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बुधवार, 3 अगस्त 2022

माहेश्वरीयों का इतिहास क्या है ? क्यों माहेश्वरीयों में विवाह परंपरा को बहुत महत्वपूर्ण विधि माना जाता है ? क्यों विवाह की विधि में लड़का मोड़ और कट्यार धारण करता है?


मेरे कई राजपूत भाईओ और बहनों ने मुझे पूछा की माहेश्वरी मतलब राजपूत या कोन ? और तो और
माहेश्वरी समाज में बहुत से लोग है, जो नहीं जानते की माहेश्वरी समाज की उत्पत्ति कैसे हुई ? माहेश्वरीयों का इतिहास क्या है ? क्यों माहेश्वरीयों में विवाह परंपरा को बहुत महत्वपूर्ण विधि माना जाता है ? क्यों विवाह की विधि में लड़का मोड़ और कट्यार धारण करता है? जानने के लिए पढ़िए-  माहेश्वरी वंशोत्पत्ति एवं इतिहास (Origin & History of Maheshwari) :
खंडेलपुर (इसे खंडेलानगर और खंडिल्ल के नाम से भी उल्लेखित किया जाता है) नामक राज्य में सूर्यवंशी क्षत्रिय राजा खड्गलसेन राज्य करता था l इसके राज्य में सारी प्रजा सुख और शांती से रहती थी l राजा धर्मावतार और प्रजाप्रेमी था, परन्तु राजा का कोई पुत्र नहीं था l खड्गलसेन इस बात को लेकर चिंतित रहता था कि पुत्र नहीं होने पर उत्तराधिकारी कौन होगा। खड्गलसेन की चिंता को जानकर मत्स्यराज ने परामर्श दिया कि आप पुत्रेष्ठि यज्ञ करवाएं, इससे पुत्र की प्राप्ति होगी। राजा खड्गलसेन ने मंत्रियों से मंत्रणा कर के धोसीगिरी से ऋषियों को ससम्मान आमंत्रित कर पुत्रेस्ठी यज्ञ कराया l पुत्रेष्टि यज्ञ के विधिपूर्वक पूर्ण होने पर यज्ञ से प्राप्त हवि को राजा खड्गलसेन और महारानी को प्रसादस्वरूप में भक्षण करने के लिए देते हुए ऋषियों ने आशीवाद दिया और साथ-साथ यह भी कहा की तुम्हारा पुत्र बहुत पराक्रमी और चक्रवर्ती होगा पर उसे 16 साल की उम्र तक उत्तर दिशा की ओर न जाने देना, अन्यथा आपकी अकाल मृत्यु होगी l कुछ समयोपरांत महारानी ने एक पुत्र को जन्म दिया l राजा ने पुत्र जन्म उत्सव बहुत ही हर्ष उल्लास से मनाया, उसका नाम सुजानसेन रखा l यथासमय उसकी शिक्षा प्रारम्भ की गई l थोड़े ही समय में वह राजकाज विद्या और शस्त्र विद्या में आगे बढ़ने लगा l तथासमय सुजानसेन का विवाह चन्द्रावती के साथ हुवा l दैवयोग से एक जैन मुनि खंडेलपुर आए l कुवर सुजान उनसे बहुत प्रभावित हुवा l उसने अनेको जैन मंदिर बनवाएं और जैन धर्म का प्रचार-प्रसार शुरू कर दिया l जैनमत के प्रचार-प्रसार की धुन में वह भगवान विष्णु, भगवान शिव और देवी भगवती को माननेवाले, इनकी आराधना-उपासना करनेवाले आम प्रजाजनों को ही नहीं बल्कि ऋषि-मुनियों को भी प्रताड़ित करने लगा, उनपर अत्याचार करने लगा l

ऋषियों द्वारा कही बात के कारन सुजानसेन को उत्तर दिशा में जाने नहीं दिया जाता था लेकिन एक दिन राजकुवर सुजानसेन 72 उमरावो को लेकर हठपूर्वक जंगल में उत्तर दिशा की और ही गया l उत्तर दिशामें सूर्य कुंड के पास जाकर देखा की वहाँ महर्षि पराशर की अगुवाई में सारस्‍वत, ग्‍वाला, गौतम, श्रृंगी और दाधीच ऋषि यज्ञ कर रहे है, वेद ध्वनि बोल रहे है, यह देख वह आगबबुला हो गया और क्रोधित होकर बोला इस दिशा में ऋषि-मुनि शिव की भक्ति करते है, यज्ञ करते है इसलिए पिताजी मुझे इधर आने से रोकते थे l उसने क्रोध में आकर उमरावों को आदेश दिया की इसी समय यज्ञ का विध्वंस कर दो, यज्ञ सामग्री नष्ट कर दो और ऋषि-मुनियों के आश्रम नष्ट कर दो l राजकुमार की आज्ञा पालन के लिए आगे बढे उमरावों को देखकर ऋषि भी क्रोध में आ गए और उन्होंने श्राप दिया की सब निष्प्राण बन जाओ l श्राप देते ही राजकुवर सहित 72 उमराव निष्प्राण, पत्थरवत बन गए l जब यह समाचार राजा खड्गलसेन ने सुना तो अपने प्राण तज दिए l राजा के साथ उनकी 8 रानिया सती हुई l 

राजकुवर की कुवरानी चन्द्रावती 72 उमरावों की पत्नियों के सहित रुदन करती हुई उन्ही ऋषियो की शरण में गई जिन्होंने इनके पतियों को श्राप दिया था l ये उन ऋषियो के चरणों में गिर पड़ी और और क्षमायाचना करते हुए श्राप वापस लेने की विनती की तब ऋषियो ने उषाप दिया की- जब देवी पार्वती के कहने पर भगवान महेश्वर इनमें प्राणशक्ति प्रवाहित करेंगे तब ये पुनः जीवित व शुद्ध बुद्धि हो जायेंगे l महेश-पार्वती के शीघ्र प्रसन्नता का उपाय पूछने पर ऋषियों ने कहा की- यहाँ निकट ही एक गुफा है, वहाँ जाकर भगवान महेश का अष्टाक्षर मंत्र "ॐ नमो महेश्वराय" का जाप करो l राजकुवरानी सारी स्त्रियों सहित गुफा में गई और मंत्र तपस्या में लीन हो गई l उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान महेशजी देवी पार्वती के साथ वहा आये l पार्वती ने इन जडत्व मूर्तियों को देखा और अपनी अंतर्दृष्टि से इसके बारे में जान लिया l महेश-पार्वती ने मंत्रजाप में लीन राजकुवरानी एवं सभी उमराओं की स्त्रियों के सम्मुख आकर कहा की- तुम्हारी तपस्या देखकर हम अति प्रसन्न है और तुम्हें वरदान देने के लिए आयें हैं, वर मांगो। इस पर राजकुवरानी ने देवी पार्वती से वर मांगा की- हम सभी के पति ऋषियों के श्राप से निष्प्राण हो गए है अतः आप आप भगवान महेशजी कहकर इनका श्रापमोचन करवायें l पार्वती ने 'तथास्तु' कहा और भगवान महेशजी से प्रार्थना की और फिर भगवान महेशजी ने सुजानसेन और सभी 72 उमरावों में प्राणशक्ति प्रवाहित करके उन्हें चेतन (जीवित) कर दिया l 

चेतन अवस्था में आते ही सभीने महेश-पार्वती का वंदन किया और अपने अपराध पर क्षमा याचना की l इसपर भगवान महेश ने कहा की- अपने क्षत्रियत्व के मद में तुमने अपनी शक्तियों का दुरुपयोग किया है l तुमसे यज्ञ में बाधा डालने का पाप हुवा है, इसके प्रायश्चित के लिए अपने-अपने हथियारों को लेकर सूर्यकुंड में स्नान करो l ऐसा करते ही सभी उमरावों के हथियार पानी में गल गए l स्नान करने के उपरान्त सभी भगवान महेश-पार्वती की जयजयकार करने लगे l फिर भगवान महेशजी ने कहा की- सूर्यकुंड में स्नान करने से तुम्हारे सभी पापों का प्रायश्चित हो गया है तथा तुम्हारा क्षत्रितत्व एवं पूर्व कर्म भी नष्ट हो गये है l यह तुम्हारा नया जीवन है इसलिए अब तुम्हारा नया वंश चलेगा l तुम्हारे वंशपर हमारी छाप रहेगी l देवी माहेश्वरी (पार्वती) के द्वारा तुम्हारी पत्नियों को दिए वरदान के कारन तुम्हे नया जीवन मिला है इसलिए तुम्हे 'माहेश्वरी' के नाम से जाना जायेगा l तुम हमारी (महेश-पार्वती) संतान की तरह माने जाओगे l तुम दिव्य गुणों को धारण करनेवाले होंगे l द्यूत, मद्यपान और परस्त्रीगमन इन त्रिदोषों से मुक्त होंगे l अब तुम्हारे लिए युद्धकर्म (जीवनयापन/उदरनिर्वाह के लिए योद्धा/सैनिक का कार्य करना) निषिद्ध (वर्जित) है l अब तुम अपने परिवार के जीवनयापन/उदरनिर्वाह के लिए वाणिज्य कर्म करोगे, तुम इसमें खूब फुलोगे-फलोगे l जगत में धन-सम्पदा के धनि के रूप में तुम्हारी पहचान होगी l धनि और दानी के नाम से तुम्हारी ख्याति होगी। श्रेष्ठ कहलावोगे (*आगे चलकर श्रेष्ठ शब्द का अपभ्रंश होकर 'सेठ' कहा जाने लगा) l तुम जो धन-अन्न-धान्य दान करेंगे उसे माताभाग (माता का भाग) कहा जायेगा, इससे तुम्हे बरकत रहेगी l 

अब राजकुवर और उमरावों में स्त्रियों (पत्नियोंको) को स्वीकार करने को लेकर असमंजस दिखाई दिया l उन्होंने कहा की- हमारा नया जन्म हुवा है, हम तो “माहेश्वरी’’ बन गए है पर ये अभी क्षत्रानिया है l हम इन्हें कैसे स्वीकार करे l तब माता पार्वती ने कहा तुम सभी स्त्री-पुरुष हमारी (महेश-पार्वती) चार बार परिक्रमा करो, जो जिसकी पत्नी है अपने आप गठबंधन हो जायेगा l इसपर राजकुवरानी ने पार्वती से कहा की- माते, पहले तो हमारे पति क्षत्रिय थे, हथियारबन्द थे तो हमारी और हमारे मान की रक्षा करते थे अब हमारी और हमारे मान की रक्षा ये कैसे करेंगे तब पार्वती ने सभी को दिव्य कट्यार (कटार) दी और कहाँ की अब तुम्हारा कर्म युद्ध करना नहीं बल्कि वाणिज्य कार्य (व्यापार-उद्यम) करना है लेकिन अपने स्त्रियों की और मान की रक्षा के लिए सदैव 'कट्यार' (कटार) को धारण करेंगे l मे शक्ति स्वयं इसमे बिराजमान रहूंगी l तब सब ने महेश-पार्वति की चार बार परिक्रमा की तो जो जिसकी पत्नी है उनका अपनेआप गठबंधन हो गया (एक-दो जगह पर, 13 स्त्रियों ने भी कट्यार धारण करके गठबंधन की परिक्रमा करने का उल्लेख मिलता है) l 

इसके बाद सभी ने सपत्नीक महेश-पार्वती को प्रणाम किया l अपने नए जीवन के प्रति चिंतित, आशंकित माहेश्वरीयों को देखकर पार्वती उन्हें भयमुक्त करने के लिए यह कहकर की- “सर्वं खल्विदमेवाहं नान्यदस्ति सनातनम् l” ‘समस्त जगत मैं ही हूँ l इस सृष्टि में कुछ भी नहीं था तब भी मैं थीं। मैं ही इस सृष्टि का आदि स्रोत हूँ। मैं सनातन हूँ l मैं ही परब्रह्म, परम-ज्योति, प्रणव-रूपिणी तथा युगल रूप धारिणी हूं। मैं नित्य स्वरूपा एवं कार्य कारण रूपिणी हूं। मैं ही सब कुछ हूं। मुझ से अलग किसी का वजूद ही नहीं है। मेरे किये से ही सबकुछ होता है इसलिए तुम सब अपने मन को आशंकाओं से मुक्त कर दो’ ऐसा कहकर देवी पार्वती नें सभी को दिव्यदृष्टि दी और अपने आदिशक्ति स्वरुप का दर्शन कराया l दिखाया की शिव ही शक्ति है और शक्ति ही शिव है l ‘शिवस्याभ्यन्तरे शक्तिः शक्तेरभ्यन्तरेशिवः।’ शक्ति शिव में निहित है, शिव शक्ति में निहित हैं। शिव के बिना शक्ति का अथवा शक्ति के बिना शिव का कोई अस्तित्व ही नहीं है। शिव और शक्ति अर्थात महाकाल और महाकाली, महेश्वर और माहेश्वरी, महादेव और महादेवी, महेश और पार्वती तो एक ही है, जो दो अलग-अलग रूपों में अलग-अलग कार्य करते है। महेश-पार्वती के सामरस्य से ही यह सृष्टि संभव हुई। आदिशक्ति ने पलभर में अगणित (जिसको गिनना असंभव हो) ब्रह्मांडों का दर्शन करा दिया जिसमें वह समस्त दिखा जो मनुष्य नें देखा या सुना हुवा है और वह भी दिखा जिसे मानव ने ना सुना है, ना देखा है, न ही कभी देख पाएगा और ना उनका वर्णन ही कर पाएगा । तत्पश्चात अर्धनरनारीश्वर स्वरुप में शरीर के आधे भाग में महेश (शिव) और आधे भाग में पार्वती (शक्ति) का रूप दिखाकर सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति (पालन), परिवर्तन और लय (संहार); महेश (शिव) एवं पार्वती (शक्ति) अर्थात (संकल्पशक्ति और क्रियाशक्ति) के अधीन होनेका बोध कराया l चामुण्डा स्वरुप का दर्शन कराया जिसमें दिखाया की- “महाकाली, महासरस्वती और महालक्ष्मी” देवी पार्वती की ही तीन शक्तियां है जो बलशक्ति, ज्ञानशक्ति और ऐश्वर्यशक्ति (धनशक्ति) के रूप में अर्थात इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति के रूप में कार्य करती है जिसके फलस्वरूप सृष्टि के सञ्चालन का कार्य संपन्न हो रहा है l महाकाली, महासरस्वती और महालक्ष्मी इन्ही त्रयीशक्तियों का सम्मिलित/एकत्रित रूप है चामुण्डा जो स्वयं आदिशक्ति देवी पार्वती ही है l आगे महाकाली के अंशशक्तियों नवदुर्गा और दसमहाविद्या तथा महालक्ष्मी की अंशशक्तियों अष्टलक्ष्मियों का दर्शन कराया l अंततः यह सभी शक्तियां मूल शक्ति (आदिशक्ति) देवी पार्वती में समाहित हो गई l तब आश्चर्यचकित, रोमांचित, भावविभोर होकर सभी ने सिर नवाकर हाथ जोड़कर प्रार्थना करते हुए कहा की- हे माते, आप ही जगतजननी हो, जगतमाता हो l आपकी महिमा अनंत है l आपके इस आदिशक्ति रूप को देखकर हमारा मन सभी चिन्ताओं, आशंकाओं से मुक्त हो गया है l हम अपने भीतर दिव्य चेतना, दिव्य ऊर्जा और प्रसन्नता का अनुभव कर रहे है l हे माते, आपकी जय हो। हमपर आपकी कृपा निरंतर बरसती रहे l देवी ने कहा, मेरा जो आदिशक्ति रूप तुमने देखा है उसे देख पाना अत्यंत दुर्लभ है l केवल अनन्य भक्ति के द्वारा ही मेरे इस आदिशक्ति रूप का साक्षात दर्शन किया जा सकता है l जो मनुष्य अपने सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मों को, मनोकामनाओं से मुक्त रहकर केवल मेरे प्रति समर्पित करता है, मेरे भक्ति में स्थित रहता है वह मनुष्य निश्चित रूप से मेरी कृपा को प्राप्त करता है l वह मनुष्य निश्चित रूप से परम आनंद को, परम सुख को प्राप्त करता है l 

फिर भगवान महेशजी ने सुजानसेन को कहा की अब तुम इनकी वंशावली रखने का कार्य करोगे, तुम्हे 'जागा' कहा जायेगा l तुम माहेश्वरीयों के वंश की जानकारी रखोंगे, विवाह-संबन्ध जोड़ने में मदत करोगे और ये हर समय, यथा शक्ति द्रव्य देकर तुम्हारी मदत करेंगे l तत्पश्चात ऋषियों ने महेश-पार्वती को हाथ जोड़कर वंदन किया और भगवान महेशजी से कहा की- प्रभु इन्होने हमारे यज्ञ को विध्वंस किया और आपने इन्हें श्राप मोचन (श्राप से मुक्त) कर दिया l इस पर भगवान महेशजी ने ऋषियो से कहा- आपको इनका (माहेश्वरीयों का) गुरुपद देता हूँ l आजसे आप माहेश्वरीयोंके गुरु हो l आपको 'गुरुमहाराज' के नाम से जाना जायेगा l आपका दायित्व है की आप इन सबको धर्म के मार्गपर चलनेका मार्गदर्शन करते रहेंगे l भगवान महेशजी ने सभी माहेश्वरीयों को उपदेश दिया कि आज से यह ऋषि तुम्हारे गुरु है l आप इनके द्वारा अनुशाषित होंगे l एक बार देवी पार्वती के जिज्ञासापूर्ण अनुरोध पर मैंने पार्वती को जो बताया था वह पुनः तुम्हे बताता हूँ- 
गुरुर्देवो गुरुर्धर्मो गुरौ निष्ठा परं तपः l गुरोः परतरं नास्ति त्रिवारं कथयामि ते ll 
अर्थात "गुरु ही देव हैं, गुरु ही धर्म हैं, गुरु में निष्ठा ही परम तप है | गुरु से अधिक और कुछ नहीं है यह मैं तीन बार कहता हूँ l गुरु और गुरुतत्व को बताते हुए महेशजी ने कहा की, गुरु मात्र कोई व्यक्ति नहीं है अपितु गुरुत्व (गुरु-तत्व) तो व्यक्ति के ज्ञान में समाहित है। उसे वैभव, ऐश्वर्य, सौंदर्य अथवा आयु से नापा नहीं जा सकता। गुरु अंगुली पकड़कर नहीं चलाता, गुरु अपने ज्ञान से शिष्य का मार्ग प्रकाशित करता है। चलना शिष्य को ही पड़ता है। जैसे मै और पार्वती अभिन्न है वैसे ही मै और गुरुत्व (गुरु-तत्व) अभिन्न है l इस तरह से गुरु व गुरुतत्व के बारे में बताने के पश्चात महेश भगवान पार्वतीजी सहित वहां से अंतर्ध्यान हो गये l 

उमरावों के चेतन होने के शुभ समाचार को जानकर उनके सन्तानादि परिजन भी वहां पर आ गए l पूरा वृतांत सुनने के बाद ऋषियों के कहने पर उन सभी ने सूर्यकुंड में स्नान किया l ऋषियों ने, 
“स्वस्त्यस्तु ते कुशलमस्तु चिरायुरस्तु, विद्याविवेककृतिकौशलसिद्धिरस्तु l 
ऐश्वर्यमस्तु विजयोऽस्तु गुरुभक्ति रस्तु, वंशे सदैव भवतां हि सुदिव्यमस्तु ll” 
(अर्थ - आप सदैव आनंद से, कुशल से रहे तथा दीर्घ आयु प्राप्त करें | विद्या, विवेक तथा कार्यकुशलता में सिद्धि प्राप्त करें l ऐश्वर्य व सफलता को प्राप्त करें तथा गुरु भक्ति बनी रहे l आपका वंश सदैव तेजस्वी एवं दिव्य गुणों को धारण करनेवाला बना रहे।) इस मंत्र का उच्चारण करते हुए सभी के हाथों में रक्षासूत्र (कलावा) बांधा और उज्वल भविष्य और कल्याण की कामना करते हुए आशीर्वाद दिए l

आसन मघासु मुनय: शासति युधिष्ठिरे नृपते l
सूर्यस्थाने महेशकृपया जाता माहेश्वरी समुत्पत्तिः ll
अर्थ- जब सप्तर्षि मघा नक्षत्र में थे, युधिष्ठिर राजा शासन करता था l सूर्य के स्थान पर अर्थात राजस्थान प्रान्त के लोहार्गल में (लोहार्गल- जहाँ सूर्य अपनी पत्नी छाया के साथ निवास करते है, वह स्थान जो की माहेश्वरीयों का वंशोत्पत्ति स्थान है), भगवान महेशजी की कृपा (वरदान) से l कृपया - कृपा से, माहेश्वरी उत्पत्ति हुई (यह दिन युधिष्टिर संवत 9 जेष्ट शुक्ल नवमी का दिन था l तभी से माहेश्वरी समाज 'जेष्ट शुक्ल नवमी' को “महेश नवमी’’ के नाम से, माहेश्वरी वंशोत्पत्ति दिन (माहेश्वरी स्थापना दिन) के रूप में बहुत धूम धाम से मनाता है l “महेश नवमी” माहेश्वरी समाज का सबसे बड़ा त्योंहार है, सबसे बड़ा पर्व है) l  

(योगी प्रेमसुखानन्द माहेश्वरी द्वारा लिखित पुस्तक- "माहेश्वरी, वंशोत्पत्ति एवं इतिहास" से साभार)।।

रक्षा बंधन के दिन ही खुलता है ये श्री वंशी नारायण मंदिर, #श्री_वंशी_नारायण_मंदिर_उत्तराखंड


#श्री_वंशी_नारायण_मंदिर_उत्तराखंड 
रक्षा बंधन के दिन ही खुलता है ये श्री वंशी नारायण मंदिर, इस वजह से पूरे साल यहां नहीं होती पूजा-अर्चना,

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार रक्षा बंधन को रक्षा का पर्व बड़ी ही धूमधाम से मनाया जाता है। इस दिन बहनें अपने भाई को राखी बांधती है और भाई बहन की रक्षा का संकल्प लेता है। हिंदू धर्म के अनुसार इस दिन सिर्फ भाई और बहन को ही नहीं बल्कि भगवान, मंदिर और वाहनों को भी राखी बांधी जाती है। इस दिन कई मंदिरों में विशेष पूजा-अर्चना भी की जाती है, लेकिन आज हम आपको एक ऐसे मंदिर के बारे में बता रहे हैं जो सिर्फ रक्षा बंधन के मौके पर ही खुलता है।
बदरीनाथ क्षेत्र की उर्गम घाटी में मौजूद श्री वंशी नारायण मंदिर साल के 364 दिन बंद रहता है। रक्षा बंधन के दिन ही इस मंदिर के कपाट भक्तों के लिए खोले जाते हैं। इस पूरे दिन भगवान के दर्शन के लिए भक्तों की भारी भीड़ लगी रहती हैं और शाम ढलने से पहले इस मंदिर के कपाट बंद भी कर दिए जाते हैं। यह वंशीनारायण मंदिर उर्गम घाटी में 13 हजार फीट की ऊंचाई पर मध्य हिमालय के बुग्याल क्षेत्र में स्थित है।
मंदिर तक पहुंचने के लिए लगभग सात किमी तक पैदल चलना होता है। रास्ता बहुत ही खराब होने की वजह से इस मंदिर में रोजाना पूजा-अर्चना नहीं की जाती है। रक्षा बंधन के दिन यहां महिलाओं की बहुत भीड़ रहती हैं क्योंकि, महिलाएं इस दिन भगवान विष्णु को राखी बांधने यहां पहुंचती हैं।

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार इस मंदिर का निर्माण पांडव काल में हुआ था। कहते हैं इस मंदिर में देवऋषि नारद ने साल के 364 दिन भगवान विष्णु की भक्ति की थी। इस वजह से साल के एक ही दिन आम इंसान भगवान विष्णु की आराधना कर सकता है। कहते हैं कि एक बार राजा बलि ने भगवान विष्णु से आग्रह किया था कि वह उनके द्वारपाल बने। भगवान विष्णु ने राजा बलि के आग्रह को स्वीकार कर लिया और वह राजा बलि के साथ पाताल लोक चले गए।
भगवान विष्णु के कई दिनों तक दर्शन न होने के कारण माता लक्ष्मी बहुत चिंतित हुई और नारद मुनि के पास गई। नारद मुनि ने माता लक्ष्मी को बताया कि भगवान विष्णु पाताल लोक में हैं और राजा बलि के द्वारपाल बने हुए हैं। इस पर नारद मुनि ने माता लक्ष्मी को कहा कि भगवान विष्णु को वापस पाने के लिए आपको श्रावण मास की पूर्णिमा को पाताल लोक जाना होगा। वहां पहुंचकर आपको राजा बलि की कलाई पर रक्षासूत्र बांधकर उनसे भेंट में भगवान नारायण को वापस मांगना होगा। माता लक्ष्मी को पाताल लोक तक पहुंचाने में नाराद मुनि ने उनकी मदद की। इसके बाद नारद मुनि की अनुपस्थिति में कलगोठ गांव के पुजारी ने नारायण भगवान की पूजा की तब से यह परंपरा चली आ रही है।

जानिए कैसे हुई गरुड़ और नागों की उत्पत्ति और कैसे बने गरुड़ विष्णु के वाहन ?

जानिए कैसे हुई गरुड़ और नागों की उत्पत्ति और कैसे बने गरुड़ विष्णु के वाहन ?
 आज हम आपको एक पौराणिक कथा बता रहे है जिसका वर्णन महाभारत के आदि पर्व में मिलता है। यह कथा बताती है की इस धरती पर गरुड़ और नागों की उत्पत्ति कैसे हुई, क्यों गरुड़ नाग के दुशमन हुए, क्यों नागो की जीभ आगे से दो हिस्सों में बटी हुई है और कैसे गरुड़, भगवान विष्णु के वाहन बने ?

महर्षि कश्यप की तेरह पत्नियां थी। लेकिन विनता और कद्रू नामक अपनी दो पत्नियों से वे विशेष प्रेम करते थे। एक दिन महर्षि जब आनंद भाव में बैठे थे तो उनकी दोनों पत्नियां उनके समीप पहुंची और पति के पांव दबाने लगी।  प्रसन्न होकर महर्षि ने बारी-बारी से दोनों को सम्बोधित किया- “तुम दोनों ही मुझे विशेष प्रिय हो। तुम्हारी कोई इच्छा हो तो बताओ।”

कद्रू बोली- “स्वामी ! मेरी इच्छा है कि मैं हजार पुत्रो की माँ बनूं।”

फिर महर्षि ने विनता से पूछा। विनता ने कहा- “मैं भी माँ बनना चाहती हूं स्वामी ! किन्तु हजार पुत्रो की नहीं, बल्कि सिर्फ एक ही पुत्र की। लेकिन मेरा पुत्र इतना बलवान हो कि कद्रू के हजार पुत्र भी उसकी बराबरी न कर सके।”

महर्षि बोले- “शीघ्र ही मैं एक यज्ञ करने वाला हूं। यज्ञोपरांत तुम दोनों की माँ बनने की इच्छाएं अवश्य पूरी होगी।”

महर्षि कश्यप ने यज्ञ किया। देवता और ऋषि-मुनियों ने सहर्ष यज्ञ में हिस्सा लिया। यज्ञ सम्पूर्ण करके महर्षि कश्यप पुनः तपस्या करने चले गए। कुछ माह पश्चात विनता ने दो तथा कद्रु ने एक हजार अंडे दिए। कुछ काल के पश्चात कद्रु ने अपने अंडे फोड़े तो उनमे से काले नागों के बच्चे निकल पड़े। कद्रु ने ख़ुशी से चहकते हुए विनता को पुकारा- विनता ! देखो तो मेरे अन्डो से कितने प्यारे बच्चे बाहर निकले है।
 
विनता बोली- “सचमुच बहुत खूबसूरत है कद्रू ! बधाई हो, अब मैं भी अपने दोनों अंडो को फोड़कर देखती हूं।”

यह कहकर विनता अपने दोनों अंडो के पास गई। उसने एक अंडा फोड़ दिया, लेकिन अंडे के अंदर से एक बच्चे का आधा बना शरीर देखकर वह सहम गई। बोली- “हे भगवान ! जल्दीबाजी में मैने ये क्या कर डाला। यह बच्चा तो अभी अपूर्ण है।”

तभी फूटे हुए अंडे के अंदर से बालक बोल पड़ा- “जल्दबाजी में अंडा फोड़कर तुमने बहुत बड़ा अपराध कर डाला है। फलस्वरूप तुम्हे कुछ समय तक दासता करनी होगी।”

विनता बोली- “अपराध तो मुझसे हो ही गया। लेकिन इसका निराकरण कैसे होगा पुत्र ?”

अपूर्ण बालक बोला-“दूसरे अंडे को फोड़ने में जल्दबाजी मत करना। यदि तुमने ऐसा किया तो जीवन भर दासता से मुक्त नहीं हो पाओगी। क्योंकि उसी अंडे से पैदा होने वाला तुम्हारा पुत्र तुम्हे दासता से मुक्ति दिलाएगा।”

इतना कहकर अंडे से उत्पन्न अपूर्ण बालक आकाश में उड़ गया और विनता दूसरे अंडे के पकने तक इंतजार करने लगी। समय पाकर अंडा फूटा और उसमे से एक महान तेजस्वी बालक उत्पन्न हुआ, जिसका नाम गरुड़ रखा गया। गरुड़ दिन-प्रतिदिन बड़ा होने लगा और कद्रू के हजार पुत्रों पर भारी पड़ने लगा। परिणामस्वरूप विनता और कद्रू के संबंध दिन-प्रतिदिन कटु से कटुतर होते गए।

फिर एक दिन जब विनता और कद्रू भृमण कर रही थी। कद्रू ने सागर के किनारे दूर खड़े सफेद घोड़े को देखकर विनता से कहा- “बता सकती हो विनता ! दूर खड़ा वह घोडा किस रंग का है ?”

विनता बोली- “सफेद रंग का।”

कद्रू बोली- “शर्त लगाकर कह सकती हो कि घोडा सफेद रंग का ही है। मुझे तो इसकी पूंछ काले रंग की नजर आ रही है।”

विनता बोली- “तुम्हारा विचार गलत है। घोडा पूंछ समेत सफेद रंग का है।”

दोनों में काफी देर तक यही बहस छिड़ी रही। आखिर में कद्रू ने कहा- “तो फिर हम दोनों में शर्त हो गई। कल घोड़े को चलकर देखते है। यदि वह सम्पूर्ण सफेद रंग का हुआ तो मैं हारी, और यदि उसकी पूंछ काली निकली तो मैं जीत जाऊंगी। उस हालत में जो भी हम दोनों में से जीतेगी, तो हारने वाली को जितने वाली की दासी बनना पड़ेगा। बोलो तुम्हे मंजूर है ?”

विनता बोली- “मुझे मंजूर है।”

रात को ही कद्रू ने अपने सर्प पुत्रों को बुलाकर कहा- “आज रात को तुम सब उच्चेः श्रवा घोड़े की पूंछ से जाकर लिपट जाना। ताकि सुबह जब विनता देखे तो उसे घोड़े की पूंछ काली नजर आए।”

योजनानुसार नाग उच्चेः श्रवा घोड़े की पूंछ से जाकर लिपट गए। परिणामस्वरूप सुबह जब कद्रू ने विनता को घोड़े की पूंछ काले रंग की दिखाई तो वह हैरान रह गई। बोली- “ऐसा कैसे हो गया। कल तो इसकी पूंछ बिलकुल सफेद थी।”

कद्रू बोली- “खूब तसल्ली से देख लो। घोड़े की पूंछ आरम्भ से ही काली है। शर्त के मुताबित तुम हार चुकी हो। इसलिए अब तुम्हे मेरी दासी बनकर रहना पड़ेगा।”

विवशतापूर्वक विनता को कद्रू की दासता स्वीकार करनी पड़ी। माता को उदास देखकर गरुड़ ने पूछा- “क्या ऐसा कोई उपाय नहीं है जिससे आप कद्रू की दासता से मुक्त हो जाए ?”

विनता बोली- “यह तो कद्रू से ही पूछना पड़ेगा। यदि वह प्रसन्न हो जाती है तो मुझे दासता से मुक्त कर देगी।”

गरुड़ अपनी माता विनता को लेकर कद्रू के पास पहुंचा और कहा- “क्या ऐसा नहीं हो सकता कि आप मेरी माता को अपनी दासता से मुक्त कर दे।”

कद्रू बोली- “हो सकता है। बशर्ते कि तुम मेरे पुत्रों को अमृत लाकर दे दो।”

यह सुनकर गरुड़ सोच में पड़ गया। उसने अपनी माता से पूछा- “माँ ! अमृत कहा मिलेगा जिसे लेकर मैं तुम्हे दासी जीवन से मुक्त कर संकू।”

विनता ने कहा- “अमृत का पता तुम्हारे पिता बता सकते है पुत्र ! तुम उन्हीं के पास जाकर पूछो।”

गरुड़ महर्षि कश्यप के पास पहुंचा। कश्यप अपने पुत्र को देखकर बहुत प्रसन्न हुए। गरुड़ ने उनसे पूछा- “पिताश्री ! मैं अमृत लेकर अपनी माता को दासता से मुक्ति दिलाना चाहता हूं। कृपया मुझे बताइये कि अमृत कहा मिलेगा।”

महर्षि बोले- “पुत्र ! देवराज इंद्र ने अमृत की सुरक्षा के लिए बहुत व्यापक प्रबंध कर रखा है। वहां तक पहुचना कठिन है।”

गरुड़ बोला- “इंद्र ने कितनी ही कड़ी सुरक्षा प्रबंध क्यों न कर रखे हो। मगर मैं अमृत ले आऊंगा। आप मुझे सिर्फ उस स्थान का पता बता दीजिये।”

महर्षि कश्यप ने गरुड़ को इंद्र का पता बता दिया। गरुड़ ने फिर पूछा- “पिताजी ! मुझे भूख बहुत लगती है। कृपया मुझे यह भी बता दीजिये कि इस लम्बे मार्ग में क्या खाकर अपना पेट भरु।”

महर्षि बोले- “अमृत जिस स्थान पर रखा है उस सरोवर तक पहुंचने में तुम्हे वक्त लग जाएगा। इस बीच समुद्र के किनारे तुम्हे निषादों की अनेक बस्तिया मिलेगी। ये निषाद बहुत पतित है और इनके आचरण असुरो जैसे है। तुम इन्हे खाकर अपनी भूख मिटा लेना।”

गरुड़ बोला- “और उसके बाद भी मेरा पेट न भरा तो ?”

महर्षि बोले- “सरोवर के अंदर एक विशाल कछुआ रहता है और उसके साथ ही वन में एक महा भयंकर हाथी भी रहता है। दोनों ही बहुत क्रूर और आसुरी प्रवृति के है। तुम उन्हें भी खा सकते हो।”

पिता का आदेश पाते ही गरुड़ अमृत सरोवर की ओर बढ़ चला। मार्ग में उसने निषादों को खाकर अपनी भूख मिटाई। फिर अमृत सरोवर पर पहुंचकर कच्छप और हाथी को अपने पंजो में दबाया और दोनों को खाने के लिए किसी उचित जगह की तलाश में उड़ चला।”

सोमगिरि पर्वत पर लहलहाते ऊंचे वृक्षों को देखकर जैसे ही उसने एक वृक्ष पर बैठना चाहा तो उनके भार से वृक्ष की शाखा टूटकर नीचे गिरने लगी। यह देख गरुड़ तुरंत उड़ा और दूसरे वृक्ष पर जा बैठा। जिस शाखा पर वह बैठा उस शाखा पर उसने उलटे लटके कुछ ऋषियों को तपस्या करते देखा। लेकिन वह शाखा उनके भार से टूटकर नीचे गिरने लगी। यह देख गरुड़ ने शाखा को चोंच में दबाया और हाथी तथा कच्छप को पंजे में दबाए हुए वह अपने पिता के आश्रम की ओर उड चला।

कश्यप के आश्रम में गरुड़ ने उड़ते-उड़ते अपने पिता से पूछा- “पिताजी ! मेरे भार से उस पेड़ की शाखा टूट गई है जिस पर कुछ ऋषि उलटे लटके तपस्या कर रहे थे। मुझे बताइये अब मैं इस शाखा को कहां छोडूं ?”

महर्षि कश्यप बोले- “तुमने बहुत अच्छा किया पुत्र ! जो सीधे यहां चले आए। शाखा, से उलटे लटके हुए ये बालखिल्य ऋषिगण है। अगर इन्हे कष्ट पहुंचा तो ये शाप देकर तुम्हे भस्म कर देंगे।”

गरुड़ बोले- “तो फिर बताइये अब मैं क्या करूं ?”

महर्षि बोले- “ठहरो, मैं ऋषिगण से प्रार्थना करता हूं कि वे अपना स्थान छोड़कर नीचे आ जाए।”

महर्षि कश्यप ने ऋषि गणो से प्रार्थना की। बालखिल्य ऋषियों ने कश्यप की प्रार्थना स्वीकार कर शाखा छोड़ दी और वे हिमालय में तपस्या करने चले गए। चोंच में दबी शाखा को नीचे फेंककर गरुड़ ने भी आनंद से कछुए और हाथी का आहार किया और तृप्त होकर पुनः अमृत लाने के लिए उड़ चला। गरुड़ अमृत सरोवर के पास पहुंचा तो अमृत की रक्षा करते हुए महाकाय देवो और अमृत कलश के चारो ओर घूमते हुए चक्र को देखकर वह हैरान हो गया। उसने सोचा कि ये देव और चक्र देवराज इंद्र ने अमृत कलश की सुरक्षा के लिए लगाए हुए है। चक्र में फंसकर मेरे पंख कट सकते है। इसलिए मैं अत्यंत छोटा रूप धारण कर इसके मध्य में प्रवेश करूंगा।

गरुड़ को देखकर एक देव ने कहा- “यह कोई असुर है जो वेश बदलकर अमृत चुकाने यहां तक पहुंचा है। हमे इसे खत्म कर देना चाहिए।”

दोनों देव विद्युत गति से गरुड़ पर टूट पड़े। लेकिन गरुड़ ने अपने पैने पंजो और तीखी चोंच से इन्हे इतना घायल कर दिया कि शीघ्र ही वे दोनों बेहोश होकर गिर पड़े। गरुड़ ने अमृत कलश पंजो में दबाया और वापस उड़ गया।

होश में आते ही दोनों रक्षक देव घबराए हुए इंद्र के पास पहुंचे और गरुड़ द्वारा अमृत कलश ले उड़ने की घटना बता दी।

यह सुनके इंद्र चकित होकर बोला- “ऐसा कैसे हो गया। सरोवर में रहने वाले विशाल कच्छप और तट पर रहने वाले महाकाय हाथी का क्या हुआ ?”

“उन दोनों को भी उस विशाल गरुड़ ने अपना भोजन बना लिया।”

यह सुनकर इंद्र अपनी देव सेवा की एक टुकड़ी के साथ वज्र उठाए इन्द्रपुरी से निकला और गरुड़ की खोज में बढ़ चला। आकाश मार्ग में उड़ते हुए शीघ्र ही उसने गरुड़ को देख लिया और अपना वज्र चला दिया। इंद्र के वज्र का गरुड़ पर कोई असर न हुआ। उसके डैनों से सिर्फ एक पंख वज्र से टकराकर नीचे आ गिरा। देव गरुड़ पर टूट पड़े लेकिन कुछ ही समय में गरुड़ ने उन्हें अपनी पैनी चोंच की मार से अधमरा कर दिया।

यह देख इंद्र सोचने लगा- “यह तो महान पराक्रमी है। मेरे वज्र का इस पर जरा भी असर नहीं हुआ। जबकि मेरे वज्र के प्रहार से पहाड़ तक टूट के चूर्ण बन जाते है। ऐसे पराक्रमी को शत्रुता से नहीं मित्रता से काबू में करना चाहिए।” यह सोचकर इंद्र ने गरुड़ से कहा- “पक्षीराज ! मैं तुम्हारी वीरता से बहुत प्रभावित हुआ हूं। इस अमृत कलश को मुझे सौंप दो और बदले में जो भी वर मांगना चाहते हो मांग लो।”

गरुड़ बोला- “यह अमृत मैं अपने लिए नही, अपनी माता को दासता से मुक्त कराने के लिए नाग माता को देने के लिए ले जा रहा हूं। इसलिए यह कलश मैं तुम्हे नहीं दूंगा।”

इंद्र बोला- “ठीक है, इस समय तुम कलश ले जाकर नाग माता को सौंप दो किन्तु उन्हें इसे प्रयोग मत करने देना। उचित मौका देखकर मैं वहां से यह कलश गायब कर दूंगा।”

गरुड़ बोला- “अगर मैं तुम्हारी बात को मान लूं तो मुझे बदले में क्या मिलेगा ?”

इंद्र बोला- “तुम्हारा मनपसंद भरपेट भोजन। तब मैं तुम्हे इन्ही नागो को खाने की इजाजत दे दूंगा।”

गरुड़ बोला- “यही तो मैं चाहता हूं। नाग मेरे स्वादिष्ट भोजन है किन्तु एक ही पिता की संतान होने के कारण मैं इन्हे कहते हुए हिचकता हूं। अब मेरी हिचक दूर हो गई। अब मैं आपके कथानुसार ही कार्य करूंगा।”

यह कहकर गरुड़ अमृत कलश लेकर कद्रु के पास पहुंचा और उससे बोला- “माते ! अपनी प्रतिज्ञानुसार मैं अमृत कलश ले आया हूं। अब आप अपने वचन से मेरी माता को मुक्त कर दे।”

कद्रु ने उसी क्षण विनता को वचन से मुक्त कर दिया और अगली सुबह अमृत नागो को पिलाने का निश्चय कर वहां से चली गई। रात को उचित मौका देखकर इंद्र ने अमृत कलश उठा लिया और पुनः उसी स्थान पर पहुंचा दिया।

दूसरे दिन सुबह नाग जब वहां पहुंचे तो अमृत कलश गायब देखकर दुखी हुए। उन्होंने उस कुशा को ही जिस पर अमृत कलश रखा था चाटना आरम्भ कर दिया जिसके कारण उनकी जीभ दो हिस्सों में फट गई।

गरुड़ की मातृभक्ति से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु गरुड़ के सम्मुख प्रकट हो गए और बोले- “मैं तुम्हारी मातृभक्ति देखकर बहुत प्रसन्न हूं पक्षीराज ! मैं चाहता हूं कि अब से तुम मेरे वाहन के रूप में मेरे साथ रहा करो।”

गरुड़ बोला- “मैं बहुत भाग्यशाली हूं प्रभु जो स्वयं आपने मुझे अपना वाहन बनाना स्वीकार किया। आज से मैं हर क्षण आपकी सेवा में रहूंगा और आपको छोड़कर कही नहीं जाऊंगा।”

इस तरह उसी दिन से पक्षीराज गरुड़ भगवान विष्णु के वाहन के रूप में प्रयुक्त होने लगे। गरुड़ के भगवान विष्णु की सेवा में जाते ही देवता भयमुक्त हो गए।

राजा जनमेजय का नाग यज्ञ!!!!!

राजा जनमेजय का नाग यज्ञ!!!!!
जनमेजय अर्जुन के पौत्र राजा परीक्षित के पुत्र थे। जनमेजय की पत्नी वपुष्टमा थी, जो काशीराज की पुत्री थी। बड़े होने पर जब जनमेजय ने पिता परीक्षित की मृत्यु का कारण सर्पदंश जाना तो उसने तक्षक से बदला लेने का उपाय सोचा। जनमेजय ने सर्पों के संहार के लिए सर्पसत्र नामक महान यज्ञ का आयोजन किया। नागों को इस यज्ञ में भस्म होने का शाप उनकी मां कद्रू ने दिया था।

 नागगण अत्यंत त्रस्त थे। समुद्र मंथन में रस्सी के रूप में काम करने के उपरान्त वासुकी ने सुअवसर पाकर अपने त्रास की गाथा ब्रह्मा से कही। उन्होंने कहा कि ऋषि जरत्कारू का पुत्र धर्मात्मा आस्तीक सर्पों की रक्षा करेगा, दुरात्मा सर्पों का नाश उस यज्ञ में अवश्यंभावी है। अत: वासुकि ने एलायत्र नामक नाग की प्रेरणा से अपनी वहन जरत्कारू का विवाह ब्राह्मण जरत्कारू से कर दिया था। उनके पुत्र का नाम 'आस्तीक' रखा गया।

ब्राह्मण काल के अंत में उत्पन्न कुरु वंश के राजा जनमेजय को अनेक अश्वों का स्वामी बताया गया है। आसंदीवत्र उसकी राजधानी थी। पापमुक्त होने के लिए उसके पौत्रों ने अश्वमेध यज्ञ किया था। शौनक ऋषि इस यज्ञ के पुरोहित थे।

वैदिक साहित्य में अनेक जनमेजयों का उल्लेख मिलता है। इनमें प्रमुख जनमेजय कुरु वंश का राजा था। महाभारत युद्ध में अर्जुनपुत्र अभिमन्यु जिस समय मारा गया, उसकी पत्नी उत्तरा गर्भवती थी। उसके गर्भ में राजा परीक्षित का जन्म हुआ जो युद्ध के बाद हस्तिनापुर की गद्दी पर बैठा। जनमेजय इसी परीक्षित का पुत्र था।

 उपलब्ध विवरण के अनुसार एक बार परीक्षित ने शिकार खेलते समय एक मौन ध्यानस्थ ऋषि शमीक से पानी मांगा। मौन साधना के कारण कोई उत्तर न पाकर क्रुद्ध राजा ने उन्हें ढोंगी समझा और एक मरा हुआ सर्प उनके गले में डाल दिया। ऋषि शमीक के पुत्र श्रृंगी ऋषि को इसका पता चला तो उसने शाप दे दिया जिससे सातवें दिन तक्षक सर्प के काटने से राजा परीक्षित की मृत्यु हो गई। इसी का बदला लेने के लिए जनमेजय ने पहले तक्षशिला को जीता, फिर नाग-यज्ञ किया जिसमें सर्प यज्ञकुंड में पड़ कर मरने लगे।

राजा परिक्षित् एक बार शिकार खेलने जाकर एक ऋषि का अपराध कर बैठे। इसके फल-स्वरूप उन्हें साँप से डसे जाकर मरने का शाप मिला। शाप का हाल सुनकर काश्यप नामक एक सर्प-विष-चिकित्सक (ओझा) राजा से मिलने को चला। उसने सोचा कि राजा को साँप के डँसते ही, मैं मंत्र और ओषधि के द्वारा चंगा करके मालामाल हो जाऊँगा। 

रास्ते में उससे तक्षक की भेंट हो गई। उसने ओझा के मंत्र की परीक्षा की और उसे ठीक पाया। तब उसने काश्यप से कहा कि राजा का विष उतारने के झगड़े में तुम क्यों पड़ते हो। तुम्हें सम्पदा चाहिए सो मैं यहीं दिये देता हूँ। तक्षक ने बहुत-सी सम्पत्ति देकर काश्यप को लौटा दिया और जाकर राजा को डँस लिया।

जनमेजय को ऋषि के शाप से किसी प्रकार की कुढ़न न थी। उन्हें दुख इस बात का था कि दुष्ट तक्षक ने काश्यप को रास्ते से ही क्यों लौटा दिया। उसके इस अपराध से चिढ़कर जनमेजय ने सारी सर्पजाति को नष्ट कर देने के लिए सर्पयज्ञ अनुष्ठान ठान दिया। अब क्या था, लगातार सर्प आ-आकर हवन-कुण्ड में गिरने लगे। अपराधी तक्षक डर के मारे इन्द्र की शरण में पहुँचा। अंत में अपनी रक्षा न देख इन्द्र ने भी उसका साथ छोड़ दिया।

 इधर वासुकी ने जब अपने भानजे, जरत्कारु मुनि के पुत्र, आस्तीक से नाना के वंश की रक्षा करने का अनुरोध किया तब वे जनमेजय के यज्ञस्थल में जाकर यज्ञ की बेहद प्रशंसा करने लगे। इससे प्रसन्न होकर राजा ने उनको मुँहमाँगी वस्तु देने का वचन दिया। इस पर आस्तीक ने प्रार्थना की कि अब आप इस यज्ञ को यहीं समाप्त कर दें। ऐसा होने पर सर्पों की रक्षा हुई। राजा जनमेजय की रानी का नाम वसुष्टमा था। यह काशिराज सुवर्णवर्मा की राजकुमारी थी।

वास्तव में अपराधी तक्षक नाग था, उसी को दण्ड देना राजा जनमेजय का कर्तव्य था। किंतु क्रोध में आकर उन्होंने सारी सर्पजाति को नष्ट कर देने का बीड़ा उठाया जो अनुचित था। एक के अपराध के लिए बहुतों को दण्ड देना ठीक नहीं। जिसने अपराध किया था और जिस दण्ड देने के लिए इतनी तैयारियाँ की गई थीं वह तक्षक अंत में बेदाग़ बच गया। यह आश्चर्य की बात है।

जनमेजय ने सर्पसत्र प्रारंभ किया। अनेक सर्प आह्वान करने पर अग्नि में गिरने प्रारंभ हो गये, तब भयभीत तक्षक ने इन्द्र की शरण ग्रहण की। वह इन्द्रपुरी में रहने लगा। वासुकि की प्रेरणा से आस्तीक परीक्षित के यज्ञस्थल भी पहुंचा तथा भांति-भांति से यजमान तथा ऋत्विजों की स्तुति करने लगा। उधर ऋत्विजों ने तक्षक का नाम लेकर आहुति डालनी प्रारंभ की। इन्द्र तक्षक को अपने उत्तरीय में छिपाकर वहां तक आये। 

यज्ञ का विराट रूप देखकर वे तक्षक को अकेला छोड़कर अपने महल में चले गये। विद्वान ब्राह्मण बालक, आस्तीक, से प्रसन्न होकर जनमेजय ने उसे एक वरदान देने की इच्छा प्रकट की तो उसने यज्ञ की तुरंत समाप्ति का वर मांगा, अत: तक्षक बच गया क्योंकि उसने अभी अग्नि में प्रवेश नहीं किया था। नागों ने प्रसन्न होकर आस्तीक को वर दिया कि जो भी इस कथा का स्मरण करेगा- सर्प कभी भी उसका दंशन नहीं करेंगे।

जनमेजय को अनजाने में ही ब्रह्म-हत्या का दोष लग गया था। उसका सभी ने तिरस्कार किया। वह राज्य छोड़कर वन में चला गया। वहां उसका साक्षात्कार इन्द्रोत मुनि से हुआ। उन्होंने भी उसे बहुत फटकारा। जनमेजय ने अत्यंत शांत रहते हुए विनीत भाव से उनसे पूछा कि अनजाने में किये उसके पाप का निराकरण क्या हो सकता है तथा उसे सभी ने वंश सहित नष्ट हो जाने के लिए कहा है, उसका निराकरण कैसे होगा? इन्द्रोत मुनि ने शांत होकर उसे शांतिपूर्वक प्रायश्चित्त करने के लिए कहा। उसे ब्राह्मणों की सेवा तथा अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान करने के लिए कहा। जनमेजय ने वैसा ही किया तथा निष्पाप, परम् उज्ज्वल हो गया। 

परीक्षित-पुत्र जनमेजय सुयोग्य शासक था। बड़े होने पर उसे उत्तंक मुनि से ज्ञात हुआ कि तक्षक ने किस प्रकार परीक्षित को मारा था जिस प्रकार रूरू ने अपनी भावी पत्नी को आधी आयु दी थी वैसे परीक्षित को भी बचाया जा सकता था। मन्त्रवेत्ताकश्यप कर्पंदंशन का निराकरण कर सकते थे पर तक्षक ने राजा को बचाने जाते हुए मुनि को रोककर उनका परिचय पूछा। उनके जाने का निमित्त जानकर तक्षक ने अपना परिचय देकर उन्हें परीक्षा देने के लिए कहा। तक्षक ने न्यग्रोध (बड़) के वृक्ष को डंस लिया।

 कश्यप ने जल छिड़ककर वृक्ष को पुन: हरा-भरा कर दिया। तक्षक ने कश्यप को पर्याप्त धन दिया तथा जाने का अनुरोध किया। कश्यप ने योगबल से जाना कि राजा की आयु समाप्त हो चुकी है, अत: वे धन लेकर लौट गये। यह सब जानकर जनमेजय क्रुद्ध हो उठा तथा उत्तंक की प्रेरणा से उसने सर्पसत्र नामक यज्ञ किया जिससे समस्त सर्पों का नाश करने की योजना थी। 

तक्षक इन्द्र की शरण में गया। उत्तंक ने इन्द्र सहित तक्षक का आवाहन किया। जरत्कारू के धर्मात्मा पुत्र आस्तीक ने राजा का सत्कार ग्रहण कर मनवांक्षित फल मांगा, फलत: राजा को सर्पसत्र नामक यज्ञ को समाप्त करना पड़ा। राजा ने उसे तो संतुष्ट किया किंतु स्वयं अशांत चित्त हो गया। व्यास से उसने समस्त महाभारत सुनी तथा जाना कि आस्तीक ने सर्पों की रक्षा क्यों की।

आजमगढ़ के अविन्तिकापुरी का ऐतिहासिक महत्व है, जो हजारों साल पूर्व का है। यह एक बड़ा तीर्थ स्थल है, जहां सर्प विनाश के लिए त्रेता युग में राजा जनमेजय ने यज्ञ किया था। इस क्षेत्र में किसी को सर्प नही काटता है, यदि किसी को काट लिया तो वह व्यक्ति यदि इस सरोवर में स्नान कर लेता है तो उसे विष नही चढ़ता है। यही नही यदि कोई विषैला सर्प रास्ते में आते-जाते किसी व्यक्ति को मिल जाता है तो वह सिर्फ राजा जनमेजय का नाम ले लेता है तो वह विषैला सर्प रास्ता बदल देता है। 

इसी लिए लोग यहां साल में एक बार आकर सरोवर में स्नान कर लेते है जिससे उनका पूरा साल हर प्रकार के दुखों से दूर रहता है। जानकार बताते है कि सभी तीर्थ करने के पहले यहां का तीर्थ करना जरूरी होता है और लोग साल में एक बार यहां जरूर आते है। यहां का सरोवर 84 बीघे में फैला हुआ है. पूर्वकाल में यह यज्ञ स्थल था, जिसमें राजा जनमेजय ने सर्प विनाश के लिए एक विशाल यज्ञ कराया था। 

यहां पर आते ही शांति की अनुभूति होती है और कुछ नया करने की ललक महसूस होती है। यहां कार्तिक पूर्णिमा को मेला लगता है, जिसमें हजारों श्रद्धालु पूरे देश से आते है। यह टीला जिस पर मंदिर स्थापित है पूर्वकाल में यह राजा जनमेजय का किला था, जो धीरे-धीरे टीले का रूप धारण कर लिया है. इस टीले के चारों तरफ घनघोर जंगल है। इस सरोवर में स्नान करने से चर्म सम्बन्धी रोग दूर होता है।जब महाराजा जनमेजय ने यज्ञ की अंतिम आहूति दी तो वह सर्प भी इन्द्र के साथ यज्ञ कुण्ड के पास आ गया।

अपने पुत्र का प्राण जाता देख उसकी माता जरत्कारू ने यज्ञकर्ताओं से निवेदन किया कि अब मेरे पुत्रों में से यह तक्षक (सर्प) ही अकेले बचा है इसका विनाश न किया जाए। यज्ञकर्ताओं ने कहा कि तक्षक यह वचन दे कि भविष्य में राजा जनमेजय का नाम सुनते ही यह किसी व्यक्ति या जीव को न काटे और यदि भूलवश किसी को काट भी ले तो उसे न विष का असर होगा और न उसकी मृत्यु होगी। 

प्राण जाता देख तक्षक ने राजा जनमेजय को यह वचन दिया कि जो भी व्यक्ति जनमेजय का नाम लेगा उन्हें देख सर्प मार्ग बदल देंगे और किन्ही भी स्थितियों में उन्हें नही काटेंगे, यदि काट भी लिया तो सरोवर में स्नान करने पर विष का असर उस पर नही होगा। 

सर्प द्वारा यह वचन देते ही राजा ने तक्षक को मुक्त कर दिया। प्रत्येक साल सावन मास के पूर्णमासी के दिन यहां विशाल मेला लगता है. लोग यहां देवी-देवताओं का दर्शन व पूजा-पाठ करते है। यहां 84 बीघे में राजा जनमेजय का यज्ञ कुण्ड था जो अब सरोवर का रूप ले चुका है । यह विश्व के प्राचीनतम स्थलों में से है।

सर्पभय और सर्पविष से मुक्ति देने वाली देवी मनसा की कथा !!!!!

सर्पभय और सर्पविष से मुक्ति देने वाली देवी मनसा की कथा !!!!!
प्राचीनकाल में जब सृष्टि में नागों का भय हो गया तो उस समय नागों से रक्षा करने के लिए ब्रह्माजी ने अपने मन से एक देवी का प्राकट्य किया । मन से प्रकट होने के कारण ये ‘मनसा देवी’ के नाम से जानी जाती हैं । देवी मनसा दिव्य योगशक्ति से सम्पन्न होने के कारण कुमारावस्था में ही भगवान शंकर के धाम कैलास पहुंच गईं और वहां गहन तप किया । इससे प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने उन्हें सामवेद का अध्ययन कराया और ‘मृतसंजीवनी विद्या’ प्रदान की इसीलिए देवी मनसा को ‘मृतसंजीवनी’ और ‘ब्रह्मज्ञानयुता’ कहते हैं । 

भगवान शंकर ने देवी मनसा को भगवान श्रीकृष्ण के अष्टाक्षर (18 अक्षर का) मन्त्र—‘ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं कृष्णाय नम:’ का भी उपदेश किया साथ ही वैष्णवी दीक्षा दी । भगवान शिव से शिक्षा प्राप्त करने के कारण ये शिव की शिष्या हुईं इसलिए ये ‘शैवी’ कहलाती हैं । इन्होंने भगवान शिव से सिद्धयोग प्राप्त किया था, इसलिए वे ‘सिद्धयोगिनी’ के नाम से भी जानी जाती हैं । 

इसके बाद देवी मनसा ने तीन युगों तक पुष्कर में तप करके परमात्मा श्रीकृष्ण का दर्शन प्राप्त किया । उस समय गोपीपति भगवान श्रीकृष्ण ने उनके  वस्त्र और शरीर को जीर्ण देखकर उनका नाम ‘जरत्कारु’ रख दिया । स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने उनकी पूजा कर उन्हें संसार में पूजित होने का वर प्रदान किया । फिर देवताओं ने भी इनकी पूजा की । तब से देवी मनसा की ब्रह्मलोक, स्वर्गलोक, पृथ्वीलोक और नागलोक में पूजा होने लगी और ये ‘विश्वपूजिता’ कहलाईं ।
देवी मनसा अत्यन्त गौरवर्ण, सुन्दरी व मनोहारिणी हैं । अत: ये ‘जगद्गौरी’ के नाम से भी पूजी जाती हैं । ये भगवान विष्णु की भक्ति में संलग्न रहती हैं और मन से परमब्रह्म परमात्मा का ध्यान करती हैं इसलिए ‘वैष्णवी’ कहलाती हैं । यही कारण है कि इनकी आराधना से भगवान विष्णु की कृपा भी प्राप्त हो जाती है ।

भगवान श्रीकृष्ण से वर और सिद्धि प्राप्त कर ये कश्यप ऋषि के पास चली आईं । देवी मनसा कश्यप ऋषि की मानसी कन्या हैं । कश्यप ऋषि ने देवी मनसा का विवाह श्रीकृष्ण के अंशरूप महर्षि जरत्कारु के साथ कर दिया । महर्षि जरत्कारु की पत्नी होने के कारण इन्हें ‘जरत्कारुप्रिया’ भी कहते हैं । महर्षि जरत्कारु से इन्हें ‘आस्तीक’ नाम का पुत्र हुआ । वे आस्तीक मुनि की माता हैं इसलिए ‘आस्तीकमाता’ के नाम से प्रसिद्ध हैं । भगवान शंकर ने आस्तीक को ‘मृत्युंजय विद्या’ की दीक्षा दी थी । 

देवी मनसा के नाम-स्मरण से सर्पभय और सर्पविष से मिलती है मुक्ति
श्रृंगी मुनि ने राजा परीक्षित को शाप दिया कि ‘एक सप्ताह के बीतते तक्षक सर्प उन्हें काट लेगा ।’ शाप के अनुसार तक्षक ने राजा परीक्षित को डस भी लिया । पिता की ऐसी मृत्यु देखकर परीक्षित के पुत्र जनमेजय को सर्पों पर बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने नागवंश को समाप्त कर देने के लिए सर्पयज्ञ का अनुष्ठान शुरु कर दिया । ब्राह्मणों की मन्त्र शक्ति के प्रभाव से प्रत्येक आहुति पर सैंकड़ों सर्प यज्ञकुण्ड में खिंचे चले आते और भस्म हो जाते । इससे डरकर तक्षक इन्द्र की शरण में चला गया । तब ब्राह्मणों ने इन्द्र सहित तक्षक की यज्ञ में आहुति देने का विचार किया ।

इससे भयभीत होकर इन्द्र देवी मनसा की शरण में जाकर अपनी रक्षा की प्रार्थना करने लगे । तब देवी मनसा में अपने पुत्र आस्तीक मुनि को राजा जनमेजय के पास भेजा । आस्तीक मुनि के प्रयत्न से राजा जनमेजय ने सर्पयज्ञ समाप्त करवा दिया । इस प्रकार देवी मनसा और आस्तीक मुनि के कारण नागवंश की रक्षा हुई अत: वे ‘नागेश्वरी’ व ‘नागमाता’ के नाम से भी जानी जाती हैं । तभी से नाग देवी मनसा की विशेष पूजा करने लगे और नागराज शेष ने उन्हें अपनी बहिन बना लिया इसलिए इन्हें ‘नागभगिनी’ कहते हैं ।  नाग ही इनके वाहन और शय्या बन गये । देवी मनसा सर्पविष का हरण करने में समर्थ हैं इसलिए ‘विषहरी’ कहलाती हैं ।

देवी मनसा के बारह नाम का स्तोत्र
जरत्कारु जगद्गौरी मनसा सिद्धयोगिनी ।
वैष्णवी नागभगिनी शैवी नागेश्वरी तथा ।।
जरत्कारुप्रिया आस्तीकमाता, विषहरीति च ।
महाज्ञानयुता चैव सा देवी विश्वपूजिता ।।
द्वादशैतानि नामानि पूजाकाले तु य: पठेत् ।
तस्य नागभयं नास्ति तस्य वंशोद्भवस्य च ।। (ब्रह्मवैवर्तपुराण, प्रकृतिखण्ड ४५।१५-१७)
स्तोत्र पाठ का फल!!!!!

जरत्कारु, जगद्गौरी, मनसा, सिद्धयोगिनी, वैष्णवी, नागभगिनी, शैवी, नागेश्वरी, जरत्कारुप्रिया, आस्तीकमाता, विषहरा और महाज्ञानयुता—जो मनुष्य देवी मनसा के इन बारह नामों का पाठ पूजा के समय करता है, उसे तथा उसके वंशजों को नागों/सर्पों का भय नहीं रहता।

जिस भवन, घर या स्थान पर सर्प रहते हों वहां इस स्तोत्र का पाठ करने से मनुष्य सर्पभय से मुक्त हो जाता है।

जो मनुष्य इस स्तोत्र को नित्य पढ़ता है उसे देखकर नाग भाग जाते हैं।

दस लाख पाठ करने से यह स्तोत्र सिद्ध हो जाता है । जिस मनुष्य को यह स्तोत्र सिद्ध हो जाता है उस पर विष का कोई प्रभाव नहीं पड़ता और वह नागों को आभूषण बनाकर धारण कर सकता है ।

अत्यन्त करुणा और दयामयी देवी मनसा को भक्त बहुत प्रिय हैं। आराधना करने पर वह मनुष्य को सभी प्रकार के अभ्युदय प्रदान कर देती हैं।

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