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गुरुवार, 5 मार्च 2015

शंख से उपचार स्वास्थ्य और प्रयोग| घर में आये सुख-शांति और रोगों से मुक्ति .....!

शंख से घर में आये सुख-शांति और रोगों से मुक्ति .....!

* हिन्दू धर्म में शंख को पवित्र और शुभ फलदायी माना गया है। इसलिए पूजा-पाठ में शंख बजाने का नियम है। अगर इसके धार्मिक पहलू को दरकिनार भी कर दें तो भी घर में शंख रखने और इसे नियमित तौर पर बजाने के ऐसे कई फायदे हैं जो सीधे तौर पर हमारी सेहत और घर की सुख-शांति से जुड़े हैं।
उपचार स्वास्थ्य और प्रयोग



* ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार, शंख चंद्रमा और सूर्य के समान ही देवस्वरूप है। इसके मध्य में वरुण, पृष्ठ भाग में ब्रह्मा और अग्र भाग में गंगा और सरस्वती का निवास है। शंख से शिवलिंग, कृष्ण या लक्ष्मी विग्रह पर जल या पंचामृत अभिषेक करने पर देवता प्रसन्न होते हैं। कल्याणकारी शंख दैनिक जीवन में दिनचर्या को कुछ समय के लिए विराम देकर मौन रूप से देव अर्चना के लिए प्रेरित करता है। यह भारतीय संस्कृति की धरोहर है। विज्ञान के अनुसार शंख समुद्र में पाए जाने वाले एक प्रकार के घोंघे का खोल है जिसे वह अपनी सुरक्षा के लिए बनाता है। समुद्री प्राणी का खोल शंख कितना चमत्कारी हो सकता है।

* हिन्दू धर्म में पूजा स्थल पर शंख रखने की परंपरा है क्योंकि शंख को सनातन धर्म का प्रतीक माना जाता है। शंख निधि का प्रतीक है। ऐसा माना जाता है कि इस मंगलचिह्न को घर के पूजास्थल में रखने से अरिष्टों एवं अनिष्टों का नाश होता है और सौभाग्य की वृद्धि होती है। स्वर्गलोक में अष्टसिद्धियों एवं नवनिधियों में शंख का महत्त्वपूर्ण स्थान है। हिन्दू धर्म में शंख का महत्त्व अनादि काल से चला आ रहा है। शंख का हमारी पूजा से निकट का सम्बन्ध है।

* कहा जाता है कि शंख का स्पर्श पाकर जल गंगाजल के सदृश पवित्र हो जाता है। मन्दिर में शंख में जल भरकर भगवान की आरती की जाती है। आरती के बाद शंख का जल भक्तों पर छिड़का जाता है जिससे वे प्रसन्न होते हैं। जो भगवान कृष्ण को शंख में फूल, जल और अक्षत रखकर उन्हें अर्ध्य देता है, उसको अनन्त पुण्य की प्राप्ति होती है।

* शंख में जल भरकर ऊँ नमोनारायण का उच्चारण करते हुए भगवान को स्नान कराने से पापों का नाश होता है।

* धार्मिक कृत्यों में शंख का उपयोग किया जाता है। पूजा-आराधना, अनुष्ठान-साधना, आरती, महायज्ञ एवं तांत्रिक क्रियाओं के साथ शंख का वैज्ञानिक एवं आयुर्वेदिक महत्त्व भी है।

* हिन्दू मान्यता के अनुसार कोई भी पूजा, हवन, यज्ञ आदि शंख के उपयोग के बिना पूर्ण नहीं माना जाता है। कुछ गुह्य साधनाओं में इसकी अनिवार्यता होती है। शंख साधक को उसकी इच्छित मनोकामना पूर्ण करने में सहायक होते हैं तथा जीवन को सुखमय बनाते हैं। शंख को विजय, समृद्धि, सुख, यश, कीर्ति तथा लक्ष्मी का प्रतीक माना गया है। वैदिक अनुष्ठानों एवं तांत्रिक क्रियाओं में भी विभिन्न प्रकार के शंखों का प्रयोग किया जाता है।

* शंख कई प्रकार के होते हैं और सभी प्रकारों की विशेषता एवं पूजन-पद्धति भिन्न-भिन्न है। उच्च श्रेणी के श्रेष्ठ शंख कैलाश मानसरोवर, मालद्वीप, लक्षद्वीप, कोरामंडल द्वीप समूह, श्रीलंका एवं भारत में पाये जाते हैं। शंख की आकृति (उदर) के आधार पर इसके प्रकार माने जाते हैं।

* ये तीन प्रकार के होते हैं - दक्षिणावृत्ति शंख, मध्यावृत्ति शंख तथा वामावृत्ति शंख। जो शंख दाहिने हाथ से पकड़ा जाता है, वह दक्षिणावृत्ति शंख कहलाता है। जिस शंख का मुँह बीच में खुलता है, वह मध्यावृत्ति शंख होता है तथा जो शंख बायें हाथ से पकड़ा जाता है, वह वामावृत्ति शंख कहलाता है।

* शंख का उदर दक्षिण दिशा की ओर हो तो दक्षिणावृत्त और जिसका उदर बायीं ओर खुलता हो तो वह वामावृत्त शंख है। मध्यावृत्ति एवं दक्षिणावृति शंख सहज रूप से उपलब्ध नहीं होते हैं। इनकी दुर्लभता एवं चमत्कारिक गुणों के कारण ये अधिक मूल्यवान होते हैं। इनके अलावा लक्ष्मी शंख, गोमुखी शंख, कामधेनु शंख, विष्णु शंख, देव शंख, चक्र शंख, पौंड्र शंख, सुघोष शंख, गरुड़ शंख, मणिपुष्पक शंख, राक्षस शंख, शनि शंख, राहु शंख, केतु शंख, शेषनाग शंख, कच्छप शंख आदि प्रकार के होते हैं। हिन्दुओं के 33 करोड़ देवता हैं। सबके अपने- अपने शंख हैं। देव-असुर संग्राम में अनेक तरह के शंख निकले, इनमे कई सिर्फ़ पूजन के लिए होते है।

* समुद्र मंथन के समय देव- दानव संघर्ष के दौरान समुद्र से 14 अनमोल रत्नों की प्राप्ति हुई। जिनमें आठवें रत्न के रूप में शंखों का जन्म हुआ।

* जिनमें सर्वप्रथम पूजित देव गणेश के आकर के गणेश शंख का प्रादुर्भाव हुआ जिसे गणेश शंख कहा जाता है। इसे प्रकृति का चमत्कार कहें या गणेश जी की कृपा की इसकी आकृति और शक्ति हू-ब-हू गणेश जी जैसी है। गणेश शंख प्रकृति का मनुष्य के लिए अनूठा उपहार है। निशित रूप से वे व्यक्ति परम सौभाग्यशाली होते हैं जिनके पास या घर में गणेश शंख का पूजन दर्शन होता है। भगवान गणेश सर्वप्रथम पूजित देवता हैं। इनके अनेक स्वरूपों में यथा- विघ्न नाशक गणेश, दरिद्रतानाशक गणेश, कर्ज़ मुक्तिदाता गणेश, लक्ष्मी विनायक गणेश, बाधा विनाशक गणेश, शत्रुहर्ता गणेश, वास्तु विनायक गणेश, मंगल कार्य गणेश आदि- आदि अनेकों नाम और स्वरुप गणेश जी के जन सामान्य में व्याप्त हैं। गणेश जी की कृपा से सभी प्रकार की विघ्न- बाधा और दरिद्रता दूर होती है।

* जहाँ दक्षिणावर्ती शंख का उपयोग केवल और केवल लक्ष्मी प्राप्ति के लिए किया जाता है। वही श्री गणेश शंख का पूजन जीवन के सभी क्षेत्रों की उन्नति और विघ्न बाधा की शांति हेतु किया जाता है। इसकी पूजा से सकल मनोरथ सिद्ध होते है। गणेश शंख आसानी से नहीं मिलने के कारण दुर्लभ होता है। सौभाग्य उदय होने पर ही इसकी प्राप्ति होती है।

*  आर्थिक, व्यापारिक और पारिवारिक समस्याओं से मुक्ति पाने का श्रेष्ठ उपाय श्री गणेश शंख है। अपमान जनक कर्ज़ बाधा इसकी स्थापना से दूर हो जाती है। इस शंख की आकृति भगवान गणपति के सामान है। शंख में निहित सूंड का रंग अद्भुत प्राकृतिक सौन्दर्य युक्त है। प्रकृति के रहस्य की अनोखी झलक गणेश शंख के दर्शन से मिलती है। विधिवत सिद्ध और प्राण प्रतिष्ठित गणेश शंख की स्थापना चमत्कारिक अनुभूति होती ही है। किसी भी बुधवार को प्रातः स्नान आदि से निवृत्ति होकर विधिवत प्राण प्रतिष्ठित श्री गणेश शंख को अपने घर या व्यापार स्थल के पूजा घर में रख कर धूप- दीप पुष्प से संक्षिप्त पूजन करके रखें। ये अपने आप में चैतन्य शंख है। इसकी स्थापना मात्र से ही गणेश कृपा की अनुभूति होने लगाती है। इसके सम्मुख नित्य धूप- दीप जलना ही पर्याप्त है किसी जटिल विधि- विधान से पूजा करने की जरुरत नहीं है।

महालक्ष्मी शंख :-
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इसका आकार श्री यंत्र क़ी भांति होता है। इसे प्राक्रतिक श्री यंत्र भी माना जाता है। जिस घर में इसकी पूजा विधि विधान से होती है वहाँ स्वयं लक्ष्मी जी का वाश होता है। इसकी आवाज़ सुरीली होती है। विद्या क़ी देवी सरस्वती भी शंख धारण करती है। वे स्वयं वीणा शंख कि पूजा करती है। माना जाता है कि इसकी पूजा वा इसके जल को पीने से मंद बुद्धि व्‍यक्ति भी ज्ञानी हो जाता है।



दक्षिणावर्ती शंख:-
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स्वयं भगवान विष्णु अपने दाहिने हाथ में दक्षिणावर्ती शंख धारण करते है। पुराणों के अनुसार समुद्र मंथन के समय यह शंख निकला था। जिसे स्वयं भगवान विष्णु जी ने धारण किया था। यह ऐसा शंख है जिसे बजाया नहीं जाता, इसे सर्वाधिक शुभ माना जाता है।

शंख की उत्पत्ति:-
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शंख की उत्पत्ति संबंधी पुराणों में एक कथा वर्णित है। सुदामा नामक एक कृष्ण भक्त पार्षद राधा के शाप से शंखचूड़ दानवराज होकर दक्ष के वंश में जन्मा। अन्त में [विष्णु] ने इस दानव का वध किया। शंखचूड़ के वध के पश्चात्‌ सागर में बिखरी उसकी अस्थियों से शंख का जन्म हुआ और उसकी आत्मा राधा के शाप से मुक्त होकर गोलोक वृंदावन में श्रीकृष्ण के पास चली गई।

*भारतीय धर्मशास्त्रों में शंख का विशिष्ट एवं महत्त्वपूर्ण स्थान है। मान्यता है कि इसका प्रादुर्भाव समुद्र-मंथन से हुआ था। समुद्र-मंथन से प्राप्त 14 रत्नों में से छठवां रत्न शंख था। अन्य 13 रत्नों की भांति शंख में भी वही अद्भुत गुण मौजूद थे। विष्णु पुराण के अनुसार माता लक्ष्मी समुद्रराज की पुत्री हैं तथा शंख उनका सहोदर भाई है। अत यह भी मान्यता है कि जहाँ शंख है, वहीं लक्ष्मी का वास होता है।

* इन्हीं कारणों से शंख की पूजा भक्तों को सभी सुख देने वाली है। शंख की उत्पत्ति के संबंध में हमारे धर्म ग्रंथ कहते हैं कि सृष्टी आत्मा से, आत्मा आकाश से, आकाश वायु से, वायु आग से, आग जल से और जल पृथ्वी से उत्पन्न हुआ है और इन सभी तत्व से मिलकर शंख की उत्पत्ति मानी जाती है।

* भागवत पुराण के अनुसार, संदीपन ऋषि आश्रम में श्रीकृष्ण ने शिक्षा पूर्ण होने पर उनसे गुरु दक्षिणा लेने का आग्रह किया। तब ऋषि ने उनसे कहा कि समुद्र में डूबे मेरे पुत्र को ले आओ। कृष्ण ने समुद्र तट पर शंखासुर को मार गिराया। उसका खोल शेष रह गया। माना जाता है कि उसी से शंख की उत्पत्ति हुई। पांचजन्य शंख वही था।

* पौराणिक कथाओं के अनुसार, शंखासुर नामक असुर को मारने के लिए श्री विष्णु ने मत्स्यावतार धारण किया था। शंखासुर के मस्तक तथा कनपटी की हड्डी का प्रतीक ही शंख है। उससे निकला स्वर सत की विजय का प्रतिनिधित्व करता है।

* शिव पुराण के अनुसार शंखचूड नाम का महापराक्रमी दैत्य हुआ। शंखचूड दैत्यराम दंभ का पुत्र था। दैत्यराज दंभ को जब बहुत समय तक कोई संतान उत्पन्न नहीं हुई तब उसने विष्णु के लिए घोर तप किया और तप से प्रसन्न होकर विष्णु प्रकट हुए। विष्णु ने वर मांगने के लिए कहा तब दंभ ने एक महापराक्रमी तीनों लोको के लिए अजेय पुत्र का वर मांगा और विष्णु तथास्तु बोलकर अंतध्र्यान हो गए। तब दंभ के यहां शंखचूड का जन्म हुआ और उसने पुष्कर में ब्रह्मा की घोर तपस्या कर उन्हें प्रसन्न कर लिया। ब्रह्मा ने वर मांगने के लिए कहा और शंखचूड ने वर मांगा कि वो देवताओं के लिए अजेय हो जाए। ब्रह्मा ने तथास्तु बोला और उसे श्री कृष्ण कवच दिया फिर वे अंतध्र्यान हो गए। जाते-जाते ब्रह्मा ने शंखचूड को धर्मध्वज की कन्या तुलसी से विवाह करने की आज्ञा दी। ब्रह्मा की आज्ञा पाकर तुलसी और शंखचूड का विवाह हो गया। ब्रह्मा और विष्णु के वर के मद में चूर दैत्यराज शंखचूड ने तीनों लोकों पर स्वामित्व स्थापित कर लिया। देवताओं ने त्रस्त होकर विष्णु से मदद मांगी परंतु उन्होंने खुद दंभ को ऐसे पुत्र का वरदान दिया था अत: उन्होंने शिव से प्रार्थना की। तब शिव ने देवताओं के दुख दूर करने का निश्चय किया और वे चल दिए। परंतु श्रीकृष्ण कवच और तुलसी के पतिव्रत धर्म की वजह से शिवजी भी उसका वध करने में सफल नहीं हो पा रहे थे तब विष्णु से ब्राह्मण रूप बनाकर दैत्यराज से उसका श्रीकृष्ण कवच दान में ले लिया और शंखचूड का रूप धारण कर तुलसी के शील का अपहरण कर लिया। अब शिव ने शंखचूड को अपने त्रिशूल से भस्म कर दिया और उसकी हड्डियों से शंख का जन्म हुआ। चूंकि शंखचूड विष्णु भक्त था अत: लक्ष्मी-विष्णु को शंख का जल अति प्रिय है और सभी देवताओं को शंख से जल चढ़ाने का विधान है। परंतु शिव ने चूंकि उसका वध किया था अत: शंख का जल शिव को निषेध बताया गया है। इसी वजह से शिवजी को शंख से जल नहीं चढ़ाया जाता है।

* प्राचीन काल से ही प्रत्येक घर में पूजा-वेदी पर शंख की स्थापना की जाती है। निर्दोष एवं पवित्र शंख को दीपावली, होली, महाशिवरात्रि, नवरात्र, रवि-पुष्य, गुरु-पुष्य नक्षत्र आदि शुभ मुहूर्त में विशिष्ट कर्मकांड के साथ स्थापित किया जाता है। रुद्र, गणेश, भगवती, विष्णु भगवान आदि के अभिषेक के समान शंख का भी गंगाजल, दूध, घी, शहद, गुड़, पंचद्रव्य आदि से अभिषेक किया जाता है। इसका धूप, दीप, नैवेद्य से नित्य पूजन करना चाहिए और लाल वस्त्र के आसन में स्थापित करना चाहिए।

* शंखराज सबसे पहले वास्तु-दोष दूर करते हैं। मान्यता है कि शंख में कपिला (लाल) गाय का दूध भरकर भवन में छिड़काव करने से वास्तुदोष दूर होते हैं। परिवार के सदस्यों द्वारा आचमन करने से असाध्य रोग एवं दुःख-दुर्भाग्य दूर होते हैं। विष्णु शंख को दुकान, ऑफिस, फैक्टरी आदि में स्थापित करने पर वहाँ के वास्तु-दोष दूर होते हैं तथा व्यवसाय आदि में लाभ होता है। शंख की स्थापना से घर में लक्ष्मी का वास होता है।

* स्वयं माता लक्ष्मी कहती हैं कि शंख उनका सहोदर भ्राता है। शंख, जहाँ पर होगा, वहाँ वे भी होंगी। देव प्रतिमा के चरणों में शंख रखा जाता है। पूजास्थली पर दक्षिणावृत्ति शंख की स्थापना करने एवं पूजा-आराधना करने से माता लक्ष्मी का चिरस्थायी वास होता है। इस शंख की स्थापना के लिए नर-मादा शंख का जोड़ा होना चाहिए। गणेश शंख में जल भरकर प्रतिदिन गर्भवती नारी को सेवन कराने से संतान गूंगेपन, बहरेपन एवं पीलिया आदि रोगों से मुक्त होती है। अन्नपूर्णा शंख की व्यापारी व सामान्य वर्ग द्वारा अन्नभंडार में स्थापना करने से अन्न, धन, लक्ष्मी, वैभव की उपलब्धि होती है। मणिपुष्पक एवं पांचजन्य शंख की स्थापना से भी वास्तु-दोषों का निराकरण होता है। शंख का तांत्रिक-साधना में भी उपयोग किया जाता है। इसके लिए लघु शंखमाला का प्रयोग करने से शीघ्र सिद्धि प्राप्त होती है।

आइये जानें शंख बजाने और इसके इस्तेमाल के फायदे:-
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* शंख का महत्त्व धार्मिक दृष्टि से ही नहीं, वैज्ञानिक रूप से भी है। वैज्ञानिकों का मानना है कि शंख-ध्वनि के प्रभाव में सूर्य की किरणें बाधक होती हैं। अतः प्रातः व सायंकाल में जब सूर्य की किरणें निस्तेज होती हैं, तभी शंख-ध्वनि करने का विधान है। इससे आसपास का वातावरण तता पर्यावरण शुद्ध रहता है। आयुर्वेद के अनुसार शंखोदक भस्म से पेट की बीमारियाँ, पीलिया, कास प्लीहा यकृत, पथरी आदि रोग ठीक होते हैं।

* तंत्र शास्त्र के अनुसार सीधे हाथ की तरफ खुलने वाले शंख को यदि पूर्ण विधि-विधान के साथ करके इस शंख को लाल कपड़े में लपेटकर अपने घर में अलग- अलग स्थान पर रखने से विभिन्न परेशानियों का हल हो सकता है। दक्षिणावर्ती शंख को तिज़ोरी मे रखा जाए तो घर में सुख-समृद्धि बढ़ती है। इसलिए घर में शंख रखा जाना शुभ माना जाता है।

* लक्ष्मी के हाथ में जो शंख होता है वो दक्षिणावर्ती अर्थात सीधे हाथ की तरफ खुलने वाले होते हैं। वामावर्ती शंख को जहां विष्णु का स्वरुप माना जाता है और दक्षिणावर्ती शंख को लक्ष्मी का स्वरुप माना जाता है। दक्षिणावृत्त शंख घर में होने पर लक्ष्मी का घर में वास रहता है।

* वर्तमान समय में वास्तु-दोष के निवारण के लिए जिन चीज़ों का प्रयोग किया जाता है, उनमें से यदि शंख आदि का उपयोग किया जाए तो कई प्रकार के लाभ हो सकते हैं। यह न केवल वास्तु-दोषों को दूर करता है, बल्कि आरोग्य वृद्धि, आयुष्य प्राप्ति, लक्ष्मी प्राप्ति, पुत्र प्राप्ति, पितृ-दोष शांति, विवाह में विलंब जैसे अनेक दोषों का निराकरण एवं निवारण भी करता है।

* मान्यता है कि छोटे-छोटे बच्चों के शरीर पर छोटे-छोटे शंख बाँधने तथा शंख में जल भरकर अभिमंत्रित करके पिलाने से वाणी-दोष नहीं रहता है। बच्चा स्वस्थ रहता है। पुराणों में उल्लेख मिलता है कि मूक एवं श्वास रोगी हमेशा शंख बजायें तो बोलने की शक्ति पा सकते हैं।

*शंख के जल से शालीग्राम को स्नान कराएं और फिर उस जल को यदि गर्भवती स्त्री को पिलाया जाए तो पैदा होने वाला शिशु पूरी तरह स्वस्थ होता है। साथ ही बच्चा कभी मूक या हकला नहीं होता। यदि कोई बोलने में असमर्थ है या उसे हकलेपन का दोष है तो शंख बजाने से ये दोष दूर होते हैं। शंख बजाने से कई तरह के फेफड़ों के रोग दूर होते हैं जैसे दमा, कास प्लीहा यकृत और इन्फ्लून्जा आदि रोगों में शंख ध्वनि फायदा पहुंचाती है। रूक-रूक कर बोलने व हकलाने वाले यदि नित्य शंख-जल का पान करें, तो उन्हें आश्चर्यजनक लाभ मिलेगा। दरअसल मूकता व हकलापन दूर करने के लिए शंख-जल एक महौषधि है।

* शंखों में भी विशेष शंख जिसे दक्षिणावर्ती शंख कहते हैं इस शंख में दूध भरकर शालीग्राम का अभिषेक करें। फिर इस दूध को निरूसंतान महिला को पिलाएं। इससे उसे शीघ्र ही संतान का सुख मिलता है।

* 1928 में बर्लिन यूनिवर्सिटी ने शंख ध्वनि का अनुसंधान करके यह सिद्ध किया कि इसकी ध्वनि कीटाणुओं को नष्ट करने कि उत्तम औषधि है।

*  माना जाता है कि पूजा-पाठ में शंख बजाने से शरीर और आसपास का वातावरण शुद्घ होता है और सतोगुण की वृद्घि होती है, जो मनुष्य के विकास में सहायक होता है।

*  जहां तक शंख की आवाज जाती है, इसे सुनकर लोगों के मन में सकारात्मक विचार पैदा होते हैं और वे पूजा-अर्चना के लिए प्रेरित होते हैं। ऐसी मान्यता है कि शंख की पूजा से हमारी कामनाएं पूरी होती हैं।

*  चूंकि माता लक्ष्मी और भगवान विष्णु, दोनों ही अपने हाथों में शंख को धारण करते हैं, लिहाजा शंख को बेहद शुभ माना जाता है। साथ ही ऐसी मान्यता है कि जिस घर में शंख होता है, वहां लक्ष्मी का वास होता है और दिनोंदिन उन्नति होती है।

* शंख बजाने से फेफड़े का व्यायाम होता है और स्वास्थ्य पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है। खासतौर पर श्वास के रोगी के लिए यह बेहद असरदार माना गया है। आयुर्वेद के अनुसार शंख बजाने से दमा, यकृत और इन्फ़्लुएन्ज़ा जैसी बीमारियां भी दूर होती हैं।

* पूजा के समय शंख में जल भरकर देवस्थान में रखने और उस जल से पूजन सामग्री धोने और घर के आस-पास छिड़कने से वातावरण शुद्ध रहता है। क्योकि शंख के जल में कीटाणुओं को नष्ट करने की अद्भूत शक्ति होती है। साथ ही शंख में रखा पानी पीना स्वास्थ्य और हमारी हड्डियों, दांतों के लिए बहुत लाभदायक है। शंख में गंधक, फास्फोरस और कैल्शियम जैसे उपयोगी पदार्थ मौजूद होते हैं। इससे इसमें मौजूद जल सुवासित और रोगाणु रहित हो जाता है। इसीलिए शास्त्रों में इसे महाऔषधि माना जाता है।

* शंख में जल रखने और इसे छिड़कने से वातावरण शुद्ध होता है। शंख में कैल्श‍ियम और फॉस्फोरस के गुण मौजूद होते हैं। लिहाजा शंख में रखे पानी के सेवन से हड्डियां मजबूत होती हैं।

* प्रयोग के लिए कुछ दिन के लिए शंख को घर में लाये और उपरोक्त नियम-अनुसार लाभ प्राप्त करे .

होली रंगों का त्यौहार के बारे में वैज्ञानिक और कुछ मान्यताये .....!



होली रंगों का त्यौहार के बारे में वैज्ञानिक और कुछ मान्यताये .....!
* हमें अपने पूर्वजों का शुक्रगुजार होना चाहिए कि उन्होंने वैज्ञानिक दृष्टि से बेहद उचित समय पर होली का त्योहार मनाने की शुरूआत की। लेकिन होली के त्योहार की मस्ती इतनी अधिक होती है कि लोग इसके वैज्ञानिक कारणों से अंजान रहते हैं।

* होली का त्योहार न केवल मौज-मस्ती, सामुदायिक सद्भाव और मेल-मिलाप का त्योहार है बल्कि इस त्योहार को मनाने के पीछे कई वैज्ञानिक कारण भी हैं जो न केवल पर्यावरण को बल्कि मानवीय सेहत के लिए भी गुणकारी हैं।

* होली का त्योहार साल में ऐसे समय पर आता है जब मौसम में बदलाव के कारण लोग उनींदे और आलसी से होते हैं। ठंडे मौसम के गर्म रूख अख्तियार करने के कारण शरीर का कुछ थकान और सुस्ती महसूस करना प्राकृतिक है। शरीर की इस सुस्ती को दूर भगाने के लिए ही लोग फाग के इस मौसम में न केवल जोर से गाते हैं बल्कि बोलते भी थोड़ा जोर से हैं। इस मौसम में बजाया जाने वाला संगीत भी बेहद तेज होता है। ये सभी बातें मानवीय शरीर को नई ऊर्जा प्रदान करती हैं। इसके अतिरिक्त रंग और अबीर (शुद्ध रूप में) जब शरीर पर डाला जाता है तो इसका उस पर अनोखा प्रभाव होता है।

* होली पर शरीर पर ढाक के फूलों से तैयार किया गया रंगीन पानी, विशुद्ध रूप में अबीर और गुलाल डालने से शरीर पर इसका सुकून देने वाला प्रभाव पड़ता है और यह शरीर को ताजगी प्रदान करता है। जीव वैज्ञानिकों का मानना है कि गुलाल या अबीर शरीर की त्वचा को उत्तेजित करते हैं और पोरों में समा जाते हैं और शरीर के आयन मंडल को मजबूती प्रदान करने के साथ ही स्वास्थ्य को बेहतर करते हैं और उसकी सुदंरता में निखार लाते हैं।

* होली का त्योहार मनाने का एक और वैज्ञानिक कारण है। हालाँकि यह होलिका दहन की परंपरा से जुड़ा है। शरद ऋतु की समाप्ति और बसंत ऋतु के आगमन का यह काल पर्यावरण और शरीर में बैक्टीरिया की वृद्धि को बढ़ा देता है लेकिन जब होलिका जलाई जाती है तो उससे करीब 145 डिग्री फारेनहाइट तक तापमान बढ़ता है। परंपरा के अनुसार जब लोग जलती होलिका की परिक्रमा करते हैं तो होलिका से निकलता ताप शरीर और आसपास के पर्यावरण में मौजूद बैक्टीरिया को नष्ट कर देता है। और इस प्रकार यह शरीर तथा पर्यावरण को स्वच्छ करता है। दक्षिण भारत में जिस प्रकार होली मनाई जाती है, उससे यह अच्छे स्वस्थ को प्रोत्साहित करती है। होलिका दहन के बाद इस क्षेत्र में लोग होलिका की बुझी आग की राख को माथे पर विभूति के तौर पर लगाते हैं और अच्छे स्वास्थ्य के लिए वे चंदन तथा हरी कोंपलों और आम के वृक्ष के बोर को मिलाकर उसका सेवन करते हैं।


* कुछ वैज्ञानिकों का यह भी मानना है कि रंगों से खेलने से स्वास्थ्य पर इनका सकारात्मक प्रभाव पड़ता है क्योंकि रंग हमारे शरीर तथा मानसिक स्वास्थ्य पर कई तरीके से असर डालते हैं। पश्चिमी फीजिशियन और डॉक्टरों का मानना है कि एक स्वस्थ शरीर के लिए रंगों का महत्वपूर्ण स्थान है। हमारे शरीर में किसी रंग विशेष की कमी कई बीमारियों को जन्म देती है और जिनका इलाज केवल उस रंग विशेष की आपूर्ति करके ही किया जा सकता है। होली के मौके पर लोग अपने घरों की भी साफ-सफाई करते हैं जिससे धूल गर्द, मच्छरों और अन्य कीटाणुओं का सफाया हो जाता है। एक साफ-सुथरा घर आमतौर पर उसमें रहने वालों को सुखद अहसास देने के साथ ही सकारात्मक ऊर्जा भी प्रवाहित करता है।

होलिका दहन व पूजन आदि निम्न प्रकार से करना चाहिए:-
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* होलाष्टक के पहले दिन किसी पेड़ की शाखा को काटकर उस पर रंग-बिरंगे कपड़े के टुकड़े बांधे जाते हैं। मोहल्ले, गांव या नगर के प्रत्येक व्यक्ति को उस शाखा पर एक वस्त्र का टुकड़ा बांधना होता है। पेड़ की शाखा जब वस्त्र के टुकड़ों से पूरी तरह ढंक जाती है, तब इसे किसी सार्वजनिक स्थान पर गाड़ दिया जाता है। शाखा को इस तरह गाड़ा जाता है कि वह आधे से ज्यादा जमीन के ऊपर रहे। फिर इस शाखा के चारों ओर सभी समुदाय के व्यक्ति गोल घेरा बनाकर नाचते-गाते हुए घूमते हैं। इस दौरान अर्थात घूमते-घूमते एक-दूसरे पर रंग-गुलाल, अबीर आदि डालकर प्रेम और मित्रता का वातावरण उत्पन्न किया जाता है। होलाष्टक के आखिरी दिन यानी फागुन पूर्णिमा को मुख्य त्योहार होली मनाया जाता है।

* मुख्य त्योहार यानी फागुन पूर्णिमा को अर्धरात्रि के बाद घास-फूस, लकड़ियों, कंडों तथा गोबर की बनाई हुई विशेष आकृतियों (गूलेरी या बड़गुले) को सुखाकर एक स्थान पर ढेर लगाया जाता है। इसी ढेर को होलिका कहा जाता है। इसके बाद मुहूर्त के अनुसार होलिका का पूजन किया जाता है।

* अलग- अलग क्षेत्र व समाज की अलग-अलग पूजन विधियां होती हैं। अतः होलिका का पूजन अपनी पारंपरिक पूजा पद्धति के आधार पर ही करना चाहिए। आठ पूरियों से बनी अठावरी व होली के लिए बने मिष्ठान  आदि से भी पूजा होती है।

होलिका पूजन के समय निम्न मंत्र का उच्चारण करना चाहिए :-

"अहकूटा भयत्रस्तैः कृता त्वं होलि बालिशैः ।
अतस्वां पूजयिष्यामि भूति-भूति प्रदायिनीम्‌ ॥"

* घरों में गोबर की बनी गूलरी की मालाओं से निर्मित होली का पूजन भी इसी प्रकार होता है। कुछ स्थानों पर होली को दीवार पर चित्रित कर या होली का पाना चिपकाकर पूजा की जाती है। यह लोक परंपरा के अंतर्गत आता है।

* पूजन के पश्चात होलिका का दहन किया जाता है। यह दहन सदैव उस समय करना चाहिए जब भद्रा लग्न न हो। ऐसी मान्यता है कि भद्रा लग्न में होलिका दहन करने से अशुभ परिणाम आते हैं, देश में विद्रोह, अराजकता आदि का माहौल पैदा होता है। इसी प्रकार चतुर्दशी, प्रतिपदा अथवा दिन में भी होलिका दहन करने का विधान नहीं है।

* दहन के दौरान गेहूँ की बाल को इसमें सेंकना चाहिए। ऐसा माना जाता है कि होलिका दहन के समय बाली सेंककर घर में फैलाने से धन-धान्य में वृद्धि होती है। दूसरी ओर यह त्योहार नई फसल के उल्लास में भी मनाया जाता है।

* होलिका दहन के पश्चात उसकी जो राख निकलती है, जिसे होली-भस्म कहा जाता है, उसे शरीर पर लगाना चाहिए।

भस्म लगाते समय निम्न मंत्र का उच्चारण करना चाहिए :-

वंदितासि सुरेन्द्रेण ब्रम्हणा शंकरेण च ।
अतस्त्वं पाहि माँ देवी! भूति भूतिप्रदा भव ॥

ऐसी मान्यता है कि जली हुई होली की गर्म राख घर में समृद्धि लाती है। साथ ही ऐसा करने से घर में शांति और प्रेम का वातावरण निर्मित होता है।

नवविवाहिता क्यों नहीं देखती होली :-
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* नववधू को होलिका दहन की जगह से दूर रहना चाहिए। विवाह के पश्चात नववधू को होली के पहले त्योहार पर सास के साथ रहना अपशकुन माना जाता है और इसके पीछे मान्यता यह है कि होलिका (दहन) मृत संवत्सर की प्रतीक है। अतः नवविवाहिता को मृत को जलते हुए देखना अशुभ है।

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