यह ब्लॉग खोजें

बुधवार, 26 अप्रैल 2023

गंगा सप्तमी 27 अप्रैल, क्या है सही तिथि, जानिए पूजा विधि

गंगा सप्तमी  27 अप्रैल, क्या है सही तिथि, जानिए पूजा विधि*


*🚩🌺गंगा नदी का महत्व हम सभी जानते हैं। गंगा जल की पवित्रता पर ग्रंथों में कई उल्लेख मिलते हैं। वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को गंगा सप्तमी मनाई जाती है। इसी दिन मां गंगा पृथ्वी पर अवतरित हुई थीं।*
 
*🚩🌺गंगा नदी और गंगा जल की तरह ही हिंदू धर्म में गंगा सप्तमी और गंगा दशहरा का महत्व है। इस दिन मां गंगा की पूजा करने से, जल को स्पर्श करने, स्मरण करने घर में ही गंगा जल का आचमन करने से समस्त पापों से मुक्ति मिलती है।* 
 
*🚩🌺गंगा सप्तमी पर गंगा नदी में स्नान से करोड़ों पापों का नाश होता है। अनंत पुण्य मिलता है। इस दिन दान करना श्रेष्ठ माना गया है। गंगा सप्तमी के दिन स्नान-दान पूजा और मंत्र से सहत का साथ मिलता है, रिश्तों में मिठास आती है। धन खूब आता है, दान-धर्म में रूचि बढ़ती है। जीवन में खुशियां आती हैं और संतान सुख प्राप्त होता है।*

*🚩🌺लेकिन वास्तव में गंगा नदी के प्रदूषण की स्थिति चिंताजनक है। आंकड़ों में गंगा नदी का सच डराने वाला है।*  

*🚩🌺गंगा सप्तमी 2023 तिथि* 

*🚩🌺वैशाख शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि की शुरुआत 26 अप्रैल 2023 को सुबह 11 बजकर 27 मिनट पर हो रही है। ये तिथि अगले दिन 27 अप्रैल को दोपहर 01 बजकर 38 मिनट पर समाप्त होगी। शास्त्रों में तीर्थ स्नान के लिए ब्रह्म मुहूर्त को उत्तम बताया गया है, इसलिए 27 अप्रैल 2023 को गंगा स्नान करना शुभ होगा। 27 अप्रैल को मां गंगा की पूजा का शुभ मुहूर्त सुबह 11 बजे से दोपहर 01 बजकर 38 मिनट तक है। विविध मतानुसार 26 और 27 अप्रैल दोनों दिन गंगा सप्तमी मनाई जा रही है। लेकिन शास्त्र सम्मत तिथि 27 अप्रैल अधिक शुभ है।*

*🚩🌺गंगा सप्तमी पूजा विधि*

*🚩🌺गंगा सप्तमी के दिन यदि आप गंगा नदी में स्नान नहीं कर पा रहे हैं तो सूर्योदय से पहले उठकर घर पर ही पानी में गंगाजल मिलाकर स्नान कर लें।*
 
*🚩🌺इसके बाद अपने घर के मंदिर में मां गंगा की मूर्ति या तस्वीर के साथ कलश की स्थापना करें।*

*🚩🌺इस कलश में रोली, चावल, गंगाजल, शहद, चीनी, इत्र और गाय का दूध इन सभी सामग्रियों को भर कर कलश के ऊपर नारियल रखें और इसके आसपास मुख पर अशोक के पांच पत्ते लगा दें। साथ ही नारियल पर कलावा बांध दें।*
 
*🚩🌺फिर देवी गंगा की प्रतिमा या तस्वीर पर कनेर का फूल, लाल चंदन, फल और गुड़ का प्रसाद चढ़ाकर मां गंगा की आरती करें।*
 
*🚩🌺साथ ही 'गायत्री मंत्र' तथा गंगा सहस्त्रनाम स्त्रोत का का जाप करें।* 

*🚩🌺धार्मिक मान्यता*

*🚩🌺गंगा सप्तमी के दिन सुबह सूर्योदय से पहले उठकर गंगा नदी में स्नान करना बहुत ही शुभ होता है।* 
 
*🚩🌺इस दिन गंगा जी में डुबकी लगाने से जीवन के सभी दुखों से मुक्ति मिल जाती है।*

*🚩🌺साथ ही सभी तरह के पाप मिट जाते हैं।*
 
   *🌺🌻उपाय🌺🌻* 

*🚩🌺यदि किसी व्यक्ति के घर में हमेशा अनबन या क्लेश भरा माहौल बना रहता है तो उसे अपने पूरे घर में पूजा के बाद गंगा जल का छिड़काव करना चाहिए।* 
 
*🚩🌺इससे घर का क्लेश भी दूर होगा साथ ही नकारात्मकता दूर होगी और सकारात्मकता का प्रवेश होगा।* 
 
*🚩🌺जो व्यक्ति ग्रह दोष से पीड़ित हैं उन्हें भगवान शिव की पूजा के बाद उनका गंगा जल से अभिषेक करना चाहिए।*
 
*🚩🌺गंगा सप्तमी पर एक कलश में पानी लेकर उसमें थोड़ा सा गंगा जल मिला लें। अब इस जल को पीपल की जड़ों में चढ़ाएं। इससे ग्रह दोष से उत्पन्न परेशानियों से छुटकारा मिलेगा।* 

*🚩🌺कर्ज से परेशान हैं तो पीतल के कलश में गंगाजल लेकर घर की उत्तर पूर्व दिशा के कोने में गंगा जल को रख दें। कलश के मुंह को लाल कपड़े से ढक दें। इस उपाय से कर्ज से धीरे धीरे राहत मिलने लगती है।*  
 
*🚩🌺यदि नौकरी संबंधी समस्या से परेशान हैं तो गंगा सप्तमी से लेकर 40 दिन तक पीतल या चांदी के कलश में गंगाजल की 11 बूंदें शुद्ध सामान्य जल में मिलाकर  डालकर 5 बेलपत्र के साथ शिवलिंग पर अर्पित करें।*
 
*🚩🌺विवाह में बाधा आ रही है तो नहाने के पानी में गंगाजल और चुटकी भर हल्दी मिलाकर लगातार 21 दिन स्नान करें।*

 
*🌺🌻गंगाजल के नियम* 

*🌺🌻गंगा जल को कभी भी प्लास्टिक के बर्तन में न रखें।* 

*🌺🌻गंगाजल को कभी भी जूठे हाथ या फिर जूते-चप्पल पहनकर न छुएं।*

*🌺🌻गंगाजल को किसी अंधेरे वाली जगह पर बंद करके नहीं रखना चाहिए।* 

*🌺🌻गंगा जल को हमेशा अपने घर के ईशान कोण यानि पूजा घर में ही रखना चाहिए।*

*🕉️मां गंगा का मंत्र : ॐ नमो गंगायै विश्वरूपिण्यै नारायण्यै नमो नमः'* 
 
*🌺🌻गंगा में स्नान करते समय हमेशा 3, 5, 7 या 12 डुबकियां लगाना अच्छा बताया गया है।* 
 
*🌺🌻यदि आप तीन डुबकी लगा रहे हैं तो आप एक डुबकी देवी-देवताओं के नाम से, एक अपने पुरखों के नाम से और एक अपने परिवार के नाम से लगाएं।*

🚩🌻🌺🚩🌻🌺🚩🌻🌺🚩

भगवान विष्णु का हयग्रीव अवतार

एक बार माता लक्ष्मी गहनों से सुसज्जित होकर भगवान विष्णु के पास आईं। भगवान विष्णु उन्हें देखकर मुस्कुराए माता लक्ष्मी ने उसे अपना अपमान समझा और भगवान विष्णु को श्राप दिया ''कि आपका मस्तक आपके धड़ से विलग हो जाएगा ''। उसी समय हयग्रीव नाम का एक पराकर्मी दानव सरस्वती नदी के तट पर चला गया और वहां उसने माता पार्वती की घोर तपस्या आरम्भ कर दी। माता पार्वती ने उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर उसे वरदान मांगने को कहा तो वह बोला ''कि हे माते मुझे अमरता का वर दीजिए ’'। माता पार्वती ने कहा '' कि हे असुर राज संसार में जिसका जन्म होता है उसकी मृत्यु भी अवश्य होती है यह विधि का विधान है ''। जब माता पार्वती ने हयग्रीव को अमरता का वर देने से इंकार किया तो वह बोला कि ''हे मां मैं ही इस सृष्टि में एक ऐसा प्राणी हूं जिसका सिर घोड़े का और धड़ मनुष्य का है सो मुझे वरदान दीजिए कि मेरी मृत्यु हयग्रीव के ही हाथों हों ''। माता पार्वती तथास्तु कहकर अंतर्ध्यान हो गई। इस वरदान का उसने दुरुपयोग शुरू कर दिया क्योंकि वह सोचने लगा कि एकमात्र वही सृष्टि पर ऐसा है जो हयग्रीव है इसलिए उसने ब्रह्मा जी से वेदों की शक्तियों को अपने भीतर समाहित कर लिया जिससे वेद शक्तिहीन हो गए और संसार से ज्ञान का प्रकाश हट
गया और पाप का अंधकार छा गया। भगवान विष्णु को उसने युद्ध के लिए ललकारा। भगवान विष्णु तत्काल गरुड़ पर आरूढ़ होकर हयग्रीव से युद्ध करने गए। दोनों का युद्ध कई दिनों तक चला। दोनों को युद्ध करते हुए एक सप्ताह हो गया था आठवें दिन हयग्रीव तथा भगवान विष्णु दोनों थककर विश्राम करने लगे। ब्रह्मा जी ने उस समय अपने तेज़ से एक कीड़ा उत्पन्न किया और उसे आदेश दिया कि वह नारायण के धनुष की प्रत्यंचा काट दे। उसने आदेश मानते हुए ऐसा ही किया और भगवान विष्णु के धनुष की प्रत्यंचा काट दी जिससे भगवान विष्णु का सिर उनके धड़ से अलग हो गया उस कारण चारों ओर अन्धकार छा गया। देवताओं ने अश्विनी कुमारों का स्मरण किया। ब्रह्मा जी भी एक घोड़े की गर्दन ले आए। अश्विनी कुमारों ने भगवान विष्णु के धड़ से घोड़े की गर्दन का जुड़ाव किया जिसके कारण भगवान विष्णु का हयग्रीव अवतार हुआ। हयग्रीव रूपी विष्णु तथा हयग्रीव में बहुत भयानक युद्ध चला। हयग्रीव रूपी भगवान विष्णु ने एक बाण चलाया जिससे सुदर्शन चक्र प्रकट हुआ और सुदर्शन चक्र ने पलक झपकते ही हयग्रीव का सिर उसके धड़ से अलग कर दिया। इस प्रकार भगवान विष्णु ने दुष्ट दानव हयग्रीव का वध करके वेदों की शक्तियों को उसके भीतर से निकलकर ब्रह्मा जी को सौंप दिया।

शंकरो शंकर: साक्षात्’

शंकरो शंकर: साक्षात्’ 

एक वृद्ध सन्यासी ओंकारेश्वर क्षेत्र में एक गुफा के भीतर तपस्यारत था। शरीर की अवस्था अब ऐसी न थी कि वह यात्राएं कर सकें। सन्यासी का प्रभाव ऐसा था कि जो जंगली पशु सदा हिंसक रहते, वे गुफा के समीप आते ही शांत हो जाते।

सन्यासी का सारा समय ध्यान में गुजरता, उसे प्रतीक्षा थी किसी के आगमन की। उसे परंपरा से प्राप्त ज्ञान किसी को सौंप कर ही इस संसार से विदा लेनी थी। प्रतीक्षा लंबी होती जा रही थी, लेकिन विश्वास दृढ़ था। 

एक दिन वहां से बहती नर्मदा नदी में बाढ़ आ गई। नर्मदा का उफान देखकर किसी की हिम्मत नही थी कि कोई उसके समीप भी जा सके। पशु पक्षियों में भगदड़ मच गई, शोर मचाती नर्मदा हर तट, बांध को तोड़ती जा रही थी।

एक बालक जिसने भगवा रंग के वस्त्र पहने थे, माथे पर त्रिपुंड, शरीर पर यज्ञोपवीत, सर पर गोखुरी शिखा, गले मे रुद्राक्ष और चेहरे पर सूर्य सा तेज औऱ हाथ म् कमंडल पकड़ा हुआ था, नर्मदा के समीप आकर खड़ा हो गया। वह रुक नही सकता था, उसने शांत चित्त से नर्मदा को देखा, उफान देखकर अंदाजा हो गया कि अभी नदी को पार नही किया जा सकता। उस बाल ब्रह्मचारी ने माँ नर्मदा को प्रणाम किया औऱ नर्मदा की स्तुति करते हुए कहा,

"सबिंदु सिन्धु सुस्खल तरंग भंग रंजितम
द्विषत्सु पाप जात जात कारि वारि संयुतम
कृतान्त दूत काल भुत भीति हारि वर्मदे
त्वदीय पाद पंकजम नमामि देवी नर्मदे ||"

इस नर्मदाष्टकम को सुनकर देखते ही देखते नर्मदा उसके कमंडल में आकर समा गई।

नदी के दूसरे छोर पर जंगल में स्थित गुफा में समाधिरत सन्यासी की आंखे खुल गई, वह जान गया कि प्रतीक्षा समाप्त हुई। तभी बाल ब्रह्चारी उसके सामने आकर खड़ा हो गया। दोनों ने एक दूसरे को देखा, ब्रह्मचारी ने सन्यासी को प्रणाम किया तो सन्यासी ने परम्परा के निर्वाहन हेतु उसे बाहर से आशीर्वाद दिया, किन्तु मन ही मन प्रणाम किया।

सब कुछ जानते हुए भी लोकाचार की मर्यादा रखते हुए सन्यासी ने पूछा,"कौन हो तुम? अपना परिचय दो।"
बाल ब्रह्चारी जो मात्र आठ वर्ष का था, उसने कहा,

"मनो बुद्धय अहंकार चित्तानि नाहं
न च श्रोत्र जिव्हे न च घ्राण नेत्रे
न च व्योम भूमिर्न तेजो न वायुः
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम॥

मैं न तो मन हूं‚ न बुद्धि‚ न अहांकार‚ न ही चित्त हूं
मैं न तो कान हूं‚ न जीभ‚ न नासिका‚ न ही नेत्र हूं
मैं न तो आकाश हूं‚ न धरती‚ न अग्नि‚ न ही वायु हूं
मैं तो मात्र शुद्ध चेतना हूं‚ अनादि‚ अनंत हूं‚ अमर हूं।।"

निर्वाण षट्कम के रूप में ब्रह्चारी ने जो परिचय दिया वह सुनकर सन्यासी की आँखों से आंसू निकल आये औऱ उसने प्रेम से उस बालक को गले लगा लिया।

सन्यासी की प्रतीक्षा औऱ ब्रह्चारी की खोज समाप्त हुई। सन्यासी गोविंद भगवत्पाद ने ब्रह्चारी शंकर को विधिवत सन्यास की दीक्षा दी औऱ परंपरागत ज्ञान को शंकर को सौंप दिया।

यही बालब्रह्चारी शंकर, आदि गुरु शंकराचार्य बने जो स्वयं शिवातार थे। वैशाख शुक्ल पंचमी को 507 ईसापूर्व  केरल के कलाड़ी ग्राम में जन्मे आदिगुरु ने महाराज सुधन्वा की सहायता से वैदिक धर्म को पुनर्जीवित किया। उन्होंने चार मठों की स्थापना की, पूर्व में गोवर्धन, उत्तर में जोशी, पश्चिम में शारदा औऱ दक्षिण में श्रृंगेरी।

आदिगुरु शंकराचार्य भगवान की आज 2530वीं जयंती है, 
आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएं 🙏

#जय_भूतेश्वर

function disabled

Old Post from Sanwariya