति, मान व वैभव की उन्नति होती है। दूध का बिखर जाना अपशकुन मानते हैं, जो किसी दुर्घटना का संकेत है। दूध को जान-बूझकर छलकाना अपशकुन माना जाता है , जो घर में कलह का कारण है।
2-दर्पण का शकुन
हर घर में दर्पण का बहुत महत्व है। दर्पण से जुड़े कई शकुन-अपशकुन मनुष्य जीवन को कहीं न कहीं प्रभावित अवश्य करते हैं। दर्पण का हाथ से छूटकर टूट जाना अशुभ माना जाता है। एक वर्ष तक के बच्चे को दर्पण दिखाना अशुभ होता है। यदि कोई नव विवाहिता अपनी शादी का जोड़ा पहन कर श्रृंगार सहित खुद को टूटे दर्पण में देखती है तो भी अपशकुन होता है। तात्पर्य यह है कि दर्पण का टूटना हर दृष्टिकोण से अशुभ ही होता है। इसके लिए यदि दर्पण टूट जाए तो इसके टूटे हुए टुकड़ों को इकटठा करके बहते जल में डाल देने से संकट टल जाते हैं।

3-पैसे का शकुन
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आज के इस युग में पैसे को भगवान माना जाता है। जेब को खाली रखना अपशकुन मानते हैं। कहा जाता है कि पैसे को अपने कपड़ों की हर जेब में रखना चाहिए। कभी भी पर्स खाली नहीं रखना चाहिए।

4-चाकू का शकुन
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चाकू एक ऐसी वस्तु है, जिसके बिना किसी भी घर में काम नहीं चल सकता। इसकी जरूरत हर छोटे-छोटे कार्य में पड़ती है। इससे जुड़े भी अनेक शकुन-अपशकुन होते हैं। डाइनिंग टेबल पर छुरी-कांटे का क्रास करके रखना अशुभ मानते हैं, इसके कारण घर के सदस्यों में झगड़ा हो जाता है। मेज से चाकू का नीचे गिरना भी अशुभ होता है। नवजात शिशु के तकिए के नीचे चाकू रखना शुभ होता है तथा छोटे बच्चे के गले में छोटा सा चाकू डालना भी अच्छा होता है। इससे बच्चों की बुरी आत्माओं से रक्षा होती है व नींद में बच्चे रोते भी नहीं हैं। यदि कोई व्यक्ति आपको चाकू भेंट करे तो इसके बुरे प्रभाव से बचने के लिए एक सिक्का अवश्य दें।

5-झाडू का शकुन
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घर के एक कोने में पड़े हुए झाडू को घर की लक्ष्मी मानते हैं, क्योंकि यह दरिद्रता को घर से बाहर निकालता है। इससे भी कई शकुन व अपशकुन जुड़े हैं। दीपावली के त्यौहार पर नया झाडू घर में लाना लक्ष्मी जी के आगमन का शुभ शकुन है। नए घर में गृह प्रवेश से पूर्व नए झाडू का घर में लाना शुभ होता है। झाडू के ऊपर पांव रखना गलत समझा जाता है। यह माना जाता है कि व्यक्ति घर आई लक्ष्मी को ठुकरा रहा है। कोई छोटा बच्चा अचानक घर में झाडू लगाने लगे तो समझ लीजिए कि घर में कोई अवांछित मेहमान के आने का संकेत है। सूर्यास्त के बाद घर में झाडू लगाना अपशकुन होता है, क्योंकि यह व्यक्ति के दुर्भाग्य को निमंत्रण देता है।

6-बाल्टी का शकुन
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सुबह के समय यदि पानी या दूध से भरी बाल्टी दिखाई दे तो शुभ होता है। इससे मन में सोचे कार्य पूरे होते हैं। खाली बाल्टी देखना अपशकुन समझा जाता है, जो बने-बनाए कार्यों को बिगाड़ देता है। रात को खाली बाल्टी को प्रायः उल्टा करके रखना चाहिए एवं घर में एक बाल्टी को अवश्य भरकर रखें, ताकि सुबह उठकर घर के सदस्य उसे देख सकें।

7-लोहे का शकुन
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घर में लोहे का होना शुभ कहा जाता है। लोहे में एक शक्ति होती है, जो बुरी आत्माओं को घर से भगा देती है। पुराने व जंग लगे लोहे को घर में रखना अशुभ है। घर में लोहे का सामान साफ करके रखें।

8-हेयरपिन का शकुन
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हेयरपिन एक बहुत ही मामूली सी चीज है, परंतु इसका प्रभाव बड़ा आश्चर्यजनक होता है। यदि किसी व्यक्ति को राह में कोई हेयरपिन पड़ा मिल जाये तो समझो कि उसे कोई नया मित्र मिलने वाला है। वहीं यदि हेयर पिन खो जाये तो व्यक्ति के नए दुश्मन पैदा होने वाले हैं। हेयरपिन को घर में कहीं लटका दिया जाए तो यह अच्छे भाग्य का प्रतीक है।

9-काले वस्त्र का शकुन
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काले वस्त्र बहुत अशुभ माने जाते हैं। किसी व्यक्ति के घर से बाहर जाते समय यदि कोई आदमी काले वस्त्र पहने हुए दिखाई दे तो अपशकुन माना जाता है, जिसके बुरे प्रभाव से जाने वाले व्यक्ति की दुर्घटना हो सकती है। अतः ऐसे व्यक्ति को अपना जाना कुछ मिनट के लिए स्थगित कर देना चाहिए।

10-रुई का शकुन
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रूई का कोई टुकड़ा किसी व्यक्ति के कपड़ों पर चिपका मिले तो यह शुभ शकुन है। यह किसी शुभ समाचार आने का संकेत है या किसी प्रिय व्यक्ति के आने का संकेत है। कहा जाता है कि रूई का यह टुकड़ा व्यक्ति को किसी एक अक्षर के रूप में नजर आता है व यह अक्षर उस व्यक्ति के नाम का प्रथम अक्षर होता है, जहां से उस व्यक्ति के लिए शुभ संदेश या पत्र आ रहा है।

11-चाबियों का शकुन
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चाबियों का गुच्छा गृहिणी की संपूर्णता का प्रतीक है। यदि गृहिणी के पास चाबियों का कोई ऐसा गुच्छा है, जिस पर बार-बार साफ करने के बाद भी जंग चढ़ जाए तो यह एक अच्छा शकुन है। इसके फलस्वरूप घर का कोई रिश्तेदार अपनी जायदाद में से आपको कुछ देना चाहता है या आपके नाम से कुछ धन छोड़कर जाना चाहता है। चाबियों को बच्चे के तकिए के नीचे रखना भी अच्छा होता है, इससे बुरे स्वप्नों एवंबुंरी आत्माओं से बच्चे का बचाव होता है।

12-बटन का शकुन
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कभी-कभी कमीज़, कोट या अन्य कोई कपड़े का बटन गलत लग जाए तो अपशकुन होता है, जिसके अनुसार सीधे काम भी उल्टे पड़ जाएंगे। इसके दुष्प्रभाव से बचने के लिए कपड़े को उतारकर सही बटन लगाने के बाद पहनें। यदि रास्ते चलते आपको कोई बटन पड़ा मिल जाए तो यह आपको किसी नए मित्र से मिलवाएगा।
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वैशाखमास–माहात्म्य अध्याय–01

.                      वैशाखमास–माहात्म्य

                             अध्याय–01

         इस अध्याय में:- वैशाख मास की श्रेष्ठता; उसमें जल, व्यजन, छत्र, पादुका और अन्न आदि दानों की महिमा

               नारायणं  नमस्कृत्य  नरं चैव  नरोत्तमम्।
               देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्॥

          'भगवान् नारायण, नरश्रेष्ठ नर, देवी सरस्वती तथा महर्षि वेदव्यास को नमस्कार करके भगवान् की विजय-कथा से परिपूर्ण इतिहास-पुराण आदि का पाठ करना चाहिये।
          सूतजी कहते हैं–“राजा अम्बरीष ने परमेष्ठी ब्रह्मा के पुत्र देवर्षि नारद से पुण्यमय वैशाख मास का माहात्म्य इस प्रकार पूछा–‘ब्रह्मन्! मैंने आपसे सभी महीनों का माहात्म्य सुना। उस समय आपने यह कहा था कि सब महीनों में वैशाख मास श्रेष्ठ है। इसलिये यह बताने की कृपा करें कि वैशाख-मास क्यों भगवान् विष्णु को प्रिय है और उस समय कौन-कौन-से धर्म भगवान् विष्णु के लिये प्रीतिकारक हैं ?’ ‘ 
          नारदजी ने कहा–‘वैशाख मास को ब्रह्माजी ने सब मासों में उत्तम सिद्ध किया है वह माता की भाँति सब जीवों को सदा अभीष्ट वस्तु प्रदान करने वाला है। धर्म, यज्ञ, क्रिया और तपस्या का सार है। सम्पूर्ण देवताओं द्वारा पूजित है। 
          जैसे विद्याओं में वेद-विद्या, मन्त्रों में प्रणव, वृक्षों में कल्पवृक्ष, धेनुओं में कामधेनु, देवताओं में विष्णु, वर्णों में ब्राह्मण, प्रिय वस्तुओं में प्राण, नदियों में गंगाजी, तेजों में सूर्य, अस्त्र शम्तरों में चक्र, धातुओं में सुवर्ण, वैष्णवों में शिव तथा रत्नों में कौस्तुभमणि है, उसी प्रकार धमक साधन भूत महीनों में वैशाख मास सबसे उत्तम है। संसार में इसके समान भगवान् विष्णु को प्रसन्न करने वाला दूसरा कोई मास नहीं है। 
          जो वैशाख मास में सूर्योदय से पहले स्नान करता है, उससे भगवान् विष्णु निरन्तर प्रीति करते हैं । पाप तभी तक गर्जते हैं, जब तक जीव वैशाख मास में प्रात:काल जल में स्नान नहीं करता। 
          राजन्! वैशाख के महीने में सब तीर्थ आदि देवता (तीर्थ के अतिरिक्त) बाहर के जल में भी सदैव स्थित रहते हैं। भगवान् विष्णु की आज्ञा से मनुष्यों का कल्याण करने के लिये वे सूर्योदय से लेकर छ: दण्ड के भीतर तक वहाँ मौजूद रहते हैं।
          वैशाख के समान कोई मास नहीं है, सत्ययुग के समान कोई युग नहीं है, वेद के समान कोई शास्त्र नहीं है और गंगाजी के समान कोई तीर्थ नहीं है। जल के समान दान नहीं है, खेती के समान धन नहीं है और जीवन से बढ़कर कोई लाभ नहीं है। उपवास के समान कोई तप नहीं, दान से बढ़कर कोई सुख नहीं, दया के समान धर्म नहीं, धर्म के समान मित्र नहीं, सत्य के समान यश नहीं, आरोग्य के समान उन्नति नहीं, भगवान् विष्णु से बढ़कर कोई रक्षक नहीं और वैशाख मास के समान संसार में कोई पवित्र मास नहीं है। ऐसा विद्वान् पुरुषों का मत है। ‘
         वैशाख श्रेष्ठ मास है। और शेषशायी भगवान् विष्णु को सदा प्रिय है। सब दानों से जो पुण्य होता है और सब तीर्थो में जो फल होता है, उसी को वैशाख मास में मनुष्य केवल जलदान करके प्राप्त कर लेता है। जो जलदान में असमर्थ है, ऐसे ऐश्वर्य की अभिलाषा रखने वाले पुरुष को उचित है कि वह दूसरे को प्रबोध करे, दूसरे को जलदान का महत्त्व समझावे। यह सब दानों से बढ़कर हितकारी है। 
         जो मनुष्य वैशाख में सड़क पर यात्रियों के लिये प्याऊ लगाता है, वह विष्णुलोक में प्रतिष्ठित होता है। नृपश्रेष्ठ ! प्रपादान (पौंसला या प्याऊ) देवताओं, पितरों तथा ऋषियों को अत्यन्त प्रीति देने वाला है। जिसने प्याऊ लगाकर रास्ते के थके-माँदै मनुष्यों को सन्तुष्ट किया है, उसने ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि देवताओं को सन्तुष्ट कर लिया है। 
         राजन् ! वैशाख मास में जल की इच्छा रखने वाले को जल, छाया चाहने वाले को छाता और पंखे की इच्छा रखने वाले को पंखा देना चाहिये। राजेन्द्र! जो प्यास से पीड़ित महात्मा पुरुष के लिये शीतल जल प्रदान करता है, वह उतने ही मात्र से दस हजार राजसूय यज्ञों का फल पाता है। 
         धूप और परिश्रम से पीड़ित ब्राह्मण को जो पंखा डुलाकर हवा करता है, वह उतने ही मात्र से निष्पाप होकर भगवान् का पार्षद हो जाता है। जो मार्ग से थके हुए श्रेष्ठ द्विज को वस्त्र से भी हवा करता है, वह उतने से ही मुक्त हो भगवान् विष्णु का सायुज्य प्राप्त कर लेता है। जो शुद्ध चित्त से ताड़ का पंखा देता है, वह सब पापों का नाश करके ब्रह्मलोक को जाता है। 
          जो विष्णुप्रिय वैशाख मास में पादुका दान करता है, वह यमदूतों का तिरस्कार करके विष्णुलोक में जाता है। जो मार्ग में अनाथों के ठहरने लिये विश्रामशाला बनवाता है, उसके पुण्य-फल का वर्णन किया नहीं जा सकता। 
         मध्याह्न में आये हुए ब्राह्मण अतिथि को यदि कोई भोजन दे, तो उसके फल का अन्त नहीं है। राजन्! अन्नदान मनुष्यों को तत्काल तृप्त करने वाला है, इसलिये संसार में अन्न के समान कोई दान नहीं है। जो मनुष्य मार्ग के थके हुए ब्राह्मण के लिये आश्रय देता है, उसके पुण्यफल का वर्णन किया नहीं जा सकता।
         भूपाल! जो अन्नदाता है, वह माता-पिता आदि का भी विस्मरण करा देता है। इसलिये तीनों लोकों के निवासी अन्नदान की ही प्रशंसा करते हैं। माता और पिता केवल जन्म के हेतु पर जो अन्न देकर पालन करता है, मनीषी पुरुष इस लोक में उसी को पिता कहते हैं।
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                       "जय जय श्री हरि

दिन के आठ प्रहर कौन से हैं?

दिन के आठ प्रहर कौन से हैं?
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हिन्दू धर्म में समय की धारणा बहुत ही वृहत्त तौर पे रही है। जो वर्तमान में सेकंड, मिनट, घंटे, दिन-रात, माह, वर्ष, दशक और शताब्दी तक सीमित हो गई है

लेकिन हिन्दू धर्म में एक अणु, तृसरेणु, त्रुटि, वेध, लावा, निमेष, क्षण, काष्‍ठा, लघु, दंड, मुहूर्त, प्रहर या याम, दिवस, पक्ष, माह, ऋतु, अयन, वर्ष (वर्ष के पांच भेद- संवत्सर, परिवत्सर, इद्वत्सर, अनुवत्सर, युगवत्सर), दिव्य वर्ष, युग, महायुग, मन्वंतर, कल्प,

अंत में दो कल्प मिलाकर ब्रह्मा का एक दिन और रात, तक की वृहत्तर समय पद्धति निर्धारित है।  

आठ प्रहर : हिन्दू धर्मानुसार दिन-रात मिलाकर 24 घंटे में आठ प्रहर होते हैं। औसतन एक प्रहर तीन घंटे या साढ़े सात घटी का होता है जिसमें दो मुहूर्त होते हैं।एक प्रहर एक घटी 24 मिनट की होती है।

दिन के चार और रात के चार मिलाकर कुल आठ प्रहर।  

दिन के चार प्रहर- 1.पूर्वान्ह, 2.मध्यान्ह, 3.अपरान्ह और 4.सायंकाल।  

रात के चार प्रहर- 5.प्रदोष, 6.निशिथ, 7.त्रियामा एवं 8.उषा।

आठ_प्रहर : एक प्रहर तीन घंटे का होता है। 

सूर्योदय के समय दिन का पहला प्रहर प्रारंभ होता है जिसे पूर्वान्ह कहा जाता है। दिन का दूसरा प्रहर जब सूरज सिर पर आ जाता है तब तक रहता है जिसे मध्याह्न कहते हैं।   इसके बाद अपरान्ह (दोपहर बाद) का समय शुरू होता है, जो लगभग 4 बजे तक चलता है।

4 बजे बाद दिन अस्त तक सायंकाल चलता है। 
फिर क्रमश: प्रदोष, निशिथ एवं उषा काल। सायंकाल के बाद ही प्रार्थना करना चाहिए।  अष्टयाम : वैष्णव मन्दिरों में आठ प्रहर की सेवा-पूजा का विधान 'अष्टयाम' कहा जाता है। 
वल्लभ सम्प्रदाय में मंगला, श्रृंगार, ग्वाल, राजभोग, उत्थापन, भोग, संध्या-आरती

तथा शयन के नाम से ये कीर्तन-सेवाएं हैं।  
इसी के आधार पर भारतीय शास्त्रीय संगीत में प्रत्येक राग के गाने का समय निश्चित है।प्रत्येक राग प्रहर अनुसार निर्मित है।  

प्रहार 1 👉 सुबह 6 बजे से 9 बजे तक  वैरव, बंगाल वैरव, रामकली, विभास, जोगई, तोरी, जयदेव, सुबह कीर्तन, प्रभात भैरव,गुंकाली और कलिंगरा,  

प्रहर 2 👉 सुबह 9 बजे से दोपहर 12 बजे तक: देव गांधार, भैरवी, मिश्र भैरवी, असावरी, जोनपुरी, दुर्गा, गांधारी, मिश्रा बिलावल, बिलावल, बृंदावानी सारंग, सामंत सारंग, कुरुभ, देवनागिरी  

प्रहर 3 👉 दोपहर 12 बजे से 3 बजे तक गोर सारंग, भीमपलासी, पीलू, मुल्तानी, धानी,त्रिवेणी, पलासी, हंसकनकिनी  

प्रहर 4 👉 दोपहर 3 से शाम 6 बजे बंगाल का पारंपरिक कीर्तन, धनसारी, मनोहर, रागश्री, पुरावी, मालश्री, मालवी, श्रीटंक और हंस नारायणी  

प्रहर 5 👉 शाम 6 बजे से रात 9 बजे तक  यमन, यमन कल्याण, हेम कल्याण, पूर्वी कल्याण, भूपाली, पुरिया, केदार, जलधर केदार, मारवा, छाया, खमाज, नारायणी, दुर्गा, तिलक कामोद, हिंडोल, मिश्रा खमाज नट, हमीर  

प्रहर 6 👉 रात्रि 9 से 12 बजे तक सोरत, बिहाग, दर्श, चंपक, मिश्र गारा, तिलंग, जय जवान्ति, बहार, काफी, अरना, मेघा, बागीशारी, रागेश्वरी, मल्हाल, मिया, मल्हार

प्रहर 7 👉 12 बजे से 3 बजे तक  मालगुंजी, दरबारी कनरा, बसंत बहार, दीपक, बसंत, गौरी, चित्रा गौरी, शिवरंजिनी, जैतश्री, धवलश्री, परज, माली गौरा, माड़, सोहनी, हंस रथ, हंस ध्वनि  

प्रहर 8 👉 सुबह 3 बजे से सुबह 6 बजे तक चंद्रकोस, मालकोस, गोपिका बसंत, पंचम, मेघ रंजिनी, भांकर, ललिता गौरी,ललिता, खाट, गुर्जरी तोरी, बाराती तोरी, भोपाल तोरी, प्रभाती कीर्तन
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असल में कामदेव हैं कौन? क्या वह एक काल्पनिक भाव है जो देव और ऋषियों को सताता रहता था या कि वह भी किसी देवता की तरह एक देवता थे?आजो जानते हैं कामदेव के बारे में रहस्य...

कामदेव के रहस्य
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हिन्दू धर्म में कामदेव, कामसूत्र, कामशास्त्र और चार पुरुषर्थों में से एक काम की बहुत चर्चा होती है। खजुराहो में कामसूत्र से संबंधित कई मूर्तियां हैं। अब सवाल यह उठता है कि क्या काम का अर्थ सेक्स ही होता है? नहीं, काम का अर्थ होता है कार्य, कामना और कामेच्छा से। वह सारे कार्य जिससे जीवन आनंददायक, सुखी, शुभ और सुंदर बनता है काम के अंतर्गत ही आते हैं। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष।

आपने कामदेव के बारे में सुना या पढ़ा होगा। पौराणिक काल की कई कहानियों में कामदेव का उल्लेख मिलता है। जितनी भी कहानियों में कामदेव के बारे में जहां कहीं भी उल्लेख हुआ है, उन्हें पढ़कर एक बात जो समझ में आती है वह यह कि कि कामदेव का संबंध प्रेम और कामेच्छा से है।

लेकिन असल में कामदेव हैं कौन? क्या वह एक काल्पनिक भाव है जो देव और ऋषियों को सताता रहता था या कि वह भी किसी देवता की तरह एक देवता थे?आजो जानते हैं कामदेव के बारे में रहस्य...

कामदेव का परिवार👉
〰️〰️〰️〰️〰️〰️पौराणिक कथाओं के अनुसार कामदेव भगवान विष्णु और देवी लक्ष्मी के पुत्र हैं। उनका विवाह रति नाम की देवी से हुआ था, जो प्रेम और आकर्षण की देवी मानी जाती है। कुछ कथाओं में यह भी उल्लिखित है कि कामदेव स्वयं ब्रह्माजी के पुत्र हैं और इनका संबंध भगवान शिव से भी है। कुछ जगह पर धर्म की पत्नी श्रद्धा से इनका आविर्भाव हुआ माना जाता है।

प्रेम के देवता👉
〰️〰️〰️〰️जिस तरह पश्चिमी देशों में क्यूपिड और यूनानी देशों में इरोस को प्रेम का प्रतीक माना जाता है, उसी तरह हिन्दू धर्मग्रंथों में कामदेव को प्रेम और आकर्षण का देवता कहा जाता है। 

कामदेव के अन्य नाम:👉
〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️ 'रागवृंत', 'अनंग', 'कंदर्प', 'मनमथ', 'मनसिजा', 'मदन', 'रतिकांत', 'पुष्पवान' तथा 'पुष्पधंव' आदि कामदेव के प्रसिद्ध नाम हैं। कामदेव को अर्धदेव या गंधर्व भी कहा जाता है, जो स्वर्ग के वासियों में कामेच्छा उत्पन्न करने के लिए उत्तरदायी हैं। कहीं-कहीं कामदेव को यक्ष की संज्ञा भी दी गई है।

कामदेव का स्वरूप👉
〰️〰️〰️〰️〰️〰️कामदेव को सुनहरे पंखों से युक्त एक सुंदर नवयुवक की तरह प्रदर्शित किया गया है जिनके हाथ में धनुष और बाण हैं। ये तोते के रथ पर मकर (एक प्रकार की मछली) के चिह्न से अंकित लाल ध्वजा लगाकर विचरण करते हैं। वैसे कुछ शास्त्रों में हाथी पर बैठे हुए भी बताया गया है।

कामदेव के धनुष और बाण👉
〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️उनका धनुष मिठास से भरे गन्ने का बना होता है जिसमें मधुमक्खियों के शहद की रस्सी लगी है। उनके धनुष का बाण अशोक के पेड़ के महकते फूलों के अलावा सफेद, नीले कमल, चमेली और आम के पेड़ पर लगने वाले फूलों से बने होते हैं।
 
कामदेव के पास मुख्यत: 5 प्रकार के बाण हैं। कामदेव के 5 बाणों के नाम :1. मारण, 2. स्तम्भन, 3. जृम्भन, 4. शोषण, 5. उम्मादन (मन्मन्थ)।

मदन-कामदेव मंदिर👉
〰️〰️〰️〰️〰️〰️मदन-कामदेव मंदिर को 'असम का खजुराहो' के नाम से जाना जाता है। वहां की मैथुन-प्रतिमाएं मध्यप्रदेश के खजुराहो की याद दिलाती हैं। सेक्स के देवता कामदेव और उनकी पत्नी रति की कथा को आज भी ये जीवंत बना रही हैं। यह मंदिर घने जंगलों के भीतर पेड़ों से छुपा हुआ है। कहते हैं कि भगवान शंकर द्वारा तृतीय नेत्र खोलने पर भस्म हो गए कामदेव का इस स्थान पर पुनर्जन्म तथा उनकी पत्नी रति के साथ पुन: मिलन हुआ था।

कामदेव की ऋतु वसंत👉
〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️वसंत पंचमी के दिन कामदेव की पूजा की जाती है। वसंत कामदेव का मित्र है इसलिए कामदेव का धनुष फूलों का बना हुआ है। इस धनुष की कमान स्वरविहीन होती है यानी जब कामदेव जब कमान से तीर छोड़ते हैं तो उसकी आवाज नहीं होती है। 

कामदेव का एक नाम 'अनंग' है यानी बिना शरीर के ये प्राणियों में बसते हैं। एक नाम 'मार' है यानी यह इतने मारक हैं कि इनके बाणों का कोई कवच नहीं है। वसंत ऋतु को प्रेम की ही ऋतु माना जाता रहा है। इसमें फूलों के बाणों से आहत हृदय प्रेम से सराबोर हो जाता है।

यहां रहता है कामदेव का वास :
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यौवनं स्त्री च पुष्पाणि सुवासानि महामते:।
गानं मधुरश्चैव मृदुलाण्डजशब्दक:।।
उद्यानानि वसन्तश्च सुवासाश्चन्दनादय:।
सङ्गो विषयसक्तानां नराणां गुह्यदर्शनम्।।
वायुर्मद: सुवासश्र्च वस्त्राण्यपि नवानि वै।
भूषणादिकमेवं ते देहा नाना कृता मया।।

मुद्गल पुराण के अनुसार कामदेव का वास यौवन, स्त्री, सुंदर फूल, गीत, पराग कण या फूलों का रस, पक्षियों की मीठी आवाज, सुंदर बाग-बगीचों, वसंत ऋ‍तु, चंदन, काम-वासनाओं में लिप्त मनुष्य की संगति, छुपे अंग, सुहानी और मंद हवा, रहने के सुंदर स्थान, आकर्षक वस्त्र और सुंदर आभूषण धारण किए शरीरों में रहता है। इसके अलावा कामदेव स्त्रियों के शरीर में भी वास करते हैं, खासतौर पर स्त्रियों के नयन, ललाट, भौंह और होठों पर इनका प्रभाव काफी रहता है।

कामदेव और शिव👉
〰️〰️〰️〰️〰️〰️जब भगवान शिव की पत्नी सती ने पति के अपमान से आहत और पिता के व्यवहार से क्रोधित होकर यज्ञ की अग्नि में आत्मदाह कर लिया था तब सती ने ही बाद में पार्वती के रूप में जन्म लिया। सती की मृत्यु के पश्चात भगवान शिव संसार के सभी बंधनों को तोड़कर, मोह-माया को पीछे छोड़कर तप में लीन हो गए। वे आंखें खोल ही नहीं रहे थे।
 
ऐसे में सभी देवों की अनुशंसा पर कामदेव ने उन पर अपना बाण चलाकर शिव के भीतर देवी पार्वती के लिए आकर्षण विकसित किया। शिव ने क्रोधित होकर जब आंखें खोलीं तो उससे कामदेव भस्म हो गए। हालांकि बाद में शिवजी ने उन्हें जीवनदान दे दिया था, लेकिन बगैर देह के।

श्रीकृष्ण और कामदेव👉
〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण को भी कामदेव ने अपने नियंत्रण में लाने का प्रयास किया था। कामदेव ने भगवान श्रीकृष्ण से यह शर्त लगाई कि वे उन्हें भी स्वर्ग की अप्सराओं से भी सुंदर गोपियों के प्रति आसक्त कर देंगे। श्रीकृष्ण ने कामदेव की सभी शर्त स्वीकार की और गोपियों संग रास भी रचाया लेकिन फिर भी उनके मन के भीतर एक भी क्षण के लिए वासना ने घर नहीं किया। 

रति ने पाला कामदेव को पुत्र की तरह फिर उनसे कर लिया विवाह :जब शिव ने कामदेव को भस्म कर दिया तब ये देख रति विलाप करने लगी तब जाकर शिव ने कामदेव के पुनः कृष्ण के पुत्र रूप में धरती पर जन्म लेने की बात बताई। शिव के कहे अनुसार भगवान श्रीकृष्ण और रुक्मणि को प्रद्युम्न नाम का पुत्र हुआ, जो कि कामदेव का ही अवतार था।

कहते हैं कि श्रीकृष्ण से दुश्मनी के चलते राक्षस शंभरासुर नवराज प्रद्युम्न का अपहरण करके ले गया और उसे समुद्र में फेंक आया। उस शिशु को एक मछली ने निगल लिया और वो मछली मछुआरों द्वारा पकड़ी जाने के बाद शंभरासुर के रसोई घर में ही पहुंच गई।
 
तब रति रसोई में काम करने वाली मायावती नाम की एक स्त्री का रूप धारण करके रसोईघर में पहुंच गई। वहां आई मछली को उसने ही काटा और उसमें से निकले बच्चे को मां के समान पाला-पोसा। जब वो बच्चा युवा हुआ तो उसे पूर्व जन्म की सारी याद दिलाई गई। इतना ही नहीं, सारी कलाएं भी सिखाईं तब प्रद्युम्न ने शंभरासुर का वध किया और फिर मायावती को ही अपनी पत्नी रूप में द्वारका ले आए। 

भगवान ब्रह्मा ने दिया वरदान👉
〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️ पौराणिक कथाओं के अनुसार एक समय ब्रह्माजी प्रजा वृद्धि की कामना से ध्यानमग्न थे। उसी समय उनके अंश से तेजस्वी पुत्र काम उत्पन्न हुआ और कहने लगा कि मेरे लिए क्या आज्ञा है? तब ब्रह्माजी बोले कि मैंने सृष्टि उत्पन्न करने के लिए प्रजापतियों को उत्पन्न किया था किंतु वे सृष्टि रचना में समर्थ नहीं हुए इसलिए मैं तुम्हें इस कार्य की आज्ञा देता हूं। यह सुन कामदेव वहां से विदा होकर अदृश्य हो गए। 

यह देख ब्रह्माजी क्रोधित हुए और शाप दे दिया कि तुमने मेरा वचन नहीं माना इसलिए तुम्हारा जल्दी ही नाश हो जाएगा। शाप सुनकर कामदेव भयभीत हो गए और हाथ जोड़कर ब्रह्माजी के समक्ष क्षमा मांगने लगे। कामदेव की अनुनय-विनय से ब्रह्माजी प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा कि मैं तुम्हें रहने के लिए 12 स्थान देता हूं- स्त्रियों के कटाक्ष, केश राशि, जंघा, वक्ष, नाभि, जंघमूल, अधर, कोयल की कूक, चांदनी, वर्षाकाल, चैत्र और वैशाख महीना। इस प्रकार कहकर ब्रह्माजी ने कामदेव को पुष्प का धनुष और 5 बाण देकर विदा कर दिया।
 
ब्रह्माजी से मिले वरदान की सहायता से कामदेव तीनों लोकों में भ्रमण करने लगे और भूत, पिशाच, गंधर्व, यक्ष सभी को काम ने अपने वशीभूत कर लिया। फिर मछली का ध्वज लगाकर कामदेव अपनी पत्नी रति के साथ संसार के सभी प्राणियों को अपने वशीभूत करने बढ़े। इसी क्रम में वे शिवजी के पास पहुंचे। भगवान शिव तब तपस्या में लीन थे तभी कामदेव छोटे से जंतु का सूक्ष्म रूप लेकर कर्ण के छिद्र से भगवान शिव के शरीर में प्रवेश कर गए। इससे शिवजी का मन चंचल हो गया। 
 
उन्होंने विचार धारण कर चित्त में देखा कि कामदेव उनके शरीर में स्थित है। इतने में ही इच्छा शरीर धारण करने वाले कामदेव भगवान शिव के शरीर से बाहर आ गए और आम के एक वृक्ष के नीचे जाकर खड़े हो गए। फिर उन्होंने शिवजी पर मोहन नामक बाण छोड़ा, जो शिवजी के हृदय पर जाकर लगा। इससे क्रोधित हो शिवजी ने अपने तीसरे नेत्र की ज्वाला से उन्हें भस्म कर दिया।
 
कामदेव को जलता देख उनकी पत्नी रति विलाप करने लगी। तभी आकाशवाणी हुई जिसमें रति को रुदन न करने और भगवान शिव की आराधना करने को कहा गया। फिर रति ने श्रद्धापूर्वक भगवान शंकर की प्रार्थना की। 
 
रति की प्रार्थना से प्रसन्न हो शिवजी ने कहा कि कामदेव ने मेरे मन को विचलित किया था इसलिए मैंने इन्हें भस्म कर दिया। अब अगर ये अनंग रूप में महाकाल वन में जाकर शिवलिंग की आराधना करेंगे तो इनका उद्धार होगा। 
 
तब कामदेव महाकाल वन आए और उन्होंने पूर्ण भक्तिभाव से शिवलिंग की उपासना की। उपासना के फलस्वरूप शिवजी ने प्रसन्न होकर कहा कि तुम अनंग, शरीर के बिन रहकर भी समर्थ रहोगे। कृष्णावतार के समय तुम रुक्मणि के गर्भ से जन्म लोगे और तुम्हारा नाम प्रद्युम्न होगा।

कामदेव मंत्र👉
〰️〰️〰️〰️कामदेव के बाण ही नहीं, उनका 'क्लीं मंत्र' भी विपरीत लिंग के व्यक्ति को आकर्षित करता है। कामदेव के इस मंत्र का नित्य दिन जाप करने से न सिर्फ आपका साथी आपके प्रति शारीरिक रूप से आकर्षित होगा बल्कि आपकी प्रशंसा करने के साथ-साथ वह आपको अपनी प्राथमिकता भी बना लेगा। 

कहा जाता है कि प्राचीनकाल में वेश्याएं और नर्तकियां भी इस मंत्र का जाप करती थीं, क्योंकि वे अपने प्रशंसकों के आकर्षण को खोना नहीं चाहती थीं। ऐसा माना जाता है कि इस मंत्र का लगातार जाप करते रहने की वजह से उनका आकर्षण, सौंदर्य और कांति बरकरार रहती थी।
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ज़िन्दगी..."जीनी" है तो"तकलीफ तो "होगी" ही...!!वरना "मरने" के बाद तो"जलने" का भी "एहसास" नहीं होता...

"ज़िन्दगी..."जीनी" है तो
"तकलीफ तो "होगी" ही...!!वरना "मरने" के बाद तो
"जलने" का भी "एहसास" नहीं होता...
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  जो समझौतावादी होता है,वह साधक नहीं हो सकता।
          
    रावण , कुम्भकर्ण  और विभीषण जब साधना करते हैं तो उनकी देवभक्ति की आराधना देख तीनों को वरदान देने शंकरजी के साथ ब्रह्माजी भी आते हैं ब्रह्मा बुद्धि के देवता हैं , विवेक के प्रतीक हैं।
      ब्रह्मा और शिव चेतनतत्त्व हैं तथा हमारी व्यष्टि-चेतना की अपेक्षा ये महत्‌ हैं, इसलिए हमारी अपेक्षा इनका विवेक श्रेष्ठ है, वह अध्यात्मवादी है। केवल देवताओं की पूजा या पाठ आदि मात्र करने से कोई व्यक्ति अध्यात्मवादी या धार्मिक नहीं हो जाता। ऐसी भ्रान्ति को मन से निकाल देना चाहिए। 
     तो, जब रावण ने वरदान माँगा कि हम किसी के मारे न मरें ब्रह्माजी ने आपत्ति की और कहा कि इस मर्त्यलोक में किसी को अमरता का वरदान नहीं मिल सकता। इस पर रावण ने तुरन्त कहा -- 'बानर मनुज जाति दुई बारें' -- हम बन्दर और मनुष्य को छोड़कर और किसी से न मरें। रावण सोचता है कि 'नर कपि भालु अहार हमारा' -- मनुष्य और बन्दर-भालू तो हमारे भोजन हैं। भोजन से शरीर की जान बढ़ती है। मरने की सम्भावना तो देवताओं से ही है। अगर इन लोगों से वरदान की शक्ति के द्वारा हम न मरें, तो बन्दर-भालू और मनुष्यों को तो हम स्वयं खा लेंगे और अमर हो जाएँगे। शंकरजी ने मुस्कराकर कह दिया -- “एवमस्तु”। जब वे लौटकर आए, तो पार्वतीजी ने पूछा -- “रावण ने क्या वरदान माँगा ?” 
शंकरजी बोले -- “क्या बताएँ उसने अपनी मृत्यु माँगी !” -- 'राबण मरन मनुज कर जाचा'
। पार्वतीजी बोलीं -- “महाराज, साधना कोई मृत्यु के लिए करता है या अमरता के लिए ?” शंकरजी ने कहा, “यही तो दैत्यत्व है, चेष्टा करता है अमर होने की, पर उसकी यह चेष्टा ही उसे मृत्यु की ओर ले जाती है।” 
      तत्पश्चात्‌ ब्रह्मा और शंकर कुम्भकर्ण के सामने गए। उसके विशाल शरीर को देख ब्रह्मा घबराए। वह यह वर माँगने का विचार कर रहा था कि हम छह महीने जागते रहें और एक दिन सोने से काम चल जाए। वह खाने-पीने का बड़ा प्रेमी था, उसने सोचा -- भोजन नींद में तो होता नहीं ; छह महीने जगेंगे तो छककर भोजन करेंगे। ब्रह्माजी को लगा -- 
  जौं एहिं खल नित करब अहारू। 
 होइहि   सब   उजारि   संसारू।।
-- जो यह दुष्ट नित्य आहार करेगा, तो सारा संसार ही उजाड़ हो जाएगा । यह भी ईश्वर का एक सुन्दर विधान है कि संसार में कई लोग तमोगुणी प्रवृत्ति के होते हैं और यदि बहुत-से लोग इकट्ठा हो जाएँ तो सब कुछ खा डालेंगे -- अपनों को खाएँगे, दूसरों को खाएँगे। यह विपत्ति देख ब्रह्माजी ने अपनी कला का थोड़ा उपयोग किया। उन्होंने सरस्वतीजी को प्रेरित किया कि कुम्भकर्ण का विचार बदल दो। सरस्वती ने वही किया, और कुम्भकर्ण ने उलटा वरदान माँग लिया कि महाराज, छह महीना सोएँ और एक दिन जागे --
सारद प्रेरि  तासु मति  फेरी।
 मागेसि नीद मास षट केरी।। 
-- रावण में यदि रजोगुण की प्रेरणा जागी, तो कुम्भकर्ण में तमोगुणी प्रेरणा का जन्म हो गया और ब्रह्माजी के लिए लोक-कल्याण की दृष्टि से यह अपेक्षित हो गया कि वे ऐसी तमोगुणी प्रवृत्ति से संसार की रक्षा करें। गोस्वामी तुलसीदासजी ने अपनी 'विनय-पत्रिका' में हमें बताया है कि रावण और कुम्भकर्ण मोह और अहंकार के प्रतीक हैं -- 'मोह दशमौलि तद्‌ भ्रात अहँकार'।
 --और मोह तथा अहंकार की प्रवृत्तियों में अन्तर है। मोह में यदि संग्रह की वृत्ति है, तो अहंकार में खाने की। अहंकारी व्यक्ति सबको खाना चाहता है। संसार में जितनी टकराहट है, वह अहंकार को -- 'मैं' को लेकर होती है। अहंकारी व्यक्ति के अहम्‌ पर बात-बात में चोट लगती है और इसलिए वह बात-बात में लड़ उठता है। ऐसी स्थिति में उसका समाज में उठना-बैठना असम्भव हो जाता है। जो सज्जन मेरी इस पोस्ट को शांति से पढ़ रहे हैं, इसका मतलब यही है कि उनके भीतर का कुम्भकर्ण सो रहा है। यह ब्रह्माजी की हम पर कृपा है कि उन्होंने सरस्वती को प्रेरित कर कुम्भकर्ण के लिए छह महीने सोने और एक दिन जागने के वरदान की व्यवस्था कर दी। छह महीने के एक चक्र में यदि अहंकार एक दिन जागता भी है, तो ऐसा अहंकार चल सकता है। 
     तो, इस प्रकार रावण और कुम्भकर्ण को वरदान देकर जब ब्रह्मा और शंकर विभीषण के पास पहुँचे, और उसे वरदान माँगने के लिए कहा, तो विभीषण ने एक सत्त्वगुणी व्यक्ति के अनुरूप ही वरदान माँगा। शंकरजी विभीषण को 'पुत्र' कहकर सम्बोधित करते हैं। गोस्वामीजी कहते हैं -- 
गए विभीषन पास पुनि कहेउ पुत्र बर मागु।
      वैसे, पुत्र तो रावण भी था, और 'कुम्भकर्ण भी। पर शंकरजी ने विभीषण को ही 'पुत्र' कहकर सम्बोधित किया, क्योंकि विभीषण एक चतुर पुत्र है। चतुर पुत्र वह है, जो पिता-की सम्पत्ति का अधिकार प्राप्त करे। शंकरजी को सम्पत्ति क्या है ? जब वे किसी पर प्रसन्न होते हैं, तो वरदान क्या देते हैं ? -- 
     होइ अकाम जो चल तजि सेइहि।
   भगति  मोरी  तेहि  शंकर  देइहि।। 
-- भक्ति का। भक्ति ही शंकरजी का परमधन है। अत: इस चतुर पुत्र ने भक्ति का ही वरदान माँगा -- 
तेहिं मागेउ भगवंत पद कमल अमल अनुरागु।।
     इस प्रकार तीनों को वरदान प्राप्त हो गया और तीनों को ब्रह्मा एवं शंकरजी के दर्शन भी हो गए। अब ऐसा लगता है कि जब विभीषण ने भक्ति का वरदान प्राप्त कर लिया, तब जीवन में उन्हें और क्या चाहिए ? पर नहीं, गोस्वामीजी की दृष्टि में अभी विभीषण का जीवन अपूर्ण ही है । वे यहीं पर साधना का तत्त्व प्रकट करते हैं। भले ही विभीषण इतनी ऊँची स्थिति में पहुँच गए थे और उन्होंने इतनी उत्कृष्ट साधना एवं तपस्या की थी, भले ही विभीषण को जो कुछ वरदान मिला वह बड़ा महत्त्वपूर्ण था, तथापि उनके जीवन में भक्ति की जैसी परिणति होनी चाहिए थी, वैसी नहीं हुई। यह ऐसी स्थिति है, जिसे हर साधक अपने जीवन में देख सकता है। भले ही साधक अपनी अत्युच्च साधना के बल पर दिव्य शक्तियों का साक्षात्कार कर ले, पर उससे उसके जीवन में परिवर्तन घटा हो यह सामान्यतया नहीं देखा जाता । इसका कारण हम विभीषण के जीवन में देख सकते हैं। ऐसी बात नहीं कि तपस्या करके वरदान लेकर लौट आने के बाद से विभीषणजी ने साधना छोड़ दी हो। बल्कि लौटकर आ आने के बाद से तीनों भाइयों की प्रवृत्ति अलग-अलग परिलक्षित हो रही है। विभीषण के लिए भगवान्‌ का मन्दिर है। हनुमानजी जब लंका में जाते हैं; तो वे आश्चर्यचकित होकर देखते हैं कि विभीषण के लिए एक हरिमन्दिर बनाया गया है। वहाँ तुलसी के वृन्द और पुष्प लगाए गए हैं । विभीषणजी मन्दिर में भगवान्‌ की नित्य पूजा करते हैं, माला पर जप करते हैं, किसी को कष्ट नहीं पहुँचाते। यह सब होते हुए भी उनके जीवन में जो गति थी, उसमें अवरोध उत्पन्न हो जाता है । यह प्रत्येक जीव के, साधक के जीवन का एक शाश्वत सत्य है। इसका कारण यह है कि जीव के जीवन में दुहरी प्रक्रिया चला करती है, जैसे कि लंका में जीव के तीन रूप दिखाई देते हैं -- एक है रावण, जो जाग्रत अवस्था में है और दूसरों को निरन्तर उत्पीड़ित कर रहा है। दूसरा है कुम्भकर्ण, जो सुषुप्ति में निष्क्रिय पड़ा हुआ है और जब सक्रिय होगा, तब बड़ी समस्या उत्पन्न करेगा। और तीसरा है विभीषण, जो पूजा कर रहा है। जीव ऐसी तीन प्रवृत्तियों में बँटा हुआ है और उसकी ये तीनों प्रवृत्तियाँ आपस में टकराती रहती हैं। वह जागते में कुछ व्यवहार करता हैं, स्वप्न में उसकी समस्या कुछ होती है और सुषुप्ति में वह और ही प्रकार का जीवन व्यतीत करता है। उसके भीतर का रावण जाग्रत्‌ का दुरुपयोग करता है, कुम्भकर्ण सुषुप्ति का और विभीषण स्वप्न का। विभीषण की साधना तो तुरीय में होनी चाहिए थी, पर वह स्वप्न में होती है। आप तुरीय और स्वप्न की साधनाओं का पार्थक्य जानते ही होंगे। तुरीय-समाधि में भी दिव्य अनुभूतियाँ होती हैं और स्वप्न में भी मनुष्य विविध अनुभूतियाँ प्राप्त करता है। पर स्वप्न की एक समस्या है। कभी हमें अच्छा स्वप्न आता है, कभी बुरा। कभी स्वप्न में लगता है कि हम पूजा कर रहे हैं, मन्दिर देख रहे हैं, तो कभी स्वप्न में हम अपने को सुरापान में मत्त देखते हैं और कभी अनाचार में प्रवृत्त। इस प्रकार स्वप्न वह अवस्था है, जहाँ अपनी अनुभूतियों पर हमारा नियन्त्रण नहीं है और तुरीय वह है, जहाँ पर हमारी अनुभूतियाँ नियन्त्रित रहती हैं। साधारणत: हम ऐसी स्वप्न की अवस्था में ही जीते हैं, जहाँ हमारे अन्त:करण में अच्छाई और बुराई दोनों दिखाई देती रहती हैं, पर हमारा उन पर कोई अधिकार नहीं प्रतीत होता। विभीषण का जीवन ठीक इसी प्रकार का है। इसका तात्पर्य यह है कि जब तक जीव मोह और अहंकार का छोटा भाई बना हुआ है, मोह और अहंकार के शासन में रहकर भक्ति-पूजा या साधना करता है, तब तक वह सच्चे अर्थों में कभी भी चरम लक्ष्य तक नहीं पहुँच सकता। इसे यों कह लीजिए कि जो समझौतावादी होता है, वह साधक नहीं हो सकता।
      विभीषण रावण से एक समझौता कर लेते हैं। वे सोचते हैं कि रावण भले ही संसार पर अत्याचार करता हो, पूजा-पाठ और भक्ति रोकता हो, पर वह मुझे तो कम-से-कम भक्ति और पूजा की सुविधा देता है, अत: जब रावण हमारे प्रति सहिष्णु है, तो हम भी उसके प्रति सहिष्णु बने रहें। पर यह निश्चित जान रखिए कि समझौता साधक का लक्ष्य नहीं है, वह तो विषयी का लक्ष्य है। और अगर कोई व्यक्ति साधक होने के बावजूद समझौता करता है, तो इसका अभिप्राय यह है कि वह साधक नहीं है। साधक तो लड़ता है, झगड़ा करता है। समझौतावादी तो किसी से कटुता उत्पन्न करना नहीं चाहता, वह तो बस किसी प्रकार शान्ति से जीवन बिता लेना चाहता है, उसके जीवन का कोई परम लक्ष्य नहीं होता, वह निरन्तर सबसे समझौता करता रहता है, क्योंकि उसे किसी तरह से जी भर लेना है। पर जिस व्यक्ति को जीवन में कोई लक्ष्य प्राप्त करना है, वह क्या समझौता करके चल सकता है ? कल्पना कीजिए कि एक सैनिक है, जो युद्धक्षेत्र में लड़ रहा है और एक दूसरा व्यक्ति है, जो घर में बैठा हुआ है। हमें बाहर से तो यहीं लगेगा कि घर में बैठा हुआ व्यक्ति मजे में है, क्योंकि उसे मोर्चेवाले के समान संघर्ष नहीं करना पड़ता, गोले-बारूद का सामना नहीं करना पड़ता, तथापि क्या यह भी सत्य नहीं है कि घर में बैठा हुआ व्यक्ति वस्तुत: पशु का जीवन जी रहा है ? जो संघर्ष करता है, उससे डरता या भागता नहीं, विजय उसी को तो मिला करती है। तो, साधक का रास्ता संघर्ष का रास्ता है, समझौते का नहीं, घर में चुप बैठने का नहीं। विभीषण ने रावण और कुम्भकर्ण से समझौता कर लिया। रावण उनके प्रति सहिष्णु है तो वे भी रावण के प्रति सहिष्णु हैं। वे कुम्भकर्ण को भी सह लेते हैं, क्योंकि वह छह महीने में एक ही दिन तो जागता है ! इसका अर्थ यह कि एक साधक जिसे छह महीने तक अहंकार नहीं आता और उसके बाद एक दिन आ जाता है और वह यह कहकर सन्तोष कर लेता है कि चलो, एक दिन आया तो आया, पर छह महीने तो हम अहम्‌ से मुक्त रहे, वह साधक नहीं हैं। साधक तो वह है, जो विचार करता है कि भले ही अहंकार छह महीने नहीं आया, पर एक दिन के लिए आकर उसने कितना क्या खा डाला ।

जय श्री राम।

सतीमाता अनुसुइया जन्मोसव विशेष - माता अनसुइया की संक्षिप्त कथा

सतीमाता अनुसुइया जन्मोसव विशेष
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माता अनसुइया की संक्षिप्त कथा
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सती अनुसूया महर्षि अत्रि की पत्नी थीं। 
जो अपने पतिव्रता धर्म के कारण सुविख्यात थी। अनुसूया का स्थान  भारतवर्ष की सती-साध्वी नारियों में बहुत ऊँचा है। इनका जन्म अत्यन्त उच्च कुल में हुआ था ब्रह्मा जी के मानस पुत्र परम तपस्वी महर्षि अत्रि को इन्होंने पति के रूप में प्राप्त किया था। अपनी सतत सेवा तथा प्रेम से इन्होंने महर्षि अत्रि के हृदय को जीत लिया था। अत्रि मुनि की पत्नी जो दक्ष प्रजापति की चौबीस कन्याओं में से एक थीं। 

इन्होंने ब्रह्मा, विष्णु और महेश को तपस्या करके प्रसन्न किया और ये त्रिदेव क्रमश: सोम, दत्तात्रेय और दुर्वासा के नाम से उनके पुत्र बने। अनुसूया पतिव्रत धर्म के लिए प्रसिद्ध हैं। वनवास काल में जब राम, सीता और लक्ष्मण चित्रकूट में महर्षि अत्रि के आश्रम में पहुँचे तो अनुसूया ने सीता को पतिव्रत धर्म की शिक्षा दी थी।

उनकी पति-भक्ति अर्थात सतीत्व का तेज इतना अधिक था के उसके कारण आकाशमार्ग से जाते देवों को उसके प्रताप का अनुभव होता था। इसी कारण उन्हें 'सती अनसूया' भी कहा जाता है।
अनसूया ने राम, सीता और लक्ष्मण का अपने आश्रम में स्वागत किया था। उन्होंने सीता को उपदेश दिया था और उन्हें अखंड सौंदर्य की एक ओषधि भी दी थी। सतियों में उनकी गणना सबसे पहले होती है। कालिदास के 'शाकुंतलम्' में अनसूया नाम की शकुंतला की एक सखी भी कही गई है।

एक दिन देव ऋषि नारद जी बारी-बारी से विष्णुजी, शिव जी और ब्रह्मा जी की अनुपस्थिति में विष्णु लोक, शिवलोक तथा ब्रह्मलोक पहुंचे।

वहां जाकर उन्होंने लक्ष्मी जी, पार्वती जी और सावित्री जी के सामने अनुसुइया के पतिव्रत धर्म की बढ़ चढ़ के प्रशंसा की तथा कहाँ की समस्त सृष्टि में उससे बढ़ कर कोई पतिव्रता नहीं है।

नारद जी की बाते सुनकर तीनो देवियाँ सोचने लगी की आखिर अनुसुइया के पतिव्रत धर्म में ऐसी क्या बात है जो उसकी चर्चा स्वर्गलोक तक हो रही है ? तीनो देवीयों को अनुसुइया से ईर्ष्या होने लगी।

नारद जी के वहां से चले जाने के बाद सावित्री, लक्ष्मी तथा पार्वती एक जगह इक्ट्ठी हुई तथा अनुसूईया के पतिव्रत धर्म को खंडित कराने के बारे में सोचने लगी। उन्होंने निश्चय किया की हम अपने पतियों को वहां भेज कर अनुसूईया का पतिव्रत धर्म खंडित कराएंगे।

 ब्रह्मा, विष्णु और शिव जब अपने अपने स्थान पर पहुँचे तो तीनों देवियों ने उनसे अनुसूईया का पतिव्रत धर्म खंडित कराने की जिद्द की। तीनों देवों ने बहुत समझाया कि यह पाप हमसे मत करवाओ। परंतु तीनों देवियों ने उनकी एक ना सुनी और अंत में तीनो देवो को इसके लिए राज़ी होना पड़ा।

तीनों देवो ने साधु वेश धारण किया तथा अत्रि ऋषि के आश्रम पर पहुंचे। उस समय अनुसूईया जी आश्रम पर अकेली थी। साधुवेश में तीन अत्तिथियों को द्वार पर देख कर अनुसूईया ने भोजन ग्रहण करने का आग्रह किया। तीनों साधुओं ने कहा कि हम आपका भोजन अवश्य ग्रहण करेंगे। परंतु एक शर्त पर कि आप हमे निवस्त्र होकर भोजन कराओगी।

 अनुसूईया ने साधुओं के शाप के भय से तथा अतिथि सेवा से वंचित रहने के पाप के भय से परमात्मा से प्रार्थना की कि हे परमेश्वर ! इन तीनों को छः-छः महीने के बच्चे की आयु के शिशु बनाओ।

 जिससे मेरा पतिव्रत धर्म भी खण्ड न हो तथा साधुओं को आहार भी प्राप्त हो व अतिथि सेवा न करने का पाप भी न लगे। परमेश्वर की कृपा से तीनों देवता छः-छः महीने के बच्चे बन गए तथा अनुसूईया ने तीनों को निःवस्त्र होकर दूध पिलाया तथा पालने में लेटा दिया।

जब तीनों देव अपने स्थान पर नहीं लौटे तो देवियां व्याकुल हो गईं। तब नारद ने वहां आकर सारी बात बताई की तीनो देवो को तो अनुसुइया ने अपने सतीत्व से बालक बना दिया है।

 यह सुनकर तीनों देवियां ने अत्रि ऋषि के आश्रम पर पहुंचकर माता अनुसुइया से माफ़ी मांगी और कहाँ की हमसे ईर्ष्यावश यह गलती हुई है। इनके लाख मना करने पर भी हमने इन्हे यह घृणित कार्य करने भेजा। कृप्या आप इन्हें पुनः उसी अवस्था में कीजिए।

 आपकी हम आभारी होंगी। इतना सुनकर अत्री ऋषि की पत्नी अनुसूईया ने तीनो बालक को वापस उनके वास्तविक रूप में ला दिया। अत्री ऋषि व अनुसूईया से तीनों भगवानों ने वर मांगने को कहा। तब अनुसूईया ने कहा कि आप तीनों हमारे घर बालक बन कर पुत्र रूप में आएँ। हम निःसंतान हैं। 

तीनों भगवानों ने तथास्तु कहा तथा अपनी-अपनी पत्नियों के साथ अपने-अपने लोक को प्रस्थान कर गए। कालान्तर में दतात्रोय रूप में भगवान विष्णु का, चन्द्रमा के रूप में ब्रह्मा का तथा दुर्वासा के रूप में भगवान शिव का जन्म अनुसूईया के गर्भ से हुआ।

।। जय सती मां अनसूया ।।

झूल रहे तीन देव बनकर के लालना,
माता अनसुईया ने डाल दियो पालना...

मारे खुशी के मैया फूली ना समाती हैं,
गोदी में लेती कभी पालना झुलाती हैं....

कौन करे आज मेरे भाग्य की सराहना.
झूल रहे तीन देव बनकर के लालना...

मेरे घर आये मुझे देने को बड़ाई है,
भूले भगवान आज सब चतुराई है...

सतियो में इनकी ऐसी है भावना,
झूल रहे तीन देव बनकर के लालना...

स्वर्गलोक छोड आज मृत्युलोक सिधारे,
ऋषियों की कुटीया में करते गुजारे...

सती के सामने नष्ट भई कामना,
झूल रहे तीन देव बनकर के लालना...

इतने में ही नारदमुनि वहा आये,
मंद-मंद मन में अपने मुस्काये...

भारत की देवी से हुआ आज सामना,
झूल रहे तीन देव बनकर के लालना...

माता अनसुईया ने डाल दियो पालना,
झूल रहे तीन देव बनकर के लालना...
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भुवन भास्कर भगवान सूर्यनारायण

भुवन भास्कर भगवान सूर्यनारायण
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भुवन भास्कर भगवान सूर्यनारायण प्रत्यक्ष देवता हैं, प्रकाश रूप हैं। उपनिषदों में भगवान सूर्य के ‍तीन रूप माने गए हैं- 

(1) निर्गुण, निराकार, 
(2) सगुण निराकार तथा 
(3) सगुण साकार। 

यद्यपि सूर्य निर्गुण निराकार हैं तथा अपनी माया शक्ति के संबंध में सगुण आकार भी हैं। 

वेदों में सूर्य को जगत की आत्मा कहा गया है। समस्त चराचर जगत की आत्मा सूर्य ही है। सूर्य से ही इस पृथ्वी पर जीवन है, यह आज एक सर्वमान्य सत्य है। वैदिक काल में आर्य सूर्य को ही सारे जगत का कर्ता धर्ता मानते थे। सूर्य का शब्दार्थ है सर्व प्रेरक. यह सर्व प्रकाशक, सर्व प्रवर्तक होने से सर्व कल्याणकारी है। *ऋग्वेद के देवताओं कें सूर्य का महत्वपूर्ण स्थान है। यजुर्वेद ने “चक्षो सूर्यो जायत” कह कर सूर्य को भगवान का नेत्र माना है।*

छान्दोग्यपनिषद में सूर्य को प्रणव निरूपित कर उनकी ध्यान साधना से पुत्र प्राप्ति का लाभ बताया गया है। ब्रह्मवैर्वत पुराण तो सूर्य को परमात्मा स्वरूप मानता है। प्रसिद्ध गायत्री मंत्र सूर्य परक ही है। सूर्योपनिषद में सूर्य को ही संपूर्ण जगत की उतपत्ति का एक मात्र कारण निरूपित किया गया है। और उन्ही को संपूर्ण जगत की आत्मा तथा ब्रह्म बताया गया है।

सूर्योपनिषद की श्रुति के अनुसार संपूर्ण जगत की सृष्टि तथा उसका पालन सूर्य ही करते है। सूर्य ही संपूर्ण जगत की अंतरात्मा हैं। अत: कोई आश्चर्य नही कि वैदिक काल से ही भारत में सूर्योपासना का प्रचलन रहा है। पहले यह सूर्योपासना मंत्रों से होती थी। बाद में मूर्ति पूजा का प्रचलन हुआ तो यत्र तत्र सूर्य मन्दिरों का नैर्माण हुआ। भविष्य पुराण में ब्रह्मा विष्णु के मध्य एक संवाद में सूर्य पूजा एवं मन्दिर निर्माण का महत्व समझाया गया है।

अनेक पुराणों में यह आख्यान भी मिलता है, कि ऋषि दुर्वासा के शाप से कुष्ठ रोग ग्रस्त श्री कृष्ण पुत्र साम्ब ने सूर्य की आराधना कर इस भयंकर रोग से मुक्ति पायी थी। प्राचीन काल में भगवान सूर्य के अनेक मन्दिर भारत में बने हुए थे। उनमे आज तो कुछ विश्व प्रसिद्ध हैं। वैदिक साहित्य में ही नही आयुर्वेद, ज्योतिष, हस्तरेखा शास्त्रों में सूर्य का महत्व प्रतिपादित किया गया है।

*उपनिषदों में सूर्य के स्वरूप का मार्मिक वर्णन है:- ‘जो ये भगवान सूर्य आकाश में तपते हैं उनकी उपासना करनी चाहिए।’* 

*भविष्य पुराण के ब्रह्मपर्व (अध्याय 48/ 21-28) में भगवान बासुदेव ने साम्ब को उनकी जिज्ञासा का उत्तर देते हुए कहा है- सूर्य प्रत्यक्ष देवता हैं। वे इस समस्त जगत के नेत्र हैं। इन्हीं से दिन का सृजन होता है।*

इनसे अधिक निरंतर रहने वाला कोई देवता नहीं है। इन्हीं से यह जगत उत्पन्न होता है और अंत समय में इन्हीं में लय को प्राप्त होता है। कृत ‍आदि लक्षणों वाला यह काल भी दिवाकर ही कहा गया है। *जितने भी ग्रह-नक्षत्र, करण, योग, राशियां, आदित्य गण, वसुगण, रुद्र, अश्विनी कुमार, वायु, अग्नि, शुक्र, प्रजापति, समस्त भूर्भुव: स्व: आदि लोक, संपूर्ण नग (पर्वत), नाग, नदियां, समुद्र तथा समस्त भूतों का समुदाय है, इन सभी के हेतु दिवाकर ही हैं।*

इन्हीं से यह जगत स्थित रहता है, अपने अर्थ में प्रवृत्त होता तथा चेष्टाशील होता हुआ दिखाई पड़ता है। इसके उदय होने पर सभी का उदय होता है और अस्त होने पर सभी अस्तगत हो जाते हैं। तात्पर्य यह कि इनसे श्रेष्ठ देवता न हुए हैं, न भविष्य में होंगे।

अत: समस्त वेदों में वे परमात्मा के नाम से पुकारे जाते हैं। इतिहास और पुराणों में इन्हें ‘अंतरात्मा’ नाम से अभिहित किया गया है, जैसे भगवान विष्णु का स्थान वैकुंठ, भूतभावन शंकर का कैलाश तथा चतुर्मुख ब्रह्मा का स्थान ब्रह्मलोक है। वैसे ही भुवन भास्कर सूर्य का स्थान आदित्यलोक सूर्य मंडल है।

*प्राय: लोग सूर्य मंडल और सूर्यनारायण को एक ही मानते हैं। सूर्य ही कालचक्र के प्रणेता हैं, सूर्य से ही दिन-रात्रि, घटी, पल, मास, अयन तथा संवत् आदि का विभाग होता है। सूर्य संपूर्ण संसार के प्रकाशक हैं। इनके बिना सब अंधकार है। सूर्य ही जीवन, तेज, ओज, बल, यश, चक्षु, आत्मा और मन हैं।*

आदित्य लोक में भगवान सूर्यनारायण का साकार विग्रह है। वे रक्तकमल पर विराजमान हैं, उनकी चार भुजाएं हैं। वे सदा दो भुजाओं में पद्म धारण किए रहते हैं और दो हाथ अभय तथा वरमुद्रा से सुशोभित हैं। वे सप्ताश्वयुक्त रथ में स्‍थित हैं।

जो उपासक ऐसे उन भगवान सूर्य की उपासना करते हैं, उन्हें मनोवांछित फल प्राप्त होता है। उपासक के सम्मुख उपस्थित होकर भगवान सूर्य स्वयं अपने उपासक की इच्छापूर्ति करते हैं। उनकी कृपा से मनुष्य के मानसिक, वाचिक तथा शारीरिक सभी पाप नष्ट हो जाते हैं।

ब्रह्म पुराण में कहा गया है कि,,,,,

*‘मानसं वाचिकं वापि कायजं यच्च दुष्कृतम्।’*
*सर्व सूर्य प्रसादेन तदशेषं व्यपोहति।।’*

भगवान सूर्य अजन्मा है फिर भी एक जिज्ञासा होती है कि इनका जन्म कैसे हुआ, कहां हुआ और किसके द्वारा हुआ, परमात्मा का अवतार तो होता ही है, इस संबंध में पुराण में एक कथा प्राप्त होती है।

एक बार संग्राम में दैत्य-दावनों ने मिलकर देवताओं को हरा दिया, तबसे देवता अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा में सतत प्रयत्नशील थे। देवताओं की माता अदिति प्रजापति दक्ष की कन्या थीं। उनका विवाह महर्षि कश्यप से हुआ था।

अपने पुत्रों की हार से अत्यंत दुखी होकर वे सूर्य उपासना करने लगीं- ‘हे भक्तों पर कृपा करने वाले प्रभो! मेरे पुत्रों का राज्य एवं यज्ञ दैत्यों एवं दानवों ने छीन लिया है। आप अपने अंश से मेरे गर्भ द्वारा प्रकट होकर पुत्रों की रक्षा करें।’

भगवान सूर्य प्रसन्न होकर ‘देवी! मैं तुम्हारे पुत्रों की रक्षा करूंगा, अपने हजारवें अंश से तुम्हारे गर्भ से प्रकट होकर’ इतना कहकर अंतर्ध्यान हो गए। समय पाकर भगवान सूर्य का जन्म अदिति के गर्भ से हुआ। इस अवतार को मार्तण्ड के नाम से पुकारा जाता है। देवतागण भगवान सूर्य को भाई के रूप में पाकर बहुत प्रसन्न हुए।

अग्नि पुराण में स्पष्ट कहा गया है कि विष्णु के नाभि कमल से ब्रह्माजी का जन्म हुआ। ब्रह्माजी के पुत्र का नाम मरीचि है। मरीचि से महर्षि कश्यप का जन्म हुआ। ये महर्षि कश्यप ही सूर्य के पिता हैं।
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रविवार, 28 अप्रैल 2024

जीरा, धनिया और सौंफ़ (CCF) - परम पाचक चाय

जीरा, धनिया और सौंफ़ (CCF) - परम पाचक चाय



यह चाय एक आयुर्वेदिक क्लासिक है, और एक संयोजन है जिसका उपयोग पाचन नियमितता और सहायता के लिए सभी घरों में किया जाना चाहिए। जीरा, धनिया और सौंफ़ का सुंदर और पूरी तरह से संतुलित संयोजन तीनों दोषों के बीच पाचन सद्भाव का समर्थन करता है और इसके अलावा, शरीर को कई अन्य लाभ भी प्रदान कर सकता है।



सीसीएफ चाय के लाभ

  • सूजन से राहत मिलती है

  • पेट फूलना कम करता है

  • आंतों की ऐंठन को शांत करता है

  • पेट दर्द और ऐंठन को कम करता है

  • मतली और उल्टी ठीक हो जाती है

  • अग्नि (पाचन अग्नि) को उत्तेजित और संतुलित करता है


अतिरिक्त लाभ

  • मासिक धर्म में ऐंठन के लक्षणों को कम करता है

  • स्तन के दूध का प्रवाह और गुणवत्ता बढ़ जाती है

  • प्रसव से उबरने में सहायता करता है

  • सूजन को कम करता है

  • मानसिक स्पष्टता और संतुलित दिमाग में सहायता करता है

  • सफाई और लसीका जल निकासी को उत्तेजित करता है


ऐसा अद्भुत काढ़ा! यहां बताया गया है कि आप इसे कैसे बनाते हैं....



जिसकी आपको जरूरत है


4 कप बनता है

  • 1/2 छोटा चम्मच जीरा

  • 1/2 छोटा चम्मच धनिये के बीज

  • 1/2 छोटा चम्मच सौंफ के बीज

  • 5 कप पानी


तरीका

  1. सभी सामग्रियों को एक छोटे सॉस पैन में और स्टोव पर रखें।

  2. उबाल लें, फिर धीमी आंच पर 2-5 मिनट तक या जब तक आपकी ज़रूरत के हिसाब से पर्याप्त ताकत न आ जाए, धीमी आंच पर पकाएं।

  3. छान लें और तुरंत परोसें, या तो अलग-अलग कप में या थर्मस में पूरे दिन घूंट-घूंट करके परोसें।

मान्यता है कि काशी की मणिकर्णिका घाट पर भगवान शिव ने देवी सती के शव की दाहक्रिया की थी। तबसे वह महाशमशान है, जहाँ चिता की अग्नि कभी नहीं बुझती।

 

मान्यता है कि काशी की मणिकर्णिका घाट पर भगवान शिव ने देवी सती के शव की दाहक्रिया की थी। तबसे वह महाशमशान है, जहाँ चिता की अग्नि कभी नहीं बुझती।

एक चिता के बुझने से पूर्व ही दूसरी चिता में आग लगा दी जाती है। वह मृत्यु की लौ है जो कभी नहीं बुझती, जीवन की हर ज्योति अंततः उसी लौ में समाहित हो जाती है। शिव संहार के देवता हैं न, तो इसीलिए मणिकर्णिका की ज्योति शिव की ज्योति जैसी ही है, जिसमें अंततः सभी को समाहित हो ही जाना है। इसी मणिकर्णिका के महाश्मशान में शिव होली खेलते हैं।

शमशान में होली खेलने का अर्थ समझते हैं? मनुष्य सबसे अधिक मृत्यु से भयभीत होता है। उसके हर भय का अंतिम कारण अपनी या अपनों की मृत्यु ही होती है। श्मशान में होली खेलने का अर्थ है उस भय से मुक्ति पा लेना।

शिव किसी शरीर मात्र का नाम नहीं है, शिव वैराग्य की उस चरम अवस्था का नाम है जब व्यक्ति मृत्यु की पीड़ा, भय या अवसाद से मुक्त हो जाता है। शिव होने का अर्थ है वैराग्य की उस ऊँचाई पर पहुँच जाना जब किसी की मृत्यु कष्ट न दे, बल्कि उसे भी जीवन का एक आवश्यक हिस्सा मान कर उसे पर्व की तरह खुशी खुशी मनाया जाय। शिव जब शरीर में भभूत लपेट कर नाच उठते हैं, तो समस्त भौतिक गुणों अवगुणों से मुक्त दिखते हैं। यही शिवत्व है।

शिव जब अपने कंधे पर देवी सती का शव ले कर नाच रहे थे, तब वे मोह के चरम पर थे। वे शिव थे, फिर भी शव के मोह में बंध गए थे। मोह बड़ा प्रबल होता है, किसी को नहीं छोड़ता। सामान्य जन भी विपरीत परिस्थितियों में, या अपनों की मृत्यु के समय यूँ ही शव के मोह में तड़पते हैं। शिव शिव थे, वे रुके तो उसी प्रिय पत्नी की चिता भष्म से होली खेल कर युगों युगों के लिए वैरागी हो गए। मोह के चरम पर ही वैराग्य उभरता है न। पर मनुष्य इस मोह से नहीं निकल पाता, वह एक मोह से छूटता है तो दूसरे के फंदे में फंस जाता है। शायद यही मोह मनुष्य को शिवत्व प्राप्त नहीं होने देता।

कहते हैं काशी शिव के त्रिशूल पर टिकी है। शिव की अपनी नगरी है काशी, कैलाश के बाद उन्हें सबसे अधिक काशी ही प्रिय है। शायद इसी कारण काशी एक अलग प्रकार की वैरागी ठसक के साथ जीती है।

मणिकर्णिका घाट, हरिश्चंद घाट, युगों युगों से गङ्गा के इस पावन तट पर मुक्ति की आशा ले कर देश विदेश से आने वाले लोग वस्तुतः शिव की अखण्ड ज्योति में समाहित होने ही आते हैं।

होली आ रही है। फागुन में काशी का कण कण फ़ाग गाता है, "खेले मशाने में होली दिगम्बर खेले मशाने में होली"। सच यही है कि शिव के साथ साथ हर जीव संसार के इस महाश्मशान में होली ही खेल रहा है। तबतक, तबतक उस मणिकर्णिका की ज्योति में समाहित नहीं हो जाता। संसार शमशान ही तो है।

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