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शुक्रवार, 31 मई 2024

अमावस्या तिथि का आध्यात्म एवं ज्योतिष में का महत्त्व

अमावस्या तिथि का आध्यात्म एवं ज्योतिष में का महत्त्व
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हिंदू धर्म में अमावस्या तिथि का बहुत अधिक महत्व है। हिंदू पंचांग की तीसवीं तिथि और कृष्ण पक्ष की अंतिम तिथि अमावस्या कहलाती है। इस तिथि का नाम सिनीवाली भी है। इसे हिंदी में अमावसी भी कहते हैं। अमावस्या तिथि का निर्माण तब होता है जब सूर्य और चंद्रमा का अंतर शून्य हो जाता है। इस दिन आकाश में चांद नहीं दिखाई देता है। इस तिथि पर भगवान शिव और माता पार्वती के पूजन का विधान है। मान्यता है कि इस तिथि के दिन केतु का जन्म हुआ था। 

अमावस्या तिथि का ज्योतिष में महत्त्व
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अमावस्या तिथि के स्वामी पितर माने गए हैं। इस तिथि पर चंद्रमा की 16वीं कला जल में प्रविष्ट हो जाती है। इस दिन चंद्रमा आकाश में नहीं दिखाई देता है और इस तिथि पर वह औषधियों में  रहते हैं। अमावस्या तिथि के दिन कृष्ण पक्ष समाप्त होता है। इस तिथि के दिन सूर्य और चन्द्रमा दोनों समान अंशों पर होते है।

अमावस्या तिथि में जन्मे जातक
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अमावस्या तिथि में जन्मे जातकों की दीर्घायु होती है। ये लोग अपनी बुद्धि को कुटिल कार्यों में लगाते हैं। ये बहुत पराक्रमी होते हैं लेकिन इन्हें ज्ञान अर्जित करने के लिए प्रयत्न बहुत करना पड़ता है। इनकी आदत व्यर्थ में सलाह देने की बहुत होती है। इन जातकों को जीवन में संघर्षों का सामना बहुत करना पड़ता है। ये लोग मानसिक रूप से स्वस्थ्य नहीं होते हैं। इनमें असंतुष्टी की भावना बहुत अधिक रहती है। 

अमावस्या के दिन क्या करें और क्या ना करें
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अमावस्या तिथि पर भगवान शिव और माता पार्वती का पूजन करना शुभ माना जाता है। 

इस तिथि पर पितरों का तर्पण करने का विधान है। यह तिथि चंद्रमास की आखिरी तिथि होती है।

इस तिथि पर गंगा स्नान और दान का महत्व बहुत है। 

इस दिन क्रय-विक्रय और सभी शुभ कार्यों को करना वर्जित है।

अमावस्या के दिन खेतों में हल चलाना या खेत जोतने की मनाही है।

इस तिथि पर जब कोई बच्चा पैदा होता है तो शांतिपाठ करना पड़ता है।

अमावस्या के दिन शुभ कर्म नहीं करना चाहिए।

अमावस्या तिथि के प्रमुख हिन्दू त्यौहार एवं व्रत व उपवास
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माघ अमावस्या
〰️〰️〰️〰️〰️इस तिथि को मौनी अमावस्या के रूप में जाना जाता है। इस दिन गंगा स्नान करके मौन धारण किया जाता है।

फाल्गुन अमावस्या, अश्विन अमावस्या, चैत्र अमावस्या
〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️इस अमावस्या को पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए महत्वपूर्ण मानते हैं। इस दन दान, तर्पण और श्राद्ध किया जाता है।

वैशाख अमावस्या
〰️〰️〰️〰️〰️〰️इस तिथि के दिन सर्पदोष से मुक्ति पाने के लिए उज्जैन में पूजा करने का विधान है।

ज्येष्ठ अमावस्या
〰️〰️〰️〰️〰️यह तिथि के दिन आप ज्योतिषाचार्य से शनिदोष निवारण का उपाय करा सकते हैं। इस दिन वट सावित्री की पूजा का भी प्रावधान है।

आषाढ़ अमावस्या
〰️〰️〰️〰️〰️〰️इस अमावस्या के दिन पितरों का तर्पण करते हैं उनकी आत्मा की शांति के लिए। इस दिन स्नान और दान का विशेष महत्व है।

श्रावण अमावस्या
〰️〰️〰️〰️〰️इस तिथि को हरियाली अमावस्या के नाम से जानते हैं। इस तिथि को पितृकार्येषु अमावस्या के नाम से भी जाना जाता है।

भाद्रपद अमावस्या
〰️〰️〰️〰️〰️〰️इस तिथि को कुशाग्रहणी अमावस्या के नाम से जाना जाता है। इस दिन कुशा को तोड़कर रख लिया जाता है।

कार्तिक अमावस्या
〰️〰️〰️〰️〰️〰️इस तिथि के दिन दीपों का पर्व दीवाली मनाते हैं। इस दिन 14 वर्ष का वनवास पूरा करके श्री राम अयोध्या वापस लौटे थे।

मार्गशीर्ष अमावस्या 
〰️〰️〰️〰️〰️〰️इस तिथि को सोमवती अमावस्या के नाम से जाना जाता है।
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तुलसी और वृंदा - जालंधर और शंखचूड़ में भेद

तुलसी और वृंदा - जालंधर और शंखचूड़ में भेद 
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जालंधर और शंखचूड़ दोनो की कथा अलग अलग है, जो इस प्रकार है-

शिव महापुराण के अनुसार, प्राचीन काल में, राक्षसों का राजा दंभ हुआ करता था। जो कि एक महान विष्णु भक्त थे। कई वर्षों तक संतान न होने के कारण, राजा दंभ ने शुक्राचार्य को अपना गुरु बनाया और उनसे श्री कृष्ण का मंत्र प्राप्त किया। इस मंत्र को प्राप्त करने के बाद, उन्होंने पुष्कर सरोवर में तपस्या की। भगवान विष्णु उनकी तपस्या से प्रसन्न हुए और उन्हें संतान प्राप्ति का वरदान दिया।

भगवान विष्णु के वरदान से राजा दंभ के यहां एक पुत्र ने जन्म लिया। इस पुत्र का नाम शंखचूड़ था। बड़े होकर, शंखचूड़ ने ब्रह्मा को प्रसन्न करने के लिए पुष्कर में तपस्या की।

शंखचूड़ की तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने शंखचूड़ को वरदान मांगने को कहा। तब उसने ने वरदान मांगा कि वह हमेशा अमर रहे और कोई भी देवता उसे न मार सके। ब्रह्मा जी ने उन्हें यह वरदान दिया और कहा कि वह बदरीवन जाकर धर्मध्वज की बेटी तुलसी से विवाह करें। जो इस समय तपस्या कर रही है। शंखचूर्ण ने ब्रह्मा जी के अनुसार तुलसी से विवाह किया और सुखपूर्वक रहने लगा।

शंखचूर्ण ने अपने बल से देवताओं, राक्षसों, असुरों, गंधर्वों, यमदूतों, नागों, मनुष्यों और तीनो लोकों के सभी प्राणियों पर विजय प्राप्त की। शंखचूर्ण भगवान कृष्ण का अनन्य भक्त था । उसके अत्याचार से परेशान सभी देव ब्रह्मा जी के पास गए और ब्रह्मा जी को शंखचूर्ण के अत्याचार का हाल बताया तब ब्रह्माजी उन्हें भगवान विष्णु के पास ले गए। भगवान विष्णु ने कहा कि शंखचूड़ की मृत्यु भगवान शिव के त्रिशूल से ही संभव है, इसलिए तुम भगवान् शिव के पास जाओ।

भगवान शिव ने चित्ररथ नाम के गण को अपना दूत बनाकर शंखचूड़ के पास भेजा। चित्ररथ ने शंखचूड़ को समझाया कि चित्ररथ देवताओं का राज्य उनको लौटा दे। लेकिन शंखचूड़ ने इनकार कर दिया और कहा कि वह महादेव से लड़ना चाहता है।

जब भगवान शिव को इस बारे में पता चला, तो उन्होंने अपनी सेना के साथ युद्ध करने के लिए प्रस्थान किया। इस तरह, देवताओं और राक्षसों के बीच एक भयंकर युद्ध हुआ। लेकिन ब्रह्मा जी के वरदान के कारण देवता शंखचूड़ को हरा नहीं पाए। जैसे ही भगवान शिव ने शंखचूड़ को मारने के लिए अपना त्रिशूल उठाया, तब आकाशवाणी हुई- जब तक शंखचूड़ के हाथ में भगवान् श्री श्रीहरि का कवच है और उसकी पत्नी की सतीत्व अखंड है, तब तक उसे मारना असंभव है।

आकाशवाणी सुनकर भगवान विष्णु एक बूढ़े ब्राह्मण का रूप धारण कर शंखचूड़ के पास गए और उन्हें श्रीहरि कवच का दान करने को कहा। शंखचूड़ ने बिना किसी हिचकिचाहट के उस कवच को दान कर दिया। इसके बाद, भगवान विष्णु ने शंखचूड़ का रूप धारण किया और तुलसी के पास गए।

शंखचूड़ के रूप में भगवान विष्णु तुलसी के महल के द्वार पर गए और अपनी जीत की सूचना दी। यह सुनकर तुलसी बहुत खुश हुई और अपने पति रूप में आए भगवान की पूजा की। ऐसा करने से, तुलसी का सार टूट गया और भगवान शिव ने युद्ध में अपने त्रिशूल से शंखचूड़ को मार डाला।

तब तुलसी को पता चला कि वे उनके पति नहीं हैं, बल्कि वे भगवान विष्णु हैं। गुस्से में तुलसी ने कहा कि तुमने मेरे धर्म को धोखा देकर मेरे पति को मार डाला है। इसलिए, मैं आपको श्राप देती हूं कि आप पाषण काल तक पृथ्वी पर ही रहो।

तब भगवान विष्णु ने कहा👉 हे देवी। आपने लंबे समय तक भारत वर्ष में रहकर मेरे लिए तपस्या की है। आप का यह शरीर एक नदी में तब्दील हो जाएगा और गंडकी नामक नदी के रूप में प्रसिद्ध होगा। आप फूलों में सबसे अच्छा तुलसी का पेड़ बन जाओगी और हमेशा मेरे साथ ही रहोगी। मैं आपके शाप को सच करने के लिए एक पत्थर (शालिग्राम) के रूप में पृथ्वी पर रहूंगा। मैं गंडकी नदी के किनारे पर रहूंगा। उसी दिन से देवप्रबोधिनी एकादशी के दिन भगवान शालिग्राम और तुलसी का विवाह संपन्न करके मांगलिक कार्य शुरू किए जाते हैं। हिंदू धार्मिक मान्यता के अनुसार, इस दिन तुलसी-शालिग्राम विवाह करने से अपार सफलता की प्राप्ति भी होती है।

जालंधर की कथा 👉 श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार, प्राचीन काल में, जालंधर नाम के एक दानव ने चारों ओर बड़ी उथल-पुथल मचा रखी थी। जालंधर बहुत बहादुर और पराक्रमी था। उनकी वीरता का रहस्य उनकी पत्नी वृंदा का पुण्य धर्म था। उसी के प्रभाव में वह विजयी होता रहा। जालंधर के अत्याचारों से परेशान होकर देवता भगवान विष्णु के पास गए और उनसे सुरक्षा की गुहार लगाई।

देवताओं की प्रार्थना सुनकर, भगवान विष्णु ने वृंदा की धर्मपरायणता को भंग करने का फैसला किया। उसने जालंधर का रूप लिया और छल से वृंदा का धर्म भांग करने का निश्चय किया। जालंधर, वृंदा के पति, देवताओं के साथ लड़ रहे थे, लेकिन वृंदा का सतीत्व नष्ट होते ही जालंधर को भगवान् शिव ने मार दिया।

जैसे ही वृंदा का सतीत्व भंग हुआ, जालंधर का सिर उसके आंगन में आकर गिरा। जब वृंदा ने यह देखा, तो वह बहुत क्रोधित हो गई और उसने जानना चाहा कि जो उसके सामने खड़ा है वह कौन है। सामने भगवान विष्णु प्रकट हो गए । वृंदा ने भगवान विष्णु को शाप दिया, 'जिस तरह तुमने मेरे पति को छल से मारा है, उसी तरह तुम्हारी पत्नी भी छली जाएगी और तुम भी स्त्री वियोग को भोगने के लिए मृत्यु संसार में पैदा होगे।' यह कहते हुए वृंदा अपने पति के साथ सती हो गई। वृंदा के सती होने के स्थान पर तुलसी के पौधे का उत्पादन किया गया था।

भगवान् विष्णु ने कहा, 'हे वृंदा! यह आपके पुण्य का परिणाम है कि आप तुलसी के रूप में मेरे साथ रहोगी, और जो व्यक्ति मेरा विवाह आपके साथ कराएगा वह मेरे परम धाम का अधिकारी होगा। तभी से तुलसी दल के बिना शालिग्राम या विष्णु की पूजा करना अधूरा माना जाता है। शालिग्राम और तुलसी का विवाह भगवान विष्णु और महालक्ष्मी का प्रतीकात्मक विवाह माना जाता है।

इस कथा के अनुसार- इस कथा में वृंदा ने भगवान् विष्णु जी को शाप दिया था कि तुमने मेरा सतीत्व भंग किया है। अत: तुम पत्थर के बनोगे। यही पत्थर शालिग्राम कहलाया।

शंखचूड और जालन्धर के आख्यानों मे बहुत कुछ समानताएँ विद्यमान है। ये दो कल्पभेद (अलग-अलग कल्पों में घटित घटनाओ) के कारण हुआ हो सकता है, और, तन्त्र मे जालन्धर का स्थान और शंख की नाद दोनों मे सम्बन्ध का कुछ एहसास है।
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