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शुक्रवार, 6 सितंबर 2024

हरतालिका व्रत का वैदिक एवं लौकिक मंत्रों से पूजन

हरतालिका व्रत का वैदिक एवं लौकिक मंत्रों से पूजन

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हरतालिका पूजन के लिए शिव, पार्वती, गणेश एव रिद्धि सिद्धि जी की प्रतिमा बालू रेत अथवा काली मिट्टी से बनाई जाती हैं। इसके बाद निम्न मंत्रो द्वारा शिव परिवार की पहले गणेश जी इसके बाद महादेव फिर माता पार्वती और कार्तिकेय जी की क्रम से पूजा करनी चाहिये।

किसी भी पूजा से पहले दीपक जलाया जाता है उसके बाद पूजन का संकल्प लिया जाता है।

दीप प्रज्वलन का मंत्र
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शुभं करोति कल्याणम् आरोग्यम् धनसंपदा।
शत्रुबुद्धिविनाशाय दीपकाय नमोऽस्तु ते।।
दीपो ज्योति परं ब्रह्म दीपो ज्योतिर्जनार्दन:।
दीपो हरतु मे पापं संध्यादीप नमोऽस्तु ते।।
 
आचमन 
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(अब निम्न मंत्र बोलते हुए तीन बार आचमन करें-

ॐ केशवाय नमः स्वाहा (आचमन करें)
ॐ नारायणाय नमः स्वाहा (आचमन करें)
ॐ माधवाय नमः स्वाहा (आचमन करें)
(निम्न मंत्र बोलकर हाथ धो लें)
ॐ हृषीकेशाय नमः हस्तम्‌ प्रक्षालयामि
तत्पश्चात तीन बार प्राणायाम करें।

पवित्रकरण
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 (प्राणायाम के बाद अपने ऊपर एवं पूजन सामग्री पर निम्न मंत्र बोलते हुए जल छिड़कें)- 'ॐ अपवित्रह पवित्रो वा सर्व-अवस्थाम्‌ गतो-अपि वा।
यः स्मरेत्‌ पुण्डरी-काक्षम्‌ स बाह्य-अभ्यंतरह शुचि-हि॥
ॐ पुण्डरी-काक्षह पुनातु।'

पूजन संकल्प 
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संकल्प लेते समय हाथ में जल लिया जाता है, क्योंकि इस पूरी सृष्टि के पंचतत्व अग्रि, पृथ्वी, आकाश, वायु और जल में भगवान गणपति जल तत्व के अधिपति हैं। इसीलिए प्रथम पूज्य श्रीगणेश को सामने रखकर संकल्प लिया जाता है। ताकि श्रीगणेश की कृपा से पूजन कर्म बिना किसी बाधा के पूर्ण हो सके।

आवाहन मंत्र
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गजाननं भूतगणादिसेवितम कपित्थजम्बू फल चारू भक्षणं।
उमासुतम शोक विनाशकारकं नमामि विघ्नेश्वर पादपंकजम।।

आगच्छ भगवन्देव स्थाने चात्र स्थिरो भव।
यावत्पूजा करिष्यामि तावत्वं सन्निधौ भव।।

अब नीचे दिया मंत्र पढ़कर प्रतिष्ठा (प्राण प्रतिष्ठा) करें -
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मंत्र👉 अस्यैप्राणाः प्रतिष्ठन्तु अस्यै प्राणा क्षरन्तु च।
अस्यै देवत्वमर्चार्यम मामेहती च कश्चन।।

निम्न मंत्र से गणेश भगवान को आसान दें
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रम्यं सुशोभनं दिव्यं सर्व सौख्यंकर शुभम।
आसनं च मया दत्तं गृहाण परमेश्वरः।।

पाद्य (पैर धुलना) निम्न मंत्र से पैर धुलाये।
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उष्णोदकं निर्मलं च सर्व सौगंध्य संयुत्तम।
पादप्रक्षालनार्थाय दत्तं ते प्रतिगह्यताम।।

आर्घ्य(हाथ धुलना) निम्न मंत्र से हाथ धुलाये
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अर्घ्य गृहाण देवेश गंध पुष्पाक्षतै:।
करुणाम कुरु में देव गृहणार्ध्य नमोस्तुते।।

अब निम्न मंत्र से आचमन कराए
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सर्वतीर्थ समायुक्तं सुगन्धि निर्मलं जलं।
आचम्यताम मया दत्तं गृहीत्वा परमेश्वरः।।

स्नान का मंत्र
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गंगा सरस्वती रेवा पयोष्णी नर्मदाजलै:।
स्नापितोSसी मया देव तथा शांति कुरुश्वमे।।

दूध् से स्नान कराये
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कामधेनुसमुत्पन्नं सर्वेषां जीवन परम।
पावनं यज्ञ हेतुश्च पयः स्नानार्थं समर्पितं।।

दही से स्नान कराए
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पयस्तु समुदभूतं मधुराम्लं शक्तिप्रभं।
ध्यानीतं मया देव स्नानार्थं प्रतिगृह्यतां।।

घी से स्नान कराए
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नवनीत समुत्पन्नं सर्व संतोषकारकं।
घृतं तुभ्यं प्रदास्यामि स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम।।।

शहद से स्नान कराए
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तरु पुष्प समुदभूतं सुस्वादु मधुरं मधुः।
तेजः पुष्टिकरं दिव्यं स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम।।

शर्करा (गुड़ वाली चीनी) से स्नान
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इक्षुसार समुदभूता शंकरा पुष्टिकार्कम।
मलापहारिका दिव्या स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम।।

पंचामृत से स्नान कराए
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पयोदधिघृतं चैव मधु च शर्करायुतं।
पंचामृतं मयानीतं स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम।।

शुध्दोदक (शुद्ध जल ) से स्नान कराए
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मंदाकिन्यास्त यध्दारि सर्वपापहरं शुभम।
तदिधं कल्पितं देव स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम।।

निम्न मंत्र बोलकर वस्त्र पहनाए
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सर्वभूषाधिके सौम्ये लोक लज्जा निवारणे।
मयोपपादिते तुभ्यं वाससी प्रतिगृह्यतां।।

उपवस्त्र (कपडे का टुकड़ा ) अर्पण करें
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सुजातो ज्योतिषा सह्शर्म वरुथमासदत्सव:।
वासोअस्तेविश्वरूपवं संव्ययस्वविभावसो।।

अब यज्ञोपवीत (जनेऊ) पहनाए
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नवभिस्तन्तुभिर्युक्त त्रिगुण देवतामयम |
उपवीतं मया दत्तं गृहाणं परमेश्वर : ||

मधुपर्क (दही, घी, शहद और चीनी का मिश्रण) अर्पण करें।
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कस्य कन्स्येनपिहितो दधिमध्वा ज्यसन्युतः।
मधुपर्को मयानीतः पूजार्थ् प्रतिगृह्यतां।।

गन्ध (चंदन अबीर गुलाल) चढ़ाए
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श्रीखण्डचन्दनं दिव्यँ गन्धाढयं सुमनोहरम। विलेपनं सुरश्रेष्ठ चन्दनं प्रतिगृह्यतां।।

रक्त(लाल )चन्दन चढ़ाए
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रक्त चन्दन समिश्रं पारिजातसमुदभवम।
मया दत्तं गृहाणाश चन्दनं गन्धसंयुम।।

रोली लगाए
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कुमकुम कामनादिव्यं कामनाकामसंभवाम ।
कुम्कुमेनार्चितो देव गृहाण परमेश्वर्:।।

सिन्दूर चढ़ाए
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सिन्दूरं शोभनं रक्तं सौभाग्यं सुखवर्धनम्।
शुभदं कामदं चैव सिन्दूरं प्रतिगृह्यतां।।

अक्षत चढ़ाए
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अक्षताश्च सुरश्रेष्ठं कुम्कुमाक्तः सुशोभितः।
माया निवेदिता भक्त्या गृहाण परमेश्वरः।।

पुष्प चढ़ाये
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पुष्पैर्नांनाविधेर्दिव्यै: कुमुदैरथ चम्पकै:।
पूजार्थ नीयते तुभ्यं पुष्पाणि प्रतिगृह्यतां।।

पुष्प माला चढ़ाए
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माल्यादीनि सुगन्धिनी मालत्यादीनि वै प्रभो।
मयानीतानि पुष्पाणि गृहाण परमेश्वर:।।

बेल का पत्र चढ़ाए
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त्रिशाखैर्विल्वपत्रैश्च अच्छिद्रै: कोमलै: शुभै:।
तव पूजां करिष्यामि गृहाण परमेश्वर :।।

दूर्वा चढ़ाए
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त्वं दूर्वेSमृतजन्मानि वन्दितासि सुरैरपि।
सौभाग्यं संततिं देहि सर्वकार्यकरो भव।।

दूर्वाकर (दूर्वा हरि दूब) चढ़ाए।
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दूर्वाकुरान सुहरिता नमृतान मंगलप्रदाम।
आनीतांस्तव पूजार्थ गृहाण गणनायक:।।

शमीपत्र अर्पण करें
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शमी शमय ये पापं शमी लाहित कष्टका।
धारिण्यर्जुनवाणानां रामस्य प्रियवादिनी।।

अबीर गुलाल चढ़ाए
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अबीरं च गुलालं च चोवा चन्दन्मेव च।
अबीरेणर्चितो देव क्षत: शान्ति प्रयच्छमे।।

आभूषण चढ़ाए
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अलंकारान्महा दव्यान्नानारत्न विनिर्मितान।
गृहाण देवदेवेश प्रसीद परमेश्वर:।।

सुगंध तेल चढ़ाए
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चम्पकाशोक वकु ल मालती मीगरादिभि:।
वासितं स्निग्धता हेतु तेलं चारु प्रगृह्यतां।।

धूप दिखाए 
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वनस्पतिरसोदभूतो गन्धढयो गंध उत्तम :।
आघ्रेय सर्वदेवानां धूपोSयं प्रतिगृह्यतां।।

दीप दिखाए
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आज्यं च वर्तिसंयुक्तं वहिन्ना योजितं मया।
दीपं गृहाण देवेश त्रैलोक्यतिमिरापहम।।

धूप दीप दिखाने के बाद अपने हाथ धो लें।

नैवेद्य (मिठाई) अर्पण करें
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शर्कराघृत संयुक्तं मधुरं स्वादुचोत्तमम।
उपहार समायुक्तं नैवेद्यं प्रतिगृह्यतां।।

मध्येपानीय (आचमन के लिये जल दिखाए)
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अतितृप्तिकरं तोयं सुगन्धि च पिबेच्छ्या।
त्वयि तृप्ते जगतृप्तं नित्यतृप्ते महात्मनि।।

ऋतुफल (फल)
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नारिकेलफलं जम्बूफलं नारंगमुत्तमम।
कुष्माण्डं पुरतो भक्त्या कल्पितं प्रतिगृह्यतां।।

आचमन (भगवान को जल दिखाकर किसी पात्र में डाले)
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गंगाजलं समानीतां सुवर्णकलशे स्थितन।
आचमम्यतां सुरश्रेष्ठ शुद्धमाचनीयकम।।

अखंड ऋतुफल (सूखे मेवे) चढ़ाए।
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इदं फलं मयादेव स्थापितं पुरतस्तव।
तेन मे सफलावाप्तिर्भवेज्जन्मनि जन्मनि।।

ताम्बूल पूंगीफलं (पान, सुपारी लौंग, इलायची) चढ़ाए
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पूंगीफलम महद्दिश्यं नागवल्लीदलैर्युतम।
एलादि चूर्णादि संयुक्तं ताम्बूलं प्रतिगृह्यतां।।

दक्षिणा (दान) अर्पण करें 
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हिरण्यगर्भ गर्भस्थं हेमबीजं विभावसो:।
अनन्तपुण्यफलदमत : शान्ति प्रयच्छ मे।।

आरती करें
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चंद्रादित्यो च धरणी विद्युद्ग्निंस्तर्थव च।
त्वमेव सर्वज्योतीष आर्तिक्यं प्रतिगृह्यताम।।

पुष्पांजलि करें
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नानासुगन्धिपुष्पाणि यथाकालोदभवानि च ।
पुष्पांजलिर्मया दत्तो गृहाण परमेश्वर:।।

प्रार्थना करें
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रक्ष रक्ष गणाध्यक्ष रक्ष त्रैलोक्य रक्षक:।
भक्तानामभयं कर्ता त्राता भव भवार्णवात।।

।।अनया पूजया श्री गणपति: देवता प्रीयतां न मम।। ऐसा बोलकर हाथ जोड़कर प्रणाम करें।
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वाराह अवतार जन्मोत्सव व्रत महात्मय एवं कथा

वाराह अवतार जन्मोत्सव व्रत महात्मय एवं कथा

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जगत के कल्याण हेतु जो लीलाधारी भगवान अनेकानेक अवतार लेते हैं इन्हीं भगवान विष्णु के तृतीय अवतार वराह की पूजा आज शुक्रवार 06 सितम्बर भाद्रपद शुक्ल तृतीया एवं मतान्तर से माघ शुक्ल द्वादशी के दिन की जाती है.! वराह भगवान का यह व्रत सुख, सम्पत्ति दायक एवं कल्याणकारी है. जो श्रद्धालु भक्त वराह भगवान के नाम से भाद्रपद शुक्ल तृतीया एवं मतान्तर से माघ शुक्ल द्वादशी के दिन व्रत रखते हैं उनके सोये हुए भाग्य को भगवान जागृत कर देते हैं।

लोकप्रिय धारणा यह है कि इस दिन भगवान विष्णु ने धरती माता को राक्षस हिरण्याक्ष से बचाया था।

मान्यता यह है कि इस दिन का पालन करने से मोक्ष प्राप्त करने में मदद मिलेगी। जो भक्त इस दिन वराह अवतार की पूजा करता है, उसे अच्छे स्वास्थ्य, शांति और समृद्धि की प्राप्ति होती है।

भगवान वराह के रूप में भगवान विष्णु की विशेष पूजा की जाती है। कृपया ध्यान दें कि यह दिन केवल कुछ क्षेत्रों में और कुछ हिंदू समुदायों द्वारा मनाया जाता है। वराह को समर्पित सबसे महत्वपूर्ण दिन भाद्रपद शुक्ल पक्ष (अगस्त-सितंबर) के दौरान वराह जयंती मनाई जाती है।

वराह को जल से भरे बर्तन में स्थापित किया जाता है और इस दिन उनकी पूजा की जाती है। एक नैवेद्य तैयार किया जाता है और भगवान विष्णु से जुड़े सामान्य पूजा अनुष्ठानों का पालन किया जाता है।

इस दिन जप किया जाने वाला मंत्र 'ओम वराहय नमः' है।

वाराह द्वादशी कथा
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भगवान का वाराह अवतार वेद-प्रधान यज्ञस्वरूप अवतार है। दिन तथा रात्रि इनके नेत्र हैं, हविष्य इनकी नासिका है। सामवेद का गंभीर स्वर इनका उद्घोष है। यूप इनकी दाढ़े हैं, चारों वेद इनके चरण हैं, यज्ञ इनके दाँत हैं। श्रुतियाँ इनका आभूषण हैं, चितियाँ मुख हैं। साक्षात अग्नि ही इनकी जिह्वा तथा कुश इनकी रोमावली है एवं ब्रह्म इनका मस्तक है। वाराह भगवान के विषय में कथा है कि:- भगवान विष्णु जी के धाम श्वेतद्वीप में, जय और विजय नामक दो द्वारपाल थे। एक समय जब भगवान का दर्शन करने के लिए सनकादि योगीश्वर आए तो उन्हें जय-विजय ने बीच में ही रोक लिया। इससे क्रुद्ध होकर सनकादि ने उन्हें शाप दिया, " द्वारपालों! तुम दोनों भगवान के इस धाम का परित्याग करके भूलोक में चले जाओ।"

भगवान को जब ये बात पता चली तो उन्होंने जय-विजय और सनकादि महात्माओं को बुलाया और बोले, " द्वारपालों ! तुम लोगों ने महात्माओं का अपराध किया है अतः तुम इस शाप का उल्लंघन नहीं कर सकते।

तुम यहाँ से जाकर या तो सात जन्मों तक मेरे पापहीन भक्त रहो या तीन जन्मों तक मेरे प्रति शत्रुभाव रखते हुए
समय बिताओ।"

यह सुनकर जय-विजय ने कहा कि, " प्रभु! अधिक समय तक हम आपसे अलग पृथ्वी पर रह पाने में असमर्थ हैं। अतः केवल तीन जन्मों तक ही शत्रुभाव धारण करके रहेंगे।"

इसके पश्चात जय-विजय कश्यप और दिति के असुर पुत्र के रूप में उत्पन्न हुए।

उनमें से छोटे पुत्र का नाम हिरण्याक्ष व बड़े पुत्र का नाम हिरण्यकशिपु था।

हिरण्याक्ष मद से उन्मत्त रहता था। उसका शरीर कितना बड़ा था या हो सकता था- इसका कोई मापदण्ड नहीं था।

एक बार बड़ा रूप बनाकर उसने अपनी हजारों भुजाओं से पर्वत, समुद्र, द्वीप और सम्पूर्ण प्राणियों सहित समस्त पृथ्वी को गेंद की तरह सर पर रखकर रसातल में चला गया। यह देखकर सभी देवता भय से पीड़ित हो हाहाकार करने लगे और रोग-शोक से रहित श्रीहरि नारायण की शरण में गये। उस अद्भुत वृत्तान्त को सुनकर विश्वरूपधारी जनार्दन ने वाराहरूप धारण किया। उस समय उनकी बड़ी-बड़ी दाढ़ें और विशाल भुजाएँ थीं। उन परमेश्वर वाराह ने अपनी एक दाढ़ से उस दैत्य पर आघात किया । इससे उसका विशाल शरीर कुचल गया और वह अधम दैत्य तुरंत ही मर गया। पृथ्वी को रसातल में पड़ी हुई देखकर भगवान वाराह ने उसे अपनी दाढ़ पर उठाकर यथावत पहले की भांति व्यवस्थित कर दिया। वाराह रूपधारी महाविष्णु को देखकर समस्त देवगण और मुनि भक्ति से मस्तक झुकाकर उनकी स्तुति करके गंध, पुष्प आदि से उन श्रीहरि का अर्चन करने लगे। वसति दशनशिखरेधरणी तव लग्ना शशिनि कलङ्ककलेव निमग्ना ॥ केशव धृतसूकर रूप, जय जगदीश हरे चंद्रमा में निमग्न हुई कलङ्करेखा के समान यह पृथ्वी आपके दाँत की नोंक पर अटकी हुई सुशोभित हो रही है, ऐसे सूकर रूपधारी जगत्पति श्रीहरि केशव की जय हो । तब भगवान वाराह ने उन सभी को मनोवाञ्छित वरदान दिया और महर्षियों के मुख से अपनी स्तुति सुनकर अंतर्धान हो गए। समस्त जीवों के हितैषी, समूची पृथ्वी के उद्धारक भगवान यज्ञ वाराह के श्रीचरणों में हमारा बारम्बार प्रणाम ।

वराह द्वादशी पर विविध समस्याओ के समाधान के लिये मंत्र एवं स्तोत्र-कवच पाठ
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भगवान विषणु के 24 अवतार हैं, और हर रूप का अपना अलग महत्व है। ऐस कहा जाता है अगर कोई व्यक्ति किसी तरह की भीषण व भयंकर परेशानी या समस्या से जूझ रहा हो तो उसे इनकी शरण में आ जाना चाहिए। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार श्रद्धा पूर्वक इनकी शरण में जाता है और सच्चे व शुद्ध मन से इनकी आराधना करता है तो वराह भगवान उस पर अपनी कृपा दृषटि हमेशा बनाए रखते हैं।  

वराह मंत्र जप
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ज्योतिषशास्त्र के अनुसार वराह जयंती के दिन व्रत आदि करने वाले व्यक्ति को हर धार्मिक कार्य को करने से पहले संकल्प लेना चाहिए। फिर चाहे वो मंत्र जाप का संकल्प ही क्यों न हो। ऐसा माना जाता है इससे जातक द्वारा की गई पूजा सफल होती है।

ऐसे लें संकल्प
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संकल्प लेने से पहले एक कलश में भगवान वराह की प्रतिमा स्थापित कर विधि विधान सहित षोडषोपचार से भगवान वराह की पूजा करें। पूरे दिन व्रत रखकर रात्रि में जगारण करके भगवान विष्णु के अवतारों की कथा का श्रवण करना चाहिए।

वराह मंत्र
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ॐ वराहाय नमः
ॐ सूकराय नमः
ॐ धृतसूकररूपकेशवाय नमः

वराह देव गायत्री मंत्र 
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ॐ नमो भगवते वराह रूपाय भूभुर्वः स्वः।
स्यात्पते भूपति त्यं देहयते ददापय स्वाहा॥

उपरोक्त मंत्रों का जाप करने से आपकी समस्या का समाधान निकल जाता है। मंत्र जाप के दौरान इस बात का खास ध्यान रखें कि आपका मन केवल भगवान की तरफ़ ही एकाग्र हो।

वराह स्तोत्र 
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ऋषयः ऊचुः

जितं जितं तेऽजित यज्ञभावन त्रयीं तनुं स्वां परिधुन्वते नमः ।
यद्रोमरन्ध्रेषु निलिल्युरध्वरा- स्तस्मै नमः कारणसूकराय ते ॥१॥

रूपं तवैतन्ननु दुष्कृतात्मनां दुर्दर्शनं देव यदध्वरात्मकम्।
छन्दांसि यस्य त्वचि बर्हिरोम- स्वाज्यं दृशित्वंघ्रिषु चातुर्होत्रम् ॥२॥

स्रुक्तुण्ड आसीत्स्रुव ईश नासयो- रिडोदरे चमसाः कर्णरन्ध्रे
प्राशित्रमास्ये ग्रसने ग्रहास्तु ते यच्चर्वणं ते भगवन्नग्निहोत्रम् ॥३॥

दीक्षानुजन्मोपसदः शिरोधरं त्वं प्रायणीयोदयनीयदंष्ट्रः।
जिह्वा प्रवर्ग्यस्तव शीर्षकं क्रतोः सभ्यावसथ्यं चितयोऽसवो हि ते ॥४॥

सोमस्तु रेतः सवनान्यवस्थितिः संस्थाविभेदास्तव देव धातवः।
सत्राणि सर्वाणि शरीरसन्धि- स्त्वं सर्वयज्ञक्रतुरिष्टिबन्धनः ॥५॥

नमो नम्स्तेऽखिलमन्त्रदेवता- द्रव्याय सर्वक्रतवे क्रियात्मने।
वैराग्यभक्त्यात्मजयानुभावित- ज्ञानाय विद्यागुरवे नमोनमः ॥६॥

दंष्ट्राग्रकोट्या भगवंस्त्वया धृता विराजते भूधर भूः सभूधरा।
यथा वनान्निःसरतो दता धृता मतङ्गजेन्द्रस्य सपत्रपद्मिनी ॥७॥

त्रयीमयं रूपमिदं च सौकरं भूमण्डलेनाथ दता धृतेन ते।
चकास्ति शृङ्गोढघनेनभूयसा कुलाचलेन्द्रस्य यथैव विभ्रमः ॥८॥

संस्थापयैनां जगतां सतस्थुषां लोकाय पत्नीमसि मातरं पिता।
विधेम चास्यै नमसा सह त्वया यस्यां स्वतेजोऽग्निमिवारणावधाः ॥९॥

कः श्रद्दधीतान्यतमस्तव प्रभो रसां गताया भुव उद्विबर्हणम्।
न विस्मयोऽसौ त्वयि विश्वविस्मये यो माययेदं ससृजेऽतिविस्मयम् ॥१०॥

विधुन्वता वेदमयं निजं वपु- र्जनस्तपस्सत्यनिवासिनो वयम्।
सटाशिखोद्धूतशिवांबुबिन्दुभि- र्विमृज्यमाना भृशमीश पाविताः ॥११॥

स वै बत भ्रष्टमतिस्तवैष ते यः कर्मणां पारमपारकर्मणः।
यद्योगमायागुणयोगमोहितं विश्वं समस्तं भगवन् विधेहि शम् ॥१२॥

श्रीवराहकवचम् 
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आद्यं रङ्गमिति प्रोक्तं विमानं रङ्ग संज्ञितम् । श्रीमुष्णं वेङ्कटाद्रिं च साळग्रामं च नैमिशम् ॥ 

तोयाद्रिं पुष्करं चैव नरनारायणाश्रमम् । 
अष्टा मे मूर्तयः सन्ति स्वयं व्यक्ता महीतले ॥ 

श्री सूतः - श्रीरुद्रमुख निर्णीत मुरारि गुणसत्कथा । सन्तुष्टा पार्वती प्राह शङ्करं लोकशङ्करम् ॥ १॥ 

श्री पार्वती उवाच - श्रीमुष्णेशस्य माहात्म्यं वराहस्य महात्मनः । 
श्रुत्वा तृप्तिर्न मे जाता मनः कौतूहलायते । श्रोतुं तद्देव माहात्म्यं तस्मात्वर्णय मे पुनः ॥ २॥ 

श्री शङ्कर उवाच - श‍ृणु देवि प्रवक्ष्यामि श्रीमुष्णेशस्य वैभवम् । 
यस्य श्रवणमात्रेण महापापैः प्रमुच्यते । सर्वेषामेव तीर्थानां तीर्थ राजोऽभिधीयते ॥ ३॥ 

नित्य पुष्करिणी नाम्नी श्रीमुष्णे या च वर्तते । जाता श्रमापहा पुण्या वराह श्रम वारिणा ॥ ४॥ 

विष्णोरङ्गुष्ठ संस्पर्शात्पुण्यदा खलु जाह्नवी । विष्णोः सर्वाङ्गसम्भूता नित्यपुष्करिणी शुभा ॥ ५॥ 

महानदी सहस्त्रेण नित्यदा सङ्गता शुभा । सकृत्स्नात्वा विमुक्ताघः सद्यो याति हरेः पदम् ॥ ६॥ 

तस्या आग्नेय भागे तु अश्वत्थच्छाययोदके । स्नानं कृत्वा पिप्पलस्य कृत्वा चापि प्रदक्षिणम् ॥ ७॥ 

दृष्ट्वा श्वेतवराहं च मासमेकं नयेद्यदि । कालमृत्युं विनिर्जित्य श्रिया परमया युतः ॥ ८॥ 

आधिव्याधि विनिर्मुक्तो ग्रहपीडाविवर्जितः । भुक्त्वा भोगाननेकांश्च मोक्षमन्ते व्रजेत्ध्रुवम् ॥ ९॥ 

अश्वत्थमूलेऽर्कवारे नित्य पुष्करिणी तटे । वराहकवचं जप्त्वा शतवारं जितेन्द्रियः ॥ १०॥ 

क्षयापस्मारकुष्ठाद्यैः महारोगैः प्रमुच्यते । वराहकवचं यस्तु प्रत्यहं पठते यदि ॥ ११॥ 

शत्रु पीडाविनिर्मुक्तो भूपतित्वमवाप्नुयात् । लिखित्वा धारयेद् यस्तु बाहुमूले गलेऽथ वा ॥ १२॥ 

भूतप्रेतपिशाचाद्याः यक्षगन्धर्वराक्षसाः । शत्रवो घोरकर्माणो ये चान्ये विषजन्तवः । नष्ट दर्पा विनश्यन्ति विद्रवन्ति दिशो दश ॥ १३॥ 

श्रीपार्वती उवाच - तत्ब्रूहि कवचं मह्यं येन गुप्तो जगत्त्रये । सञ्चरेत्देववन्मर्त्यः सर्वशत्रुविभीषणः । येनाप्नोति च साम्राज्यं तन्मे ब्रूहि सदाशिव ॥ १४॥ 

श्रीशङ्कर उवाच - श‍ृणु कल्याणि वक्ष्यामि वाराहकवचं शुभम् । येन गुप्तो लभेत्मर्त्यो विजयं सर्वसम्पदम् ॥ १५॥ 

अङ्गरक्षाकरं पुण्यं महापातकनाशनम् । सर्वरोगप्रशमनं सर्वदुर्ग्रहनाशनम् ॥ १६॥ 

विषाभिचार कृत्यादि शत्रुपीडानिवारणम् । नोक्तं कस्यापि पूर्वं हि गोप्यात्गोप्यतरं यतः ॥ १७॥ 

वराहेण पुरा प्रोक्तं मह्यं च परमेष्ठिने । युद्धेषु जयदं देवि शत्रुपीडानिवारणम् ॥ १८॥ 

वराहकवचात्गुप्तो नाशुभं लभते नरः । वराहकवचस्यास्य ऋषिर्ब्रह्मा प्रकीर्तितः ॥ १९॥ 

छन्दोऽनुष्टुप् तथा देवो वराहो भूपरिग्रहः । प्रक्षाल्य पादौ पाणी च सम्यगाचम्य वारिणा ॥ २०॥ 

कृत स्वाङ्ग करन्यासः सपवित्र उदङ्मुखः । ओं भर्भवःसुवरिति नमो भूपतयेऽपि च ॥ २१॥ 

नमो भगवते पश्चात्वराहाय नमस्तथा । एवं षडङ्गं न्यासं च न्यसेदङ्गुलिषु क्रमात् ॥ २२॥ 

नमः श्वेतवराहाय महाकोलाय भूपते । यज्ञाङ्गाय शुभाङ्गाय सर्वज्ञाय परात्मने ॥ २३॥ 

स्रव तुण्डाय धीराय परब्रह्मस्वरूपिणे । वक्रदंष्ट्राय नित्याय नमोऽन्तैर्नामभिः क्रमात् ॥ २४॥ 

अङ्गुलीषु न्यसेद् विद्वान् करपृष्ठ तलेष्वपि । ध्यात्वा श्वेतवराहं च पश्चात्मन्त्र मुदीरयेत् ॥ २५॥ 

ॐ श्वेतं वराहवपुषं क्षितिमुद्धरन्तं शङ्घारिसर्व वरदाभय युक्त बाहुम् । 
ध्यायेन्निजैश्च तनुभिः सकलैरुपेतं पूर्णं विभुं सकलवाञ्छितसिद्धयेऽजम् ॥ २६॥ 

वराहः पूर्वतः पातु दक्षिणे दण्डकान्तकः । हिरण्याक्षहरः पातु पश्चिमे गदया युतः ॥ २७॥ 

उत्तरे भूमिहृत्पातु अधस्ताद् वायु वाहनः । ऊर्ध्वं पातु हृषीकेशो दिग्विदिक्षु गदाधरः ॥ २८॥ 

प्रातः पातु प्रजानाथः कल्पकृत्सङ्गमेऽवतु । मध्याह्ने वज्रकेशस्तु सायाह्ने सर्वपूजितः ॥ २९॥ 

प्रदोषे पातु पद्माक्षो रात्रौ राजीवलोचनः । निशीन्द्र गर्वहा पातु पातूषः परमेश्वरः ॥ ३०॥ 

अटव्यामग्रजः पातु गमने गरुडासनः । स्थले पातु महातेजाः जले पात्ववनी पतिः ॥ ३१॥ 

गृहे पातु गृहाध्यक्षः पद्मनाभः पुरोऽवतु । झिल्लिका वरदः पातु स्वग्रामे करुणाकरः ॥ ३२॥ 

रणाग्रे दैत्यहा पातु विषमे पातु चक्रभृत् । रोगेषु वैद्यराजस्तु कोलो व्याधिषु रक्षतु ॥ ३३॥ 

तापत्रयात्तपोमूर्तिः कर्मपाशाच्च विश्वकृत् । क्लेशकालेषु सर्वेषु पातु पद्मापतिर्विभुः ॥ ३४॥ 

हिरण्यगर्भसंस्तुत्यः पादौ पातु निरन्तरम् । गुल्फौ गुणाकरः पातु जङ्घे पातु जनार्दनः ॥ ३५॥ 

जानू च जयकृत्पातु पातूरू पुरुषोत्तमः । रक्ताक्षो जघने पातु कटिं विश्वम्भरोऽवतु ॥ ३६॥ 

पार्श्वे पातु सुराध्यक्षः पातु कुक्षिं परात्परः । नाभिं ब्रह्मपिता पातु हृदयं हृदयेश्वरः ॥ ३७॥ 

महादंष्ट्रः स्तनौ पातु कण्ठं पातु विमुक्तिदः । प्रभञ्जन पतिर्बाहू करौ कामपिताऽवतु ॥ ३८॥ 

हस्तौ हंसपतिः पातु पातु सर्वाङ्गुलीर्हरिः । सर्वाङ्गश्चिबुकं पातु पात्वोष्ठौ कालनेमिहा ॥ ३९॥ 

मुखं तु मधुहा पातु दन्तान् दामोदरोऽवतु । नासिकामव्ययः पातु नेत्रे सूर्येन्दुलोचनः ॥ ४०॥ 

फालं कर्मफलाध्यक्षः पातु कर्णौ महारथः । शेषशायी शिरः पातु केशान् पातु निरामयः ॥ ४१॥ 

सर्वाङ्गं पातु सर्वेशः सदा पातु सतीश्वरः । इतीदं कवचं पुण्यं वराहस्य महात्मनः ॥ ४२॥ 

यः पठेत्श‍ृणुयाद्वापि तस्य मृत्युर्विनश्यति । तं नमस्यन्ति भूतानि भीताः साञ्जलिपाणयः ॥ ४३॥ 

राजदस्युभयं नास्ति राज्य भ्रंशो न जायते । यन्नाम स्मरणात्भीताः भूतवेताळराक्षसाः ॥ ४४॥ 

महारोगाश्च नश्यन्ति सत्यं सत्यं वदाम्यहम् । कण्ठे तु कवचं बद्ध्वा वन्ध्या पुत्रवती भवेत् ॥ ४५॥ 

शत्रुसैन्य क्षय प्राप्तिः दुःखप्रशमनं तथा । उत्पात दुर्निमित्तादि सूचितारिष्ट नाशनम् ॥ ४६॥ 

ब्रह्मविद्याप्रबोधं च लभते नात्र संशयः । 
धृत्वेदं कवचं पुण्यं मान्धाता परवीरहा ॥ ४७॥ 

जित्वा तु शाम्बरीं मायां दैत्येन्द्रानवधीत्क्षणात् । कवचेनावृतो भूत्वा देवेन्द्रोऽपि सुरारिहा ॥ ४८॥ 

भूम्योपदिष्टकवच धारणान नरकोऽपि च । सर्वावध्यो जयी भूत्वा महतीं कीर्तिमाप्तवान् ॥ ४९॥ 

अश्वत्थमूलेऽर्कवारे नित्य पुष्करिणीतटे । वराहकवचं जप्त्वा शतवारं पठेद्यदि ॥ ५०॥ 

अपूर्वराज्य संप्राप्तिं नष्टस्य पुनरागमम् । लभते नात्र सन्देहः सत्यमेतन्मयोदितम् ॥ ५१॥ 

जप्त्वा वराह मन्त्रं तु लक्षमेकं निरन्तरम् । दशांशं तर्पणं होमं पायसेन घृतेन च ॥ ५२॥ 

कुर्वन् त्रिकाल सन्ध्यासु कवचेनावृतो यदि । भूमण्डलाधिपत्यं च लभते नात्र संशयः ॥ ५३॥ 

इदमुक्तं मया देवि गोपनीयं दुरात्मनाम् । वराहकवचं पुण्यं संसारार्णवतारकम् ॥ ५४॥ 

महापातककोटिघ्नं भुक्तिमुक्तिफलप्रदम् । वाच्यं पुत्राय शिष्याय सद्वृताय सुधीमते ॥ ५५॥ 

श्री सूतः - इति पत्युर्वचः श्रुत्वा देवी सन्तुष्ट मानसा । विनायक गुहौ पुत्रौ प्रपेदे द्वौ सुरार्चितौ ॥ ५६॥ 

कवचस्य प्रभावेन लोकमाता च पार्वती । 
य इदं श‍ृणुयान्नित्यं यो वा पठति नित्यशः । 
स मुक्तः सर्व पापेभ्यो विष्णुलोके महीयते ॥ ५७॥ 

इति श्रीवराह कवचं सम्पूर्णम् ।

श्रीवाराहयनुग्रहाष्टकम्
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ईश्वर उवाच

मातर्जगद्रचननाटकसूत्रधारः सद्रूपमाकलयितुं परमार्थतोयम् ।
ईशीप्यनीश्वरपदं समुपैति ताद्रकोऽन्यः स्तवं किमिव तावकमादधातुम् ।।1 

नमामिं किं नु गुणतस्तव लोकतुंडे नाडम्बरं स्प्रशति दण्डधरस्य दण्डः ।
यल्लेशलम्बितभवाम्बुनिधिर्यतो यत्तवन्नामसंसृतिरियं ननु नः स्तुतिस्ते ।।2

त्वंचिंतनादरसमुल्लसदप्रमेयाननदोदयात्समुदितः स्फुटरोमहर्षः ।
मातर्नमामि सुदिनानि सदेत्यमुं त्वामभ्यर्थयेऽर्थमिति पूरयताद्दयालो ।।3

इन्द्रेनदुमौलिविधिकेशवमौलिरत्न रोचिश्रचयोज्जवलितपादसरोजयुग्मे ।
चेतो मतौ मम सदा प्रतिबिम्बितं त्वं भूया भवानि विदधातु सदोरूहारे ।।4 

लीलोद्धतक्षितितलस्य वराहमूर्तेर्वाराहमूर्तिरखिलार्थकारी त्वमेव ।
प्रालेयरश्मिसुकलोल्लसितावतंसा त्वं देवि वामतनुभागहरा हरस्य ।।5।।

त्वामम्ब तप्तकनकोज्ज्वलकान्तिमन्तर्ये चिन्तयन्ति
युवतीतनुमागलान्ताम् ।
चक्रायुधत्रिनयनाम्बरपोतृवक्त्रां तेषां पदाम्बुजयुगं प्रणमन्ति देवा: ।।6।।

इति श्रीवराह अनुग्रहाष्टकं सम्पूर्णम् ।
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महालक्ष्मी मंदिर, कोल्हापुर महाराष्ट्र

महालक्ष्मी मंदिर, कोल्हापुर महाराष्ट्र
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पुराणों में वर्णित 108 पीठों में से एक और महाराष्ट्र में स्थित देवी के साढ़े तीन पीठों में से एक। इस मंदिर का निर्माण चालुक्य राजा कर्णदेव ने 634 ईस्वी में करवाया था। मंदिर का निर्माण पहली बार चालुक्य वंश के दौरान किया गया था।

पुराण, कई जैन ग्रंथ, ताम्रपत्र और कई दस्तावेज मिले हैं जो अंबाबाई मंदिर की प्राचीनता को साबित करते हैं और कोल्हापुर की अंबाबाई सही मायने में पूरे महाराष्ट्र की कुलस्वामिनी मानी जाती हैं। 

कहा जाता है कि जब मंदिर को मुगलों ने नष्ट कर दिया था, तब देवी की मूर्ति को पुजारी ने कई सालों तक छिपा कर रखा था। बाद में ई. में संभाजी महाराज के शासनकाल में। मंदिर को 1715 से 1722 की अवधि के दौरान पुनर्जीवित किया गया था। कारीगरी में अंतर के लिए अच्छी तरह से नक्काशीदार दीवारों और सादे ऊपरी शिखर का हिसाब हो सकता है।

हर साल जनवरी-फरवरी में और नवंबर में सूर्यास्त के समय महालक्ष्मी के मंदिर में एक बहुत ही असाधारण घटना का अनुभव होता है। वह है :-

1. 31 जनवरी (और 9 नवंबर): सूर्य की किरणें दरवाजे से प्रवेश करती हैं और सीधे महालक्ष्मी की मूर्ति के चरणों पर पड़ती हैं।
2. 1 फरवरी (और 10 नवंबर): सूर्य की किरणें देवी की छाती तक पहुंचती हैं। 3. 2 फरवरी (और 11 नवंबर): डूबते सूरज की किरणें देवी के पूरे शरीर पर पड़ती हैं।

इस पर्व को महालक्ष्मी का किरोनोत्सव कहा जाता है। इस पर्व को बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है।

कोल्हापुर महालक्ष्मी मंदिर की कथा
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राजा दक्ष के यज्ञ में सती ने अपनी आहुति दी और भगवान शंकर उनकी देह कंधे पर लिए सारे ब्रह्मांड में घूमे। तब विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती की देह के जो भाग किए, वे पृथ्वी पर 108 जगह गिरे। इनमें आँखें जहाँ गिरी वहाँ लक्ष्मी प्रकट हुईं। करवीर यानी कोल्हापुर देवी का ऐसा पवित्र स्थान है जिसे दक्षिण की काशी माना जाता है। आमतौर पर किसी भी तीर्थस्थान को देवी या देवता के नाम से जाना जाता है, लेकिन कोल्हापुर और करवीर यह राक्षस के नाम से जाना जाता है।

इस स्थान के बारे में कहा जाता है कि विष्णु की नाभि से उत्पन्न ब्रह्मा ने तमोगुण से युक्त गय, लवण और कोल्ह ऐसे तीन मानस पुत्रों का निर्माण किया। बड़े पुत्र गय ने ब्रह्मा की उपासना कर वर माँगा कि उसका शरीर देवपितरों तीर्थ से भी अधिक शुद्ध हो और ब्रह्माजी के तथास्तु कहने के साथ गय अपने स्पर्श से पापियों का उद्धार करने लगा। यम की शिकायत पर देवताओं ने बाद में उसका शरीर यज्ञ के लिए माँग लिया था।

केशी राक्षस के बेटे कोल्हासुर के अत्याचार से परेशान देवताओं ने देवी से प्रार्थना की। श्री महालक्ष्मी ने दुर्गा का रूप लिया और ब्रह्मास्त्र से उसका सिर उड़ा दिया। कोल्हासुर के मुख से दिव्य तेज निकलकर सीधे श्री महालक्ष्मी के मुँह में प्रवेश कर गया और धड़ कोल्हा (कद्दू) बन गया। अश्विन पंचमी को उसका वध हुआ था। मरने से पहले उसने वर माँगा था कि इस इलाके का नाम कोल्हासुर और करवीर बना रहे। समय के साथ कोल्हासुर से कोल्हापुर हुआ, लेकिन करवीर वैसा ही कायम रहा।

एक अन्य मान्यता के अनुसार ऐसा कहा जाता है कि तिरुपति यानी भगवान विष्णु से रूठकर उनकी पत्नी महालक्ष्मी कोल्हापुर आईं। इस वजह से आज भी तिरुपति देवस्थान से आया शालू उन्हें दिवाली के दिन पहनाया जाता है। कोल्हापुर की श्री महालक्ष्मी को करवीर निवासी अंबाबाई के नाम से भी जाना जाता है। यहाँ दीपावली की रात महाआरती में माँगी मुराद पूरी होने की जन-मान्यता है। अश्विन शुक्ल प्रतिपदा यानी घटस्थापना से उत्सव की तैयारी होती है। पहले दिन बैठी पूजा, दूसरे दिन खड़ी पूजा, त्र्यंबोली पंचमी, छठे दिन हाथी के हौदे पर पूजा, रथ पर पूजा, मयूर पर पूजा और अष्टमी को महिषासुरमर्दिनी सिंहवासिनी के रूपों में देवी का उत्सव दर्शनीय होता है।

मंदिर से जुड़े कुछ रोचक तथ्य
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👉 कहा जाता है कि इस मंदिर में बेशकीमती खजाना छिपा है। तीन साल पहले जब इसे खोला गया तो यहां सोने, चांदी और हीरों के ऐसे आभूषण सामने आए जिसकी बाजार में कीमत अरबों रुपए में हैं।

👉 खजाने में सोने की बड़ी गदा, सोने के सिक्कों का हार, सोने की जंजीर, चांदी की तलवार, महालक्ष्मी का स्वर्ण मुकुट, श्रीयंत्र हार, सोने की चिड़िया, सोने के घुंघरू, हीरों की कई मालाएं, मुगल आदिल शाही, पेशवा काल के जेवरात मिले थे।

👉 इतिहासकारों के मुताबिक, कोल्हापुर के महालक्ष्मी मंदिर में कोंकण के राजाओं, चालुक्य राजाओं, आदिल शाह, शिवाजी और उनकी मां जीजाबाई तक ने चढ़ावा चढ़ाया है। 

👉 मंदिर की सुरक्षा पुख्ता कर सीसीटीवी कैमरों की जद में इस खजाने की गिनती पूरे 10 दिन तक चली थी।

👉 खजाने की गिनती के बाद आभूषणों का बीमा करवाया गया था। इससे पहले मंदिर के खजाने को 1962 में खोला गया था।

👉 मंदिर के बाहर लगे शिलालेख से पता चलता है कि यह 1800 साल पुराना है। 

👉 शालि वाहन घराने के राजा कर्णदेव ने इसका निर्माण करवाया था, जिसके बाद धीरे-धीरे मंदिर के अहाते में 30-35 मंदिर और निर्मित किए गए।

👉 27 हजार वर्गफुट में फैला यह मंदिर 51 शक्तिपीठों में शुमार है। आदि शंकराचार्य ने महालक्ष्मी की मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा की थी।

नहीं गिने जा सके इसके खंभे
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👉 इस मंदिर को लेकर कहा जाता है कि इस मंदिर में स्थित खंभों से एक ऐसा रहस्य जुड़ा है जिसे सुलझाने में विज्ञान भी नाकाम साबित हुआ है।

👉 मंदिर के चारों दिशाओं में एक-एक दरवाजा मौजूद है और इसके खंभों को लेकर मंदिर प्रशासन का दावा है कि आज तक इन्हें कोई गिन नहीं सका है।

👉 मंदिर प्रशासन की मानें तो कई बार लोगों ने इन्हें गिनने की कोशिश की लेकिन जिसने भी ऐसा किया उसके साथ कोई न कोई अनहोनी घटना देखने को मिली है।

👉 विज्ञान भी इस रहस्य से पर्दा उठाने में नाकाम साबित हुआ है। कैमरे की सहायता से इन्हें काउंट करने का प्रयास हुआ लेकिन वह भी नाकाम साबित हुआ।

मंदिर में और क्या है विशेष 
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👉 कहा जाता है कि देवी सती के तीनों नेत्र यहां गिरे थे। यहां भगवती महालक्ष्मी का निवास माना जाता है।

👉 मंदिर की सबसे बड़ी खासियत यह है कि साल में एक बार सूर्य की किरणें देवी की प्रतिमा पर सीधे पड़ती हैं।

👉 बड़े पत्थरों को जोड़कर तैयार मंदिर की जुड़ाई बगैर चूने के की गई है। मंदिर में श्री महालक्ष्मी की तीन फुट ऊंची, चतुर्भुज मूर्ति है। 

👉 ऐसा कहा जाता है कि तिरुपति यानी भगवान विष्णु से रूठकर उनकी पत्नी महालक्ष्मी कोल्हापुर आईं थी।

👉 इस वजह से आज भी तिरुपति देवस्थान से आया शाल उन्हें दीपावली के दिन पहनाया जाता है। 

👉 कोल्हापुर की श्री महालक्ष्मी को करवीर निवासी 'अंबाबाई' के नाम से भी जाना जाता है।

👉यहां दीपावली की रात महाआरती में मांगी मुराद पूरी होने की जन-मान्यता है। 
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श्री -विष्णु के अवतार ( धन्वन्तरि-अवतार )

श्री -विष्णु के अवतार ( धन्वन्तरि-अवतार ) 

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भगवान धन्वन्तरि भगवार विष्णु के अवतारों में से एक हैं। भगवान धन्वन्तरि आयुर्वेद जगत् के प्रणेता तथा वैद्यक शास्त्र के देवता माने जाते हैं। भारतीय पौराणिक दृष्टि से 'धनतेरस' को स्वास्थ्य के देवता धन्वन्तरि का दिवस माना जाता है। धन्वन्तरि आरोग्य, सेहत, आयु और तेज के आराध्य देवता हैं। धनतेरस के दिन उनसे प्रार्थना की जाती है कि वे समस्त जगत् को निरोग कर मानव समाज को दीर्घायु प्रदान करें।

देवता एवं दैत्यों के सम्मिलित प्रयास के श्रान्त हो जाने पर समुद्र मन्थन स्वयं क्षीर-सागरशायी कर रहे थे। हलाहल, कामधेनु, ऐरावत, उच्चै:श्रवा अश्व, अप्सराएँ, कौस्तुभमणि, वारुणी, महाशंख, कल्पवृक्ष, चन्द्रमा, लक्ष्मी और कदली वृक्ष उससे प्रकट हो चुके थे। अन्त में हाथ में अमृतपूर्ण स्वर्ण कलश लिये श्याम वर्ण, चतुर्भुज भगवान धन्वन्तरि प्रकट हुए। अमृत-वितरण के पश्चात् देवराज इन्द्र की प्रार्थना पर भगवान धन्वन्तरि ने देव-वैद्य का पद स्वीकार कर लिया। अमरावती उनका निवास बनी। कालक्रम से पृथ्वी पर मनुष्य रोगों से अत्यन्त पीड़ित हो गये। प्रजापति इन्द्र ने धन्वन्तरि जी से प्रार्थना की। भगवान ने काशी के राजा दिवोदास के रूप में पृथ्वी पर अवतार धारण किया। इनकी 'धन्वन्तरि-संहिता' आयुर्वेद का मूल ग्रन्थ है। आयुर्वेद के आदि आचार्य सुश्रुत मुनि ने धन्वन्तरि जी से ही इस शास्त्र का उपदेश प्राप्त किया था।

भगवान धन्वन्तरि को आयुर्वेद के प्रणेता तथा वैद्यक शास्त्र के देवता के रूप में जाना जाता है। आदिकाल में आयुर्वेद की उत्पत्ति ब्रह्मा से ही मानते हैं। आदिकाल के ग्रंथों में 'रामायण'-'महाभारत' तथा विविध पुराणों की रचना हुई, जिसमें सभी ग्रंथों ने 'आयुर्वेदावतरण' के प्रसंग में भगवान धन्वन्तरि का उल्लेख किया है। धन्वन्तरि प्रथम तथा द्वितीय का वर्णन पुराणों के अतिरिक्त आयुर्वेद ग्रंथों में भी छुट-पुट रूप से मिलता है, जिसमें आयुर्वेद के आदि ग्रंथों 'सुश्रुत्रसंहिता', 'चरकसंहिता', 'काश्यप संहिता' तथा 'अष्टांग हृदय' में उनका विभिन्न रूपों में उल्लेख मिलता है।

इसके अतिरिक्त अन्य आयुर्वेदिक ग्रंथों- 'भाव प्रकाश', 'शार्गधर' तथा उनके ही समकालीन अन्य ग्रंथों में 'आयुर्वेदावतरण' का प्रसंग उधृत है। इसमें भगवान धन्वन्तरि के संबंध में भी प्रकाश डाला गया है। महाकवि व्यास द्वारा रचित 'श्रीमद्भावत पुराण' के अनुसार धन्वन्तरि को भगवान विष्णु का अंश माना गया है तथा अवतारों में अवतार कहा गया है। 

'महाभारत', 'विष्णुपुराण', 'अग्निपुराण', 'श्रीमद्भागवत' महापुराणादि में यह उल्लेख मिलता है। कहा जाता है कि देवता और असुर एक ही पिता कश्यप ऋषि के संतान थे। किंतु इनकी वंश वृद्धि बहुत अधिक हो गई थी। अतः ये अपने अधिकारों के लिए परस्पर आपस में लड़ा करते थे। वे तीनों ही लोकों पर राज्याधिकार प्राप्त करना चाहते थे। असुरों या राक्षसों के गुरु शुक्राचार्य थे, जो संजीवनी विद्या जानते थे और उसके बल से असुरों को पुन: जीवित कर सकते थे। इसके अतिरिक्त दैत्य, दानव आदि माँसाहारी होने के कारण हृष्ट-पुष्ट स्वस्थ तथा दिव्य शस्त्रों के ज्ञाता थे। अतः युद्ध में असुरों की अपेक्षा देवताओं की मृत्यु अधिक होती थी।

पुरादेवऽसुरायुद्धेहताश्चशतशोसुराः।
हेन्यामान्यास्ततो देवाः शतशोऽथसहस्त्रशः।

वैद्य
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'गरुड़पुराण' और 'मार्कण्डेयपुराण' के अनुसार वेद मंत्रों से अभिमंत्रित होने के कारण ही धन्वन्तरि वैद्य कहलाए थे। 'विष्णुपुराण' के अनुसार धन्वन्तरि दीर्घतथा के पुत्र बताए गए हैं। इसमें बताया गया है वह धन्वन्तरि जरा विकारों से रहित देह और इंद्रियों वाला तथा सभी जन्मों में सर्वशास्त्र ज्ञाता है। भगवान नारायण ने उन्हें पूर्वजन्म में यह वरदान दिया था कि काशिराज के वंश में उत्पन्न होकर आयुर्वेद के आठ भाग करोगे और यज्ञ भाग के भोक्ता बनोगे। इस प्रकार धन्वन्तरि की तीन रूपों में उल्लेख मिलता है-

समुद्र मन्थन से उत्पन्न धन्वन्तरि प्रथम धन्व के पुत्र धन्वन्तरि द्वितीय काशिराज दिवोदास धन्वन्तरि तृतीय

अन्य प्रसंग
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आयु के पुत्र का नाम धन्वन्तरि था। वह वीर यशस्वी तथा धार्मिक था। राज्यभोग के उपरांत योग की ओर प्रवृत्त होकर वह गंगा सागर संगम पर समाधि लगाकर तपस्या करने लगा। गत अनेक वर्षों से उससे त्रस्त महाराक्षस समुद्र में छुपा हुआ था। वैरागी धन्वन्तरि को देख उसने नारी का रूप धारण कर उसका तप भंग कर दिया, तदनंतर अंतर्धान हो गया। धन्वन्तरि उसी की स्मृतियों में भटकने लगा। ब्रह्मा ने उसे समस्त स्थिति से अवगत किया तथा विष्णु की आराधना करने के लिए कहा। विष्णु को प्रसन्न करके उसने इन्द्र पद प्राप्त किया, किंतु पूर्वजन्मों के कर्मों के फलस्वरूप वह तीन बार इन्द्र पद से च्युत हुआ।

।। *जय श्री हरि* ।।
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कलावे (मौली) से जुड़े रहस्य

कलावे (मौली) से जुड़े रहस्य

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हिंदू धर्म में कई रीति-रिवाज तथा मान्यताएं हैं।इन रीति-रिवाजों तथा मान्यताओं का सिर्फ धार्मिक ही नहीं वैज्ञानिक पक्ष भी है, जो वर्तमान समय में भी एकदम सटीक बैठता है।हिंदू धर्म में प्रत्येक धार्मिक कर्म यानि पूजा-पाठ, यज्ञ, हवन आदि के पूर्व ब्राह्मण द्वारा यजमान के दाएं हाथ में कलावा/मौली (एक विशेष धार्मिक धागा) बांधी जाती है।

किसी भी शुभ कार्य की शुरुआत करते समय या नई वस्तु खरीदने पर हम उसे कलावा/मौली बांधते है ताकि वह हमारे जीवन में शुभता प्रदान करे।कलावा/मौली कच्चे सूत के धागे से बनाई जाती है। यह लाल रंग, पीले रंग, या दो रंगों या पांच रंगों की होती है।इसे हाथ गले और कमर में बांधा जाता है।
शंकर भगवान के सिर पर चंद्रमा विराजमान है इसीलिए उन्हें चंद्रमौली भी कहा जाता है।कलावा/मौली बांधने की प्रथा तब से चली आ रही है जब दानवीर राजा बली की अमरता के लिए वामन भगवान ने उनकी कलाई पर रक्षा सूत्र बांधा था।शास्त्रों में भी इसका इस श्लोक के माध्यम से मिलता है 👇

येन बद्धो बलीराजा दानवेन्द्रो महाबल:।
तेन त्वामनुबध्नामि रक्षे माचल माचल।।

👉पूजन कर्म के समय हमारी कलाई पर लाल धागा बांधा जाता है। इसे रक्षासूत्र, कलेवा या मौली कहा जाता है। ऐसी मान्यता है कि यह धागा बांधने के बाद पूजन कर्म पूर्ण होते हैं। इस मान्यता का सिर्फ धार्मिक ही नहीं, बल्कि वैज्ञानिक पक्ष भी है।

👉प्रत्येक पूजा-पाठ, यज्ञ, हवन में पूजा करवाने वाले हमारी कलाई पर मौली (एक धार्मिक धागा) बांधते हैं। इस संबंध में शास्त्रों का मत है कि मौली बांधने से त्रिदेव - ब्रह्मा, विष्णु व महेश और तीनों देवियों - लक्ष्मी, पार्वती व सरस्वती की कृपा प्राप्त होती है।

👉ब्रह्मा की कृपा से कीर्ति, विष्णु की कृपा से बल मिलता है और शिवजी की कृपा से बुराइयों का अंत होता है। इसी प्रकार लक्ष्मी कृपा से धन, दुर्गा से शक्ति एवं सरस्वती की कृपा से बुद्धि प्राप्त होती है।

👉विज्ञान की दृष्टि से मौली बांधने से उत्तम स्वास्थ्य प्राप्त होता है। जब यह धागा बांधा जाता है तो इससे कलाई पर हल्का सा दबाव बनता है। इस दबाव से त्रिदोष - वात, पित्त तथा कफ को नियंत्रित होता है। रक्षा सूत्र बांधने की प्रथा तब से चली आ रही है, जब दानवीर राजा बलि की अमरता के लिए वामन भगवान ने उनकी कलाई पर रक्षा सूत्र बांधा था।

👉कलावा/मौली का शाब्दिक अर्थ है सबसे ऊपर, जिसका तात्पर्य सिर से भी है।
शरीर की संरचना का प्रमुख नियंत्रण हाथ की कलाई में होता है, अतः यहां कलावा/मौली बांधने से व्यक्ति स्वस्थ रहता है| ऐसी भी मान्यता है कि इसे बांधने से कोई भी बीमारी नहीं बढती है।पुराने वैद्य और घर परिवार के बुजुर्ग लोग हाथ, कमर, गले व पैर के अंगूठे में कलावा/मौली का उपयोग करते थे, जो शरीर के लिये लाभकारी था।ब्लड प्रेशर, हार्ट एटेक, डायबीटिज और लकवा जैसे रोगों से बचाव के लिये कलावा/मौली बांधना हितकर बताया गया है।कलावा/मौली शत प्रतिशत कच्चे धागे (सूत) की ही होनी चाहिये। आपने कई लोगों को हाथ में स्टील के बेल्ट बांधे देखा होगा
 कहते है रक्तचाप के मरीज को यह बैल्ट बांधने से लाभ होता है।स्टील बेल्ट से कलावा/मौली अधिक लाभकारी है।

👉कलावा/मौली को पांच सात बार घुमा कर के हाथ में बांधना चाहिये कलावा/मौली को किसी भी दिन बांध सकते है, परन्तु हर मंगलवार और शनिवार को पुरानी मौली को उतारकर नई मौली बांधना उचित माना गया है।उतारी हुई पुरानी मौली को पीपल के पेड की जड में डालना चाहिये ।
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श्री गणेश चतुर्थी विशेष

श्री गणेश चतुर्थी विशेष


* श्रीगणेशजी द्वारा चन्द्रमा को शाप की कथा -

          प्राचीन काल की बात है–कैलास शिखर पर अनेक देव, दिव्य ऋषिगण, सिद्धगणादि के साथ चतुरानन ब्रह्माजी भी एक उच्च आसन पर विराजमान थे। वहीं पर एक अन्य आसन पर भगवान् शंकर भी जगज्जननी उमा के सहित सुशोभित थे। उनके निकट ही गणपति और कुमार कार्तिकेय दोनों ही अन्य बालकों के साथ क्रीड़ा में मग्न हो रहे थे।'
          शिवजी के हाथ में एक दिव्य फल था। वे सोच रहे थे कि इसे किसे दिया जाये ? पार्वती जी से पूछा तो वे कभी कहतीं कि गणेश को दे दीजिए और कभी कहतीं कुमार को देना उचित होगा। जब वे कुछ निश्चयात्मक उत्तर न दे पाईं तो शिवजी ने उसे बाद में विचार करने के उद्देश्य से अपने पास रख लिया।
          अब दोनों बालक-गणेश और कुमार उस फल की माँग करने लगे। जब उनका अधिक आग्रह बढ़ा तब शिवजी ने ब्रह्मा जी से पूछा–'ब्रह्मन् ! यह अपूर्व फल देवर्षि नारदजी दे गये थे। इसे यह दोनों बालक माँग रहे। हैं। फल एक ही है और आधा फल कोई लेना नहीं चाहता। ऐसी स्थिति में आप ही निर्णय कीजिए कि यह इनमें से किसे दिया जाय ?'
          चतुरानन विचार कर बोले–'यदि फल एक ही है तो नियमानुसार कुमार को दिया जाना चाहिए। क्योंकि किसी भी वस्तु पर बड़े बालक का अधिकार पहिले पहुँचता है।'
          ब्रह्माजी की बात सुनकर शिवजी ने वह फल कुमार को दे दिया। यह देखकर गणपति रुष्ट हो गये, विशेष कर उनका क्रोध चतुरानन पर ही था कि उन्होंने ऐसी व्यवस्था क्यों दे डाली ?
          सभा समाप्त हुई। सभी देवता आदि उठ उठकर अपने-अपने स्थानों को चले गये। ब्रह्माजी भी अपने लोक में जा पहुँचे। वहाँ उन्हें सृष्टि का आरम्भ करना था। किन्तु, जैसे ही वे सर्गरचना में लगे, वैसे ही गणेश्वर ने विघ्न उपस्थित कर दिया। उस समय उन्होंने प्रकट होकर अपना अत्यन्त उग्र रूप दिखाया। उनके उस रूप को देखकर ब्रह्माजी डर के कारण काँपने लगे।
          चन्द्रमा ने देखा कि गणपति के उग्ररूप को देखकर ब्रह्माजी भय से काँप रहे हैं, तो उसे हँसी आ गई। उसके साथ ही चन्द्रमा के जो गण उस दृश्य को देख रहे थे, वे भी हँस पड़े। यह देखकर भगवान् गजानन को क्रोध आ गया और वे चन्द्रमा को शाप देते हुए बोले–'मयंक ! तूने इस समय मेरी हँसी उड़ाकर जो अभद्रता प्रदर्शित की है, उसका फल तुझे मिलना ही चाहिए। जा तू किसी के भी देखने के योग्य नहीं रहेगा और यदि कोई भूल से भी देख लेगा तो अवश्य ही पाप का भागी होगा।'
          इतना कहकर गजमुख अन्तर्धान हो गये। उनका शाप प्राप्त होते ही चन्द्रमा श्रीहत मलिन एवं दीन हो गया। उनके तेज में अत्यन्त न्यूनता आ गई। इससे वह बहुत व्याकुल हुआ और खिन्नतापूर्वक पश्चात्ताप करने लगा–'देखो ! मैं कैसी मूर्खता कर बैठा, उन जगदीश्वर के साथ, वे प्रभु तो अणिमादि गुणों से सम्पन्न, संसार के कारण के भी कारण एवं महाप्रभु हैं। उनके रुष्ट होने से मैं अदर्शनीय एवं कलाहीन हो गया हूँ। अब इससे छुटकारा पाने के लिए क्या करूँ ?'
          जब चन्द्रमा की समझ में कोई उपाय नहीं आया तो वह तुरन्त ही देवराज इन्द्र के पास गया। परन्तु इन्द्रादि देवता भी उसे नहीं देखना चाहते थे। उन सभी ने अपनी-अपनी आँखें झुका लीं। तब इन्द्र ने भी उसकी ओर न देखते हुए ही पूछा–'अरे, चन्द्रमा ! तुम्हारी यह दशा कैसे हुई ? क्या गजकर्ण के शाप का ही प्रभाव है यह ? सब बात स्पष्ट कहो।'
          चन्द्रमा बोला–'देवराज ! आपसे क्या छिपा है ! सब कुछ जानते हुए भी अनजान बनकर क्यों पूछ रहे हो ? सहस्त्राक्ष ! अब शीघ्र ही मेरे शाप मुक्त होने के यत्न करो, अन्यथा समस्त संसार ही मेरे शापित होने से अशुभ फल भोगेगा।'
          इन्द्र ने सान्त्वना दी और बोले–'चलो ब्रह्माजी से ही इसका उपाय पूछें। क्योंकि उनके समान ज्ञानी और सर्व लोकोपकारी अन्य कोई भी नहीं है।
          सब देवता उसके साथ ब्रह्मलोक पहुँचे। आगे-आगे चन्द्रमा और पीछे-पीछे इन्द्र के नेतृत्व में सब देवगण। ब्रह्माजी ने जब यह जाना कि चन्द्रमा आ रहा है तो पाप लगने के भय से उन्होंने भी दृष्टि नीची कर ली और बोले–'कहो सुधांशु ! यहाँ किस अभिप्राय से आना हुआ ? अरे, तुम्हारे पीछे तो देवराज इन्द्र और समस्त सुरगण ही चले आ रहे हैं !!
          ब्रह्माजी के प्रश्न का उत्तर सुरपति ने ही दिया। वे बोले–'ब्रह्मन् ! भगवान् गणेश्वर आप पर कुपित हुए थे और शाप दे बैठे चन्द्रमा को। इसलिए अब आप ही इसे छुड़ाने का कुछ उपाय कीजिए। हम सभी देवता इसी प्रयोजन से आपकी सेवा में उपस्थित हुए हैं।'
          चतुरानन ने कुछ विचार कर कहा–'उन्हीं गणेश्वर प्रभु की शरण लेनी होगी, देवराज ! चन्द्रमा को आगे रखकर उन्हीं का पूजन एवं स्तवनं करो।'
   * चन्द्रमा के ऊपर गणेश्वर की कृपा -

          ब्रह्माजी की बात सुनकर भगवान् गजानन के पूजन की तैयारी की गई। गणेश्वर की प्रतिमा बनाकर षोड़शोपचार पूजन एवं भावनापूर्वक स्तुति कर निवेदन किया गया–'प्रभो ! इस चन्द्रमा पर कृपा कीजिए, उस समय यह अज्ञानवश हँस पड़ा था, किन्तु अब इसे अपनी मूर्खता का ज्ञान हो गया है नाथ !'
          देवताओं की प्रार्थना पर भगवान् गणेश्वर प्रकट हो गए। सभी ने उनका अद्भुत रूप देखकर उन्हें दण्डवत् प्रणाम किया। तब गणपति प्रसन्न होकर बोले–'देवगण ! मैं सन्तुष्ट हूँ, अतएव जो चाहो वह अभीष्ट वर माँग लो।'
          चन्द्रमा ने उनके चरणों में मस्तक रख दिया और अश्रुजल से पदारविन्दों को धोने लगा। गणेश्वर बोले–'उठ उठ ! चन्द्रमा ! अब संताप न कर, मैं तुझपर प्रसन्न हूँ।'
          चन्द्रमा ने कहा–'प्रभो ! मुझे शाप मुक्त कीजिए। मेरी कांति नष्ट। हो गई है उसे लौटा दीजिए। मैं अदर्शनीय से दर्शनीय हो जाऊँ नाथ ! मेरे अपराध को क्षमा कर दीजिए भक्तवत्सल।'
          गजकर्ण बोले–'अच्छा, बोल तुझे एक वर्ष, छः मास अथवा तीन मास के लिए अदर्शनीय रहने दिया जाय अथवा कुछ और चाहता है ? शीघ्र ही स्पष्ट बता।'
          चन्द्रमा ने कहा–'प्रभो ! मुझे बहुत दण्ड मिल गया है। अब तो क्षमा कर दीजिए।' यह कहकर उसने पुनः दण्डवत् प्रणाम किया तथा सब देवता भी उनके चरणों में झुक गये।
          गणेश्वर ने मुस्कराते हुए कहा–'मैं अपने वचन को मिथ्या कैसे करूँ ? चाहे सूर्य और सुमेरु अपना स्थान त्याग दें, समुद्र अपनी मर्यादा छोड़ दे अथवा अग्नि शीतल हो जाये, किन्तु मेरा वचन मिथ्या नहीं हो सकता। फिर भी मैं तुम्हें वर्ष में एक ही दिन के लिए शापित रखूँगा तथा–

          भाद्रशुक्लचतुर्थ्यां यो ज्ञानतोऽज्ञानतोऽपि वा। 
          अभिशापो भवेच्चन्द्र दर्शनाद् भृशदुःखभाक्॥

          'जाने या अनजाने में भी जो कोई भाद्रपदशुक्ल चतुर्थी को चन्द्रमा को देखेगा वही अभिशप्त होगा और वही अधिक दुःख का भागी होगा इसमें कोई सन्देह नहीं।'
          भगवान् हेरम्ब के इन कृपापूर्ण वचनों को सुनकर चन्द्रमा बहुत प्रसन्न हुआ तथा समस्त देवगण भी उनका जय-जयकार करने लगे। चन्द्रमा ने पुनः निवेदन किया–'प्रभो ! भविष्य में मुझसे इस प्रकार की मूर्खता न हो और मेरा चित्त आपके चरण कमलों के स्मरण में लगा रहे, ऐसा वर मुझे प्रदान करें।'
          गणेश्वर ने प्रसन्न होकर कहा–'ऐसा ही होगा। परन्तु मेरे एकाक्षरी मन्त्र 'गं' का जप करते रहना। यह कहकर भगवान् अन्तर्धान हो गये और तब समस्त देवता स्वर्गलोक को गये तथा चन्द्रमा भी अपने लोक में जा पहुँचा।
          चन्द्रमा ने बारह वर्ष तक तपश्चर्या की और गणेश्वर के एकाक्षरी मन्त्र 'गं' का निरन्तर जप करते रहे। पवित्र जाह्नवी के तट पर भक्तिपूर्वक, एकाग्र मन से उनका यह तप चलता रहा था। तभी सहसा एक दिन वे परम प्रभु चन्द्रमा के समक्ष प्रकट हो गए। इस समय उनकी रूप-छटा देखकर निशापति अवाक् रह गया। उसके चित्त में आश्चर्य मिश्रित भय की अवतारणा हुई। किन्तु शीघ्र ही उसे निश्चय हो गया कि वह साक्षात् आदिदेव भगवान् गजानन ही हैं, तो वह हाथ जोड़कर प्रणाम करता हुआ उनकी स्तुति करने लगा–

          नमामि देवं द्विरदाननं तं यः सर्वविघ्नं हरते जनानाम्।
          धर्मार्थकामांस्तनुतेऽखिलानां तस्मै नमो विघ्नविनाशनाय॥

          'मैं उन दो दाँतों से युक्त परमेश्वर को नमस्कार करता हूँ, जो अपने भक्तों के सभी विघ्नों का हरण करते तथा सभी के लिए धर्म, अर्थ और काम को प्रशस्त करते हैं। उन विघ्न विनाशक परमात्मा गजानन को नमस्कार है। हे प्रभो ! मैंने अज्ञानवश जो अपराध किया था, उसे क्षमा करके मुझे मेरा पूर्व रूप प्रदान कीजिए। हे नाथ ! आप ही मुझे मेरा यह रूप प्राप्त करा सकते हैं। हे दयानिधान! आप सभी देवताओं के अधीश्वर, नित्य बोध स्वरूप एवं सत्य हैं। समस्त वेद आपके ही स्वरूप हैं तथा आपके द्वारा ही उनका प्रतिपादन हुआ है। हे देव ! यह जत् आपका ही स्वरूप है तथा आप ही साक्षात् परब्रह्म हैं।'
          हे कृपानिधि ! विश्व की उत्पत्ति, पालन और प्रलय के भी आप ही एकमात्र कारण हैं। आपका तिरस्कार कोई नहीं कर सकता।'
          भगवान् गजकर्ण ने चन्द्रमा की ओर कृपापूर्ण दृष्टि से देखा और मधुर मुस्कान बिखेरते हुए बोले–'सुधांशु ! यह तो मैं पहिले ही कह चुका था कि तुम प्रत्येक वर्ष केवल एक दिन के लिए ही अदर्शनीय रहोगे। उस दिन तुम्हें जो कोई भी जाने-अनजाने देख लेगा वही बस अभिशाप का भागी बनेगा। इस प्रकार तुम्हारी निस्तेजस्विता को ऐसे ही लोग बाँट लेंगे।
          'कृष्णपक्ष की चतुर्थी में जो व्रत किया जाय, उसमें तुम्हारा उदय होने पर व्रत करने वाले वे लोग यदि मेरी और तुम्हारी यत्नपूर्वक पूजा करेंगे तो भी उस व्रत का फल लाभ होगा। उस दिन तुम्हारा दर्शन अवश्य करना चाहिए, अन्यथा व्रत का फल नहीं होगा।'
          'चन्द्रदेव ! तुम अब भविष्य में अपने एक अंश से मेरे मस्तक में विद्यमान हो जाओ। इससे मुझे तो प्रसन्नता होगी ही, तुम्हारी भी शोभा होगी। प्रत्येक मास की शुक्लपक्ष की द्वितीया में तुम्हारे दर्शन का बड़ा महत्त्व रहेगा तथा उस दिन अधिकांश स्त्री-पुरुष तुम्हारे दर्शन का पुण्य लाभ करते हुए तुम्हें नमस्कार किया करेंगे। मैं वर देता हूँ कि अब तुम पूर्ववत् तेजस्वी, सुन्दर एवं वन्दनीय हो जाओ।
          इस प्रकार वर देकर भगवान् गजानन अन्तर्हित हो गये तथा चन्द्रमा अपना पूर्व तेज प्राप्त करके प्रसन्न हो गया।
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                  !! ॐ गंग गणपतये नमः !!

हरतालिका तीज (गौरी तृतीया) व्रत

*हरतालिका तीज (गौरी तृतीया) व्रत....* 
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सभी माताओं एवम बहनों को हरतालिका तीज की हार्दिक बधाई एवम अनंत शुभकामनाएं।।

हरतालिका तीज का व्रत हिन्दू धर्म में सबसे बड़ा व्रत माना जाता हैं।। यह तीज का त्यौहार भाद्रपद मास शुक्ल की तृतीया तिथि को मनाया जाता हैं।। 

यह आमतौर पर अगस्त-सितम्बर के महीने में ही आती है।। इसे गौरी तृतीया व्रत भी कहते है।। भगवान शिव और पार्वती को समर्पित है।। खासतौर पर महिलाओं द्वारा यह त्यौहार मनाया जाता हैं।। कम उम्र की लड़कियों के लिए भी यह हरतालिका का व्रत श्रेष्ठ समझा गया हैं।।

विधि-विधान से हरितालिका तीज का व्रत करने से जहाँ कुंवारी कन्याओं को मनचाहे वर की प्राप्ति होती है, वहीं विवाहित महिलाओं को अखंड सौभाग्य मिलता है।।
 
हरतालिका तीज में भगवान शिव, माता गौरी एवम गणेश जी की पूजा का महत्व हैं।। यह व्रत निराहार एवं निर्जला किया जाता हैं।। शिव जैसा पति पाने के लिए कुँवारी कन्या इस व्रत को विधि विधान से करती हैं।।

क्यों कहते हैं हरतालिका
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यह दो शब्दों के मेल से बना माना जाता है हरत एवं आलिका।। हरत का तात्पर्य हरण से लिया जाता है और आलिका सखियों को संबोंधित करता है।। मान्यता है कि इस दिन सखियां माता पार्वती की सहेलियां उनका हरण कर उन्हें जंगल में ले गई थीं।। जहां माता पार्वती ने भगवान शिव को वर रूप में पाने के लिये कठोर तप किया था।। तृतीया तिथि को तीज भी कहा जाता है।। हरतालिका तीज के पिछे एक मान्यता यह भी है कि जंगल में स्थित गुफा में जब माता भगवान शिव की कठोर आराधना कर रही थी तो उन्होंने रेत के शिवलिंग को स्थापित किया था।। मान्यता है कि यह शिवलिंग माता पार्वती द्वारा हस्त नक्षत्र में भाद्रपद शुक्ल तृतीया तिथि को स्थापित किया था इसी कारण इस दिन को हरियाली तीज के रूप में मनाया जाता है।।
 
क्यों किया गया था माता पार्वती का हरण
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दरअसल माता पार्वती के कठोर तप से उनकी दशा बहुत खराब रहने लगी थी उनके पिता उनकी इस दशा से काफी परेशान थे।। एक दिन नारद जी ने उन्हें आकर कहा कि पार्वती के कठोर तप से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु आपकी पुत्री से विवाह करना चाहते हैं।। नारद मुनि की बात सुनकर गिरीराज बहुत प्रसन्न हुए।। उधर भगवान विष्णु के सामने जाकर नारद मुनि बोले कि गिरीराज पार्वती से आपका विवाह करवाना चाहते हैं।।भगवान विष्णु ने भी इसकी अनुमति दे दी।। फिर माता पार्वती के पास जाकर नारद जी ने सूचना दी कि आपके पिता ने आपका विवाह भगवान विष्णु से तय कर दिया है।। यह सुनकर पार्वती बहुत निराश हुई उन्होंने अपनी सखियों से अनुरोध कर उसे किसी एकांत गुप्त स्थान पर ले जाने को कहा।। माता पार्वती की इच्छानुसार उनके पिता गिरीराज की नज़रों से बचाकर उनकी सखियां माता पार्वती को घने सुनसान जंगल में स्थित एक गुफा में छोड़ आयीं।।

यहीं रहकर उन्होंने भगवान शिव को पति रूप में पाने के लिये कठोर तप शुरु किया जिसके लिये उन्होंने रेत के शिवलिंग की स्थापना की।। संयोग से हस्त नक्षत्र में भाद्रपद शुक्ल तृतीया का वह दिन था जब माता पार्वती ने शिवलिंग की स्थापना की।। इस दिन निर्जला उपवास रखते हुए उन्होंने रात्रि में जागरण भी किया।। उनके कठोर तप से भगवान शिव प्रसन्न हुए माता पार्वति को उनकी मनोकामना पूर्ण होने का वरदान दिया।। अगले दिन अपनी सखी के साथ माता पार्वती ने व्रत का पारण किया और समस्त पूजा सामग्री को गंगा नदी में प्रवाहित कर दिया।। उधर माता पार्वती के पिता अपनी भगवान विष्णु से पार्वती के विवाह का वचन दिये जाने के पश्चात पुत्री के अक्समात घर छोड़ देने से व्याकुल थे।। पार्वती को तलाशते तलाशते वे उस स्थान तक आ पंहुचे इसके पश्चात माता पार्वती ने उन्हें अपने घर छोड़ देने का कारण बताया और भगवान शिव से विवाह करने के अपने संकल्प और शिव द्वारा मिले वरदान के बारे में बताया।। तब पिता गिरीराज भगवान विष्णु से क्षमा मांगते हुए भगवान शिव से अपनी पुत्री के विवाह को राजी हुए।।

महिलाओं में संकल्प शक्ति बढाता है हरितालिका तीज का व्रत
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हरितालिका तीज का व्रत महिला प्रधान है।।इस दिन महिलायें बिना कुछ खायें -पिये व्रत रखती है।।यह व्रत संकल्प शक्ती का एक अनुपम उदाहरण है।। संकल्प अर्थात किसी कर्म के लिये मन मे निश्चित करना कर्म का मूल संकल्प है।।इस प्रकार संकल्प हमारी अन्तरीक शक्तियोंका सामोहिक निश्चय है।।इसका अर्थ है-व्रत संकल्प से ही उत्पन्न होता है।।व्रत का संदेश यह है कि हम जीवन मे लक्ष्य प्राप्ति का संकल्प लें ।।संकल्प शक्ति के आगे असंम्भव दिखाई देता लक्ष्य संम्भव हो जाता है।।माता पार्वती ने जगत को दिखाया की संकल्प शक्ति के सामने ईश्वर भी झुक जाता है।।

अच्छे कर्मो का संकल्प सदा सुखद परिणाम देता है।। इस व्रत का एक सामाजिक संदेश विषेशतः महिलाओं के संदर्भ मे यह है कि आज समाज मे महिलायें बिते समय की तुलना मे अधिक आत्मनिर्भर व स्वतंत्र है।।महिलाओं की भूमिका मे भी बदलाव आये है ।।घर से बाहर निकलकर पुरुषों की भाँति सभी कार्य क्षेत्रों मे सक्रिय है।।ऎसी स्थिति मे परिवार व समाज इन महिलाओं की भावनाओ एवं इच्छाओं का सम्मान करें,उनका विश्वास बढाएं,ताकि स्त्री व समाज सशक्त बनें।।

हरतालिका तीज व्रत कथा 
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भगवान शिव ने पार्वतीजी को उनके पूर्व जन्म का स्मरण कराने के उद्देश्य से इस व्रत के माहात्म्य की कथा कही थी।।

श्री भोलेशंकर बोले- हे गौरी! पर्वतराज हिमालय पर स्थित गंगा के तट पर तुमने अपनी बाल्यावस्था में बारह वर्षों तक अधोमुखी होकर घोर तप किया था।। इतनी अवधि तुमने अन्न न खाकर पेड़ों के सूखे पत्ते चबा कर व्यतीत किए।।माघ की विक्राल शीतलता में तुमने निरंतर जल में प्रवेश करके तप किया।। वैशाख की जला देने वाली गर्मी में तुमने पंचाग्नि से शरीर को तपाया।। श्रावण की मूसलधार वर्षा में खुले आसमान के नीचे बिना अन्न-जल ग्रहण किए समय व्यतीत किया।।

तुम्हारे पिता तुम्हारी कष्ट साध्य तपस्या को देखकर बड़े दुखी होते थे।। उन्हें बड़ा क्लेश होता था। तब एक दिन तुम्हारी तपस्या तथा पिता के क्लेश को देखकर नारदजी तुम्हारे घर पधारे।। तुम्हारे पिता ने हृदय से अतिथि सत्कार करके उनके आने का कारण पूछा।।

नारदजी ने कहा- गिरिराज! मैं भगवान विष्णु के भेजने पर यहां उपस्थित हुआ हूं।। आपकी कन्या ने बड़ा कठोर तप किया है।। इससे प्रसन्न होकर वे आपकी सुपुत्री से विवाह करना चाहते हैं।। इस संदर्भ में आपकी राय जानना चाहता हूं।।

नारदजी की बात सुनकर गिरिराज गद्‍गद हो उठे।। उनके तो जैसे सारे क्लेश ही दूर हो गए।। प्रसन्नचित होकर वे बोले- श्रीमान्‌! यदि स्वयं विष्णु मेरी कन्या का वरण करना चाहते हैं तो भला मुझे क्या आपत्ति हो सकती है।। वे तो साक्षात ब्रह्म हैं।। हे महर्षि! यह तो हर पिता की इच्छा होती है कि उसकी पुत्री सुख-सम्पदा से युक्त पति के घर की लक्ष्मी बने।। पिता की सार्थकता इसी में है कि पति के घर जाकर उसकी पुत्री पिता के घर से अधिक सुखी रहे।।

तुम्हारे पिता की स्वीकृति पाकर नारदजी विष्णु के पास गए और उनसे तुम्हारे ब्याह के निश्चित होने का समाचार सुनाया।। मगर इस विवाह संबंध की बात जब तुम्हारे कान में पड़ी तो तुम्हारे दुख का ठिकाना न रहा।।

तुम्हारी एक सखी ने तुम्हारी इस मानसिक दशा को समझ लिया और उसने तुमसे उस विक्षिप्तता का कारण जानना चाहा।। तब तुमने बताया - मैंने सच्चे हृदय से भगवान शिवशंकर का वरण किया है, किंतु मेरे पिता ने मेरा विवाह विष्णुजी से निश्चित कर दिया।। मैं विचित्र धर्म-संकट में हूं।। अब क्या करूं? प्राण छोड़ देने के अतिरिक्त अब कोई भी उपाय शेष नहीं बचा है।। तुम्हारी सखी बड़ी ही समझदार और सूझबूझ वाली थी।। 

उसने कहा- सखी! प्राण त्यागने का इसमें कारण ही क्या है? संकट के मौके पर धैर्य से काम लेना चाहिए।। नारी के जीवन की सार्थकता इसी में है कि पति-रूप में हृदय से जिसे एक बार स्वीकार कर लिया, जीवनपर्यंत उसी से निर्वाह करें।। सच्ची आस्था और एकनिष्ठा के समक्ष तो ईश्वर को भी समर्पण करना पड़ता है।। मैं तुम्हें घनघोर जंगल में ले चलती हूं, जो साधना स्थली भी हो और जहां तुम्हारे पिता तुम्हें खोज भी न पाएं।। वहां तुम साधना में लीन हो जाना।। मुझे विश्वास है कि ईश्वर अवश्य ही तुम्हारी सहायता करेंगे।।

तुमने ऐसा ही किया।। तुम्हारे पिता तुम्हें घर पर न पाकर बड़े दुखी तथा चिंतित हुए।। वे सोचने लगे कि तुम जाने कहां चली गई।। मैं विष्णुजी से उसका विवाह करने का प्रण कर चुका हूं।। यदि भगवान विष्णु बारात लेकर आ गए और कन्या घर पर न हुई तो बड़ा अपमान होगा।। मैं तो कहीं मुंह दिखाने के योग्य भी नहीं रहूंगा।।यही सब सोचकर गिरिराज ने जोर-शोर से तुम्हारी खोज शुरू करवा दी।।

इधर तुम्हारी खोज होती रही और उधर तुम अपनी सखी के साथ नदी के तट पर एक गुफा में मेरी आराधना में लीन थीं।। भाद्रपद शुक्ल तृतीया को हस्त नक्षत्र था।। उस दिन तुमने रेत के शिवलिंग का निर्माण करके व्रत किया।। रात भर मेरी स्तुति के गीत गाकर जागीं।। तुम्हारी इस कष्ट साध्य तपस्या के प्रभाव से मेरा आसन डोलने लगा।। मेरी समाधि टूट गई।। मैं तुरंत तुम्हारे समक्ष जा पहुंचा और तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न होकर तुमसे वर मांगने के लिए कहा।।

तब अपनी तपस्या के फलस्वरूप मुझे अपने समक्ष पाकर तुमने कहा - मैं हृदय से आपको पति के रूप में वरण कर चुकी हूं।। यदि आप सचमुच मेरी तपस्या से प्रसन्न होकर आप यहां पधारे हैं तो मुझे अपनी अर्धांगिनी के रूप में स्वीकार कर लीजिए।।

तब मैं 'तथास्तु' कह कर कैलाश पर्वत पर लौट आया।। प्रातः होते ही तुमने पूजा की समस्त सामग्री को नदी में प्रवाहित करके अपनी सहेली सहित व्रत का पारणा किया।। उसी समय अपने मित्र-बंधु व दरबारियों सहित गिरिराज तुम्हें खोजते-खोजते वहां आ पहुंचे और तुम्हारी इस कष्ट साध्य तपस्या का कारण तथा उद्देश्य पूछा।। उस समय तुम्हारी दशा को देखकर गिरिराज अत्यधिक दुखी हुए और पीड़ा के कारण उनकी आंखों में आंसू उमड़ आए थे।।

तुमने उनके आंसू पोंछते हुए विनम्र स्वर में कहा- पिताजी! मैंने अपने जीवन का अधिकांश समय कठोर तपस्या में बिताया है।। मेरी इस तपस्या का उद्देश्य केवल यही था कि मैं महादेव को पति के रूप में पाना चाहती थी।।आज मैं अपनी तपस्या की कसौटी पर खरी उतर चुकी हूं।।आप क्योंकि विष्णुजी से मेरा विवाह करने का निर्णय ले चुके थे, इसलिए मैं अपने आराध्य की खोज में घर छोड़कर चली आई।। अब मैं आपके साथ इसी शर्त पर घर जाऊंगी कि आप मेरा विवाह विष्णुजी से न करके महादेवजी से करेंगे।।

गिरिराज मान गए और तुम्हें घर ले गए।। कुछ समय के पश्चात शास्त्रोक्त विधि-विधानपूर्वक उन्होंने हम दोनों को विवाह सूत्र में बांध दिया।। 

हे पार्वती! भाद्रपद की शुक्ल तृतीया को तुमने मेरी आराधना करके जो व्रत किया था, उसी के फलस्वरूप मेरा तुमसे विवाह हो सका।। इसका महत्व यह है कि मैं इस व्रत को करने वाली कुंआरियों को मनोवांछित फल देता हूं।। इसलिए सौभाग्य की इच्छा करने वाली प्रत्येक युवती को यह व्रत पूरी एकनिष्ठा तथा आस्था से करना चाहिए।।

🙏 #सादर_जय_सियाराम🙏

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