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शुक्रवार, 6 सितंबर 2024

वाराह अवतार जन्मोत्सव व्रत महात्मय एवं कथा

वाराह अवतार जन्मोत्सव व्रत महात्मय एवं कथा

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जगत के कल्याण हेतु जो लीलाधारी भगवान अनेकानेक अवतार लेते हैं इन्हीं भगवान विष्णु के तृतीय अवतार वराह की पूजा आज शुक्रवार 06 सितम्बर भाद्रपद शुक्ल तृतीया एवं मतान्तर से माघ शुक्ल द्वादशी के दिन की जाती है.! वराह भगवान का यह व्रत सुख, सम्पत्ति दायक एवं कल्याणकारी है. जो श्रद्धालु भक्त वराह भगवान के नाम से भाद्रपद शुक्ल तृतीया एवं मतान्तर से माघ शुक्ल द्वादशी के दिन व्रत रखते हैं उनके सोये हुए भाग्य को भगवान जागृत कर देते हैं।

लोकप्रिय धारणा यह है कि इस दिन भगवान विष्णु ने धरती माता को राक्षस हिरण्याक्ष से बचाया था।

मान्यता यह है कि इस दिन का पालन करने से मोक्ष प्राप्त करने में मदद मिलेगी। जो भक्त इस दिन वराह अवतार की पूजा करता है, उसे अच्छे स्वास्थ्य, शांति और समृद्धि की प्राप्ति होती है।

भगवान वराह के रूप में भगवान विष्णु की विशेष पूजा की जाती है। कृपया ध्यान दें कि यह दिन केवल कुछ क्षेत्रों में और कुछ हिंदू समुदायों द्वारा मनाया जाता है। वराह को समर्पित सबसे महत्वपूर्ण दिन भाद्रपद शुक्ल पक्ष (अगस्त-सितंबर) के दौरान वराह जयंती मनाई जाती है।

वराह को जल से भरे बर्तन में स्थापित किया जाता है और इस दिन उनकी पूजा की जाती है। एक नैवेद्य तैयार किया जाता है और भगवान विष्णु से जुड़े सामान्य पूजा अनुष्ठानों का पालन किया जाता है।

इस दिन जप किया जाने वाला मंत्र 'ओम वराहय नमः' है।

वाराह द्वादशी कथा
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भगवान का वाराह अवतार वेद-प्रधान यज्ञस्वरूप अवतार है। दिन तथा रात्रि इनके नेत्र हैं, हविष्य इनकी नासिका है। सामवेद का गंभीर स्वर इनका उद्घोष है। यूप इनकी दाढ़े हैं, चारों वेद इनके चरण हैं, यज्ञ इनके दाँत हैं। श्रुतियाँ इनका आभूषण हैं, चितियाँ मुख हैं। साक्षात अग्नि ही इनकी जिह्वा तथा कुश इनकी रोमावली है एवं ब्रह्म इनका मस्तक है। वाराह भगवान के विषय में कथा है कि:- भगवान विष्णु जी के धाम श्वेतद्वीप में, जय और विजय नामक दो द्वारपाल थे। एक समय जब भगवान का दर्शन करने के लिए सनकादि योगीश्वर आए तो उन्हें जय-विजय ने बीच में ही रोक लिया। इससे क्रुद्ध होकर सनकादि ने उन्हें शाप दिया, " द्वारपालों! तुम दोनों भगवान के इस धाम का परित्याग करके भूलोक में चले जाओ।"

भगवान को जब ये बात पता चली तो उन्होंने जय-विजय और सनकादि महात्माओं को बुलाया और बोले, " द्वारपालों ! तुम लोगों ने महात्माओं का अपराध किया है अतः तुम इस शाप का उल्लंघन नहीं कर सकते।

तुम यहाँ से जाकर या तो सात जन्मों तक मेरे पापहीन भक्त रहो या तीन जन्मों तक मेरे प्रति शत्रुभाव रखते हुए
समय बिताओ।"

यह सुनकर जय-विजय ने कहा कि, " प्रभु! अधिक समय तक हम आपसे अलग पृथ्वी पर रह पाने में असमर्थ हैं। अतः केवल तीन जन्मों तक ही शत्रुभाव धारण करके रहेंगे।"

इसके पश्चात जय-विजय कश्यप और दिति के असुर पुत्र के रूप में उत्पन्न हुए।

उनमें से छोटे पुत्र का नाम हिरण्याक्ष व बड़े पुत्र का नाम हिरण्यकशिपु था।

हिरण्याक्ष मद से उन्मत्त रहता था। उसका शरीर कितना बड़ा था या हो सकता था- इसका कोई मापदण्ड नहीं था।

एक बार बड़ा रूप बनाकर उसने अपनी हजारों भुजाओं से पर्वत, समुद्र, द्वीप और सम्पूर्ण प्राणियों सहित समस्त पृथ्वी को गेंद की तरह सर पर रखकर रसातल में चला गया। यह देखकर सभी देवता भय से पीड़ित हो हाहाकार करने लगे और रोग-शोक से रहित श्रीहरि नारायण की शरण में गये। उस अद्भुत वृत्तान्त को सुनकर विश्वरूपधारी जनार्दन ने वाराहरूप धारण किया। उस समय उनकी बड़ी-बड़ी दाढ़ें और विशाल भुजाएँ थीं। उन परमेश्वर वाराह ने अपनी एक दाढ़ से उस दैत्य पर आघात किया । इससे उसका विशाल शरीर कुचल गया और वह अधम दैत्य तुरंत ही मर गया। पृथ्वी को रसातल में पड़ी हुई देखकर भगवान वाराह ने उसे अपनी दाढ़ पर उठाकर यथावत पहले की भांति व्यवस्थित कर दिया। वाराह रूपधारी महाविष्णु को देखकर समस्त देवगण और मुनि भक्ति से मस्तक झुकाकर उनकी स्तुति करके गंध, पुष्प आदि से उन श्रीहरि का अर्चन करने लगे। वसति दशनशिखरेधरणी तव लग्ना शशिनि कलङ्ककलेव निमग्ना ॥ केशव धृतसूकर रूप, जय जगदीश हरे चंद्रमा में निमग्न हुई कलङ्करेखा के समान यह पृथ्वी आपके दाँत की नोंक पर अटकी हुई सुशोभित हो रही है, ऐसे सूकर रूपधारी जगत्पति श्रीहरि केशव की जय हो । तब भगवान वाराह ने उन सभी को मनोवाञ्छित वरदान दिया और महर्षियों के मुख से अपनी स्तुति सुनकर अंतर्धान हो गए। समस्त जीवों के हितैषी, समूची पृथ्वी के उद्धारक भगवान यज्ञ वाराह के श्रीचरणों में हमारा बारम्बार प्रणाम ।

वराह द्वादशी पर विविध समस्याओ के समाधान के लिये मंत्र एवं स्तोत्र-कवच पाठ
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भगवान विषणु के 24 अवतार हैं, और हर रूप का अपना अलग महत्व है। ऐस कहा जाता है अगर कोई व्यक्ति किसी तरह की भीषण व भयंकर परेशानी या समस्या से जूझ रहा हो तो उसे इनकी शरण में आ जाना चाहिए। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार श्रद्धा पूर्वक इनकी शरण में जाता है और सच्चे व शुद्ध मन से इनकी आराधना करता है तो वराह भगवान उस पर अपनी कृपा दृषटि हमेशा बनाए रखते हैं।  

वराह मंत्र जप
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ज्योतिषशास्त्र के अनुसार वराह जयंती के दिन व्रत आदि करने वाले व्यक्ति को हर धार्मिक कार्य को करने से पहले संकल्प लेना चाहिए। फिर चाहे वो मंत्र जाप का संकल्प ही क्यों न हो। ऐसा माना जाता है इससे जातक द्वारा की गई पूजा सफल होती है।

ऐसे लें संकल्प
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संकल्प लेने से पहले एक कलश में भगवान वराह की प्रतिमा स्थापित कर विधि विधान सहित षोडषोपचार से भगवान वराह की पूजा करें। पूरे दिन व्रत रखकर रात्रि में जगारण करके भगवान विष्णु के अवतारों की कथा का श्रवण करना चाहिए।

वराह मंत्र
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ॐ वराहाय नमः
ॐ सूकराय नमः
ॐ धृतसूकररूपकेशवाय नमः

वराह देव गायत्री मंत्र 
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ॐ नमो भगवते वराह रूपाय भूभुर्वः स्वः।
स्यात्पते भूपति त्यं देहयते ददापय स्वाहा॥

उपरोक्त मंत्रों का जाप करने से आपकी समस्या का समाधान निकल जाता है। मंत्र जाप के दौरान इस बात का खास ध्यान रखें कि आपका मन केवल भगवान की तरफ़ ही एकाग्र हो।

वराह स्तोत्र 
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ऋषयः ऊचुः

जितं जितं तेऽजित यज्ञभावन त्रयीं तनुं स्वां परिधुन्वते नमः ।
यद्रोमरन्ध्रेषु निलिल्युरध्वरा- स्तस्मै नमः कारणसूकराय ते ॥१॥

रूपं तवैतन्ननु दुष्कृतात्मनां दुर्दर्शनं देव यदध्वरात्मकम्।
छन्दांसि यस्य त्वचि बर्हिरोम- स्वाज्यं दृशित्वंघ्रिषु चातुर्होत्रम् ॥२॥

स्रुक्तुण्ड आसीत्स्रुव ईश नासयो- रिडोदरे चमसाः कर्णरन्ध्रे
प्राशित्रमास्ये ग्रसने ग्रहास्तु ते यच्चर्वणं ते भगवन्नग्निहोत्रम् ॥३॥

दीक्षानुजन्मोपसदः शिरोधरं त्वं प्रायणीयोदयनीयदंष्ट्रः।
जिह्वा प्रवर्ग्यस्तव शीर्षकं क्रतोः सभ्यावसथ्यं चितयोऽसवो हि ते ॥४॥

सोमस्तु रेतः सवनान्यवस्थितिः संस्थाविभेदास्तव देव धातवः।
सत्राणि सर्वाणि शरीरसन्धि- स्त्वं सर्वयज्ञक्रतुरिष्टिबन्धनः ॥५॥

नमो नम्स्तेऽखिलमन्त्रदेवता- द्रव्याय सर्वक्रतवे क्रियात्मने।
वैराग्यभक्त्यात्मजयानुभावित- ज्ञानाय विद्यागुरवे नमोनमः ॥६॥

दंष्ट्राग्रकोट्या भगवंस्त्वया धृता विराजते भूधर भूः सभूधरा।
यथा वनान्निःसरतो दता धृता मतङ्गजेन्द्रस्य सपत्रपद्मिनी ॥७॥

त्रयीमयं रूपमिदं च सौकरं भूमण्डलेनाथ दता धृतेन ते।
चकास्ति शृङ्गोढघनेनभूयसा कुलाचलेन्द्रस्य यथैव विभ्रमः ॥८॥

संस्थापयैनां जगतां सतस्थुषां लोकाय पत्नीमसि मातरं पिता।
विधेम चास्यै नमसा सह त्वया यस्यां स्वतेजोऽग्निमिवारणावधाः ॥९॥

कः श्रद्दधीतान्यतमस्तव प्रभो रसां गताया भुव उद्विबर्हणम्।
न विस्मयोऽसौ त्वयि विश्वविस्मये यो माययेदं ससृजेऽतिविस्मयम् ॥१०॥

विधुन्वता वेदमयं निजं वपु- र्जनस्तपस्सत्यनिवासिनो वयम्।
सटाशिखोद्धूतशिवांबुबिन्दुभि- र्विमृज्यमाना भृशमीश पाविताः ॥११॥

स वै बत भ्रष्टमतिस्तवैष ते यः कर्मणां पारमपारकर्मणः।
यद्योगमायागुणयोगमोहितं विश्वं समस्तं भगवन् विधेहि शम् ॥१२॥

श्रीवराहकवचम् 
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आद्यं रङ्गमिति प्रोक्तं विमानं रङ्ग संज्ञितम् । श्रीमुष्णं वेङ्कटाद्रिं च साळग्रामं च नैमिशम् ॥ 

तोयाद्रिं पुष्करं चैव नरनारायणाश्रमम् । 
अष्टा मे मूर्तयः सन्ति स्वयं व्यक्ता महीतले ॥ 

श्री सूतः - श्रीरुद्रमुख निर्णीत मुरारि गुणसत्कथा । सन्तुष्टा पार्वती प्राह शङ्करं लोकशङ्करम् ॥ १॥ 

श्री पार्वती उवाच - श्रीमुष्णेशस्य माहात्म्यं वराहस्य महात्मनः । 
श्रुत्वा तृप्तिर्न मे जाता मनः कौतूहलायते । श्रोतुं तद्देव माहात्म्यं तस्मात्वर्णय मे पुनः ॥ २॥ 

श्री शङ्कर उवाच - श‍ृणु देवि प्रवक्ष्यामि श्रीमुष्णेशस्य वैभवम् । 
यस्य श्रवणमात्रेण महापापैः प्रमुच्यते । सर्वेषामेव तीर्थानां तीर्थ राजोऽभिधीयते ॥ ३॥ 

नित्य पुष्करिणी नाम्नी श्रीमुष्णे या च वर्तते । जाता श्रमापहा पुण्या वराह श्रम वारिणा ॥ ४॥ 

विष्णोरङ्गुष्ठ संस्पर्शात्पुण्यदा खलु जाह्नवी । विष्णोः सर्वाङ्गसम्भूता नित्यपुष्करिणी शुभा ॥ ५॥ 

महानदी सहस्त्रेण नित्यदा सङ्गता शुभा । सकृत्स्नात्वा विमुक्ताघः सद्यो याति हरेः पदम् ॥ ६॥ 

तस्या आग्नेय भागे तु अश्वत्थच्छाययोदके । स्नानं कृत्वा पिप्पलस्य कृत्वा चापि प्रदक्षिणम् ॥ ७॥ 

दृष्ट्वा श्वेतवराहं च मासमेकं नयेद्यदि । कालमृत्युं विनिर्जित्य श्रिया परमया युतः ॥ ८॥ 

आधिव्याधि विनिर्मुक्तो ग्रहपीडाविवर्जितः । भुक्त्वा भोगाननेकांश्च मोक्षमन्ते व्रजेत्ध्रुवम् ॥ ९॥ 

अश्वत्थमूलेऽर्कवारे नित्य पुष्करिणी तटे । वराहकवचं जप्त्वा शतवारं जितेन्द्रियः ॥ १०॥ 

क्षयापस्मारकुष्ठाद्यैः महारोगैः प्रमुच्यते । वराहकवचं यस्तु प्रत्यहं पठते यदि ॥ ११॥ 

शत्रु पीडाविनिर्मुक्तो भूपतित्वमवाप्नुयात् । लिखित्वा धारयेद् यस्तु बाहुमूले गलेऽथ वा ॥ १२॥ 

भूतप्रेतपिशाचाद्याः यक्षगन्धर्वराक्षसाः । शत्रवो घोरकर्माणो ये चान्ये विषजन्तवः । नष्ट दर्पा विनश्यन्ति विद्रवन्ति दिशो दश ॥ १३॥ 

श्रीपार्वती उवाच - तत्ब्रूहि कवचं मह्यं येन गुप्तो जगत्त्रये । सञ्चरेत्देववन्मर्त्यः सर्वशत्रुविभीषणः । येनाप्नोति च साम्राज्यं तन्मे ब्रूहि सदाशिव ॥ १४॥ 

श्रीशङ्कर उवाच - श‍ृणु कल्याणि वक्ष्यामि वाराहकवचं शुभम् । येन गुप्तो लभेत्मर्त्यो विजयं सर्वसम्पदम् ॥ १५॥ 

अङ्गरक्षाकरं पुण्यं महापातकनाशनम् । सर्वरोगप्रशमनं सर्वदुर्ग्रहनाशनम् ॥ १६॥ 

विषाभिचार कृत्यादि शत्रुपीडानिवारणम् । नोक्तं कस्यापि पूर्वं हि गोप्यात्गोप्यतरं यतः ॥ १७॥ 

वराहेण पुरा प्रोक्तं मह्यं च परमेष्ठिने । युद्धेषु जयदं देवि शत्रुपीडानिवारणम् ॥ १८॥ 

वराहकवचात्गुप्तो नाशुभं लभते नरः । वराहकवचस्यास्य ऋषिर्ब्रह्मा प्रकीर्तितः ॥ १९॥ 

छन्दोऽनुष्टुप् तथा देवो वराहो भूपरिग्रहः । प्रक्षाल्य पादौ पाणी च सम्यगाचम्य वारिणा ॥ २०॥ 

कृत स्वाङ्ग करन्यासः सपवित्र उदङ्मुखः । ओं भर्भवःसुवरिति नमो भूपतयेऽपि च ॥ २१॥ 

नमो भगवते पश्चात्वराहाय नमस्तथा । एवं षडङ्गं न्यासं च न्यसेदङ्गुलिषु क्रमात् ॥ २२॥ 

नमः श्वेतवराहाय महाकोलाय भूपते । यज्ञाङ्गाय शुभाङ्गाय सर्वज्ञाय परात्मने ॥ २३॥ 

स्रव तुण्डाय धीराय परब्रह्मस्वरूपिणे । वक्रदंष्ट्राय नित्याय नमोऽन्तैर्नामभिः क्रमात् ॥ २४॥ 

अङ्गुलीषु न्यसेद् विद्वान् करपृष्ठ तलेष्वपि । ध्यात्वा श्वेतवराहं च पश्चात्मन्त्र मुदीरयेत् ॥ २५॥ 

ॐ श्वेतं वराहवपुषं क्षितिमुद्धरन्तं शङ्घारिसर्व वरदाभय युक्त बाहुम् । 
ध्यायेन्निजैश्च तनुभिः सकलैरुपेतं पूर्णं विभुं सकलवाञ्छितसिद्धयेऽजम् ॥ २६॥ 

वराहः पूर्वतः पातु दक्षिणे दण्डकान्तकः । हिरण्याक्षहरः पातु पश्चिमे गदया युतः ॥ २७॥ 

उत्तरे भूमिहृत्पातु अधस्ताद् वायु वाहनः । ऊर्ध्वं पातु हृषीकेशो दिग्विदिक्षु गदाधरः ॥ २८॥ 

प्रातः पातु प्रजानाथः कल्पकृत्सङ्गमेऽवतु । मध्याह्ने वज्रकेशस्तु सायाह्ने सर्वपूजितः ॥ २९॥ 

प्रदोषे पातु पद्माक्षो रात्रौ राजीवलोचनः । निशीन्द्र गर्वहा पातु पातूषः परमेश्वरः ॥ ३०॥ 

अटव्यामग्रजः पातु गमने गरुडासनः । स्थले पातु महातेजाः जले पात्ववनी पतिः ॥ ३१॥ 

गृहे पातु गृहाध्यक्षः पद्मनाभः पुरोऽवतु । झिल्लिका वरदः पातु स्वग्रामे करुणाकरः ॥ ३२॥ 

रणाग्रे दैत्यहा पातु विषमे पातु चक्रभृत् । रोगेषु वैद्यराजस्तु कोलो व्याधिषु रक्षतु ॥ ३३॥ 

तापत्रयात्तपोमूर्तिः कर्मपाशाच्च विश्वकृत् । क्लेशकालेषु सर्वेषु पातु पद्मापतिर्विभुः ॥ ३४॥ 

हिरण्यगर्भसंस्तुत्यः पादौ पातु निरन्तरम् । गुल्फौ गुणाकरः पातु जङ्घे पातु जनार्दनः ॥ ३५॥ 

जानू च जयकृत्पातु पातूरू पुरुषोत्तमः । रक्ताक्षो जघने पातु कटिं विश्वम्भरोऽवतु ॥ ३६॥ 

पार्श्वे पातु सुराध्यक्षः पातु कुक्षिं परात्परः । नाभिं ब्रह्मपिता पातु हृदयं हृदयेश्वरः ॥ ३७॥ 

महादंष्ट्रः स्तनौ पातु कण्ठं पातु विमुक्तिदः । प्रभञ्जन पतिर्बाहू करौ कामपिताऽवतु ॥ ३८॥ 

हस्तौ हंसपतिः पातु पातु सर्वाङ्गुलीर्हरिः । सर्वाङ्गश्चिबुकं पातु पात्वोष्ठौ कालनेमिहा ॥ ३९॥ 

मुखं तु मधुहा पातु दन्तान् दामोदरोऽवतु । नासिकामव्ययः पातु नेत्रे सूर्येन्दुलोचनः ॥ ४०॥ 

फालं कर्मफलाध्यक्षः पातु कर्णौ महारथः । शेषशायी शिरः पातु केशान् पातु निरामयः ॥ ४१॥ 

सर्वाङ्गं पातु सर्वेशः सदा पातु सतीश्वरः । इतीदं कवचं पुण्यं वराहस्य महात्मनः ॥ ४२॥ 

यः पठेत्श‍ृणुयाद्वापि तस्य मृत्युर्विनश्यति । तं नमस्यन्ति भूतानि भीताः साञ्जलिपाणयः ॥ ४३॥ 

राजदस्युभयं नास्ति राज्य भ्रंशो न जायते । यन्नाम स्मरणात्भीताः भूतवेताळराक्षसाः ॥ ४४॥ 

महारोगाश्च नश्यन्ति सत्यं सत्यं वदाम्यहम् । कण्ठे तु कवचं बद्ध्वा वन्ध्या पुत्रवती भवेत् ॥ ४५॥ 

शत्रुसैन्य क्षय प्राप्तिः दुःखप्रशमनं तथा । उत्पात दुर्निमित्तादि सूचितारिष्ट नाशनम् ॥ ४६॥ 

ब्रह्मविद्याप्रबोधं च लभते नात्र संशयः । 
धृत्वेदं कवचं पुण्यं मान्धाता परवीरहा ॥ ४७॥ 

जित्वा तु शाम्बरीं मायां दैत्येन्द्रानवधीत्क्षणात् । कवचेनावृतो भूत्वा देवेन्द्रोऽपि सुरारिहा ॥ ४८॥ 

भूम्योपदिष्टकवच धारणान नरकोऽपि च । सर्वावध्यो जयी भूत्वा महतीं कीर्तिमाप्तवान् ॥ ४९॥ 

अश्वत्थमूलेऽर्कवारे नित्य पुष्करिणीतटे । वराहकवचं जप्त्वा शतवारं पठेद्यदि ॥ ५०॥ 

अपूर्वराज्य संप्राप्तिं नष्टस्य पुनरागमम् । लभते नात्र सन्देहः सत्यमेतन्मयोदितम् ॥ ५१॥ 

जप्त्वा वराह मन्त्रं तु लक्षमेकं निरन्तरम् । दशांशं तर्पणं होमं पायसेन घृतेन च ॥ ५२॥ 

कुर्वन् त्रिकाल सन्ध्यासु कवचेनावृतो यदि । भूमण्डलाधिपत्यं च लभते नात्र संशयः ॥ ५३॥ 

इदमुक्तं मया देवि गोपनीयं दुरात्मनाम् । वराहकवचं पुण्यं संसारार्णवतारकम् ॥ ५४॥ 

महापातककोटिघ्नं भुक्तिमुक्तिफलप्रदम् । वाच्यं पुत्राय शिष्याय सद्वृताय सुधीमते ॥ ५५॥ 

श्री सूतः - इति पत्युर्वचः श्रुत्वा देवी सन्तुष्ट मानसा । विनायक गुहौ पुत्रौ प्रपेदे द्वौ सुरार्चितौ ॥ ५६॥ 

कवचस्य प्रभावेन लोकमाता च पार्वती । 
य इदं श‍ृणुयान्नित्यं यो वा पठति नित्यशः । 
स मुक्तः सर्व पापेभ्यो विष्णुलोके महीयते ॥ ५७॥ 

इति श्रीवराह कवचं सम्पूर्णम् ।

श्रीवाराहयनुग्रहाष्टकम्
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ईश्वर उवाच

मातर्जगद्रचननाटकसूत्रधारः सद्रूपमाकलयितुं परमार्थतोयम् ।
ईशीप्यनीश्वरपदं समुपैति ताद्रकोऽन्यः स्तवं किमिव तावकमादधातुम् ।।1 

नमामिं किं नु गुणतस्तव लोकतुंडे नाडम्बरं स्प्रशति दण्डधरस्य दण्डः ।
यल्लेशलम्बितभवाम्बुनिधिर्यतो यत्तवन्नामसंसृतिरियं ननु नः स्तुतिस्ते ।।2

त्वंचिंतनादरसमुल्लसदप्रमेयाननदोदयात्समुदितः स्फुटरोमहर्षः ।
मातर्नमामि सुदिनानि सदेत्यमुं त्वामभ्यर्थयेऽर्थमिति पूरयताद्दयालो ।।3

इन्द्रेनदुमौलिविधिकेशवमौलिरत्न रोचिश्रचयोज्जवलितपादसरोजयुग्मे ।
चेतो मतौ मम सदा प्रतिबिम्बितं त्वं भूया भवानि विदधातु सदोरूहारे ।।4 

लीलोद्धतक्षितितलस्य वराहमूर्तेर्वाराहमूर्तिरखिलार्थकारी त्वमेव ।
प्रालेयरश्मिसुकलोल्लसितावतंसा त्वं देवि वामतनुभागहरा हरस्य ।।5।।

त्वामम्ब तप्तकनकोज्ज्वलकान्तिमन्तर्ये चिन्तयन्ति
युवतीतनुमागलान्ताम् ।
चक्रायुधत्रिनयनाम्बरपोतृवक्त्रां तेषां पदाम्बुजयुगं प्रणमन्ति देवा: ।।6।।

इति श्रीवराह अनुग्रहाष्टकं सम्पूर्णम् ।
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