#ऋषिपंचमीव्रतकथा 🌷
भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी
के व्रत को
ऋषि पंचमी व्रत कहते हैं।
युधिष्ठिर ने प्रश्न किया हे देवेश ! मेने आपके श्रीमुख से अनेकों व्रतों को श्रवण किया है। अब आप कृपा करके पापों को नष्ट करने वाला कोई उत्तम व्रत सुनावें। राजा के इन वचनों को सुनकर श्रीकृष्णजी बोले -- हे राजेन्द्र ! अब मैं तुमको ऋषि पंचमी का उत्तम व्रत सुनता हूँ, जिसको धारण करने से स्त्री समस्त पापों से मुक्ति प्राप्त कर लेती है। हे नरोत्तम, पूर्वसमय में वृत्रासुर का वध करने के कारण इन्द्र को ब्रह्महत्या का महान् पाप लगा था। तब ब्रह्माजी ने कृपा करके इन्द्र के उस पाप को चार स्थानों पर बांट दिया। पहला अग्नि की ज्वाला में, दूसरा नदियों के बरसाती जल में, तीसरा पर्वतों में और चौथा स्त्री के रज में। उस रजस्वला धर्म में जाने-अनजाने उससे जो भी पाप हो जाते हैं उनकी शुद्धि के लिए ऋषि पंचमी का व्रत करना उत्तम है।
यह व्रत समान रूप से चारों वर्णों की स्त्रियों को करना चाहिए। इसी विषय में एक प्राचीन कथा का वर्णन करता हूँ।
सतयुग में विदर्भ देश में स्येनजित नामक राजा हुए। वे प्रजा का पुत्रवत पालन करते थे। उनके आचरण ऋषि के समान थे। उनके राज्य में समस्त वेदों का ज्ञाता समस्त जीवों का उपकार करने वाला सुमित्र नामक एक कृषक ब्राह्मण निवास करता था। उनकी स्त्री जयश्री पतिव्रता थी।ब्राह्मण के अनेक नौकर-चाकर भी थे। एक समय वर्षाकाल में जब वह साध्वी खेती के कामों में लगी हुई थी तब वह रजस्वला भी हो गई। हे राजन् ! उसे अपने रजस्वला होने का भास हो गया किन्तु फिर भी वह घर गृहस्थी के कार्यों में लगी रही। कुछ समय पश्चात् वे दोनों स्त्री-पुरुष अपनी-अपनी आयु भोग कर मृत्यु को प्राप्त हुए। जयश्री अपने ऋतु दोष के कारण कुतिया बनी और सुमित्र को रजस्वला स्त्री के सम्पर्क में रहने के कारण बैल की योनि प्राप्त हुई।क्योंकि ऋतु दोष के अतिरिक्त इन दोनों का और कोई अपराध नहीं था इस कारण इन दोनों को अपने पूर्वजन्म का समस्त विवरण ज्ञात रहा। वे दोनों कुतिया और बैल के रूप में रहकर अपने पुत्र सुमित के यहाँ पलने लगे। सुमित धर्मात्मा था और अतिथियों का पूर्ण सत्कार किया करता था। अपने पिता के श्राद्ध के दिन उसने अपने घर ब्राह्मणों को जिमाने के लिए नाना प्रकार की भोजन सामग्री बनवाई। उसकी स्त्री किसी काम से बाहर गई हुई थी कि एक सर्प ने आकर रसोई के बर्तन में विष वमन कर दिया। सुमित की माँ कुतिया के रूप में बैठी हुई यह सब देख रही थी अतः उसने अपने पुत्र को ब्रह्महत्या के पाप से बचाने कीइच्छा से उस बर्तन को स्पर्श कर लिया। सुमित की पत्नी से कुतिया का यह कृत्य सहा न गया और उसने एक जलती हुई लकड़ी कुतिया के मारी। वह प्रतिदिन रसोई में जो जूठन आदि शेष रहती थी उस कुतिया के सामने डाल दिया करती थी।किन्तु उस दिन क्रोध के कारण वह भी उसने नहीं दी।तब रात्रि के समय भूख से व्याकुल होकर वह कुतिया अपने पूर्व पति के पास आकर बोली -- हे नाथ ! आज मैं भूख से मरी जा रही हूँ। वैसे तो प्रतिदिन मेरा पुत्र खाने को देता था, किन्तु आज उसने कुछ नहीं दियाहैं। मैने सांप के विष वाले खीर के बर्तन को ब्रह्महत्या के भय से छूकर अपवित्र कर दिया था। इस कारण बहू ने मारा और खाने को भी नहीं दिया है।तब बैल ने कहा -- हे भद्रे ! तेरे ही पापों के कारण मैं भी इस योनि में आ पड़ा हूँ। बोझा ढोते-ढोते मेरी कमर टूट गयी है।आज मैं दिन भर खेत जोतता रहा। मेरे पुत्र ने भी आज मुझे भोजन नहीं दिया और ऊपर से मारा भी खूब है। मुझे कष्ट देकर श्राद्ध को व्यर्थ ही किया है। अपने माता-पिता की इन बातों को उनके पुत्र सुमित ने सुन लिया। उसने उसी समय जाकर उनको भर पेट भोजन कराया और उनके दुःख से दुःखी होकर वन में जाकर उसने ऋषियों से पूछा -- हे स्वामी ! मेरे माता-पिता किन कर्मों के कारण इस योनि को प्राप्त हुए, और किस प्रकार उससे मुक्ति पा सकते हैं। सुमित के उन वचनों को श्रवण कर सर्वतपा नामक महर्षि दया करके बोले -- पूर्वजन्म में तुम्हारी माता ने अपने उच्छृंखल स्वभाव के कारण रजस्वला होते हुए भी घर-गृहस्थी की समस्त वस्तुओं को स्पर्श किया था और तुम्हारे पिता ने उसको स्पर्श किया था।इसी कारण वे कुतिया और बैल की योनि को प्राप्त हुए हैं। तुम उनकी मुक्ति के लिए ऋषि पंचमी का व्रत धारण करो।
श्रीकृष्णजी बोले -- हे राजन् ! महर्षि सर्वतपा के वचनों को श्रवण करके सुमित अपने घर आया और ऋषि पंचमी का दिन आने पर उसने अपनी स्त्री सहित उस व्रत को धारण किया और उसके पुण्य को अपने माता-पिता को दे दिया। व्रत के प्रभाव से उसके माता-पिता दोनों ही पशु योनि से मुक्त हो गया और स्वर्ग को चले गए। जो स्त्री इस व्रत को धारण करती है वह समस्त सुखों को पाती है।
🙏 जय श्रीकृष्ण 🙏