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रविवार, 23 सितंबर 2012

फेसबुक का जनक एक भारतीय है...

सोशियल वेबवाइट एफबी यानी फेसबुक के यूजर्स में से एक फीसदी लोगों को यह पता नहीं होगा कि इसके फाउंडर मार्क जुकरबर्ग नहीं बल्कि अप्रवासी भारतीय दिव्य नरेंद्र है। मार्क ने तो उनके आइडिए को कॉपी करके एफबी बनाई थी।

भारतीय"बिना फेसबुक जिंदगी बेनूर"आज के युवाओं सोशियल वेबसाइट फेसबुक के पति कुछ ऎसा ही नजरिया रखते हैं। यही वजह है कि दुनिया की सबसे फेवरेट साइट्स में एफबी (फेसबुक) का नाम शुमार है। इसके फाउंडर के तौर पर मार्क जुकरबर्ग को दुनिया में ऎसी अनोखी प्रतिभा का धनी मान लिया गया है, जिन्होंने कॉलेज के दिनों में ही ऎसा कालजयी आविष्कार कर दिखाया।

उनके जीवन पर फिल्म भी बन चुकी है, जिसने सफलता के झंडे गाड़े हैं। लेकिन फेसबुक की असली सच्चाई जानकर आपको खासी हैरानी हो सकती है और खुशी भी। फेसबुक के असली निर्माता मार्क जुकरबर्ग नहीं बल्कि अप्रावासी भारतीय दिव्य नरेंद्र हैं, जिनके आइडिए को कॉपी कर मार्क ने फेसबुक बना डाली और दुनिया में शोहरत हासिल कर ली। फेसबुक के पीछे के इंडियन फेस को आइए जानें करीब से। महज 29 साल के दिव्य नरेंद्र अमरीका में रहने वाले अप्रावासी भारतीय हैं। उनके माता-पिता काफी समय पहले से अमरीका में ही आ बसे हैं। दिव्य का जन्म 18 मार्च 1982 को न्यूयार्क में हुआ था। जाहिर है कि दिव्य के पास भी अमरीकी नागरिकता है। उनके डॉक्टर पिता बेटे को भी डॉक्टर बनाना चाहते थे, लेकिन दिव्य इसके लिए तैयार नहीं थे। उनका सपना तो था उद्यमी बनने का। अपने दम पर दुनिया को कुछ कर दिखाने का। मार्क जुकरबर्ग ने फेसबुक को अपना बताकर दुनियाभर में विस्तार शुरू किया तो हंगामा हो गया। दिव्य और उनके दोस्तों ने कोर्ट में उनके खिलाफ केस ठोक दिया। दिव्य का कहना था कि यह उनका आइडिया था। जुकरबर्ग को कहीं फ्रेम में थे ही नहीं। बाद में उन्होंने दिव्य और दोस्तों के आइडिए को कॉपी कर फेसबुक शुरू कर दी। अमरीकी कोर्ट ने पूरे मामले की गहन सुनवाई की। कोर्ट ने इसके बाद दिव्य के दावे को सही पाया और जुकरबर्ग को आदेश दिया कि वे हर्जाने के तौर पर दिव्य और उनके दोस्तों को 650 लाख डालर की राशि अदा करें। जाहिर सी बात है कि दिव्य इससे संतुष्ट नहीं थे। उनका कहना था कि हर्जाने का राशि फेसबुक की मौजूदा बाजार कीमत के आधार पर तय की जानी चाहिए। हाल ही में गोल्डमैन स्नैच ने फेसबुक की बाजार कीमत 50 बिलियन डॉलर आंकी थी। उन्होंने एक बार फिर मुकदमा दायर किया, लेकिन अमरीकी कोर्ट ने पिछले फैसले को ही बरकरार रखा। अमरीकी कोर्ट के फैसले के आईने में देखा जाए तो जो प्रसिद्धि आज मार्क जुकरबर्ग को मिली है, उसके सही हकदार दिव्य नरेंद्र थे।
फेसबुक का जन्म असल में हार्वर्ड कनेक्शन नाम की सोशल साइट के डिजाइन के दौरान हुआ था। दिव्य इस प्रोजेक्ट पर काम कर रहे थे और काफी आगे बढ़ चुके थे। लंबे समय बाद जुकरबर्ग एक मौखिक समझौते के आधार पर इस प्रोजेक्ट का हिस्सा बने थे। यहां काम करने के दौरान उन्होंने पूरी प्रक्रिया देखी और आखिर उस प्रोजेक्ट को फेसबुक नाम देकर रजिस्टर्ड करा लिया। जब उन्होंने इसे अमली जामा पहनाना शुरू किया तो दिव्य और उनके दोस्तों ने तीखा विरोध किया। इसे लेकर उनकी जुकरबर्ग से खासी तकरार भी हुई।
आखिर मामला हद से आगे बढ़ता लगा तो यूनिवर्सिटी प्रशासन ने हस्तक्षेप कर दिव्य को अदालत जाने की सलाह दी। अदालत ने फैसला जरूर दिया, लेकिन इंसाफ नहीं कर पाई। जुकरबर्ग के साथ मुकदमेबाजी से दिव्य निराश जरूर हुए, लेकिन उन्होंने खुद को हताश नहीं होने दिया। उन्होंने साथ ही दूसरे प्रोजेक्ट सम जीरो पर काम शुरू कर दिया। उनका यह प्रोजेक्ट आज खासा कामयाब है। अपने को दिव्य किस रूप में देखते हैं, फेसबुक के संस्थापक या समजीरो के सीईओ, पूछे जाने पर उनका सीधा जवाब होता है, मैं बस एक कामयाब उद्यमी के रूप में पहचाना जानना चाहता हूं। जिसने अपने और समाज के लिए कुछ किया हो। फेसबुक के अनुभव से मिली सीख के बारे में पूछने पर दिव्य मजाक करते हैं,"मुझे हाईस्कूल में ही वेबप्रोग्रामिंग सीख लेनी चाहिए थी।" ऎसा नहीं कि दिव्य के फेसबुक की खोज करने की बात लोगों को मालूम नहीं है। हाल ही में जुकरबर्ग पर बनी फिल्म"द सोशल नेटवर्क"में उनका किरदार भी रखा गया था। आखिर उनके जिक्र के बिना फेसबुक की कहानी भला पूरी कैसे हो सकती थी। इस बारे में पूछने पर दिव्य बताते हैं,"पहले मुझे डर था कि फिल्म में मुझे खलनायक के तौर पर प्रस्तुत किया जा सकता है, लेकिन फिल्म देखने के बाद मेरा डर दूर हो गया।"दिव्य अपनी जिंदगी के फंडे के बारे में पूछने पर बताते हैं,"आपको अपनी नाकामयाबियों से सीखना आना चाहिए। एक बार नाकामी से सीख लेने के बाद आपको तत्काल अगला प्रयास शुरू कर देना चाहिए।"

विश्व बेटी दिवस - प्रीतिलता वादेदार का आत्मबलिदान



आज विश्व बेटी दिवस है इस ख़ास मौके पर आप सब को बधाई प्रीतिलता वादेदार(5 मई 1911 – 23 सितम्बर 1932) भारतीय स्वतंत्रता संगाम की महान क्रान्तिकारिणी थीं। वे एक मेधावी छात्रा तथा निर्भीक लेखिका भी थी। वे निडर होकर लेख लिखती थी।
प्रीतिलता वादेदार का जन्म 5 मई 1911 को तत्कालीन पूर्वी भारत (और अब बंगला देश ) में स्थित चटगाँव के एक गरीब परिवार में हुआ था।उन्होने ढाका के इडेन कॉलेज में प्रवेश लिया और इण्टरमिडिएट परीक्षा में पूरे ढाका बोर्ड में पाँचवें स्थान पर आयीं । स्कूली जीवन में ही वे बालचर - संस्था की सदस्य हो गयी थी। वहा उन्होंने सेवाभाव और अनुशासन का पाठ पढ़ा। बालचर संस्था में सदस्यों को ब्रिटिश सम्राट के प्रति एकनिष्ट रहने की शपथ लेनी होती थी। संस्था का यह नियम प्रीतिलता को खटकता था। उन्हें बेचैन करता था। यही उनके मन में क्रान्ति का बीज पनपा था।
बचपन से ही वह रानी लक्ष्मी बाई के जीवन - चरित्र से खूब प्रभावित थी । बाद मे उनका सम्पर्क क्रान्तिकारियो से हुआ। इसके बाद वे सूर्यसेन के नेतृत्त्व कि इन्डियन रिपब्लिकन आर्मी में महिला सैनि
क बनी।उन्होने ने जलालाबाद जंग मे हिस्सा लिया । बाद मे पूर्वी बंगाल के घलघाट में क्रान्तिकारियो को पुलिस ने घेर लिया था घिरे हुए क्रान्तिकारियो में अपूर्व सेन , निर्मल सेन , प्रीतिलता और सूर्यसेन आदि थे।सूर्यसेन ने लड़ाई करने का आदेश दिया।अपूर्वसेन और निर्मल सेन शहीद हो गये।सूर्यसेन की गोली से कैप्टन कैमरान मारा गया। सूर्यसेन ने अपने साथियो का बदला लेने की योजना बनाई। योजना यह थी की पहाड़ी की तलहटी में यूरोपीय क्लब पर धावा बोलकर नाच - गाने में मग्न अंग्रेजो को मृत्यु का दंड देकर बदला लिया जाए।उस क्लब के बाहर लिखा था 'कुत्ते और भारतीयो का अंदर आना माना है '। प्रीतिलता के नेतृत्त्व में कुछ क्रांतिकारी वहाँ पहुचे। 24 सितम्बर 1932 की रात इस काम के लिए निश्चित की गयी।हथियारों की कमी की वजह से प्रीतिलता ने आत्म सुरक्षा के लिए पोटेशियम साइनाइड नामक विष भी रख लिया था। पूरी तैयारी के साथ वह क्लब पहुची।बाहर से खिड़की में बम लगाया। क्लब की इमारत बम के फटने और पिस्तौल की आवाज़ से कापने लगी। नाच - रंग के वातावरण में एकाएक चीखे सुनाई देने लगी।13 अंग्रेज जख्मी हो गये और बाकी भाग गये।इस घटना में एक यूरोपीय महिला मारी गयी।थोड़ी देर बाद उस क्लब से गोलीबारी होने लगी। प्रीतिलता के शरीर में एक गोली लगी।वे घायल अवस्था में भागी लेकिन फिर गिरी और पोटेशियम सायनाइड खा लिया। उस समय उनकी उम्र 21 साल थी। इतनी कम उम्र में उन्होंने झांसी की रानी का रास्ता अपनाया और उन्ही की तरह अंतिम समय तक अंग्रेजो से लड़ते हुए स्वंय ही मृत्यु का वरण कर लिया। प्रीतिलता के आत्म बलिदान के बाद अंग्रेज अधिकारियों को तलाशी लेने पर जो पत्र मिले उनमे छपा हुआ पत्र था। इस पत्र में छपा था की " चटगाँव शस्त्रागार काण्ड के बाद जो मार्ग अपनाया जाएगा , वह भावी विद्रोह का प्राथमिक रूप होगा। यह संघर्ष भारत को पूरी स्वतंत्रता मिलने तक जारी रहेगी।"
प्रीतितला आत्मबलिदान करके देश को बताना चाहती थी की जरूरत पड़ने पर एक महिला भी अपनी जान न्योछावर करके देश की रक्षा कर सकती है

ऐसी महान क्रांतिकारिणी को शत शत नमन ।

इंकलाब ज़िंदाबाद !
जय जय सिया राम
जय जय माँ भारती

मनुष्य को अपने कर्मों का फल कभी न कभी तो भोगना ही पड़ेगा।

जब भीष्म पितामह ने पूछा - "मेरे कौन से कर्म का फल है जो मैं सरसैया पर पड़ा हुआ हूँ?''

बात प्राचीन महाभारत काल की है। महाभारत के युद्ध में जो कुरुक्षेत्र के मैंदान में हुआ, जिसमें अठारह अक्षौहणी सेना मारी गई, इस युद्ध के समापन और सभी मृतकों को तिलांज्जलि देने के बाद पांडवों सहित श्री कृष्ण पितामह भीष्म से आशीर्वाद लेकर हस्तिनापुर को वापिस हुए तब श्रीकृष्ण को रोक कर पि
तामाह ने श्रीकृष्ण से पूछ ही लिया, "मधुसूदन, मेरे कौन से कर्म का फल है जो मैं सरसैया पर पड़ा हुआ हूँ?'' यह बात सुनकर मधुसूदन मुस्कराये और पितामह भीष्म से पूछा, 'पितामह आपको कुछ पूर्व जन्मों का ज्ञान है?'' इस पर पितामह ने कहा, 'हाँ''। श्रीकृष्ण मुझे अपने सौ पूर्व जन्मों का ज्ञान है कि मैंने किसी व्यक्ति का कभी अहित नहीं किया? इस पर श्रीकृष्ण मुस्कराये और बोले पितामह आपने ठीक कहा कि आपने कभी किसी को कष्ट नहीं दिया, लेकिन एक सौ एक वें पूर्वजन्म में आज की तरह तुमने तब भी राजवंश में जन्म लिया था और अपने पुण्य कर्मों से बार-बार राजवंश में जन्म लेते रहे, लेकिन उस जन्म में जब तुम युवराज थे, तब एक बार आप शिकार खेलकर जंगल से निकल रहे थे, तभी आपके घोड़े के अग्रभाग पर एक करकैंटा एक वृक्ष से नीचे गिरा। आपने अपने बाण से उठाकर उसे पीठ के पीछे फेंक दिया, उस समय वह बेरिया के पेड़ पर जा कर गिरा और बेरिया के कांटे उसकी पीठ में धंस गये क्योंकि पीठ के बल ही जाकर गिरा था? करकेंटा जितना निकलने की कोशिश करता उतना ही कांटे उसकी पीठ में चुभ जाते और इस प्रकार करकेंटा अठारह दिन जीवित रहा और यही ईश्वर से प्रार्थना करता रहा, 'हे युवराज! जिस तरह से मैं तड़प-तड़प कर मृत्यु को प्राप्त हो रहा हूँ, ठीक इसी प्रकार तुम भी होना।'' तो, हे पितामह भीष्म! तुम्हारे पुण्य कर्मों की वजह से आज तक तुम पर करकेंटा का श्राप लागू नहीं हो पाया। लेकिन हस्तिनापुर की राज सभा में द्रोपदी का चीर-हरण होता रहा और आप मूक दर्शक बनकर देखते रहे। जबकि आप सक्षम थे उस अबला पर अत्याचार रोकने में, लेकिन आपने दुर्योधन और दुःशासन को नहीं रोका। इसी कारण पितामह आपके सारे पुण्यकर्म क्षीण हो गये और करकेंटा का 'श्राप' आप पर लागू हो गया। अतः पितामह प्रत्येक मनुष्य को अपने कर्मों का फल कभी न कभी तो भोगना ही पड़ेगा। प्रकृति सर्वोपरि है, इसका न्याय सर्वोपरि और प्रिय है। इसलिए पृथ्वी पर निवास करने वाले प्रत्येक प्राणी व जीव जन्तु को भी भोगना पड़ता है और कर्मों के ही अनुसार ही जन्म होता है।

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