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शनिवार, 1 दिसंबर 2012

कौन हैं डॉ. एम. विश्वेश्वरैया ?

यह उस समय की बात है जब भारत में अंग्रेजों का शासन था।
खचाखच भरी एक रेलगाड़ी चली जा रही थी। यात्रियों में
अधिकतर अंग्रेज थे। एक डिब्बे में एक भारतीय मुसाफिर
...गंभीर मुद्रा में बैठा था। सांवले रंग और मंझले कद का वह
यात्री साधारण वेशभूषा में था इसलिए वहां बैठे अंग्रेज उसे मूर्ख
और अनपढ़ समझ रहे थे और उसका मजाक उड़ा रहे थे। पर वह व्यक्ति किसी की बात पर ध्यान नहीं दे रहा था। अचानक
उस व्यक्ति ने उठकर गाड़ी की जंजीर खींच दी। तेज रफ्तार
में दौड़ती वह गाड़ी तत्काल रुक गई। सभी यात्री उसे भला-
बुरा कहने लगे। थोड़ी देर में गार्ड भी आ गया और उसने पूछा,
‘जंजीर किसने खींची है?’ उस व्यक्ति ने उत्तर दिया, ‘मैंने
खींची है।’ कारण पूछने पर उसने बताया, ‘मेरा अनुमान है कि यहां से लगभग एक फर्लांग की दूरी पर रेल
की पटरी उखड़ी हुई है।’ गार्ड ने पूछा, ‘आपको कैसे पता चला?’
वह बोला, ‘श्रीमान! मैंने अनुभव
किया कि गाड़ी की स्वाभाविक गति में अंतर आ गया है।
पटरी से गूंजने वाली आवाज की गति से मुझे खतरे का आभास
हो रहा है।’ गार्ड उस व्यक्ति को साथ लेकर जब कुछ दूरी पर पहुंचा तो यह देखकर दंग रहा गया कि वास्तव में एक जगह से
रेल की पटरी के जोड़ खुले हुए हैं और सब नट-बोल्ट अलग
बिखरे पड़े हैं। दूसरे यात्री भी वहां आ पहुंचे। जब
लोगों को पता चला कि उस व्यक्ति की सूझबूझ के कारण
उनकी जान बच गई है तो वे उसकी प्रशंसा करने लगे। गार्ड ने
पूछा, ‘आप कौन हैं?’ उस व्यक्ति ने कहा, ‘मैं एक इंजीनियर हूं और मेरा नाम है डॉ. एम. विश्वेश्वरैया।’ नाम सुन सब स्तब्ध रह
गए। दरअसल उस समय तक देश में डॉ.
विश्वेश्वरैया की ख्याति फैल चुकी थी। लोग उनसे
क्षमा मांगने लगे। डॉ. विश्वेश्वरैया का उत्तर था, ‘आप सब ने
मुझे जो कुछ भी कहा होगा, मुझे तो बिल्कुल याद नहीं है।’

अपूर्व सुंदरी रानी पद्मिनी और 16 हजार महिलाओं के जौहर की दास्तान

अपूर्व सुंदरी रानी पद्मिनी और 16 हजार महिलाओं के जौहर की दास्तान
जयपुर. विश्व की सभी जातियां अपनी स्वतंत्रता की सुरक्षा के लिए और समृद्धि के लिए निरंतर बलिदान करती आई हैं। मनुष्य जाति में परस्पर युद्धों की शुरुआत भी इसी आशंका से हुई कि कोई उसकी स्वतंत्रता छिनने आ रहा हैं। राजस्थान की युद्ध परंपरा में जौहर एवं शाकों का विशिष्ठ स्थान है। जहां पराधीनता के बजाय मृत्यु का आलिंगन किया जाता था।

युद्ध के...दौरान परिस्थितियां ऐसी बन जाती थी कि शत्रु के घेरे में रहकर जीवित नहीं रहा जा सकता था। तब जौहर और शाके (महिलाओं को अपनी आंखों के आगे जौहर की ज्वाला में कूदते देख पुरूष कसुम्बा पान कर, रणक्षेत्र में उतर पड़ते थे कि या तो विजयी होकर लोटेंगे अन्यथा विजय की कामना हृदय में लिए अन्तिम दम तक शौर्यपूर्ण युद्ध करते हुए दुश्मन सेना का ज्यादा से ज्यादा नाश करेंगे। या फिर रणभूमि में चिरनिंद्रा में शयन करेंगे।

पुरुषों का यह आत्मघाती कदम शाका के नाम से विख्यात हुआ) किए जाते थे।

पहला साका सन् 1303 में हुआ जब दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने रणथम्भौर विजय के बाद चित्तौड़ को आक्रांत किया। अलाउद्दीन की महत्वाकांक्षा और राणा रतनसिंह की अनिंद्य सुंदरी रानी पद्मिनी को पाने की लालसा हमले का कारण बनी। चित्तौड़ के दुर्ग में सबसे पहला जौहर चित्तौड़ की महारानी पद्मिनी के नेतृत्व में 16000 हजार रमणियों ने अगस्त 1303 में किया था।

दूसरा साका सन् 1534 में हुआ जब गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह ने एक विशाल सेना के साथ चित्तौड़ पर हमला किया। राजमाता हाड़ी (कर्णावती) और दुर्ग की सैकड़ों वीरांगनाओं ने जौहर का अनुष्ठान कर अपने प्राणों की आहुति दी।

तीसरा साका सन् १५६८-६९ में हुआ जब मुगल बादशाह अकबर ने राणा उदयसिंह के शासन काल में चित्तौड़ पर जोरदार आक्रमण किया। यह साका जयमल राठौड़ और फत्ता सिसोदिया के पराक्रम और बलिदान के प्रसिद्ध है।

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