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सोमवार, 22 अप्रैल 2024

यूँ ही आमों का राजा नहीं बना ‘लंगड़ा’, हर आम के पीछे है एक खास कहानी, जानिए कैसे पड़ा ये अनोखा नाम?

 यूँ ही आमों का राजा नहीं बना ‘लंगड़ा’, हर आम के पीछे है एक खास कहानी, जानिए कैसे पड़ा ये अनोखा नाम? 
फलों का राजा आम हर किसी के जुबान का राजा माना जाता है। अप्रैल महीने के दस्तक देते ही आम का सीजन भी करवट लेता है, जिसके बाद बाजारों में आम खास हो जाता है। बनारस का फेमस ‘लंगड़ा आम’ विदेशों में भी अब धूम मचाने को तैयार है। इस लंगड़े आम को GI टैगिंग मिल चुकी है लेकिन क्या आप जानते हैं कि लंगड़ा आम, ‘लंगड़ा’ क्यों कहा जाता है?
लंगड़े आम की कहानी को समझने के लिए हमें 300 साल पीछे जाना पड़ेगा, तो आइए पलटते हैं 18वीं सदी के उन पन्नों को जिस वक्त काशी नरेश का राज हुआ करता था। कहा जाता है कि काशी नरेश के राज में एक शिव मंदिर में एक साधु महाराज दो पौधे लेकर पहुंचे। यहां उनकी मुलाकात मंदिर के पुजारी से हुई। साधु ने मंदिर परिसर में ही दोनों पौधों को लगाया। वक्त बीतने के साथ ही पौधे, पेड़ में बदल गए। उसमें आम भी लग आए। साधु ने आम को तोड़कर भगवान शिव के चरणों में काटकर चढ़ाया और गुठलियों को जला दिया।
भोलेनाथ ने चखा था पहला स्वाद
साधु 4 साल तक मंदिर में यही प्रक्रिया अपनाता रहा। आम काटकर भोलेनाथ को चढ़ाता, उसके बाद प्रसाद भक्तों में बांट देता। एक दिन अचानक साधु ने पुजारी को अपने पास बुलाया और कहा कि मंदिर में आने का उसका लक्ष्य पूरा हो चुका है। अब आगे से भोलेनाथ को आम का भोग लगाने की जिम्मेदारी तुम्हारी है। ध्यान रहे इसकी गुठलियां या कलम किसी के हाथ न लगे।
पुजारी ने साधु की बात का पूरा ख्याल रखा। वो कई सालों तक आम को काटकर भगवान के सामने चढ़ाता रहा और मंदिर के भक्तों को भी प्रसाद के रूप में देता रहा। लेकिन जो भी प्रसाद में आम खाता वो इसके स्वाद का दीवाना हो जाता। धीरे-धीरे पूरे बनारस में मंदिर वाले आम की चर्चा होने लगी। कई लोगों ने पुजारी से आम की गुठली मांगी ताकि वे पेड़ लगा सकें। लेकिन पुजारी ने किसी को भी गुठलियां नहीं दी। पूरे काशी में इस स्वादिष्ट प्रसाद के चर्चे होने लगे। यह बात काशी नरेश महाराजा प्रभु नारायण सिंह बहादुर तक पहुंच गई।
एक दिन पुजारी से मिलने काशी नरेश खुद मंदिर पहुंच गए। यहां उन्होंने पहले भोलेनाथ के स्वादिष्ट प्रसाद आम का स्वाद लिया। काशी नरेश ने पुजारी से आग्रह किया कि वे आम की कलम राज्य के प्रधान माली को दे दें, ताकि वो महल के बगीचे में इन्हें लगा सकें। लेकिन पुजारी को साधु की बात याद आ गई। पुजारी ने कहा कि वो भगवान शिव से प्रार्थना करेंगे और उनके निर्देश पर महल आकर आम की कलम महल के माली को दे देंगे। रात को पुजारी के सपने में भगवान शिव आए और उन्होंने आम की कलम राजा को देने के लिए कहा।
दूसरे दिन पुजारी आम के प्रसाद को लेकर राजमहल पहुंचा। उन्होंने राजा को आम की कलम भी सौंप दी। काशी नरेश ने माली के साथ जाकर बगीचे में पेड़ों की कलमें लगाईं। कुछ ही सालों में ये पेड़ बन गए। धीरे-धीरे पूरे रामनगर में आम के कई पेड़ हो गए। इसके बाद बनारस से बाहर भी आम की फसल होने लगी और अब ये देशभर में सबसे पॉपुलर आम की वैरायटी है।
तो ऐसे पड़ा आम का नाम लंगड़ा
लंगड़ा आम की कहानी तो आपको पता चल गई , लेकिन अब सोच रहे होंगे कि इसका नाम कैसे पड़ा। दरअसल, साधु ने जिस पुजारी को आम के पेड़ों का ख्याल रखने की जिम्मेदारी वो दिव्यांग था। उन्हें सब 'लंगड़ा पुजारी' के नाम से जानते थे। इसलिए आम की इस किस्म का नाम भी 'लंगड़ा आम' पड़ गया। आज भी इसे लंगड़ा आम या बनारसी लंगड़ा आम कहा जाता है।

मत इसलिए देना है ताकि हमारा देश हमारा ही रहे। अपना देश रहेगा तभी हम रहेंगे।

मत इसलिए देना है ताकि हमारा देश हमारा ही रहे, अपना देश रहेगा तभी हम रहेंगे।
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ईसा की पांचवी सदी में शाही राजा खिंगल ने अफगानिस्तान के गर्देज स्थान पर महाविनायक की प्राण प्रतिष्ठा कराई थी।

समय के साथ सभ्यता के ऊपर धूल चढ़ती गई और महाविनायक की प्रतिमा मिट्टी में कहीं दब गई।

युगों बाद खुदाई में जब वह प्रतिमा मिली तो उसे काबुल में ‘दरगाह पीर रतन नाथ’ के पास स्थापित किया गया। दरगाह पीर रतन नाथ की कहानी किसी दूसरे दिन सुनाएंगे। आज कहानी महाविनायक की।

दो वर्ष पूर्व बिहार का एक युवक अफगानिस्तान में भारतीय दूतावास में नौकरी करने पहुँचा। स्वयं को यायावर कहने वाले उस युवक को अफगानिस्तान के प्राचीन महाविनायक के सम्बंध में पता था, सो वे महाविनायक के चिन्ह खोजने निकले।

पर अफगानिस्तान में सनातन के चिह्न जितने ही सुलभ हैं, उन्हें खोज लेना उतना ही दुर्लभ। कई दिनों नहीं, कई महीनों के बाद उन्हें पीर रतन नाथ दरगाह का पता चला तो वे एक दिन पहुंचे।

पहुंचे तो एक ऐसा घर मिला जिसे भारत में मंदिर नहीं कह सकते। उस मंदिर में प्रतिमा स्थापित नहीं थी, बस रामायण महाभारत और गीता आदि पुस्तकें रखी हुई थीं।

युवक ने सेवादार से जब महाविनायक की प्रतिमा के बारे में पूछा तो बुजुर्ग सेवादार आश्चर्य में डूब गया। क्या कोई दूर देश से मात्र एक प्रतिमा के लिए आया है? कौन है यह?

भावुक हो चुके सेवादार ने एक बन्द कमरे में रखी महाविनायक की प्रतिमा दिखाई…

युगों बाद किसी ने श्रद्धा से महाविनायक को देखा, युगों बाद महाविनायक की प्रतिमा ने अपने किसी श्रद्धालु को वात्सल्य की दृष्टि से देखा। उस दिन, युगों बाद किसी ने अभिशप्त महाविनायक के चरणों में प्रणाम किया, प्रतिमा पोंछी और बीस रुपये वाले माला से उनका श्रृंगार किया।

जानते हैं, ढाई हज़ार वर्ष पूर्व अफगानिस्तान के हर कण्ठ से वेदमन्त्र उच्चारित होते थे, गलियों में यज्ञध्रूम की सुगन्ध पसरी रहती थी। ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की अवधारणा को जन्म देने वाली उस पुण्य भूमि पर सौ वर्ष पूर्व तक सनातन धर्म पूरी प्रतिष्ठा के साथ खड़ा था।

पर आज का सत्य यह है कि अफगानिस्तान से महाविनायक पर लेख लिख कर जब उस युवक ने भारत भेजा तो पत्रिका के सम्पादक ने भय के मारे लेख में उनका नाम तक नहीं जोड़ा, कि कहीं उन्हें अफगानिस्तान में इसका दण्ड न भोगना पड़े।

सभ्यताओं के चिह्न कैसे मरते हैं देखेंगे?

काबुल में एक अत्यंत प्राचीन तीर्थस्थल है ‘आशा माई’। पश्तो प्रभाव के कारण वहां के लोग उस स्थान को ‘कोही आस्माई’ कहते थे, मतलब आशामाई की पहाड़ी। बीस वर्ष पूर्व सरकार ने उस पहाड़ी पर टेलीविज़न का टावर लगा दिया, लोग धीरे धीरे उस स्थान को “कोही टेलीविजन” कहने लगे। आशामाई का नाम मिट गया।

काबुल में ही एक सड़क थी, देवगनाना रोड। देवगनाना संस्कृत के ‘देवगणानाम’ का अपभ्रंश है। अब उस सड़क का नाम है, दे-अफ़ग़ान रोड। सभ्यता के चिह्न ऐसे मरते हैं।

   
देश में लोकतंत्र का महापर्व चल रहा है। मत देना हमारा कर्तव्य भी है, और हमारी आवश्यकता भी। अपने घरों से निकलिए, और मत देते समय इतना अवश्य याद रखिए कि अब हमारे पास धरती का यही एक टुकड़ा है जहाँ हम अपनी परम्पराओं को निभा सकते हैं, महाविनायक की अर्चना कर सकते हैं।

ऐसा ना हो कि सौ-पचास वर्षों बाद किसी दूसरे ललित कुमार को इसी तरह दिल्ली, आगरा, मथुरा या कानपुर में अपने चिह्न खोजने आना पड़े। यकीन मानिए 200 वर्ष पहले काबुल के हिंदुओं ने भी ऐसा नहीं सोचा होगा कि 200 वर्ष बाद हमारा कोई बच्चा जब काबुल आएगा तो उसे अपने पूर्वजों के चिह्न इस दशा में मिलेंगे। 1946 ईस्वी तक सिंध के लोगों ने यह नहीं सोचा होगा कि पचास वर्ष बाद ही उनसे उनकी संपत्ति, उनका धर्म, उनकी बेटियां, उनके बेटे सबकुछ छीन लिए जाएंगे।

हम सभ्यताओं के युद्ध में जी रहे हैं। हमको छोड़कर हर सभ्यता हमारी परम्पराओं को अपराध और हराम बताती है, और मूर्ति तथा मूर्तिपूजकों की समाप्ति को ही अपना परम् उद्देश्य मानती है। उनकी तलवार हमारी गर्दन पर है… यही है हमारा आज का सत्य।

मैं यह नहीं कह रहा कि आप फलाँ दल को वोट दीजिये। मैं क्यों कहूँ? मैं बस यह कह रहा हूँ कि मत देते समय ध्यान रखिये कि मत अपने देश के लिए देना है।


मत इसलिए देना है ताकि देश में फिर कोई हत्यारा गुरु गोविंद सिंह जी के साहिबज़ादों को दीवाल में न चुनवा सके।

मत इसलिए देना है ताकि फिर किसी बिरसा मुंडा को अपनी संस्कृति के लिए प्राण न देना पड़े।

मत इसलिए देना है ताकि फिर किसी पद्मावती को अग्नि में न उतरना पड़े।

मत इसलिए देना है ताकि अयोध्या, मथुरा, काशी, कांची, पुरी, अवंतिका बनी रहे।

मत इसलिए देना है ताकि हज़ार वर्षों बाद भी जब हमारा कोई बेटा इस मिट्टी को सूँघे तो उसे इस मिट्टी में हमारी गन्ध मिल सके।

मत इसलिए देना है ताकि हमारा देश हमारा ही रहे। अपना देश रहेगा तभी हम रहेंगे।

एकता कपूर - भारतीय संस्कृति के लिए घातक, ऐसे लोग हमारे समाज के लिए कैंसर है।

एकता कपूर

यह हमेशा महिला प्रधान, सास ननद वाली , पुरुषों को कमतर दिखाने वाली तथा बेबुनियादी धार्मिक धारावाहिक बनाती है।

धार्मिक सीरियल में यह धर्म ग्रन्थ, पोशाक तथा संवाद के साथ छेड़ - छाड़ करने क़ी कोशिश करती है।

जहाँ ना भी जरूरी हो वहाँ भी नारीसशक्तिकरण घुसेड़ने क़ी जबरदस्ती कोशिश करती है।

अरे भई तुम सास ननद वाले धारावाहिकों में महिला सशक्तिकरण दिखाओ न। किसने मना किया है...?

परन्तु धर्म ग्रन्थ में जो है वही रहने दो...।

कभी महिलाओं को धार्मिक सीरियल में रोमन कपड़े पहना देती हो तो कभी शिव तथा कृष्ण को पार्वती तथा राधा के पैर दबाते दिखाती हो।

मर्दों को नीचा दिखाने का एक भी मौका नहीं छोड़ती हो।

मैंने पूरा शिव पुराण, विष्णु पुराण, वाल्मीकि रामायण, गीता व महाभारत पढ़ा है..। कहीं भी शिव को पार्वती का, विष्णु को लक्ष्मी का या फिर कृष्ण को राधा का पैर दबाने का जिक्र नहीं है.....।

पहले के ज़माने में जब किसी महिला का पैर धोखे से भी पति को लग जाता तो वो महिला उसे पाप मानती थी।

मेरे घर में यही परम्परा आज भी है...।

फिर इसने सीरियल में आधुनिकता क्यों घुसाया?

इसने गंदी वेबसीरीज भी बनाई।

✍️ वेबसीरीज के अश्लीलता पर बवाल होने पर इसने कहा क़ी लोग ब्लू फ़िल्में देखते हैं कि नहीं?

अरे मुर्ख औरत! वेबसीरीज और पॉर्न में अंतर नहीं है।

वेबसीरीज खुले प्लेटफार्म पर मिलता है परन्तु पॉर्न नहीं।

वेबसीरीज बच्चे भी देख लेते हैं पर पॉर्न.....।

और वैसे भी यदि कोई अपनी पत्नी के साथ कमरे के भीतर संसर्ग कर रहा है तो क्या वह खुले सड़क पर भी कर लेगा...।

क्योंकि दोनों तो सम्भोग ही हुआ???

गलती इसकी नहीं गलती हमारी है जो हम इन जैसों को सिर पे चढ़ा लेते हैं।

और सबसे बड़ी गलती है सेंसर बोर्ड क़ी। और उससे बड़ी गलती हम इन अवांछित धारावाहिकों को देख कर करते हैं| यदि आज इसे लोग देखना बंद कर दे तो ये कल से बनना भी बंद हो जायेंगे |

ऐसे लोग हमारे समाज के लिए कैंसर है।



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