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गुरुवार, 18 जनवरी 2024

मेरे प्रभु श्री राम आ रहे हैं

मेरे प्रभु श्री राम आ रहे हैं
 
पुनि मन्दिर महँ बात जनाई, आवत नगर कुशल रघुराई । ( श्रीरामचरितमानस )

शत्रुघ्न आज जल्दी से जल्दी महल में पहुँचना चाहते हैं… सुमन्त्र जी ! आप आज की रात सब व्यवस्था सम्भाल दीजिये ! मैं अकेले रहना चाहता हूँ… मैं एकान्त में बैठना चाहता हूँ । शत्रुघ्न कुमार ने अपने हृदय की बात कही… । बात सही भी तो है… जब अपने दुःख को इन शत्रुघ्न कुमार ने जग जाहिर नहीं किया… तो ख़ुशी का प्रदर्शन भी क्यों करें ।

कुमार ! आप विश्राम करें… और वैसे भी चौदह वर्ष का आपका “तप” कौन देख सका है… ये महामन्त्री सुमन्त्र ही जानता है कि आपकी तपस्या अप्रकट थी… हे कुमार ! दीवार पर चित्रकारी हो सकती है… पर नींव पर कोई कैसे चित्रकारी करे ! आप कुमार ! इस रघुकुल के नींव हैं… ये कहते हुए महामन्त्री के नेत्र बह चले थे । नहीं ! नहीं ! महामन्त्री जी !… तप तो मेरे प्रभु ने किया है… तप तो मेरे अग्रज लक्ष्मण ने किया है… पूज्या भाभी माँ सीता जी ने किया है… और मेरे आर्य मेरे हृदय में जिनके प्रति अगाध श्रद्धा है… उन श्री भरत भैया ने किया है… ।

प्रणाम किया सुमन्त्र जी ने… पता नहीं किस मिट्टी से बनें हैं आप रघुकुल के लोग… तप त्याग सेवा तो आपके खून में ही है । किसको बड़ा तपस्वी कहें, किसको छोटा ? ….कुमार शत्रुघ्न ! महल में जाकर देखा था मैंने… तप तो वहाँ भी चल रहा है… बहू रानी उर्मिला का तप, छोटी बहू श्रुतकीर्ति का तप, ओह ! । पर रूक गए बोलते बोलते सुमन्त्र जी ! उस दिन महल में मुझे जाना था, मैं ही लेकर आया था भरत जी का वह उच्छिष्ट ..जौ को पकाया गया गौ मूत्र में ।… भरत जी की पत्नी वही तो खाती रहीं हैं… मुझे उस दिन पता चला था… ।… तब मैंने देखा… कुशा के आसन में बैठीं थीं श्री भरत की पत्नी… माण्डवी । दूर से देखने में ऐसा लगा कोई सन्यासिनी तप करके बैठी है… वो तेज़ था मुख मण्डल में… । ये कहते हुए वाणी अवरुद्ध हो गयी थी महामन्त्री की । बड़ी मुश्किल से इतना ही कह पाये… आप जाएँ कुमार ! आज की रात्रि विश्राम करें… कल प्रातः मिलेंगे ।

इतना कहकर रथ चल पड़ा था महामन्त्री का… और इधर कुमार शत्रुघ्न का । महल में आते ही… अपने कक्ष का दरवाजा लगा लिया था शत्रुघ्न ने भीतर से… और नाच उठे थे । प्रभु आरहे हैं ! नेत्र ऐसे बरस रहे थे आज जैसे सावन की झरी हो । पर ये आनन्द का अश्रु प्रवाह था… ख़ुशी इतनी हो रही थी कुमार को… कि रुक नहीं रहा था उनका आनन्द । दरवाजा किसी ने खटखटाया । शान्त हो गए शत्रुघ्न कुमार… धीरे से द्वार खोला था… माता ! आइये… माँ सुमित्रा आयीं थीं ।

तुम क्या कर रहे हो कुमार ? माँ सुमित्रा ने पूछा । कुछ देर बोले ही नहीं… फिर थोड़ी ही देर में… माँ के गले लग गए… और माँ के अंक का स्पर्श पाते ही… शिशुवत् चपलता प्रकट हो गयी शत्रुघ्न कुमार की । माँ ! प्रभु आरहे हैं ? अपने गर्दन को ऊपर उठाकर सुमित्रा माँ की ओर देखते हुए शत्रुघ्न ने कहा । क्या ! सुमित्रा चौंक गयीं… कब आरहे हैं ? ….माँ ! कल मध्यान्ह में… माँ ! प्रयाग में आज रात्रि रुके हैं प्रभु । तूने सबको बता दिया ? जीजी कौशल्या को ?……नही… माँ ! मैंने किसी को नहीं बताया… मैं तो अकेले में इस आनन्द को अनुभव कर रहा था… माँ ! इस शत्रुघ्न के महल ने… शत्रुघ्न का दुःख बहुत देखा है… रुदन देखा है… जब बोल रहे थे शत्रुघ्न तब सुमित्रा महल के चारों ओर देख रही थीं…

फिर आगे बढ़ीं… दीवार में… लाल लाल धब्बे थे… जो सूख गए थे… पुत्र ! ये क्या है ? सुमित्रा ने पूछा । कुछ नही माँ !… ये रोते रहते थे… रात भर माँ ! और कभी कभी तो रोते रोते अपना सिर इस दीवार पर पटकते थे… मुझ से कहते थे… श्रुतकीर्ति ! मैं क्या करूँ ? मैं कहाँ जाऊँ ? …..भरत भैया का सहारा था… पर वो भी नन्दी ग्राम में बैठ गए… लक्ष्मण भैया भी प्रभु के साथ निकल गए….अब बचा है ये अभागी शत्रुघ्न… ये कहाँ जाए .?….. माँ ! ऐसा कहते हुए ये रोज रोते थे… लोगों के सामने इन्होंने कभी अपना दुःख प्रकट नही किया… दिन भर राज काज करते रहना… और रात में… अकेले में… रोना… । श्रुतकीर्ति ने आकर शत्रुघ्न कुमार की सारी बातें बता दी थी माँ सुमित्रा को । माँ ! ये भी बाबरी ही है… अब उन बातों को क्यों याद करना… अब तो माँ ! बस आज की रात है… कल तो जो सूर्योदय होगा अयोध्या में… वो आनन्द का सूर्योदय होगा… उत्सव का सूर्योदय होगा… सुख की किरणें फूटेंगीं ।

माँ सुमित्रा का हाथ पकड़ कर नाच उठे थे कुमार शत्रुघ्न । अरे ! तू ये बालक जैसी क्या हरकत कर रहा है शत्रुघ्न ?….हँसते हुए माँ सुमित्रा ने कहा । माँ ! मैं बालक ही तो हूँ… सबसे छोटा शत्रुघ्न कुमार… अब तो मेरे प्रभु आरहे हैं… आह ! । माँ ! सब सो रहे हैं महल में ? ….हाँ हाँ… पुत्र सब सो रहे हैं ! क्यों सो रहे हैं !… अरे ! आज की रात तो आनन्द की रात है… कल आरहे हैं ना… मेरे प्रभु !

इतना कहते हुए शत्रुघ्न भागे… अरे कहाँ जा रहा है तू ? ….सुमित्रा ने आवाज लगाई… पर शत्रुघ्न आज किसी की सुनेंगे ? ….अपने गले लगाकर श्रुतकीर्ति को… खूब हँसी सुमित्रा । पागल हो गया तेरा पति श्रुतकीर्ति !… आज चौदह वर्ष बाद किलकारियाँ गूँजी थीं इस महल में । सबका दरवाजा खटखटा कर चिल्ला रहे हैं… कुमार शत्रुघ्न ।

शत्रुघ्न को इतना भी नहीं पता कि द्वार खटखटाते हुए… कुमार ने मन्थरा का द्वार भी खटखटा दिया था… अरे ! उठो ! सोओ मत ! “प्रभु आ रहे हैं “… कल “मेरे प्रभु आ रहे हैं” । उठी है मन्थरा ! शत्रुघ्न की आवाज कान में गयी मन्थरा के… “प्रभु आरहे हैं” ? श्री राम आरहे हैं ? …..

चौदह वर्ष से ये दासी मन्थरा अपने कक्ष से बाहर ही नहीं आई थी । बाहर निकल जाती… तो नगर वासी इसे जीवित छोड़ देते ?….पर आज जब सुना… कि “प्रभु आरहे हैं” । ओह ! आनन्द के अश्रु इसके भी बहने लगे थे । अर्ध रात्रि हो गयी है… चौदह वर्ष बाद ये मन्थरा बाहर आई । कुमार ! क्या कहा फिर कहना ? …..लडखड़ाती आवाज, लाठी टेककर बाहर आई…

डरते हुए पूछा शत्रुघ्न से… कुमार ! क्या कहा फिर कहना ?…..प्रभु आरहे हैं ! ओह !… देह में अब हिम्मत नहीं रही मन्थरा के… कुबड़ी वैसे ही है… फिर भी लाठी टेककर धीरे धीरे चली… कैकेयी के महल की ओर ।

महारानी ! ओ महारानी ! ये आवाज लगाई… और द्वार खटखटाया मन्थरा ने, कैकेयी का । द्वार खोला… तू ! इतनी रात को क्यों आई है यहाँ ?…..कैकेयी को दया आती है इस बूढ़ी मन्थरा पर… तेरी तबियत तो ठीक है ना ?….हाँ… महारानी ! तबियत बिलकुल ठीक है… मैं तेरा दूसरा कूबड़ भी निकाल दूंगी… खबरदार जो मुझे “महारानी” कहा तो ! कैकेयी मन्थरा के महारानी कहने से नाराज हो गयी थी । अच्छा ! गुस्सा छोड़ दो… अभ्यास है ना… महारानी कहने का इसलिए ये शब्द निकल गए । बता क्यों आई है इतनी रात गए ?…..

प्रभु आरहे हैं ! श्री राम आरहे हैं ! क्या !… उछल पड़ी कैकेयी… और मन्थरा का हाथ पकड़ कर बोली… मंथरे ! तू सच कह रही है… मेरा राम आरहा है ! हाँ… हाँ… महारानी… महारानी कहते हुए कान पकड़ लिए मन्थरा ने… गलती होगयी… हाँ… बोलना है तो मुझे “राजमाता” बोल ! अपनी ठसक में आगयी थी कैकेयी… बोल राजमाता ! क्या !… ना !… मैं नही बोलती राजमाता… मन्थरा ने कहा… मेरी जीभ काली है… एक बार मैंने तुम्हें राजमाता क्या बनने के लिए कहा… सब कुछ बर्बाद हो गया… मेरे कारण ही… अब नहीं बोलूंगी ।

अरी ! मंथरी ! बोल… मैं राजमाता ही हूँ । अब राम ही तो मेरा पुत्र है… भरत ने तो मेरा परित्याग ही कर दिया है… ये कहते हुए फिर गम्भीर हो गयी थीं कैकेयी । हाँ… बहन ! तुम राजमाता हो… सच कह रही हो… राम मुझ से ज्यादा तो तुम्हारे पास ही रहता था… अब भी तुम्हें ही मानता है ।

कौशल्या जी ने प्रवेश किया था कैकेयी के महल में । जीजी !… प्रणाम किया झुककर कैकेयी ने कौशल्या जी के चरणों में । देखो ना ! कैसे पागल सा हो गया है ये शत्रुघ्न कुमार । सब को जगा दिया… सब नाच रहे हैं । कैकेयी बहन ! चलो माण्डवी को ये सूचना दें । नहीं जीजी ! मैं नहीं जाऊँगी… माण्डवी के महल में । कैकेयी ने कहा । ….तुम भी ना… चलो ! अपनी तो बहु है… ऐसे दिल पे मत लिया करो बात… चौदह वर्ष बीत गए… सब उसमें बह गया… देखो… इस मन्थरा को… कौशल्या ने कहा ।

मैं तो जा रही हूँ… सजने धजने… चौदह वर्ष तक अपना श्रृंगार भी नही किया है मैंने… मन्थरा ये बोलती हुयी चली… जीजी ! इस मन्थरा के लिए कोई लड़का हो तो देख दो… कैकेयी ने कौशल्या से कहा… वो मन्थरा… शरमा कर…”हट्ट” कहती हुयी चली गयी ।

माण्डवी ! पुत्री माण्डवी ! ….कुशा के आसन में बैठी माण्डवी… भरत की पत्नी । नेत्रों से अश्रु बह चले थे कैकेयी के । केश जटा ही बन गए थे… चौदह वर्ष तक इस तपस्विनी ने तेल, फुलेल, उबटन… कहाँ लगाये थे ! शरीर कृष हो गया था… पुत्री ! माण्डवी उठो ! नेत्र खोले माण्डवी ने… अर्ध रात्रि को… माताएं… ?

चरण वन्दन किये… राम आरहे हैं ! कौशल्या जी ने कहा । क्या ! …मुख की गम्भीरता तुरन्त समाप्त हो गई… माण्डवी की । कब ? माँ ! कब आरहे हैं ?….पुत्री ! कल आरहे हैं मध्यान्ह में । ओह ! माण्डवी के नेत्रों अश्रु बह चले थे… आनन्द के । कैकेयी ने आगे बढ़कर अपनी पुत्रवधु को सम्भाला था ।”अयोध्यावासियों ! कल मध्यान्ह में प्रभु पुष्पक विमान में बैठकर अयोध्या आरहे हैं ” ये क्या पागल हो गया शत्रुघ्न… अर्ध रात्रि को कोई ऐसे ढिढ़ोरा पीटता है… ।

माताओं ने पहले गम्भीरता से कहा… फिर एक दूसरे के मुख में देख कर खूब हँसी… और सब गले लग गए । मेरे श्री राम आरहे हैं !

जय श्री राम

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