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शनिवार, 9 दिसंबर 2023

जब नागों की माता पहुंची हनुमान जी की बल-बुद्धि की परीक्षा लेने!!!!

जब नागों की माता पहुंची हनुमान जी की बल-बुद्धि की परीक्षा लेने!!!!

हनुमान जी को आकाश में बिना विश्राम लिए लगातार उड़ते देखकर समुद्र ने सोचा कि ये प्रभु श्री रामचंद्र जी का कार्य पूरा करने के लिए जा रहे हैं। किसी प्रकार थोड़ी देर के लिए विश्राम दिलाकर इनकी थकान दूर करनी चाहिए। उसने अपने जल के भीतर रहने वाले मैनाक पर्वत से कहा, ‘‘मैनाक! तुम थोड़ी देर के लिए ऊपर उठकर अपनी चोटी पर हनुमान जी को बिठाकर उनकी थकान दूर करो।’’ 
समुद्र का आदेश पाकर मैनाक प्रसन्न होकर हनुमान जी को विश्राम देने के लिए तुरंत उनके पास आ पहुंचा। उसने उनसे अपनी सुंदर चोटी पर विश्राम के लिए निवेदन किया तो हनुमान बोले, ‘‘मैनाक ! तुम्हारा कहना ठीक है, लेकिन भगवान श्री राम चंद्र जी का कार्य पूरा किए बिना मेरे लिए विश्राम करने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता।’’ ऐसा कह कर उन्होंने मैनाक को हाथ से छूकर प्रणाम किया और आगे चल दिए।
हनुमान जी को लंका की ओर प्रस्थान करते देख कर देवताओं ने सोचा कि ये रावण जैसे बलवान राक्षस की नगरी में जा रहे हैं।  अत: इस समय इनके बल-बुद्धि की विशेष परीक्षा कर लेना आवश्यक है। यह सोच कर उन्होंने नागों की माता सुरसा से कहा, ‘‘देवी, तुम हनुमान के बल-बुद्धि की परीक्षा लो।’’

देवताओं की बात सुनकर सुरसा तुरंत एक राक्षसी का रूप धारण कर हनुमान जी के सामने जा पहुंची और उनका मार्ग रोकते हुए बोली, ‘‘वानर वीर ! देवताओं ने आज मुझे तुमको अपना आहार बनाने के लिए भेजा है।’’
उसकी बातें सुनकर हनुमान जी ने कहा, ‘‘माता ! इस समय मैं प्रभु श्री रामचंद्र जी के कार्य से जा रहा हूं। उनका कार्य पूरा करके मुझे लौट आने दो। उसके बाद मैं स्वयं ही आकर तुम्हारे मुंह में प्रविष्ट हो जाऊंगा। यह तुमसे मेरी प्रार्थना है।’’ 

इस प्रकार हनुमान जी ने सुरसा से बहुत प्रार्थना की, लेकिन उसने किसी प्रकार भी उन्हें जाने न दिया। अंत में हनुमान जी ने कुद्ध होकर कहा, ‘‘अच्छा तो लो तुम मुझे अपना आहार बनाओ।’’
उनके ऐसा कहते ही सुरसा अपना मुंह सोलह योजन तक फैलाकर उनकी ओर बढ़ी। हनुमान जी ने भी तुरंत अपना आकार उसका दुगना अर्थात 32 योजन तक बढ़ा लिया। इस प्रकार जैसे-जैसे वह अपने मुख का आकार बढ़ाती गई, हनुमान जी अपने शरीर का आकार उसका  दुगना करते गए। अंत में सुरसा ने अपना मुंह फैलाकर 100 योजन तक चौड़ा कर लिया। 
हनुमान जी तुरंत अत्यंत छोटा रूप धारण करके उसके उस 100 योजन चौड़े मुंह में घुस कर तुरंत बाहर निकल आए। उन्होंने आकाश में खड़े होकर सुरसा से कहा, ‘‘माता ! देवताओं ने तुम्हें जिस कार्य के लिए भेजा था, वह पूरा हो गया है। अब मैं भगवान श्री राम चंद्र जी के कार्य के लिए अपनी यात्रा पुन: आगे बढ़ाता हूं।’’ 
सुरसा ने तब उनके सामने अपने असली रूप में प्रकट होकर कहा, ‘‘महावीर हनुमान ! देवताओं ने मुझे तुम्हारे बल-बुद्धि की परीक्षा लेने के लिए यहां भेजा था। तुम्हारे बल-बुद्धि की समानता करने वाला तीनों लोकों में कोई नहीं है। तुम शीघ्र ही भगवान श्री राम चंद्र जी के सारे कार्य पूर्ण करोगे। इसमें कोई संदेह नहीं है, ऐसा मेरा आशीर्वाद है।
🚩🙏 ॐ हं हनुमते नम:🙏🚩

उत्पन्ना एकादशी आज

उत्पन्ना एकादशी आज 

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प्रत्येक वर्ष मार्गशीर्ष मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी तिथि को उत्पन्ना एकादशी का व्रत किया जाता है। इस वर्ष 8 दिसंबर को उत्पन्ना एकादशी का व्रत रखा जाएगा। इस दिन भगवान विष्णु और माता एकादशी की पूजा की जाती है। हिंदू धर्म के अनुसार, इसे उत्पन्ना एकादशी इसलिए कहते हैं, क्योंकि इस दिन एकादशी माता की उत्पत्ति भगवान विष्णु द्वारा हुई थी। विष्णु जी ने ही इन्हें एकादशी नाम दिया और प्रत्येक व्रत में मां एकादशी को श्रेष्ट होने का वरदान भी दिया। उसके बाद से ही एकादशी का व्रत रखा जाने लगा, साथ ही विष्णु जी की पूजा की जाने लगी।

उत्पन्ना एकादशी का शुभ मुहूर्त
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8 दिसंबर को उत्पन्ना एकादशी का व्रत रखा जाएगा। प्रत्येक वर्ष 24 एकादशी होती है, जिसमें उत्पन्ना एकादशी सबसे महत्वपूर्ण होती है। 8 दिसंबर शुक्रवार को सुबह 5 बजकर 6 मिनट पर उत्पन्ना एकादशी की शुरुआत होगी। शनिवार यानी 9 दिसंबर को 6 बजकर 31 मिनट पर समाप्त हो जाएगी। ऐसे में आप पूजा 8 तारीख को सुबह 7 बजे से लेकर 10 बजकर 54 मिनट तक कर सकते हैं। साथ ही व्रत का पारण आप अगले दिन 9 तारीख को दिन के समय 1 बजकर 15 मिनट से लेकर 3 बजकर 20 मिनट पर कर सकते हैं।

उत्पन्ना एकादशी की पूजा विधि
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सबसे पहले सुबह उठकर स्नान करें। विष्णु भगवान की पूजा और उत्पन्ना एकादशी व्रत करने का संकल्प लें। पूजा स्थल पर विष्णु जी और माता एकादशी की तस्वीर रखें। पंचामृत से भगवान विष्णु को स्नान कराएं। धूप, दीप, चंदन, वस्त्र, अक्षत, पान का पत्ता, पीले फूल, फल, मिठाई, सुपारी आदि चढ़ाएं। एकादशी माता को फल, मिठाई, फूल, धूप, दीप, अक्षत, कुमकुम अर्पित करें। विष्णु चालीसा और उत्पन्ना एकादशी व्रत कथा का पाठ करें। अंत में आरती करें और विष्णु भगवान, माता एकादशी से हाथ जोड़कर आशीर्वाद लें। क्षमा प्रार्थना करें। इस दिन गरीब ब्राह्मण, जरूरतमंदों को पूजा में इस्तेमाल किए गए सामानों को दान कर सकते हैं। उन्हें दक्षिणा दें। फिर अगले दिन पारण करके उत्पन्ना एकादशी व्रत का समापन करें।

उत्पन्ना एकादशी पर करें ये उपाय
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1. यदि आपको संतान की प्राप्ति नहीं हो रही है तो पति और पत्नी इस दिन एक साथ पूजा-पाठ और व्रत करें। विधि-विधान से पूजा करने से संतान की प्राप्ति होती है। आपकी अन्य मनोकामनाएं भी पूर्ण होंगी।

2. यदि आप विष्णु जी के साथ इस दिन लक्ष्मी जी की पूजा करते हैं तो मां लक्ष्मी प्रसन्न होती हैं। ऐसे में आपके घर में धन की कमी नहीं होती। सुख-समृद्धि में इजाफा हो सकता है।

3. भगवान विष्णु जी की पूजा करने के दौरान ओम नमो भगवते वासुदेवाय नम: मंत्र जपें। इससे आपकी अधूरी इच्छाएं, मनोकामनाएं पूर्ण होंगी।

एकादशी व्रत की कथा
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सूतजी कहने लगे- हे ऋषियों! इस व्रत का वृत्तांत और उत्पत्ति प्राचीनकाल में भगवान कृष्ण ने अपने परम भक्त युधिष्ठिर से कही थी। वही मैं तुमसे कहता हूँ।

एक समय यु‍धिष्ठिर ने भगवान से पूछा था ‍कि एकादशी व्रत किस विधि से किया जाता है और उसका क्या फल प्राप्त होता है। उपवास के दिन जो क्रिया की जाती है आप कृपा करके मुझसे कहिए। यह वचन सुनकर श्रीकृष्ण कहने लगे- हे युधिष्ठिर! मैं तुमसे एकादशी के व्रत का माहात्म्य कहता हूँ। सुनो।

सर्वप्रथम हेमंत ऋ‍तु में मार्गशीर्ष कृष्ण एकादशी से इस व्रत को प्रारंभ किया जाता है। दशमी को सायंकाल भोजन के बाद अच्छी प्रकार से दातुन करें ताकि अन्न का अंश मुँह में रह न जाए। रात्रि को भोजन कदापि न करें, न अधिक बोलें। एकादशी के दिन प्रात: 4 बजे उठकर सबसे पहले व्रत का संकल्प करें। इसके पश्चात शौच आदि से निवृत्त होकर शुद्ध जल से स्नान करें। व्रत करने वाला चोर, पाखंडी, परस्त्रीगामी, निंदक, मिथ्याभाषी तथा किसी भी प्रकार के पापी से बात न करे।

स्नान के पश्चात धूप, दीप, नैवेद्य आदि सोलह चीजों से भगवान का पूजन करें और रात को दीपदान करें। रात्रि में सोना या प्रसंग नहीं करना चाहिए। सारी रात भजन-कीर्तन आदि करना चाहिए। जो कुछ पहले जाने-अनजाने में पाप हो गए हों, उनकी क्षमा माँगनी चाहिए। धर्मात्मा पुरुषों को कृष्ण और शुक्ल दोनों पक्षों की एकादशियों को समान समझना चाहिए।

जो मनुष्य ऊपर लिखी विधि के अनुसार एकादशी का व्रत करते हैं, उन्हें शंखोद्धार तीर्थ में स्नान करके भगवान के दर्शन करने से जो फल प्राप्त होता है, वह एकादशी व्रत के सोलहवें भाग के भी समान नहीं है। व्यतिपात के दिन दान देने का लाख गुना फल होता है। संक्रांति से चार लाख गुना तथा सूर्य-चंद्र ग्रहण में स्नान-दान से जो पुण्य प्राप्त होता है वही पुण्य एकादशी के दिन व्रत करने से मिलता है।

अश्वमेध यज्ञ करने से सौ गुना तथा एक लाख तपस्वियों को साठ वर्ष तक भोजन कराने से दस गुना, दस ब्राह्मणों अथवा सौ ब्रह्मचारियों को भोजन कराने से हजार गुना पुण्य भूमिदान करने से होता है। उससे हजार गुना पुण्य कन्यादान से प्राप्त होता है। इससे भी दस गुना पुण्य विद्यादान करने से होता है। विद्यादान से दस गुना पुण्य भूखे को भोजन कराने से होता है। अन्नदान के समान इस संसार में कोई ऐसा कार्य नहीं जिससे देवता और पितर दोनों तृप्त होते हों परंतु एकादशी के व्रत का पुण्य सबसे अधिक होता है।

हजार यज्ञों से भी ‍अधिक इसका फल होता है। इस व्रत का प्रभाव देवताओं को भी दुर्लभ है। रात्रि को भोजन करने वाले को उपवास का आधा फल मिलता है और दिन में एक बार भोजन करने वाले को भी आधा ही फल प्राप्त होता है। जबकि निर्जल व्रत रखने वाले का माहात्म्य तो देवता भी वर्णन नहीं कर सकते।

युधिष्ठिर कहने लगे कि हे भगवन! आपने हजारों यज्ञ और लाख गौदान को भी एकादशी व्रत के बराबर नहीं बताया। सो यह तिथि सब तिथियों से उत्तम कैसे हुई, बताइए।

भगवन कहने लगे- हे युधिष्ठिर! सतयुग में मुर नाम का दैत्य उत्पन्न हुआ। वह बड़ा बलवान और भयानक था। उस प्रचंड दैत्य ने इंद्र, आदित्य, वसु, वायु, अग्नि आदि सभी देवताओं को पराजित करके भगा दिया। तब इंद्र सहित सभी देवताओं ने भयभीत होकर भगवान शिव से सारा वृत्तांत कहा और बोले हे कैलाशपति! मुर दैत्य से भयभीत होकर सब देवता मृत्यु लोक में फिर रहे हैं। तब भगवान शिव ने कहा- हे देवताओं! तीनों लोकों के स्वामी, भक्तों के दु:खों का नाश करने वाले भगवान विष्णु की शरण में जाओ।

वे ही तुम्हारे दु:खों को दूर कर सकते हैं। शिवजी के ऐसे वचन सुनकर सभी देवता क्षीरसागर में पहुँचे। वहाँ भगवान को शयन करते देख हाथ जोड़कर उनकी स्तुति करने लगे‍कि हे देवताओं द्वारा स्तुति करने योग्य प्रभो! आपको बारम्बार नमस्कार है, देवताओं की रक्षा करने वाले मधुसूदन! आपको नमस्कार है। आप हमारी रक्षा करें। दैत्यों से भयभीत होकर हम सब आपकी शरण में आए हैं।

आप इस संसार के कर्ता, माता-पिता, उत्पत्ति और पालनकर्ता और संहार करने वाले हैं। सबको शांति प्रदान करने वाले हैं। आकाश और पाताल भी आप ही हैं। सबके पितामह ब्रह्मा, सूर्य, चंद्र, अग्नि, सामग्री, होम, आहुति, मंत्र, तंत्र, जप, यजमान, यज्ञ, कर्म, कर्ता, भोक्ता भी आप ही हैं। आप सर्वव्यापक हैं। आपके सिवा तीनों लोकों में चर तथा अचर कुछ भी नहीं है।

हे भगवन्! दैत्यों ने हमको जीतकर स्वर्ग से भ्रष्ट कर दिया है और हम सब देवता इधर-उधर भागे-भागे फिर रहे हैं, आप उन दैत्यों से हम सबकी रक्षा करें।

इंद्र के ऐसे वचन सुनकर भगवान विष्णु कहने लगे कि हे इंद्र! ऐसा मायावी दैत्य कौन है जिसने सब देवताअओं को जीत लिया है, उसका नाम क्या है, उसमें कितना बल है और किसके आश्रय में है तथा उसका स्थान कहाँ है? यह सब मुझसे कहो।

भगवान के ऐसे वचन सुनकर इंद्र बोले- भगवन! प्राचीन समय में एक नाड़ीजंघ नामक राक्षस थ उसके महापराक्रमी और लोकविख्यात मुर नाम का एक पुत्र हुआ। उसकी चंद्रावती नाम की नगरी है। उसी ने सब देवताअओं को स्वर्ग से निकालकर वहाँ अपना अधिकार जमा लिया है। उसने इंद्र, अग्नि, वरुण, यम, वायु, ईश, चंद्रमा, नैऋत आदि सबके स्थान पर अधिकार कर लिया है।

सूर्य बनकर स्वयं ही प्रकाश करता है। स्वयं ही मेघ बन बैठा है और सबसे अजेय है। हे असुर निकंदन! उस दुष्ट को मारकर देवताओं को अजेय बनाइए।

यह वचन सुनकर भगवान ने कहा- हे देवताओं, मैं शीघ्र ही उसका संहार करूंगा। तुम चंद्रावती नगरी जाओ। इस प्रकार कहकर भगवान सहित सभी देवताओं ने चंद्रावती नगरी की ओर प्रस्थान किया। उस समय दैत्य मुर सेना सहित युद्ध भूमि में गरज रहा था। उसकी भयानक गर्जना सुनकर सभी देवता भय के मारे चारों दिशाओं में भागने लगे। जब स्वयं भगवान रणभूमि में आए तो दैत्य उन पर भी अस्त्र, शस्त्र, आयुध लेकर दौड़े।
 
भगवान ने उन्हें सर्प के समान अपने बाणों से बींध डाला। बहुत-से दैत्य मारे गए। केवल मुर बचा रहा। वह अविचल भाव से भगवान के साथ युद्ध करता रहा। भगवान जो-जो भी तीक्ष्ण बाण चलाते वह उसके लिए पुष्प सिद्ध होता। उसका शरीर छिन्न‍-भिन्न हो गया किंतु वह लगातार युद्ध करता रहा। दोनों के बीच मल्लयुद्ध भी हुआ।

10 हजार वर्ष तक उनका युद्ध चलता रहा किंतु मुर नहीं हारा। थककर भगवान बद्रिकाश्रम चले गए। वहां हेमवती नामक सुंदर गुफा थी, उसमें विश्राम करने के लिए भगवान उसके अंदर प्रवेश कर गए। यह गुफा 12 योजन लंबी थी और उसका एक ही द्वार था। विष्णु भगवान वहां योगनिद्रा की गोद में सो गए।
 
मुर भी पीछे-पीछे आ गया और भगवान को सोया देखकर मारने को उद्यत हुआ तभी भगवान के शरीर से उज्ज्वल, कांतिमय रूप वाली देवी प्रकट हुई। देवी ने राक्षस मुर को ललकारा, युद्ध किया और उसे तत्काल मौत के घाट उतार दिया। 
 
श्री हरि जब योगनिद्रा की गोद से उठे, तो सब बातों को जानकर उस देवी से कहा कि आपका जन्म एकादशी के दिन हुआ है, अत: आप उत्पन्ना एकादशी के नाम से पूजित होंगी। आपके भक्त वही होंगे, जो मेरे भक्त हैं।

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