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रविवार, 29 मार्च 2015

देना है शुध्द राजपूत या शुध्द ब्राहमण का खून दो ,


इक रोज वर्मा जी ब्लड बैंक के काउंटर पे बैठे थे तभी हाँफते हाँफते एक गबरू जवान मुस्टंडा काउंटर पे आके बोला एक यूनिट ब्लड चाहिए , वर्मा जी ने पूछा कौन से ग्रुप का तो मुस्टंडा बोलता है राजपूत खून दो , 
वर्मा जी चकरा गए , बोले खून ऐसे नहीं आता है ऐ , बी , ऐ बी , और ओ के ब्लड ग्रुप में आता है , 
मुस्टंडा ये ऐ , बी , सी , डी अपने पास रख , हमारे भाई सा राजपूत है उनकी रगों में सिर्फ राजपूत खून पड़ेगा , एक यूनिट किसी राजपूत का खून निकाल के दो जल्दी , हम रक्त शुध्दता वाले लोग है हमें अपने खून में कोई मिलावट नहीं चाहिए , 
अभी वर्मा जी मुस्टंडे को समझा ही रहे थे भाई यहाँ खून ऐसे नहीं मिलता , तब तक जाने कहा से एक पंडित जी भी खून लेने पंहुच गए , पंडित जी ने कहा हमारा लड़का दुर्घटनाग्रस्त है उसे खून की जरुरत है , आप फटाफट एक यूनिट शांडिल्य ब्राहमण का खून निकाल के दे दो , 
वर्मा जी के तो होश ही उड़ गए , वर्मा जी ने पंडित जी से कहा ये ब्लड बैंक है यहाँ क्षत्रिय , ब्राहमण , राजपूत , दलित , पिछड़ा खून की केटेगरी नहीं होती है , हमारे यहाँ जो भी ब्लड डोनेट करता है हम उसका ब्लड ले लेते है और उनको ऐ , बी , ऐ बी और ओ ग्रुप के हिसाब से पाउच में पैक कर के रख देते है , फिर जिसे जरुरत होती है इसी ग्रुप के हिसाब से ब्लड लेकर जाता है , अब भला कैसे पता चलेगा कौन से पाउच में ब्राहमण का खून है, किस में राजपूत का है , किसमें दलित का , किस में पिछड़ा का , किस में मुसलमान , सिख या इसाई का , लोग आते है खून लेकर जाते है मरीज को चढ़ा देते है जात थोड़े न पूछते है, 
पंडित जो बोले राम राम राम राम, तुम ब्लड बैंक वालो ने तो सारा धरम ही भ्रष्ट करके रखा हुआ है, हमने जाने कितने सालो से सब खून को अलगा के रखा है , खून में मिलावट न हो इसलिए दूसरी जात में शादी ब्याह तक नहीं करते है ताकि एक जात एक गोत्र का खून एक जैसा ही रहे , और तुम ब्लड बैंक वालो ने सारी जात और धरम का खून मिला कर मरीजो का जात और धरम ही भ्रष्ट कर रखा है , हमारे सालो से अपनी रक्त शुद्धता को बचाए रखने के लिए जो तपस्या की सब भरभंड कर दिया , 
वर्मा जी ने कहा पंडित जी लड़का सीरियस है ब्लड ग्रुप बोलो और खून ले जाओ जान बचाओ , 
पंडित जी बोले न हम शुध्द शांडिल्य ब्राहमण है , हमारे लड़के को वो खून न चढ़ेगा जिसकी न जात का पता हो न धरम का और न गोत्र का , हम अपनी रक्त शुद्धता से खिलवाड़ नहीं कर सकते , इत्ते में राजपूत गबरू जवान ने भी पंडित जी हाँ में हाँ मिलाई हम भी अपने भाई सा के खून किसी और जात का खून न मिलने देंगे , देना है शुध्द राजपूत या शुध्द ब्राहमण का खून दो , 
वर्मा जी बोले ऐसा कीजिये आप दोनों अपना अपना खून दे दीजिये , मैं चेक कर लेता हूँ अगर मरीज के खून से मैच कर गया तो आप वो ही शुध्द खून उन्हें चढ़ा देना , 
दोनों इस बात के लिए राजी हो गए , खून का नमूना निकाला गया , और दोनों में से किसी का खून मरीज के खून से मैच नही किया , 
वर्मा जी बोले महराज अब बोलो आप दोनों का खून तो अपने ही भाई और बेटे से नहीं मिला , ऐसा करो आप दोनों जन इन्तेजार कर लो , जब कोई राजपूत या ब्राहमण खून आएगा तो वो ले जाना फिर चढ़ा देना और मरीज की जान बचा लेना , लेकिन इसमें टाइम लगेगा आज भी हो सकता है , कल भी लग सकता या फिर हफ्ते या महीने भी लग सकते है , सदियों की पोषित रक्त शुद्धता को बचाना है तो थोडा इन्तेजार थोड़ी तपस्या और तो करनी ही पड़ेगी वरना जात-धरम सब मिटटी में मिल जायेगा , 
पंडित जी का माथा ठनका इतना टाइम लगेगा तो लड़का जान से जायेगा , बाबु साहेब को भी लगा इतने में तो दुलारे भाई सा भगवान् को प्यारे हो जायेंगे , 
फिर दोनों ने चुपचाप वही ऐ , बी , सी , डी वाला ही ब्लड ले लिया जिसकी न जात का पता था, न धरम का और न गोत्र का , बस पाउच पर ऐ और बी ही लिखा था धन और ऋण के साथ जिससे इंसानियत जुड़ती थी दकियानूसी घटती थी....

आखिर इतना बड़ा भारत मूठी भर अंग्रेज़ो का गुलाम कैसे हुआ ??


आखिर इतना बड़ा भारत मूठी भर अंग्रेज़ो का गुलाम कैसे हुआ ??
किसी इतिहास की किताब आपको ये जवाब नहीं मिलेगा !
एक बार पढ़ें ! राजीव भाई की भाषा मे (1998 )
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दो तीन गंभीर बाते कहने आपसे आया हूँ . और चाहता हु कि कुछ आपसे कह सकुं और अगर आप चाहें तो मुझसे कुछ पूछ सके. मेरे व्याख्यान के बाद अगर आपको लगे तो आप सवाल जरुर पूछिएगा. जिस विषय पर मै व्याख्यान देने वाला हूँ वो विषय आज हमारे देश के लिए सबसे महत्वपूर्ण है, इसलिए अगर आप उसमे कुछ सवाल करेंगे तो मुझे बहुत ख़ुशी होगी. !

आज़ादी के 50 साल हो गए है, ऐसा भारत सरकार कहती है. 1947 में हम आजाद हुए थे, अंग्रेजो की गुलामी से. और 1947 में जब आज़ादी मिली, तो अब 1998 आ गया है, ऐसा माना जाता है कि 500 साल पुरे हो गए, देश को आज़ाद हुए. मै मानता हु कि ये आज़ादी के ५० साल नही है बल्कि हिंदुस्तान की गुलामी के 500 साल पुरे हुए है. ये, कभी कभी आपको आश्चर्य लगेगा कि ये राजीव भाई ऐसा क्यों बोलते है गुलामी के 500 साल ?? भारत सरकार तो कहती है कि आज़ादी को 50 साल हो गए है. और मै बहुत गंभीरता से ये मानता हु कि आज़ादी के 50 साल नहीं बल्कि गुलामी के 400 साल पुरे हुए है. वो कैसे? उसको समझिए, !! 

आज से लगभग 400 साल पहले, वास्को डी गामा आया था हिंदुस्तान. इतिहास की चोपड़ी में, इतिहास की किताब में हमसब ने पढ़ा होगा कि सन. 1498 में मई की 20 तारीख को वास्को डी गामा हिंदुस्तान आया था. इतिहास की चोपड़ी में हमको ये बताया गया कि वास्को डी गामा ने हिंदुस्तान की खोज की, पर ऐसा लगता है कि जैसे वास्को डी गामा ने जब हिंदुस्तान की खोज की, तो शायद उसके पहले हिंदुस्तान था ही नहीं. हज़ारो साल का ये देश है, जो वास्को डी गामा के बाप दादाओं के पहले से मौजूद है इस दुनिया में. तो इतिहास कि चोपड़ी में ऐसा क्यों कहा जाता है कि वास्को डी गामा ने हिंदुस्तान की खोज की, भारत की खोज की. और मै मानता हु कि वो एकदम गलत है. वास्को डी गामा ने भारत की कोई खोज नहीं की, हिंदुस्तान की भी कोई खोज नहीं की, हिंदुस्तान पहले से था, भारत पहले से था, 

वास्को डी गामा यहाँ आया था भारतवर्ष को लुटने के लिए, एक बात और जो इतिहास में, मेरे अनुसार बहुत गलत बताई जाती है कि वास्को डी गामा एक बहूत बहादुर नाविक था, बहादुर सेनापति था, बहादुर सैनिक था, और हिंदुस्तान की खोज के अभियान पर निकला था, ऐसा कुछ नहीं था, सच्चाई ये है कि पुर्तगाल का वो उस ज़माने का डॉन था, माफ़िया था. जैसे आज के ज़माने में हिंदुस्तान में बहूत सारे माफ़िया किंग रहे है, उनका नाम लेने की जरुरत नहीं है, क्योकि मंदिर की पवित्रता ख़तम हो जाएगी, ऐसे ही बहूत सारे डॉन और माफ़िया किंग 15 वी सताब्दी में होते थे यूरोप में. और 15 वी. सताब्दी का जो यूरोप था, वहां दो देश बहूत ताकतवर थें उस ज़माने में, एक था स्पेन और दूसरा था पुर्तगाल. तो वास्को डी गामा जो था वो पुर्तगाल का माफ़िया किंग था. 1490 के आस पास से वास्को डी गामा पुर्तगाल में चोरी का काम, लुटेरे का काम, डकैती डालने का काम ये सब किया करता था. और अगर सच्चा इतिहास उसका आप खोजिए तो एक चोर और लुटेरे को हमारे इतिहास में गलत तरीके से हीरो बना कर पेश किया गया. और ऐसा जो डॉन और माफ़िया था उस ज़माने का पुर्तगाल का ऐसा ही एक दुसरा लुटेरा और डॉन था, माफ़िया था उसका नाम था कोलंबस, वो स्पेन का था. 

तो हुआ क्या था, कोलंबस गया था अमेरिका को लुटने के लिए और वास्को डी गामा आया था भारतवर्ष को लुटने के लिए. लेकिन इन दोनों के दिमाग में ऐसी बात आई कहाँ से, कोलंबस के दिमाग में ये किसने डाला की चलो अमेरिका को लुटा जाए, और वास्को डी गामा के दिमाग में किसने डाला कि चलो भारतवर्ष को लुटा जाए. तो इन दोनों को ये कहने वाले लोग कौन थे? अतुल भाई जो बता रहे थे, वही बात मै आपसे दोहरा रहा हु. 
हुआ क्या था कि 14 वी. और 15 वी. सताब्दी के बीच का जो समय था, यूरोप में दो ही देश थें जो ताकतवर माने जाते थे, एक देश था स्पेन, दूसरा था पुर्तगाल, तो इन दोनों देशो के बीच में अक्सर लड़ाई झगडे होते थे, लड़ाई झगड़े किस बात के होते थे कि स्पेन के जो लुटेरे थे, वो कुछ जहांजो को लुटते थें तो उसकी संपत्ति उनके पास आती थी, ऐसे ही पुर्तगाल के कुछ लुटेरे हुआ करते थे वो जहांज को लुटते थें तो उनके पास संपत्ति आती थी, तो संपत्ति का झगड़ा होता था कि कौन-कौन संपत्ति ज्यादा रखेगा. स्पेन के पास ज्यादा संपत्ति जाएगी या पुर्तगाल के पास ज्यादा संपत्ति जाएगी. तो उस संपत्ति का बटवारा करने के लिए कई बार जो झगड़े होते थे वो वहां की धर्मसत्ता के पास ले जाए जाते थे. और उस ज़माने की वहां की जो धर्मसत्ता थी, वो क्रिस्चियनिटी की सत्ता थी, और क्रिस्चियनिटी की सत्ता 1492 में के आसपास पोप होता था जो सिक्स्थ कहलाता था, छठवा पोप.!

तो एक बार ऐसे ही झगड़ा हुआ, पुर्तगाल और स्पेन की सत्ताओ के बीच में, और झगड़ा किस बात को ले कर था? झगड़ा इस बात को ले कर था कि लूट का माल जो मिले वो किसके हिस्से में ज्यादा जाए. तो उस ज़माने के पोप ने एक अध्यादेश जारी किया. आदेश जारी किया, एक नोटिफिकेशन जारी किया. सन 1492 में, और वो नोटिफिकेशन क्या था? वो नोटिफिकेशन ये था कि 1492 के बाद, सारी दुनिया की संपत्ति को उन्होंने दो हिस्सों में बाँटा, और दो हिस्सों में ऐसा बाँटा कि दुनिया का एक हिस्सा पूर्वी हिस्सा, और दुनिया का दूसरा हिस्सा पश्चिमी हिस्सा. तो पूर्वी हिस्से की संपत्ति को लुटने का काम पुर्तगाल करेगा और पश्चिमी हिस्से की संपत्ति को लुटने का काम स्पेन करेगा. ये आदेश 1492 में पोप ने जारी किया. ये आदेश जारी करते समय, जो मूल सवाल है वो ये है कि क्या किसी पोप को ये अधिकार है कि वो दुनिया को दो हिस्सों में बांटे, और उन दोनों हिस्सों को लुटने के लिए दो अलग अलग देशो की नियुक्ति कर दे? स्पैन को कहा की दुनिया के पश्चिमी हिस्से को तुम लूटो, पुर्तगाल को कहा की दुनिया के पूर्वी हिस्से को तुम लूटो और 1492 में जारी किया हुआ वो आदेश और बुल आज भी एग्जिस्ट करता है. 

ये क्रिस्चियनिटी की धर्मसत्ता कितनी खतरनाक हो सकती है उसका एक अंदाजा इस बात से लगता है कि उन्होंने मान लिया कि सारी दुनिया तो हमारी है और इस दुनिया को दो हिस्सों में बांट दो पुर्तगाली पूर्वी हिस्से को लूटेंगे, स्पेनीश लोग पश्चिमी हिस्से को लूटेंगे. पुर्तगालियो को चूँकि दुनिया के पूर्वी हिस्से को लुटने का आदेश मिला पोप की तरफ से तो उसी लुट को करने के लिए वास्को डी गामा हमारे देश आया था. क्योकि भारतवर्ष दुनिया के पूर्वी हिस्से में पड़ता है. और उसी लुट के सिलसिले को बरकरार रखने के लिए कोलंबस अमरीका गया. इतिहास बताता है कि 1492 में कोलंबस अमरीका पहुंचा, और 1498 में वास्को डी गामा हिंदुस्तान पहुंचा, भारतवर्ष पहुंचा. कोलंबस जब अमरीका पहुंचा तो उसने अमरीका में, जो मूल प्रजाति थी रेड इंडियन्स जिनको माया सभ्यता के लोग कहते थे, उन माया सभ्यता के लोगों से मार कर पिट कर सोना चांदी छिनने का काम शुरु किया. इतिहास में ये बराबर गलत जानकारी हमको दी गई कि कोलंबस कोई महान व्यक्ति था, महान व्यक्ति नहीं था, अगर गुजरती में मै शब्द इस्तेमाल करू तो नराधम था. और वो किस दर्जे का नराधम था, सोना चांदी लुटने के लिए अगर किसी की हत्या करनी पड़े तो कोलंबस उसमे पीछे नहीं रहता था,

उस आदमी ने 14 – 15 वर्षो तक बराबर अमरीका के रेड इन्डियन लोगों को लुटा, और उस लुट से भर – भर कर जहांज जब स्पेन गए तो स्पेन के लोगों को लगा कि अमेरिका में तो बहुत सम्पत्ति है, तो स्पेन की फ़ौज और स्पेन की आर्मी फिर अमरीका पहुंची. और स्पेन की फ़ौज और स्पेन की आर्मी ने अमरीका में पहुँच कर 10 करोड़ रेड इंडियन्स को मौत के घाट उतार दिया.10 करोड़. और ये दस करोड़ रेड इंडियन्स मूल रूप से अमरीका के बाशिंदे थे. ये जो अमरीका का चेहरा आज आपको दिखाई देता है, ये अमरीका 10 करोड़ रेड इन्डियन की लाश पर खड़ा हुआ एक देश है. कितने हैवानियत वाले लोग होंगे, कितने नराधम किस्म के लोग होंगे, जो सबसे पहले गए अमरीका को बसाने के लिए, उसका एक अंदाजा आपको लग सकता है, आज स्थिति क्या है कि जो अमरीका की मूल प्रजा है, जिनको रेड इंडियन कहते है, उनकी संख्या मात्र 65000 रह गई है. 

10 करोड़ लोगों को मौत के घाट उतारने वाले लोग आज हमको सिखाते है कि हिंदुस्तान में ह्यूमन राईट की स्थिति बहुत ख़राब है. जिनका इतिहास ही ह्यूमन राईट के वोइलेसन पे टिका हुआ है, जिनकी पूरी की पूरी सभ्यता 10 करोड़ लोगों की लाश पर टिकी हुई है, जिनकी पूरी की पूरी तरक्की और विकास 10 करोड़ रेड इंडियनों लोगों के खून से लिखा गया है, ऐसे अमरीका के लोग आज हमको कहते है कि हिंदुस्तान में साहब, ह्यूमन राईट की बड़ी ख़राब स्थिति है, कश्मीर में, पंजाब में, वगेरह वगेरह. और जो काम मारने का, पीटने का, लोगों की हत्याए कर के सोना लुटने का, चांदी लुटने का काम कोलंबस और स्पेन के लोगों ने अमरीका में किया, ठीक वही काम वास्को डी गामा ने 1498 में हिंदुस्तान में किया.

ये वास्को डी गामा जब कालीकट में आया, 20 मई, 1498 को, तो कालीकट का राजा था उस समय झामोरिन, तो झामोरिन के राज्य में जब ये पहुंचा वास्को डी गामा, तो उसने कहा कि मै तो आपका मेहमान हु, और हिंदुस्तान के बारे में उसको कहीं से पता चल गया था कि इस देश में अतिथि देवो भव की परंपरा. तो झामोरिन ने बेचारे ने, ये अथिति है ऐसा मान कर उसका स्वागत किया, वास्को डी गामा ने कहा कि मुझे आपके राज्य में रहने के लिए कुछ जगह चाहिए, आप मुझे रहने की इजाजत दे दो, परमीशन दे दो. झामोरिन बिचारा सीधा सदा आदमी था, उसने कालीकट में वास्को डी गामा को रहने की इजाजत दे दी. जिस वास्को डी गामा को झामोरिन के राजा ने अथिति बनाया, उसका आथित्य ग्रहण किया, उसके यहाँ रहना शुरु किया, उसी झामोरिन की वास्को डी गामा ने हत्या कराइ. और हत्या करा के खुद वास्को डी गामा कालीकट का मालिक बना. और कालीकट का मालिक बनने के बाद उसने क्या किया कि समुद्र के किनारे है कालीकट केरल में, वहां से जो जहांज आते जाते थे, जिसमे हिन्दुस्तानी व्यापारी अपना माल भर-भर के साउथ ईस्ट एशिया और अरब के देशो में व्यापार के लिए भेजते थे, उन जहांजो पर टैक्स वसूलने का काम वास्को डी गामा करता था. और अगर कोई जहांज वास्को डी गामा को टैक्स ना दे, तो उस जहांज को समुद्र में डुबोने का काम वास्को डी गामा करता था.

और वास्को डी गामा हिंदुस्तान में आया पहली बार 1498 में, और यहाँ से जब लुट के सम्पत्ति ले गया, तो 7 जहांज भर के सोने की अशर्फिया थी. पोर्तुगीज सरकार के जो डॉक्यूमेंट है वो बताते है कि वास्को डी गामा पहली बार जब हिंदुस्तान से गया, लुट कर सम्पत्ति को ले कर के गया, तो 7 जहांज भर के सोने की अशर्फिया, उसके बाद दुबारा फिर आया वास्को डी गामा. वास्को डी गामा हिंदुस्तान में 3 बार आया लगातार लुटने के बाद, चौथी बार भी आता लेकिन मर गया. दूसरी बार आया तो हिंदुस्तान से लुट कर जो ले गया वो करीब 11 से 12 जहांज भर के सोने की अशर्फिया थी. और तीसरी बार आया और हिंदुस्तान से जो लुट कर ले गया वो 21 से 22 जहांज भर के सोने की अशर्फिया थी. इतना सोना चांदी लुट कर जब वास्को डी गामा यहाँ से ले गया तो पुर्तगाल के लोगों को पता चला कि हिंदुस्तान में तो बहुत सम्पत्ति है. और भारतवर्ष की सम्पत्ति के बारे में उन्होंने पुर्तगालियो ने पहले भी कहीं पढ़ा था, उनको कहीं से ये टेक्स्ट मिल गया था कि भारत एक ऐसा देश है, जहाँ पर महमूद गजनवी नाम का एक व्यक्ति आया, 17 साल बराबर आता रहा, लुटता रहा इस देश को, एक ही मंदिर को, सोमनाथ का मंदिर जो वेरावल में है. उस सोमनाथ के मंदिर को महमूद गजनवी नाम का एक व्यक्ति, एक वर्ष आया अरबों खरबों की सम्पत्ति ले कर चला गया, दुसरे साल आया, फिर अरबों खरबों की सम्पत्ति ले गया. तीसरे साल आया, फिर लुट कर ले गया. और 17 साल वो बराबर आता रहा, और लुट कर ले जाता रहा.

तो वो टेक्स्ट भी उनको मिल गए थे कि एक एक मंदिर में इतनी सम्पत्ति, इतनी पूंजी है, इतना पैसा है भारत में, तो चलो इस देश को लुटा जाए, और उस ज़माने में एक जानकारी और दे दू, ये जो यूरोप वाले अमरीका वाले जितना अपने आप को विकसित कहे, सच्चाई ये है कि 14 वी. और 15 वी. शताब्दी में दुनिया में सबसे ज्यादा गरीबी यूरोप के देशो में थी. खाने पीने को भी कुछ होता नहीं था. प्रकृति ने उनको हमारी तरह कुछ भी नहीं दिया, न उनके पास नेचुरल रिसोर्सेस है, जितने हमारे पास है. न मौसम बहूत अच्छा है, न खेती बहुत अच्छी होती थी और उद्योगों का तो प्रश्न ही नहीं उठता. 13 फी. और 14 वी. शताब्दी में तो यूरोप में कोई उद्योग नहीं होता था. तो उनलोगों का मूलतः जीविका का जो साधन था जो वो लुटेरे बन के काम से जीविका चलाते थे. चोरी करते थे, डकैती करते थे, लुट डालते थे, ये मूल काम वाले यूरोप के लोग थे, तो उनको पता लगा कि हिंदुस्तान और भारतवर्ष में इतनी सम्पत्ति है तो उस देश को लुटा जाए, और वास्को डी गामा ने आ कर हिंदुस्तान में लुट का एक नया इतिहास शुरु किया.

उससे पहले भी लुट चली हमारी, महमूद गजनवी जैसे लोग हमको लुटते रहे.
लेकिन वास्को डी गामा ने आकर लुट को जिस तरह से केन्द्रित किया और ओर्गनाइजड किया वो समझने की जरूरत है. उसके पीछे पीछे क्या हुआ, पुर्तगाली लोग आए, उन्होंने 70 –80 वर्षो तक इस देश को खूब जम कर लुटा. पुर्तगाली चले गए इस देश को लुटने के बाद, फिर उसके पीछे फ़्रांसिसी आए, उन्होंने इस देश को खूब जमकर लुटा 70 – 80 वर्ष उन्होंने भी पुरे किए. उसके बाद डच आ गये हालैंड वाले, उन्होंने इस देश को लुटा. उसके बाद फिर अंग्रेज आ गए हिंदुस्तान में लुटने के लिए ही नहीं बल्कि इस देश पर राज्य भी करने के लिए. पुर्तगाली आए लुटने के लिए, फ़्रांसिसी आए लुटने के लिए, डच आए लुटने के लिए, और फिर पीछे से अंग्रेज चले आए लुटने के लिए, अंग्रेजो ने लुट का तरीका बदल दिया. ये अंग्रेजो से पहले जो लुटने के लिए आए वो आर्मी ले कर के आए थे बंदूक ले कर के आये थे, तलवार ले के आए थे, और जबरदस्ती लुटते थे. अंग्रेजो ने क्या किया कि लुट का सिलसिला बदल दिया, और उन्होंने अपनी एक कंपनी बनाई, उसका नाम ईस्ट इंडिया रखा. ईस्ट इंडिया कंपनी को ले के सबसे पहले सुरत में आए इसी गुजरात में, ये बहुत बड़ा दुर्भाग्य है इस देश का कि जब जब इस देश की लुट हुई है इस देश की गुजरात के रास्ते हुई है.

जितने लोग इस देश को लुटने के लिए आए बाहर से वो गुजरात के रास्ते घुसे इस देश में. इसको समझिए क्यों ? क्योकि गुजरात में सम्पत्ति बहुत थी, और आज भी है. तो अंग्रेजो को लगा कि सबसे पहले लुटने के लिए चलो सूरत, पुरे हिंदुस्तान में कही नहीं गए, सबसे पहले सुरत में आए. और सुरत में आ के ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए कोठी बनानी है, ऐसा वहां के नवाब के आगे उन्होंने फरमान रखा. बेचारा नवाब सीधा सदा था, उसने अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी को कोठी बनाने के लिए जमीन दे दी. कभी आप जाइए सूरत में, वो कोठी आज भी खड़ी हुई है, उसका नाम है, कुपर विला. एक अंग्रेज था उसका नाम था जेम्स कुपर, 6 अधिकारी आए थे सबसे पहले ईस्ट इंडिया कंपनी के, उनमे से एक अधिकारी था जेम्स कुपर, तो जेम्स कुपर ने अपने नाम पर उस कोठी का नाम रख दिया कुपर विला. तो ईस्ट इंडिया कंपनी की सबसे पहली कोठी बनी सूरत में. सूरत के लोगों को मालूम नहीं था, कि जिन अंग्रेजो को कोठी बनाने के लिए हम जामीन दे रहे है, बाद में यही अंग्रेज हमारे खून के प्यासे हो जाएँगे. अगर ये पता होता तो कभी अंग्रेजो को सुरत में ठहरने की भी जमीन नहीं मिलती. 

अंग्रेजो ने फिर वोही किया जो उनका असली चरित्र था. पहले कोठी बनाई, व्यापार शुरु किया, धीरे धीरे पुरे सुरत शहर में उनका व्यापार फैला, और फिर सन. 1612 में सूरत के नवाब की हत्या कराइ, जिस नवाब से जमीन लिया कोठी बनाने के लिए, उसी नवाब की हत्या कराइ अंग्रेजो ने. और 1612 में जब नवाब की हत्या करा दी उन्होंने, तो सूरत का पूरा एक पूरा बंदरगाह अंग्रेजो के कब्जे में चला गया. और अंग्रेजो ने जो काम सूरत में किया था सन. 1612 में, वही काम कलकत्ता में किया, वही काम मद्रास में किया, वही काम दिल्ली में किया, वही काम आगरा में किया, वही काम लखनऊ में किया, माने जहाँ भी अंग्रेज जाते थे अपनी कोठी बनाने के लिए अपनी ईस्ट इंडिया कंपनी को ले के, उस हर शहर पर अंग्रेजो का कब्जा होता था. और ईस्ट इंडिया कंपनी का झंडा फहराया जाता था. 200 वर्षो के अंदर व्यापार के बहाने अंग्रेजो ने सारे देश को अपने कब्जे में ले लिया. 1750 तक आते आते सारा देश अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी का गुलाम हो गया. 
किसी को नहीं मालूम था कि जिस ईस्ट इंडिया कम्पनी को हम व्यापार के लिए छुट दे रहे है, जिन अंग्रेजो को हम व्यापार के लिए जमीन दे रहे है, जिन अंग्रेजो को व्यापार के लिए हिंदुस्तान में हम बुला के ला रहे है, वही अंग्रेज इस देश के मालिक हो जाएँगे, ऐसा किसी को अंदाजा नहीं था, अगर ये अंदाजा होता तो शायद कभी उनको छुट न मिलती. 

लेकिन 1750 में ये अंदाजा हुआ, और अंदाजा हुआ 1 व्यक्ति को, उसका नाम था सिराजुद्दोला, बंगाल का नवाब था, तो बंगाल का नवाब था सिराजुद्दोला, उसको ये अंदाजा हो गया कि अंग्रेज इस देश में व्यापार करने नहीं आए है, इस देश को गुलाम बनाने आए है, इस देश को लुटने के लिए आए है. क्योकि इस देश में सम्पत्ति बहुत है, क्योकि इस देश में पैसा बहुत है. तो सिराजुद्दोला ने फैसला किया कि अंग्रेजो के खिलाफ कोई बड़ी लड़ाई लड़नी पड़ेगी. और उस बड़ी को लड़ाई लड़ने के लिए सिराजुद्दोला ने युद्ध किया अंग्रेजो के खिलाफ, इतिहास की चोपड़ी में आपने पढ़ा होगा कि पलासी का युद्ध हुआ, 1757 मे . लेकिन इस युद्ध की एक ख़ास बात है जो मै आपको याद दिलाना चाहता हु, आज के समय में भी वो बहुत महत्वपूर्ण है. 1757 में जब पलासी का युद्ध हुआ. मै बचपन में जब विद्यार्थी था कक्षा 9 में पढता था मै, तो मै मेरे इतिहास के अध्यापक से ये पूछता था कि सर मुझे ये बताईए कि पलासी के युद्ध में अंग्रेजो की तरफ से कितने सिपाही थें लड़ने वाले. तो मेरे अध्यापक कहते थे कि मुझको नहीं मालूम. तो मै कहता था क्यों नहीं मालूम, तो कहते थे कि कुझे किसी ने नहीं पढाया तो मै तुमको कहाँ से पढ़ा दू. 

तो मै उनको बराबर एक ही सवाल पूछता था कि सर आप जरा ये बताईये कि बिना सिपाही के कोई युद्ध हो सकता है कि नहीं तो फिर हमको ये क्यों नहीं पढाया जाता है कि युद्ध में कितने सिपाही अंग्रेजो के पास. और उसके दूसरी तरफ एक और सवाल मै पूछता था कि अच्छा ये बताईये कि अंग्रेजो के पास कितने सिपाही थे ये तो हमको नहीं मालुम सिराजुद्दोला जो लड़ रहा था हिंदुस्तान की तरफ से उनके पास कितने सिपाही थे? तो कहते थे कि वो भी नहीं मालूम. पलासी के युद्ध के बारे में इस देश में इतिहास की 150 किताबे है जो मैंने देखी है, उन 150 मै से एक भी किताब में ये जानकारी नहीं दी गई है कि अंग्रेजो की तरफ से कितने सिपाही लड़ने वाले थे और हिनदुस्तान की तरफ से कितने सिपाही लड़ने वाले थे. और मै आपको सच बताऊ मै मेरे बचपन से इस सवाल से बहुत परेसान रहा. और इस सवाल का जवाब अभी 3 साल पहले मुझे मिला. वो भी हिंदुस्तान में नहीं मिला लन्दन में मिला.

लन्दन में एक इंडिया हाउस लाइब्रेरी है बहूत बड़ी लाइब्रेरी है, उस इंडिया हाउस लाइब्रेरी में हिंदुस्तान के गुलामी के 20000 से भी ज्यादा दस्तावेज़ रखे हुआ है. जो हमारे देश में नहीं है वहां रखे हुए है. भारतवर्ष को अंग्रेजो ने कैसे तोड़ा कैसे गुलाम बनाया इसकी पूरी विगतवार जानकारी उन 20000 दस्तावेजो में इंडिया हाउस लाइब्रेरी में मौजूद है. 
मेरे एक परिचित है प्रोफेसर धरमपाल, वो 40 वर्ष तक यूरोप में रहे है, मैंने एक बार उनको एक चिट्ठी लिखी, मैंने कहा सर, मै ये जानना चाहता हु बेसिक क्वेश्चन कि पलासी के युद्ध में अंग्रेजो के पास कितने सिपाही थे. तो उन्होंने कहा देखो राजीव, अगर तुमको ये जानना है तो बहुत कुछ जानना पड़ेगा, और तुम तैयार हो जानने के लिए, तो मैंने कहा मै सब जानना चाहता हु. मै इतिहास का विद्यार्थी नहीं लगा लेकिन इतिहास को समझना चाहता हु कि ऐसी कौन सी ख़ास बात थी जो हम अंग्रेजो के गुलाम हो गए, ये समझ में तो आना चाहिए अपने को, कि कैसे हम अंग्रेजो के गुलाम हो गए. ये इतना बड़ा देश, 34 करोड़ की आबादी वाला देश 50 हजार अंग्रेजो का गुलाम कैसे हो गया ये समझना चाहिए. तो वो पलासी के युद्ध पर से वो समझ में आया. उन्होंने कुछ दस्तावेज़ मुझे भेजें, फोटोकॉपी करा के और मेरे पास अभी भी है. उन दस्तावेजो को जब मै पढता था तो मुझे पता चला कि पलासी के युद्ध में अंग्रेजो के पास मात्र 300 सिपाही थे, 3 हंड्रेड. और सिराजुद्दोला के पास 18000 सिपाही थे. अब किसी भी सामने के विद्यार्थी से, बच्चे से, या सामान्य बुद्धि के आदमी से आप ये पूछो के एक बाजु में 300 सिपाही, और दुसरे बाजु में 18000 सिपाही, कौन जीतेगा? 18000 सिपाही जिनके पास है वो जीतेगा. 

लेकिन जीता कौन ? जिनके पास मात्र 300 सिपाही थे वो जीत गए, और जिनके पास 18000 सिपाही थे वो हार गए. और हिंदुस्तान के, भारतवर्ष के एक एक सिपाही के बारे में अंग्रेजो के पार्लियामेंट में ये कहा जाता था कि भारतवर्ष का 1 सिपाही अंग्रेजो के 5 सिपाही को मारने के लिए काफी है, इतना ताकतवर, तो इतने ताकतवर 18000 सिपाही अंग्रेजो के कमजोर 300 सिपाहियो से कैसे हारे ये बिलकुल गम्भीरता से समझने की जरुरत है. और उन दस्तावेजो को देखने के बाद मुझे पता चला कि हम कैसे हारे. अंग्रेजो की तरफ से जो लड़ने आया था उसका नाम था रोबर्ट क्लाइव, वो अंग्रेजी सेना का सेनापति था. और भारतवर्ष की तरफ से जो लड़ रहा था सिराजुद्दोला, उसका भी एक सेनापति था, उसका नाम था मीर जाफ़र. तो हुआ क्या था रोबर्ट क्लाइव ये जनता था कि अगर भारतीय सिपाहियो से सामने से हम लड़ेंगे तो हम 300 लोग है मारे जाएँगे, 2 घंटे भी युद्ध नहीं चलेगा. और क्लाइव ने इस बात को कई बार ब्रिटिस पार्लियामेंट को चिट्ठी लिख के कहा था. क्लाइव की 2 चिट्ठियाँ है उन दस्तावेजो में, एक चिट्ठी में क्लाइव ने लिखा कि हम सिर्फ 300 सिपाही है, और सिराजुद्दोला के पास 18000 सिपाही है. हम युद्ध जीत नहीं सकते है, अगर ब्रिटिश पार्लियामेंट अंग्रेजी पार्लियामेंट ये चाहती है कि हम पलासी का युद्ध जीते, तो जरुरी है कि हमारे पास और सिपाही भेजे जाए. 

उस चिट्ठी के जवाब में क्लाइव को ब्रिटिश पार्लियामेंट की एक चिट्ठी मिली थी और वो बहुत मजेदार है उसको समझना चाहिए. उस चिट्ठी में ब्रिटिश पार्लियामेंट के लोगों ने ये लिखा कि हमारे पास इससे ज्यादा सिपाही है नहीं. क्यों नहीं है ? क्योकि 1757 में जब पलासी का युद्ध शुरु होने वाला था उसी समय अंग्रेजी सिपाही फ़्रांस में नेपोलियन बोनापार्ट के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे थे. और नेपोलियन बोनापार्ट क्या था अंग्रेजो को मार मार के फ़्रांस से भगा रहा था. तो पूरी की पूरी अंग्रेजी ताकत और सेना नेपोलियन बोनापार्ट के खिलाफ फ़्रांस में लडती थी इसी लिए वो ज्यादा सिपाही दे नहीं सकते थे, तो उन्होंने कहा अपने पार्लियामेंट में कि हम इससे ज्यादा सिपाही आपको दे नहीं सकते है. जो 300 सिपाही है उन्ही से आपको पलासी का युद्ध जीतना होगा. तो रोबर्ट क्लाइव ने अपने दो जासूस लगाए, उसने कहा देखो युद्ध लड़ेंगे तो मारे जाएँगे, अब आप एक काम करो, उसने दो अपने साथिओं को कहा कि आप जाओ और सिराजुद्दोला की आर्मी में पता लगाओ कि कोई ऐसा आदमी है क्या जिसको रिश्वत दे दें. जिसको लालच दे दें. और रिश्वत के लालच में जो अपने देश से गद्दारी करने को तैयार हो जाए, ऐसा आदमी तलाश करो. 

उसके दो जासूसों ने बराबर सिराजुद्दोला की आर्मी में पता लगाया कि हां एक आदमी है, उसका नाम है मीर जाफर, अगर आप उसको रिश्वत दे दो, तो वो हिंदुस्तान को बेंच डालेगा. इतना लालची आदमी है. और अगर आप उसको कुर्सी का लालच दे दो, तब तो वो हिंदुस्तान की 7 पुश्तो को बेंच देगा. और मीर जाफर क्या था, मीर जाफर ऐसा आदमी था जो रात दिन एक ही सपना देखता था कि एक न एक दिन मुझे बंगाल का नवाब बनना है. और उस ज़माने में बंगाल का नवाब बनना ऐसा ही होता था जैसे आज के ज़माने में बहुत नेता ये सपना देखते है कि मुझे हिंदुस्तान का प्रधानमंत्री बनना है, चाहे देश बेंचना पड़े. तो मीर जाफर के मन का ये जो लालच था कि मुझे बंगाल का नवाब बनना है. माने कुर्सी चाहिए, और मुझे पूंजी चाहिए, पैसा चाहिए, सत्ता चाहिए और पैसा चाहिए. ये दोनो लालच उस समय मीर जाफर के मन में सबसे ज्यादा प्रबल थे, तो उस लालच को रोबर्ट क्लाइव ने बराबर भांप लिया. 

तो रोबर्ट क्लाइव ने मीर जाफर को चिट्ठी लिखी है. वो चिट्ठी दस्तावेजो में मौजूद है और उसकी फोटोकोपी मेरे पास है. उसने चिट्ठी में दो ही बातें लिखी है, देखो मीर जाफर अगर तुम अंग्रेजो के साथ दोस्ती करोगे, और ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ समझौता करोगे, तो हम तुमको युद्ध जीतने के बाद बंगाल का नवाब बनाएँगे. और दूसरी बात कि जब आप बंगाल के नवाब हो जाओगे तो सारी की सारी सम्पत्ति आपकी हो जाएगी. इस सम्पत्ति में से 5 टका हमको दे देना, बाकि तुम जितना लूटना चाहो लुट लो. मीर जाफर चूँकि रात दिन ये ही सपना देखता था कि किसी तरह कुर्सी मिल जाए, और किसी तरह पैसा मिल जाए, तुरंत उसने वापस रोबर्ट क्लाइव को चिट्ठी लिखी और उसने कहा कि मुझे आपकी दोनों बातें मंजूर है. बताईए करना क्या है ? तो आखरी चिट्ठी लिखी है रोबर्ट क्लाइव ने मीर जाफर को कि आपको सिर्फ इतना करना है कि युद्ध जिस दिन शुरु होगा, उस दिन आप अपने 18000 सिपाहियो को कहिए की वो मेरे सामने सरेंडर कर दें बिना लड़े. 

मीर जाफर ने कहा कि आप अपनी बात पे कायम रहोगे ? मुझे नवाब बनाना है आपको. तो रोबर्ट ने कहा कि बराबर हम अपनी बात पे कायम है, आपको हम बंगाल का नवाब बना देंगे. बस आप एक ही काम करो कि अपनी आर्मी से कहो, क्योकि वो सेनापति था आर्मी का, तो आप अपनी आर्मी को आदेश दो कि युद्ध के मैदान में वो मेरे सामने हथियार डाल दे, बिना लड़े, मीर जाफर ने कहा कि ऐसा ही होगा. और युद्ध शुरु हुआ 23 जून 1757 को. इतिहास की जानकारी के अनुसार २३ जून १७५७ को युद्ध शुरु होने के 40 मिनट के अंदर भारतवर्ष के 18000 सिपाहियो ने मीर जाफर के कहने पर अंग्रेजो के 300 सिपाहियो के सामने सरेंडर कर दिया. 

रोबर्ट क्लाइव ने क्या किया कि अपने 300 सिपाहियो की मदद से हिंदुस्तान के 18000 सिपाहियो को बंदी बनाया, और कलकत्ता में एक जगह है उसका नाम है फोर्ट विलियम, आज भी है, कभी आप जाइए, उसको देखीए. उस फोर्ट विलियम में 18000 सिपाहियो को बंदी बना कर ले गया. 10 दिन तक उसने भारतीय सिपाहियो को भूखा रखा और उसके बाद ग्यारहवे दिन सबकी हत्या कराई. और उस हत्या कराने में मीर जाफ़र रोबर्ट क्लाइव के साथ शामिल था, उसके बाद रोबर्ट क्लाइव ने क्या किया, उसने बंगाल के नवाब सिराजुद्दोला की हत्या कराई मुर्शिदाबाद में, क्योकि उस जमाने में बंगाल की राजधानी मुर्शिदाबाद होती थी, कलकत्ता नही. सिराजुद्दोला की हत्या कराने में रोबर्ट क्लाइव और मीर जाफ़र दोनों शामिल थे. और नतीजा क्या हुआ ? बंगाल का नवाब सिराजुद्दोला मारा गया, ईस्ट इंडिया कंपनी को भागने का सपना देखता था इस देश में वो मारा गया, और जो ईस्ट इंडिया कंपनी से दोस्ती करने की बात करता था वो बंगाल का नवाब हो गया, मीर जाफ़र. 

इस पुरे इतिहास की दुर्घटना को मै एक विशेष नजर से देखता हु. मै कई बार ऐसा सोंचता हु कि क्या मीर जाफ़र को मालूम नहीं था कि ईस्ट इंडिया कंपनी से दोस्ती करेंगे तो इस देश की गुलामी आएगी ? मिर जाफ़र जानता था इस बात को. मीर जाफ़र बराबर जानता था कि मै मेरे कुर्सी के लालच में जो खेल खेल रहा हु उस खेल में इस देश को सैंकड़ो वर्षो की गुलामी आ सकती है. ये वो जनता था. और ये भी जानता था कि अपने स्वार्थ में, अपने लालच में मै जो गद्दारी करने जा रहा हु इस देश के साथ उसके क्या दुष्परिणाम होंगे, वो भी उसको मालूम थे. 

मै ऐसा सोंचता हु कि हम गुलामी से आजाद हो जाते, क्योकि 18000 सिपाही हमारे पास थे और 300 अंग्रेज सिपाहियो को मारना बिलकुल आसन काम था हमारे लिए. हम 1757 में ही अंग्रेजो की गुलामी से आजाद हो जाते एक बात और दूसरी बात ये जो २०० वर्षो की गुलामी हमको झेलनी पड़ी १७५७ से १९४७ तक, और उस २०० वर्ष की गुलामी को भागने के लिए ६ लाख लोगों की जो क़ुरबानीयां हमको देनी पड़ी, वो बच गया होता. भगत सिंह, चंद्रशेखर, उधम सिंह, तांत्या टोपे, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, सुभाष चन्द्र बोस, ऐसे ऐसे नौजवानों की कुर्बानिया दी है ये कोई छोटे मोटे लोग नहीं थे. सुभाष चन्द्र बोस तो आईपीएस टोपर थे, उधम सिंह चाहता तो ऐयासी कर सकता था, बड़े बाप का बेटा था. भगत सिंह और चंद्रशेखर की भी यही हैसियत थी. चाहते तो जिन्दगी की, जवानी की रंगरलियां मानते और अपनी नौजवानी को ऐसे फंदे में नहीं फ़साते. ये सारे वो नौजवान थें जिनका खून इस देश के लिए बहुत महत्वपूर्ण था. ६ लाख ऐसे नौजवानों की कुर्बानियां जो हमने दी, वो नहीं देनी पड़ती. और अंग्रेजो की जो यातनाए सही, जो अपमान हमने बर्दास्त किया, वो नहीं करना पड़ता अगर एक आदमी नहीं होता, मीर जाफ़र. लेकिन चूँकि मीर जाफ़र था, मीर जाफ़र का लालच था, कुर्सी का और पैसे का, उस लालच ने इस देश को २०० वर्ष के लिए गुलाम बना दिया.!!

और मै आपसे यही कहने आया हु कि 1757 में तो एक मीर जाफ़र था आज हिंदुस्तान में हज़ारो मीर जाफ़र है. जो देश को वैसे ही गुलाम बनाने में लगे हुए है जैसे मीर जाफ़र ने बनाया था, मीर जाफ़र ने क्या किया था, विदेशो कंपनी को समझौता किया था बुला के, और विदेशो कंपनी से समझौता करने के चक्कर में उसे कुर्सी मिली थी और पैसा मिला था. आज जानते है हिंदुस्तान का जो नेता प्रधानमंत्री बनता है, हिंदुस्तान का जो नेता मुख्यमंत्री बनता है वो सबसे पहला काम जानते है क्या करता है ? प्रेस कॉन्फ्रेंस करता है और कहता है विदेशो कंपनी वालो तुम्हारा स्वागत है, आओ यहाँ पर और बराबर इस बात को याद रखिए ये बात 1757 में मीर जाफ़र ने कही थी ईस्ट इंडिया कंपनी से कि अंग्रेजो तुम्हारा स्वागत है, उसके बदले में तुम इतना ही करना कि मुझे कुर्सी दे देना और पैसा दे देना. आज के नेता भी वही कह रहे है, विदेशी कंपनी वालों तुम्हारा स्वागत है.

और हमको क्या करना, हमको कुछ नहीं, मुख्यमंत्री बनवा देना, प्रधानमंत्री बनवा देना. 100 – 200 करोड़ रूपये की रिश्वत दे देना, बेफोर्स के माध्यम से हो के एनरोंन के माध्यम से हो. हम उसी में खुश हो जाएँगे, सारा देश हम आपके हवाले कर देंगे. ये इस समय चल रहा है. 

मदर टरेसा ने pop john paul को ठीक क्यों नहीं किया ??


एक बार POP JOHN PAUL ने मदर टरेसा को संत की उपाधि दी !!
आप पूछेंगे किस आधार पर दी ???

आधार ये है की मदर टरेसा ने एक बार किसी महिला के शरीर पर हाथ रखा और उस महिला का गर्भाशय का कैंसर ठीक हो गया तो POP का कहना था की मदर टरेसा मे चमत्कारिक शक्ति है 
इसलिए वो संत होने के लायक है ! 

अब आप ही बताए क्या ये scientific है ???
की उन्होने ने किसी महिला पर हाथ रखा और उसका गर्भाशय का कैंसर ठीक हो गया ?
इस लिए मदर टरेसा संत होने के लायक है !

ये 100% superstition है अंध विश्वास है ! लेकिन भारत सरकार ने इसके खिलाफ कुछ नहीं किया !
अब अगर भारत के कोई साधू -संत ऐसा करे तो वो जेल के अंदर ! क्योंकि वो अंध विश्वास फैला रहे है !!

अब आप ही बताएं मदर टरेसा से बड़ा अंध विश्वास फैलाने वाला कौन होगा ??
अगर उसमे चमत्कारिक शक्ति होती तो उसने pop john paul के ऊपर हाथ क्यों नहीं रखा ???
अजीब बात ये है कि pop john paul को खुद parkinson नाम की बीमारी थी ! और 20 साल से थी ! 
(इस बीमारी मे व्यकित के हाथ पैर कांपते रहते हैं ! )
तो उस पर हाथ रख मदर टरेसा ने उसको ठीक क्यों नहीं किया ??

मदर टरेसा का एक मात्र उदेश्य सेवा के नाम पर भारत को ईसाई बनाना था !!
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और अधिक जानकारी के लिए ये विडियो देखें ! 

आखिर क्यों अधिकतर भारत के पढे लिखे डाक्टर,इंजीनियर ,वैज्ञानिक सब विदेश भागने को तैयार हैं ! brain drain In INDIA पूरी post पढ़े !


आखिर क्यों अधिकतर भारत के पढे लिखे डाक्टर,इंजीनियर ,वैज्ञानिक सब विदेश भागने को तैयार हैं ! 
brain drain In INDIA पूरी post पढ़े !
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जब अमरीकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन रिटायर हो रहे थे तो राष्ट्रपति के तौर पर अपने अंतिम भाषण में उन्होंने कहा कि " सोवियत संघ के ख़त्म होने के बाद हमारे दो ही दुश्मन बचे हैं, एक चीन और दूसरा भारत " | रोनाल्ड रीगन के बाद जो राष्ट्रपति आये उसने जो पहले दिन का भाषण दिया संसद में, उसमे उसने कहा कि "मिस्टर रोनाल्ड रीगन ने अपने आर्थिक और विदेश नीति के बारे में जो वक्तव्य दिया, उसी पर हमारी सरकार काम करेगी " | अमेरिका में क्या होता है कि राष्ट्रपति कोई भी हो जाये, नीतियाँ नहीं बदलती, तो रोनाल्ड रीगन ने जो कहा जॉर्ज बुश, बिल क्लिंटन, जोर्ज बुश और ओबामा उसी राह पर चले और आगे आने वाले राष्ट्रपति उसी राह पर चलेगे अगर अमेरिका की स्थिति यही बनी रही तो | 

तो दुश्मन को बर्बाद करने के कई तरीके होते हैं और अमेरिका उन सभी तरीकों को भारत पर आजमाता है | अमेरिका जो सबसे खतरनाक तरीका अपना रहा है हमको बर्बाद करने के लिए और वो हमको समझ में नहीं आ रहा है, खास कर पढ़े लिखे लोगों को | अमेरिका ने एक ऐसा जाल बिछाया है जिसके अंतर्गत भारत में जितने भी अच्छे स्तर के प्रतिभा हो उसको अमेरिका खींच लो, भारत में मत रहने दो | अब इसके लिए अमेरिका ने क्या किया है कि हमारे देश के अन्दर जितने बेहतरीन तकनीकी संस्थान हैं, जैसे IIT, IIM, AIIMS, आदि, उनमे से जितने अच्छे प्रतिभा हैं वो सब अमेरिका भाग जाते हैं | 

अमेरिका ने और युरोप के देशों ने अपने यहाँ के ब्रेन ड्रेन (प्रतिभा पलायन) को रोकने के लिए तमाम तरह के नियम बनाए हैं और उनके यहाँ अलग अलग देशों में अलग अलग कानून हैं कि कैसे अपने देश की प्रतिभाओं को बाहर जाने से रोका जाये | उधर अमेरिका और यूरोप के अधिकांश देशों में ये परंपरा है कि आपको कमाने के लिए अगर विदेश जाना है तो फ़ौज की सर्विस करनी पड़ेगी, सीधा सा मतलब ये है कि आपको बाहर नहीं जाना है और उन्ही देशो में ये गोल्डेन रुल है कि अगर उनके यहाँ बहुतायत में ऐसे लोग होंगे तो ही उनको बाहर जाने देने के लिए अनुमति के बारे में सोचा जायेगा | और दूसरी तरफ तीसरी दुनिया (3rd World Countries) मे जो सबसे अच्छे दिमाग है उन्हें सस्ते दाम मे खरीदने के लिए उन्होने दूसरे नियम भी बनाए | हमारे देश का क्रीम (दिमाग के स्तर पर) उन्हे सस्ते दाम मे मिल सके इसके लिए हमारे यहाँ IIT खोले गये, ये जो IIT खड़े हुए हैं हमारे देश मे वो एक अमेरिकी योजना के तहत हुई थी | 

हमारे देश का क्रीम (दिमाग के स्तर पर) उन्हे सस्ते दाम मे मिल सके इसके लिए अमेरिका ने एक योजना के तहत आर्थिक सहायता दी थी IIT खोलने के लिए | आप पूछेंगे कि अमेरिका हमारे यहाँ IIT खोलने के लिए पैसा क्यों लगाएगा ? वो अपने यहाँ ऐसे संस्थान नहीं खोल लेगा ? क्यों नहीं खोल लेगा बिलकुल खोल लेगा लेकिन वैसे संस्थान से इंजिनियर पैदा करने मे उसे जो खर्च आएगा उसके 1/6 खर्च मे वो यहाँ से इंजिनियर तैयार कर लेगा | और इन संस्थानों में पढने वाले विद्यार्थियों का दिमाग ऐसा सेट कर दिया जाता है कि वो केवल अमेरिका/युरोप की तरफ देखता है | उनके लिए पहले से एक माहौल बना दिया जाता है, पढ़ते-पढ़ते | और माहौल क्या बनाया जाता है कि जो प्रोफ़ेसर उनको पढ़ाते हैं वहां वो दिन रात एक ही बात उनके दिमाग में डालते रहते हैं कि "बोलो अमेरिका में कहाँ जाना है" तो वो विद्यार्थी जब पढ़ के तैयार होता है तो उसका एक ही मिशन होता है कि "चलो अमेरिका" | IITs मे जो सिलेबस पढाया जाता है वो अमेरिका के हिसाब से तैयार होता है, कभी ये देश के अंदर इस्तेमाल की कोशिश करें तो 10% से 20% ही इस देश के काम का होगा बाकी 80% अमेरिका/युरोप के हिसाब से होगा | 

मतलब कि ये पहले से ही व्यवस्था होती है कि हमारे यहाँ के बेहतरीन दिमाग अमेरिका जाएँ | ये सारी की सारी सब्सिडी अमेरिका की तरफ से हमारे IITs को मिलती है नहीं तो IIT से बी.टेक. करना इतना सस्ता नहीं होता | इस तरह से हमारा हर साल ब्रेन ड्रेन से 25 अरब डॉलर का नुकसान होता है और अमेरिका को अपने देश की तुलना मे इंजिनियर 1/3 सस्ते दाम मे मिल जाते हैं. क्योंकि हमारा मुर्ख दिमाग़ बहुत जल्दी डॉलर्स को रूपये मे बदलता है | इस तरह से अमेरिका हर साल अपना 150-200 अरब डॉलर बचाता है. और हम…………………. अब आप कहेंगे की हम क्यों नहीं ब्रेन ड्रेन रोकने के लिए क़ानून बनाते हैं ? तो हमारे नेताओं को डर है कि जो रिश्वत उन्हे हर साल मिलता है वो बंद हो जाएगा और IIT को जो अमेरिकी धन मिलता है वो भी रोक दिया जाएगा | इस तरह से हमारे यहाँ का बेहतरीन दिमाग अमेरिका चला जाता है और हमारे यहाँ तकनीकी क्षेत्र में पिछड़ापन ही फैला रहता है | अमेरिका को घाटा ये हुआ है कि उसके इंटेलेक्ट मे काफ़ी कमी आई है पिछले 25 सालों मे | आप अमेरिकी विश्वविद्यालयों के टॉपर्स की सूचि उठा के देखेंगे तो वहाँ टॉपर या तो एशियन लड़के/लड़कियां हो रहे हैं या लैटिन अमेरिकन | खैर अमेरिका से हमे तो कुछ लेना है नहीं | और अब ये हो रहा है की वहाँ के लोग भी एशियाई प्रतिभा का विरोध करने लगे हैं | 

इसी तरह हमारे संस्थान यहाँ सबसे अच्छे डॉक्टर निकालते हैं एम्स में से या किसी और अच्छे संस्थान से तो वो भी अमेरिका भागने को तैयार होते है | इसी तरह आईआईएम से निकलने वाले सबसे बेहतरीन विद्यार्थी भी अमेरिका भागने को तैयार होते हैं | तो अमेरिका ने एक जाल फ़ेंक रखा है, जैसे शिकारी फेंकता है कि हर वो अच्छी प्रतिभा जो कुछ कर सकता है इस देश में रहकर अपने राष्ट्र के लिए, अपने समाज के लिए, वो भारत से अमेरिका भाग जाता है |

इसको तकनीकी भाषा में आप ब्रेन ड्रेन कहते है, मैं उसे भारत की तकनीकी का सत्यानाश मानता हूँ, क्योंकि ये सबसे अच्छा दिमाग हमारे देश में नहीं टिकेगा तब तो हमारी तकनीकी इसी तरह हमेशा पीछे रहती जाएगी | आप सीधे समझिये न कि जो विद्यार्थी पढ़कर तैयार हुआ, वही विद्यार्थी अगर भारत में रुके तो क्या-क्या नहीं करेगा अपने दिमाग का इस्तेमाल कर के, लेकिन वो दिमाग अगर यहाँ नहीं रुकेगा, अमेरिका चला जायेगा तो वो जो कुछ करेगा, अमेरिका के लिए करेगा, अमरीकी सरकार के लिए करेगा और हम बेवकूफों की तरह क्या मान के बैठे जाते हैं कि "देखो डॉलर तो आ रहा है", अरे डॉलर जितना आता है उससे ज्यादा तो नुकसान हो जाता है और हमको क्या लगता है कि अमेरिका जाने से ज्यादा रुपया मिलता है, हम हमेशा बेवकूफी का हिसाब लगाते हैं, आज अमेरिका का एक डॉलर 55 रूपये के बराबर है और किसी को 100 डॉलर मिलते हैं तो कहेंगे कि 5500 रुपया मिल रहा है | अरे, उनके लिए एक डॉलर एक रूपये के बराबर होता है और वहां खर्च भी उसी अनुपात में होता है | हम कभी दिमाग नहीं लगाते, हमेशा कैल्कुलेसन करते हैं | 

आज उनका एक डॉलर 55 रूपये का है, कल 70 का हो जायेगा या कभी 100 रूपये का हो जायेगा तो हमारा हिसाब उसी तरह लगता रहेगा | उस हिसाब को हम जोड़ते हैं तो लगता है कि बड़ा भारी फायदा है लेकिन वास्तव में है उसमे नुकसान | यहाँ लगभग 10 लाख रूपये में एक इंजिनियर तैयार किया जाता है इस उम्मीद में कि समय आने पर वो राष्ट्र के काम में लगेगा, देश के काम में लगेगा, राष्ट्र को सहारा देगा, वो अचानक भाग के अमेरिका चला जाता है, तो सहारा तो वो अमेरिका को दे रहा है और अमेरिका कौन है तो वो दुश्मन है, तो दुश्मन को हम अपना दिमाग सप्लाई कर रहे हैं | 

हमारे यहाँ से आजकल जो लड़के लड़कियां वहां जा रहे हैं उनको वहाँ कच्चा माल कहा जाता है और उनके सप्लाई का धंधा बहुत जोरो से चल रहा है | ऐसे ही सॉफ्टवेर इंजिनियर के रूप में बॉडी शोपिंग की जा रही है और वहां इन सोफ्टवेयर इंजिनियर लोगों का जो हाल है वो खाड़ी देशों (Middle East) में जाने वाले मजदूरों से भी बदतर है | जैसे हमारे यहाँ रेलों में 3 टायर होते हैं वैसे ही 5 टायर, 6 टायर के बिस्तर वाले कमरों में ये रहते हैं | अमेरिका दुश्मन है और उसी दुश्मन की अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के काम में हमारे देश के लोग लगे हैं | 

आप बताइए कि इससे खुबसूरत दुष्चक्र क्या होगा कि आपका दुश्मन आपको ही पीट रहा है आपकी ही गोटी से | अमेरिका कभी भी इस देश की तकनीकी को विकसित नहीं होने देना चाहता | इस देश के वैज्ञानिक यहाँ रुक जायेंगे, इंजिनियर यहाँ रुक जायेंगे, डॉक्टर यहाँ रुकेंगे, मैनेजर यहाँ रुकेंगे तो भारत में रुक कर कोई ना कोई बड़ा काम करेंगे, वो ना हो पाए, इसलिए अमेरिका ये कर रहा है | और अमेरिका को क्या फायदा है तो उनको सस्ती कीमत पर अच्छे नौकर काम करने को मिल जाते हैं | 

हमारे यहाँ के इंजिनियर, डॉक्टर, मैनेजर कम पैसे पर काम करने को तैयार हैं वहां पर और वो भी ज्यादा समय तक | यहाँ अगर किसी लड़के को कहो कि 10 बजे से शाम 5 बजे तक काम करो तो मुंह बनाएगा और वहां अमेरिका में सवेरे 8 बजे से रात के 8 बजे तक काम करता है तो तकलीफ नहीं होती है | कोई भी भारतीय अमेरिका गया है तो वो सवेरे सात बजे से लेकर रात के आठ बजे तक काम ना करे तो उसको जिंदगी चलानी भी मुश्किल है | 

और अमेरिका में भारत के लोगों के साथ कैसा व्यव्हार होता है ये भी जान लीजिये, अमेरिका मे यहाँ के लोगों को हमेशा दूसरी या तीसरी श्रेणी के नागरिक के तौर पर ही गिना जाता है | हम यहाँ बहुत खुश होते हैं की कोई भारतीय इस पद पर है या उस पद पर है लेकिन पर्दे के पीछे की कहानी कुछ और होती है | हमारे यहाँ के लोग कितने ही बुद्धिशाली हो या कितने ही बेसिक रिसर्च का काम किए हो लेकिन उनको कभी भी Higher Authority नहीं बनाया जाता है वहां, मतलब उनका बॉस हमेशा अमेरिकन ही रहेगा चाहे वो कितना ही मुर्ख क्यों ना हो | आनंद मोहन चक्रवर्ती का क्या हाल हुआ सब को मालूम होगा, पहले वो यहाँ CSIR मे काम करते थे, अमेरिका मे बहुत जल्दी बहुत नाम कमाया लेकिन जिस जगह पर उन्हे पहुचना चाहिए था वहाँ नहीं पहुच पाए, हरगोबिन्द खुराना को कौन नहीं जानता आपको भी याद होंगे, उनको भी कभी अपने संस्थान का निदेशक नहीं बनाया गया | नवम्बर 2011 में उनकी मृत्यु हो गयी, कितने अमरीकियों ने उनकी मृत्यु पर दुःख जताया और भारत के लोगों को तो हरगोबिन्द खुराना का नाम ही नहीं मालूम है, अपनी जमीन छोड़ने से यही होता है | ऐसे बहुत से भारतीय हैं, इन प्रतिभाशाली लोगों के बाहर चले जाने से हमे क्या घाटा होता है, जानते हैं आप ? हम फंडामेंटल रिसर्च मे बहुत पीछे चले जाते हैं, जब तक हमारे देश मे बेसिक रिसर्च नहीं होगी तो हम अप्लाइड फील्ड मे कुछ नहीं कर सकते हैं, सिवाए दूसरो के नकल करने के | मतलब हमारा नुकसान ही नुकसान और अमेरिका और युरोप का फायदा ही फायदा |

सबसे बड़ी बात क्या है, हमारे देश मे सबसे बड़ा स्किल्ड मैंन पावर है चीन के बाद, हमारे पास 65 हज़ार वैज्ञानिक हैं, दुनिया के सबसे ज़्यादा इंजिनियरिंग कॉलेज हमारे देश मे हैं, अमेरिका से 4-5 गुना ज़्यादा इंजिनियरिंग कॉलेज हैं भारत मे, अमेरिका से ज़्यादा हाई-टेक रिसर्च इन्स्टिट्यूट हैं भारत मे, अमेरिका से ज़्यादा मेडिकल कॉलेज हैं भारत मे, हमारे यहाँ पॉलिटेक्निक, ITI की संख्या ज़्यादा है, नॅशनल लॅबोरेटरीस 44 से ज़्यादा हैं जो CSIR के कंट्रोल मे हैं, इतना सब होते हुए भी हम क्यों पीछे हैं ? हम क्यों नहीं नोबेल पुरस्कार विजेता पैदा कर पाते ? 

हमारी सबसे बड़ी कमी क्या है कि हम किसी भी आदमी को उसके डिग्री या पोस्ट से मापते हैं | हमारा सारा एजुकेशन सिस्टम डिग्री के खेल मे फँसा हुआ है इसलिए कई बार बिना डिग्री के वैज्ञानिक हमारे पास होते हुए भी हम उनका सम्मान नहीं कर पाते, उनको जो इज्ज़त मिलनी चाहिए वो हम नहीं दे पाते | जहाँ नोबेल पुरस्कार विजेता पैदा हो रहे हैं वहाँ की शिक्षा व्यवस्था पूरी तरह डिग्री से बाहर है | हमारे यहाँ जो शिक्षा व्यवस्था है वो अँग्रेज़ों के ज़माने का है उन्होने ही डिग्री और इंटेलेक्ट को जोड़ के हमारे सारे तकनीकी संरचना (टेक्नोलॉजिकल इनफ्रास्ट्रक्चर सिस्टम) को बर्बाद कर दिया | अँग्रेज़ों के ज़माने मे ये नियम था कि अगर आप उनके संस्थानों से डिग्री ले के नहीं निकले हैं तो आपकी पहचान नहीं होगी |

चुकी उनके संस्थानों से कोई डिग्री लेता नहीं था तो उनकी पहचान नहीं होती थी | बाद मे उनके यहाँ से डिग्री लेना शुरू हुआ और आप देखते होंगे कि हमारे यहाँ बहुत से बैरिस्टर हुए उस ज़माने मे जिन्होंने लन्दन से बैरिस्टर की डिग्री ली थी | उनके तकनीकी संस्थाओं मे अगर आप चले जाएँ डिग्री लेने के लिए तो पढाई ऐसी होती थी की आप कोई बेसिक रिसर्च नहीं कर सकते थे, और संस्थान से बाहर रह के रिसर्च कर सकते हैं तो आपके पास डिग्री नहीं होगी और आपके पास डिग्री नहीं है तो आपका रेकग्निशन नहीं है | हमारे देश में बहुत सारे उच्च शिक्षा के केंद्र रहे 1840 -1850 तक लेकिन अंग्रेजों की नीतियों की वजह से सब की सब समाप्त हो गयी और हमारे देश में किसी भी शासक ने इसे पुनर्स्थापित करने का नहीं सोचा | और उन Higher Learning Institutes में ऐसे ऐसे विषय पढाये जाते थे जो आज भी भारत में तो कम से कम नहीं ही पढाया जाता है | 

आपने धैर्यपूर्वक पढ़ा इसके लिए धन्यवाद् और अच्छा लगे तो इसे फॉरवर्ड कीजिये, आप अगर और भारतीय भाषाएँ जानते हों तो इसे उस भाषा में अनुवादित कीजिये (अंग्रेजी छोड़ कर), अपने अपने ब्लॉग पर डालिए, मेरा नाम हटाइए अपना नाम डालिए मुझे कोई आपत्ति नहीं है | मतलब बस इतना ही है की ज्ञान का प्रवाह होते रहने दीजिये | 

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जय हिंद 
Rajiv Dixit

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