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गुरुवार, 11 नवंबर 2021

अरारोट पाउडर क्या होता है?

दक्षिण अमेरिकी अरावक लोगों ने इस पौधे के प्रकंद से कॉर्नस्टार्च का इस्तेमाल घावों से जहर निकालने के लिए किया था जो कि जहरीले तीरों से घाव में चला जाता था। इसका नाम Arrow Root है इस पोदे की जड़ अदरक जा अरबी जैसी गांठ होती है। उस से इस का आटा बनाया जाता है अरारोट का उपयोग अक्सर नाजुक सॉस, पुडिंग और आइसिंग के लिए किया जाता है जिन्हें पकाने की अनुमति नहीं होती है। गर्म सॉस आदि में डालने से पहले अरारोट के आटे को ठंडे तरल में मिलाना चाहिए।
अन्य व्यावसायिक रूप से उपलब्ध स्टार्च उत्पादों के विपरीत जैसे आलू स्टार्च या कॉर्न स्टार्च, जो गाढ़े सॉस को दूधिया बना देता है, अरारोट का आटा सॉस का रंग और उनकी की मूल स्पष्टता को बरकरार रखता है। रस (जेली बनाना)। अरारोट भोजन या अरारोट बिल्कुल गंधहीन और स्वादहीन होता है। यह गेहूं के आटे से लगभग दोगुना गाढ़ा होता है।

गर्दन पर जमी मैल को कैसे हटा सकते हैं?

 


कुछ लोगों की गर्दन पर इतनी मैल जम जाती है कि वह काली -काली दिखाई देती है।वे इसे उतारने की काफी कोशिश करते हैं ।लेकिन फिर भी वह नहीं उतरती है।परंतु कुछ उपाय करके इस मैल को हटाया जा सकता है। इसके अलावा बगल के नीचे वाले हिस्से में और भी कई जगह पर स्किन काली-काली हो जाती है।

आइए जानते हैं कि कैसे इस मैल को साफ किया जा सकता है-

मुल्तानी मिट्टी का लेप लगाकर-

गर्दन पर मुल्तानी मिट्टी में दही और नींबू मिलाकर उसका पेस्ट बनाकर कुछ देर लगाने से भी उस मैल को हटाया जा सकता है।

नींबू और शहद का लेप लगाकर-

नींबू में शहद मिलाकर गर्दन पर लगा कर कुछ देर के लिए छोड़ दें।थोड़ी देर बाद इसे गर्म पानी से धो ले।

बेसन ,नींबू और दही का पेस्ट -

बेसन में थोड़ी सी दही और नींबू मिलाकर पेस्ट बनाकर लगाने से भी गर्दन की मैल को हटाया जा सकता है।

कपड़े पर साबुन लगाकर -

किसी कपड़े पर साबुन लगाकर गर्दन को अच्छी तरह से साफ कर लें।इससे भी काफी मैल दूर हो जाती है।

अगर आप लोगों को मेरी यह जानकारी अच्छी लगी हो तो कृपया मुझे अपवोट करना ना भूलें।

धन्यवाद।

गोपाष्टमी पर्व की कथा, गोपाष्टमी पूजा विधि


 गोपाष्टमी
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भारत में गाय माता के समान है। यहाँ माना जाता है कि सभी देवी, देवता गौ माता के अंदर समाहित रहते है। तो उनकी पूजा करने से सभी का फल मिलता है।

गोपाष्टमी पर्व एवम उपवास इस दिन भगवान कृष्ण एवम गौ माता की पूजा की जाती हैं। हिन्दू धर्म में गाय का स्थान माता के तुल्य माना जाता है, पुराणों ने भी इस बात की पुष्टि की है।भगवान श्री कृष्ण एवम भाई बलराम दोनों का ही बचपन गौकुल में बीता था, जो कि ग्वालो की नगरी थी। ग्वाल जो गाय पालक कहलाते हैं। कृष्ण एवम बलराम को भी गाय की सेवा, रक्षा आदि का प्रशिक्षण दिया गया था। गोपाष्टमी के एक दिन पूर्व इन दोनों ने गाय पालन का पूरा ज्ञान हासिल कर लिया था।
 
 गोपाष्टमी पूजा विधि
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यह पूजा एवम उपवास कार्तिक शुक्ल पक्ष की अष्टमी के दिन होता हैं, इस दिन गौ माता की पूजा की जाती हैं। कहते हैं इस दिन तक श्री कृष्ण एवं बलराम ने गाय पालन की सभी शिक्षा ले कर, एक अच्छे ग्वाला बन गए थे। वर्ष 2021 में गोपाष्टमी 11 नवंबर  को मनाई जायेगी।

अष्टमी तिथि शुरू    22 नवंबर को 07:04 बजे से
अष्टमी तिथि समाप्त    23 नवंबर को 09:40 बजे तक

गोपाष्टमी पर्व का महत्व
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हिन्दू संस्कृति में गाय का विशेष स्थान हैं। माँ का दर्जा दिया जाता हैं क्यूंकि जैसे एक माँ का ह्रदय कोमल होता हैं, वैसा ही गाय माता का होता हैं। जैसे एक माँ अपने बच्चो को हर स्थिती में सुख देती हैं, वैसे ही गाय भी मनुष्य जाति को लाभ प्रदान करती हैं। गाय का दूध, गाय का घी, दही, छांछ यहाँ तक की मूत्र भी मनुष्य जाति के स्वास्थ्य के लिए लाभदायक हैं। इसे कर्तव्य माना जाता हैं कि गाय की सुरक्षा एवम पालन किया जाये। गोपाष्टमी हमें इसी बात का संकेत देती हैं कि पुरातन युग में जब स्वयं श्री कृष्ण ने गौ माता की सेवा की थी, तो हम तो कलयुगी मनुष्य हैं। यह त्यौहार हमें बताता हैं कि हम सभी अपने पालन के लिये गाय पर निर्भर करते हैं इसलिए वो हमारे लिए पूज्यनीय हैं। सभी जीव जंतु वातावरण को संतुलित रखने के लिए उत्तरदायी हैं, इस प्रकार सभी एक दुसरे के ऋणी हैं और यह उत्सव हमें इसी बात का संदेश देता हैं।

गोपाष्टमी कैसे शुरू हुई उसके पीछे एक पौराणिक कथा हैं। किस प्रकार भगवान कृष्ण ने अपनी बाल लीलाओं में गौ माता की सेवा की उसका वर्णन भी इस कथा में हैं।

गोपाष्टमी पर्व की कथा
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कथा 1
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जब कृष्ण भगवान ने अपने जीवन के छठे वर्ष में कदम रखा। तब वे अपनी मैया यशोदा से जिद्द करने लगे कि वे अब बड़े हो गये हैं और बछड़े को चराने के बजाय वे गैया चराना चाहते हैं। उनके हठ के आगे मैया को हार माननी पड़ी और मैया ने उन्हें अपने पिता नन्द बाबा के पास इसकी आज्ञा लेने भेज दिया। भगवान कृष्ण ने नन्द बाबा के सामने जिद्द रख दी, कि अब वे गैया ही चरायेंगे। नन्द बाबा ने गैया चराने के लिए पंडित महाराज को मुहूर्त निकालने कह दिया। पंडित बाबू ने पूरा पंचाग देख लिया और बड़े अचरज में आकर कहा कि अभी इसी समय के आलावा कोई शेष मुहूर्त नही हैं अगले बरस तक। शायद भगवान की इच्छा के आगे कोई मुहूर्त क्या था। वह दिन गोपाष्टमी का था। जब श्री कृष्ण ने गैया पालन शुरू किया। उस दिन माता ने अपने कान्हा को बहुत सुन्दर तैयार किया। मौर मुकुट लगाया, पैरों में घुंघरू पहनाये और सुंदर सी पादुका पहनने दी लेकिन कान्हा ने वे पादुकायें नहीं पहनी। उन्होंने मैया से कहा अगर तुम इन सभी गैया को चरण पादुका पैरों में बांधोगी, तब ही मैं यह पहनूंगा। मैया ये देख भावुक हो जाती हैं और कृष्ण बिना पैरों में कुछ पहने अपनी गैया को चारण के लिए ले जाते।

इस प्रकार कार्तिक शुक्ल पक्ष के दिन से गोपाष्टमी मनाई जाती हैं। भगवान कृष्ण के जीवन में गौ का महत्व बहुत अधिक था। गौ सेवा के कारण ही इंद्र ने उनका नाम गोविंद रखा था। इन्होने गाय के महत्व को सभी के सामने रखा। स्वयं भगवान ने गौ माता की सेवा की।

कथा 2
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कहा जाता है कृष्ण जी ने अपनी सबसे छोटी ऊँगली से गोबर्धन पर्वत को उठा लिया था, जिसके बाद से उस दिन गोबर्धन पूजा की जाती है। ब्रज में इंद्र का प्रकोप इस तरह बरसा की लगातार बारिश होती रही, जिससे बचाने के लिए कृष्ण ने जी 7 दिनन तक पर्वत को अपनी एक ऊँगली में उठाये रखा था। गोपाष्टमी के दिन ही भगवान् इंद्र ने अपनी हार स्वीकार की थी, जिसके बाद श्रीकृष्ण ने गोबर्धन पर्वत नीचे रखा था।

 कथा 3
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गोपाष्टमी ने जुड़ी एक बात और ये है कि राधा भी गाय को चराने के लिए वन में जाना चाहती थी, लेकिन लड़की होने की वजह से उन्हें इस बात के लिए कोई हाँ नहीं करता था। जिसके बाद राधा को एक तरकीब सूझी, उन्होंने ग्वाला जैसे कपड़े पहने और वन में श्रीकृष्ण के साथ गाय चराने चली गई।

कृष्ण जी के हर मंदिर में इस दिन विशेष आयोजन होते है। वृन्दावन, मथुरा, नाथद्वारा में कई दिनों पहले से इसकी तैयारी होती है। नाथद्वारा में 100 से भी अधिक गाय और उनके ग्वाले मंदिर में जाकर पूजा करते है। गायों को बहुत सुंदर ढंग से सजाया जाता है।

  गोपाष्टमी पूजा विधि
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इस दिन गाय की पूजा की जाती हैं। सुबह जल्दी उठकर स्नान करके गाय के चरण स्पर्श किये जाते हैं।
गोपाष्टमी की पूजा पुरे रीती रिवाज से पंडित के द्वारा कराई जाती है।
सुबह ही गाय और उसके बछड़े को नहलाकर तैयार किया जाता है। उसका श्रृंगार किया जाता हैं, पैरों में घुंघरू बांधे जाते हैं,अन्य आभूषण पहनायें जाते हैं।
गाय माता की परिक्रमा भी की जाती हैं। सुबह गायों की परिक्रमा कर उन्हें चराने बाहर ले जाते है।
इस दिन ग्वालों को भी दान दिया जाता हैं। कई लोग इन्हें नये कपड़े दे कर तिलक लगाते हैं।
शाम को जब गाय घर लौटती है, तब फिर उनकी पूजा की जाती है, उन्हें अच्छा भोजन दिया जाता है। खासतौर पर इस दिन गाय को हरा चारा खिलाया जाता हैं।
जिनके घरों में गाय नहीं होती है वे लोग गौ शाला जाकर गाय की पूजा करते है, उन्हें गंगा जल, फूल चढाते है, दिया जलाकर गुड़ खिलाते है।
औरतें कृष जी की भी पूजा करती है, गाय को तिलक लगाती है। इस दिन भजन किये जाते हैं। कृष्ण पूजा भी की जाती हैं।
गाय को हरा मटर एवं गुड़ खिलाया जाता है।
कुछ लोग गौशाला में खाना और अन्य समान का दान भी करते है।
इस दिन स्कॉन टेम्पल को खूब सजाया जाता हैं। उसमे नाच गाना और भव्य जश्न होता हैं।
गौ माता का हिन्दू संस्कृति में अधिक महत्व हैं। पुराणों में गाय के पूजन, उसकी रक्षा, पालन,पोषण को मनुष्य का कर्तव्य माना गया हैं। हम सभी को गौ माता की सेवा करना चाहिये, क्यूंकि वह भी हमें एक माँ  की तरह ही पालन करती हैं।

गोपाष्टमी के आगमन की बधाई- कार्तिक शुक्लपक्ष-७/८- दिनांक- ११-११-२१


 🐂🐂🐂🐂🐂🐂🐂🐂 गोपाष्टमी के आगमन की बधाई- कार्तिक शुक्लपक्ष-७/८- दिनांक- ११-११-२१  🐂🐂🐂

🐂अपनी पांच वर्ष की छोटी सी आयु में श्रीकॄष्ण ने माता यशोदा और नंदबावा से ह्ठ करके आज्ञा ली कि अब वे अपने ओर सखा ग्वाल बालो के साथ गाय चराने के लिये वन में जाय! कार्तिक शुक्ल- सप्तमि/ अष्टमी के शुभ दिन बहोत आनंद और मंगलगान सहित सारी तैयारीयां के साथ आपने गायों को आगे करके-ग्वाल बालों ओर दाउभैया को संग ले के गाय चराने जाने का प्रारंभ किया

प्रथम गोचारन चले कन्हाई!

🍁  एक व्रजवासी ग्वाला के परिधान में, फेंट में शींग रखे हुये, केश में मयुर पिच्छ धारण किये, ओर भी अधिक सुंदर दिखते थे...सबका मन हरण करते, मधुरी सी मुरली बजाते, अपने नयनो कों इधर उधर नचाते, उछलते कुदते, अपने सखाके कंधे पर अपना हस्त धरके, चित्तहरनी मुस्कान के साथ जब वे व्रजतें वनमें पधारते हते तब सब व्रजवासीयां अपना सब काम जैसे के तैसे छोडके मारग में आकर खडे हो जाते थे...सबको अपनी चंचल चितवन से तनिक आनंदित करते, गायो को हंकारते हुये खेल खेल में ही वन में प्रवेश कर जाते. पूरा दिन अपने आश्रित गायो को, पशुओ को एक वन में से दुसरे वन में, यमुना किनारे, गिरि गोवर्धन पर, तरहटी में ले जाते जहां वे सब कोमल कोमल घास चरते और शीतल मीठा जल पीते.

🐂 शाम को जब घर आने का समय होता तब आप कदंब वृक्ष पर चढ कर सारी गौए को जो तृण के लोभवश श्रीकृष्ण से बहोत दूर चली गई है उनको प्रीति से उनके नाम कभी मुरली में ले कर तो कभी आवाज दे दे कर बुलाते...अरी धोरी, धुमर, कारी, काजर, गांग, पीहर!

🐂 क्वचित आह्वयति प्रीत्या गो गोपाल मनोज्ञया!

🐂 जब श्रीकृष्ण के मुखसे प्रीतिपूर्वक पुकारा हुआ अपना नाम सुनती तब वे सारी की सारी बहोत वेग से, अपना पूंछ उंचा करके मानों दो ही पग हो ऐसे कुदती हुई आ जाती और श्रीकृष्ण के सन्मुख खडी हो कर ऐसे देखती मानों उनका स्वरूपामृत अपने नेत्र रूपी दोनों से भर भरकर पी रही हो! सबके सबकी दृष्टि केवल श्रीकृष्ण के मुखारविंद पर ही गडी रहती!

🐂 बाद में जब उनको बहोत प्रेम से, पुचकारते हुये श्रीकृष्ण व्रज की और ले चलते तबकी शोभा का वर्णन आवनी के बहोत सारे पदो में अष्टछाप आदि भक्त कवियों नें किया है.

🐂आगे गाय, पाछे गाय, इत गाय, उत गाय...
गोविंदा को गायनमें बसिवो ही भावे...
💧गायन सों व्रज छायो, वैकुंठ बिसरायो,
गायन के हेत कर गिरि लै उठावे....
गायन के संग धावे,
गायन में सचु पावे, गायन की खुर रेणु अंग लपटावे...

🐂 छीतस्वामी गिरिधारि, विठ्ठलेश वपुधारी, ग्वारिया को भेख धरे गायन में आवे...🐂🐂🐂🐂🐂🐂🐂🐂🐂🐂

🐂 चारों ओर से गायों से घिरे हुये, गायों के चलने से उडती रज से मुख ओर केशसों भरे हुये, वन की विचित्र धातु से मंडित श्रीअंग और पुष्प-पिच्छों से अपने को सजाये हुये जब श्रीकृष्ण अपने ग्वालबालो के साथ व्रज में प्रवेश करते थे तब व्रज में बहोत लम्बे काल से उनकी प्रतिक्षा करने वाले भक्तो के नेत्रों का उत्सव हो जाता! सबका सन्मान ग्रहण करते और सबको मान देते हुये आप नंदभवन में पधारते जहां श्री यशोदा जी, रोहिणी जी और व्रजभक्त आपके ओवारना लेते. आरती उतारते.

शाम को आप मैया सों कहते है,

🐂"मैया मैं कैसी गाय चराई?
बुझ देख बलभद्र ददासों कैसी मैं टेर बुलाई! "

🐂और 'मैया मैं कलसों गाय चरावन नहिं जाउंगो. और सब ग्वालबाल मुझे ही कहते है, गाय को घेर के वापस लाने के लिये, और मेरे छोटे छोटे पांव एक वन से दुसरे वन में दौडने से बहोत दुःख रहे है, तु बलदाउं भैया से पूछ जो मैं सच न बोलतो हौं तो!"
और ... जब यशोदाजी आपको कुछ रात्रि के भोजन के लिये मनाती है तो आप बहोत थके हुये से माता को बिनती करते है...

🐂 अब मोहि सोवन देरी माय!
गायन के संग फिरत बनबन मेरे पांय पिराय!
आज सांझ ही तें नींद मेरे नयन पेठी आय,
खुलत नांहिन पलक मेरी खायो कछुअ न जाय।
कर कलेउ प्रात जेहों फेर चरावन गाय,
परमानंद प्रभुकी जननी लेत कंठ लपटाय।

🐂 ऐसी प्रभु की विविध लीलामेंसे गौचारण लीला की माधुरी भी अनोखी है...सबको गाय बनने की मन में तीव्र इच्छा जगाने वाले उस गोपाल को कोटी कोटी दंडवत प्रणाम के साथ फिर से सबको बधाई हो!
🐂🐂🐂🐂🐂🐂🐂🐂

पर लक्ष्मी जी के साथ विष्णु का नही, गणेश का पूजन होता है! श्री हरि के स्थान पर श्री गणेश!!

शुभ दीपावली का क्या है संदेश

बीती रात पांच दिवसीय दीप पर्व का मुख्य पर्व - दीपावली संपन्न हुआ।

कितना महत्वपूर्ण संदेश
           👇
मुख्य पूजन लक्ष्मी जी का होता है।

पर लक्ष्मी जी के साथ विष्णु का नही, गणेश का पूजन होता है!  
श्री हरि के स्थान पर श्री गणेश!!

कथा के अनुसार मातृ सुख की इच्छा में जब लक्ष्मी जी ने पार्वती जी से गणेश को गोद देने का अनुरोध किया तो पार्वती जी कुछ संदेह में थीं कि लक्ष्मी जी तो एक जगह ज्यादा देर टिकती नही हैं फिर वो गणेश का ध्यान रख पाएंगी या नही। तब लक्ष्मी जी ने न केवल गणेश के साथ सदा रहने का आश्वासन दिया बल्कि यह भी कहा कि जो भी आराधक मेरे साथ गणेश का पूजन करेगा, मैं उसे अपनी सभी सिद्धियों और समृद्धि दूँगी।

कथा यह भी कहती है कि गणेश जी को दत्तक पुत्र के रूप में अपनाने के बाद लक्ष्मी जी की पूजा प्रारम्भ हुई और यहां तक कि अयोध्या वापस लौटने पर रामचंद्र जी ने भी राज्य हित में जो पूजन किया उसमे सर्वप्रथम लक्ष्मी गणेश की पूजा की। कहते हैं उसी परम्परा में आज भी दीवाली के दिन राम जी का नही लक्ष्मी गणेश का पूजन होता है।

संकेत गहरा है।

लक्ष्मी (धन) चंचल हैं, टिकती वहीं हैं जहां गणेश (बुद्धि) का निवास रहे। केवल लक्ष्मी की साधना से अगर धन मिल भी गया तो भी बुद्धि / विवेक के बिना टिकना संभव नही। धन कमाना अपेक्षकृत आसान है, यह भाग्य भी हो सकता है, परन्तु उसे संभालना कठिन है।  यह भी कि गणेश पूजन के समय, लक्ष्मी पूजन आवश्यक नही पर लक्ष्मी पूजन में गणेश का होना आवश्यक है, तात्पर्य यह कि बुद्धि के साथ धन आवश्यक नही है पर धन के साथ बुद्धि का होना अतिआवश्यक है।

लक्ष्मी गणेश दोनों के साथ साथ पूजन का उद्देश्य यही है कि धन आये और उसका बुद्धि पूर्वक ऐसा प्रयोग हो कि समृद्धि भी बढ़े और कीर्ति भी।

यदि आप किसी कुटुंब /संस्था / सत्ता के प्रमुख भी बन जाएं, तो भी याद रखे��
[12:15 pm, 08/11/2021] +91 91314 17511: ध्यान से देखो तो सारी दुनिया एक बगीचा लगती है और हर आत्मा एक महकता हुवा फूल नज़र आती है। ज़िंदगी को बेहतर बनाने के लिये मेरे साथ क्या हो रहा है सोचने के बजाय मैं क्या कर रहा हूँ सोचना शरू कर दीजिये। अपनी गलतियों पर बहाने बनाने एवं औरों पर इल्ज़ाम लगाने के बजाय सकारात्मक कार्य करते रहो।
सकारात्मक कार्य करते बीते दिन सभी का

उत्सव के बाद का नीरव सन्नाटा हमें गहरे तक परेशान करता है।


 उत्सव के बाद का नीरव सन्नाटा हमें गहरे तक परेशान करता है।
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        हम भारतीय उत्सव को मनाते नहीं, उत्सव में सराबोर होते हैं। उत्सव हमारे मन में छिपी गुदगुदी होती है जिसे हम बड़ी मासूमियत से साल भर अपने अंदर संजोकर रखते हैं.....हमारे अपनों के लिए, हमारे प्रिय, हमारे परिजन, हमारे दोस्तों के लिए। उत्सव मौका होता है हम सब के लिए इकट्ठा होने का, मिलने का, स्मृतियों को जीने का, नई स्मृतियों को रचने का। आज जो कुछ लिख रहा हूँ वो अपने परिवार, अपने ऑफिस, अपने काम या अपने काम से जुडी किसी योजना से जुड़ी बात नहीं है। बात हम हर आम भारतीय की है, उसके अंदर गहरे तक रचे-बसे इमोशन की है। अब जबकि दीपावली की रौनक और उल्लास खत्म हो चुकी है तो मैं इस उत्सव के बाद के नीरव सन्नाटे के बारे में सोच रहा हूँ, इस नीरवता को भीतर तक महसूस कर रहा हूँ। छुट्टियां खत्म हुई है और अब किसी का बेटा, किसी की बिटिया, किसी का भाई, किसी की बहिन, किसी की बहू, पोते-पोतियां वापिस वहां जाने की तैयारी में होंगे, शायद किसी के तो जा भी चुके होंगे। जाना वहाँ, जहां वो काम करते है, पढ़ाई करते हैं। उल्लास के बाद का ये विरह सोचिये। घर से लौटकर अब ये सभी वापिस किराए और शेयरिंग के बोझिल मकान, खाली फ्लैट, पराये हॉस्टल में जाएंगे। पीछे अपने घर को मकान बनाकर और अब अपने नये मकां को घर बनाने की फिराक में।
दुनिया में कोई एजेंसी ऐसी नहीं है जो उत्सव के बाद के इस विरह, नीरवता, माँ-बाप की अपने बेटे-बेटियों के सकुशल यात्रा की चिंता, उनके कन्सर्न, इमोशन, बच्चों की खुद के भविष्य की चिंता, असुरक्षा का डाटा तैयार कर सके। आज बस-स्टैंड, रेलवे स्टेशन, एयरपोर्ट पर कितने आंसू निकले होंगे, कितने दिल बोझिल हुए होंगे, कितनो ने अपनी भावनायें छिपाकर नकली मजबूती दिखाते हुए पूछा होगा- इस बार लंबी छुट्टी लेकर आना, कोई नही जानता। भारतीय माँ और पिता की वही हमेशा वाली बाते हुई होंगी- बेटा, पानी ले लिया ना। छुट्टे पैसे तो होंगे ना। खाना खा लेना टाइम पर। मिठाई खुद भी खाना, हमेशा जैसे दोस्तों में बाँट मत देना। टैक्सी कर लेना, तंग मत होना। एक दादी अपने पोते को ट्रेन से रवाना होने से पहले तक अपनी बहू को नही देती। उन हाथों को मस्क को रूह तक उतारना है उसे। उसकी अपनी बहू से लाख तरह की नौक-झौंक और शिकायत होगी पर उसे भी मालूम है कि यही खट्टा-मीठा रिश्ता शायद हर घर की रौनक होती है जिसकी कमी उसको खलेगी। ट्रेन की सीटी बजती है और पोते को दादी के हाथों से लेकर बहु पैर छूती है। नर्म हाथों से छुए बूढ़े पैरो में सिहरन है, आँखों में नमी और दिल में बोझ। इस उम्र में अपना शहर छोड़ जा नहीं सकने की मजबूरी और अपनों के बिन भी रह पाने की कमजोरी।
हम और हमारे इमोशन। गुडबाय से पहले के इमोशन। अगले कुछ दिन, कुछ महीनों, कुछ साल के लिए होने वाले इस गुडबाय में सारा प्यार, अफेक्शन और चिंता इन अंतिम 20 मिनिट में सिमट कर क्यों आ जाती है। क्यों रवाना होने से पहले का ये गुडबाय बोलना जरूरी होता है। घर से ही गुडबाय क्यों नहीं होता। घर वाला गुडबाय स्टेशन, बस-स्टैंड और एयरपोर्ट जैसी यांत्रिक और निर्जीव जगह पर ही क्यों निकलता है। इतनी पवित्र भावनाओ का मशीनी जगह पर आना भी कम कमाल नहीं है। मशीनों के बीच मानव मन। ट्रैन, बस और एयरोप्लैन धीरे धीरे आगे बढ़ जाते हैं। अपने पीछे कुछ छोड़ कर, कुछ अंदर तक तोड़ कर।
*कहीं से लौट आने और कहीं से लौट जाने के बीच एक पूरी दुनिया होती है।☺🌹

हनुमानजी के पंचमुखी रूप की कथा


 आज हम आपको हनुमानजी के पंचमुखी रूप की कथा विस्तार से बतायेगें!!!!!!





 लंका में महा बलशाली मेघनाद के साथ बड़ा ही भीषण युद्ध चला. अंतत: मेघनाद मारा गया। रावण जो अब तक मद में चूर था राम सेना, खास तौर पर लक्ष्मण का पराक्रम सुनकर थोड़ा तनाव में आया।

रावण को कुछ दुःखी देखकर रावण की मां कैकसी ने उसके पाताल में बसे दो भाइयों अहिरावण और महिरावण की याद दिलाई। रावण को याद आया कि यह दोनों तो उसके बचपन के मित्र रहे हैं।

लंका का राजा बनने के बाद उनकी सुध ही नहीं रही थी। रावण यह भली प्रकार जानता था कि अहिरावण व महिरावण तंत्र-मंत्र के महा पंडित, जादू टोने के धनी और मां कामाक्षी के परम भक्त हैं।

रावण ने उन्हें बुला भेजा और कहा कि वह अपने छल बल, कौशल से श्री राम व लक्ष्मण का सफाया कर दे। यह बात दूतों के जरिए विभीषण को पता लग गयी। युद्ध में अहिरावण व महिरावण जैसे परम मायावी के शामिल होने से विभीषण चिंता में पड़ गए।

विभीषण को लगा कि भगवान श्री राम और लक्ष्मण की सुरक्षा व्यवस्था और कड़ी करनी पड़ेगी. इसके लिए उन्हें सबसे बेहतर लगा कि इसका जिम्मा परम वीर हनुमान जी को सौंप दिया जाए।

राम-लक्ष्मण की कुटिया लंका में सुवेल पर्वत पर बनी थी। हनुमान जी ने भगवान श्री राम की कुटिया के चारों ओर एक सुरक्षा घेरा खींच दिया। कोई जादू टोना तंत्र-मंत्र का असर या मायावी राक्षस इसके भीतर नहीं घुस सकता था।

अहिरावण और महिरावण श्री राम और लक्ष्मण को मारने उनकी कुटिया तक पहुंचे पर इस सुरक्षा घेरे के आगे उनकी एक न चली, असफल रहे। ऐसे में उन्होंने एक चाल चली। महिरावण विभीषण का रूप धर के कुटिया में घुस गया।

राम व लक्ष्मण पत्थर की सपाट शिलाओं पर गहरी नींद सो रहे थे। दोनों राक्षसों ने बिना आहट के शिला समेत दोनो भाइयों को उठा लिया और अपने निवास पाताल की और लेकर चल दिए।

विभीषण लगातार सतर्क थे। उन्हें कुछ देर में ही पता चल गया कि कोई अनहोनी घट चुकी है. विभीषण को महिरावण पर शक था, उन्हें राम-लक्ष्मण की जान की चिंता सताने लगी।

विभीषण ने हनुमान जी को महिरावण के बारे में बताते हुए कहा कि वे उसका पीछा करें। लंका में अपने रूप में घूमना राम भक्त हनुमान के लिए ठीक न था सो उन्होंने पक्षी का रूप धारण कर लिया और पक्षी का रूप में ही निकुंभला नगर पहुंच गये।

निकुंभला नगरी में पक्षी रूप धरे हनुमान जी ने कबूतर और कबूतरी को आपस में बतियाते सुना। कबूतर, कबूतरी से कह रहा था कि अब रावण की जीत पक्की है। अहिरावण व महिरावण राम-लक्ष्मण को बलि चढा देंगे। बस सारा युद्ध समाप्त।

कबूतर की बातों से ही बजरंग बली को पता चला कि दोनों राक्षस राम लक्ष्मण को सोते में ही उठाकर कामाक्षी देवी को बलि चढाने पाताल लोक ले गये हैं। हनुमान जी वायु वेग से रसातल की और बढे और तुरंत वहां पहुंचे।

हनुमान जी को रसातल के प्रवेश द्वार पर एक अद्भुत पहरेदार मिला। इसका आधा शरीर वानर का और आधा मछली का था। उसने हनुमान जी को पाताल में प्रवेश से रोक दिया।

द्वारपाल हनुमान जी से बोला कि मुझ को परास्त किए बिना तुम्हारा भीतर जाना असंभव है। दोनों में लड़ाई ठन गयी। हनुमान जी की आशा के विपरीत यह बड़ा ही बलशाली और कुशल योद्धा निकला।

दोनों ही बड़े बलशाली थे। दोनों में बहुत भयंकर युद्ध हुआ परंतु वह बजरंग बली के आगे न टिक सका। आखिर कार हनुमान जी ने उसे हरा तो दिया पर उस द्वारपाल की प्रशंसा करने से नहीं रह सके।

हनुमान जी ने उस वीर से पूछा कि हे वीर तुम अपना परिचय दो। तुम्हारा स्वरूप भी कुछ ऐसा है कि उससे कौतुहल हो रहा है। उस वीर ने उत्तर दिया- मैं हनुमान का पुत्र हूं और एक मछली से पैदा हुआ हूं। मेरा नाम है मकरध्वज।

हनुमान जी ने यह सुना तो आश्चर्य में पड़ गए। वह वीर की बात सुनने लगे। मकरध्वज ने कहा- लंका दहन के बाद हनुमान जी समुद्र में अपनी अग्नि शांत करने पहुंचे। उनके शरीर से पसीने के रूप में तेज गिरा।

उस समय मेरी मां ने आहार के लिए मुख खोला था। वह तेज मेरी माता ने अपने मुख में ले लिया और गर्भवती हो गई। उसी से मेरा जन्म हुआ है। हनुमान जी ने जब यह सुना तो मकरध्वज को बताया कि वह ही हनुमान हैं।

मकरध्वज ने हनुमान जी के चरण स्पर्श किए और हनुमान जी ने भी अपने बेटे को गले लगा लिया और वहां आने का पूरा कारण बताया। उन्होंने अपने पुत्र से कहा कि अपने पिता के स्वामी की रक्षा में सहायता करो

मकरध्वज ने हनुमान जी को बताया कि कुछ ही देर में राक्षस बलि के लिए आने वाले हैं। बेहतर होगा कि आप रूप बदल कर कामाक्षी कें मंदिर में जा कर बैठ जाएं। उनको सारी पूजा झरोखे से करने को कहें।

हनुमान जी ने पहले तो मधु मक्खी का वेश धरा और मां कामाक्षी के मंदिर में घुस गये। हनुमान जी ने मां कामाक्षी को नमस्कार कर सफलता की कामना की और फिर पूछा- हे मां क्या आप वास्तव में श्री राम जी और लक्ष्मण जी की बलि चाहती हैं ?

हनुमान जी के इस प्रश्न पर मां कामाक्षी ने उत्तर दिया कि नहीं। मैं तो दुष्ट अहिरावण व महिरावण की बलि चाहती हूं। यह दोनों मेरे भक्त तो हैं पर अधर्मी और अत्याचारी भी हैं। आप अपने प्रयत्न करो, सफल रहोगे।

मंदिर में पांच दीप जल रहे थे। अलग-अलग दिशाओं और स्थान पर मां ने कहा यह दीप अहिरावण ने मेरी प्रसन्नता के लिए जलाये हैं जिस दिन ये एक साथ बुझा दिए जा सकेंगे, उसका अंत सुनिश्चित हो सकेगा।

इस बीच गाजे-बाजे का शोर सुनाई पड़ने लगा। अहिरावण, महिरावण बलि चढाने के लिए आ रहे थे। हनुमान जी ने अब मां कामाक्षी का रूप धरा। जब अहिरावण और महिरावण मंदिर में प्रवेश करने ही वाले थे कि हनुमान जी का महिला स्वर गूंजा।

हनुमान जी बोले- मैं कामाक्षी देवी हूं और आज मेरी पूजा झरोखे से करो। झरोखे से पूजा आरंभ हुई ढेर सारा चढावा मां कामाक्षी को झरोखे से चढाया जाने लगा। अंत में बंधक बलि के रूप में राम लक्ष्मण को भी उसी से डाला गया। दोनों बंधन में बेहोश थे।

हनुमान जी ने तुरंत उन्हें बंधन मुक्त किया। अब पाताल लोक से निकलने की बारी थी पर उससे पहले मां कामाक्षी के सामने अहिरावण महिरावण की बलि देकर उनकी इच्छा पूरी करना और दोनों राक्षसों को उनके किए की सज़ा देना शेष था।

अब हनुमान जी ने मकरध्वज को कहा कि वह अचेत अवस्था में लेटे हुए भगवान राम और लक्ष्मण का खास ख्याल रखे और उसके साथ मिलकर दोनों राक्षसों के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया।

पर यह युद्ध आसान न था। अहिरावण और महिरावण बडी मुश्किल से मरते तो फिर पाँच पाँच के रूप में जिदां हो जाते। इस विकट स्थिति में मकरध्वज ने बताया कि अहिरावण की एक पत्नी नागकन्या है।

अहिरावण उसे बलात हर लाया है। वह उसे पसंद नहीं करती पर मन मार के उसके साथ है, वह अहिरावण के राज जानती होगी। उससे उसकी मौत का उपाय पूछा जाये। आप उसके पास जाएं और सहायता मांगे।

मकरध्वज ने राक्षसों को युद्ध में उलझाये रखा और उधर हनुमान अहिरावण की पत्नी के पास पहुंचे। नागकन्या से उन्होंने कहा कि यदि तुम अहिरावण के मृत्यु का भेद बता दो तो हम उसे मारकर तुम्हें उसके चंगुल से मुक्ति दिला देंगे।

अहिरावण की पत्नी ने कहा- मेरा नाम चित्रसेना है। मैं भगवान विष्णु की भक्त हूं। मेरे रूप पर अहिरावण मर मिटा और मेरा अपहरण कर यहां कैद किये हुए है, पर मैं उसे नहीं चाहती। लेकिन मैं अहिरावण का भेद तभी बताउंगी जब मेरी इच्छा पूरी की जायेगी।

हनुमान जी ने अहिरावण की पत्नी नागकन्या चित्रसेना से पूछा कि आप अहिरावण की मृत्यु का रहस्य बताने के बदले में क्या चाहती हैं ? आप मुझसे अपनी शर्त बताएं, मैं उसे जरूर मानूंगा।

चित्रसेना ने कहा- दुर्भाग्य से अहिरावण जैसा असुर मुझे हर लाया. इससे मेरा जीवन खराब हो गया. मैं अपने दुर्भाग्य को सौभाग्य में बदलना चाहती हूं। आप अगर मेरा विवाह श्री राम से कराने का वचन दें तो मैं अहिरावण के वध का रहस्य बताऊंगी।

हनुमान जी सोच में पड़ गए. भगवान श्री राम तो एक पत्नी निष्ठ हैं। अपनी धर्म पत्नी देवी सीता को मुक्त कराने के लिए असुरों से युद्ध कर रहे हैं। वह किसी और से विवाह की बात तो कभी न स्वीकारेंगे। मैं कैसे वचन दे सकता हूं ?

फिर सोचने लगे कि यदि समय पर उचित निर्णय न लिया तो स्वामी के प्राण ही संकट में हैं. असमंजस की स्थिति में बेचैन हनुमानजी ने ऐसी राह निकाली कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे।

हनुमान जी बोले- तुम्हारी शर्त स्वीकार है पर हमारी भी एक शर्त है. यह विवाह तभी होगा जब तुम्हारे साथ भगवान राम जिस पलंग पर आसीन होंगे वह सही सलामत रहना चाहिए। यदि वह टूटा तो इसे अपशकुन मांगकर वचन से पीछे हट जाऊंगा।

जब महाकाय अहिरावण के बैठने से पलंग नहीं टूटता तो भला श्रीराम के बैठने से कैसे टूटेगा ! यह सोच कर चित्रसेना तैयार हो गयी। उसने अहिरावण समेत सभी राक्षसों के अंत का सारा भेद बता दिया.

चित्रसेना ने कहा- दोनों राक्षसों के बचपन की बात है. इन दोनों के कुछ शरारती राक्षस मित्रों ने कहीं से एक भ्रामरी को पकड़ लिया। मनोरंज के लिए वे उसे भ्रामरी को बार-बार काटों से छेड रहे थे।

भ्रामरी साधारण भ्रामरी न थी। वह भी बहुत मायावी थी किंतु किसी कारण वश वह पकड़ में आ गई थी। भ्रामरी की पीड़ा सुनकर अहिरावण और महिरावण को दया आ गई और अपने मित्रों से लड़ कर उसे छुड़ा दिया।

मायावी भ्रामरी का पति भी अपनी पत्नी की पीड़ा सुनकर आया था। अपनी पत्नी की मुक्ति से प्रसन्न होकर उस भौंरे ने वचन दिया था कि तुम्हारे उपकार का बदला हम सभी भ्रमर जाति मिलकर चुकाएंगे।

ये भौंरे अधिकतर उसके शयन कक्ष के पास रहते हैं। ये सब बड़ी भारी संख्या में हैं। दोनों राक्षसों को जब भी मारने का प्रयास हुआ है और ये मरने को हो जाते हैं तब भ्रमर उनके मुख में एक बूंद अमृत का डाल देते हैं।

उस अमृत के कारण ये दोनों राक्षस मरकर भी जिंदा हो जाते हैं। इनके कई-कई रूप उसी अमृत के कारण हैं। इन्हें जितनी बार फिर से जीवन दिया गया उनके उतने नए रूप बन गए हैं. इस लिए आपको पहले इन भंवरों को मारना होगा।

हनुमान जी रहस्य जानकर लौटे। मकरध्वज ने अहिरावण को युद्ध में उलझा रखा था। तो हनुमान जी ने भंवरों का खात्मा शुरू किया। वे आखिर हनुमान जी के सामने कहां तक टिकते।

जब सारे भ्रमर खत्म हो गए और केवल एक बचा तो वह हनुमान जी के चरणों में लोट गया। उसने हनुमान जी से प्राण रक्षा की याचना की। हनुमान जी पसीज गए। उन्होंने उसे क्षमा करते हुए एक काम सौंपा।

हनुमान जी बोले- मैं तुम्हें प्राण दान देता हूं पर इस शर्त पर कि तुम यहां से तुरंत चले जाओगे और अहिरावण की पत्नी के पलंग की पाटी में घुसकर जल्दी से जल्दी उसे पूरी तरह खोखला बना दोगे।

भंवरा तत्काल चित्रसेना के पलंग की पाटी में घुसने के लिए प्रस्थान कर गया। इधर अहिरावण और महिरावण को अपने चमत्कार के लुप्त होने से बहुत अचरज हुआ पर उन्होंने मायावी युद्ध जारी रखा।

भ्रमरों को हनुमान जी ने समाप्त कर दिया फिर भी हनुमान जी और मकरध्वज के हाथों अहिरावण और महिरावण का अंत नहीं हो पा रहा था। यह देखकर हनुमान जी कुछ चिंतित हुए।

फिर उन्हें कामाक्षी देवी का वचन याद आया। देवी ने बताया था कि अहिरावण की सिद्धि है कि जब पांचो दीपकों एक साथ बुझेंगे तभी वे नए-नए रूप धारण करने में असमर्थ होंगे और उनका वध हो सकेगा।

हनुमान जी ने तत्काल पंचमुखी रूप धारण कर लिया। उत्तर दिशा में वराह मुख, दक्षिण दिशा में नरसिंह मुख, पश्चिम में गरुड़ मुख, आकाश की ओर हयग्रीव मुख एवं पूर्व दिशा में हनुमान मुख।

उसके बाद हनुमान जी ने अपने पांचों मुख द्वारा एक साथ पांचों दीपक बुझा दिए। अब उनके बार बार पैदा होने और लंबे समय तक जिंदा रहने की सारी आशंकायें समाप्त हो गयीं थी। हनुमान जी और मकरध्वज के हाथों शीघ्र ही दोनों राक्षस मारे गये।

इसके बाद उन्होंने श्री राम और लक्ष्मण जी की मूर्च्छा दूर करने के उपाय किए। दोनो भाई होश में आ गए। चित्रसेना भी वहां आ गई थी। हनुमान जी ने कहा- प्रभो ! अब आप अहिरावण और महिरावण के छल और बंधन से मुक्त हुए।

पर इसके लिए हमें इस नागकन्या की सहायता लेनी पड़ी थी। अहिरावण इसे बल पूर्वक उठा लाया था। वह आपसे विवाह करना चाहती है। कृपया उससे विवाह कर अपने साथ ले चलें। इससे उसे भी मुक्ति मिलेगी।

श्री राम हनुमान जी की बात सुनकर चकराए। इससे पहले कि वह कुछ कह पाते हनुमान जी ने ही कह दिया- भगवन आप तो मुक्तिदाता हैं। अहिरावण को मारने का भेद इसी ने बताया है। इसके बिना हम उसे मारकर आपको बचाने में सफल न हो पाते।

कृपा निधान इसे भी मुक्ति मिलनी चाहिए। परंतु आप चिंता न करें। हम सबका जीवन बचाने वाले के प्रति बस इतना कीजिए कि आप बस इस पलंग पर बैठिए बाकी का काम मैं संपन्न करवाता हूं।

हनुमान जी इतनी तेजी से सारे कार्य करते जा रहे थे कि इससे श्री राम जी और लक्ष्मण जी दोनों चिंता में पड़ गये। वह कोई कदम उठाते कि तब तक हनुमान जी ने भगवान राम की बांह पकड़ ली।

हनुमान जी ने भावा वेश में प्रभु श्री राम की बांह पकड़कर चित्रसेना के उस सजे-धजे विशाल पलंग पर बिठा दिया। श्री राम कुछ समझ पाते कि तभी पलंग की खोखली पाटी चरमरा कर टूट गयी।

पलंग धराशायी हो गया। चित्रसेना भी जमीन पर आ गिरी। हनुमान जी हंस पड़े और फिर चित्रसेना से बोले- अब तुम्हारी शर्त तो पूरी हुई नहीं, इसलिए यह विवाह नहीं हो सकता। तुम मुक्त हो और हम तुम्हें तुम्हारे लोक भेजने का प्रबंध करते हैं।

चित्रसेना समझ गयी कि उसके साथ छल हुआ है। उसने कहा कि उसके साथ छल हुआ है। मर्यादा पुरुषोत्तम के सेवक उनके सामने किसी के साथ छल करें यह तो बहुत अनुचित है। मैं हनुमान को श्राप दूंगी।

चित्रसेना हनुमान जी को श्राप देने ही जा हे रही थी कि श्री राम का सम्मोहन भंग हुआ। वह इस पूरे नाटक को समझ गये। उन्होंने चित्रसेना को समझाया- मैंने एक पत्नी धर्म से बंधे होने का संकल्प लिया है। इस लिए हनुमान जी को यह करना पड़ा। उन्हें क्षमा कर दो।

क्रुद्ध चित्रसेना तो उनसे विवाह की जिद पकड़े बैठी थी। श्री राम ने कहा- मैं जब द्वापर में श्री कृष्ण अवतार लूंगा तब तुम्हें सत्यभामा के रूप में अपनी पटरानी बनाउंगा। इससे वह मान गयी।

हनुमान जी ने चित्रसेना को उसके पिता के पास पहुंचा दिया. चित्रसेना को प्रभु ने अगले जन्म में पत्नी बनाने का वरदान दिया था। भगवान विष्णु की पत्नी बनने की चाह में उसने स्वयं को अग्नि में भस्म कर लिया।

श्री राम और लक्ष्मण, मकरध्वज और हनुमान जी सहित वापस लंका में सुवेल पर्वत पर लौट आये। (स्कंद पुराण और आनंद रामायण के सारकांड की कथा)

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