"ज़िन्दगी..."जीनी" है तो
"तकलीफ तो "होगी" ही...!!वरना "मरने" के बाद तो
"जलने" का भी "एहसास" नहीं होता...
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जो समझौतावादी होता है,वह साधक नहीं हो सकता।
रावण , कुम्भकर्ण और विभीषण जब साधना करते हैं तो उनकी देवभक्ति की आराधना देख तीनों को वरदान देने शंकरजी के साथ ब्रह्माजी भी आते हैं ब्रह्मा बुद्धि के देवता हैं , विवेक के प्रतीक हैं।
ब्रह्मा और शिव चेतनतत्त्व हैं तथा हमारी व्यष्टि-चेतना की अपेक्षा ये महत् हैं, इसलिए हमारी अपेक्षा इनका विवेक श्रेष्ठ है, वह अध्यात्मवादी है। केवल देवताओं की पूजा या पाठ आदि मात्र करने से कोई व्यक्ति अध्यात्मवादी या धार्मिक नहीं हो जाता। ऐसी भ्रान्ति को मन से निकाल देना चाहिए।
तो, जब रावण ने वरदान माँगा कि हम किसी के मारे न मरें ब्रह्माजी ने आपत्ति की और कहा कि इस मर्त्यलोक में किसी को अमरता का वरदान नहीं मिल सकता। इस पर रावण ने तुरन्त कहा -- 'बानर मनुज जाति दुई बारें' -- हम बन्दर और मनुष्य को छोड़कर और किसी से न मरें। रावण सोचता है कि 'नर कपि भालु अहार हमारा' -- मनुष्य और बन्दर-भालू तो हमारे भोजन हैं। भोजन से शरीर की जान बढ़ती है। मरने की सम्भावना तो देवताओं से ही है। अगर इन लोगों से वरदान की शक्ति के द्वारा हम न मरें, तो बन्दर-भालू और मनुष्यों को तो हम स्वयं खा लेंगे और अमर हो जाएँगे। शंकरजी ने मुस्कराकर कह दिया -- “एवमस्तु”। जब वे लौटकर आए, तो पार्वतीजी ने पूछा -- “रावण ने क्या वरदान माँगा ?”
शंकरजी बोले -- “क्या बताएँ उसने अपनी मृत्यु माँगी !” -- 'राबण मरन मनुज कर जाचा'
। पार्वतीजी बोलीं -- “महाराज, साधना कोई मृत्यु के लिए करता है या अमरता के लिए ?” शंकरजी ने कहा, “यही तो दैत्यत्व है, चेष्टा करता है अमर होने की, पर उसकी यह चेष्टा ही उसे मृत्यु की ओर ले जाती है।”
तत्पश्चात् ब्रह्मा और शंकर कुम्भकर्ण के सामने गए। उसके विशाल शरीर को देख ब्रह्मा घबराए। वह यह वर माँगने का विचार कर रहा था कि हम छह महीने जागते रहें और एक दिन सोने से काम चल जाए। वह खाने-पीने का बड़ा प्रेमी था, उसने सोचा -- भोजन नींद में तो होता नहीं ; छह महीने जगेंगे तो छककर भोजन करेंगे। ब्रह्माजी को लगा --
जौं एहिं खल नित करब अहारू।
होइहि सब उजारि संसारू।।
-- जो यह दुष्ट नित्य आहार करेगा, तो सारा संसार ही उजाड़ हो जाएगा । यह भी ईश्वर का एक सुन्दर विधान है कि संसार में कई लोग तमोगुणी प्रवृत्ति के होते हैं और यदि बहुत-से लोग इकट्ठा हो जाएँ तो सब कुछ खा डालेंगे -- अपनों को खाएँगे, दूसरों को खाएँगे। यह विपत्ति देख ब्रह्माजी ने अपनी कला का थोड़ा उपयोग किया। उन्होंने सरस्वतीजी को प्रेरित किया कि कुम्भकर्ण का विचार बदल दो। सरस्वती ने वही किया, और कुम्भकर्ण ने उलटा वरदान माँग लिया कि महाराज, छह महीना सोएँ और एक दिन जागे --
सारद प्रेरि तासु मति फेरी।
मागेसि नीद मास षट केरी।।
-- रावण में यदि रजोगुण की प्रेरणा जागी, तो कुम्भकर्ण में तमोगुणी प्रेरणा का जन्म हो गया और ब्रह्माजी के लिए लोक-कल्याण की दृष्टि से यह अपेक्षित हो गया कि वे ऐसी तमोगुणी प्रवृत्ति से संसार की रक्षा करें। गोस्वामी तुलसीदासजी ने अपनी 'विनय-पत्रिका' में हमें बताया है कि रावण और कुम्भकर्ण मोह और अहंकार के प्रतीक हैं -- 'मोह दशमौलि तद् भ्रात अहँकार'।
--और मोह तथा अहंकार की प्रवृत्तियों में अन्तर है। मोह में यदि संग्रह की वृत्ति है, तो अहंकार में खाने की। अहंकारी व्यक्ति सबको खाना चाहता है। संसार में जितनी टकराहट है, वह अहंकार को -- 'मैं' को लेकर होती है। अहंकारी व्यक्ति के अहम् पर बात-बात में चोट लगती है और इसलिए वह बात-बात में लड़ उठता है। ऐसी स्थिति में उसका समाज में उठना-बैठना असम्भव हो जाता है। जो सज्जन मेरी इस पोस्ट को शांति से पढ़ रहे हैं, इसका मतलब यही है कि उनके भीतर का कुम्भकर्ण सो रहा है। यह ब्रह्माजी की हम पर कृपा है कि उन्होंने सरस्वती को प्रेरित कर कुम्भकर्ण के लिए छह महीने सोने और एक दिन जागने के वरदान की व्यवस्था कर दी। छह महीने के एक चक्र में यदि अहंकार एक दिन जागता भी है, तो ऐसा अहंकार चल सकता है।
तो, इस प्रकार रावण और कुम्भकर्ण को वरदान देकर जब ब्रह्मा और शंकर विभीषण के पास पहुँचे, और उसे वरदान माँगने के लिए कहा, तो विभीषण ने एक सत्त्वगुणी व्यक्ति के अनुरूप ही वरदान माँगा। शंकरजी विभीषण को 'पुत्र' कहकर सम्बोधित करते हैं। गोस्वामीजी कहते हैं --
गए विभीषन पास पुनि कहेउ पुत्र बर मागु।
वैसे, पुत्र तो रावण भी था, और 'कुम्भकर्ण भी। पर शंकरजी ने विभीषण को ही 'पुत्र' कहकर सम्बोधित किया, क्योंकि विभीषण एक चतुर पुत्र है। चतुर पुत्र वह है, जो पिता-की सम्पत्ति का अधिकार प्राप्त करे। शंकरजी को सम्पत्ति क्या है ? जब वे किसी पर प्रसन्न होते हैं, तो वरदान क्या देते हैं ? --
होइ अकाम जो चल तजि सेइहि।
भगति मोरी तेहि शंकर देइहि।।
-- भक्ति का। भक्ति ही शंकरजी का परमधन है। अत: इस चतुर पुत्र ने भक्ति का ही वरदान माँगा --
तेहिं मागेउ भगवंत पद कमल अमल अनुरागु।।
इस प्रकार तीनों को वरदान प्राप्त हो गया और तीनों को ब्रह्मा एवं शंकरजी के दर्शन भी हो गए। अब ऐसा लगता है कि जब विभीषण ने भक्ति का वरदान प्राप्त कर लिया, तब जीवन में उन्हें और क्या चाहिए ? पर नहीं, गोस्वामीजी की दृष्टि में अभी विभीषण का जीवन अपूर्ण ही है । वे यहीं पर साधना का तत्त्व प्रकट करते हैं। भले ही विभीषण इतनी ऊँची स्थिति में पहुँच गए थे और उन्होंने इतनी उत्कृष्ट साधना एवं तपस्या की थी, भले ही विभीषण को जो कुछ वरदान मिला वह बड़ा महत्त्वपूर्ण था, तथापि उनके जीवन में भक्ति की जैसी परिणति होनी चाहिए थी, वैसी नहीं हुई। यह ऐसी स्थिति है, जिसे हर साधक अपने जीवन में देख सकता है। भले ही साधक अपनी अत्युच्च साधना के बल पर दिव्य शक्तियों का साक्षात्कार कर ले, पर उससे उसके जीवन में परिवर्तन घटा हो यह सामान्यतया नहीं देखा जाता । इसका कारण हम विभीषण के जीवन में देख सकते हैं। ऐसी बात नहीं कि तपस्या करके वरदान लेकर लौट आने के बाद से विभीषणजी ने साधना छोड़ दी हो। बल्कि लौटकर आ आने के बाद से तीनों भाइयों की प्रवृत्ति अलग-अलग परिलक्षित हो रही है। विभीषण के लिए भगवान् का मन्दिर है। हनुमानजी जब लंका में जाते हैं; तो वे आश्चर्यचकित होकर देखते हैं कि विभीषण के लिए एक हरिमन्दिर बनाया गया है। वहाँ तुलसी के वृन्द और पुष्प लगाए गए हैं । विभीषणजी मन्दिर में भगवान् की नित्य पूजा करते हैं, माला पर जप करते हैं, किसी को कष्ट नहीं पहुँचाते। यह सब होते हुए भी उनके जीवन में जो गति थी, उसमें अवरोध उत्पन्न हो जाता है । यह प्रत्येक जीव के, साधक के जीवन का एक शाश्वत सत्य है। इसका कारण यह है कि जीव के जीवन में दुहरी प्रक्रिया चला करती है, जैसे कि लंका में जीव के तीन रूप दिखाई देते हैं -- एक है रावण, जो जाग्रत अवस्था में है और दूसरों को निरन्तर उत्पीड़ित कर रहा है। दूसरा है कुम्भकर्ण, जो सुषुप्ति में निष्क्रिय पड़ा हुआ है और जब सक्रिय होगा, तब बड़ी समस्या उत्पन्न करेगा। और तीसरा है विभीषण, जो पूजा कर रहा है। जीव ऐसी तीन प्रवृत्तियों में बँटा हुआ है और उसकी ये तीनों प्रवृत्तियाँ आपस में टकराती रहती हैं। वह जागते में कुछ व्यवहार करता हैं, स्वप्न में उसकी समस्या कुछ होती है और सुषुप्ति में वह और ही प्रकार का जीवन व्यतीत करता है। उसके भीतर का रावण जाग्रत् का दुरुपयोग करता है, कुम्भकर्ण सुषुप्ति का और विभीषण स्वप्न का। विभीषण की साधना तो तुरीय में होनी चाहिए थी, पर वह स्वप्न में होती है। आप तुरीय और स्वप्न की साधनाओं का पार्थक्य जानते ही होंगे। तुरीय-समाधि में भी दिव्य अनुभूतियाँ होती हैं और स्वप्न में भी मनुष्य विविध अनुभूतियाँ प्राप्त करता है। पर स्वप्न की एक समस्या है। कभी हमें अच्छा स्वप्न आता है, कभी बुरा। कभी स्वप्न में लगता है कि हम पूजा कर रहे हैं, मन्दिर देख रहे हैं, तो कभी स्वप्न में हम अपने को सुरापान में मत्त देखते हैं और कभी अनाचार में प्रवृत्त। इस प्रकार स्वप्न वह अवस्था है, जहाँ अपनी अनुभूतियों पर हमारा नियन्त्रण नहीं है और तुरीय वह है, जहाँ पर हमारी अनुभूतियाँ नियन्त्रित रहती हैं। साधारणत: हम ऐसी स्वप्न की अवस्था में ही जीते हैं, जहाँ हमारे अन्त:करण में अच्छाई और बुराई दोनों दिखाई देती रहती हैं, पर हमारा उन पर कोई अधिकार नहीं प्रतीत होता। विभीषण का जीवन ठीक इसी प्रकार का है। इसका तात्पर्य यह है कि जब तक जीव मोह और अहंकार का छोटा भाई बना हुआ है, मोह और अहंकार के शासन में रहकर भक्ति-पूजा या साधना करता है, तब तक वह सच्चे अर्थों में कभी भी चरम लक्ष्य तक नहीं पहुँच सकता। इसे यों कह लीजिए कि जो समझौतावादी होता है, वह साधक नहीं हो सकता।
विभीषण रावण से एक समझौता कर लेते हैं। वे सोचते हैं कि रावण भले ही संसार पर अत्याचार करता हो, पूजा-पाठ और भक्ति रोकता हो, पर वह मुझे तो कम-से-कम भक्ति और पूजा की सुविधा देता है, अत: जब रावण हमारे प्रति सहिष्णु है, तो हम भी उसके प्रति सहिष्णु बने रहें। पर यह निश्चित जान रखिए कि समझौता साधक का लक्ष्य नहीं है, वह तो विषयी का लक्ष्य है। और अगर कोई व्यक्ति साधक होने के बावजूद समझौता करता है, तो इसका अभिप्राय यह है कि वह साधक नहीं है। साधक तो लड़ता है, झगड़ा करता है। समझौतावादी तो किसी से कटुता उत्पन्न करना नहीं चाहता, वह तो बस किसी प्रकार शान्ति से जीवन बिता लेना चाहता है, उसके जीवन का कोई परम लक्ष्य नहीं होता, वह निरन्तर सबसे समझौता करता रहता है, क्योंकि उसे किसी तरह से जी भर लेना है। पर जिस व्यक्ति को जीवन में कोई लक्ष्य प्राप्त करना है, वह क्या समझौता करके चल सकता है ? कल्पना कीजिए कि एक सैनिक है, जो युद्धक्षेत्र में लड़ रहा है और एक दूसरा व्यक्ति है, जो घर में बैठा हुआ है। हमें बाहर से तो यहीं लगेगा कि घर में बैठा हुआ व्यक्ति मजे में है, क्योंकि उसे मोर्चेवाले के समान संघर्ष नहीं करना पड़ता, गोले-बारूद का सामना नहीं करना पड़ता, तथापि क्या यह भी सत्य नहीं है कि घर में बैठा हुआ व्यक्ति वस्तुत: पशु का जीवन जी रहा है ? जो संघर्ष करता है, उससे डरता या भागता नहीं, विजय उसी को तो मिला करती है। तो, साधक का रास्ता संघर्ष का रास्ता है, समझौते का नहीं, घर में चुप बैठने का नहीं। विभीषण ने रावण और कुम्भकर्ण से समझौता कर लिया। रावण उनके प्रति सहिष्णु है तो वे भी रावण के प्रति सहिष्णु हैं। वे कुम्भकर्ण को भी सह लेते हैं, क्योंकि वह छह महीने में एक ही दिन तो जागता है ! इसका अर्थ यह कि एक साधक जिसे छह महीने तक अहंकार नहीं आता और उसके बाद एक दिन आ जाता है और वह यह कहकर सन्तोष कर लेता है कि चलो, एक दिन आया तो आया, पर छह महीने तो हम अहम् से मुक्त रहे, वह साधक नहीं हैं। साधक तो वह है, जो विचार करता है कि भले ही अहंकार छह महीने नहीं आया, पर एक दिन के लिए आकर उसने कितना क्या खा डाला ।
जय श्री राम।
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