“पुरुष का चरित्र और नारी का सौभाग्य”
इस देश में “त्रिया चरित्र” बहुत प्रसिद्धि है, यह शब्द महाभारत के एक श्लोक से आया है, जिसकी अर्धाली मेरे देश में बहुत प्रचलित है।
त्रिया चरित्रं, पुरुषस्य भाग्यम देवो न जानाति, कुतो मनुष्य:
अर्थात स्त्री का चरित्र और पुरुष का भाग्य देवता भी नहीं जानते, मनुष्य कैसे जान सकता है?, पर पूरा श्लोक निम्नवत है।
नृपस्य चित्तं, कृपणस्य वित्तम; मनोरथाः दुर्जनमानवानाम्।
त्रिया चरित्रं, पुरुषस्य भाग्यम; देवो न जानाति कुतो मनुष्यः।।
'राजा का चित्त, कंजूस का धन, दुर्जनों का मनोरथ, पुरुष का भाग्य और स्त्रियों का चरित्र देवता तक नहीं जान पाते तो मनुष्यों की तो बात ही क्या है?'
पर हमने कभी पुरुष के चरित्र पर अंगुली नहीं उठाई,पुरुष, त्रिया चरित्र से भी १०० कदम आगे है, यदि एक स्त्री एक ही समय किसी से बात करती, किसी के बारे में सोचती और किसी से प्यार करती तो पुरुष अपने शरीर की काम वासना की तृप्ति हेतु १०० भिन्न स्त्रियों के साथ संसर्ग करने के लिए श्वानवत यत्र-तत्र विचरण करता रहता है, तभी तो पाणिनि ने श्वान, युवा और इंद्र को एक ही तराजू में तौल दिया।
एक कहावत है न अपना बच्चा और दूसरे की स्त्री,हर इंसान को अच्छी लगती। यह कहावतें ऐसी ही नहीं बन गयीं- बहुत से केस स्टडी कर के हमारे ब्रह्मरत ऋषियों ने कोई श्लोक लिखा और वह श्लोक ही लोकभाषा में कहावतें बन गयीं,जो आज भी सत्य की कसौटी पर परीक्षित होकर स्वर्णवत् प्रकाशमान हैं।
अतः पुरुष का चरित्रवान होना बहुत आवश्यक है, मैंने बचपन में एक कहानी सुनी थी.. एक स्त्री ने अपने पति से पूछा, मुझे कैसे विश्वास हो कि तुम हमारे प्रति वफादार हो? उस युवक ने कहा, यदि मैंने किसी दूसरी स्त्री पर आज तक गलत निगाह नहीं डाली होगी तो कोई तुम्हारे बारे में भी गलत नहीं सोचेगा। स्त्री ने पति की परीक्षा हेतु एक दिन भीड़ में एक किशोर का हाथ पकड़ा.. किशोर बोला, क्या है माता जी?, दूसरे किसी दिन एक युवक का हाथ पकड़ा... युवक बोला,बहिन जी कोई परेशान कर रहा क्या?, तीसरे अवसर पर एक वृद्ध का सहारा लिया, बृद्ध बोला.. बेटी तू क्यों दुःखी है? तब उसे विश्वास हुआ, हमारा पति उच्च आचरण का है।
अतः सामाजिक परिवेश में सद आचरण करने का उत्तरदायित्व प्रत्येक जीव का है, तभी हमारी नारियां भी सावित्री जैसी सौभाग्यशालिनी होंगी, जिसने अपने आचरण से पिता और पति दोनों कुलों के सारे कष्ट अपनी तपस्या की अग्नि में भष्म कर दिए। कोई विदेहकन्या ही सीता रूप में अपने पति का वनवास काल में अनुसरण कर सकती है, जिसके ऐसे आचरण से उसका पिता भी अपने को गौरान्वित महसूस कर के- ”पुत्रि पवित्र किये कुल दोउ” का उद्घोष करेगा और पुत्रि के तपस्वी वेश को भी अपना गौरव समझेगा।
ऐसी नारियों का सौभाग्य और सद्चरित्र कर्मठ पुरुषों का पौरुष ही हमारे देश का स्वर्णिम भविष्य है