रामानुजाचार्य जन्मोत्सव विशेष
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जन्म की कथा
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देवगुरु बृहस्पतिजी ने कहा-देवेन्द्र! सृष्टि के प्रारम्भ में विराट् पुरुष की नाभि से एक विस्तृत कमल उत्पन्न हुआ। जिससे कमलासन ब्रह्मा उत्पन्न हुए। वे दो भुजा, चार मुख और दो पैरों वाले थे। उन्हें चिन्ता हुई कि मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ और मेरा उत्पत्तिकर्ता कौन है ? इस प्रकार चिन्तित होते ही हृदयस्थ देवता ने कहा-'तुम तप करो। ' यह सुनकर ब्रह्माजी ने महान् तप किया। चतुर्भुज, योगगम्य सनातन विष्णु का कमलासन ब्रह्मा ने हजार वर्ष तक समाधिस्थ होकर ध्यान किया इसी समय नवीन मेघ के समान श्यामल, चतुर्भुज भगवान् विष्णु आयुध एवं दिव्य अलंकारों से अलंकृत होकर बालकरूप में ब्रह्मा के सामने प्रकट हुए। समाधि से जागकर ब्रह्मा उन्हें देखकर चकित हो गये। भगवान् विष्णु ने हँसकर कहा-'वत्स! मैं ही तुम्हारा पिता हूँ।' ब्रह्मा स्वयं को उनका पिता मानते थे । इस प्रकार दोनों में विवाद होने लगा। उसी समय तमोमय रुद्र ज्योतिर्लिङ्गरूप में प्रकट हुआ। हंसरूप में ब्रह्मा और वराहरूप में हरि सौ वर्ष तक क्रमशः ऊपर नीचे आते-जाते रहे, परंतु उसका अन्त न पाकर असफल हो उन दोनों ने लौटकर भगवान् शिव की स्तुति की। प्रसन्न हो भगवान् भव दर्शन देकर कैलास चले गये और वहाँ समाधि में योगी रुद्र के दिव्य पाँच युग बीत गये इसी बीच तारकासुर नाम के भयंकर दानव ने हजार वर्ष तपकर ब्रह्मा से वर प्राप्त किया कि ' भाव से उत्पन्न पुत्र से ही तुम्हारी मृत्यु होगी।' वर प्राप्तकर तारकासुर ने देवताओं को जीतकर महेन्द्र का स्थान ग्रहण कर लिया। दुःखी देवगणों ने कैलास में जाकर रुद्र की स्तुति की। शिव ने कहा-'वर माँगो। उन लोगों ने नतमस्तक हो प्रणाम पूर्वक कहा-'भगवन्! भगवान् ब्रह्मा ने तारक को यह वर प्रदान किया है कि शिव-शक्ति से उत्पन्न पुत्र ही तुम्हें मारेगा। इसलिये भगवन्! आप हमलोगों की रक्षा करें और विवाह करें। स्वायम्भुव मन्वन्तर में दक्षप्रजापति की साठ कन्याएँ हुईं। उनमें एक सती नाम की भी कन्या थी। उसने एक वर्षतक आपकी पार्थिव पूजा की। उस सती को आपने वर प्रदान किया और वह आपकी प्रिया हुई। उसके पिता दक्ष ने आपका अपमान किया और दक्ष से उत्पन्न शरीर को सती ने यज्ञ में समर्पित कर दिया। उस सती का दिव्य तेज हिमालय में प्रविष्ट हुआ। अब वह अपना शरीर छोड़कर हिमालय तथा मेना की पुत्री पार्वती के रूप में उत्पन्न हुई है। वे गौरी उत्पन्न होते ही नौ वर्ष की हो गयीं। आपकी प्राप्ति के निमित्त उन्होंने सौ वर्ष तक जल में रहकर, सौ वर्ष पञ्चाग्रि का सेवनकर, सौ वर्ष तक वायुमात्र का पानकर और सौ वर्ष तक बिना साँस लिये आकाश-मण्डल तथा चन्द्रमण्डल आदि में
रहकर तपस्या भी की है। अतः हे भगवन् ! अब आप शिवा-पार्वती के साथ विवाह करें।
शिव ने कहा-देवगणो! आपकी बात अनुचित प्रतीत होती है, क्योंकि हमसे ज्येष्ठ ज्योति से उत्पन्न दस रुद्र अभी अविवाहित मैं उन सबसे छोटा भव नामक रुद्र हूँ, मैं उनके विवाह से पूर्व ही कैसे विवाह कर सकता हूँ? दूसरी बात यह है कि वे साक्षात् अव्यक्तरूपा पराम्बा हैं, उनसे सम्पूर्ण चराचर ब्रह्माण्ड परिव्याप्त है। योगीश्वर ! मैं मातृरूपा भगवती का वरण कैसे कर सकता हूँ? अत: आपलोगों के कल्याण के लिये मैं अपनी शक्ति आपलोगों को देता हूँ, वह आपलोगों की कामना पूर्ण करेगी। अनन्तर भगवान् शंकर अपनी शक्ति अग्नि को समर्पित कर स्वयं पुनः समाधिस्थ हो गये। वह्नि के साथ इन्द्रादि देवगणों ने सत्यलोक में आकर ब्रह्मा को सम्पूर्ण वृत्तान्त सूचित किया। पुन: देवताओं के समुद्योग तथा गिरिजा की तपस्या से भगवान् शंकर प्रसन्न हो गये। उन्होंने पार्वती को पाणिग्रहण करने का वर प्रदान किया। इसपर भगवती पार्वती ने नमस्कार कर कहा-'देव! मैं पिता-माता की आज्ञा के अनुसार ही कार्य करने वाली हूँ, अत: विवाह के लिये उनकी अनुमति चाहिये।'
भगवान शंकर ने सप्तर्षियों को बुलाकर सबकी सम्मति से हिमवान् के पास संदेश भेजा और विधिपूर्वक विवाह भी सम्पन्न हो गया। उस विवाह में बारातियों की सेवा के लिये पार्वती ने अपनी तपःसिद्धि से ऋद्धि सिद्धि को उत्पन्न कर यथाविधि सेवा सत्कार कर सबको संतुष्ट किया। यह देखकर ब्रह्मादि देवगण आश्चर्य में पड़ गये और उन्होंने अनेक प्रकार से उनकी स्तुति तथा दैत्यों से रक्षा की प्रार्थना भी की। पार्वती देवी ने प्रसन्न होकर उन्हें अभय-दान दिया। विवाह के पश्चात् भगवान् शिव पार्वती के साथ कैलास चले आये और हजार वर्षो तक आनन्द में निमग्र रहे। काम-प्रद्युम्न की धृष्टता देखकर भगवान् शंकर ने उसे भस्म कर अनङ्गरूप में कर दिया। उसकी पत्नी रति की प्रार्थना पर भगवान ने कहा-'तुम प्राणियों के हृदय में निवास करोगी। यह स्वारोचिष मन्वन्तर है। वैवस्वत मन्वन्तर के अट्ठाईसवें द्वापर में भगवान् श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्र को तुम पतिरूप में प्राप्त करोगी। ऐसा कहकर भगवान् शंकर अन्तर्धान हो गये।' (बाद में कुमारस्वामी स्कन्द की उत्पत्ति हुई, जिन्होंने तारकासुर का वधकर देवताओं को शान्त एवं प्रसन्न किया तथा सम्पूर्ण संसार के साथ स्वर्ग को सुस्थिर कर दिया।)
सूतजी ने कहा-मुने! देवगुरु बृहस्पति से यह सुनकर भगवान् भव ने अपने मुख से अपने उत्तम अंश को उत्पन्न कर गोदावरी के किनारे आचार्यशर्मा के पुत्र रूप में जन्म ग्रहण किया। वे आचार्य रामानुज के नाम से विख्यात हुए और रामशर्मा के अनुज हुए।
स्तोत्र... भविष्य पुराण
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